हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शायरी कोई भी अच्छी बुरी नहीं होती… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “शायरी कोई भी अच्छी बुरी नहीं होती“)

✍ शायरी कोई भी अच्छी बुरी नहीं होती… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

क़द्र घर  में न किसी भी बशर की होती है

और की नजरों में कीमत हुनर की होती है

फूल माला न गलीचों से  खैर मक़दम हो

भूमिका खास समझ ले नजर की होती है

चोट खाके भी हमें जो अता समर करता

आदमी की नहीं फ़ितरत शज़र की होती है

सात तालों में वो महफ़ूज रखने बंद करे

जिस किसी के लिए कीमत गुहर की होती है

शायरी कोई भी अच्छी बुरी नहीं होती

बात बस उंसके दिलों  पर असर की होती है

जब भी डूबी है कोई नाँव बीच दरिया में

इसमें साज़िश रची अकसर भँवर की होती है

कौन फैला रहा नफरत पड़ोसियों में अरुण

ये शरारत न इधर की उधर की होती है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 87 – प्रमोशन… भाग –5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की अगली कड़ी।

☆ आलेख # 87 – प्रमोशन… भाग –5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अंततः written test की date आ ही गई और इस शाखा से पात्रतानुसार पांच प्रत्याशी उस नगर की ओर रवाना होने के लिये रिलीव हुये जहाँ परीक्षा केंद्र भी था और आंचलिक कार्यालय भी. जाने के लिये बस की सुविधा थी और रेल की भी. बाकी चार तो टैक्सी तय करके मनमुताबिक stoppage और गति के साथ चलने का प्लान बना चुके थे पर मिस्टर 100% इनसे अलग जाने की और रुकने की व्यवस्था कर चुके थे. अतः उन्होंने ये टैक्सी द्वारा जाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया और रेल से प्रस्थान करने का निश्चय भी बतला दिया. दरअसल उनके पिताश्री भारतीय रेलवे विभाग में अधिकारी थे और उन्होंने परीक्षा केंद्र के निकट ही, अपने कार्यालयीन संबंधो का उपयोग कर रेल्वे के अधिकारी विश्राम गृह में रुकने की व्यवस्था भी कर दी थी. उनका सोचना था इस तरह की एकला चलो यात्रा और एकाकी प्रवास निर्विघ्न पढ़ने की भी सुविधा देता है. साथी सब समझ गये और चूंकि इनके “अकेला ही काफी है ” स्वभाव से वाकिफ थे, अतः इनके वहिष्कार से एक बेहतर मनोरंजक यात्रा का लाभ पाया. ये चारों आधुनिक काल के वो बैंकर्स बंधु थे जो मि. 100% का साथ पाने के बजाय, उनसे सुरक्षित दूरी बनाकर रखना ज्यादा पसंद करते थे. मि. 100% शाखा में समझे जाने वाले सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी थे, trainee officer (प्रशिक्षु अधिकारी) का written test पास कर इंटरव्यू दे चुके थे पर रिजल्ट किसी लीगल प्रक्रिया {legally stayed} के कारण अटका हुआ था. चूंकि इस दौरान काफी समय बीत चुका था तो लोग भी और वो भी भूल गये थे कि ऐसा कोई टेस्ट उन्होंने दिया है.

खैर दूसरे दिन सुबह 08:00 पर सभी परीक्षा केंद्र पहुंच गये और जहाँ बाकी लोग अपने मित्रों से मिलने में व्यस्त थे, मि. 100% कैंपस में ही एकांत स्थान चुनकर प्रबल संभावित प्रश्नों के उत्तरों पर आखिरी नजर मारने में लगे रहे. तयशुदा समय पर लिखित परीक्षा प्रारंभ हुई और सबसे अंत में उत्तरपुस्तिका जमा करने वाले यही थे. इसका कारण अनिश्चितता थी या हरेक मिनट का पूरा उपयोग, पता नहीं पर 100% जी का पूरा ध्यान सिर्फ और सिर्फ प्रश्न पत्र पर ही केंद्रित रहा. अगर यात्रा तनावपूर्ण हो तो फिर इस यात्रा में कुछ बहुत अच्छे, रमणीक, रिफ्रेशिंग, प्राकृतिक दृश्य छूट जाते हैं, प्रकृति का स्वभाव निश्चिंतता, उन्मुक्तता और निरंतरता होता है और वही लोग इसका आनंद उठा पाते हैं जो स्वयं “पाने की लालसा” से भयभीत होने तक की उत्कंठा के शिकार नहीं बनते.

परीक्षा केंद्र से शाखा में वापसी भी उसी तरह अलग अलग साधनों से हुई जैसी आने के वक्त अपनाई गई थी. बाकी चार परीक्षार्थी, जहाँ परीक्षा के रिजल्ट से बेपरवाह अपने मित्रों से मुलाकात और यात्रा के अन्य प्रसंगों की चर्चाओं का आनंद ले रहे थे, वहीं मि. 100% ने रिजल्ट के तनाव से गुजरना प्रारंभ कर दिया था. अनावश्यक रूप से टेंशन लेना व्यक्तित्व की बड़ी कमजोरी ही मानी जाती है जो निर्णय और रिस्क लेने की क्षमता को बुरी तरह प्रभावित करती है पर इनका ये खानदानी स्वभाव बदलना मुश्किल था.

 

लौटने पर जैसा कि होता है कि “कैसा रहा पेपर” और इसका स्टेंडर्ड जवाब भी यही होता है कि ठीक रहा. ये ऐतिहासिक सवाल स्कूल से ही लगातार पूछा जाता रहा है और आदिकाल से ही हर परीक्षार्थी यही जवाब देता आया है. अब सब लोग वापस अपने अपने काम में लग गये और रिजल्ट का इंतजार करने लगे. वो ज्यादा कर रहे थे जो इस मैटर में क्रिकेट के समान चुपचाप शर्त लगा कर बैठे थे. कितने होंगे और किसका नहीं होगा, दो बातों पर शर्त लगी थी और मि. 100% पर किसी ने शर्त नहीं लगाई थी क्योंकि सब जानते थे कि इनका तो हो ही जाना है.

Written test के रिजल्ट और आगे की प्रक्रिया को मनोरंजन नामक रैपर में लपेटकर अगले अंक में प्रस्तुत किया जायेगा. बैंकर्स के जीवन में written test बहुत समय तक साथ चलता है. शुक्र है कि रिटायरमेंट और पेंशन पाने की पात्रता के लिये कोई रिटनटेस्ट नहीं होता वरना क्या होता, कल्पना कीजिए.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 203 ☆ पाऊस प्रतिक्षा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 203 ?

 📱 पाऊस प्रतिक्षा 📱 ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

ठरवलं होतं मनाशी,

यंदाच्या पावसात,

भिजायचं तुझ्या समवेत,

करायची पुन्हा एकदा उजळणी

त्या पावसाळी क्षणांची!

तारूण्यातली सारी हिरवाई

आणि पावसाची रिमझिम

दाटून राहिली मनभर…

आणि कितीतरी—

पावसाळी एस.एम.एस. पाठवले तुला!

तुझं प्रत्युत्तर–

“भेटू या ना , यंदाच्या पावसात!”

 

तेव्हापासून मी प्रतिक्षेत,

तुझ्या आणि पावसाच्याही!

तू ही पाठवलेस एस.एम. एस. …..

पहिल्या प्रेमाचे,पहिल्या पावसाचे,

पण पाऊस आलाच नाही !

यंदा पावसाने खूपच उशीर केला !

आता जाणवू लागली आहे,

त्याची रिमझिम…..

मी साधू पहातेय संवाद,

तुझ्याशी….पावसाशी….

आणि ऐकते आहे,

मोबाईल मधून येणारे….

नाॅट रिचेबल…नाॅट रिचेबल…

हे उत्तर….वारंवार!!!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 24 – बही-खाते सब झूठे हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – बही-खाते सब झूठे हैं।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 24 – बही-खाते सब झूठे हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कब मनुष्य समझा इनने

मजदूर किसानों को 

हमने तो अपनी छाती से 

पत्थर तोड़े हैं 

पर अपने बँधुआ पुरखों ने 

खाये कोड़े हैं 

भूल नहीं सकते हैं

बचपन के अपमानों को 

इनके घर में रखे 

बही-खाते सब झूठे हैं 

गिरवी जहाँ बाप-दादों के 

रखे अँगूठे हैं 

हमको जूठन और

दूध देते थे श्वानों को 

दमन नहीं सह सकते 

हमने मन में ठाना है 

दृढ़ निश्चय कर लिये 

जुल्म से अब टकराना है 

मिलकर ध्वस्त करेंगे

आतंकी तहखानों को

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 101 – पितर-पक्ष में आ गए… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “पितर-पक्ष में आ गए…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 101 – पितर-पक्ष में आ गए…

पितर-पक्ष में आ गए, पुरखे घर की ओर।

मुंडन होते देखते, नदी जलाशय भोर।।

व्याकुलता उनकी बढ़ी, पितर तुल्य भगवान।

पहन मुखौटा जी रहे, कलयुग के इंसान।

जल तर्पण सब कर रहे, पितृ पक्ष का शोर।

जब भूखे प्यासे रहे,  नहीं दिया कागोर।।

खिड़की से तब झाँकते, रखा न अपने साथ। 

अर्थी पर जब सो गए, पीट रहे थे माथ।।

अब परलोकी हो गए, करते इस्तुति गान।

जीवित रहते कब मिला, हमको यह सम्मान।

स्वर्ग लोक से झाँकते, स्वजनों की यह भीर।

पिंडदान करते फिरें, गया-त्रिवेणी तीर।।

छत पर अब कागा नहीं, आकर करते शोर।

श्राद्ध-पक्ष में निकलती, पर उनकी कागोर ।

गायें अब तो घरों से, सभी गईं हैं भाग।

पंछी सारे उड़ गए, दिखें न कोई काग।।

प्रेम नेह सम्मान के, छूट रहे नित छोर ।

निज स्वार्थों से दूर अब, चलो नेह की ओर।।

सुख-दुख में सब एक हों, मानवता की डोर।

संस्कृति अपनी श्रेष्ठ है, पकड़ें उसका छोर ।।

सत्य सनातन में छिपा, मानव का कल्यान।

जीव प्रकृति जन देश-हित,छिपा हुआ विज्ञान ।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 235 ☆ आलेख – आत्म निर्भर पारंपरिक प्राकृतिक सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक हमारे आदिवासी… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख  – आत्म निर्भर पारंपरिक प्राकृतिक सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक हमारे आदिवासी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 235 ☆

? आलेख – आत्म निर्भर पारंपरिक प्राकृतिक सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक हमारे आदिवासी ?

अधिकांश आदिवासी प्रकृति के साथ न्यूनतम आवश्यकताओ में जीवनयापन करते हैं. वे सामन्यत: समूहों में रहते हैं और उनकी संस्कृति अनेक दृष्टियों से आत्मनिर्भर होती है. आदिवासी संस्कृतियाँ परंपरा केंद्रित होती हैं. भारत में हिंदू धर्म की संस्कृति इनमें पाई जाती है. विश्व में उत्तर और दक्षिण अमरीका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, एशिया तथा अनेक द्वीपों और द्वीप समूहों में आज भी आदिवासी संस्कृतियों के अनेक रूप पाये जाते हैं. संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार, भारत में आदिवासियों को परिभाषित किया गया है. और उन्हें विशेषाधिकार दिये गये हैं, जिससे वे भी देश की मूल धारा के साथ बराबरी से विकास कर सकें. आदिवासी जनजातियाँ देश भर में, मुख्यतया वनों और पहाड़ी इलाकों में फैली हुई हैं. पिछली जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या का लगभग 8. 6% अर्थात देश में कोई बारह करोड़ जनसंख्या आदिवासी हैं.

आदिवासी शब्द का प्रयोग सबसे पहले अमृतलाल विठ्ठलदास ठक्कर ने किया था, जिन्हें ठक्कर बापा के नाम से जाना जाता है. मध्य प्रदेश में अनेक जनजातीय आबादी रहती है. भील, गोंड, कोल, बैगा, भारिया, सहरिया, आदि, मध्य प्रदेश के मुख्य आदिवासी समूह हैं. इनकी बोली स्थानीयता से प्रभावित है. सामान्यतः स्वयं बनाई हुई झोपड़ियों के समूह में ये जन जातियां जंगलो के बीच में रहती है.

अलग अलग जन जातियों के त्यौहार जैसे गल, भगोरिया, नबाई, चलवानी, जात्रा, आदि मनाये जाते हैं जिनमें मांस, स्वयं बनाई गई महुये की मदिरा, ताड़ी का सेवन स्त्री पुरुष करते हैं. सामूहिक नृत्य किया जाता है. विवाह की रीतियां भी रोचक हैं जिनमें अपहरण, भाई-भाई, नटरा, घर जमाई, दुल्हन की कीमत (देपा सिस्टम), आदि प्रमुख हैं. परंपरागत रूप से पुरुष सिर पर पगड़ी, अंगरखा, बंडी या कुर्ता, धोती, गमछा पहनते हैं, और महिलाएं साड़ी, चोली और घाघरा पहनती हैं. पिथौरा चित्रकला भील जनजाति की विश्व प्रसिद्ध लोक चित्रकला है. ये जन जातियां गीत संगीत, ढ़ोल नगाड़ो के शौकीन होते हैं. भील बांसुरी बजाने में माहिर होते हैं. होली दिवाली मेले मड़ई हाट बाजार में उत्सवी माहौल रहता है.

आदिवासियों में से समय समय पर अनेक क्रांतिकारियों का योगदान समाज में रहा है. बिरसा मुंडा, मुंडा विद्रोह/उलगुलान का महानायक, जयपाल सिंह मुण्डा – महान राजनीतिज्ञ, सुबल सिंह – चुआड़ विद्रोह के नायक और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रथम शहीद थे, टंट्या भील – भारत के रोबिन्हुड कहे जाते थे. रानी लक्ष्मीबाई की सेनापति झलकारी बाई, सिद्धू मुर्मू और कान्हू मुर्मू – संताल विद्रोह के नायक रहे हैं. तिलका माँझी – पहाड़िया विद्रोह के नायक, गंगा नारायण सिंह – भूमिज विद्रोह और चुआड़ विद्रोह के महानायक, जगन्‍नाथ सिंह – चुआड़ विद्रोह के नायक, दुर्जन सिंह – चुआड़ विद्रोह के नायक, रघुनाथ सिंह – चुआड़ विद्रोह के महानायक थे. बुधू भगत -भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध क्रांतिकारी के रूप में जाने जाते हैं. इनकी लड़ाई अंग्रेज़ों, ज़मींदारों तथा साहूकारों द्वारा किए जा रहे अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध थी. तेलंगा खड़िया – आदिवासी समाज के स्वतंत्रता सेनानी थे.

आजादी के बाद से उल्लेखनीय सामाजिक कार्यों के लिये आदिवासीयों में से सर्व श्री करिया मुंडा को पद्म भूषण, मंगरू उईके, रामदयाल मुण्डा, गंभीर सिंह मुड़ा, तुलसी मुंडा को पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है.

भोपाल में जन जातीय संग्रहालय बनाया गया है, जहाँ विभिन्न दीर्घाओ में आदिवासी संस्कृति को दर्शाया गया है.

कांग्रेस देश में सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी है, इससे आदिवासियों का गहरा पुराना नाता है. . मंगरू उईके मण्डला के प्रमुख आदिवासी नेता रहे हैं जो अनेक बार यहां से कांग्रेस के सांसद थे. उन्हे पदमश्री से समांनित भी किया गया था. मोहन लाल झिकराम मंडला का नेतृत्व कर चुके लोकप्रिय नेता थे. मंडला डिंडोरी के आदिवासी करमा नर्तक दल दिल्ली के गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल होते रहे हैं. ये नृत्य दल फ्रांस आदि देशों में भी अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 170 – श्राद्ध में संशय – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समाज के परम्पराओं और आधुनिक पीढ़ी के चिंतनीय विमर्श पर आधारित एक लघुकथा श्राद्ध में संशय”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 170 ☆

☆ लघुकथा – 🌷 श्राद्ध में संशय 🙏. 

उषा और वासु दोनों भाई बहन ने जब से होश संभाले, अपनी मम्मी को प्रतिवर्ष पापा के श्राद्ध के दिन पंडित और रसोई का काम संभालते देखते चले आ रहे थे।

बिटिया उषा तो जैसे भी हो संस्कार कहें या रीति रिवाज अपनी मम्मी के साथ-साथ लगी रहती थी, परंतु बेटा वासु इन सब बातों को ढकोसला जली कटी बातें या सिद्धांत विज्ञान के उदाहरण देने लगता था।

समय बीता, बिटिया ब्याह कर दूर प्रदेश चली गई और बेटा अपने उच्च स्तरीय पैकेज की वजह से अपनों से बहुत दूर हो चला। उसकी अपनी दुनिया बसने लगी थी। मम्मी ने अपना काम वैसे ही चालू रखा जैसे वह करतीं चली आ रही थी।

परंतु समय किसी के लिए कहाँ रुकता है। आज सुबह से मम्मी मोबाइल पर रह रहकर मैसेज देखती जा रही थी। उसे लगा शायद बच्चे पापा का श्राद्ध भूल गए हैं।

वह अनमने ढंग से उठी अलमारी से कुछ नए कपड़े निकाल पंडित जी को देने के लिए एक जगह एकत्रित कर रही थी।

तभी दरवाजे पर घंटी बजी।

लगा शायद पंडित जी आ गए हैं। वह धीरे-धीरे चलकर दरवाजे पर पहुंची। आँखों देखी की  देखती रह गई।

दोनों बच्चे अपने-अपने परिवार के साथ खड़े थे। घबराहट और खुशी कहें या दर्द दोनों एक साथ देखकर वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर बात क्या है??? अंदर आते ही दोनों ने कहा… मम्मी आज और अभी पापा का यह आखिरी श्राध्द है। इसके बाद आप कभी श्रद्धा नहीं करेंगी।

क्योंकि हमारे पास समय नहीं है और इन पुराने ख्यालों पर हम कभी नहीं आने वाले। मम्मी ने कहा… ठीक है आज का काम बहुत अच्छे से निपटा दो फिर कभी श्रद्धा नहीं करेंगे।

पूजा पाठ की तैयारी पंडितों का खाना सभी तैयार था। बड़े से परात पर जल रखकर बेटे ने तिलांजलि देना शुरू किया। बहन भी पास ही खड़ी थी पंडित जी ने कहा… मम्मी के हाथ से भी तिल, जौ को जल के साथ अर्पण कर दे। पता नहीं अब फिर कब पिृत देव को जल मिलेगा।

पूर्वजों का आशीर्वाद तो लेना ही चाहिए। आवाज लगाया गया फिर भी मम्मी कमरे से बाहर नहीं निकली।

तब कमरे में जाकर देखा गया मम्मी धरती पर औधी पड़ी है। उनके हाथ में एक कागज है। जिस पर लिखा था.. श्राद्ध पर संशय नहीं करना और कभी मेरा श्रद्धा नहीं करना। तुम दोनों जिस काम से आए हो वह सारी संपत्ति मैं वृद्ध आश्रम को दान करती हूँ।

आज के बाद हम दोनों का श्राद्ध वृद्धा आश्रम जाकर देख लेना।

वक्त गुजरा…. आज फिर उषा और वासु ने मोबाइल के स्टेटस, फेसबुक पर पोस्ट किया… मम्मी पापा का श्राद्ध एक साथ वृद्धाश्रम में मनाया गया परंतु अब श्राद्ध पर संशय नहीं सिर्फ पछतावा था।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 55 – देश-परदेश – अटरम शटरम ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 55 ☆ देश-परदेश – अटरम शटरम ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज एक मित्र के साथ जयपुर स्थित सी स्कीम क्षेत्र में एक कार्यालय जाना हुआ। वहां कुछ समय फ्री था, तो पास के मार्ग में सुनहरी धूप का स्वाद लेते हुए एक घर के बाहर लगे साइन बोर्ड पर दृष्टि पड़ी, तो मोबाइल से उसकी फोटो लेकर आप को साझा करने का विचार आता, इससे पूर्व उस घर से एक युवक बाहर आकर हमें अंदर ले जाकर पूछने लगा आप सरकारी विभाग से हैं क्या, हमारी छोटी सी दुकान है।

हमने उससे कहा आपकी दुकान का नाम कुछ अटपटा लगा इसलिए फोटो खींच ली है। उसको लगा अब उसको बोर्ड लगाने का सरकारी  शुल्क देना पड़ेगा।

विस्तार से उससे चर्चा हुई कि ये नाम क्यों रखा गया है? उसने बताया की उनके पास खाने पीने का सामान और भेंट (गिफ्ट) में दिए जाने वाली वस्तुएं हैं, जो कि बाज़ार में उपलब्ध सामान से हटकर/ अलग प्रकार की हैं। दूसरों से अलग (different) हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति सब से अलग करने की मानसिकता में विश्वास करने लगा है।

हमें भी याद आ गया जब युवावस्था में बाज़ार से चाट/ पकोड़ी या समोसा इत्यादि खाकर घर में अम्माजी को भोजन की मनाही करते थे, वे कहा करती थी, बाज़ार का “अटरम शटरम” मत खाया करो, नियमित भोजन करना चाहिए।

स्वास्थ्य की दृष्टि से उनका कथन शत-प्रतिशत उचित होता था, परंतु हम तो अपनी जिह्वा के वश में होश खो कर बाज़ार का सामान चट कर जाते थे।

हमारे साथ चल रहे मित्र, हंसते हुए बोले की तुम भी तो कुछ भी देखकर “अटरम शटरम” लिख कर व्हाट्स ऐप में साझा कर देते हो।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #209 ☆ भुरळ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 209 ?

☆ भुरळ ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

प्रेम तुझे दे नितळ मला

त्यात स्थान दे अढळ मला

पहात नाही ढुंकून तू

तरी तुझी का भुरळ मला ?

तुझ्याचसाठी अमृत मी

समजतेस का गरळ मला ?

पाण्यावरती वावरते

दे ओठांचे कमळ मला

होय प्रीतिचा याचक मी

कधीतरी घे जवळ मला

पान मसाला झालो मी

हवे तेवढे चघळ मला

अशोक आहे दास तुझ्या

चंदन समजुन उगळ मला

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 160 – गीत – मैं तुम्हारा हूँ… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – मैं तुम्हारा हूँ।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 160 – गीत – मैं तुम्हारा हूँ…  ✍

मैं तुम्हारा हूँ

कल तलक मुझको गलत समझा नहीं तुमने

आज दाखिल कर दिया है गुनहगारों में।

 

जानती हो दर्द क्या मैंने सहा है।

बेहिचक हो पाप भी मन का कहा है

एक निर्झर की तरह बहता रहा हूँ

मन हमेशा एक दरपन सा रहा है।

 

भूल आदम से हुई थी जानती हो

आदमी को देवता भी मानती हो

हूँ नहीं आदम मगर मैं आदमी हूँ

और कैसा बस तुम्हीं पहचानती हो।

 

मैं तुम्हारा हूँ, तुम्हारा ही रहूँगा

और किसके सामने सब कुछ कहूँगा

देह के तट पर भले हो भीड़ लेकिन

साफ झरने की तरह बहता रहूँगा।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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