हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 4 ☆ लघुकथा – घोंसला… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “घोंसला“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 4 ☆

✍ लघुकथा – घोंसला… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

रोज की तरह संजय बैंच पर आकर विकास के पास बैठ तो गए पर लग ऐसा रहा था कि वे वहाँ उपस्थित ही नहीं हैं। वे अच्छी पोस्ट से रिटायर  हुए हैं। अच्छी खासी पैंशन मिल रही है फिर भी बेचैन रहते हैं।  विकास ने पूछ ही लिया कि भाई क्या बात है, आज इतने उदास क्यों हैं । मायूस होकर संजय बोले क्या बताऊँ यार घर मेंं रहना मुश्किल हो गया है। पता नहीं किस मिट्टी की बनी है मेरी पत्नी। जब तक माँ जिंदा थी तो किसी न किसी बात पर झगड़ती थी।  माँ को कभी बहू का सुख नहीं मिला। दुखी मन से चली गई बेचारी। बेटे की शादी करके लाए, घर में बहू आ गई। सब खुश थे पर मेरी पत्नी नहीं। दहेज में उसे अपने लिए अँगूठी चाहिए थी, वह नहीं मिली  तो बहू को ताना मारती रहती। ऐसा लगता था कि वह ताना मारने के अवसर ढूँढ़ती रहती । बेटा बहू दोनों नौकरी करते थे पर घर आने  पर  अपनी माँ का मुँह फूला हुआ पाते। उन दोनों को शाम को घर आते समय कभी हँसी खुशी  स्वागत किया हो, ऐसा अवसर सोचने पर भी याद नहीं आता। आखिर वे दोनों घर छोड़ कर चले गए। किराए का फ्लैट ले लिया।

मेरे साथ तो कभी ढँग से बात की ही नहीं। अगर पड़ोसी कोई महिला मुझसे हँसकर बात करले तो बस दिन भर बड़ बड़। खाने पीने पार्टी करने, दोस्तो यारों में रहना मुझे अच्छा लगता है पर उसे अच्छा नहीं लगता। अब तो यही पता नहीं चलता कि वह किस बात से नाराज है। घर में कोई कमी नहीं। एक बेटी है वह भी अपनी माँ के चरण चिन्हों पर चल रही है। उसकी शादी कर दी है,  पर माँ है कि उसे अपनी ससुराल में नहीं रहने देती। पति, सास, ससुर के खिलाफ हमेशा भडकाती रहती है। और तो और, मेरे साथ लड़ने को माँ बेटी एक हो जाती हैं। मैं दिन में घर से बाहर निकलता हूँ तो प्रश्नों की झडी लग जाती है कि कहाँ जा रहे हो, जा रहे हो तो यह ले आना,वह ले आना और जल्दी आना। अब रिटायर होने के बाद कोई काम तो है नहीं । इनके क्लेश से घर में रहना मुश्किल हो जाता तो शाम को घूमने के बहाने यहाँ पार्क में आ जाता हूँ। लौटने की इच्छा ही नहीं होती क्योंकि घर जाने पर पता नहीं माँ बेटी से किस बात पर क्या सुनने को मिले। पेट की आग तो बुझानी है, चुपचाप दो रोटी खा लेता हूँ। पता नहीं आज दोनों किस बात से नाराज़ हैं। जब मैं घर से निकल रहा था तो पीछे से कह रहींं थीं कि लौट के आने की जरूरत नहीं। विकास चुपचाप सुन रहे थे और पेड़  से गिरे बिखरे घोंसले को एकटक देख रहे थे। उन्हें लगा, कभी वे इसी घोंसले में बैठते थे।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : पुणे महाराष्ट्र 

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 55 – खाली घरौंदा…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खाली घरौंदा।)

☆ लघुकथा # 55 – खाली घरौंदा  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मानसी बहुत दिन हो गया तुम मेरे साथ कहीं नहीं गईं?  मेरे ऑफिस में जो शर्मा अंकल  हैं। तुम्हें तो पता है, पिताजी की अचानक दिल का दौरा से मृत्यु गई थी जब कोई सहारा नहीं था। अंकल ने हमारी बहुत मदद की  है  ऑफिस और  मेरा बिजनेस अंकल के कारण चल रहा है। आज उनकी बेटी की शादी है तुम मेरे साथ चलो मुझे अच्छा लगेगा।

 फिर वह कुछ रुक  कर बोला – तुम अपना बर्तन प्लेट घर में अलग रखती  हो।  अपना सामान किसी को छूने नहीं देती। इतनी साफ सफाई से रहना  अच्छी बात  है। किन्तु, हमें  सबके साथ  मिलना जुलना चाहिए चलो खाना मत खाना? क्या ! तुम मेरी खुशी के लिए इतना नहीं कर सकती?

तुम्हें पता है कि  लोग कहीं से भी आकर छू देते हैं और गले मिलते हैं यह मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता?

तुम चिंता मत करो  हम जल्दी ही आ जाएंगे?

तुम अकेले जाओ मुझे इतना जोर मत दो मुझे ऑफिस लोगो के यहाॅं जाना अच्छा नहीं लगता है। तुम्हें तो मेरी आदत पता है, मुझे छोटे लोगों से मिलना जुलना बिल्कुल पसंद नहीं है।

ठीक है? तुम्हें नहीं जाना तो मत जाओ तुम्हारे पास  मैं बुआ जी को छोड़ देता हूं रात में मैं वही रहूंगा।

तुम्हारा मेरे लिए इतना प्यार मुझे अच्छा नहीं लगता। घर में नौकर भी तो है फिर बुआ जी को क्यों यहाॅं छोड़ना?

 अचानक रात में मानसी को बहुत दर्द होने लगा और वह कराहने लग गई।  तभी बुआ जी और उनका बेटा उसके कराहने की आवाज सुनकर मानसी के घर पहुंचे। अरुण ने उन्हें घर की चाबी पहले से ही दे रखी थी ।

क्या हुआ बेटा?

 बुआ जी मुझे बहुत दर्द हो रहा है। 

बिना देर किए वे लोग उसे अस्पताल जाते हैं तब पता चलता है कि अपेंडिक्स का दर्द है।

 बेटा डॉक्टर को तुम्हें छूना ही पड़ेगा और कुछ दिन अस्पताल में रहना ही पड़ेगा। 

इसी कारण तुम्हारा खाली घरौंदा है। थोड़ा वक्त के साथ चलो? अपने आप को थोड़ा परिवर्तित करो।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 255 ☆ वाटा… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 254 ?

☆ वाटा… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

नकळतच आठवते….

आयुष्यात घडून गेलेली घटना,

या घटनेचा,

त्या घटनेशी काही संबंध ?

खरंतर नसतोच,

पण वाटतं उगाचच,

त्यावेळेस ही असंच घडलं होतं….

आपले आनंद,

शोधतच असतो की आपण,

फक्त वाटा बदलत

असतात!

एखादी वाट नसतेच रूचत,

तरीही पुन्हा पुन्हा,

त्या वाटेवरून जाणं,

नाही टाळता येत!

हा चकवा नसतोच,

वाटा अगदी स्वच्छ दिसतात,

पण चुकतोच वाट,

आणि घुटमळत राहतो

तिथल्या तिथे ,

इहलोकीचा प्रवास संपेपर्यंत!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ व्रतोपासना – ६. वृष्टी करणाऱ्या पावसाची निंदा करु नये. ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

व्रतोपासना – ६. वृष्टी करणाऱ्या पावसाची निंदा करु नये. ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

 उन्हाळ्यातील उकड्याने हैराण झालेले आपण पावसाची वाट बघत असतो. मग येणाऱ्या एखाद्या पावसाच्या सरीने पण आनंदित होतो. पावसाचे स्वागत करतो. वर्षा सहली काढतो. गरम पदार्थांचा आस्वाद घेतो. असे करता करता काही दिवसातच पावसाला कंटाळतो. काहींना तर सुरुवातीचा पाऊस पण नको वाटतो. आणि सुंदर पावसाचे नकोशा पावसात रूपांतर होते. अर्थात पाऊस तोच असतो. पण आपलीच मन:स्थिती बदलत असते. त्यामुळे पावसाची निंदा सुरु होते. आणि पावसाचे तोटे सांगणारे वक्तव्य सुरु होते. तक्रारी सुरु होतात. कपडेच कसे वाळत नाहीत. दमट वास येतो. प्रवास कसा अवघड होतो. पाणी कसे साठते असे विषय चर्चिले जातात. त्यात घरी असणारी मंडळी फारच आघाडीवर असतात. कामावर जाणारे आपला बंदोबस्त ( पावसा पासून सुरक्षित राहण्याचा ) करुन आपले कर्तव्य करुन येतात. पण ज्यांना कुठेही जायचे असते अशी मंडळीच किती हा पाऊस असे म्हणून तक्रार करत असतात. एकूण काय पाऊस यावर सगळीकडे टीका सुरु होते. आणि आपल्यालाच हवासा असणारा आणि आवश्यक असणारा पाऊस आपण विसरतो.

पण आपण एक विचार करुन बघू या. ज्या काही अडचणी पावसामुळे येतात असे वाटते त्या खरंच पावसामुळे आल्या आहेत का? रस्त्यावर पाणी साठणे, खड्डे पडणे, पूर येणे अशी संकटे मानव निर्मित आहेत. या सगळ्यासाठी आपणच कुठेतरी जबाबदार आहोत. आणि हे आपण टाळू शकतो. हे पूर्ण आपल्या हातात आहे.

आपण हे लक्षात घ्यायला हवे, निसर्गाला सगळे जग सावरायचे असते. जगवायचे असते. पाऊस हा जीवसृष्टीचा आधार आहे. तो आला नाही तर जीवन अशक्यच आहे. गवत, धनधान्य, भाजीपाला उगवणार नाही. एवढेच नाही तर आपल्याला कोणालाच प्यायला पाणी सुद्धा मिळणार नाही. सगळे चराचर कोमेजून जाईल. म्हणून आपल्या संस्कृतीत वर्षा देवता म्हणतो. ही वर्षा देवता जीवनदायी आहे. म्हणून पूर्वपार तिची पूजा करतो. म्हणून अशा जीवनदायी वृष्टी करणाऱ्या पावसाची निंदा करु नये.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक, संगितोपचारक.

९/११/२०२४

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – ☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “स्पाय स्टोरीज (पुस्तक संच)” – लेखक : श्री अमर भूषण – अनुवाद : श्री प्रणव सखदेव ☆ परिचय – श्री हर्षल सुरेश भानुशाली ☆

श्री हर्षल सुरेश भानुशाली

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “स्पाय स्टोरीज (पुस्तक संच)” – लेखक : श्री अमर भूषण – अनुवाद : श्री प्रणव सखदेव ☆ परिचय – श्री हर्षल सुरेश भानुशाली ☆

भारताच्या इंटेलिजन्स एजन्सीसाठी विशेषतः ‘रॉ’ साठी काम केलेल्या अमर भूषण यांनी स्वानुभवातून आणि सत्य घटनांवर आधारित लिहिलेल्या स्पाय स्टोरीजचा चार पुस्तकांचा संच … 

१)एस्केप टू नोव्हेअर

२)मिशन नेपाळ 

३) टेरर इन इस्लामाबाद

४) द झीरो- कॉस्ट मिशन

संच मूल्य: १०४०₹ 

पुस्तक क्रमांक १

एस्केप टू नोव्हेअर

पृष्ठे: १८४ मूल्य: ३४०₹

भारताच्या ‘एक्सटर्नल इंटेलिजन्स सर्विहस’ अर्थात ‘एजन्सी’च्या सुरक्षा विभागाचा प्रमुख जीवनाथनकडे एकदा एक नवखा, पण हुशार अधिकारी आपला संशय व्यक्त करतो. त्याच्या मते, एजन्सीमधला एक वरिष्ठ अधिकारी परदेशी हेर म्हणून काम करतो आहे. त्यानंतर तातडीने तपास, चौकशी याचं सत्र सुरू होतं आणि संशयित अर्थात, रवी मोहनच्याभोवती सव्हॅलन्सचा जागता पहारा ठेवला जातो… या तपासातून रवी संवेदनशील माहिती चोरत आहे, याला पुष्टी देणारे अनेक तगडे पुरावे समोर येतात. तपास आणि सव्हॅलन्स पुढे चालू राहतो… आणि मग घडते अनपेक्षित अशी घटना, जिचा विचार कुणी कधी केलेला नसतो !

२००४ साली एक वरिष्ठ इंटेलिजन्स अधिकारी अचानक गायब झाला. तो काही दशकांपासून हेर म्हणून काम करतो, असा संशय होता. या सत्यघटनेवर आधारलेली ही कादंबरी, देशाची सुरक्षा, कर्मचाऱ्यांची नीतिमत्ता, ऑपरेशन चालवताना येणाऱ्या मर्यादा यांसारख्या अपरिचित विषयांबद्दल सामान्य माणसाला अंतर्दृष्टी देते.

पुस्तक क्रमांक २

मिशन नेपाल

पृष्ठे: १५९ मूल्य: २५०₹

थरारक आणि स्वानुभवातून उतरलेल्या इंटेलिजन्स क्षेत्रातील खिळवून ठेवणाऱ्या दोन कथा… द झिरो कॉस्ट मिशन आणि द वायली एजन्ट !

भारताच्या एक्स्टर्नल इंटेलिजन्स एजन्सीच्या ईस्टर्न सर्व्हिस ब्युरोचे प्रमुख जीवनाथन यांच्यावर एजन्सी हेडक्वार्टर्सने हा ब्युरो बंद करण्याचं काम सोपवलंय. प्रामुख्याने नेपाळ, आणि भारताच्या पूर्वेच्या अन्य शेजारी देशांच्या संदर्भात इंटेलिजन्स गोळा करणं, ऑपरेशन्स चालवणं असं या ब्युरोचं काम, परंतु बराच काळ त्यांच्याकडून फारशी उपयुक्त माहिती हाती आली नसल्याने या ब्युरोवर अधिक खर्च करत राहणं हेडक्वार्टर्सला मान्य नव्हतं. या परिस्थितीकडे जीवनाथन ब्युरोचं पुनरुज्जीवन करण्याची एक संधी म्हणून पाहतो आणि एकापाठोपाठ एक बेधडक ऑपरेशन्स आखतो… ही ऑपरेशन्स त्याचा ब्युरो वाचवू शकेल? नेपाळ आणि भारत यांचे संबंध सुधारतील?

थरारक आणि स्वानुभवातून उतरलेल्या इंटेलिजन्स क्षेत्रातील खिळवून ठेवणाऱ्या दोन कथा…

मिशन नेपाळ आणि द वॉक इन !

पुस्तक क्रमांक ३

टेरर इन इस्लामाबाद

पृष्ठे: १३५ मूल्य: २००₹

पाकिस्तानातल्या भारतीय दूतावासात सांस्कृतिक अधिकारी म्हणून काम करताना वीरसिंग भारताचा गुप्तचर एजन्ट म्हणूनही काम करत असतो. वीरसिंग एजंटकडे गुप्तचर विभागाने सीक्रेट मिशन सोपवलेलं असतं. तो ते फार सावधपणे पार पाडत असतो…

आता त्याची भारतात परत जाण्याची वेळ जवळ येऊन ठेपलेली असतानाच… अचानक एका रात्री त्याला पकडण्यात येतं… पाकिस्तानच्या इंटेलिजन्स अधिकाऱ्यांकडून ही कारवाई झाली असते ! तिथून स्वतःची सुटका करून घेण्याचा प्रश्नच नसतो, प्रश्न असतो तो दुश्मनांच्या त्या प्रदेशात वीर आपली गुपितं, माहिती आणि सोर्सेस यांचं संरक्षण कसं करणार ? तो त्यात यशस्वी होणार का ?

थरारक आणि स्वानुभवातून उतरलेली इंटेलिजन्स क्षेत्रातील खिळवून ठेवणारी कथा… टेरर इन इस्लामाबाद !

पुस्तक क्रमांक ४

द झीरो – कॉस्ट मिशन 

पृष्ठे: १६७ मूल्य: २५०₹

जमात – ए – इस्लामीच्या कारवायांमुळे भारत – बांगलादेश संबंध बिघडतात. कारण असतं जमातच्या छावण्यांमधून केली जाणारी पाकिस्तानच्या आय. एस. आय. ला मदत. या छावण्यांत प्रशिक्षित एजंट्स भारतात पाठवून दहशतवादी कारवाया करतात. भारताच्या एक्सटर्नल इंटेलिजन्स एजन्सीच्या बांगलादेश ऑपरेशन्सचे प्रमुख विजय शुक्ला एक धाडसी प्लॅन आखतात. त्यासाठी आवश्यक असतो अंगी कौशल्यं असलेला, आव्हानांना भिडण्याची वृत्ती असलेला आणि गरज पडली तर वरिष्ठांबद्दल काहीशी बेफिकिरी दाखवू शकणारा माणूस. असे गुणधर्म अंगी असतील असा ‘ऑपरेटिव्ह’ एजन्सीला मिळेल? मुख्य म्हणजे त्यांची योजना यशस्वी होईल ?

परिचय : श्री हर्षल सुरेश भानुशाली

पालघर 

मो. 9619800030

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 86 – यज्ञ-फल तो आप हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – यज्ञ-फल तो आप हैं।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 86 – यज्ञ-फल तो आप हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

हर जगह चर्चाओं में बस आजकल तो आप हैं

गुनगुना जिसको रहे सब, वह ग़ज़ल तो आप हैं

*

प्रेमसागर, सब पुराणों में सरस वह ग्रन्थ है

मैं प्रवाचक किन्तु चंदन की रहल तो आप हैं

*

हम सरीखे मिटने वाले, होंगे पत्थर और भी 

जिनके काँधों पर तने, कंचन महल तो आप हैं

*

आपकी चंचल अदाओं की बिसातें जादुई 

हारते जिनमें सभी, लेकिन सफल तो आप हैं

*

चाहते थे और भी, पर भाग्य से हमको मिला 

जिन्दगी की साधना का, यज्ञ-फल तो आप हैं

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 159 – सकल विश्व में शांति हो…☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सकल विश्व में शांति हो…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 159 – सकल विश्व में शांति हो… ☆

नया वर्ष मंगल करे, दो हजार पच्चीस।

खुशियों की माला जपें,मिटे दिलों की टीस।।

 *

भारत-भू देती रही, अनुपम यह संदेश।

सकल विश्व में शांति हो, मंगलमय  परिवेश।।

 *

सुख वैभव की कामना, मानव-मन की चाह।

प्रगतिशील जब हम बनें, मिल ही जाती राह।।

 *

सत्य सनातन की विजय, दिखती फिर से आज।

दफन हुए जो निकल कर, उगल रहे हैं राज।।

 *

समृद्धि-मार्ग पर है बढ़ा, भारत अपना देश।

चलने वाला अब नहीं, छल प्रपंच परिवेश।।

 *

महाकुंभ का आगमन, कर गंगा इस्नान।

जात-पात से दूर रह, रख मानवता मान।।

 *

मंगलमय की कामना, हम सब करते आज।

सकल विश्व में हो खुशी, सुखद शांति सरताज।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 41 – लघुकथा – संवेदनशीलता और समर्पण ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – संवेदनशीलता और समर्पण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 41 – लघुकथा – संवेदनशीलता और समर्पण ?

निराली आई टी प्रोफ़ेशनल है। उसमें आइडिया की कोई कमी नहीं है। अपनी कंपनी की कई पार्टियाँ वही एरेंज भी करती है। साथ ही एक अच्छी माँ और गृहणी भी है। परिवार और समाज के प्रति संपूर्ण समर्पित।

उसकी बेटी यूथिका का अब इस वर्ष दसवाँ जन्मदिन था। वह कुछ हटकर करना चाहती थी।

जिस विद्यालय में युथिका पढ़ती है वह धनी वर्ग के लिए बना विद्यालय है। ऐसा इसलिए क्योंकि वहाँ की वार्षिक फीस ही बहुत अधिक है जो मध्यम वर्गीय लोगों की जेब के बाहर की बात है।

युथिका की कक्षा में तीस बच्चे हैं। सबके जन्म दिन पर ख़ास उपहार लेकर वह घर आया करती है। युथिका के हर जन्मदिन पर निराली भी बच्चों को अच्छे रिटर्न गिफ्ट्स दिया करती है। पर इस साल युथिका के जन्म दिन पर निराली ऐसा कुछ करना चाहती थी कि बच्चों को समाज के अन्य वर्गों से जोड़ा जा सके।

उसने एक सुंदर ई कार्ड बनाया। जिसमें लिखा था –

युथिका के दसवें जन्म दिन का उत्सव आओ साथ मनाएँ।

युथिका के दसवें जन्म दिन पर आप आमंत्रित हैं। आप अपने छोटे भाई बहन को भी साथ लेकर आ सकते हैं। उपहार के रूप में अपने पुराने खिलौने जो टूटे हुए न हों, जिससे आप खेलते न हों और आपके वस्त्र जो फटे न हों उन्हें सुंदर रंगीन काग़ज़ों में अलग -अलग पैक करके अपना नाम लिखकर ले आएँ। कोई नया उपहार न लाएँ।

नीरज -निराली चतुर्वेदी

और परिवार।

समय संध्या पाँच से सात बजे

‘सागरमंथन’ कॉलोनी

304 कल्पवृक्ष

मॉल रोड

जन्म दिन के दिन तीस बच्चे जो युथिका की कक्षा में पढ़ते थे और वे छात्र जो उसके साथ बस में यात्रा करते थे सभी आमंत्रित थे।

जन्म दिन के दिन पूरे घर को फूलों से और कागज़ की बनी रंगीन झंडियों से सजाया गया।

पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए गुब्बारों का उपयोग नहीं किया गया।

वक्त पर बच्चे आए। अपने साथ दो- दो पैकेट उपहार भी लेकर आए। कुछ बच्चे अपने छोटे भाई बहनों को साथ लेकर आए। उनके हाथ में भी दो -दो पैकेट थे।

उस दिन शुक्रवार का दिन था। खूब उत्साह के साथ जन्मदिन का उत्सव मनाया गया। सबसे पहले युथिका की दादी ने दीया जलाया, दादा और दादी ने उसकी आरती उतारी। निराली ने हर बच्चे के हाथ में गेंदे के फूल पकड़ाए। जन्म दिन पर गीत गाया गया। दादी ने युथिका को खीर खिलाई। बच्चों ने युथिका के सिर पर फूल बरसाए। सबने ताली बजाई।

युथिका के घर में केक काटने की प्रथा नहीं थी। इसलिए बच्चों को इसकी अपेक्षा भी नहीं थी।

पासिंग द पार्सल खेल खेला गया। उसके अनुसार बच्चों ने गीत गाया, कविता सुनाई, नृत्य प्रस्तुत किया, चुटकुले सुनाए, जानवरों की आवाज़ सुनाई। सबने आनंद लिया।

हर बच्चे को रिटर्न गिफ्ट के रूप में ब्रेनविटा नामक खेल उपहार में दिया गया।

पचहत्तर नाम लिखे हुए उपहार रंगीन कागज़ों में रिबन लगाकर युथिका को दिए गए। उसके जीवन का यह नया मोड़ था।

दूसरे दिन सुबह निराली उसके पति नीरज और युथिका बच्चों के कैंसर अस्पताल पहुँचे। युथिका के हाथ से हर बच्चे को खिलौने दिए गए जो उसके मित्र उपहार स्वरूप लाए थे। साथ में हर बच्चे को नए उपहार के रूप में तौलिया, साबुन, टूथ ब्रश, कहानी की पुस्तक, स्कैच पेंसिल और आर्ट बुक दिए गए। युथिका हरेक से बहुत स्नेह से मिली। उपहार देते समय वह बहुत खुश हो रही थी। हर बच्चा खिलौना पाकर खुश था।

बच्चों की खुशी की सीमा न थी। वे झटपट पैकेट खोलकर खिलौने देखने लगे। उनके चेहरे खिल उठे।

वहाँ से निकलकर वे तीनों आनंदभवन गए। यह अनाथाश्रम है। यहाँ के बच्चों के बीच उम्र के हिसाब से वस्त्र के पैकेट बाँटे गए।

उस दिन सारा दिन युथिका अस्पताल की चर्चा करती रही। हमउम्र बच्चों को अस्पताल के वस्त्रों में देखकर और बीमार हालत में देखकर वह भीतर से थोड़ी हिल उठी थी। पर निराली काफी समय से उसे मानसिक रूप से तैयार भी करती जा रही थी कि जीवन सबके लिए आरामदायक और सुंदर नहीं होता।

निराली यहीं नहीं रुकी वह रविवार के दिन पुनः अस्पताल गई। वहाँ के हर बच्चे ने खिलौना पाकर देने वाले के नाम पर एक पत्र लिखा था और यह लिखवाने का काम अस्पताल के सहयोग से ही हुआ था। निराली सारे थैंक्यू पत्र लेकर आई।

अपनी बेटी को भविष्य के लिए तैयार करने के लिए वह अभी से प्रयत्नशील है। वह इस दसवें जन्म दिन की तैयारी के लिए अस्पताल से, बच्चों की माताओं से काफी समय से बातचीत करती आ रही थी।

अगले दिन अपने दफ्तर जाने से पूर्व वह विद्यालय गई। प्रिंसीपल के हाथ में वे थैंक्यू पत्र सौंपकर आई। प्रिंसीपल इस पूरी योजना और आयोजन के लिए निराली की खूब प्रशंसा करते रहे।

शाम की एसेंबली में हर बड़े छोटे विद्यार्थी का नाम लेकर थैंक्यूपत्र दिया गया। यूथिका के घर उसके जन्मदिन के अवसर पर जो छात्र अपना खिलौना देकर आए थे वे अपने नाम का पत्र पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए। युथिका के नाम पर भी पत्र था।

अब पत्र व्यवहार का सिलसिला चलता रहा और छात्र अस्पताल के बच्चों के साथ जुड़ते चले गए।

समाज के हर वर्ग को जोड़ने के लिए किसी न किसी को ज़रिया तो बनना ही पड़ता है। इसके लिए संवेदनशीलता और समर्पण की ही तो आवश्यकता होती है। समाज में और कई निराली चाहिए।

© सुश्री ऋता सिंह

24/10/24

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 325 ☆ व्यंग्य – “कोसने में पारंगत बने…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 325 ☆

?  व्यंग्य – कोसने में पारंगत बने…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

लोकतंत्र है तो अब राजा जी को चुना जाता है शासन करने के लिए। लिहाजा जनता के हर भले का काम करना राजा जी का नैतिक कर्तव्य है। जनता ने पांच साल में एक बार धकियाये धकियाये वोट क्या दे दिया लोकतंत्र ने सारे, जरा भी सक्रिय नागरिकों को और विपक्ष को पूरा अधिकार दिया है कि वह राजा जी से उनके हर फैसले पर सवाल करे।

दूसरे देशों के बीच जनता की साख बढ़ाने राजा जी विदेश जाएँ तो बेहिचक राजा जी पर आरोप लगाइये कि वो तो तफरी करने गए थे। एक जागरूक एक्टीविस्स्ट की तरह राइट ऑफ इन्फर्मेशन में राजा जी की विदेश यात्रा का खर्चा निकलवाकर कोई न कोई पत्रकार छापता ही है कि जनता के गाढ़े टैक्स की इतनी रकम वेस्ट कर दी। किसी हवाले से छपी यह जानकारी कितनी सच है या नहीं इसकी चिंता करने की जरुरत नहीं है, आप किस कॉन्फिडेंस से इसे नमक मिर्च लगाकर अपने दोस्तों के बीच उठाते हैं, महत्व इस बात का है।

 विदेश जाकर राजा जी वहां अपने देश वासियों से मिलें तो बेहिचक कहा जा सकता है कि यह राजा जी का लाइम लाइट में बने रहने का नुस्खा है। कहीं कोई पड़ोसी घुसपैठ की जरा भी हरकत कर दे, या किसी विदेशी खबर में देश के विषय में कोई नकारात्मक टिप्पणी पढ़ने मिल जाये या किसी वैश्विक संस्था में कहीं देश की कोई आलोचना हो जाये तब आपका परम कर्तव्य होता है कि किसी टुटपुँजिया अख़बार का सम्पादकीय पढ़कर आप अधकचरा ज्ञान प्राप्त करें और आफिस में काम काज छोड़कर राजा जी के नाकारा नेतृत्व पर अपना परिपक्व व्यक्तव्य सबके सामने पूरे आत्म विश्वास से दें, चाय पीएं और खुश हों। राजा जी इस  परिस्तिथि का जिस भी तरह मुकाबला करें उस पर टीवी डिबेट शो के जरिये नजर रखना और फिर उस कदम की आलोचना देश के प्रति हर उस शहरी का दायित्व होता है जो इस स्तिथि में निर्णय प्रक्रिया में किसी भी तरह का भागीदार नहीं हो सकता।

राजा जी अच्छे कपड़े पहने तो ताना मारिये कि गरीब देश का नेता महंगे लिबास क्यों पहने हुए है, यदि कपडे साधारण पहने जाएँ तो उसे ढकोसला और दिखावा बता कर कोसना न भूलिये। देश में कभी न कभी कुछ चीजों की महंगाई, कुछ की कमी तो होगी ही, इसे आपदा में अवसर समझिये। विपक्ष के साथ आप जैसे आलोचकों की पौ बारह, इस मुद्दे पर तो विपक्ष इस्तीफे की मांग के साथ जन आंदोलन खड़ा कर सकता है। कथित व्यंग्यकार हर राजा के खिलाफ कटाक्ष को अपना धर्म मानते ही हैं। सम्पादकीय पन्ने पर छपने का अवसर न गंवाइए, यदि आप में व्यंग्य कौशल न हो तो भी सम्पादक के नाम पत्र तो आप लिख ही सकते हैं। राजा जी के पक्ष में लिखने वाले को गोदी मीडिया कहकर सरकारी पुरुस्कार का लोलुप साहित्यकार बताया जा सकता है, और खुद का कद बडा किया जा सकता है। महंगाई ऐसी पुड़िया है जिसे कोई खाये न खाये उसका रोना सहजता से रो सकता है। आपकी हैसियत के अनुसार आप जहां भी महंगाई के मुद्दे को उछालें चाय की गुमटी, पान के ठेले या काफी हॉउस में आप का सुना जाना और व्यापक समर्थन मिलना तय है। चूँकि वैसे भी आप खुद करना चाहें तो भी महंगाई कम करने के लिए आप कुछ कर ही नहीं सकते अतः इसके लिए राजा जी को गाली देना ही एक मात्र विकल्प आपके पास रह जाता है।

राजा जी नया संसदीय भवन बनवाएं तो पीक थूकते बेझिझक इसे फिजूल खर्ची बताकर राजा जी को गालियां सुनाने का लाइसेंस प्रजातंत्र आपको देता है, इसमें आप भ्रष्टाचार का एंगिल धुंध सकें तो आपकी पोस्ट हिट हो सकती है। इस खर्च की तुलना करते हुए अपनी तरफ से आप बेरोजगारी की चिंता में यदि कुछ सच्चे झूठे आंकड़े पूरे दम के साथ प्रस्तुत कर सकें तो बढियाँ है वरना देश के गरीब हालातों की तराजू पर आकर्षक शब्दावली में आप अपने कथन का पलड़ा भारी दिखा सकते हैं।

यदि राजा जी देश से किसी गुमशुदा प्रजाति के वन्य जीव चीता वगैरह बड़ी डिप्लोमेसी से विदेश से ले आएं तो करारा कटाक्ष राजा जी पर किया जा सकता है, ऐसा की न तो राजा जी से हँसते बने और न ही रोते। इस फालतू से लगाने वाले काम से ज्यादा जरुरी कई काम आप राजा जी को अँगुलियों पर गिनवा सकते हैं।

यदि धर्म के नाम पर राजा जी कोई जीर्णोद्धार वगैरह करवाते पाए जाएँ तब तो राजा जी को गाली देने में आपको बड़ी सेक्युलर लाबी का सपोर्ट मिल सकता है। राजा जी को हिटलर निरूपित करने, नए नए प्रतिमान गढ़ने के लिए आपको कुछ वैश्विक साहित्य पढ़ना चाहिए जिससे आपकी बातें ज्यादा गंभीर लगें।

कोरोना से निपटने में राजा जी ने इंटरनेशनल डिप्लोमेसी की। किस तरह के सोशल मीडिया कैम्पेन चलते थे उन दिनों, विदेशों को वेक्सीन दें तो देश की जनता की उपेक्षा की बातें, विपक्ष के बड़े नेताओ द्वारा वेक्सीन पर अविश्वास का भरम वगैरह वगैरह वो तो भला हुआ कि वेक्सीन का ऊँट राजा जी की करवट बैठ गया वरना राजा जी को गाली देने में कसर तो रत्ती भर नहीं छोड़ी गई थी।

देश में कोई बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि पर राजा जी का बयान आ जाये तो इसे उनकी क्रेडिट लेने की तरकीब निरूपित करना हर नाकारा आदमी की ड्यूटी होना ही चाहिये, और यदि राजा जी का कोई ट्वीट न आ पाए तब तो इसे वैज्ञानिकों की घोर उपेक्षा बताना तय है।

आशय यह है कि हर घटना पर जागरुखता से हिस्सा लेना और प्रतिक्रिया करना हर देशवासी का कर्तव्य होता है। इस प्रक्रिया में विपक्ष की भूमिका सबसे सुरक्षित पोजीशन होती है, “मैंने तो पहले ही कहा था “ वाला अंदाज और आलोचना के मजे लेना खुद कंधे पर बोझा ढोने से हमेशा बेहतर ही होता है। इसलिए राजा जी को उनके हर भले बुरे काम के लिए गाली देकर अपने नागरिक दायित्व को निभाने में पीछे न रहिये। तंज कीजिये, तर्क कुतर्क कुछ भी कीजिये सक्रीय दिखिए। बजट बनाने में बहुत सोचना समझना दिमाग लगाना पडता है। आप तो बस इतना कीजिये कि बजट कैसा भी हो, राजा कोई भी हो, वह कुछ भी करे, उसे गाली दीजिये, आप अपना पल्ला झाड़िये, और देश तथा समाज के प्रति अपने बुद्धिजीवी होने के कर्तव्य से फुर्सत पाइये।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 213 – चलो चलें महाकुंभ- 2025 ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता चलो चलें महाकुंभ- 2025”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 213 ☆

🌻 चलो चलें महाकुंभ- 2025🌻

 (विधा – दोहा गीत)

 

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।

वेद ग्रंथ सब जानते, भारत भूमि महान।।

 *

सप्त ऋषि की पुण्य धरा, साधु संतों का वास।

बहती निर्मल नीर भी, नदियाँ भी है खास।।

गंगा जमुना धार में, सरस्वती का मान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

 होता है संगम जहाँ , कहते प्रयागराज।

धर्म कर्म शुभ धारणा, करते जनहित काज।।

मोक्ष शांति फल कामना, देते इच्छित दान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

अमृत कुंभ का योग भी, होता शुभ दिन वर्ष।

सारे तीर्थ मंडल में, बिखरा होता हर्ष।।

आता बारह वर्ष में, महाकुंभ की शान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

आते हैं सब देव भी, धरकर योगी भेष।

नागा साधु असंख्य है, काम क्रोध तज द्वेष।।

पूजन अर्चन साधना, करते संगम स्नान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

गंगा मैया तारती, सबको देती ज्ञान।

भक्ति भाव से प्रार्थना, लगा हुआ है ध्यान।। 

पाप कर्म से मोक्ष हो, मांगे यही वरदान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

 *

महाकुंभ यह पर्व है, सर्दियों की यह रीत।

दूर देश से आ मिले, बढ़ती सबकी प्रीत।।

भेदभाव को त्याग के, करना संगम स्नान।

संस्कारों को मानते, संस्कृति है पहचान।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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