हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 18 – पछुआ साँकल खटकाती है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – पछुआ साँकल खटकाती है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – कादम्बरी # 18 – पछुआ साँकल खटकाती है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

अमराई की याद 

हृदय शीतल कर जाती है 

उजड़े गाँवों की गलियाँ

अब हमें रुलाती हैं 

कभी खनकती रुनझुन-

रुनझुन चिड़ियों की पायल 

बैलों की घंटियाँ 

निकट ज्यों होवे देवालय 

चूड़ी की खन-खन जैसे

पनिहारिन गाती है 

शहरों में गुम गई 

हमारी वह स्वच्छंद हँसी 

नैसर्गिक छवियाँ 

आँखों में अब तक रची-बसीं 

एकाकीपन में

पछुआ साँकल खटकाती है 

सपने सी लगती हैं 

सारी बचपन की बातें 

खलिहानों में कटती थीं 

जब गर्मी की रातें 

अब कूलर की हवा

देह में चुभ-चुभ जाती हैं

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 95 – अंतरिक्ष में लिख दिया… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण रचना “अंतरिक्ष में लिख दिया…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 95 – अंतरिक्ष में लिख दिया…

भारत-माँ ने भ्रात को, राखी भेजी खास।

लाज रखी है चन्द्र ने, मामा तुम बिंदास।।

 

अंतरिक्ष में लिख दिया, भारत ने अध्याय।

दक्षिण ध्रुव में पहुँच कर, कहा चंद्रमा पास।।

 

तेईस सन तेइस तिथि, माह-गस्त बुधवार।

चंद्रयान थ्री भा गया, बिसरे सब संत्रास।।

 

यात्रा लाखों मील की, पाया खास मुकाम।

चालिस दिन की राह चुन,पहुँचा चंद्र निवास।

 

मान दिलाया जगत में, इसरो की है शान।

बुद्धि ज्ञान विज्ञान से, विश्व गुरू नव आस।।

 

अनुसंधानों में निपुण, मानव हित कल्याण।

इसरो भारत देश का, विश्व चितेरा खास।। 

 

शोधपरक विज्ञान से, भारत देश महान।

सबकी आँखें हैं लगीं, जो थे बड़े निराश।।

 

सोम-विजय स्वर्णिम बना,जिसके मुखिया सोम।

विश्व क्षितिज में छा गए, जग को आए रास।।

 

चलें टूर पर हम सभी, कहें न चंदा दूर।

मामा की लोरी सुने, करें हास परिहास।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 148 –“समीक्षा वार्ता” – संपादक – श्री सत्यकेतु सांकृत ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री सत्यकेतु सांकृतजी द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका “समीक्षा वार्ता”  पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 148 ☆

☆ “समीक्षा वार्ता” – संपादक – श्री सत्यकेतु सांकृत ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कृति चर्चा

पत्रिका – समीक्षा वार्ता

त्रैमासिक

वर्ष २ अंक २

संपादक सत्यकेतु सांकृत

संपर्क [email protected]

सी ७०१, न्यू कंचनजंगा, सेक्टर २३, द्वारिका, नई दिल्ली ७७

वार्षिक ५००रु

☆ “सोलह पुस्तकों की गंभीर विशद सामयिक समीक्षायें” – विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

अव्यवसायिक साहित्य पत्रिका “समीक्षा वार्ता” १९६७ से २०१० तक स्व गोपाल राय के संपादन में लगातार छपती रही। लघु अनियतकालीन अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिकाओ का साहित्यिक अवदान महत्वपूर्ण रहा है। वर्तमान परिदृश्य में वास्तव में ऐसी पत्रिकाओं  का प्रकाशन एक जुनून ही होता है। जिसमें आर्थिक प्रबंधन, पत्रिका का स्तरीय कलेवर जुटाना, संपादन, प्रूफ रीडिंग, प्रकाशन से लेकर डिस्पैच तक सब कुछ महज दो चार हाथों ही होता है। एक अंक की बारात बिदा होते ही अगले अंक की तैयारी शुरू हो जाती है। कम ही लोग खरीद कर पढ़ते हैं। डाक व्यय अतिरिक्त लगता है, स्वनाम धन्य रचनाकार तक मिलने की सूचना या प्रतिक्रिया भी नहीं देते। मैं यह सब कर चुका हूं अतः अंतर्कथा और समर्पित प्रकाशक के दर्द से वाकिफ हूं। २०२२ में समीक्षा वार्ता को पुनः मूर्त स्वरूप दिया है वर्तमान संपादक सत्यकेतु जी और रागिनी सांकृत जी ने। नये हाथों में समीक्षा वार्ता के इस नये अभियान को स्व गोपाल राय के सुदीर्घ प्रकाशन से प्रतिबद्ध दिशा, विषय वस्तु और साख मिली हुई है। लैटर कम्पोजिंग प्रेस से १९६७ में प्रारंभ हुई तत्कालीन पत्रिका को यह सीधे ही उडान के दूसरे चरण में ले जाता प्लस पाइंट है।

 संपादकीय में दार्शनिक अंदाज में सत्यकेतु जी ने बिलकुल सही लिखा है ” भारतीय जीवन का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है जो मानस में मौजूद नहीं है। राम सर्वत्र हैं। अभिवादन में राम, दुख में हे राम, घृणा में राम राम, और मृत्यु में राम नाम सत्य है। प्रसंगवश मैं इसमें एक आंखों देखी घटना जोड़ना चाहता हूं। हुआ यह था कि एक सार्वजनिक परिवहन में एक ग्रामीण युवा लडकी मुझसे अगली सीट पर बैठी थी, उसके बाजू में बैठे लडके ने उसके साथ कुछ अभद्र हरकत करने का यत्न किया तो उस ग्रामीणा ने जोर से केवल “राम राम” कहा, सबका ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हो गया तथा लडका स्वतः दूरी बनाकर शांत बैठ गया। मैने सोचा यही घटना किसी उसकी जगह किसी अन्य शहरी लडकी के साथ घटती या वह राम नाम का सहारा लेने की जगह कोई अन्य प्रतिरोध करती तो बात का बतंगड़ बनते देर न लगती। मतलब राम का नाम सदा सुखदायी।

इस अंक में विद्वान समीक्षको द्वारा की गई सोलह पुस्तकों की गंभीर विशद सामयिक समीक्षायें सम्मलित हैं। पत्रिका के कंटेंट से अपने पाठको को परिचित करवाना ठीक समझता हूं। ‘जयशंकर प्रसाद महानता के आयाम’ पर लालचंद राम का आलेख है। सवालों के रू-ब-रू शीर्षक से सूर्यनाथ ने, भाषा केंद्रित आलोचना। . बली सिंह, दुनिया के व्याकरण के वरअक्स एक रचनात्मक पहल ‘लोकतंत्र और धूमिल ‘ रमेश तिवारी के आलेख पठनीय है। नंगे पाँव जो धूप में चले, शाहीन ने लिखा है। धर्म और अधर्म की ‘राजनीति’ पर भावना ने, ‘आम्रपाली गावा’ के बहाने इतिहास की समीक्षा गोविन्द शर्मा का लेख है। सूर्यप्रकाश जी ने मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियाँ, जीवन का सुंदर विज्ञान है: इला की कविता किरण श्रीवास्तव का आलेख लिया गया है। लघु पत्रिकाओं के बहाने हिंदी साहित्य की पड़ताल, आसिफ खान ने सविस्तार लिखा है। आउशवित्ज : एक प्रेम कथा लिखा है जय कौशल ने।

ऑपरेशन वस्तर प्रेम और जंग (एक रोमांचक उपन्यास) शीर्षक से रश्मि रानी ने लिखा है। चुप्पियों में आलाप : देह की रागात्मकता और वर्जनाओं से छटपटाहट का व्याकुल उद्गार, जितेन्द्र विसारिया। गहरी संवेदनाओं का दस्तावेज लिखा है प्रियंका भाकुनी ने। कालिंजर : भाषा और शिल्प का उत्सव लेख लक्ष्मी विश्नोई का है। कीड़ा जो पहाड़ पर जड़ित है शीर्षक है मो. वसीम के लेख हैं। ललित गर्ग ने पड़ताल की है तितली है खामोश दोहा संकलन की आलेख पुरातन और आधुनिक समय का समन्वय में।

समीक्षा वार्ता 5764/5, न्यू चन्द्रावल जवाहर नगर, दिल्ली-110007 दूरभाष : 7217610640 से प्रकाशित होती है। लेखक या प्रकाशन ‘समीक्षा वार्ता’ के संपादकीय कार्यालय पर पुस्तक की दो प्रतियाँ भेज सकते हैं। बेहतर होता कि प्रत्येक लेख के साथ एक बाक्स में किताब के विवरण मूल्य प्राप्ति स्थल, किताब की और लेकक तथा समीक्षक के फोटो आदि भी छापे जाते। पत्रिका इंटरनेट पर उपलब्ध करवाई जानी चाहिये जिससे स्थाई संदर्भ साबित हो। पर निर्विवाद रूप से इस स्तुत्य साहित्यिक प्रयास के लिये सत्यकेतु सांस्कृत का अभिनंदन बनता है।  

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 49 – देश-परदेश – जाम ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 49 ☆ देश-परदेश – जाम ☆ श्री राकेश कुमार ☆

कल एक मित्र से आवश्यक कार्य था, इसलिए उसे सुबह फोन किया और पूछा क्या कर रहे हो, उसने बताया ब्रेड के साथ जाम ले रहा हूं। सुनकर मेरा माथा ठनका सुबह-सुबह ही जाम।

दोपहर को पुनः उसको फोन किया तो बोला धूप में जाम के मज़े ले रहा हूं। मैने फोन काट दिया। शाम को उसको फिर से फोन किया तो बोला बाद में बात करना, अभी जाम में हूं।   परेशान होकर रात्रि फिर से नो बजे फोन किया तो वो बोला, भाई अभी तो जाम चल रहा है, कल बात करेंगे।

वाह रे जाम तेरे कितने नाम! वाह रे़ जाम तेरे कितने काम!!

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #203 ☆ ‘शालीन तंबोरा…’ ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 203 ?

☆ शालीन तंबोरा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

पतंगासारखा होतो, कुणी हा छाटला दोरा

गगन हे भेदणारा मी, क्षणातच उतरला तोरा

हृदय तू चोरुनी नेले, जरी कुलपात ते होते

कसा रे प्राणवायूतुन, उतरला आत तू चोरा

सुका दुष्काळ पडलेला, ढगातुन होइना वृष्टी

तुला पाहून बरसूदे, असा तू नाच रे मोरा

दुधावर साय धरताना, फसफसू लागले आहे

कमी कर आच तू थोडी, उतू जाऊ नको पोरा

उतरते कर्ज श्वासाचे, कुडी सोडून जाताना

तनाचा सातबाराही, बघा झाला कसा कोरा

असे अंधार पाठीशी, समोरी तू उभी आहे

नको ना दीप तू लावू, तुझा तर चेहरा गोरा

रसिकता कालची येथे तुला दिसणारही नाही

सखे तू गा तुझे गाणे तुझा शालीन तंबोरा

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ पाऊलखुणा… (विषय एकच… काव्ये दोन) ☆ श्री आशिष बिवलकर आणि सुश्री निलांबरी शिर्के ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ?  पाऊलखुणा… (विषय एकच… काव्ये दोन) ☆ श्री आशिष बिवलकर आणि सुश्री निलांबरी शिर्के ☆

श्री आशिष बिवलकर   

?– पाऊलखुणा… – ? ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

( १ )

हातात हात तुझा,

करू सोबत जीवनाचा प्रवास !

हृदयावर कोरले नाव तुझे,

रम्य वाटतो तुझा सहवास !

श्वासात माझ्या,

दरवळे तुझाच गंध !

स्वर्गीय सुखासारखे,

तुझ्या प्रीतीचे मर्मबंध !

फेसळणारा विशाल सागर,

तुझ्या माझ्या प्रीतीची देतोय साक्ष !

अथांगता त्याची हृदयात,

तुझ्या प्रीतीतच दिसतो मज मोक्ष !

तुझ्या माझ्या पाऊलखुणा,

या लाटा  सहजच  पुसतील !

मनातल्या गाभाऱ्यात सदैव,

आपल्या प्रेमाचे ठसे दिसतील !

चिरंजीवी असू दे,

आपल्या प्रेमाची कहाणी !

माझ्या हृदयाचा तू राजा,

तुझ्या ह्रदयाची मी राणी !।

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?– पाऊलखुणा… – ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

( २ ) 

हातात  हात आश्वासक  साथ

न बोलता कळते काय मनात

जोडीने पावलाचे ठसे उठती

ओलसर वाळूत सागर काठात — 

 लाटा गाजेच गीत गात येतील 

 पाऊल खुणांना सवे नेतील

 रोज समूद्राच्या गाजेमधून 

 आपल्या प्रेमाचे गीत गातील —

 अथांग  सागर असंख्य  लाटा

 त्यात आपला तरलसा वाटा

लाटा ,सागर ,रेती ,किनारा

आपल्या आनंदाच्या पेठा —

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

मो 8149144177

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 153 – गीत – अभिनय का शाप… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – अभिनय का शाप।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 153 – गीत – अभिनय का शाप…  ✍

अधरों पर शब्द और मन में संताप

जीवन की शकुन्तला, अभिनय का शाप

 

रोज रोज नींद जगे

जनमती थकान

हूटर के हाथ बिके

गीत के मकान।

 

तख्ते का कोलतार

कक्षा का शोर

पानी के संग साथ

निगल गई भोर ।

गोद लिये सपनों पर, शासन का ताप ।

 

लेती है दोपहरी

प्रेस की पनाह

प्रतिभा की परवशता

पथरीली राह।

 

शब्दों को अर्थ मिले

भावों की ओट

अर्थ का अनर्थ करे

घावों पर चोट ।

बेच दिया नाम गाँव, किया बड़ा पाप ।

 

कुहराई शामों का

संगी है कौन

दरवाजा साधे है

सिन्दूरी गौन।

 

मित्रों की भीड़भाड़

परिचय का जाल

किलक भरे आँगन में

उफनाई दाल।

गीत नहीं मुझको ही बाँच रहे आप।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 153 – “जुदा हुए सब…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  “जुदा हुए सब )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 153 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जुदा हुए सब …” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

जुदा हुए सब लोक कथा में

बचा सिर्फ राजा

किसके नाम सड़क का कर दें

किसके दरवाजा

 

कथा  वाचकोंकी दुनिया में त्रस्त

प्रथाएं हैं

राजा रानी  व जनता की

यही कथाएं है

 

सभी गरीब , तंगदस्ती की

मारी  है परजा 

बाहर खुशहाली का बजता

रहताहै बाजा

 

एक कहानी ख़त्म हुई

दूजी की मनो दशा  —

में, फिर कोई शख्स आ गया

कर के नया नशा 

 

बाहर राज-  प्रजा-  वत्सलता

झिझकी खड़ी मिली

ऐसी कोई कथा नहीं

जो उसे लगे ताजा

 

फिर भी कथा और किस्सों  का उपक्रम है जारी

ग्राम्यजनों को प्रजातंत्र

लगता है सरकारी

 

और कथा में मुझ को

आमंत्रण मिलते रहते

तू ही कथावस्तु से समझौता

करने आ जा  

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

30-07-2019  

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 204 ☆ जीवन का सच ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – “जीवन का सच)

☆ कविता – जीवन का सच ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय  

अनकहे शब्दों के बोझ से,

थक जाते हैं वे कभी कभी,

इस तरह उनका खामोश रहना, 

समझदारी है या फिर मजबूरी,

एक दिन सपने में उनके कर्म,

उनसे अचानक मिलने पहुंचे, 

बोले हद से ज्यादा अच्छे होने, 

की कीमत नहीं चुका पाओगे,

इसलिए खुद को थोड़ा अच्छा, 

बना लीजिए कुछ लिख डालिए,

महासागर की तरंगें मापने की 

बात तो सोचना भी असंभव है,

जीवन सच में अबूझ पहेली है

जीवन में करुणा है खोजिए,

जीवन में शांति महसूस कीजिए

कुछ भी समझ नहीं आता तो 

जीवन का श्रृंगार लिख दीजिए,

एक सच्ची बात सुन लीजिए,

मुश्किल नहीं है किसी को भी,    

अपना बहुत अपना बनाना, 

लेकिन बहुत ही मुश्किल है 

किसी को अपना बनाये रखना,

क्योंकि जीवन में अच्छी चीजें

चुरा लीं जातीं हैं आसानी से,

जैसे वे चुरा लेते हैं नम आंखें,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 145 ☆ # तुम जब मिलने आओगी… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# आजादी की पावन बेला में… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 145 ☆

☆ # तुम जब मिलने आओगी#

तुम जब मिलने आओगी

वो पल कितना पावन होगा

मुस्कुराती हुई कलियां होगी

झूमता हुआ सावन होगा

 

भीगा हुआ तन होगा

पुलकित कितना मन होगा

हर तरफ बजेगी शहनाई

मिलन की हो घड़ी आई

कोयल गीत सुनाएगी

जब तुम बाग में आओगी

रिमझिम-रिमझिम फुहारों से

तर-बतर चमन होगा

जब तुम मिलने आओगी

झूमता हुआ सावन होगा

 

फूलों के झूले होंगे

सुध-बुध सब भूले होंगे

तरूणाई झूल रही होगी

मदिरा बूंदों में घुल रही होगी

मतवाले भ्रमर घूम रहे होंगे

कलियों को चूम रहे होंगे

ऐसे मादक मौसम में

कितना मदमस्त पवन होगा

जब तुम मिलने आओगी

झूमता हुआ सावन होगा

 

तुम्हारे पग की आहट सुनकर

तुम्हारे पथ के कांटे चुनकर

राह में कलियां बिछी होंगी

प्रेम रस से सिंची होंगी

तुम्हारा दमकता हुआ रूप

जैसे बादलों से झांकती धूप

सावन में आग लगाता हुआ

बेजोड़ तुम्हारा यौवन होगा

तुम जब मिलने आओगी

झूमता हुआ सावन होगा

 

जब तुम आओगी तो

सावन की घटा बन छाओगी तो

बिजलियां जोर से कड़केगी

बूंदें बारिश बन बरसेगी

काया से मिलेगी जब काया

लगेगा स्वर्ग जमीं पर है आया

यह सावन वहीं रूक जायेगा

जब आगोश में बदन होगा

तुम जब मिलने आओगी

झूमता हुआ सावन होगा/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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