मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 140 ☆ कृष्ण… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 140 ? 

कृष्ण…

कृष्ण, आधार जीवनाचा

जीवन तारणहार

असे वाटे भेटावा एकदाचा.

 

कृष्ण, वात्सल्य प्रेमसिंधु

आकर्षण नावात तयाच्या

तो तर आहे दिनबंधु.

 

कृष्ण, सुदामाची मैत्री

ती अजरामर झाली

आज नाही अशी मैत्री.

 

कृष्ण, शुद्ध प्रेमळ

करी जीवाचा उद्धार

हरावे माझे, कश्मळ

 

कृष्ण, कान्हा मिरेचा

विष पिले तिने

जोडला साथीदार आयुष्याचा.

 

कृष्ण, स्मरवा दिनरात

वसावा तोच हृदयात

करावी त्याची भक्ती सतत.

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #206 ☆ व्यंग्य – बंडू के शुभचिन्तक ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक व्यंग्य बंडू के शुभचिन्तक। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 206 ☆
☆ व्यंग्य – बंडू के शुभचिन्तक

बंडू ने बड़े उसूलों के साथ शादी की— कोई लेन-देन नहीं, कोई तड़क-भड़क, कोई दिखावा नहीं। सादगी से शादी कर ली। दोस्तों, परिचितों को आमंत्रित करके मिठाई खिला दी, चाय पिला दी। बस।

बंडू ने कुछ और भी क्रांतिकारिता की। शादी के बाद यह व्रत लिया कि कम से कम तीन साल तक देश की जनसंख्या में कोई योगदान नहीं देना है। पत्नी गुणवंती को उसके माँ-बाप ने आशीर्वाद दिया था—‘दूधों नहाओ,पूतों फलो।’ दूधों नहाना तो अच्छे अच्छों के बस का नहीं रहा, पूतों फलने में कोई हर्रा-फिटकरी नहीं लगता। आशीर्वाद का यह हिस्सा आसानी से फलीभूत हो सकता था। लेकिन बंडू ने उस पर भी पानी फेर दिया। गुणवंती भी मन मारकर रह गयी। सोचा, अभी मान लो, फिर धीरे-धीरे पतिदेव को समझाएंगे।

लेकिन पड़ोसी, रिश्तेदार नहीं माने। इस देश में साल भर में बच्चा न हो तो अड़ोसी-पड़ोसी पूछने लगते हैं—‘ कहो भई, क्या देर है? कब मिठाई खिलाने वाले हो?’ बच्चा न होने की चिन्ता पति-पत्नी को कम, पड़ोसियों को ज़्यादा होने लगती है।

बंडू का एक साल खूब आनन्द और मस्ती से गुज़रा। मर्जी से घूमे, मर्जी से खाया, मर्जी से सोये, मर्जी से उठे। कोई चें पें नहीं। पति के प्रेम का हिस्सेदार कोई नहीं। बंडू का एकाधिकार।

लेकिन एक साल बाद परिचित और पड़ोसी अपनी शुभचिन्ता से उनके आनन्द में सुई टुच्चने लगे। कोई देवी बड़े गर्व से कहती, ‘भई, हमारे पेट में तो पहले ही साल में लट्टू आ गया था, दूसरे साल में नट्टू आया और तीसरे साल में टुन्नी आयी। फिर दो साल का गैप रहा। उसके बाद गट्टू और फिर चट्टू।’

अफसोस यही है कि ऐसी माताएँ भारत में जन्म लेती और देती हैं। रूस में होतीं तो राष्ट्रमाता के खिताब से विभूषित होतीं।

दूसरी महिलाएँ गुणवंती की सास को सुनाकर कहतीं, ‘भई, हमारी बहू भली निकली कि पहले साल में ही हमें नाती दे दिया। अब हम नाती खिलाने में मगन रहते हैं।’

जिन महिलाओं ने अपना सारा जीवन क्रिकेट या हॉकी की एक टीम को जन्म देने में गला दिया था और बच्चों को जन्म देते देते जिनका शरीर खाल और हड्डी भर रह गया था, वे भी गुणवंती के सामने श्रेष्ठता-बोध से भर जातीं।

दो साल होते न होते गुणवंती को देखकर महिलाओं में खुसुर-फुसुर होने लगी। वृद्ध महिलाएँ उसकी सास का दिमाग चाटती रहतीं— ‘क्या बात है? यह कैसी फेमिली प्लानिंग है? क्या बुढ़ापे में बच्चा पैदा करेंगे? बंडू की शादी करने से क्या फायदा जब अभी तक नाती का मुँह देखने को नहीं मिला।’

गुणवंती की सास परेशान। वह यह सब सुनकर दुखी और उम्मीद भरी निगाहों से बहू की तरफ देखती, जैसे कहती हो— ‘बहू, सन्तानवती बनो और मुझे इन शुभचिन्तकों से निजात दिलाओ।’

गुणवंती के आसपास हमेशा एक सवाल लटका रहता। महिलाएँ तरह-तरह की नज़रों से उसे देखतीं— कोई उपहास से, कोई सहानुभूति से, तो कोई दया से।

बीच में परेशान होकर गुणवंती बंडू से कहती, ‘अब यह व्रत बहुत कठिन हो रहा है। अब इन शुभचिन्तकों पर दया करो और अधिक नहीं तो एक सन्तान को धरती पर अवतरित होने की अनुमति दो।’

लेकिन बंडू एक नंबर का ज़िद्दी। लोग जितना टिप्पणी करते उतना ही वह अपनी ज़िद में और तनता जाता।

तीसरा साल पूरा होते-होते पड़ोस की वृद्धाएँ पैंतरा बदलने लगीं। अब वे सिर हिला हिला कर गुणवंती की सास से कहतीं, ‘बहू की डॉक्टरी जाँच कराओ। हमें तो कुछ दाल में काला नजर आता है।’

यह बातें सुनकर अब गुणवंती का जी भी घबराने लगा। वह बंडू से कहती, ‘देखो जी, ये लोग मेरे बारे में क्या-क्या कहती हैं। अब तो अपना व्रत छोड़ दो।’

लेकिन बंडू कहता, ‘मुझे दुनिया से कोई मतलब नहीं। हम इन सब को खुश करने के लिए अपनी योजना खत्म नहीं करेंगे।’

और कुछ वक्त गुज़रा तो और नये सुझाव आने लगे— ‘भई, हमारे खयाल से तो बहू बच्चा पैदा करने लायक नहीं है। जाँच वाँच करवा लो। जरूरत पड़े तो तलाक दिलवा कर बंडू की दूसरी शादी करवा दो। बिना सन्तान के मोक्ष कैसे मिलेगा?’ मसान जगाने और कनफटे नकफटे बाबा के पास जाने के सुझाव भी आये।

हमारे देश में अभी तक बच्चा न होने पर उसके लिए पत्नी को ही दोषी समझा जाता है। डॉक्टरी जाँच भी अक्सर पत्नी की ही होती है। पतिदेव की जाँच पड़ताल किये बिना ही उनकी दूसरी शादी की तैयारियाँ होने लगती हैं।

ये सब बातें सुनकर गुणवंती के प्राण चोटी तक चढ़ने लगे। वह पति की चिरौरी करती— ‘नाथ, मुझ दुखिया के जीवन का खयाल करके द्रवित हूजिए और एक सन्तान को आने की अनुमति प्रदान कीजिए।’

अब स्थितियाँ  बंडू के लिए भी असह्य होने लगी थीं। उसकी माँ बेचारी दो पाटों के बीच फँसी थी— इधर बेटा बहू, उधर शुभचिन्तकों की फौज।

अन्ततः एक दिन गुणवंती ने वे लक्षण प्रकट कर दिए जो किसी स्त्री के गर्भवती होने का प्रमाण देते हैं। उसकी सास ने चैन की साँस ली। बात एक मुँह से दूसरे मुँह तक चलते हुए पूरे मुहल्ले में फैल गयी। गुणवंती के दुख में दुखी सब महिलाओं ने सिर हिलाकर संतोष प्रकट किया।

लेकिन दुख की बात यह हुई कि उनके मनोरंजन और उनकी दिलचस्पी का एक विषय खत्म हो गया। अब किसे सलाह दें और किसकी तरफ झाँकें? अब उनकी नज़रें किसी दूसरे बंडू और दूसरी गुणवंती की तलाश में इधर-उधर घूमने लगीं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 205 – कलयुग केवल नाम अधारा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 205 कलयुग केवल नाम अधारा ?

राम नाम अवलंब बिनु परमारथ की आस।

बरसत वारिद बूँद गहि चाहत चढ़न अकास।।

श्री राम का नाम परमार्थ अर्थात धर्म, अर्थ, काम मोक्ष प्रदान करता है। उनके नाम के बिना भवसागर से पार होने की कल्पना कुछ ऐसी ही है, जैसे कोई बारिश की बूँदों के सहारे आकाश में जाना चाहता हो। अर्थ स्पष्ट है, श्री राम का नाम तारणहार है।

श्री राम के नाम को, उनकी अतुल्य जीवनयात्रा को घर-घर और जन-जन तक जनभाषा में पहुँचानेवाले ग्रंथ का नाम है, रामचरितमानस।  कौशल्या हितकारी राम से रणकर्कश श्री राम  की कथा है रामचरितमानस, राजा राम से लोकनायक श्री राम होने की गाथा है रामचरितमानस। रामचरितमानस श्रीराम के व्यक्तित्व और कृतित्व की अशेष यात्रा है। रामचरितमानस में को अवधी भाषा में लिखा गया है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस अमर कृति का लेखन विक्रम संवत 1631 तदनुसार  ईस्वी सन 1574 को  मंगलवार श्री रामनवमी के दिन आरंभ किया था। यह लेखन 2 वर्ष 7 महीने और 26 दिन चला। विक्रम संवत 1633 अर्थात ईस्वी सन 1576 को श्री राम विवाह के दिन यह संपन्न हुआ।

रामचरितमानस में कुल सात खंड / अध्याय हैं, बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किन्धाकांड, सुन्दरकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड।

मानस में संस्कृत और प्राकृत के कुल मिलाकर 18 छंदों में सृजन हुआ है। रामचरितमानस में कुल 10902 पद हैं। इनमें 9388 चौपाई हैं। मानस में 1172 दोहा हैं। इसमें 87 सोरठा हैं। इस महाकाव्य में 208 छंद हैं जिनमें हरिगीतिका, त्रिभंगी, तोमर, चौपैया सम्मिलित हैं। इस कालजयी ग्रंथ में 47 श्लोक हैं। इन श्लोकों में शार्दूलविक्रीडित, अनुष्टुप, प्रमाणिका, वंशस्थ, उपजाति, मालिनी, वसंततिलका, रथोद्धता, भुजंगप्रयात, तोटक, स्रग्धरा हैं।

यद्यपि स्थूल रूप से देखें तो रामचरितमानस,  रामकथा है, तथापि सूक्ष्म अवलोकन-अध्ययन  करें तो पाएँगे कि इसके अक्षर-अक्षर में जीवनमूल्य और नीतिमत्ता साक्षात दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि श्री राम का जीवनवृत्त ही ऐसा है। संभवत: यही कारण था, जिसने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त से लिखवाया,

राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।

कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है।।

रामचरितमानस ने श्री राम को एक अनन्य व्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया।

राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, लोकहितकारी हैं। राम एकमेवाद्वितीय हैं।

रामचरितमानस पढ़ना अर्थात सदाचार, नीतिमत्ता और जीवन के आदर्श पढ़ना। विशेषकर उत्तरभारत में तो मानस के दोहे और चौपाइयाँ, लोकोक्तियों के समान चलन में हैं।

अवधी में होने के कारण रामचरितमानस सार्वजनीन हुआ, जन-जन की जिह्वा का गान बना। जिस तरह बालक को दादी, नानी कहानी सुनाती हैं, कुछ उसी तरह हर आयुसमूह के लिए दादी, नानी की लोककथा बना रामचरितमानस। यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास रचित मानस का पारायण आगे चलकर परम्परा बना।

वस्तुत: संसार रूपी सागर में हर मनुष्य एक घड़ा है, एक घट है। इस घट में रावण का निवास है पर श्रीराम का भी वास है। मनुष्य से अपेक्षित है कि वह भीतर के  श्रीराम का जागरण और अंतर्भूत रावण का मर्दन करे।अपने अवगुणों का दहन, और रामत्व का जागरण  ही रामचरितमानस का सच्चा पारायण है।

‘रामत्व’ की अनुकम्पा गोस्वामी तुलसीदास को प्राप्त हुई थी। तभी श्रीरामचरितमानस में आपने लिखा,

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।

बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥

अर्थात जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ।

गोस्वामी जी के कविरूप का ध्रुवतारा है रामचरितमानस। कहा गया है,

कलयुग केवल नाम अधारा।

सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।

कलयुग में केवल श्री राम का नाम एक आधार है। उनके सुमिरन मात्र से, केवल उनके स्मरण से मनुष्य भवसागर पार हो जाता है।

श्री राम के चरित के माध्यम से जीवन की ज्ञात, अज्ञात स्थितियों को जानने, समझने और हल की दिशा पर प्रकाश डालने का माध्यम है रामचरितमानस। कालजयी साहित्य का सार्वकालिक उदाहरण है रामचरितमानस।

श्रावण शुक्ल सप्तमी को गोस्वामी तुलसीदास जी की जयंती है। विश्व को रामचरितमानस जैसा अनन्य महाकाव्य  देनेवाले गोस्वामी जी को नमन।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 153 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 153 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 153) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 153 ?

☆☆☆☆☆

कुछ आई पल, ज़रूरतों के

साथ  क्या  गुज़ारे,

मुँह फुला  के, बैठ  गईं

मेरी  सब  ख्वाहिशें..!

☆☆

Just spent some moments

with the needs,

All my wishes frowned 

with the grimace..!

☆☆☆☆☆

 जाने  कौन  देगा उनके

हिस्से के जवाब,

वो  लोग  जो  अक्सर

चुप रह जाते हैं…!

☆☆

Don’t know who will

answer  their  part…

Of those people, who

often  remain  silent…!

☆☆☆☆☆

चलो  ख़ामोशियों  की

गिरफ़्त  में  चलते  हैं,

बातें  ज़्यादा  हुईं  तो

ज़्बात  खुल  जायेंगे..!

☆☆

Let’s go in the grip of silence,

if too much of talks happen

Then emotions will become

a publically known secret..!

☆☆☆☆☆

सारी  गवाहियाँ  तो मेरे

हक़  में  आ  गईं,

लेकिन  मेरा  बयान  ही

मेरे  ख़िलाफ़  था…!

☆☆

All  the  evidences

came in my favour.

But my statement itself

was  against  me…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 151 ☆ नवगीत – “कौन बसा मन में अनजाने?…” ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक नवगीत – “कौन बसा मन में अनजाने?)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 151 ☆

☆ नवगीतकौन बसा मन में अनजाने?… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

निज छवि हेरूँ

तुझको पाऊँ

.

मन मंदिर में कौन छिपा है?

गहन तिमिर में कौन दिपा है?

मौन बैठकर

किसको गाऊँ?

.

हुई अभिन्न कहाँ कब किससे?

गूँज रहे हैं किसके किस्से??

कौन जानता

किसको ध्याऊँ?

.

कौन बसा मन में अनजाने?

बरबस पड़ते नयन चुराने?

उसका भी मन

चैन चुराऊँ?

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२-१२-२०१५, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #203 – 89 – “तुम मेरा ये संसार तो देखो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “तुम मेरा ये संसार तो देखो…”)

? ग़ज़ल # 89 – “तुम मेरा ये संसार तो देखो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

कमरे का विस्तार तो देखो,

तुम मेरा ये संसार तो देखो।

फ़ालतू  खबरों  से भरा है,

आज का अख़बार तो देखो।

बंद घरों में पार्टियाँ हो रहीं,

पल रहा व्यभिचार तो देखो।

धन जमा होता कंपनियों में,

नियोजित भ्रष्टाचार तो देखो।

शेर ऊलजलूल लिखे जा रहा,

‘आतिश’ का अचार तो देखो।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 80 ☆ मुक्तक ☆ ।। मैं उसकी बात करूँ, वो मेरी बात करे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक ☆ ।। मैं उसकी बात करूँ, वो मेरी बात करे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हाथों में   सब के  ही सब  का हाथ  हो।

एक    दूजे के लिए मन   से साथ  हो।।

जियो और जीने दो, एक ईश्वर की संतानें।

बात यह   दिल  में हमेशा ही  याद हो।।

[2]

सुख सुकून हर    किसी   का  आबाद  हो।

हर किसी के लिए संवेदना यही फरियाद हो।।

हर किसीके लिए सहयोग बस ये हो सरोकार।

मानवीय   रूपी ही एक दूसरे से  संवाद हो।।

[3]

हर दिल में बस स्नेह नेह  का ही  लगाव हो।

दिल के भीतर  तक बसता प्रेम का भाव हो।।

प्रभाव नहीं हो किसी  पर   घृणा के दंश का।

आपस में मीठे बोल का नहीं कहीं अभाव हो।।

[4]

हर कोई दूसरे के   जज्बात    की ही बात करे।

हो विश्वास का बोलबाला ना घात प्रतिघात करे।।

स्वर्ग सा  ही हिल मिल  कर रहें धरती पर हम।

मैं बस   तेरी बात करूं, और तू  मेरी बात करे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 144 ☆ बाल गीतिका से – “हमारा वतन 🇮🇳” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “हमारा वतन…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “हमारा वतन 🇮🇳” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

हमको प्यारा है भारत हमारा वतन

सारी दुनिया का सबसे सुहाना चमन

हम हैं पंछी ये गुलशन यहाँ बैठ मन

चैन पाता सजाता नये नित सपन ।

इसकी माटी में खुशबू है एक आब है

जैसे काश्मीर, दो आब, पंजाब है

इसकी धरती है चंदन, सुहाना गगन

धन भरे खेत खलिहान, मैदान, वन।

इसकी तहजीब का कोई सानी नहीं

जो पुरानी  होकर भी पुरानी नहीं

हर डगर-बिखरा मिलता यहाँ अपनापन

 प्रेम, सद्भाव संतोष है जिसके धन ।

हवा पानी में मीठी मोहब्बत घुली

 जिंदगी यहाँ है गंगाजल में घुली

फूल सा है खिला मन, खुला आचरण

सद् समझ, ईद होली बैसाखी मिलन ।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 166 – आई अंबाबाई ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 166 – आई अंबाबाई ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

अगं आई ,अंबाबाई 

तुझा घालीन गोंधळ ।

डफ तुण तुण्यासवे

भक्त वाजवी संबळ।

 

सडा कुंकवाचा घालू

नित्य आईच्या मंदिरी।

धूप दीप कापूराचा

गंध दाटला अंबरी.

 

 

ताट भोगीचे सजले

केळी, मध साखरेने।

दही मोरव्याचा मान

फोडी लिंबाच्या कडेने .

 

ओटी लिंबू  नारळाची

संगे शालू  बुट्टेदार।

केली अलंकार पूजा

सवे शेवंतीचा हार.

 

धावा ऐकुनिया माझा

 आई संकटी धावली।

निज सौख्य देऊनिया

धरी कृपेची सावली।

 

माळ कवड्यांची सांगे

मोल माझ्या जीवनाचे।

परडीत मागते मी

तुज दान कुंकवाचे।

 

असे दैवत जागृत

उभ्या ब्रह्मांडात नाही।

भक्त कल्याणाची देते

साऱ्या जगतास ग्वाही।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – ☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “प्रेम रंगे, ऋतूसंगे” – कवी – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ परिचय – सौ. राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “प्रेम रंगे, ऋतूसंगे” – कवी – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ परिचय – सौ. राधिका भांडारकर  

प्रेम रंगे, ऋतू संगे

कवी: सुहास रघुनाथ पंडित

प्रकाशक: अक्षरदीप प्रकाशन आणि वितरण

प्रथम आवृत्ती:१ मे २०२३

श्री सुहास रघुनाथ पंडित यांचा दुसरा काव्यसंग्रह प्रेम रंगे ऋतूसंगे हा नुकताच प्रकाशित झाला. या संग्रहातल्या कविता वाचताना प्रेम या सुंदर भावनेचा एक विस्तृत, नैसर्गिक आणि शिवाय अतिशय सुंदर शब्दात व्यक्त झालेला भाव अनुभवायला मिळाला. 

श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

पुस्तक हातात घेतल्यानंतर माझं पहिलं लक्ष गेलं ते अत्यंत सुंदर आणि अर्थपूर्ण अशा मुखपृष्ठावर.  हिरव्या धरणीच्या पार्श्वभूमीवर सुंदर बहरलेला लाल गुलमोहर आणि एक मानवी हात ज्यावरचे तर्जनी आणि अंगठा यातलं अंतर हे फारच बोलकं आहे.  कुठलाही चित्रकार जेव्हा समोरच्या दृश्याचं चित्र कागदावर रेखाटतो तेव्हा रेखाटण्यापूर्वी तर्जनी आणि अंगठा उघडून त्या अंतरातून एक माप घेत असतो. ते समोरचं  दृश्य त्याला त्या तेवढ्या स्केलमध्ये चितारायचं असतं.  कवी हा ही चित्रकारच असतो नाही का?  फक्त त्याच्यासाठी रंग, रेषा हे शब्दांच्या रूपात असतात आणि जे जे अवतीभवती घडत असते, दिसत असते ते सारे तो मनाच्या एका स्केलमध्ये टिपत असतो.  मुखपृष्ठावरचा हात आणि ही दोन बोटे अशी रूपकात्मक आहेत.  अवाढव्य पसरलेल्या निसर्गाच्या नजराण्याला मनाच्या कागदावर टिपणारं माप.  खरोखरच सुंदर, अर्थपूर्ण, बोलकं असं हे मुखपृष्ठ!

या काव्यसंग्रहाला लाभलेली डॉक्टर विष्णू वासमकर यांची प्रस्तावनाही अतिशय सुंदर, काव्याभ्यासपूर्ण आणि उल्लेखनीय आहे.  प्रस्तावनेत काव्यशास्त्र, त्याची सहा प्रयोजने, काव्याचे लक्षण, स्वरूप, तसेच काव्यशरीर या संकल्पनेत शब्द, अर्थ, रसोत्पत्ती, अलंकार, वक्रोक्ती, व्युत्पत्ती यांचे महत्त्वाचे स्थान याविषयीचे मुद्दे सुलभपणे उलगडले आहेत.  काव्यशास्त्रातील अलंकार, रस ,वृत्त ही काव्य कारणे किती महत्त्वाची आहेत हे या प्रस्तावनेत सूचकपणे सांगितलेले आहे.  सुरुवातीलाच ही प्रस्तावना वाचताना पुढच्या काव्य वाचनाला मग एक दिशा मिळते.  चांगल्या काव्याची ओळख होण्यास मदत होते. आणि जेव्हा मी पंडितांच्या  प्रेमरंगे ऋतुसंगे काव्यसंग्रहातील एकेक कविता वाचत गेले तेव्हा कवितेतला अभिजात दर्जा, त्यातले अलंकार, रस, वृत्त, छंद त्याचबरोबर प्रतिभा आणि अभ्यास या काव्य कारणांचा ही नितांत सुंदर असा अनुभव आला.  अत्यंत परिपक्व अशा या कविता आहेत.  उच्च कोटीची शब्दकळा यात आहे. काव्य म्हणजे नेमकं काय याचाच या कविता वाचताना खरा अर्थ कळतो.

या संग्रहात एकूण ६६ कविता आहेत. या सर्व कवितांमध्ये प्रेम हा स्थायीभाव आहे.  प्रेमाचे अनंत रंग यातून उलगडलेले आहेत. पंडितांनी त्यांच्या मनोगतात म्हटले आहे की ‘ प्रेम, निसर्ग आणि माणूस यांना एकमेकापासून कसे वगळता येईल?’ आणि हे किती खरे आहे याची जाणीव त्यांच्या या निसर्ग कविता वाचताना होते.

“प्रेमरंगे ऋतुसंगे”  या शीर्षकातच निसर्गाच्या बदलणाऱ्या ऋतुंसोबत उलगडणार्‍या प्रेम भावनेचे अनेक सूक्ष्म पदर दडलेले आहेत. सर्वच कवितांमध्ये गीतात्मकता, भावात्मकता, रसात्मकता आहे.  पंडितांची प्रतिभा, प्रज्ञा, अभ्यास वाचकाला थक्क करून सोडतो.  कवितांना दिलेली सुंदर आणि चपखल शीर्षके हे आणखी एक वैशिष्ट्य.

 प्रत्येक कवितेत प्रेमाचा मंत्र मिळतो, संदेश मिळतो.

       पाण्यामधली अवखळ झुळझुळ

       करात बिलवर करती खळखळ …

 

      शब्द होतील पक्षी आणि गातील गाणी तव दारी..

      लाटेवरती लाटा झेलत तूही आणिक मीही आलो

 

     खूप जाहले खपणे आता

     जपणे आता परस्परांना 

     खूप जाहला प्रवास आता

     गाठू विश्रांतीचा पार जुना.

…  अशा गेयता असलेल्या अनेक सुरेख काव्यपंक्ती पुन्हा पुन्हा वाचाव्यात असेच वाटते.

  उष्ण रश्मीचे सडे,

  कुरळे कुरळे मेघ .

  गर्भिताच्या गुहेतून अर्थवाही काजवे… यासारख्या शब्दरचना किती संपन्न, समृद्ध आहेत तेही जाणवते.

या काव्यसंग्रहातल्या ६६ही  कवितांवर खूप काही लिहिण्यासारखे आहे.  एकेक कवितेचे रसग्रहण करावे इतक्या त्या विलोभनीय आहेत, ताकदीच्या आहेत. मात्र “रात्र काळी संपली…” या एकाच कवितेबद्दल मी जरा सविस्तरपणे लिहायचं ठरवलेलं आहे.  अतिशय सुंदर, मला आवडलेली ही कविता आहे.  पण लिहिण्यापूर्वी एक सांगू इच्छिते की कवी, कविता, वाचक यांचं नातं जुळत असताना कवीच्या मनातले अर्थ आणि वाचकाच्या मनात उलगडलेले अर्थ भिन्न असू शकतात.  विचारांची फारकत होऊ शकते. 

“रात्रकाळी संपली”  हे गीतात्मक काव्य आहे. 

       आसमंती सूर येता नूर सारा पालटे

       रात्र काळी संपली किरण किरण सांगते ।।धृ 

 

      चांदण्याचे नुपूर लेऊन निघून गेली निशा 

      केशराचे वस्त्र ल्यायलेली  अंबरी आली उषा

      पाठशिवणीचा खेळ तयाचा वसुधा पाहते 

      रात्र काळी संपली..

 

      हिरवे दवही तांबूस झाले स्पर्शून जाता रविकिरणे 

      शेपूट हलवीत सुरू जाहले मुक्या जीवांचे बागडणे

      घरट्यामधुनी उडून जाता पहा पाखरू चिवचिवते

     रात्र काळी संपली…

 

     पूर्व दिशेला विझून गेल्या नक्षत्रांच्या ज्योती

     रांगोळीपरी फुले उमलली झाडां-वेलींवरती 

     तबकासम हे गगन सजले हळद कुंकवाने

     रात्र काळी संपली…

 

     गिरणीमधुनी,  रस्त्यामधुनी चक्र गरगरा फिरे

     जागी झाली गुरे वासरे जागी झाली घरे

     क्षणाक्षणाने काळाचेही पाऊल पुढे पडते

     रात्र काळी संपली किरण किरण सांगते …

तसे हे वर्णनात्मक गीत आहे.  “घनश्याम सुंदरा श्रीधरा अरुणोदय झाला”  या भूपाळीची आठवण ही कविता वाचताना होते. 

.. रात्रकाळी संपलेली आहे आणि सुंदर सकाळ उगवत आहे हा या गीतामधला एक आकृतीबंध.  अतिशय सुंदर, चपखल उपमा आणि उत्प्रेक्षांनी परिपूर्ण असलेलं हे काव्य.

.. चांदण्यांचे नपुर घातलेली निशा, केशराचे वस्त्र ल्यायलेली उषा आणि उषा निशाचा पाठशिवणीचा खेळ पाहणारी वसुंधरा.. पहिल्या कडव्यातले  हे वर्णन म्हणजे शब्दरूपी कुंचल्याने रेखाटलेलं  सकाळचे वास्तविक चित्र.

दुसऱ्या कडव्यातले रविकिरणाच्या स्पर्शाने तांबूस झालेले दव, बागडणारे  मुके प्राणी आणि घरट्यातून उडून जाणारे पाखरू…हे वर्णन पृथ्वीवरची जागी होणारी पहाट अलगद उतरवते.

.. पूर्व दिशा उजळते आणि नक्षत्रांच्या ज्योती विझत आहेत, झाडांवर वेलींवर फुलांची रांगोळी सजली आहे आणि गगन कसे तर तबकासारखे आणि रविकिरणांच्या तांबूस पिवळ्या प्रकाशास हळद-कुंकवाची उपमा देऊन जणू हळद कुंकवाचे हे आकाशरुपी तबक उषेचं स्वागत करत आहे.  या तिसऱ्या कडव्यातलं हे कल्पना दृश्य कसं सजीवपणे शब्दांतून आकारले आहे. या संपूर्ण गीतात हळूहळू उलगडणारी ही सकाळ अतिशय मनभावन आहे.

शेवटच्या आणि चौथ्या कडव्यात जागं झालेलं मानवी जीवन, घरे दारे,गुरे, वासरे यांचं वाहतं वर्णन वास्तव घेऊन उतरतं. आणि शेवटच्या दोन ओळी…

..  क्षणाक्षणांनी काळाचेही पाऊल पुढती पडते

    रात्र काळी संपली किरण सांगते…

या ओळी वाचल्यानंतर या संपूर्ण वर्णनात्मक गीतातला गर्भित आत्माच उघडतो.  संपूर्ण गीताला वेगळ्याच अर्थाची कलाटणी मिळते.  मग मला हे गीत रूपकात्मक वाटले. रात्र काळी संपली हे शब्द आश्वासक  भासले. निसर्गचक्रामध्ये जे अव्याहत, नित्यनेमे घडत असते त्याचा मानवी जीवनाशी, भावविश्वाशी संदर्भ असतो. रोजच येणाऱ्या आणि जाणाऱ्या उषा आणि निशा या माणसाच्या जीवनातल्या सुखदुःखाशी रूपक साधतात.  काळ म्हणजे आलेली परिस्थिती आणि किरण म्हणजे मार्गदर्शक गुरु किंवा आशावाद.  काळाचे पाऊल पुढती पडते म्हणजेच आजची परिस्थिती उद्या नसणार आहे हे सत्य. स्थित्यंतर हे नैसर्गिकच आहे.  त्यामुळे संकटाची, दुःखाची, नैराश्याची काळी रात्र संपून केशराची वस्त्रे लेऊन सकाळ होणार आहे. ही केशरी वस्त्रे म्हणजे आनंदाची प्रतीके. नवा दिवस,नवी स्वप्ने. तमाकडून प्रकाशाकडे होणारी वाटचाल.

ज्यावेळी या अर्थाने मी हे गीतात्मक काव्य वाचले तेव्हा मला शब्दाशब्दामध्ये दडलेलं एक सकारात्मक तत्व सापडलं आणि मग हे गीत केवळ वर्णनात्मक न राहता जीवनाला खूप मोठा रचनात्मक संदेश देणारं ठरतं.  एक लक्षात आलं की या सर्वच सहासष्ट कवितांमध्ये निसर्ग आणि मानवाचं एक अतूट भावात्मक नातं शब्दांनी रंगवलेलं आहे.

खरोखरच पुन्हा पुन्हा वाचाव्यात अशा या कविता देव्हाऱ्यातली एखादी पोथी वाचताना जी प्रसन्नता आणि ऊर्जा मिळते तद्वतच या कविता वाचताना मन प्रफुल्लित होते.  वाचकांनी या काव्यवाचनाचा जरूर आनंद घ्यावा हे मी आवर्जून सांगते.

सुहास पंडितांनी त्यांच्या अर्पण पत्रिकेत म्हटलं आहे,

       रसिका तुझ्याचसाठी हे शब्द वेचले मी 

       रसिका तुझ्याचसाठी हे गीत गुंफले मी..

कवी आणि वाचकाचं नातं हे किती महत्त्वाचं असतं याची जाण त्यांच्या या शब्दातून व्यक्त होते.  या सुंदर काव्यरचनांबद्दल मी  श्री सुहास पंडित यांचे मनापासून अभिनंदन आणि वाचकांना दिलेल्या या सुंदर भेटीबद्दल धन्यवाद देऊन  त्यांच्या या सुरेल  काव्यप्रवासासाठी खूप खूप शुभेच्छा व्यक्त करते.

परिचयकर्त्या : सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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