हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #196 ☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख्वाब : बहुत लाजवाब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 196 ☆

ख्वाब : बहुत लाजवाब 

‘जो नहीं है हमारे पास/ वो ख्वाब है/ पर जो है हमारे पास/ वो लाजवाब है’ शाश्वत् सत्य है, परंतु मानव उसके पीछे भागता है, जो उसके पास नहीं है। वह उसके प्रति उपेक्षा भाव दर्शाता है, जो उसके पास है। यही है दु:खों का मूल कारण और यही त्रासदी है जीवन की। इंसान अपने दु:खों से नहीं, दूसरे के सुखों से अधिक दु:खी व परेशान रहता है।

मानव की इच्छाएं अनंत है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती चली जाती हैं और सीमित साधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। इसलिए वह आजीवन इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और सुक़ून भरी ज़िंदगी नहीं जी पाता। सो! उन पर अंकुश लगाना अनिवार्य है। मानव ख्वाबों की दुनिया में जीता है अर्थात् सपनों को संजोए रहता है। सपने देखना तो अच्छा है, परंतु तनावग्रस्त  रहना जीने की ललक पर ग्रहण लगा देता है। खुली आंखों से देखे गए सपने मानव को प्रेरित करते हैं करते हैं, उल्लसित करते हैं और वह उन्हें साकार रूप प्रदान करने में अपना सर्वस्व झोंक देता है। उस स्थिति में वह आशान्वित रहता है और एक अंतराल के पश्चात् अपने लक्ष्य की पूर्ति कर लेता है।

परंतु चंद लोग ऐसी स्थिति में निराशा का दामन थाम लेते हैं और अपने भाग्य को कोसते हुए अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और उन्हें यह संसार दु:खालय प्रतीत होता है। दूसरों को देखकर वे उसके प्रति भी ईर्ष्या भाव दर्शाते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अभावों से नहीं; दूसरों के सुखों को देख कर दु:ख होता है–अंतत: यही उनकी नियति बन जाती है।

अक्सर मानव भूल जाता है कि वह खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। यह संसार मिथ्या और  मानव शरीर नश्वर है और सब कुछ यहीं रह जाना है। मानव को चौरासी लाख योनियों के पश्चात् यह अनमोल जीवन प्राप्त होता है, ताकि वह भजन सिमरन करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सके। परंतु वह राग-द्वेष व स्व-पर में अपना जीवन नष्ट कर देता है और अंतकाल खाली हाथ जहान से रुख़्सत हो जाता है। ‘यह किराये का मकान है/ कौन कब तक रह पाएगा’ और ‘यह दुनिया है एक मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला’ स्वरचित गीतों की ये पंक्तियाँ एकांत में रहने की सीख देती हैं। जो स्व में स्थित होकर जीना सीख जाता है, भवसागर से पार उतर जाता है, अन्यथा वह आवागमन के चक्कर में उलझा रहता है।

जो हमारे पास है; लाजवाब है, परंतु बावरा इंसान इस तथ्य से सदैव अनजान रहता है, क्योंकि उसमें आत्म-संतोष का अभाव रहता है। जो भी मिला है, हमें उसमें संतोष रखना चाहिए। संतोष सबसे बड़ा धन है और असंतोष सब रोगों  का मूल है। इसलिए संतजन यही कहते हैं कि जो आपको मिला है, उसकी सूची बनाएं और सोचें कि कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास उन वस्तुओं का भी अभाव है; तो आपको आभास होगा कि आप कितने समृद्ध हैं। आपके शब्द-कोश  में शिकायतें कम हो जाएंगी और उसके स्थान पर शुक्रिया का भाव उपजेगा। यह जीवन जीने की कला है। हमें शिकायत स्वयं से करनी चाहिए, ना कि दूसरों से, बल्कि जो मिला है उसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। जो मानव आत्मकेंद्रित होता है, उसमें आत्म-संतोष का भाव जन्म लेता है और वह विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँध देता है।

गुलज़ार के शब्दों में ‘हालात ही सिखा देते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह होता है।’

हमारी मन:स्थितियाँ परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। यदि समय अनुकूल होता है, तो पराए भी अपने और दुश्मन दोस्त बन जाते हैं और विपरीत परिस्थितियों में अपने भी शत्रु का क़िरदारर निभाते हैं। आज के दौर में तो अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, उन्हें तक़लीफ़ पहुंचाते हैं। इसलिए उनसे सावधान रहना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए जीवन में विवाद नहीं, संवाद में विश्वास रखिए; सब आपके प्रिय बने रहेंगे। जीवन मे ं इच्छाओं की पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म में सामंजस्य रखना आवश्यक है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा।

सो! हमें जीवन में स्नेह, प्यार, त्याग व समर्पण भाव को बनाए रखना आवश्यक है, ताकि जीवन में समन्वय बना रहे अर्थात् जहाँ समर्पण होता है, रामायण होती है और जहाल इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, महाभारत होता है। हमें जीवन में चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। स्व-पर, राग-द्वेष, अपेक्षा-उपेक्षा व सुख-दु:ख के भाव से ऊपर उठना चाहिए; सबकी भावनाओं को सम्मान देना चाहिए और उस मालिक का शुक्रिया अदा करना चाहिए। उसने हमें इतनी नेमतें दी हैं। ऑक्सीजन हमें मुफ्त में मिलती है, इसकी अनुपलब्धता का मूल्य तो हमें कोरोना काल में ज्ञात हो गया था। हमारी आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती हैं, परंतु इच्छाएं नहीं। इसलिए हमें स्वार्थ को तजकर,जो हमें मिला है, उसमें संतोष रखना चाहिए और निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। हमें फल की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो हमारे प्रारब्ध में है, अवश्य मिलकर रहता है। अंत में अपने स्वरचित गा त की पंक्तियों से समय पल-पल रंग बदलता/ सुख-दु:ख आते-जाते रहते है/ भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह सफलता का मूलमंत्र रे। जो इंसान स्वयं पर भरोसा रखता है, वह सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। इसलिए इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि जो नहीं है, वह ख़्वाब है;  जो मिला है, लाजवाब है। परंतु जो नहीं मिला, उस सपने को साकार करने में जी-जान से जुट जाएं, निरंतर कर्मरत रहें, कभी पराजय स्वीकार न करें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #195 ☆ मुक्तक – गीत रमता गया… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “मुक्तक – गीत रमता गया…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 195 – साहित्य निकुंज ☆

☆ मुक्तक – गीत रमता गया…

गीत उनके हमें रास आने लगे।

मन ही मन यूं उसे गुनगुनाने  लगे।

चाहकर भी  न बोला तूने कभी।

 भाव अपने हमें  क्यों जताने लगे।।

हम उन्हें देखकर मुस्कुराने लगे।

देखते देखते भाव जगने लगे।

मेरी आंखों में तुमने पढ़ा है सही

गीत बारिश के तुम गुनगुनाने लगे

गीत रमता गया मैं भी रमती गई।

वो सुनाता गया मैं भी सुनती गई।

जो भी उसने कहा कैद मन में हुआ।

मैं तो उसकी ही बातों में बंधती गई।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #181 ☆ “दर्द-ए-गम बेहिसाब लिखता हूँ…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण ग़ज़ल “दर्द-ए-गम बेहिसाब लिखता हूँ…. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 180 ☆

☆ “दर्द-ए-गम बेहिसाब लिखता हूँ…”  ☆ श्री संतोष नेमा ☆

जख्म लिखता हूँ ख्वाब लिखता हूँ

दर्द-ए-गम बेहिसाब लिखता हूँ

यक़ीं करता हूं जब भी किसी पर

खुद को अश्क़ बार ज़नाब लिखता हूँ

रहमतें जरूर हैं खुदा की मुझ पर

मुहब्बत की जब किताब लिखता हूँ

आइना देखता हूँ जब भी मैं

खुद को अक्सर खराब लिखता हूँ

मंज़िल से न भटक जाऊं मैं कभी

इसलिए अब मैं रुबाब लिखता हूँ

नफ़रत लिखना मिरी फितरत नहीं

खार को भी मैं गुलाब लिखता हूँ

“संतोष” अब किसी से डरना क्या

खुद को अब मैं शिहाब लिखता हूँ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य #186 ☆ भारत माझा 🇮🇳 ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 186 – विजय साहित्य ?

☆ भारत माझा 🇮🇳 ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

माझ्यासाठी माझे मी पण ,

देशासाठी ,माझे जीवन

असंख्य जगले, असंख्य जगती

असंख्य त्यास्तव, जन्मा येती. ..!

 

जन्म घेतला, जगण्यासाठी

जगता जगता , हसण्यासाठी.

त्या जन्माचे, हळवे संचित

माझ्या नयनी, का येते रे ?

 

देशभक्तीचे, अतूट नाते

इतिहासाने , सांगायाचे

भौगोलिक हा , वर्तमान मी

मीच आता मज, घडवायाचे…!

 

आयुष्यातील, अनेक स्वप्ने

मम देशाची , तीच नजाकत

तीच सावली , संस्कारांची

तिनेच मजला, घडवायाचे …!

 

या शब्दातून , या वाक्यातून

रंग अलौकिक , येती लहरत.

राष्ट्रध्वजासम , ध्येय निष्ठता

मम देहातून, यावी बहरत…!

 

रंग केसरी, मम स्वप्नांचा

चारित्र्याची, शुभ्र छटा.

हरित क्रांतीचा, मन शांतीचा

कुणी कुणाला, दिला वसा. ..!

 

प्रश्नासाठी , प्रश्न ही नाना

उत्तर अवघे , एकच माना

माणुसकीच्या, ध्येयाखातर

मुखी राहू दे, ध्येयवाक्यता .!

 

देश असा नी, देश तसा

खरे सांगतो, हसू नका.

या देशाच्या, ऐक्यासाठी

मीच पसरला, पहा पसा.!

 

जन्मा आलो, झालो जाणता

देशभक्तीचा, घेऊन वसा

म्हणून दिसला, दिसतो आहे

भारत माझा, भारत माझा. ..!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मंडल : १ : ३० : ऋचा १७ ते २२ — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मंडल : १ : ३० : ऋचा १७ ते २२— म राठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त ३० (इंद्र, अश्विनीकुमार, उषासूक्त)

देवता – १-१६ इंद्र; १७-१९ अश्विनीकुमार; २०-२२ उषा – ऋषी – शुनःशेप आजीगर्ति

 ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील तिसाव्या  सूक्तात एकंदर बावीस ऋचा आहेत. या सूक्तात शुनःशेप आजीगर्ति या ऋषींनी इंद्र, अश्विनीकुमार आणि उषा या देवतांना आवाहन केलेली असल्याने हे इंद्र-अश्विनीकुमार-उषासूक्त सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. यातील पहिल्या  सोळा ऋचा इंद्राला, सतरा ते एकोणीस  या ऋचा अश्विनिकुमारांना आणि वीस ते बावीस या  ऋचा उषा देवातेला  आवाहन करतात.

या सदरामध्ये आपण विविध देवतांना केलेल्या आवाहनानुसार  गीत ऋग्वेद पाहूयात. आज मी आपल्यासाठी अश्विनीकुमार देवतांना उद्देशून रचलेल्या सतरा ते एकोणीस या ऋचा आणि उषादेवतेला उद्देशून रचलेल्या वीस ते बावीस या ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे.

मराठी भावानुवाद ::

आश्वि॑ना॒वश्वा॑वत्ये॒षा या॑तं॒ शवी॑रया । गोम॑द्दस्रा॒ हिर॑ण्यवत् ॥ १७ ॥

 अश्वधनुंच्या संगे घेउनी पशुधनाला या

सुंदरशा हे अश्विन देवा आम्हा आशिष द्या

प्रसन्न होऊनी अमुच्यावरती दान आम्हा द्यावे

वैभवात त्या सुवर्ण धेनू भरभरुनी द्यावे ||१७||

स॒मा॒नयो॑जनो॒ हि वां॒ रथो॑ दस्रा॒वम॑र्त्यः । स॒मु॒द्रे अ॑श्वि॒नेय॑ते ॥ १८ ॥

 देवा अश्विनी उभयता तुम्ही राजबिंडे

अविनाशी तुमच्या शकटाला दिव्य असे घोडे

तुम्हा रथाचे सामर्थ्य असे अतीव बलवान

सहजी करितो सागरातही तुमच्यासाठी गमन ||१८||

न्य१घ्न्यस्य॑ मू॒र्धनि॑ च॒क्रं रथ॑स्य येमथुः । परि॒ द्याम॒न्यदी॑यते ॥ १९ ॥

 अजस्त्र अतुल्य ऐशी कीर्ति तुमच्या शकटाची

व्याप्ती त्याची त्रय लोकांना व्यापुनि टाकायाची

अभेद्य नग शिखरावरती चक्र एक भिडविले

द्युलोकाच्या भवती दुसऱ्या चक्राला फिरविले ||१९||

कस्त॑ उषः कधप्रिये भु॒जे मर्तो॑ अमर्त्ये । कं न॑क्षसे विभावरि ॥ २० ॥

 स्तुतिप्रिये हे अमर देवते सौंदर्याची खाण

उषादेवते  सर्वप्रिये तू देदीप्यमान 

कथन करी गे कोणासाठी तुझे आगमन

भाग्य कुणाच्या भाळी लिहिले तुझे बाहुबंधन ||२०||

 व॒यं हि ते॒ अम॑न्म॒ह्यान्ता॒दा प॑रा॒कात् । अश्वे॒ न चि॑त्रे अरुषि ॥ २१ ॥

 विविधरंगी वारू सम तू शोभायमान

तेजाने झळकिशी उषादेवी प्रकाशमान

सन्निध अथवा दूर असो तुझे आम्हा ध्यान

येई झडकरी आम्हासाठी होऊनिया प्रसन्न ||२१||

 त्वं त्येभि॒रा ग॑हि॒ वाजे॑भिर्दुहितर्दिवः । अ॒स्मे र॒यिं नि धा॑रय ॥ २२ ॥

 सामर्थ्याने सर्व आपुल्या ये करि आगमन

उषादेवते आकाशाच्या कन्ये आवाहन

संगे अपुल्या घेउनी येई वैभवपूर्ण धन

दान देई गे होऊनिया आमुच्यावरी प्रसन्न ||२२||

(या ऋचांचा व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक देखील मी शेवटी देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.) 

https://youtu.be/ifGvMF3OiTs

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Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 30 Rucha 17 to 22

Rugved Mandal 1 Sukta 30 Rucha 17 to 22

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 163 ☆ जनु बरसा ऋतु प्रगट बुढ़ाई… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना जनु बरसा ऋतु प्रगट बुढ़ाई। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 163 ☆

☆ जनु बरसा ऋतु प्रगट बुढ़ाई… ☆

दोषारोपण करते हुए आगे बढ़ने की चाहत आपको बढ़ने नहीं दे रही है। पत्थरों को चीर कर नदियाँ राह बनाती हैं, यहाँ तक कि थोड़ी सी संधि में से बीज भी अंकुरित होकर कि वृक्ष का रूप धारण कर लेते हैं। जो लगातार कुछ सार्थक करेगा वो तो मंजिल तक पहुँचेगा। परन्तु क्या कारण है? कि कोई चलना चाहता है किंतु कागजों में, कल्पनाओं में या फिर मीडिया की पोस्ट में। जाहिर सी बात है जब कागज़ कोरा रहेगा तो परिणाम कोरे रहते हुए केवल हास्य प्रस्तुत करने के काम आएंगे। आश्चर्य की बात है कि आज के समय में जब हर व्यक्ति समय का सदुपयोग कर रहा है तो कुछ लोग कैसे हवाई घोड़े दौड़ा कर उसके पीछे – पीछे भागने की तस्वीरों को प्रायोजित ढंग से सजा रहे हैं।

खैर सावन के अंधे को हरियाली ही हरियाली दिखती है, कितनी बढ़िया कहावत है, इसका अर्थ तो अलग रूप में प्रयोग किया जाता है किन्तु इस दृश्य को देखकर मुझे यही अनायास याद आया कि ऐसा ही कुछ रहा होगा जब इस कहावत का पहली बार प्रयोग हुआ होगा।

क्या आप ने ऐसे प्राकृतिक स्थलों की सैर की है जो जन मानस की छेड़ – छाड़ से अभी अछूते हैं और हरियाली व सावन के सुखद मिलन को बयां करते हैं।

पोखर में भरा हुआ जल, आस – पास लगी हुई बड़ी- बड़ी घास, वृक्षों की झुकी हुई डालियाँ मानो जल को स्पर्श करने आतुर हो रहीं हैं।हरे रंग के कितने प्रकार हो सकतें हैं ये आपको ऐसे ही स्थानों में जाकर पता चलेगा, गहरा हरा, मूंगिया या काई हरा, तोता हरा, हल्का हरा व जो आपकी कल्पनाशक्ति महसूस कर सके वो सब दिखाई दे रहा है।यहाँ की ताज़गी, ठंडक व शुद्ध वायु तो आकर ही महसूस की जा सकती है।

मानसून के मौसम में ही खुद को ऊर्जा से भरपूर करें, आसपास की प्रकृति से जुड़ें, लोगों को जोड़ें व हरियाली बचाएँ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 172 ☆ बाल कविता – आम बने हरिआरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 172 ☆

☆ बाल कविता – आम बने हरिआरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

गुड़िया जी को आम हैं प्यारे।

    खा – खा लेतीं हैं चटकारे।

खातीं जल्दी – जल्दी इतना

    आम बन गए खुद हुरियारे ।।

 

आम मिले जब खाने को

   गुड़िया जी चहकीं मुस्काईं।

धोया – थोड़ा चेंप निकाला

     चुसम – चूसा लगी दुहाई।।

 

खूब दबाया ऐसा चूसा

    रँग गए कपड़े उनके सारे।

देख सभी मुस्काएँ भइया

    माँ की ममता उसे दुलारे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #11 ☆ कविता – “हिम्मत…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 11 ☆

☆ कविता ☆ “हिम्मत…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

आज ऐसी उदास बैठी क्यों हो?

बहारों के मौसम में धाल पत्ते क्यों रहीं हों

ए मेरी जां क्या आज हारी हिम्मत हो

या गिरे हुए पत्तों से हिम्मत जुटा रहीं हो ।

 

मै भी हारता हूँ  हिम्मत कभी कभी

फिर सोचता हूँ क्या है कीमत उसकी

मगर अफसोस वह खरीद नहीं सकते

गिरे हुए पत्ते फिर चिपका नहीं सकते ।

 

फिर मैं समझा हिम्मत कभी आती नहीं हैं

ना ही कभी वो जुटाई जाती है

जब जब जीने की ख़्वाहिश पेड़ की बढ़ती है

हिम्मत उसकी पत्तों की तरह फिर से उगती है ।

 

बुझते हुए अंगारों से जैसे उठती अग्नि है

हिम्मत उसी तरह बुझते हुए दिल से उभरती है

उस आग को कभी बुझने नहीं देना

इच्छा की आहुति अंगारों में न देना ।

 

जब जब तुम्हारी पतझड़ होगी

तब मेरी ये कविता पढ़ लेना

मेरा प्यार मैंने उसमे फूंक दिया है

जिससे प्रज्वलित बुझते अग्नि को कर देना ।

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #195 – कविता – मैं भारत हूँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  मैं भारत हूँ… )

☆ तन्मय साहित्य  #195 ☆

मैं भारत हूँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

 देश भारत है, मेरा नाम

 यहाँ तीरथ हैं चारों धाम

 काशी की सुबह

 अवध की शाम

 विराजे राम और घनश्याम,

 सभी का करता, स्वागत हूँ

 देवों की यह पुण्य भूमि

 मैं पावन भारत हूँ।

 

छह ऋतुओं का धारक मैं,सब नियत समय पर आए

सर्दी, गर्मी, वर्षा, निष्ठा से निज कर्म निभाए

मौसम के अनुकूल, पर्व त्यौहार जुड़े सद्भावी

उर्वर भूमि यह, खनिज धन-धान्य सभी उपजाए।

संस्कृति है मौलिक आधार

करे सब इक दूजे से प्यार

बहे खुशियों की यहाँ बयार,

सुखद जीवन विस्तारक हूँ

देवों की यह पुण्य भूमि मैं पावन भारत हूँ।

 

समता ममता करुणा कृपा, दया पहचान हमारी

अनैकता में बसी एकता, यह विशेषता भारी

विध्वंशक दुष्प्रवृत्तियों ने, जब भी पैर पसारे 

है स्वर्णिम इतिहास, सदा ही वे हमसे है हारी।

राह में जब आए व्यवधान

सुझाए पथ गीता का ज्ञान

निर्जीवों में भी फूँके  प्राण

वंचितों का उद्धारक हूँ

देवों की यह पुण्य भूमि मैं पावन भारत हूँ।

 

कल-कल करती नदियाँ,यहाँ बहे मधुमय सुरलय में

पर्वत खड़े अडिग साधक से, जंगल-वन अनुनय में

सीमा पर जवान, खेतों में श्रमिक, किसान जुटे हैं

अजय-अभय,अर्वाचीन भारत निर्मल भाव हृदय में।

हो रहा है चहुँदिशी जय नाद

परस्पर प्रेम भाव अनुराग

रहे नहीं मन में कहीं विषाद

स्नेह की सुदृढ़ इमारत हूँ

देवों की यह पुण्य भूमि में पावन भारत हूँ।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 20 ☆ बन पाया न कबीर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “बन पाया न कबीर…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 20 ☆ बन पाया न कबीर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

 लाख जतन कर

 हार गया पर

 बन पाया न कबीर।

 

 रोज धुनकता रहा जिंदगी

 फिर भी तो उलझी

 रहा कातते रिश्ते- नाते

 गाँठ नही सुलझी

 तन की सूनी

 सी कुटिया में

 मन हो रहा अधीर।

 

 गड़ा ज्ञान की इक थूनी

 गढ़े सबद से गीत

 घर चूल्हे चक्की में पिसता

 लाँघ न पाया भीत

 अपने को ही

 रहा खोजता

 बनकर मूढ़ फकीर।

 

 झीनी चादर बुनी साखियाँ

 जान न पाया मोल

 समझोतों पर रहा काटता

 जीवन ये अनमोल

 पढ़ता रहा

 भरम की पोथी

 पढ़ी न जग की पीर।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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