हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 142 ☆ # लिव-इन और ब्रेक-अप… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# लिव-इन और ब्रेक-अप… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 142 ☆

☆ # लिव-इन और ब्रेक-अप… #

महानगर की चकाचौंध में

दो पंछी उड़ रहे थे

कभी-कभी, कहीं-कहीं पर

आपस में जुड़ रहे थे

बार-बार टकराने से

दोनों हिल गये

उनके बेकाबू दिल

आपस में मिल गये

प्यार की सौंधी-सौंधी खुशबू से

सराबोर हुए

बार-बार मिलने को

बेकरार हुए

मल्टीनेशनल कंपनी में

कार्यरत थे

मोटी तनख्वाह के कारण

जीवन में मस्त थे

दोनों लिव-इन-रिलेशनशिप में

रहने लगे

प्यार के समंदर में बहने लगे

कुछ समय जवानी की

रंगीनियों में बीत गया

प्यार का खुमार भी

धीरे-धीरे रीत गया

तब

दोनों के बीच दूरियां बढ़ गई

‘रिलेशनशिप’ इगो की भेंट चढ़ गई

दोनों लड़कर एक दूसरे से

अलग हो गए

प्यार भरे रिश्ते

कहीं खो गए

 

आजकल लिव-इन और

ब्रेक-अप साथ साथ चल रहे हैं

युवा पीढ़ी के रिश्ते

हर रोज जल रहे हैं

क्या युवा पीढ़ी

विवाह का अर्थ

समझ पायेंगे?

पति-पत्नी के

संबंधों को निभायेंगे ?

या

लिव-इन और ब्रेक-अप के

जाल में फँसते ही जायेंगे ?/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #204 ☆ व्यंग्य – सुदामा के तन्दुल ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य सुदामा के तन्दुल। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 204 ☆
☆ व्यंग्य ☆ सुदामा के तन्दुल

चुनाव के बादल गहरा रहे थे। पता नहीं कब बरस पड़ें। मंत्री जी ने अपने चुनाव क्षेत्र का ‘टूर’ निकाला। अब अपनी जनता की सुध लेना बहुत ज़रूरी हो गया था। यह बंगला, ये कारें, यह रुतबा सब जनता की मेहरबानी से है। दुबारा जनता की खोज-खबर लेने के दिन आ गये। 

मंत्री जी अपने फौज-फाँटे के साथ जमालपुर के डाक बंगले में रुके। उनके पहुँचते ही डाक-बंगला तीर्थ स्थल बन गया। लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। कुछ उनके परिचय के आदमी, कुछ अपने परिचय को भुनाने के इच्छुक, कुछ ऐसे ही कि ‘जगदीश भैया आये हैं, चलो मिल आते हैं’ वाले। बहुत से सयाने यह देखने आये कि ‘जगदिसवा अब हमें पहचानता है कि मिनिस्टर बन के भूल गया।’

बड़ी रात तक मंत्री जी अपने ‘आदमियों’ से घिरे, अपनी घटती लोकप्रियता को फिर से ऊपर ढकेलने की तरकीबें सोचते रहे। बहुत उधेड़बुन हुई, लेकिन साफ-साफ कुछ बात बनी नहीं। तरकीब ऐसी हो कि सब विरोधी चारों खाने चित्त गिरें।

सबेरे मंत्री जी उठे तो मन परेशान था। कौन सा दाँव लगायें कि दंगल जीत लें? मंत्री जी नाश्ता करते जाते थे और सोचते जाते थे। सामने गांधी जी का चित्र टँगा था। वही, घुटने तक धोती और हाथ में लाठी। मंत्री जी के दिमाग में कुछ कौंधा। लो, समाधान सामने है और ढुँढ़ाई दुनिया भर में हो रही है। जनता का मन जीतने के लिए अपने को गरीब जनता जैसा ही बनाना होगा। शान-शौकत दिखाने से वोट नहीं मिलने वाले।

निजी सचिव को बुलाया, कहा, ‘अस्थाना साहब, आज हम किसी गाँव के गरीब की झोपड़ी में विश्राम करेंगे। यह कूलर, यह पंखा सब बेकार। दोपहर का भोजन भी वहीं करेंगे। जो गरीब खाएगा वही खाएँगे। हमारे और गरीब के बीच भेद रहेगा तो हम उसका दिल कैसे जीतेंगे?’

अस्थाना साहब की सिट्टी-पिट्टी गुम। यह कहाँ की मुसीबत आ गयी। भीतर से गुस्सा उठा— कहाँ कहाँ के खब्त इन पर सवार होते रहते हैं।

ऊपर से विनम्रता से बोले, ‘मैं कोई माकूल घर देख कर आपको सूचित करता हूँ सर।’

अस्थाना साहब सुरक्षा अधिकारी को लेकर निकले। सोचा, कस्बे का कोई घर चुनना ठीक नहीं। कस्बे के लोग बदमाश होते हैं। विरोधी लोग खामखाँ कोई तूल खड़ा कर देंगे। कस्बे से तीन चार मील दूर एक गाँव में गये। सरपंच से मुलाकात की, और सुखलाल का घर चुन लिया।

सुखलाल के घर में यह फायदा कि वह एक तो इतना गरीब घर नहीं की घुसते ही घिन आये। यानी कि ज़रा कायदे का गरीब। दूसरे, उसका घर सरपंच के घर के एकदम पास, करीब करीब सरपंच साहब की छत्रछाया में था। तीसरी बात यह कि सुखलाल के घर के पीछे एक दरवाज़ा था,कि कुछ चुपके से घर के भीतर  ‘स्मगल’ करना हो तो पीछे से चुपचाप लाया जा सके। यह बड़ी भारी सुविधा थी।

सरपंच साहब से कहकर सुखलाल के घर के आसपास सफाई करा दी गयी। घर की भी सफाई हुई, लेकिन इस तरह कि सब स्वाभाविक लगे। सालों से पल रहे जाले-जंगल साफ हो गये। मुद्दत से स्थायी आश्रय पाये कीड़ों- मकोड़ों को खदेड़ दिया गया। बहुत सा अंगड़-  खंगड़ दूर फेंक दिया गया। कुछ गैर-ज़रूरी सामान दूसरे घरों में स्थानांतरित कर दिया गया। सुखलाल को एक सलीके का गरीब बना दिया गया।

सुखलाल साफ-सुथरा कुर्ता धोती पहने यह सब भागदौड़ देखता घूमता था। कुर्ता सरपंच साहब का था, धोती नयी-नयी अस्थाना साहब ने बनिये के यहाँ से उठवा दी थी। घर की सफाई हो गयी। सामने की ऊँची नीची जमीन भी ठीक हो गयी। रास्ते में उगे आलतू फालतू झाड़ साफ हो गये। मिट्टी से सारा घर पोत दिया गया। टूट-फूट सुधर गयी। एक तरफ तुलसी का बिरवा कहीं से लाकर लगा दिया गया। नया घड़ा पानी से भर कर रख दिया गया। उस पर सब तरफ ‘साँतिये’ बना दिए गये। दरवाज़े पर आम के पत्तों की झालर लटका दी गयी।

सुखलाल कमर पर हाथ धरे दूल्हे के बाप की तरह घूमता था। कोई उसे कुछ करने ही नहीं देता था। सब काम अपने आप हो रहा था। पूरे गाँव के लोग उसे और उसके घर को ईर्ष्या से देखते थे।

सुखलाल के घर में दो झिलंगी खाटें थीं, ऐसी कि कोई अच्छा पाला-पोसा शरीर उन पर रख दिया जाए तो मूँज का दम टूट जाए। उन दोनों खाटों को घर से बाहर कर दिया गया। सरपंच साहब के घर से दो मजबूत, कसी हुई खाटें आयीं कि गरीबी का भ्रम भी बना रहे और मंत्री जी के शरीर को तकलीफ भी न हो।

आसपास के घरों में मंत्री जी के सहायकों और पुलिस वालों के विश्राम की व्यवस्था कर दी गयी। मंत्री जी का हुकुम था कि उन्हें छोड़कर बाकी लोग अपने अपने भोजन की व्यवस्था करके लायेंगे, लेकिन ऐसा कैसे होता? सरपंच को इशारा मिल गया था कि सबके लिए व्यवस्था करनी है। इशारा नहीं भी होता तो सरपंच साहब इतना गलत काम कैसे होने देते?

इसलिए सुखलाल के घर के पीछे भट्टी बनाई गयी। उस पर गाँव की पाक कला में कुशल महिलाओं को लगाया गया। सुखलाल की बीवी को उसके पास भी फटकने नहीं दिया गया। उसके बच्चे सकते की हालत में दूर खड़े सारा तमाशा देखते रहे। सुखलाल के घर के सामने तो थोड़े से ही लोग थे, लेकिन घर के पीछे मेला लग गया था। वही से सारा सामान ‘सप्लाई’ होना था। करीब बारह बजे मंत्री जी लाव-लश्कर के साथ पधारे। दरवाज़े पर उनकी आरती हुई। सुखलाल को उनके सामने पेश किया गया। मंत्री जी बोले, ‘भाई सुखलाल, आज हम तुम्हारे ही घर भोजन और विसराम करेंगे।’

सुखलाल बोला, ‘हमारे बड़े भाग हजूर।’

मंत्री जी हाथ उठाकर बोले, ‘हजूर वजूर मत कहो। प्रजातंत्र में सब बराबर हैं। न कोई छोटा, न कोई बड़ा। समझे?’

‘ऐसा न कहें हजूर।’

‘फिर वही हजूर? यह हजूर हजूर बन्द करो।’

सुखलाल बोला, ‘आप बड़े हैं मालिक। हम आप की बराबरी के कैसे हो सकते हैं? आपको हजूर न कहें तो क्या कहें?’

मंत्री जी हार गये। बोले, अच्छा चलो, तुम्हारे घर में चलते हैं।’

भीतर गये तो देखा मूँज की खाट पर नया दरी-चादर और उस पर गुदगुदा तकिया। मंत्री जी समझ गये, लेकिन अनदेखा कर दिया। तकिये के सहारे उठंग गये। गाँव के लोग खाट के पास सिमट आये। दुनिया भर की फरियादें, रोना-धोना। अस्थाना साहब हाथ में नोटबुक लिये सब के नाम और शिकायतें नोट करते थे। गाँव वालों को लगता था आज सारे संकट टल गये। दो घंटे तक यह कचहरी चलती रही।

घंटे बाद अस्थाना साहब आकर फुसफुसाये, ‘सर, खाना तैयार है।’

मंत्री जी मुड़कर सुखलाल से बोले, ‘कहो सुखलाल जी, हमें क्या खिलाओगे?’

सुखलाल हड़बड़ा गया। उसे पता नहीं था कि भट्टी पर क्या पक रहा है। उसने अस्थाना साहब की तरफ देखा। अस्थाना साहब बोले, ‘बताओ भई।’

सुखलाल क्या कहे? कुछ मालूम हो तो बताये।

मंत्री जी फिर मिठास के साथ बोले, ‘बताओ सुखलाल।’

सुखलाल ने पीछे आटे का बोरा देख लिया था। बोला, ‘हजूर, रोटी खिलाएंगे, और फिर जो सरपंच साहब की मरजी।’

अस्थाना साहब उसे घुड़क कर बोले, ‘सरपंच साहब की मरजी का क्या मतलब? खिलाना तो तुम्हें है।’

मंत्री जी भाँप कर बोले, ‘अच्छा, जो भी हो ले आओ।’

सरपंच साहब की पत्नी लंबा घूँघट खींचकर काँसे की चमकती थाली में भोजन रख गयी— दाल, सब्जियाँ, चटनी, रायता, रोटी, चावल। चावल बहुत बढ़िया तो नहीं, लेकिन मामूली भी नहीं। रोटियों में लगे घी का स्पष्टीकरण अस्थाना साहब ने दिया, ‘सर, इसके भाई के घर में गाय है। वहीं से घी और दही माँग लाया। हमने मना किया था, लेकिन नहीं माना।’

मंत्री जी मुस्कराये, पूछा, ‘किसने पकाया है?’

सुखलाल फिर चक्कर में। अस्थाना जी ने उसका उद्धार किया, कहा, ‘इसकी घरवाली ने, सर।’

मंत्री जी बोले, ‘वाह! बड़े भाग्यवान हो, सुखलाल।’

बड़े प्रेम से भोजन हुआ। पीछे पड़ी हुई मंत्री जी की बारात ने भी भोजन किया।

फिर मंत्री जी बोले, ‘भई, अब हम थोड़ा आराम करेंगे।’

थोड़ी देर में वे सो गये। नाक बजने लगी। सुखलाल खड़ा उन्हें पंखा झलता रहा।

तीन घंटे बाद मंत्री जी की नींद टूटी। अँगड़ाई लेकर उठे। बोले, ‘आज जैसी सुख की नींद बहुत दिन बाद आयी। गरीब के घर जैसा चैन और शांति कहीं नहीं। सच कहा है कि गरीब आदमी भगवान का रूप होता है।’

अस्थाना जी से बोले, ‘अस्थाना जी,आज भोजन में जो स्वाद मिला वह अपने बंगले के भोजन में कभी नहीं मिला। आत्मा तृप्त हो गयी। रोटी चटनी से ज्यादा स्वादिष्ट भोजन संसार में नहीं।’

फिर सुखलाल से बोले, ‘सुखलाल भाई, अब हम जाएँगे। आपके घर में और आपके भोजन में हमें बहुत आनन्द मिला। हम आपके हैं। हमें अपना समझिए। ऊपरी टीम- टाम देखकर हमें अपने से अलग मत समझिए।’

इसके बाद मंत्री जी सब को हाथ जोड़कर अपने काफिले के साथ चले गये। थोड़ी देर पहले का गुलज़ार वीरान हो गया। पीछे रह गये सामान को सहेजते सरपंच साहब और गाँव वाले। जैसे बारात की विदा हो जाने के बाद लड़की वाले रह जाते हैं।

मंत्री जी के जाने के बाद सुखलाल सरपंच से बोला, ‘हजूर, हमें भी भोजन दिलवा दो। हम तो रह ही गये।’

सरपंच जी ज़ोर से हँसे, बोले, ‘वाह! तुम्हारे नाम से दुनिया भोजन कर गयी और तुम्हीं रह गये?’

सुखलाल सपरिवार भोजन करने बैठा। सरपंच जी सामान समिटवाने में लगे थे। खाते-खाते सुखलाल कुछ सोच कर सरपंच से बोला, ‘हजूर, एक अरज है। अगली बार जब मंतरी जी आएँ तो हमारे घर में ही रहवास और भोजन होवे।’

सरपंच जी उसकी बात सुनकर हँसते-हँसते लोटपोट हो गये और सुखलाल झेंप कर सिर खुजाने लगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 203 – इनबिल्ट ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 203 इनबिल्ट ?

अपने दैनिक पूजा-पाठ में या जब कभी मंदिर जाते हो,  सामान्यतः याचक बनकर ईश्वर के आगे खड़ा होते हो। कभी धन, कभी स्वास्थ्य, कभी परिवार में सुख-शांति, कभी बच्चों की प्रगति तो कभी…, कभी की सूची लंबी है, बहुत लंबी।

लेकिन कभी विचार किया कि दाता ने सारा कुछ, सब कुछ पहले ही दे रखा है। ‘जो पिंड में, सोई बिरमांड में।’ उससे अलग क्या मांग लोगे? स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ब्रह्मांड की सारी शक्तियाँ पहले से हमारे भीतर हैं। अपनी आँखों को अपने ही हाथों से ढककर हम ‘अंधकार, अंधकार’ चिल्लाते हैं। कितना गहन पर कितना सरल वक्तव्य है। ‘एवरीथिंग इज इनबिल्ट।’…तुम रोज़ मांगते हो, वह रोज़ मुस्कराता है।

एक भोला भंडारी भगवान से रोज़ लॉटरी खुलवाने की गुहार लगाता था। एक दिन भगवान ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा, ‘बावरे! पहले लॉटरी का टिकट तो खरीद।’

तुम्हारा कर्म, तुम्हारा परिश्रम, तुम्हारा टिकट है। ये लॉटरी नहीं जो किसी को लगे, किसी को न लगे। इसमें परिणाम मिलना निश्चित है। हाँ, परिणाम कभी जल्दी, कभी कुछ देर से आ सकता है।

उपदेशक से समस्या का समाधान पाने के लिए उसके पीछे या उसके बताए मार्ग पर चलना होता है। उपदेशक के पास समस्या का सर्वसाधारण हल है।  राजा और रंक के लिए, कुटिल और संत के लिए, बुद्धिमान और नादान के लिए, मरियल और पहलवान के लिए एक ही हल है।

समुपदेशक की स्थिति भिन्न है। समुपदेशक तुम्हारी आंतरिक प्रेरणा को जाग्रत करता है। यह प्रेरणा बताती है कि अपनी समस्या का हल तलाशने का सामर्थ्य तुम्हारे भीतर है। तुम्हें अपने तरीके से अपना प्रमेय हल करना है। प्रमेय भले एक हो, हल करने का तरीका प्रत्येक की अपनी दैहिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है।

समुपदेशक तुम्हारे इनबिल्ट को एक्टिवेट करने में सहायता करता है। ईश्वर से मत कहो कि मुझे फलां दे। कहो कि हे प्रभो,  फलां हासिल करने की मेरी शक्ति को जाग्रत करने में सहायक हो। जिसने ईश्वर को समुपदेशक बना लिया, उसने भीतर के ब्रह्म को जगा लिया….और ब्रह्मांड में ब्रह्म से बड़ा क्या है?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 151 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 151 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 151) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 151 ?

☆☆☆☆☆

जब  लबों  पर

जगह नहीं मिलती,

तब  लफ़्ज़  आँखों

में  रहने  लगते  हैं…

☆☆

When there is no

space on the lips,

Then the words start

living in the eyes…

☆☆☆☆☆

थी मिलावट इस कदर

अपनों की चाहत में कि

आखिर तंग आकर हम  

दुश्मनों के पास चले गए..!

☆☆ 

So much of adulteration was

there in the love of loved ones

that I got disheartened, forcing

me  to  go  to  the  enemies..!

☆☆☆☆☆

क्या कोई नई बात नजर 

आती  है  हममें ?

आईना हमें देख कर

हैरान सा  क्यूँ  है ?

☆☆

Do you see anything 

new  in  me…

Why is the mirror

surprised to see me?

☆☆☆☆☆

यूं तो सब, कुछ रूठे-रूठे

से रहते  हैं  मुझसे,

पर बचपन की मासूमियत

कुछ ज्यादा  खफा  है…

☆☆

As such, everyone remains

sullen  only  with  me,

But the innocence of childhood

is a bit more upset with me!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 149 ☆ व्यंग्य गीत – “न्याय-अन्याय” ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य गीत बंदर मामा न्याय करे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 148 ☆

☆ व्यंग्य गीत ☆ न्याय अन्याय  ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

बंदर मामा

चीन्ह -चीन्ह कर

न्याय करे

*

जो सियार वह भोगे दण्ड

शेर हुआ है अति उद्दण्ड

अपना & तेरा मनमानी

ओह निष्पक्ष रचे पाखण्ड

जय जय जय

करता समर्थ की

वाह करे

*

जो दुर्बल वह पिटना है

सच न तनिक भी पचना है

पाटों बीच फँसे घुन को

गेहूं के सँग पिसना है

सत्य पिट रहा

सुने न कोई

हाय करे

*

निर्धन का धन राम हुआ

अँधा गिरता खोद कुँआ

दोष छिपा लेता है धन

सच पिंजरे में कैद सुआ

करते आप 

गुनाह रहे, भरता कोई 

विवश मरे

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२-१२-२०१५, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #201 – 87 – “ख़्यालों संग ख़्वाबों को सजाए रखिये …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “ख़्यालों संग ख़्वाबों को सजाए रखिये…”)

? ग़ज़ल # 87 – “ख़्यालों संग ख़्वाबों को सजाए रखिये…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िक्र छेड़ा है तो माहौल बनाए रखिये,

हमेशा लौ अरमानों की जलाए रखिये।

सिर रोज खपायेंगी अजीब दुश्वारियाँ,

ख़्यालों संग ख़्वाबों को सजाए रखिये।

हरेक शख़्स को कूच करना एक दिन,

भरोसा कन्धों का साथ बनाए रखिए।

बूढ़ा शेर कभी घास खाते नहीं दिखता,

शिकारी अन्दाज़ यूँ ही दिखाए रखिए।

‘आतिश’ ज़ाया न पल चिंता चिता में,

कूच तक क़िस्सा  लय बचाए रखिये।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 78 ☆ हाइकु ☆ ।। क्रोध/गुस्सा ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ हाइकु ☆ ।। क्रोध/गुस्सा ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

।।पांच।।वर्ण 5=7=5 पंक्ति अनुसर।।

[1]

क्रोध आग है

खुद का घर जले

वह   दाग है।

[2]

बुद्धि  हरण

गुस्से में   धैर्य नष्ट

दोस्ती क्षरण।

[3]

दंभ से क्रोध

घृणा ईर्ष्या ओ द्वेष

होए न बोध।

[4]

क्रोध शत्रु है

स्वयं का नुकसान

जैसे मृत्यु है।

[5]

अधीरता है

गुस्से का भी कारण

न वीरता है।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 143 ☆ बाल गीतिका से – “हम सब हैं भारत के वासी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “हम सब हैं भारत के वासी…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “हम सब हैं भारत के वासी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

स्मिथ, राजिन्दर ,उस्मानी, वेंगल, नानू, गोपीनाथ । 

आओ, आओ, हाथ मिलाओ, हिलमिल हम सबको लें साथ ॥

भारत माँ हम सबकी माता, हम भारत माता के लाल ।

मिलजुल कर सब साथ चलें तो कर सकते हैं बड़े कमाल ॥

जिनने की है बड़ी तरक्की उनमें है भारत का नाम ।

पर अब भी आगे बढ़ने को करने हैं हमको कई काम ॥

गाँधीजी ने दी आजादी नेहरूजी ने दिया विकास ।

अब भी दूर गाँव तक शिक्षा का फैलाना मगर प्रकाश ॥

खेल कूद शिक्षा श्रम संयम अनुशासन साहस विज्ञान । 

का प्रसार करके समाज में रखना है भारत का मान ॥

बढ़ें प्रेम से हम समान सब, तो हो अपना देश महान् ।

भारत की दुनिया में उभरे अपनी एक अलग पहचान ॥ 

माँ आशा जग उत्सुकता से देखो हमको रहा निहार ।

यही विविधता में भी एकता है अपने सुख का आधार ॥

हम सब हैं भारत के वासी, सबके हैं समान अधिकार ।

सबको मिलकर के करना है बापू के सपने साकार ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… पावस सावन ऋतु… ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशनाधीन ।राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 200 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… पावस सावन ऋतु☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(विधा – दाक्षायणी)

पावस सावन ऋतु सदा, खुशी भरें जीवन प्रदा,

हरित वस्त्र शृंगारित, बढ़ता रूप अनूप।

चातक से हृद आस बढ़, विरह वेदना प्यास बढ़,

सजन मिलन को आओ, छलती जीवन धूप ।‌।

प्रीति भरे अँगनाइयाँ, भाव बढ़े पुरवाइयाँ,

मधुप मधुर शहनाई, प्रेमा हृदय निनाद।

हुई उमंगित जिंदगी,अंत:स्थल की बंदगी,

बढ़ ज्वार हिलोरें ले, करिए प्रिय संवाद ।।

उपजे मन मृग तृष्णिका ,प्रेम प्राप्त रस कृष्णि का,

भाव विहृलता हर क्षण,प्रीति स्फुरित उर वक्र ।

नवल चढ़े हर कल्पना, प्रखर सरस हृद अल्पना,

नैन बिछे स्वागत में,  पूर्ण मिलन कर चक्र ।‌।

हृदय अतल गहराइयाँ, लिए प्रीति अँगड़ाइयाँ,

निशि दिन अंक चेतना, स्वप्न भरे आघूर्ण।

प्रेम-भाव भर चित्त में, करे प्रतिष्ठित सित्त में,

हृदय चाह व्योम पंथ, करे भ्रमण नित पूर्ण ।‌।

 

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 164 – श्रावण सरी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 164 – श्रावण सरी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

ठुमकत मुरडत

आल्या श्रावणाच्या सरी।

पोरीबाळी  थिरकती

रिमझिम तालावरी।।

 

ओथंबती जलदही

कधी उन्हे डोकवली।

मोहवितो निलकंठ

नृत्यासवे केकावली।।

 

अवखळ नद्या नाले

ऊन्मादात खळाळती।

शीळ घाली रान वारा

गीत पाखरे ही  गाती।।

 

नववधुपरी धरा

शालू हिरवा नेसली।

ठेवा जपुनी सौख्याचा

सृजनाचं लेणं ल्याली।।

 

सृजनाच्या सोहळ्यात

ओटी धरेची भरली

सप्तरंगी तोरणाने

चैतन्यात सृष्टी न्हाली।।

 

सुखावला कृषिवल

सणवार मांदियाळी।

अनुबंघ जपणारी

प्रथा श्रावणी आगळी।।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares