मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ ‘अस्तित्व’ – सुश्री सुधा मूर्ती – अनुवाद – प्रा ए आर यार्दी ☆ संवादिनी – सौ. मनिषा विजय चव्हाण ☆

सौ.मनिषा विजय चव्हाण

अल्प स्वपरिचय

मी सौ.मनिषा विजय चव्हाण फार्मासिस्ट म्हणून मेडिकल मध्ये रूजू आहे. वाचनाची आवड आहे,पुस्तके वाचून अभिप्राय लिहिते. कविता लिहिते. 

? पुस्तकावर बोलू काही ?

 ☆ ‘अस्तित्व’ – सुश्री सुधा मूर्ती – अनुवाद – प्रा ए आर यार्दी ☆ संवादिनी – सौ. मनिषा विजय चव्हाण ☆

पुस्तक – अस्तित्व 

लेखिका  – सुश्री सुधा मूर्ती 

अनुवाद – प्रा ए आर यार्दी

प्रकाशक – मेहता पब्लिशिंग हाउस, पुणे 

पृष्ठसंख्या – १०४   पाने

पुस्तकाचे मूल्य – ११0  रुपये

संवादिनी – सौ. मनिषा विजय चव्हाण

मुकेश उर्फ मुन्ना याच्या जिवनपटावर आधारीत कादंबरी ‘अस्तित्व’.स्वतःचे अस्तित्व किती महत्वाचे आहे.अस्तित्व असणे ,ते जपणे म्हणजे जणू लढाईच.स्वतःचे अस्तित्व हरविलेल्या माणसाची अवस्था अतिशय दयनीय होते .

हिच गोष्ट आपणास ‘अस्तित्व’ कादंबरी वाचल्यावर कळते.

मुन्नाच्या अस्तित्वाचा प्रश्न निर्माण होतो.

मग माझी आई कोण?तिने मला का टाकले? तिच्यावर अशी कोणती वेळ आली कि तिने मला दुस-याच्या स्वाधीन केले? हे शोधण्यासाठीचा त्याचा प्रवास,त्याने केलेला संपत्तीचा त्याग.आईवडिलांवरील त्याची श्रद्धा,प्रेम,त्याच्या स्वभावातील खरेपणा.सत्य स्विकारण्याची त्याची मानसिकता.सर्व काही ह्रदयाला भिडते.

स्त्रीचे  परमपावन स्वरूप म्हणजे ‘आई’.

त्या आईची तीन रूपे यात अनुभवायला मिळतात.

जन्म देणारी आई, दूध पाजणारी आई.

पाळणारी, घडवणारी,संस्कारक्षम पूर्ण माणूस बनवणारी आई.

महान अश्या थोर मनाच्या माता यात दिसतात.दोघीही त्यांच्या ठिकाणी योग्य आहेत.दिला शब्द पाळताना,वचन निभावताना,सगळ्या गोष्टींसाठी झगडताना

करावा लागलेला त्याग, मनाचा मोठेपणा, विश्वास दिसून येतो.

आणखी एक म्हणजे जन्म कोणत्याही कुळात,गोत्रात ,देशात होऊ देत.माणूस घडतो तो फक्त आणि फक्त त्याच्यावर केल्या गेलेल्या योग्य संस्कारांमुळे हे या कादंबरी मध्ये प्रकर्षाने जाणवते.

रावसाहेबांच्या रूपात एक सच्चा दिलदार माणूस,खरेपणा जपणारा प्रेमळ बाप दिसतो.रक्ताचा नसताना,पोटी जन्म न झालेला, ज्याला आपला मानला तो आपलाच.तसेच अतिशय व्यवहारकुशल माणूस.

आपण म्हणतो भावनेच्या आहारी जाऊन निर्णय घेऊ नका पण इथे भावनेला प्राधान्य देऊनच रावसाहेबांनी संपत्तीचे वाटे केले.ही संपत्ती माझी नसून मी याचा मालक नाही.ही सारी संपत्ती मुन्नाची आहे,तोच या सा-या संपत्तीचा एकमेव मालक आहे.ही त्यांची भावना,हा विचार उद्दात्त आहे.सत्यप्रिय,निष्ठावान,असेच त्यांचे व्यक्तित्व आहे.

संपत्तीचा मोहन बाळगता ती स्वतःहून दुस-याच्या स्वाधीन करणारा त्यांचा मुलगा मुकेश उर्फ मुन्ना पाळलेला नसून त्यांचा सख्खा मुलगाच शोभतो ना?

यापेक्षा नात्यातील गोडवा अजून काय असू शकतो?

आजच्या काळात अश्या संस्कारांची अतिशय गरज आहे अतिशय सोप्या भाषेत मांडणी…

वाचताना भावनाविवश व्हायला होते….

खूपच सुंदर आणि वाचनिय…

खरचं सगळ्यांनी वाचायला हवेच….

संवादिनी – सौ. मनिषा विजय चव्हाण

सांगली, मो. नंबर….9767090659

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #194 ☆ ख़ामोश रिश्ते ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोश रिश्ते। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 194 ☆

ख़ामोश रिश्ते 

‘मतलब के बग़ैर बने संबंधों का फल हमेशा मीठा होता है’… यह कथन कोटिशः सत्य है। परंतु हैं कहां आजकल ऐसे संबंध? आजकल तो सब संबंध स्वार्थ के हैं। कोई संबंध भी पावन नहीं रहा। सो! उनकी तो परिभाषा ही बदल गई है। ‘पहाड़ियों की तरह ख़ामोश हैं/ आज के संबंध और रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ यह बयान करते हैं, दर्द के संबंधों और उनकी हक़ीक़त को, जिनका आधिपत्य पूरे समाज पर स्थापित है। रिश्ते ख़ामोश हैं, पहाड़ियों की तरह और उनकी अहमियत तब उजागर होती है, जब आप उन्हें पुकारते हैं, अन्यथा आपके शब्दों की गूंज लौट आती है अर्थात् आपके पहल करने पर ही उत्तर प्राप्त होता है, वरना तो अंतहीन मौन व गहन सन्नाटा ही छाया रहता है। इसका मुख्य कारण है– संसार का ग्लोबल विलेज के रूप में सिमट जाना, जहां इंसान प्रतिस्पर्द्धा के कारण एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है और अधिकाधिक धन कमाना… उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। वह आत्मकेंद्रितता के रूप में जीवन में दस्तक देता है और अपने पांव पसार कर बैठ जाता है, जैसे वह उसका आशियां हो। वैसे भी मानव सबसे अलग-थलग रहना पसंद करता है, क्योंकि उसके स्वार्थ एक-दूसरे से टकराते हैं। वह सब संबंधों को नकार केवल ‘मैं ‘अर्थात् अपने ‘अहं’ का पोषण करता है; उसकी ‘मैं’ उसे सब से दूर ले जाती है। उस स्थिति में सब उसे पराये नज़र आते हैं और स्व-पर व राग-द्वेष के व्यूह में फंसा आदमी बाहर निकल ही नहीं पाता। उसे कोई भी अपना नज़र नहीं आता और स्वार्थ-लिप्तता के कारण वह उनसे मुक्ति भी नहीं प्राप्त कर सकता।

आधुनिक युग में कोई भी संबंध पावन नहीं रहा; सबको ग्रहण लग गया है। खून के संबंध तो सृष्टि- नियंता बना कर भेजता है और उन्हें स्वीकारना मानव की विवशता होती है। दूसरे स्वनिर्मित संबंध, जिन्हें आप स्वयं स्थापित करते हैं। अक्सर यह स्वार्थ पर टिके होते हैं और लोग आवश्यकता के समय इनका उपयोग करते हैं। आजकल वे ‘यूज़ एंड थ्रो’ में विश्वास करते हैं, जो पाश्चात्य संस्कृति की देन है। समाज में इनका प्राधान्य है। इसलिए जब तक उसकी उपयोगिता-आवश्यकता है, उसे महत्व दीजिए; इस्तेमाल कीजिए और उसके पश्चात् खाली बोतल की भांति बाहर फेंक दीजिए…जिसका प्रमाण हम प्रतिदिन गिरते जीवन-मूल्यों के रूप में देख रहे हैं। आजकल बहन, बेटी व माता-पिता का रिश्ता भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहा। इनके स्थान पर एक ही रिश्ता काबिज़ है औरत का…चाहे दो महीने की बालिका हो या नब्बे वर्ष की वृद्धा, उन्हें मात्र उपभोग की वस्तु समझा जाता है, जिसका प्रमाण हमें दिन-प्रतिदिन के बढ़ते दुष्कर्म के हादसों के रूप में दिखाई देता है। परंतु आजकल तो मानव बहुत बुद्धिमान हो गया है। वह  दुष्कर्म करने के पश्चात् सबूत मिटाने के लिए, उनकी हत्या करने के विमिन्न ढंग अपनाने लगा है। वह कभी तेज़ाब डालकर उसे ज़िंदा जला डालता है, तो कभी पत्थर से रौंद कर, उसकी पहचान मिटा देता है और कभी गंदे नाले में  फेंक… निज़ात पाने का हर संभव प्रयास करता है।

आजकल तो सिरफिरे लोग गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री, बहन-भाई आदि सब संबंधों को ताक पर रख कर– हमारी भारतीय संस्कृति की धज्जियां उड़ा रहे हैं। वे मासूम बालिकाओं को अपनी धरोहर समझते हैं, जिनकी अस्मत से खिलवाड़ करना वे अपना हक़ समझते हैं। इसलिए हर दिन उस अबला को ऐसी प्रताड़ना व यातना को झेलना पड़ता है… वह अपनों की हवस का शिकार बनती है। चाचा, मामा, मौसा, फूफा या मुंह बोले भाई आदि द्वारा की गयी दुष्कर्म की घटनाओं को दबाने का भरसक प्रयास किया जाता है, क्योंकि इससे उनकी इज़्ज़त पर आंच आती है। सो! बेटी को चुप रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है, क्योंकि इसके लिए अपराधी उसे ही स्वीकारा जाता है, न कि उन रिश्तों के क़ातिलों को… वैसे भी अस्मत तो केवल औरत की होती है… पुरुष तो जहां भी चाहे, मुंह मार सकता है… उसे कहीं भी अपनी क्षुधा शांत करने का अधिकार प्राप्त है।

आजकल तो पोर्न फिल्मों का प्रभाव बच्चों, युवाओं व वृद्धों पर इस क़दर हावी रहता है कि वे अपनी भावनाओं पर अंकुश लगा ही नहीं पाते और जो भी बालिका, युवती अथवा वृद्धा उन्हें नज़र आती है, वे उसी पर झपट पड़ते हैं। चंद दिनों पहले दुष्कर्मियों ने इस तथ्य को स्वीकारते हुए कहा था कि यह पोर्न- साइट्स उन्हें वासना में इस क़दर अंधा बना देती हैं कि वे अपनी जन्मदात्री माता की इज़्ज़त पर भी हाथ डाल बैठते हैं। इसका मुख्य कारण है…माता- पिता व गुरुजनों का बच्चों को सुसंस्कारित न करना;  उनकी ग़लत हरक़तों पर बचपन से अंकुश न लगाना …उन्हें प्यार-दुलार व सान्निध्य देने के स्थान पर सुख -सुविधाएं प्रदान कर, उनके जीवन के एकाकीपन व शून्यता को भरने का प्रयास करना…जिसका प्रमाण मीडिया से जुड़ाव, नशे की आदतों में लिप्तता व एकांत की त्रासदी को झेलते हुए, मन-माने हादसों को अंजाम देने के रूप में परिलक्षित हैं। वे इस दलदल में इस प्रकार धंस जाते हैं कि लाख चाहने पर भी उससे बाहर नहीं आ पाते।

आधुनिक युग में संबंध-सरोकार तो रहे नहीं, रिश्तों की गर्माहट भी समाप्त हो चुकी है। संवेदनाएं मर रही हैं और प्रेम, सौहार्द, त्याग, सहानुभूति आदि भाव इस प्रकार नदारद हैं, जैसे चील के घोंसले से मांस। सो! इंसान किस पर विश्वास करे? इसमें भरपूर योगदान दे रही हैं महिलाएं, जो पति के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही हैं। वे शराब के नशे में धुत्त, सिगरेट के क़श लगा, ज़िंदगी को धुंए में उड़ाती, क्लबों में जुआ खेलती, रेव पार्टियों में स्वेच्छा व प्रसन्नता से सहभागिता प्रदान करती दिखाई पड़ती हैं। घर परिवार व अपने बच्चों की उन्हें तनिक भी फ़िक्र नहीं होती और बुज़ुर्गों को तो वे अपने साये से भी दूर रखती हैं। शायद!वे इस तथ्य से बेखबर रहते हैं कि एक दिन उन्हें भी उसी अवांछित-अप्रत्याशित स्थिति से गुज़रना पड़ेगा;   एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ेगा और उनका दु:ख उनसे भी भयंकर होगा। आजकल तो विवाह रूपी संस्था को युवा पीढ़ी पहले ही नकार चुकी है। वे उसे बंधन स्वीकारते हैं। इसलिए ‘लिव-इन’ व विवाहेतर संबंध स्थापित करना, सुरसा के मुख की भांति तेज़ी से अपने पांव पसार रहे हैं। सिंगल पैरेंट का प्रचलन भी तेज़ी से बढ़ रहा है। आजकल तो महिलाओं ने विवाह को पैसा ऐंठने का धंधा बना लिया है, जिसके परिणाम-स्वरूप लड़के विवाह- बंधन में बंधने से क़तराने लगे हैं। वहीं उनके माता- पिता भी उनके विवाह से पूर्व, अपने आत्मजों से किनारा करने लगे हैं, क्योंकि वे उन महिलाओं की कारस्तानियों से वाकिफ़ होते हैं, जो उस घर में कदम रखते ही उसे नरक बना कर रख देती हैं। पैसा ऐंठना व परिवारजनों पर झूठे इल्ज़ाम लगा कर, उन्हें जेल की सीखचों के पीछे भेजना उनके जीवन का प्रमुख मक़सद होता है।

ह़ैरत की बात तो यह है कि बच्चे भी कहां अपने माता-पिता को सम्मान देते हैं? वे तो यही कहते हैं, ‘तुमने हमारा पालन-पोषण करके हम पर एहसान नहीं किया है; जन्म दिया है, तो हमारे लिए सुख- सुविधाएं जुटाना तो आपका प्राथमिक दायित्व हुआ।  सो! हम भी तो अपनी संतान के लिए वही सब कर रहे हैं। इस स्थिति में अक्सर माता-पिता को न चाहते हुए भी, वृद्धाश्रम की ओर रुख करना पड़ता है। यदि वे तरस खाकर उन्हें अपने साथ रख भी लेते हैं, तो उनके हिस्से में आता है स्टोर-रूम, जहां अनुपयोगी वस्तुओं को, कचरा समझ कर रखा जाता है। इतना ही नहीं, उन्हें तो अपने पौत्र-पौत्रियों से बात तक भी नहीं करने दी जाती, क्योंकि उन्हें आधुनिक सभ्यता व उनके कायदे-कानूनों से अनभिज्ञ समझा जाता है। उन्हें तो ‘हेलो-हाय’ व मॉम-डैड की आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति पसंद होती है। सो! मम्मी तो पहले से ही ममी है, और डैड भी डैड है…जिनका अर्थ मृत्त होता है। सो! वे कैसे अपने बच्चों को सुसंस्कारों से पल्लवित-पोषित कर सकते हैं? कई बार तो उनके आत्मज उन्हें माता-पिता के रूप में स्वीकारने व अहमियत देने में भी लज्जा का अनुभव करते हैं; अपनी तौहीन समझते हैं।

आइए! आत्मावलोकन करें, क्या स्थिति है मानव की आधुनिक युग में, जहां ज़िंदगी ऊन के गोलों की भांति उलझी हुई प्रतीत होती है। मानव विवश है; आंख व कान बंद कर जीने को…और होम कर देता है, वह अपनी समस्त खुशियां और परिवार में समन्वय व सामंजस्यता स्थापित करने के लिए सर्वस्व समर्पण। वास्तव में हर इंसान मंथरा है…  ‘मंथरा! मन स्थिर नहीं जिसका/ विकल हर पल/ प्रतीक कुंठित मानव का।’ चलिए ग़ौर करते हैं, नारी की स्थिति पर ‘गांधारी है/ आज की हर स्त्री/ खिलौना है, पति के हाथों का।’ और ‘द्रौपदी/ पांच पतियों की पत्नी/ सम-विभाजित पांडवों में / मां के कथन पर/ स्वीकारना पड़ा आदेश/ …..और नारी के भाग्य में/ लिखा है/ सहना और कुछ न कहना ‘…इस से स्पष्ट होता है कि नारी को हर युग में पति का अनुगमन करने व मौन रहने का संदेश दिया गया है, अपना पक्ष रखने का नहीं। जहां तक नारी अस्मिता का प्रश्न है, वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। चलिए विचार करते हैं, आज के इंसान पर… ‘आज का हर इंसान/ किसी न किसी रूप में  रावण है/ नारी सुरक्षित नहीं/ आज परिजनों के मध्य में/ … शायद ठंडी हो चुकी है /अग्नि/ जो नहीं जला सकती/ इक्कीसवीं सदी के रावण को।’ यह पंक्तियां चित्रण करती हैं– आज की भयावह परिस्थितियों का…  जहां संबंध इस क़दर दरक चुके हैं कि चारों ओर पसरे…’परिजन/ जिनके हृदय में बैठा है… शैतान/ वे हैं नर-पिशाच।’ …जिसके कारण जन्मदाता बन जाता है/ वासना का उपासक/ और राखी का रक्षक/ बन जाता है भक्षक/ या उसका जीवन साथी ही/ कर डालता है सौदा/ उसकी अस्मत का/ जीवन का।’ रावण कविता की अंतिम पंक्तियां समसामयिक समस्या की ओर इंगित करती हैं…हिरण्यकशिपु व हिरण्याक्ष भी अधिकाधिक धन-संपत्ति पाने और जीने का हक़ मिटाने में भी संकोच नहीं करते। कहां है उनकी आस्था… नारायण अथवा सृष्टि-नियंता में…आधुनिक युग में तो सारा संसार ऐसे लोगों से भरा पड़ा है। यह सब उद्धरण 2007 में प्रकाशित मेरे काव्य-संग्रह अस्मिता से उद्धृत हैं, जो वर्तमान का दस्तावेज़ हैं। विश्रृंखलता के इस दौर में संबंध दरक़ रहे हैं, अविश्वास का वातावरण चहुंओर व्याप्त है…जहां भावनाओं व संवेदनाओं का कोई मूल्य नहीं। सो! मानव के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कैसे संभव है?

‘हमारी बात सुनने की/ फ़ुर्सत कहां तुमको/ बस कहते रहते हो/ अभी मसरूफ़ बहुत हूं’ इरफ़ान राही सैदपुरी की ये पंक्तियां कारपोरेट जगत् के बाशिंदों अथवा बंधुआ मज़दूरों की हकीक़त को बयान करती है। वैसे भी इंसान व्यस्त हो या न हो, परंतु अपनी व्यस्तता के ढोल पीट, शेखी बघारता है…जैसे उसे दूसरों की बात सुनने की फ़ुर्सत ही नहीं है। सो! चिन्तन-मनन करने का प्रश्न कहां उठता है? ‘बहुत आसान है /ज़मीन पर मकान बना लेना/ परंतु दिल में जगह बनाने में /ज़िंदगी गुज़र जाती है’ यह कथन कोटिश: सत्य है। सच्चा मित्र बनाने के लिए मानव को जहां स्नेह-सौहार्द लुटाना पड़ता है, वहीं अपनी खुशियों को भी होम करना पड़ता है।सुख-सुविधाओं को दरक़िनार कर, दूसरों पर खुशियां उंडेलने से ही सच्चा मित्र अथवा सुख-दु:ख का साथी प्राप्त हो सकता है। वैसे तो ज़माने के लोग अजब-ग़ज़ब हैं. उपयोगितावाद में विश्वास रखते हैं और बिना मतलब के तो कोई ‘हेलो हाय’ करना भी पसंद नहीं करता। लोग इंसान को नहीं, उसकी पद-प्रतिष्ठा को सलाम करते हैं; जबकि आजकल एक छत के नीचे अजनबी-सम रहने का प्रचलन है। सो! वाट्सएप, ट्विटर व फेसबुक से दुआ-सलाम करना आज का फैशन हो गया है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद, अहं में लीन, सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर… प्रतीक्षा करते हैं, एक-दूसरे की…कि इन विषम परिस्थितियों में वार्तालाप करने की पहल कौन करे…उनके मनोमस्तिष्क में यह प्रश्न बार-बार दस्तक देता है।

काश! हम अपने निजी स्वार्थों, स्व-पर व राग-द्वेष के बंधनों से, ‘पहले आप,पहले आप’ की औपचारिकता से स्वयं को मुक्त कर सकते… तो यह जहान कितना सुंदर, सुहाना व मनोहारी प्रतीत होता और वहां केवल प्रेम, समर्पण व त्याग का साम्राज्य होता। हमारे इर्द-गिर्द खामोशियों की चादर न लिपटी रहती और हमें मौन रूपी सन्नाटे के दंश नहीं झेलने पड़ते। वैसे रिश्ते पहाड़ियों की भांति खामोश नहीं होते, बल्कि पारस्परिक संवाद से जीवन-रेखा के रूप में बरक़रार रहते हैं। संबंधों को शाश्वत रूपाकार प्रदान करने के लिए ‘मैं हूं न’ के अहसास  दिलाने अथवा आह्वान मात्र से, संकेत समझ कर वे चिरनिद्रा से जाग जाते हैं और उनकी गूंज लम्बे समय तक रिश्तों को जीवंतता प्रदान करती है।

रिश्तों को स्वस्थ व जीवंत रखने के लिए प्रेम, त्याग  समर्पण आदि की आवश्यकता होती है, वरना वे रेत के कणों की भांति, पल-भर में मुट्ठी से फिसल जाते हैं। अपेक्षा व उपेक्षा, रिश्तों में सेंध लगा, एक-दूसरे को घायल कर तमाशा देखती हैं। सो! ‘न किसी की उपेक्षा करो, न किसी से अपेक्षा रखो’…यही जीवन में सफलता प्राप्ति का मूल साधन है और मूल-मंत्र व शुभकामनाएं तभी फलीभूत होती हैं, जब वे तहे- दिल से निकलें। ‘खामोश सदाएं व दुआएं, दवाओं से अधिक कारग़र व प्रभावशाली सिद्ध होती हैं, परंतु खामोशियां अक्सर अंतर्मन को नासूर-सम सालती व आहत करती रहती हैं। वे सारी खुशियों को लील, जीवन को शून्यता से भर देती हैं और हृदय में अंतहीन मौन व सन्नाटा पसर जाता है; जिससे निज़ात पाना मानव के वश में नहीं होता। सो! सम+बंध अर्थात् समान रूप से बंधे रहने के लिए, संशय, संदेह व शक़ को जीवन से बाहर का रास्ता दिखा देना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि स्नेह-सौहार्द, परोपकार, त्याग व समर्पण संबंधों को चिर-स्थायी बनाए रखने की संजीवनी है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #193 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 193 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

सुंदर छवि है मोहनी,

प्यारे हो घन श्याम।

मोर मुकुट सिर पर सजे,

लीला धारी श्याम।।

 

पास बैठकर कृष्ण ने,

लिया मैया से ज्ञान।

नटखट कान्हा सुन रहे,

बातें माँ की ध्यान।।

 

मैया कहती कृष्ण से,

नहीं बिगाडो काम।

करी शिकायत आपकी,

लेत गोपियाँ  नाम।।

 

यशोदा कहती प्यार से,

सुन लो मेरे लाल।

माखन चोरी करो नहीं,

 संग खेलो गुपाल ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #179 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी संतोष के दोहे. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 179 ☆

☆ “संतोष के दोहे…”  ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कोई नहीं कबीर सा, जिनकी गहरी मार

जो कुरीतियों पर सदा, भरते थे ललकार

सबसे ऊँचा जगत में, मानवता का धर्म

बता गए कबिरा हमें, जीवन का यह मर्म

रास कभी आया नहीं, झूठ-कपट, पाखण्ड

साथ खड़े हो सत्य के, दिया झूठ को दण्ड

डरे हुये थे उस समय, धर्मी ठेकेदार

कबिरा ने पाखण्ड पर, किया सदा ही वार

गागर में सागर भरा, ऐसे सन्त कबीर

अपने दोहों से रची, सामाजिक तस्वीर

मानव मानव में कभी, किया न उनने भेद

पढ़ कुरान, गीता सभी, धर्म परायण वेद

शिक्षा ऐसी दे गए, आती नित जो काम

उन पर करने से अमल, मिलते शुभ परिणाम

सिद्धांतों से अलग हट, दिया सार्थक ज्ञान

जाति-धरम को भूलकर, देखा बस इंसान

आज धरम के नाम पर, मानवता है लुप्त

आज विचारक, कवि सभी, जाने क्यों हैं सुप्त

हमें आज भी दे रहे, उनके दोहे सीख

पढ़ने से “संतोष” हो, नाम अमिट  तारीख

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #186 ☆ एक भाकर…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 186 – विजय साहित्य ?

☆ एक भाकर…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

चुलीतला जाळ

जसा जसा भडकायचा

झोपडीबाहेरचा अंधार

तसा तसा वाढायचा.

भाकरीचा चंद्र

नशीबाच्या कलेकलेनं

रोज कमी जास्त हुयाचा.. . !

कधी चतकोर, कधी अर्धा

कधी आख्खाच्या आख्खा

डागासकट हरखायचा.. !

माय त्याच्याशी बोलायची .

अंधारवाट तुडवायची. . . !

लेकराच्या भुकंसाठी

लाकडागत जळायची.. !

आमोशाच्या दिसात बी

काजव्यागत चमकायची. . . !

त्या नडीच्या दिसात ती. . .

गाडग्यातल मडक्यात अन्

मडक्यातल गाडग्यात करीत

माय जोंधळं हुडकायची.

जात्यावर भरडायची.

तवा कुठं डोळ्याम्होरं.. . .

चंद्रावानी फुललेली

फर्मास भाकर दिसायची..!

घरातली सारीच जणं

दोन येळच्या अन्नासाठी

राबराब राबायची…!

चुलीमधल्या लाकडागत

जगण्यासाठी जळायची.. . !

पडंल त्ये काम करून

म्या, तायडी,धाकल्या गणू

मायची धडपड बघायचो

बाप आनल का वाणसामान

सारीच आशेवर जगायचो.. . !

चुल येळेवर पेटायसाठी

हाडाची काड करायचो. . . !

चुलीवर भाकर भाजताना

माय मनात रडायची.

भाकर तयार व्हताच

डोळ्यात चांदणी फुलायची.. !

लाकड नसायची, भूक भागायची.

आमच्या डोळ्यावर झोप यायची

पण . . . कोण जाणे कुठपर्यंत

एक थंडगार चुलीम्होर.. .

बा ची वाट बघत बसायची.

भाकरीच्या चंद्रासाठी

तीळ तीळ तुटायची.

उजेडाची वाट बघत

आला दिवस घालवायची…!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मंडल : १ : ३० : ऋचा ६ ते १०— मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मंडल : १ : ३० : ऋचा ६ ते १० — मराठी भावानुवाद. ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त ३० (इंद्र, अश्विनीकुमार, उषासूक्त)

देवता – १-१६ इंद्र; १७-१९ अश्विनीकुमार; २०-२२ उषा

ऋषी – शुनःशेप आजीगर्ति

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील तिसाव्या  सूक्तात एकंदर बावीस ऋचा आहेत. या सूक्तात शुनःशेप आजीगर्ति या ऋषींनी इंद्र, अश्विनीकुमार आणि उषा या देवतांना आवाहन केलेली असल्याने हे इंद्र-अश्विनीकुमार-उषासूक्त सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. यातील पहिल्या  सोळा ऋचा इंद्राला, सतरा ते एकोणीस  या ऋचा अश्विनिकुमारांना आणि वीस ते बावीस या  ऋचा उषा देवतेला  आवाहन करतात.

या सदरामध्ये आपण विविध देवतांना केलेल्या आवाहनानुसार  गीत ऋग्वेद पाहूयात. आज मी आपल्यासाठी इंद्र देवतेला उद्देशून रचलेल्या सहा ते दहा या ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे.

मराठी भावानुवाद ::

ऊ॒र्ध्वस्ति॑ष्ठा न ऊ॒तये॑ऽ॒स्मिन्वाजे॑ शतक्रतो । सम॒न्येषु॑ ब्रवावहै ॥ ६ ॥

 कार्यांमध्ये पराक्रमांच्या करि संरक्षण अमुचे

सामर्थ्यशाली देवेंद्रा उभे उठुन ऱ्हायचे

हे शचीपतये तुमच्या अमुच्या मध्ये कोणी नसावे

संभाषण अमुचे आता तुमच्यासवेचि हो व्हावे ||६||

 योगे॑योगे त॒वस्त॑रं॒ वाजे॑वाजे हवामहे । सखा॑य॒ इंद्र॑मू॒तये॑ ॥ ७ ॥

 वैभवाची आंस जागता अमुच्या आर्त मनात

शौर्य अपुले गाजविण्याला तुंबळ रणांगणात

भक्ती अमुची देवेन्द्रावर चंडप्रतापी तो

सहाय्य करण्या आम्हाला त्यालाची पाचारितो ||७||

आ घा॑ गम॒द्यदि॒ श्रव॑त्सह॒स्रिणी॑भिरू॒तिभिः॑ । वाजे॑भि॒रुप॑ नो॒ हव॑म् ॥ ८ ॥

 कानावरती पडता अमुची आर्त स्तोत्र प्रार्थना

मार्ग सहस्र दाविल अपुले अमुच्या संरक्षणा

प्रदर्शीत करुनी अपुल्या बाहूंचे सामर्थ्य 

खचीत येईल साद ऐकुनी देवेंद्राचा रथ  ||८||

 अनु॑ प्र॒त्नस्यौक॑सो हु॒वे तु॑विप्र॒तिं नर॑म् । यं ते॒ पूर्वं॑ पि॒ता हु॒वे ॥ ९ ॥

 अगणित असुनी रिपू भोवती अजिंक्य हा शूर
तव पितयाने केला इंद्राचा धावा घोर

सोडून अपुल्या दिव्य स्थाना आम्हासाठी यावे

देवेंद्रा रे सदैव संरक्षण आमुचे करावे ||९||

 तं त्वा॑ व॒यं वि॑श्ववा॒रा शा॑स्महे पुरुहूत । सखे॑ वसो जरि॒तृभ्यः॑ ॥ १० ॥

 प्रेम अर्पिण्या दुजा न कोणी विशाल या विश्वात

अखंड आळविती विद्वान तव स्तोत्राला गात

आम्हीही सारे करितो देवेंद्रा तुझी स्तुती

मूर्तिमंत तू भाग्य तयांचे स्तुती तुझी जे गाती ||१०||

(या ऋचांचा व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक देखील मी शेवटी देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)

https://youtu.be/sxUQqA61WDU

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Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 30 Rucha 6 to 10

Rugved Mandal 1 Sukta 30 Rucha 6 to 10

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 123 ☆ लघुकथा – गणेशचौथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘गणेशचौथ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 123 ☆

☆ लघुकथा – गणेशचौथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘आज गणेश चौथ है आप भी व्रत होंगी?’  सासूजी खुद तो व्रत रखती ही थीं आस-पड़ोसवालों से भी पूछती रहतीं –‘ नहीं’ या ‘हाँ’ के उत्तर में  सामने से एक प्रश्न दग जाता – ‘और आपकी बहू?’ ‘उसके लड़का नहीं है ना? हमारे यहाँ लड़के की माँ ही गणेशचौथ का व्रत रखती है। ‘

ना चाहते हुए भी मेरे कानों में आवाज पड़ ही जाती थी। तभी मैंने सुना  आस्था दादी से उलझ रही है – ‘दादी। लड़के के लिए व्रत रखती हैं आप!  लड़की के लिए कौन-सा व्रत होता है?’

‘ऐं — लड़कियों के लिए कोई व्रत रखता है क्या?’- दादी बोलीं

‘पर क्यों नहीं रखता’ – रुआँसी होती आस्था ने पूछा।

‘अरे, हमें का पता। जाकर अपनी मम्मी से पूछो, बहुत पढ़ी-लिखी हैं वही बताएंगी।’

आस्था रोनी सूरत बनाकर मेरे सामने खड़ी थी। आस्था के गाल पर स्नेह भरी हल्की चपत मैं लगाकर बोली – ‘ये पूजा- पाठ  संतान के लिए होती है।’

‘संतान मतलब?’

‘हमारे बच्चे  और क्या।‘

आस्था के चेहरे पर भाव आँख – मिचौली खेल रहे थे। सासूजी पूजा करने बैठीं, तिल के लड्डूओं का भोग  बना था। उन्होंने अपने बेटे रजत को टीका करने के लिए आरती का थाल उठाया ही था कि रजत ने अपनी बेटियों को आगे कर दिया – ‘पहले इन्हें माँ’। तिल की सौंधी महक घर भर में पसर गयी थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 161 ☆ रहिमन फाटे दूध को मथे, न माखन होय… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “रहिमन फाटे दूध को मथे, न माखन होय…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 161 ☆

रहिमन फाटे दूध को मथे, न माखन होय

जन्मोत्सव से लेकर नामकरण संस्कार तक अनेको आयोजन हुए। ये बात अलग है कि सारी डफलियों को जोड़कर एकरूपता देने की कोशिश की गयी किन्तु सभी ने अपने – अपने राग अलापने की आदत को नहीं छोड़ा। बेसुरे राग से हैरान होकर नाम को खंडित रूप में प्रस्तुत किया गया। जब पहला कदम लड़खड़ाता है तो बच्चे को उसके माता – पिता सम्हाल लेते हैं लेकिन यहाँ तो कौन क्या है ये समझना मुश्किल है।

सब एकजुटता तो चाहते हैं किन्तु स्वयं को बदले बिना। कहते हैं परिवर्तन प्रकृति का मूलाधार है, पर नासमझ व्यक्ति या जो जानबूझकर कर अंजान बन रहे हों उन्हें कोई कैसे जाग्रत करें। लंबी रेस का घोड़ा बनना कभी आसान नहीं होता है उसके लिए पर्याप्त अभ्यास की आवश्यकता होती है। कोई क्या करेगा जब घोड़े अस्तबल में रहकर ही रेस का हिस्सा बनने का दिवा स्वप्न देख रहे हों ?

खैर दौड़- भाग करते रहिए, जो सामने दिखेगा वही बिकेगा, घूरे के भी भाग्य बदलते हैं सो कभी आपका भी नंबर लग सकता है। किसी बहाने सही पर एकजुटता का विचार तो आया। एक- एक करके ग्यारह बन सकते हैं बस सच्चे मन से कोशिश करते रहिए। जनता सबका मूल्यांकन करती है सो कथनी- करनी के भेद से बचना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 223 ☆ आलेख – किताबों के सफों में  भोपाल… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखकिताबों के सफों में  भोपाल)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 223 ☆

? आलेख – किताबों के सफों में  भोपाल?

दुनियां की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना का साक्षी रहा है अपना भोपाल. भोपाल देश के साथ १५ अगस्त १९४७ को आजाद नहीं हुआ था. स्त्री शक्ति की कितनी ही बातें आज होती हैं किन्तु अपना भोपाल वह है जहां बरसों पहले बेगमों का शासन रहा है वे बेगमें जो युद्ध कला जैसे घुड़सवारी और हथियार चलाने में भी दक्ष थीं. भोपाल में लगभग 170 सालों तक बेगम शासकों का शासन रहा है. बेगम शासकों ने भोपाल बटालियन की स्थापना की थी. यह सेना पहली गैर यूरोपीय सेना थी जो युद्ध लड़ने के लिए फ्रांस गई थी. अपने भोपाल की इस बटालियन को प्रथम विश्वयुद्ध में विक्टोरिया क्रॉस और स्वतंत्रता के बाद के काल में निशान-ए-हैदर का सम्मान दिया गया था. ये सारे रोचक तथ्य आज की पीढ़ी को पुस्तों से ही मिल सकते हैं. पर किताबों के सफों पर भोपाल की चर्चा उतनी नहीं मिलती जितनी होनी चाहिये. अंग्रेजी में लिखी गई किताब है ‘निजाम-ए-भोपाल मिलेट्रीज ऑफ भोपाल स्टेट, ए हिस्टॉरिकल पर्सपेक्टिव” इसके लेखक हैं लेफ्टिनेंट जनरल मिलन नायडू.  भोपाल के सैन्य इतिहास पर लिखी गई उनकी यह किताब भोपाल वासियों के लिए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज है.

अंग्रेजी की ही एक और पुस्तक है “फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल: द एपिक स्टोरी ऑफ द वर्ल्ड्स डेडलीएस्ट इंडस्ट्रियल डिजास्टर” विदेशी लेखकों  डोमिनिक लैपिएरे और जेवियर मोरो की 1984 की भोपाल आपदा पर आधारित यह किताब १९८४ की भयावह गैस त्रासदी को शब्द चित्रों में बदलने का मार्मिक काम करती है. अमेरिकी फर्म यूनियन कार्बाइड के रासायनिक कीटनाशक, सेविन के आविष्कार का वर्णन पुस्तक में मिलता है , जिसमें मिथाइल आइसोसाइनेट और α-नेफ्थॉल का उपयोग किया गया था. यही मिथाइल आइसोसाइनेट गैस भोपाल की त्रासदी बनी थी जिसमें असमय हजारों लोगों की भयावह मृत्यु हुई थी. इस किताब से आज की पीढ़ी को ज्ञात हो सकता है कि कैसे तत्कालीन रेलवे स्टेशन मास्टर ने त्वरित बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुये एक ट्रेन को भोपाल स्टेशन पर रुकने से रोक कर हजारों यात्रियो की जान बचाई थी.

हिन्दी में लिखी गई ओम प्रकाश खुराना की महत्वपूर्ण किताब है “भोपाल हमारी विरासत”. भोपाल से सम्बंधित लगभग सभी विषयों पर संक्षिप्त जानकारी, शोधकर्ताओं व् राजनीतिज्ञों के लिए पठनीय सामग्री इस किताब में मिलती है.  पर्यटकों के लिए यह जानकारी से भरपूर पुस्तक है. इसमें भी  गैस त्रासदी का सजीव वर्णन किया गया है.  नगर का विकास, भोपाल की बोली, यहां की गंगा जमुनी तहजीब, खान पान और त्योहारों का ब्यौरा भी किताब में मिलता है.डॉo नुसरत बानो रूही की मूलतः उर्दू में लिखी गई किताब है “जंगे आज़ादी में भोपाल”. इसका हिन्दी तर्जुमा किया है शाहनवाज़ खान ने. किताब स्वराज संस्थान भोपाल से छपी है. 1930 से लेकर 1949 तक की समयावधि में जंगे आज़ादी में भोपाल के हिस्से के बारे में दुर्लभ और प्रामाणिक जानकारी प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी खान शाकिर अली खान ने दी है जिसे डा नुसरत बानो ने लिपिबद्ध किया है. ” भोपाल सहर.. बस सुबह तक”  सुधीर आज़ाद की फिक्शन बुक है. जिसमें उन्होने

एक हादसे की ज़मीन पर मार्मिक प्रेम कहानी बुनी है. भोपाल गैस त्रासदी लेखक की संवेदनाओं में कहीं गहरी उतरती हुई अनुभूत होती है और लेखक ने हर मुमकिन तरीक़े से इस पर काम किया है.

बिना शरद जोशी की पुस्तक “राग भोपाली” की  बात किये किताबों के पन्नो पर उकेरे गये भोपाल की तस्वीर अधूरी रह जायेगी. विशिष्ट व्यंग्यकार शरद जोशी ने बड़ा समय भोपाल में गुजारा है. लिहाजा भोपाल के विषय में समय समय पर लिखे गए उनके कई व्यंग्य लेख इस पुस्तक में समेटे गये हैं. भोपाल की पहाड़ियों पर लहराती गजल के दुष्यंत कुमार के शेर हैं ” सामान कुछ नहीं है फटे-हाल है मगर, झोले में उस के पास कोई संविधान है. फिस्ले जो उस जगह तो लुढ़कते चले गए, हम को पता नहीं था कि इतनी ढलान है “. बहरहाल भोपाल के बृहद अतीत पर और बहुत कुछ लिखा गया होगा, पर जो लिखा गया है उससे बहुत ज्यादा लिखा जाना चाहिये. क्योंकि भावी पीढ़ीयों के लिये किताबें ही होती हैं जिसे हम छोड़ जाते हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #9 ☆ कविता – “हां, हैं हम शायर…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 9 ☆

 ☆ कविता ☆ “हां, हैं हम शायर…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

हमारी मुहब्बत है शायरी

कागज को प्यार में भिगोते हैं शायर

कागज के पीछे तो छिपते हैं कायर ।

 

शायरी है वो प्यार हमारा

चाहे नाराज क्यों ना हो जमाना

है ऐसी मुहब्बत जिसे छिपाते नहीं हैं

खयाल छपवाने में  झिझकते नहीं हैं ।

 

एक मशाल है शायरी

या है एक दिया शायरी

किसी का दर्द है शायरी

किसी का एहसास है शायरी ।

 

इसे सिर्फ अल्फ़ाज़ ना समझना

कागज के आसमां में

सुलगता सूरज है शायरी

जलते हुए दिल में

महकता चांद है शायरी ।

 

अंधे इंसान की रोशनी है

गुफ़ा से बाहर का रास्ता है

पांव से तो चींटी भी चलती है

कलाम से तो उड़ना जन्नत तक है।

 

हाँ, हैं हम शायर

हमारी मुहब्बत है शायरी…

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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