हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 141 ☆ # प्रतिकार… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# प्रतिकार… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 141 ☆

☆ # प्रतिकार… #

तू मत कर अब क्रंदन

संयमित कर सांसों का स्पंदन

ना कर किसी को वंदन

तोड़ दे सारे बंधन

 

आंसुओं से सैलाब ला

धरती पर वेग से बहा

डुबो दे सारे जग को

तूने हर पल कितना है सहा

 

तूने देखा वो सपना नहीं है

सच्चाई है, कोरी कल्पना नहीं है

इस वहशी खूंखार भीड़ में

तेरा कोई अपना नहीं है

 

यह तेरे नंगें जिस्म की नुमाइश है

तेरी भी इसी कोख से पैदाइश है

कलंकित कर दिया है मानवता को

क्योंकि तू इस भीड़ की फरमाइश है

 

लोक लाज सबने त्याग दिए हैं 

सबने मिलकर मज़े लिए हैं 

एक बेबस, लाचार,निर्बल स्त्री के

भीड़ ने क्या क्या हाल किए हैं 

 

अब तू ,चल उठ,

बन जा दुर्गा और उठा हथियार

तीक्ष्ण कर दे उसकी धार

जब भी हो तेरी अस्मत पर वार

कर इन वहशियों के पुरुषार्थ पर वार 

 

यहां सदियों से ताकतवर का

कमजोर पर अत्याचार है

प्रशासन मौन ओर लाचार है

कब तक सहोगे जुल्म और अन्याय

इसका उपाय खुलकर बस प्रतिकार है  /

(यह रचना मणिपुर की घटना में पीड़ित स्त्री को समर्पित है)

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #203 ☆ व्यंग्य – एक इज़्ज़तदार आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक व्यंग्य ‘एक इज़्ज़तदार आदमी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 203 ☆
☆ व्यंग्य ☆ एक इज़्ज़तदार आदमी
अंग्रेजी भाषा कई लोगों का कल्याण करती है। अंग्रेजी भाषा की बदौलत ही धनीराम वर्मा मिस्टर डी.आर. वर्मा बन जाते हैं। डी.आर. धनीराम, देशराज, डल्लाराम, धृतराष्ट्र सबको बराबर कर देता है। हिन्दी ज़्यादा से ज़्यादा धनीराम वर्मा को ध.रा. वर्मा बना सकती है, लेकिन डी.आर. में जो रोब है वह भला ध.रा. में कहाँ?

धनीराम वर्मा मेरे ऑफिस में छोटा अधिकारी है। अपनी पोज़ीशन और पहनावे के बारे में वह बेहद सजग है। बिना टाई लगाये वह दफ्तर में पाँव नहीं रखता। गर्मी के दिनों में टाई उसके गले की फाँस बन जाती है, लेकिन वह टाई ज़रूर बाँधता है।

टाइयों के मामले में उसकी रुचि घटिया है। उसकी सारी टाइयाँ भद्दे आकार और रंग वाली, मामूली कपड़ों के टुकड़ों जैसी हैं, लेकिन वह मरी छिपकली की तरह उन्हें छाती पर बैठाये रहता है।

बात होने पर वह अपनी स्थिति समझाता है। कहता है, ‘भई, बात यह है कि मैं तो मामूली खानदान का हूँ, लेकिन मेरी वाइफ ऊँचे खानदान की है। चार साले हैं। तीन क्लास वन पोस्ट पर हैं, चौथा बड़ा बिज़नेसमैन है। मेरे फादर- इन-लॉ भी सिंडिकेट बैंक के मैनेजर से रिटायर हुए। आइ मीन हाई कनेक्शंस। इसीलिए मेरी वाइफ मेरे कपड़े-लत्तों के मामले में कांशस है।’

उसे अपने फादर-इन लॉ और ब्रदर्स-इन-लॉ के बारे में बताने में बहुत गर्व होता है। चेहरा गर्व से फूल जाता है। किसी से परिचय होने पर वह अपने फादर-इन-लॉ और ब्रदर्स-इन-लॉ का हवाला ज़रूर देता है। दफ्तर के लोग उसकी इस आदत से परिचित हैं, इसलिए जैसे ही वह अपनी ससुराल का पंचांग खोलता है, लोग दाहिने बायें छिटक जाते हैं।

लेकिन इस रुख का कोई असर वर्मा पर नहीं होता। कोई मकान देखने पर वह टिप्पणी करता है— ‘मेरे फादर-इन-लॉ के मकान का दरवाजा भी इसी डिज़ाइन का है।’ कोई कार देखकर कहता है— ‘मेरे बड़े ब्रदर-इन-लॉ ने भी अभी अभी नई इन्नोवा खरीदी है।’ बेचारा ससुराल के ‘परावर्तित गौरव’ में नहाता-धोता रहता है।

बेहतर खानदान वाली बीवी का शिकंजा उस पर ज़बरदस्त है। जब हम लोग आपस में बैठकर भद्र-अभद्र मज़ाक से जी हल्का करते हैं तब वह मुँह बनाये, फाइलों में नज़र गड़ाये रहता है। बाद में कहता है, ‘भई, बात यह है कि माइ वाइफ डज़ंट लाइक चीप जोक्स। वह बहुत कल्चर्ड खानदान की है। यू सी, शी इज़ वेल कनेक्टेड। उसके घर में कोई हल्के मज़ाक नहीं करता।’

दफ्तर में वह आन्दोलन, विरोध वगैरह में हिस्सा नहीं लेता। कहता है, ‘यह सब कल्चर्ड आदमी के लिए ठीक नहीं है।वी शुड बिहेव लाइक कल्चर्ड पीपुल। हम बात करें, लिख कर दें, लेकिन यह शोर मचाना, नारेबाज़ी करना मुझे पसन्द नहीं है। मेरी वाइफ भी इसको पसन्द नहीं करती। यू सी, शी बिलांग्स टु अ वेरी कल्चर्ड फेमिली।’
दफ्तर में लोग इस नक्कूपन पर उससे बहुत उलझते हैं, उससे बहस करते हैं, लेकिन उस पर कोई असर नहीं होता। वह अपनी टाई सँभालते हुए कहता है, ‘भई देखिए, दिस इज़ अ मैटर आफ प्रिंसिपिल्स। मैं अपने प्रिंसिपिल्स से हटकर कोई काम नहीं कर सकता।’

एक बार उसने हम तीन चार लोगों को अपने घर खाने पर बुलाया था। उसकी बीवी से साक्षात्कार हुआ। ऐसी ठंडी शालीनता और ऐसा रोबदार व्यवहार कि हम बगलें झाँकने लगे। लगा जैसे हम महारानी एलिज़ाबेथ की उपस्थिति में हों। उसके मुँह से एक एक शब्द ऐसे निकलता था जैसे हम पर कृपा-बिन्दु टपका रही हो।

वर्मा का ड्राइंग रूम अंग्रेजी फैशन से सजा था। नीचे गलीचा था। बीवी के साथ उसके दो फोटो थे। बाकी फादर-इन-लॉ और ब्रदर्स-इन-लॉ के थे। उसके खुद के बाप का कोई फोटो वहाँ नहीं था।

खाने का इन्तज़ाम भी बिलकुल अंग्रेजी नमूने का था। काँटा, छुरी,नेपकिन सब हाज़िर। हमसे ज्यादा आतंकित वर्मा था। हमारे हाथ से काँटा छूट कर प्लेट से टकराता तो वह आतंकित होकर बीवी की तरफ देखने लगता। हम ज़ोर से बोलते तो वह कान खड़े कर के भीतर की टोह लेने लगता। उस पर उसकी बीवी का भयंकर खौफ था। हम भी ऐसे सहमे थे कि खाना चबाते वक्त मुँह से आवाज़ निकल जाती तो हमारे मुँह की हरकत रुक जाती और हम वर्मा का मुँह देखने लगते। हमने ऐसे भोजन किया जैसे किसी की मौत की दावत खा रहे हों।

वर्मा का घर उसके लिए काफी था, लेकिन वह उसके ‘इन लॉज़’ के हिसाब से स्टैंडर्ड का नहीं था। इसलिए उसने पिछले साल मकान बनाने का निश्चय किया। दफ्तर से उसने ऋण लिया और मकान बनना शुरू हो गया।

हमने वर्मा को सलाह दी कि वह अपनी हैसियत के हिसाब से छोटा मकान बनाये, लेकिन उसे अपने ‘इन लॉज़’ की चिन्ता ज़्यादा थी। इसलिए वह बंगला बनाने की जुगत में लग गया। जल्दी ही नतीजा सामने आया। पैसे सब खत्म हो गये और मकान आधा भी न बना।

वर्मा की हालत खराब हो गयी। अब वह दफ्तर में सारा समय कागज़ पर कुछ गुणा-भाग लगाता रहता। बीच बीच में माथा, आँखें, नाक और गर्दन पोंछता रहता। मकान उसकी गर्दन पर सवार हो गया था। उसे दीन- दुनिया की कुछ खबर नहीं थी।

कई बार उसने मुझसे कहा, ‘यार, मकान में बहुत पैसा लग गया। वाइफ के सारे जे़वर गिरवी रखने पड़े। बाज़ार का भी काफी कर्ज़ चढ़ गया। क्या करें? मकान तो ज़िन्दगी में एक बार ही बनता है। नाते-रिश्तेदार महसूस तो करें कि मकान बनाया है।

अंत़तः मकान बन गया। एकदम शानदार। सिर्फ चारदीवारी और गेट नहीं बन पाया क्योंकि पैसे खत्म हो गये और अब कर्ज़ देने वाला कोई नहीं बचा। लेकिन फिर भी वर्मा खुश था क्योंकि अब वह अपने ‘इन लॉज़’ को बिना शर्मिंदा हुए बुला सकता था।

मकान पूरा होने के बाद उसके ‘इन लॉज़’ का आना शुरू हो गया। एक के बाद एक उसके तीन साले पधारे। जब भी आते, वर्मा किराये की एक कार का इन्तज़ाम करता, उन्हें संगमरमर की चट्टानें दिखाता, सिनेमा दिखाता। गाड़ी चौबीस घंटे सेवा में खड़ी रहती। खाने पीने की ढेर सारी चीजें आतीं। उस वक्त वर्मा दफ्तर से छुट्टी लेकर पूरा शाहंशाह बन जाता। बाद में मुझे बताता— ‘तीसरे ब्रदर-इन-लॉ आये थे। मकान देखकर हैरत में आ गये। मान गये कि हम भी कोई चीज़ हैं।’

लेकिन अब कुछ और भी बातें होने लगीं। अब दफ्तर में कुछ लोग उसे ढूंढते आने लगे। उन्हें देखकर उसका मुँह उतर जाता। वह जल्दी से उठ कर उन्हें कहीं अलग ले जाता। उनकी बातें तो सुनायी नहीं देती थीं, लेकिन उनके हाव-भाव देख कर पता चल जाता था कि क्या बातें हो रही हैं। उन आदमियों के चले जाने पर वर्मा देर तक बैठा पसीना पोंछता रहता।

ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती गयी। अंत में ऐसे लोग बड़े साहब के पास अपने ऋण का तकाज़ा लेकर पहुँचने लगे। बड़े साहब ने वर्मा को बुलाकर हिदायत दी कि अगर भविष्य में उसका कोई ऋणदाता दफ्तर में आया तो वर्मा के खिलाफ कार्रवाई होगी। वर्मा दो पाटों के बीच में फँस गया। सुना कि बहुत से लोग उसके नवनिर्मित महल के चक्कर लगाते थे और वह उनसे भागा फिरता था। उसकी अनुपस्थिति में ऋणदाताओं के सारे श्रद्धा-सुमन उसकी बीवी के हिस्से में आते थे। सुना कि अब उसका आभिजात्य कई डिग्री कम हो गया था।

एक रात वर्मा हड़बड़ाया हुआ मेरे घर में घुस आया। घुसते ही उसने पानी माँगा। बैठकर उसने पसीना पोंछा, बोला, ‘यह चौधरी भी एकदम गुंडा है। बाजार में तीन चार आदमियों के साथ मुझे घेर लिया। कहता था बीच बाजार में मेरे कपड़े उतारेगा। जस्ट सी हाउ अनकल्चर्ड। सिर्फ बीस हज़ार रुपयों के लिए मेरी बेइज्ज़ती करेगा। दिस मैन हैज़ नो मैनर्स। मैं किसी तरह स्कूटर स्टार्ट करके यहाँ भाग आया। घर नहीं गया। सोचा वे पीछा करते शायद घर पहुँच जाएँ।’

वह घंटे भर तक मेरे यहाँ बैठा रहा। उसके बाद उसने विदा ली। चलते वक्त बोला— ‘यार शर्मा, इन पैसे वालों ने तो ज़िन्दगी हैल बना दी। एकदम नरक। ज़िन्दगी का सारा मज़ा खत्म हो गया। साले एकदम खून चूसने वाले हैं।’

फिर कुछ याद करके बोला, ‘हाँ याद आया। इस संडे को मेरे चौथे ब्रदर-इन-लॉ आ रहे हैं। मेरे खयाल से वे भी मेरे ठाठ देख कर इंप्रेस्ड होंगे। व्हाट डू यू थिंक?’
फिर मेरी सहमति पाकर वह स्कूटर स्टार्ट करके कोई गीत गुनगुनाता हुआ चला गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 148 ☆ नवगीत – शब्दों की भी मर्यादा है  ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक नवगीत “सॉनेट – महर्षि महेश योगी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 148 ☆

☆ नवगीत – शब्दों की भी मर्यादा है ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा

क्यों उल्लास-ख़ुशी हुडदंगा?

शब्दों का मत दुरूपयोग कर.

शब्द चाहता यह वादा है

शब्दों की भी मर्यादा है

*

शब्द नाद है, शब्द ताल है.

गत-अब-आगत, यही काल है

पल-पल का हँस सदुपयोग कर  

उत्तम वह है जो सादा है

शब्दों की भी मर्यादा है

*

सुर, सरगम, धुन, लय, गति-यति है

समझ-साध सदबुद्धि-सुमति है

कर उपयोग न किन्तु भोग कर

बोझ अहं का नयों लादा है?

शब्दों की भी मर्यादा है

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१४-१२-२०१६, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 202 ☆ देह से हूँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 202 देह से हूँ ?

समय के प्रवाह के साथ एक प्रश्न मनुष्य के लिए यक्षप्रश्न बन चुका है। यह प्रश्न पूछता है कि जीवन कैसे जिएँ?

इस प्रश्न का अपना-अपना उत्तर पाने का प्रयास हरेक ने किया। जीवन सापेक्ष है, अत: किसी भी उत्तर को पूरी तरह खारिज़ नहीं किया जा सकता। तथापि एक सत्य यह भी है कि अधिकांश उत्तर भौतिकता तजने या उससे बचने का आह्वान करते दीख पड़ते हैं।

मंथन और विवेचन यहीं से आरम्भ होता है। स्मार्टफोन या कम्प्युटर के प्रोसेसर में बहुत सारे इनबिल्ट प्रोग्राम्स होते हैं। यह इनबिल्ट उस सिस्टम का प्राण है। विकृति, प्रकृति और संस्कृति मनुष्य में इसी तरह इनबिल्ट होती हैं। जीवन इनबिल्ट से दूर भागने के लिए नहीं, इनबिल्ट का उपयोग कर सार्थक जीने के लिए है।

मनुष्य पंचेंद्रियों का दास है। इस कथन का दूसरा आयाम है कि मनुष्य पंचेंद्रियों का स्वामी है। मनुष्य पंचतत्व से उपजा है, मनुष्य पंचेंद्रियों के माध्यम से जीवनरस ग्रहण करता है। भ्रमर और रसपान की शृंखला टूटेगी तो जगत का चक्र परिवर्तित हो जाएगा, संभव है कि खंडित हो जाए। कर्म से, श्रम से पलायन किसी प्रश्न का उत्तर नहीं होता। गृहस्थ आश्रम भी उत्तर पाने का एक तपोपथ है। साधु होना अपवाद है, असाधु रहना परम्परा। सब साधु होने लगे तो असाधु होना अपवाद हो जाएगा। तब अपवाद पूजा जाने लगेगा, जीवन उसके इर्द-गिर्द अपना स्थान बनाने लगेगा।

एक कथा सुनाता हूँ। नगरवासियों ने तय किया कि सभी वेश्याओं को नगर से निकाल बाहर किया जाए। निर्णय पर अमल हुआ। वरांगनाओं को जंगल में स्थित एक खंडहर में छोड़ दिया गया। कुछ वर्ष बाद नगर खंडहर हो गया जबकि खंडहर के इर्द-गिर्द नया नगर बस गया।

समाज किसी वर्गविशेष से नहीं बनता। हर वर्ग घटक है समाज का। हर वर्ग अनिवार्य है समाज के लिए। हर वर्ग के बीच संतुलन भी अनिवार्य है समाज के विकास के लिए। इसी भाँति संसार में देह धारण की है तो हर तरह की भौतिकता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, सब अंतर्भूत हैं। परिवार और अपने भविष्य के लिए भौतिक साधन जुटाना कर्म है और अनिवार्य कर्तव्य भी।

जुटाने के साथ देने की वृत्ति भी विकसित हो जाए तो भौतिकता भी परमार्थ का कारण और कारक बन सकती है। मनुष्य अपने ‘स्व’ के दायरे में मनुष्यता को ले आए तो स्वार्थ विस्तार पाकर परमार्थ हो जाता है।

इस तरह का कर्मनिष्ठ परमार्थ, जीवनरस को ग्रहण करता है। जगत के चक्र को हृष्ट-पुष्ट करता है। सृष्टि से सृष्टि को ग्रहण करता है, सृष्टि को सृष्टि ही लौटाता है। सांसारिक प्रपंचों का पारमार्थिक कर्तव्यनिर्वहन उसे प्रश्न के सबसे सटीक उत्तर के निकट ले आता है।

प्रपंच में परमार्थ, असार में सार, संसार में भवसार देख पाना उत्कर्ष है। देह इसका साधन है किंतु देह साध्य नहीं है। गर्भवती के लिए कहा जाता है कि वह उम्मीद से है। मनुष्य को अपने आप से निरंतर कहना चाहिए, ‘देह से हूँ पर देह मात्र नहीं हूँ। ‘ विदेह तो कोई बिरला ही हो सकेगा पर स्वयं को देह मात्र मानने को नकार देना, अस्तित्व के बोध का शंखनाद है। इस शंखनाद के कर्ता, कर्म और क्रिया तुम स्वयं हो।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 150 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 150 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 150) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 150 ?

☆☆☆☆☆

दर्द का आलम

कुछ ऐसा है कि

दर्द अब अपना सा

लगने लगा है..!

☆☆

Condition of the pain is

somewhat such that

The pain has started to

feel like very own..!

☆☆☆☆☆

सियासत में तो कभी अपनी परछाई

तक भी ऐतबार नहीं करना चाहिए

दिन में तो एक बार हमारी परछाई तक

साथ छोड़ दिया करती है..!

☆☆

In politics, one should never

trust even own shadow…

Once a day even our own

shadow also leaves us..!

☆☆☆☆☆

तकलीफें बाजार में नहीं

बिका करतीं यारों, अक्सर

बांटने वाला भी कोई अपना

बहुत नजदीकी ही होता है…

☆☆

Dear friends, problems are

not sold in the market,

Often the person giving them

happens to be someone close

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #200 – 86 – “हम पर गुज़री वो फुरक़त न हो कभी …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “हम पर गुज़री वो फुरक़त न हो कभी…”)

? ग़ज़ल # 86 – “हम पर गुज़री वो फुरक़त न हो कभी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

सब मिलता नहीं कुछ तो कमी रहे,

तुम्हारी चाहत है वह न आदमी रहे।

उसके चेहरे पर खिले मुस्कान हमेशा,

आँखों की कोर में थोड़ी सी नमी रहे।

वो बनाव सिंगार से भी खूब सजे रहें,

दिल में जिंदा  मगर एक सादगी रहे।

हम पर गुज़री वो फुरक़त न हो कभी,

मालिक मुसीबत कोई न ऐसी बदी रहे।  

कभी ख्वाहिश शायद ऐसी हो ‘आतिश’,

ग़म न रहे ग़म ख़ुशी भी ख़ुशी ना रहे।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 77 ☆ गजल ☆ ।। खुद का चेहरा भी देखना जरूरी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ गजल ☆ ।। खुद का चेहरा भी देखना जरूरी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

आईना पहले देखो फिर दिखाया करो।

झूठ को हमेशा   झूठ ही  बताया करो।।

[2]

खुद का   चेहरा भी   देखना  जरूरी है।

तब कोई इल्जाम किसी पे लगाया करो।।

[3]

उपर वाले की वह  लाठी  दिखती नहीं है।

हमेशा यह सोचके किसीको सताया करो।।

[4]

जो काम हाथ में लो पूरा करना है जरूरी।

यह समझ कर ही जिम्मेदारी उठाया करो।।

[5]

हर  आदमी का मोल और कीमत समझो।

यूं ही   किसी गरीब को  मत नचाया करो।।

[6]

गलत तरीके से मत करो बचाव किसी का।

सामने सच के झूठ को  मत बचाया करो।।

[7]

हंस फूस में चिंगारी तरह सचआता बाहर।

सात पर्दों में यूं सच   को मत छुपाया करो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 142 ☆ बाल गीतिका से – “माँ, मुझको शाला जाने दो…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “माँ, मुझको शाला जाने दो…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “माँ, मुझको शाला जाने दो…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

माँ मुझको शाला जाने दो।

पढ़-लिखकर कुछ बन जाने दो ॥

घंटी मुझको बुला रही है।

याद साथियों की आ रही है

मुझे वहाँ अच्छा लगता है।

मन में एक सपना जगता हैं ॥

पढ़ते-लिखते गाते गाना।

खेल-खेल मिल खाते खाना॥ 

दीदी मुझे प्यार करती है।

सबकी देखभाल करती है ॥

नई कहानी कह रोजाना।

सिखलाती हैं चित्र बनाना ॥

फूल भरी सुन्दर फुलवारी ।

आँखों को लगती है प्यारी

सजा साफ सुथरा आहाता ।

सदा मेरे मन को है भाता ॥

तस्वीरों से सजी दिवालें ।

कहती सब संसार सजा लें॥ 

सारा वातावरण सुहाना ।

वहाँ ज्ञान का भरा खजाना॥ 

मैं पढ़-लिख होशियार बनूँगा ।

अनुभव ले सरदार बनूँगा ।

भारत माँ को सुखी बनाने ॥

घर-घर तक खुशियाँ पहुँचाने ॥

मेहनत सोच विचार करूँगा।

जग में सबसे प्यार करूँगा ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 163 – बाळ गीत – इंजिन दादा  इंजिन दादा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 163 – बाळ गीत – इंजिन दादा  इंजिन दादा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

इंजि न दादा इंजिन दादा

थांब  थांब थांब।

सोडू नको धूर असा लांब लांब लांब।।धृ।।

 

कोळसा खाऊन पाणी पिऊन केली फार मजा।

इजिनाचा धूर झाला आमच्या साठी सजा

निरामय आरोग्याला ठेवू नको लांब

इंजिन दादा ….।।१।।

 

देऊन रोज कोळसा ती खाण झाली रिती।

इंधन साठा पुरेल का वाटे आम्हां  भिती।

करून सवरून बनू नको आता भोळा सांब।

इंजिन दादा ….।।२।।

 

तेच निशाण तीच शिट्टी वाजू दे रे छान।

आधुनिक इंधने वाढवतील रे शान।

काळासोबत धावूनिया जावू लांब लांब

इंजिन दादा ….।।३।

 

कर नारे बदल थोडा, युग आले नवे

झुक झुक गाडीतून फिरायला हवे

गेले झेंडे आणि कंदील आले नवे खांब

इंजिन दादा ….।।४।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #193 ☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 193 ☆

 वाणी माधुर्य व मर्यादा 

‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’ कबीरदास जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है, निराकार है; उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार उत्पन्न कर सकते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर एक-दूसरे का दुश्मन भी बना सकते हैं।

सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे, कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं, अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल, फिर बोल’ की सीख दिन गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते, तो आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित, असंयमित व अशोभनीय भाषा का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते, क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल, अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।

‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/ औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाए’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, क्योंकि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है, तो वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है, उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना, काम नहीं आसान/ जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी कभी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं, क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है, तो वह सम्मान का कारक बनती है, अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं, तो विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए, ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें।

जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या, बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव, छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी, बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है, जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण, फ़िरौती, दुष्कर्म, हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं। लॉकडाउन में पुरुष मानसिकता के अनुरूप घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना, पत्नी का घर के कामों में हाथ बंटाना, परिवाजनों से मान-मनुहार करना उसे रास नहीं आया, जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा, ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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