English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 149 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 149 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 149) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 149 ?

☆☆☆☆☆

Obsession… ☆

☆☆

वही जिद वही हसरत,

न दर्दे दिल की कमी हुई…

अजीब है मुहब्बत हमारी

न मिल सके न खत्म हुई…!

☆☆

Same madness, same desire

No lessening of pain in heart…

Strange is our love, neither could

we meet, nor did our love finish…!

☆☆☆☆☆

 ☆ Attitude… ☆

☆☆

हमने तो फ़क़त आईना

ही दिखाया था उन्हें…

वो तो हमें सख़्त तेवर

ही दिखने लगे…!

☆☆

I had just shown

them the mirror…

They started showing

me their attitude…!

☆☆☆☆☆

 ☆ Someone… ☆

☆☆

न थाम सके हाथ

न पकड़ सके दमन,

बड़े क़रीब से उठकर

यूंही चला गया कोई…

☆☆

Couldn’t just clasp the hands

couldn’t even gras the stole

Someone just got up from

so close and went away…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 147 ☆ सॉनेट – महर्षि महेश योगी ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना  “सॉनेट – महर्षि महेश योगी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 147 ☆

सॉनेट – महर्षि महेश योगी ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

गुरु-पद-रज, आशीष था।

मार्ग आप अपना गढ़ा।

ध्यान मार्ग पर पग बढ़ा।।

योग हुआ पाथेय था।।

महिमा थी ओंकार की।

ब्रह्मानंद सुयश भजा।

फहराई जग में ध्वजा।।

बना विश्व सरकार दी।।

सपने थे अनगिन बुने।

वेद-ज्ञान हर जन गुने।

जतन निरंतर अनसुने।

पश्चिम नत हो सिर धुने।।

योगमार्ग अपना चुने।।

त्याग भोग के झुनझुने।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९-२-२०१५, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – निरागस शैशव… – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– निरागस शैशव… – ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

निरागस शैशव 

जबाबदारीचे ओझे

खळाळणारे हास्य 

कसे मुखी यायचे ! .. 

शैशवाचे दारच

बंद तिच्या पाठी

मौनात डोळे

बोले काय बोली !.. 

अक्वा बिसलरी

काय असत बाई?

माहिती करून

घ्यायचीही नाही ! .. 

घरासाठी हवंय

हंडाभर  पाणी

सहज मिळेल का ?

सांगता का कोणी ! .. 

जगाच्या  शाळेत 

आम्ही शिकत जातो

आसुसल्या नजरेने

नुसती शाळा पहातो !  .. 

पाटी पेन्सिल वही

स्पर्शास्तव हात

आसुसलेले असतात …. 

.. आणि तसेच आसुसलेले रहातात …… 

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

मो 8149144177

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #199 – 85 – “अगर कोई पूछे बता दो …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “अगर  कोई  पूछे बता दो  …”)

? ग़ज़ल # 85 – “अगर कोई पूछे बता दो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

इश्क़  इस  तरह से  जताना तुम्हारा,

सियासी  लगे  दिल  लगाना तुम्हारा।

अगर  कोई  पूछे बता दो  ये  उनको,

मेरा दिल नहीं  अब  ठिकाना तुम्हारा।

तुम  छुपाते  रहो  अपने गुनाहों  को,

इतिहास  कहेगा   फ़साना   तुम्हारा।

सुनेगा   भला  कौन  मेरी   यहाँ  पर,

है  अदालत  तेरी  ओ  थाना  तुम्हारा।

तुम्हारी  खुदाई  का   इतना  असर है,

‘आतिश’ हो गया  है  दिवाना  तुम्हारा।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 77 ☆ मुक्तक ☆ ।। जाने किस की दुआ कब ज़िंदगी के काम आ जाए ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक ☆ ।। जाने किस की दुआ कब ज़िंदगी के काम आ जाए ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

बाद जिंदगी   के भी  आदमी  जिंदा रहता  है।

वही ही याद रहता   जो बात भले की कहता है।।

धन ऐश्वर्य अभिमान सब धरा पर धरा रह जायगा।

वही इंसान कहलाता किसी   लिए दर्द सहता है।।

[2]

जियो जीने दो का ही सिद्धान्त सबसे अच्छा है।

मधुर मुख     वाणी वेदांत   ही सबसे अच्छा है।।

वसुधैव कुटुंबकम् के अनुपालन में ही सृष्टि रक्षा।

सबका मान सम्मान  चित शांत सबसे अच्छा है।।

[3]

बुलबुले सा जीवन   कि   पल का   पता नहीं है।

मतकर कोई अभिमान कि कल का पता नहीं है।।

अहम क्रोध घृणा करते पहले स्वयं का ही पतन।

अभिमान में प्रभु की लाठी का लगता पता नहीं है।।

[4]

ना जाने जीवन की कब  आखिरी शाम आ जाये।

अंतिम बुलावा और जाने का वह पैगाम आ जाये।।

सबसे बनाकर रखो बस दिल की  नेक नियत से।

जाने किसकी दुआ कब जिंदगी के काम आ जाये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 141 ☆ कविता – “गायत्री मंत्र …” हिन्दी छंद बद्ध भावानुवाद ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित   “गायत्री मंत्र…” का हिन्दी छंद बद्ध भावानुवाद । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ कविता – “गायत्री मंत्र …” हिन्दी छंद बद्ध भावानुवाद ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं।

भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात्॥

☆ हिन्दी छंद बद्ध भावानुवाद गायत्री मंत्र ☆

जो जगत को प्रभा और ऐश्वर्य देता है दान

जो है आलोकित परम और ज्ञान से भासमान ॥

शुद्ध है विज्ञानमय है, सबका उत्प्रेरक है जो

सब सुखो का प्रदाता, अज्ञान उन्मूलक है जो ॥

उसकी पावन भक्ति को हम, हृदय में धारण करें

प्रेम से उसके गुणो का, रात दिन गायन करें ॥

उसका ही लें हम सहारा, उससे ये विनती करें

प्रेरणा सत्कर्म करने की, सदा वे दें हमें ॥

बुद्धि होवे तीव्र, मन की मूढ़ता सब दूर हो

ज्ञान के आलोक से जीवन सदा भरपूर हो ॥ 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 162 – बंध आयुष्याचे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 162 – बंध आयुष्याचे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

प्रेम धाग्यांनी विणले

धागेदोरे भावनांचे।

जीवापाड जपले मी

बंध माझ्या आयुष्याचे।

 

आई बाबा, ताई दादा

मऊ तलम ती माया

जीवनाच्या वणव्यात

माय पित्याची ती छाया।

 

गोड कवडसा जणू

मित्र मैत्रीणीचा संग।

दावी प्रतिबिंब खरे

भरी जीवनात रंग।

 

गुरुदेव माऊलीने

वास्तवाचे दिले भान।

ज्ञानामृत पाजूनिया

दिले सर्वस्वाचे दान।

 

कच्चा घागा तो प्रेमाचा

नकळत जुळायचा।

शब्दाविन भाव सारा

नयनात कळायचा।

 

गोड रुसवे फुगवे

इथे भांडणंही गोड।

दोन जीवांना बांधती

कच्चे घागे हे अजोड।

 

साद चिमण्या पिल्लांची

बालपण खुणावते।

तपश्चर्या मायबाची

प्रकर्षाने जाणवते।

 

 

सैल होता घागेदोरे

रितेपण हाता येई।

विसरलो परमेश्वरा

चरणाशी ठाव देई।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #192 ☆ ज़िंदगी…लम्हों की किताब ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी…लम्हों की किताब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 192 ☆

  ज़िंदगी…लम्हों की किताब 

‘लम्हों की किताब है ज़िंदगी/ सांसों व ख्यालों का हिसाब है ज़िंदगी/ कुछ ज़रूरतें पूरी, कुछ ख्वाहिशें अधूरी/ बस इन्हीं सवालों का/ जवाब है जिंदगी।’ प्रश्न उठता है–ज़िंदगी क्या है? ज़िंदगी एक सवाल है; लम्हों की किताब है; सांसों व ख्यालों का हिसाब है; कुछ अधूरी व कुछ पूरी ख्वाहिशों का सवाल है। सच ही तो है, स्वयं को पढ़ना सबसे अधिक कठिन कार्य है। जब हम ख़ुद के बारे में नहीं जानते; अनजान हैं ख़ुद से… फिर ज़िंदगी को समझना कैसे संभव है? ‘जिंदगी लम्हों की सौग़ात है/ अनबूझ पहेली है/ किसी को बहुत लगती लम्बी/ किसी को लगती सहेली है।’ ज़िंदगी सांसों का एक सिलसिला है। जब कुछ ख्वाहिशें पूरी हो जाती हैं, तो इंसान प्रसन्न हो जाता है; फूला नहीं समाता है– मानो उसकी ज़िंदगी में चिर-बसंत का आगमन हो जाता है और जो ख्वाहिशें अधूरी रह जाती हैं; टीस बन जाती हैं; नासूर बन हर पल सालती हैं, तो ज़िंदगी अज़ाब बन जाती है। इस स्थिति के लिए दोषी कौन? शायद! हम…क्योंकि ख्वाहिशें हम ही मन में पालते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। एक के बाद दूसरी प्रकट हो जाती है और ये चाहतें हमें चैन से नहीं बैठने देतीं। अक्सर हमारी जीवन-नौका भंवर में इस क़दर फंस जाती है कि हम चाह कर भी उस चक्रवात से बाहर नहीं निकल पाते। परंतु इसके लिए दोषी हम स्वयं हैं, परंंतु उस ओर हमारी दृष्टि जाती ही नहीं और न ही हम यह जानते हैं कि हम कौन हैं? कहाँ से आए हैं और इस संसार में आने का हमारा प्रयोजन क्या है? संसार व समस्त प्राणी-जगत् नश्वर है और माया के कारण सत्य भासता है। यह सब जानते हुए भी हम आजीवन इस मायाजाल से मुक्त नहीं हो पाते।

सो! आइए, खुद को पढ़ें और ज़िंदगी के मक़सद को जानें; अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखें और बेवजह ख्वाहिशों को मन में विकसित न होने दे। ख्वाहिशों अथवा आकांक्षाओं को ज़रूरतों-आवश्यकताओं तक सीमित कर दें, क्योंकि आवश्यकताओं की पूर्ति तो सहज रूप में संभव है; इच्छाओं की नहीं, क्योंकि वे तो सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं और उनका अंत कभी नहीं होता। जिस दिन हम इच्छा व आवश्यकता के गणित को समझ जाएंगे; ज़िंदगी आसान हो जाएगी। आवश्यकता के बिना तो ज़िंदगी की कल्पना ही बेमानी है, असंभव है। परमात्मा ने प्रचुर मात्रा में पृथ्वी, वायु, जल आदि प्राकृतिक संसाधन जुटाए हैं… भले ही मानव के बढ़ते लालच के कारण हम उनका मूल्य चुकाने को विवश हैं। सो! इसमें दोष हमारी बढ़ती इच्छाओं का है। इसलिए इच्छाओं पर अंकुश लगाकर उन्हें सीमित कर तनाव-रहित जीवन जीना श्रेयस्कर है।

ख्वाहिशें कभी पूरी नहीं होती और कई बार हम पहले ही घुटने टेक कर पराजय स्वीकार लेते हैं; उन्हें पूरा करने के निमित्त जी-जान से प्रयत्न भी नहीं करते और स्वयं को झोंक देते हैं– चिंता, तनाव, निराशा व अवसाद के गहन सागर में; जिसके चंगुल से बच निकलना असंभव होता है। वास्तव में ज़िंदगी साँसों का सिलसिला है। वैसे भी ‘जब तक साँस, तब तक आस’ रहती है और जिस दिन साँस थम जाती है, धरा का, सब धरा पर, धरा ही रह जाता है। मानव शरीर पंच-तत्वों से निर्मित है…सो! मानव अंत में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश में विलीन हो जाता है।

‘आदमी की औक़ात/ बस! एक मुट्ठी भर राख’ यही है जीवन का शाश्वत सत्य। मृत्यु निश्चित व अवश्यंभावी है; भले ही समय व स्थान निर्धारित नहीं है। इंसान इस जहान में खाली हाथ आया था और उसे सब कुछ यहीं छोड़, खाली हाथ लौट जाना है। परंतु फिर भी वह आखिरी सांस तक इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और अपनों की चिंता में लिप्त रहता है। वह अपने आत्मजों व प्रियजनों के लिए आजीवन उचित-अनुचित कार्यों को अंजाम देता है…उनकी खुशी के लिए; जबकि पापों का फल उसे अकेले ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि ‘सुख के सब साथी, दु:ख में न कोय’ अर्थात् सुख-सुविधाओं का आनंद तो सभी लेते हैं, परंतु वे पाप के प्रतिभागी नहीं होते। आइए! हम इससे निज़ात पाने की चेष्टा करें और हर पल को अंतिम पल स्वीकार कर निष्काम कर्म करें। कबीरदास जी का यह दोहा समय की सार्थकता पर प्रकाश डालता है–’ काल करे सो आज कर, आज करे सो अब/ पल में प्रलय हो जाएगी, बहुरि करेगा कब?’ जी हां! कल अर्थात् भविष्य अनिश्चित है; केवल वर्तमान ही सत्य है। इसलिए जो भी करना है; आज ही नहीं, अभी करना बेहतर है। क़ुदरत ने तो हमें आनंद ही आनंद दिया है, दु:ख तो हमारी स्वयं की खोज है। इससे तात्पर्य है कि प्रकृति दयालु है; मां की भांति मानव की हर आवश्यकता की पूर्ति करती है। परंतु मानव स्वार्थी है; उसका अनावश्यक दोहन करता है; जिसके कारण अपेक्षित संतुलन व सामाजिक-व्यवस्था बिगड़ जाती है तथा उसके कार्य-व्यवहार में अनावश्यक हस्तक्षेप करने का परिणाम है सुनामी, अत्यधिक वर्षा, दुर्भिक्ष, अकाल, महामारी आदि…जिनका सामना आज पूरा विश्व कर रहा है। मुझे स्मरण हो रहा हो रहा है… भगवान महावीर द्वारा निर्दिष्ट–’जियो और जीने दो’ का सिद्धांत, जो अधिकार को त्याग कर्त्तव्य-पालन व संचय की प्रवृत्ति को त्यागने का संदेश देता है। सृष्टि का नियम है कि ‘एक साँस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है।’ सो! जीवन में ज़रूरतों की पूर्ति करो; व्यर्थ की ख्वाहिशें मत पनपने दो, क्योंकि वे कभी पूरी नहीं होतीं और उनके जंजाल में फंसा मानव कभी भी मुक्त नहीं हो पाता। इसलिए सदैव अपनी चादर देख कर पांव पसारने अर्थात् संतोष से जीने की सीख दी गयी है… यही अनमोल धन है अर्थात् जो मिला है, उसी में संतोष कीजिए, क्योंकि परमात्मा वही देता है, जो हमारे लिए आवश्यक व शुभ होता है। सो! ‘सपने देखिए! मगर खुली आंख से’… और उन्हें साकार करने की भरपूर चेष्टा कीजिए; परंतु अपनी सीमाओं में रहते हुए, ताकि उससे दूसरों के अधिकारों का हनन न हो।

संसार अद्भुत स्थान है। आप दूसरे के दिल में, विचारों में, दुआओं में रहिए। परंतु यह तभी संभव है, जब आप किसी के लिए अच्छा करते हैं; उसका मंगल चाहते हैं; उसके प्रति मनोमालिन्य का दूषित भाव नहीं रखते। सो! ‘सब हमारे, हम सभी के’ –इस सिद्धांत को जीवन में अपना लीजिए… यही आत्मोन्नति का सोपान है। ‘कर भला, हो भला’ तथा ‘सबका मंगल होय’ अर्थात् इस संसार में हम जैसा करते हैं; वही लौटकर हमारे पास आता है। इसीलिए कहा गया है कि ‘रूठे हुए को हंसाना; असहाय की सहायता करना; सुपात्र को दान देना’ आदि सब प्रतिदान रूप में लौट कर आता है। वक्त सदा एक-सा नहीं रहता। ‘कौन जाने, किस घड़ी, वक्त का बदले मिज़ाज’ तथा ‘कल चमन था, आज एक सह़रा हुआ/ देखते ही देखते यह क्या हुआ’– यह हक़ीक़त है। पल-भर में रंक राजा व राजा रंक बन सकता है। क़ुदरत के खेल अजब हैं; न्यारे हैं; विचित्र हैं। सुनामी के सम्मुख बड़ी-बड़ी इमारतें ढह जाती हैं और वह सब बहाकर ले जाता है। उसी प्रकार घर में आग लगने पर कुछ भी शेष नहीं बचता। कोरोना जैसी महामारी का उदाहरण आप सबके समक्ष है। आप घर की चारदीवारी में क़ैद हैं… आपके पास धन-दौलत है; आप उसे खर्च नहीं कर सकते; अपनों की खोज-खबर नहीं ले सकते। कोरोना से पीड़ित व्यक्ति राजकीय संपत्ति बन जाता है। यदि बच गया, तो लौट आएगा, अन्यथा उसका दाह-संस्कार भी सरकार द्वारा किया जाएगा। हां! आपको सूचना अवश्य दे दी जाएगी।

लॉकडाउन में सब बंद है। जीवन थम-सा गया है। सब कुछ मालिक के हाथ है; उसकी रज़ा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल पाता…फिर यह भागदौड़ क्यों? अधिकाधिक धन कमाने के लिए अपनों से छल क्यों? दूसरों की भावनाओं को रौंद कर महल बनाने की इच्छा क्यों? सो! सदा प्रसन्न रहिए। ‘कुछ परेशानियों को हंस कर टाल दो, कुछ को वक्त पर टाल दो।’ समय सबसे बलवान् है; सबसे बड़ी शक्ति है; सबसे बड़ी नियामत है। जो ठीक अर्थात् आपके लिए उपयुक्त व कारग़र होगा, आपको अवश्य मिल जाएगा। चिंता मत करो। जिसे तुम अपना कहते हो; तुम्हें यहीं से मिला है और तुम्हें यहीं पर सब छोड़ कर जाना है। फिर चिंता और शोक क्यों?

रोते हुए को हंसाना सबसे बड़ी इबादत है; पूजा है; भक्ति है; जिससे प्रभु प्रसन्न होते हैं। सो! मुट्ठी खुली रखना सीखें, क्योंकि तुम्हें इस संसार से खाली हाथ लौटना है। अपने हाथों से गरीबों की मदद करें; उनके सुख में अपना सुख स्वीकारें, क्योंकि ‘क़द बढ़ा नहीं करते, एड़ियां उठाने से/ ऊंचाइयां तो मिलती है, सर को झुकाने से।’ विनम्रता मानव का सबसे बड़ा गुण है। इससे बाह्य धन-संपदा ही नहीं मिलती; आंतरिक सुख, शांति व आत्म-संतोष भी प्राप्त होता है और मानव की दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: अंत हो जाता है। वह संसार उसे अपना व खुशहाल नज़र आता है। सो! ज़िंदगी उसे दु:खालय नहीं भासती; उत्सव प्रतीत होती है, जिसमें रंजोग़म का स्थान नहीं; खुशियाँ ही खुशियाँ हैं; जो देने से, बाँटने से विद्या रूपी दान की भांति बढ़ती चली जाती हैं। इसलिए कहा जाता है–’जिसे इस जहान में आंसुओं को पीना आ गया/ समझो! उसे जीना आ गया।’ सो! जो मिला है, उसे प्रभु-कृपा समझ कर प्रसन्नता से स्वीकार करें, और  ग़िला-शिक़वा कभी मत करें। कल अर्थात् भविष्य अनिश्चित है; कभी आएगा नहीं…उसकी चिंता में वर्तमान को नष्ट मत करें… यही ज़िंदगी है और यही  है लम्हों की सौग़ात।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #191 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 191 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

निज साँसों में बस रहा, तेरा मेरा गीत।

पा लूँ तुझको मैं तभी, जीवन है संगीत।।

नेह की तरंग मन में , लेती रोज उछाल।

दिल से पूछो हमारा, यही बुरा है हाल।।

रिमझिम रिमझिम बरसता, बरसे बादल आज।

लगे न मन मेरा सजन, करने को कोई काज।।

नैन विरह में बरस रहे, हृदय करे चित्कार।

सूना आंगन सजन बिन, सावन करे पुकार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #177 ☆ एक बुंदेली पूर्णिका – “जोन खों समझो हमने अपनों…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक बुंदेली पूर्णिका – “जोन खों समझो हमने अपनों…. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 177 ☆

 ☆ एक बुंदेली पूर्णिका – “जोन खों समझो हमने अपनों…☆ श्री संतोष नेमा ☆

तुमने   झूठी       दई    दुहाई

लुटिआ  प्रेम की  खूब  डुबाई

तुम   कांटों की  बात करो मत

चोट   फूल    की  हमने  खाई 

धोखा   बहुतई  खा  लये हमने

देब   तुमहि   ने   कोई    बुराई

जोन  खों समझो  हमने अपनों

हो    गई    देखो   वोई    पराई

खूब   करो   विस्वास  सबई  पै

दुनियादारी   समझ    ने    पाई

झूठ-कपट   को   ओढ़   लबादा

तुमने     ऐसी     नीत     निभाई

भोलो  सो   “संतोष”   तुम्हे   जा

बात   समझ   में   देर   सें   आई

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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