हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 168 ☆ गीत – माँ ठंडी पुरवइया रे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 168 ☆

☆ गीत – माँ ठंडी पुरवइया रे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

माँ धरती की चूनर धानी

माँ ही छाँव छवइया रे।

 

कल्पतरू – सी माँ रे भइया

माँ ठंडी पुरवइया रे।।

 

नौ माहों तक पीर सह गई

अपने बच्चे की खातिर।

धूप – ताप में शिकन न लाई

भूख प्यास भी भूली फिर।।

 

माँ है सोना , माँ ही चाँदी

माँ ही भूल – भुलइया रे।।

 

चक्की पर वह बेझर पीसे

कभी पीसती मकई को।

चकला पीसे दाल बनाए

कभी कूटती धनई को ।।

 

माँ श्रम देवी, माँ ही पूजा

माँ बचपन की गइया रे।।

 

चौका चूल्हा काम निरे थे

कभी कपास बिनोला रे।

 

रोटी सेंकी हाथ जलाए

उफ भी कभी न बोला रे।।

 

माँ ही काशी, माँ ही मथुरा

माँ ही पार लगइया रे।।

 

देर से सोना जल्दी जगना

माँ की थी सृष्टि ऐसी।

बिन सालन के खुद रह जाए

माँ की दृष्टि रही वैसी।।

 

माँ ममता की मूरत भइया

माँ ही नाव खिवइया रे।।

 

माँ का आँचल कभी न भीगे

माँ की सेवा से तर लें।

माँ ही गीता, वेद , उपनिषद

प्रेम का सागर खुद भर लें।।

 

माँ ने जैसे हमको पाला

वैसे गवें बधइया रे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #6 ☆ कविता – “शहर…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #6 ☆

 ☆ कविता ☆ “शहर…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

मेरा शहर रूठा नहीं

भीतर से मेरे मिटा नहीं

चाहें रहूं मैं कहीं

जल उसका सूखा नहीं

 

वो गलियां वो गालियां

वो कलियां वो रलियां

यहां नहीं दिखाई देती

वो ममता भरी जिंदगियां

 

वो भी थोडी ही वैसा ही है

वोह भी तो अकेला ही है

अब ना इधर जान के मायने है

ना उधर पहचान की जरूरत है

 

शाम को मै आंसू बहाता हूं

वो अब बस शराब बहाता है

गुज़रे हुए जमाने की

बस यादें जलाता है

 

अब वहां लोग तो बहुत हैं 

इंसान तो पहले से कम हैं

जैसे यहां जमीन तो बहुत है

मगर पानी पहले से कम है….

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #144 – बाल कहानी – “स्वच्छता के महत्व” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल कहानी – “स्वच्छता के महत्व)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 144 ☆

 ☆  बाल कहानी – “स्वच्छता के महत्व” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

एक बार की बात है, लिली नाम की एक छोटी लड़की थी जिसे साफ-सुथरा रहना पसंद नहीं था। वह अक्सर नहाना छोड़ देती थी और दिन में केवल एक बार अपने दाँत ब्रश करती थी। उसकी माँ उसे हमेशा बाथरूम का उपयोग करने के बाद हाथ धोने के लिए याद दिलाती थी, लेकिन लिली आमतौर पर भूल जाती थी।

एक दिन, लिली पार्क में खेल रही थी जब वह गिर गई और उसके घुटने में खरोंच आ गई। वह बैंडेड लेने के लिए घर गई, लेकिन उसकी माँ ने देखा कि उसके हाथ गंदे थे।

“लिली,” उसकी माँ ने कहा, “तुम्हें अपने घुटने पर बैंडेड लगाने से पहले अपने हाथ धोने होंगे। रोगाणु कट में प्रवेश कर सकते हैं और इसे बदतर बना सकते हैं।”

“लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहती,” लिली ने रोते हुए कहा। “मेरे हाथ साफ़ हैं।”

“नहीं, वे नहीं हैं,” उसकी माँ ने कहा। “आप अपने नाखूनों के नीचे सारी गंदगी देख सकते हैं।”

लिली अनिच्छा से बाथरूम में गई और अपने हाथ धोए। जब वह वापस आई तो उसकी मां ने उसके घुटने पर पट्टी बांध दी।

“देखो,” उसकी माँ ने कहा। “वह इतना बुरा नहीं था, है ना?”

“नहीं,” लिली ने स्वीकार किया। “लेकिन मुझे अभी भी हाथ धोना पसंद नहीं है।”

“मुझे पता है,” उसकी माँ ने कहा। “लेकिन साफ़ रहना ज़रूरी है। रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं, और आप बीमार नहीं होना चाहते हैं, है ना?”

लिली ने सिर हिलाया. “नहीं,” उसने कहा। “मैं बीमार नहीं पड़ना चाहता।”

“तो फिर तुम्हें अपने हाथ धोने होंगे,” उसकी माँ ने कहा। “हर बार जब आप बाथरूम का उपयोग करते हैं, खाने से पहले और बाहर खेलने के बाद।”

लिली ने आह भरी। “ठीक है,” उसने कहा. “मेँ कोशिश करुंगा।”

और उसने किया. उस दिन से, लिली ने अपने हाथ अधिक बार धोने का प्रयास किया। यहां तक ​​कि वह दिन में दो बार अपने दांतों को ब्रश करना भी शुरू कर दिया। और क्या? वह बार-बार बीमार नहीं पड़ती थी।

एक दिन लिली अपनी सहेली के घर पर खेल रही थी तभी उसने अपनी सहेली के छोटे भाई को गंदे हाथों से कुकी खाते हुए देखा। लिली को याद आया कि कैसे उसकी माँ ने उससे कहा था कि रोगाणु तुम्हें बीमार कर सकते हैं, और वह जानती थी कि उसे कुछ करना होगा।

“अरे,” उसने अपनी सहेली के भाई से कहा। “आपको उस कुकी को खाने से पहले अपने हाथ धोने चाहिए।”

छोटे लड़के ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। “क्यों?” उसने पूछा।

“क्योंकि तुम्हारे हाथों पर कीटाणु हैं,” लिली ने कहा। “और रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं।”

छोटे लड़के की आँखें चौड़ी हो गईं। “वास्तव में?” उसने पूछा।

“हाँ,” लिली ने कहा। “तो जाओ अपने हाथ धो लो।”

छोटा लड़का बाथरूम में भाग गया और अपने हाथ धोये। जब वह वापस आया, तो उसने बिना किसी समस्या के अपनी कुकी खा ली।

लिली को ख़ुशी थी कि वह अपने दोस्त के भाई की मदद करने में सक्षम थी। वह जानती थी कि स्वच्छ रहना महत्वपूर्ण है, और वह खुश थी कि वह दूसरों को भी स्वच्छता के महत्व के बारे में सिखा सकती है।

=======

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंगबेरंगी  शब्दाविष्कार… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंगबेरंगी  शब्दाविष्कार… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

     रंगबेरंगी शब्दांनी

       कवणांची रंगावली

     हृदयाच्या या अंगणी

        कृष्णनाद केकावली.

     चंचल ऋतू चलन

         भक्तीप्रीय  शब्दांजली

     अक्षर जीवन रंग

           राधेसाद  कृष्णांजली.

     पर्णलेखणी मुरली

           भावचरणे अधीर

     लयताल  सुमधूर

            ज्ञानदर्शन  मंदिर.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #169 ☆ आसरा…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 169 ☆ आसरा…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

अभंग वृत्त

इवलासा जिव

फिरे गावोगाव

आस-याचा ठाव

घेत असे…!

 

पावसाच्या आधी

बांधायला हवे

घरकुल नवे

पिल्लांसाठी..!

 

पावसात हवे

घर टिकायला

नको वहायला

घरदार..!

 

चिमणीच्या मनी

दाटले काहूर

आसवांचा पूर

लोटलेला..!

 

पडक्या घराचा

शोधला आडोसा

घेतला कानोसा

पावसाचा….!

 

बांधले घरटे

निर्जन घरात

सुखाची सोबत

होत असे..!

 

घरट्यात आता

रोज किलबिल

सारे आलबेल

चाललेले..!

 

© श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #190 – कविता – आइने में स्वयं के… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “आइने में स्वयं के)

☆  तन्मय साहित्य  #190 ☆

☆ आइने में स्वयं के☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कर्म से है निकट का रिश्ता

नहीं हूँ जानता मैं भेद कि,

सत्कर्म और दुष्कर्म क्या

धर्म के अंदर छिपा

वह मर्म क्या

 

निर्विवादी वाद

पूँजी,धर्म जाति विवाद भाषा

इन सभी से दूर हट कर

जानता हूँ सिर्फ इतनी बात

शोषित पीड़ित दुखियों के

रहूँ मैं हर घड़ी में साथ

 

गंध पर

प्रतिबंध में नहीं चाहता

स्वच्छंद विचरे

किंतु थकित निराश बोझिल

छंद से अनुबंध कर ले

तो मधुर सूरसाज निकले

 

पाप क्या संताप क्या

है पुण्य जाप अलाप क्या

इष्ट और विशिष्ट

है नहीं लक्ष्य मेरा

बस जरा सी बात

केवल जानता हूँ

आईने में हृदय के

मैं स्वयं क्या आप क्या!

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 15 ☆ खींच कर लकीर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खींच कर लकीर।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 15 ☆ खींच कर लकीर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

पानी पर

खींचकर लकीर

भरते हैं सागर का दम।

 

अंगद का पाँव जमा

चाट लोकतंत्र

आँखों में धूल झोंक

भोग राजतंत्र

 

फिर बैठे

बन गए अमीर

लौलुपता नहीं हुई कम।

 

भावों के ऊसर में

शब्दों की फसल

छंद के लिफ़ाफ़े में

रख कोई ग़ज़ल

 

और कहें

स्वयं को कबीर

पाल रहे मीर का भरम।

 

तिनकों पर इतराएँ

डकराएँ खूब

अघा गए चर-चरकर

निर्धन की दूब

 

फैलाएँ

झूठ,बन फकीर

बेचें ईमान और धरम ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ देर से बज़्म में आते है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “देर से बज़्म में आते है…“)

✍ देर से बज़्म में आते है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जिनके दीदार को हम आँख लगा के बैठे

बाल वो छत पे सुखाने को नहा के बैठे

सामने बज़्म में आते ही फिरा ली आँखें

ये सितम देखिये वो ओट बना के  बैठे

देश के काम न आने से सही मर जाते

जो अपने प्राण घरों में हैं  बचा के बैठे

नाथने काश मिले इनको सपेरा कोई

नाग जो कुंडली सत्ता पे जमा के बैठे

किससे फरियाद करें कौन सुनेगा बतला

आज मुंसिफ ही सभी हक़ को दबा के बैठे

देर से बज़्म में आते है सदर शर्म नहीं

पहली सफ़ में जो भी बैठे थे उठा के बैठे

देख सोने के हिरन को वो चला है पीछे

जिनको शिद्दत से अरुण दिल में बसा के बैठे

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 74 – पानीपत… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 74 – पानीपत… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

नोस्टाल्जिया का अर्थ है अतीत के सुनहरे दौर में खो जाना और वर्तमान को उपेक्षित करते हुये उदासीनता का आवरण पहनना. ये सिंड्रोम नये परिवेश में घुलमिल जाने में अवरोधक बन जाता है और कार्यक्षमताओं में भी कमी आ जाती है. “मैं तो भूल चली बाबुल का देश (पिछली शाखा) पिया का घर (वर्तमान शाखा) प्यारा लगे”, जैसी भावना शनैः शनैः शनि की गति से आ पाती है. ये काल संक्रमण काल कहलाता है पर शाखाओं को टॉरगेट देने वाले ये धैर्य अफोर्ड नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें लक्ष्य देने वालों की काल गणना में भी ये संक्रमण काल नहीं पाया जाता.

जिस तरह विदेशी दौरों पर जाने वाली क्रिकेट टीमें अभ्यास मैच और वार्म अप मैंच खेलकर नये माहौल में सहज हो जाती हैं, वैसी सुविधाएं बैंक तो क्या किसी भी कार्यालय/संस्था में नहीं होती. स्थानांतरण की प्रक्रिया में तालमेल का अभाव, आने वाले से पहले ही जाने वाले को मुक्त कर देता है. यहाँ भी ऐसा ही हुआ, जाने वाले पहले ही जा चुके थे, आने वाले एकदम से दौड़ने की मन:स्थिति में नहीं आ पा रहे थे. क्रिकेट का 20-20 मैच भी ऐसा ही होता है, पहले ओवर में ही बाउंड्री या सिक्सर के प्रयास कभी बॉल को बाउंड्री पार भेजते हैं तो कभी बैटर, (पुराना नाम बेट्समैन) को पेवेलियन. शाखा के संचालन में नेतृत्व को, टेस्टमैच के बेट्समैन की तरह परफॉर्म करने के लिये अनुमत करना आदर्श स्थिति मानी जाती है, टाईमबाउंड असाइनमेंट और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में 20-20 मैच की संस्कृति हर संस्था की संस्कृति बन गई है.

आधुनिक युग की इस प्रतिस्पर्धा के दौर में आदर्श स्थिति की जगह मार्केट और विपणनकला ही नीतियों का निर्धारण करते हैं. खरगोश और कछुए की कहानी इस दौर में प्रभावी नहीं है. इस कारण भी जो मैन्युपुलेशन, विंडोड्रेसिंग और चमचागिरी में निपुण होते हैं, वो झूठे कमिटमेंट के जाल में अपने बॉस को मंत्रमुग्ध कर हरेक के लिये “राजा बेटा”का उदाहरण बन जाते हैं. ऐसे उदाहरण हर संस्था की कार्य संस्कृति में पाये जाते हैं.

ये श्रंखला भी क्लासिक टेस्टमैच की गति से ही चलती रहेगी ताकि क्लाइमेक्स की जगह खेल की कलात्मकता का आनंद लिया जा सके. धन्यवाद

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 190 ☆ गुरूवंदना… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 190 ?

☆ गुरूवंदना… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

माझी गुरूमाय कलावती गं माऊली

किती दुःखी कष्टी मन आई सुखाची  सावली!

लाभे निरंतर छाया,दूर पळे कासाविशी !

आई तुमच्या कृपेची होऊ उतराई कशी?

आई मायेचा सागर कधी आटतच नाही

माझी झोळी जडशीळ तरी फाटतच नाही!

 मूढ मी लेकरू अन आई अगाध अमोल

त्यांचे उपकार माझ्या आत हृदयात खोल!

भोळा भक्तिभाव माझा पायी तुमच्या अर्पण

व्हावा उभा जन्म माझा तुमच्या भक्तिचाच सण!!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares