मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #196 ☆ ‘सपान…’ ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 196 ?

सपान ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

कशी उडाली उडाली वाऱ्यासोबत ही माती

सोडताना विसरली आहे जुनी नातीगोती

कधी पाण्याच्या सोबत डोळा चुकवून जाते

सोसाट्याचा वारा येता पहा कशी उधळते

तिच्या जाण्याने ही दैना आणि दुय्यम गणती

सकदार माती होती आज तिचा कस गेला

आब नाही राहिलेली डागाळला फेटा शेला

काल शेतात वेचले होते जोंधळ्याचे मोती

काय पाहिलं मी होतं माझ्या शेताचं सपान

कसं सांगू कशी होती शेती माझी रूपवान

दृष्ट लागली मातीला गुंग झाली माझी मती

चक्रीवादळने नेली होती माती पळवून

झंझावात संपताच दिले रस्त्यात सोडून

कर्मयोग आहे का हा आहे सांगा कर्मगती ?

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – फणसाचे झाड… – ☆ श्री आशिष  बिवलकर / सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– फणसाचे झाड… – ? ☆ श्री आशिष  बिवलकर / सुश्री नीलांबरी शिर्के

१)

कितीही काटा छाटा,

जगण्याची हिम्मत नाही सुटली !

फळण्याच्या जिद्दीने,

फणसाला नवीन पालवी फुटली !

 

असला जरी काटेरी,

आतला गोडवा नाही सोडला !

कृतघ्नतेचे घाव साहून,

देण्याचाच  स्वभाव  जडला !

 

मधुर गरे दिले,

मधुर दिला सहवास !

घमघमाट फळाचा,

दरवळला गोड सुवास !

 

अचानक चालवावी,

क्रूरतेनने कसली कुठार !

घावावर घाव पडले,

ठेवला विश्वास केला ठार !

 

माणूस म्हणजे,

बेरकीच असतो !

स्वार्थापुढे कधीच,

कुणाचा तो नसतो !

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?– फणसाचे झाड… – ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

२) 

दानशूर  कर्ण आणि वृक्ष

यात फरक सांगा काय  ?

आयुष्यभर दान करूनही

फसवून  दान मागितल जाय !

 

कर्णानेही कवचकुंडलाचे दान

रक्तबंबाळ होत दिलं काढून

शौर्याने रणांगणी लढत गेला

करत राहिला प्रतिकार लढून |

 

वृक्षही लढतोय अजूनही

जरी छाटलेत हात  मान

मूळे धरतीत घट्ट अजून 

तया सतत असे भान |

 

बुंधा पहाता झाडाचा

आपण जरा डोळे उघडून 

दिसेल याची त्वचाही

नेलीये  क्रूरपणाने सोलून |

 

देणे धर्म सोडला नाही

बुंध्यावरही फुटवे येई

एवढा मोठा फणस त्याच्या

दातृत्वाची जाणिव देई |

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

मो 8149144177

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 146 – पर्यावरण पर दोहे… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके – पर्यावरण पर दोहे…।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 146 – पर्यावरण पर दोहे…  ✍

चिन्ता है परिवेश की, पर्यावरण विशेष ।

चिंतित सारा विश्व है, चिंतित अपना देश ॥

चिन्ता से क्या हुआ है, चिन्तन करें हुजूर

मानव कैसे हो गया, पंचतत्व से दूर ॥

क्षिति को रौंदा पाँव से, जल को किया मलीन ।

पावक को इतना पिया, हुआ रेत की मीन ॥

जंगल पर्वत नदी सब, ताक रहे आकाश ।

गगन पवन से पूछता, कितनी जीवन श्वांस ॥

सभी तरह के प्रदूषण, मूल एक आधार ।

मन से मन की विलगता, अनुपस्थित है प्यार ||

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 146 – “रोज यही दोहराती घडियाँ…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  रोज यही दोहराती घडियाँ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 146 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “रोज यही दोहराती घडियाँ…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

बेटा पंखा लगवाये

उपहार नहीं लेंगे

बाहर खटिया पर सोये

बाबा सब सहलेंगे

 

“संस्कार के नाम, त्याग

क्या किया पिताजी ने

मुश्किलात अब क्या हैं

उनको यह जीवन जीने”

 

कहकर बेटा तुरत फुरत

बाहर का रुख लेकर

निकल चुका होता कहता

हम क्या क्या कर लेंगे ?

 

उधर पूज्य माता जी

बैठीं चढ़ा चढ़ा पारा

अपनी बहू पवित्रा का

कर शापित भिनसारा

 

नाती की पसलियाँ पकड़

बैठीं सूखी खांसी

रोग इसी गर्मी में क्या

सब इंतकाम लेंगे

 

छोटीबहिन बागवाले

मंदिर के कोने से

टपर टपर बतियाती

किससे कई महीने से

 

बेटा सोच नहीं पाता

इस विकट परिस्थिति में

और पिता का कहना कि-

ऐसा , तो मर लेंगे

 

एक अनौखी कथा चला

करती है इस घरकी

रोज यही दोहराती घडियाँ

टिक-टिक दिनभर की

 

और चल रहा ढर्रा इनका

स्वाभिमान ढोते

हम यों लिख सकते यह

किस्सा बस क्या  करलेंगे?

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

18-06-2023 

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 196 ☆ धनिया जैसे संगी साथी ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक अति सुंदर व्यंग्य – “धनिया जैसे संगी साथी)

☆ व्यंग्य – धनिया जैसे संगी साथी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

हमारे साथ एक भैया जी काम करते थे सब लोग उन्हें ‘हरी  धनिया’ कहते थे, उन्हें  पता ही नहीं होता है कि शाखा में क्या चल रहा है।  हर काम को टालने की आदत,और जब काम सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता तो उनके अंदर श्रेय लेने की हड़बड़ी मच जाती। बाॅस के केबिन जाकर मक्खन लगाते हुए कहते इतनी आसानी से सब काम बढ़िया निपट गया। साथ वाले मंद मंद मुस्कुराते, और कहते ‘हरी धनिया’ में यही तो खासियत होती है कि सब्जी बन जाने के बाद उसे परोसने के समय डाला जाता है,और फिर सब्जी के सारे स्वाद का श्रेय उसे मिल जाता है। एक दिन बाॅस ने हमसे पूछ लिया कि तुम्हारे साथी को ‘हरी धनिया’ कहकर सब लोग क्यों चिढ़ाते हैं, तो हमने बाॅस को सब्जी बनने के बाद हरी धनिया  का रोल समझाया तो साहब ने जोरदार ठहाका लगाया, और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। फिर धनिया महराज ने उन्हें जूता सुंघा कर कुर्सी में बैठाया। 

एक दूसरी शाखा में एक चतुरा मिला। केवल नाम के लिए  चुटकी भर काम में हाथ डालता था और साहब के हाथ में चाटुकारिता की हींग लगाकर गोपनीय रिपोर्ट में सबसे ज्यादा अंक प्राप्त कर लेता था।

अपन तो हर शाखा में अदरक की तरह कूटे जाते थे और जब शाखा की रेटिंग सुधर जाती या बाॅस का प्रमोशन हो जाता तो अपन को चाय जैसे छानकर बाहर ट्रान्सफर कर दिया जाता। अपनी ईमानदारी के कारण हम न हरी धनिया बन पाए, न हींग बने, न टमाटर…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 138 ☆ # भरोसा… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# भरोसा… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 138 ☆

☆ # भरोसा… #

सुबह-सुबह हमारे पुराने मित्र से

मार्निंग वॉक के दौरान मुलाकात हुई

थककर बेंच पर बैठ कर बात हुई

वो प्रसन्न होकर बोला

भाई! कैसे हो ?

तुम तो पहले जैसे ही हो

मैंने कहा –

मस्त हूं,

कविता लिखने में व्यस्त हूं

यार, तुम बताओ

कैसे कट रही है ?

बहू-बेटे से घर में पट रही है?

उसका चेहरा

अचानक उतर गया

माथे पर पसीना बिखर गया

कांपती आवाज़ में

रोने के अंदाज में

बोला –

बहुत पीड़ा झेल रहा हूं

मृत्यु से आंख मिचौली

खेल रहा हूं

 

एक बेटा

मिन्नतों के बाद मिला है

परिवार संग दिल्ली में रहता है

आप वही रहो

हमसे कहता है

कभी कभी भूले से

फोन करता है

आप लोगों से

जल्दी मिलने आऊँगा

झूठ मूठ का

स्वांग भरता है

पत्नी इस सदमे से

बीमार पड़ गई है

मेरी तो आंखे

शर्म से गड़ गई है

क्या हम इसीलिए बच्चों को

छोटे से बड़ा करते हैं?

उनके उन्नति के लिए ,

कॅरीयर के लिए ,

क्या क्या नहीं करते हैं ?

अब हम किसके सहारे जीयेंगे

अकेलेपन का जहर

कब तक पीयेंगे

 

मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा

सांत्वना दी, आंसू पोंछे

और बोला –

यार, मुस्कराओ,

सब भूल जाओ

वृद्धावस्था में हर घर की

यही कथा है

हर रिटायर्ड वृद्ध व्यक्ति की

यही व्यथा है

वो अपनी आंखें पोंछकर

कुछ सोचकर

बोला – भाई !

मुझे गम नहीं है कि

उसने हमें अकेले छोड़ा है

दुःख तो इस बात का है की

उसने हम मां-बाप का भरोसा

इतने बेरहमी से तोड़ा है/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ “शितू” — लेखक : श्री गो. नी.दांडेकर ☆ श्री कचरू सूर्यभान चांभारे ☆

श्री कचरू सूर्यभान चांभारे

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “शितू” — लेखक : श्री गो. नी.दांडेकर ☆ श्री कचरू सूर्यभान चांभारे ☆

पुस्तक  : शितू

लेखक : श्री गो. नी. दांडेकर

प्रथमावृत्ती 1953 

तेरावी आवृत्ती 2016 

पाने 168 

या सुप्रसिद्ध पुस्तकाचे लेखक श्री. गो.नी.दांडेकर यांच्याकडे अनेक कसदार साहित्य निर्मितीचं पितृत्व जात असलं तरी “ शितू ‘ चा मानदंड वेगळाच आहे. गोनीदांची ही एक अप्रतिम साहित्यकृती आहे. ‘ गोनीदांच्या मनाच्या गर्भात जन्माला आलेली मानसकन्या म्हणजे शितू ‘ असं उचितपणे म्हणता येईल. 

आता कन्याच मनात जन्माला आली आहे म्हटल्यावर तिचे माहेरही मनातच जन्माला येणार ना. शितूचं माहेर आहे कोकण. नारळासुपारीच्या बागांनी बहरलेलं, दर्यासंगे खडा पहारा देणारं कोकण.

कादंबरीच्या सुरूवातीलाच लेखक मनात शितू कशी आली ते सांगतात. एकदा हा प्रस्तावनेतला परिचय संपला की माणूस शेवटच्या पानापर्यंत शितूसोबतच  प्रवास करतो. 

शितूच्या कथेत पात्रांची फारशी रेलचेल नाही. शितू ,विसू व देवपुरूष आप्पा या तिघांभोवतीच कादंबरी फिरते. बाकी सदू ,भिकू,तान्या,भीमा ,अच्यूतकाका, भाग्या ही सारी पात्रं म्हणजे जेवणाचा स्वाद वाढविण्यासाठी ताटात मांडलेले पापड लोणचं.

 शितू पुस्तकाचा परिचय करून देताना मला एकाच वाक्यात परिचय संपविणं आवडेल ,अन् ते म्हणजे साखर ,गुळ,बत्तासा,पेढा ,ऊस हे सगळेच पदार्थ गोड आहेत. पण गोड असूनही भिन्न आहेत. मग गोड या शब्दाचा नेमका अर्थ काय ?त्याचा अर्थ एवढाच की स्वतः चव चाखा व गोडी ठरवा. शितू ही कादंबरी अशी देवाघरचा गोडवा प्यालेली.. संजीवनी प्यालेली. शितू ही परिक्षणातून वाचायची गोष्ट नाहीच आहे .. तर शितू मुळातून प्राशन करायचं प्रेमतीर्थ आहे. खरंतर इथंच माझं परिक्षण संपवता आलं असतं. पण वाचकांना अर्ध्या वाटेवर सोडणं माझ्या स्वभावात बसत नाही. म्हणून शितूचा अजून थोडासा परिचय करून देत आहे.

एखाद्या चित्रपटात थोडासा उद्धस्त , पांढरीशूभ्र दाढीवाला म्हातारा आपबीती सांगतो. संपूर्ण कथानक फ्लॕशबॕकमध्ये असतं. फ्लॕशबॕकच्या शेवटी पुन्हा तोच म्हातारा भेटतो. पण यावेळी प्रेक्षकांच्या डोळ्यांच्या कडा गंगा-यमुना झालेल्या असतात. हीच अनुभूती शितू वाचताना येते.

जांभ्या दगडाच्या खडकावर ,खळाळणा-या दर्याजवळच्या खाडीजवळ वसलेलं वेळशी हे एक टुमदार गाव. अर्थात शितूचं गाव. वेळशीकरांना दैवत म्हणून वेळेश्वर प्रिय व माणसांचा विचार करता वेळेश्वराइतकेच  गावातले आप्पा खोत प्रिय. आप्पा म्हणजे वेळशीकरांचा जीव की प्राण. आप्पा देवाचेही लाडके होते बहुतेक. देवानं आप्पांना दो हातानं भरभरून दिलं होतं, आणि आप्पा तेच सारं गावकीला चार चार हाताने वाटत होते. आगीच्या लोळातून एका म्हातारीला वाचविताना आप्पा जीवाची पर्वा करत नाहीत. पण या धाडसामुळे आप्पा दहापंधरा दिवस अंथरूणाला खिळून पडतात. पहिले तीन दिवस तर आप्पांना शुद्धच नसते. या पंधरा दिवसात सगळं गाव ,पंचक्रोशी आप्पांना भेटायला येत होती. चहाची आधणावर आधणं चढत होती. कामाच्या अतिरेकानं व अविश्रांत परिश्रमाने आप्पांची बायको अंथरूण धरते. शिवाय त्या दुस-यांदा आई होणार असतात. श्रम न सोसल्यामुळे काकू आप्पांना, वेळशीला कायमचं सोडून जातात. पण जाताना काकू आप्पांच्या पदरी एक बाळ देऊन जातात.हे बाळ म्हणजेच आप्पांचा लाडका विसू. 

शितू ही सुद्धा वेळशीचीच माहेरवाशिण .नक्षत्रावाणी गोड शितू कादंबरीत भेटते ती एका भयंकर दुःखद प्रसंगात. शितू ही आप्पाचा घरगडी भीमाची लेक. गोरीपान ,नितळ शितू सात वर्षाची असतानाच,   त्यावेळच्या रिवाजाप्रमाणे भीमा लेकीचे दोन हात करून देतो. शितूचा दुर्दैवाचा फेरा इथूनच सुरू होतो. लग्नानंतर दोनच महिन्यात तिला वैधव्य येतं. दुःखाचा डोंगर कोसळला असं सगळेजण म्हणतात. पण सात वर्षाच्या शितूला यातलं काहीच कळत नसतं. पण तरीही शितू रडत होती. नवरा मेला म्हणून ? नाही .नवरा तर तिनं नीट पाहिलेलाही नसतो. वैधव्यासाठी रडावं तर तिला त्याचा अर्थही कळत नव्हता.  पण तरीही धायधाय रडत होती. कारण सगळे तिला पांढ-या पायाची म्हणत होते. ती एकांतात आपल्या पायांना न्याहाळत होती. गो-यापान पायावर पांढरटपणा कुठं बिंदुलाही नव्हता. मग पांढ-या पायाची का म्हणत असतील ? पुन्हा ती रडू लागे. आईच्या माघारी वाढविलेल्या शितूचं रांडपण भीमासाठी कड्यावरून कोसळल्यासारखं होतं. गरीबाचं दैव नेहमीच झोपलेलं असतं असं त्याला वाटायचं. फार फार तर ते कूस बदलतं पण पुन्हा फेर धरून नाचायला वापस येतंच. शितू आणि भीमाचं दैव तर चक्रीवादळाप्रमाणे दिशा बदलत होतं. बालवैधव्याच्या अवघ्या सहा महिन्यातच शितूचे दुसरे लग्न तीस वर्षाच्या कालू आजगोलकरशी होतं. हा कालूही एके दिवशी खाडीत बुडून मरतो. आता तर शितूसाठी धरणी खायला उठली होती अन् आभाळ गिळायला उठलं होतं. आधीच पांढ-या पायाची पोर म्हणून हिणवली गेलेली शितू आता सर्वांच्याच नजरेत कुलक्षयी ठरते. लोकांच्या टोमण्यांना कंटाळून भीमा बाप्यालाही वाटतं तिला द्यावं विहिरीत ढकलून अन् व्हावं मोकळं. पण आप्पा शितूला जवळ घेतात.तिचा सांभाळ करतात. डोक्यावर आभाळ ,पायाखाली धरणी अन् पाठीवर आप्पाचा हात एवढंच तिचं जग होतं. 

दहा वर्षाच्या आतबाहेरचा आप्पांचा लाडका विसू व सात वर्षाची शितू  दोघांचं दैवत एकच—आप्पा. दोघांची छान मैत्री जुळते. घरातली सगळी कामं ती दोघं मिळूनच करतात. चौथीत गेल्यावर विसू मामाच्या गावी महाडला शिक्षणासाठी जातो. त्यावेळची शितूच्या बालमनाची घालमेल मूळ कादंबरीतच वाचणं इष्ट आहे. दहावीपर्यंत विसू महाडलाच राहतो. मधल्या काळात दोघांची भेट झालेली नसते. या काळात विसू म्हणजे मिशीवर जवानीची कोवळीक कोरलेला एक नव्या कातणीचा तरूण झालेला असतो. केतकीचं सौंदर्य घेऊन जन्मलेली शितूही तारूण्याच्या खुणा घेऊन उभी राहिलेली असते. खूप वर्षानंतर आलेला विसू तिचा जीव की प्राण असतो. विसूच्या दर्शनाला ती आतुरलेली असते. तिचा तो लाडका तरणाबांड विसू येतो. स्व बदलाच्या जाणिवेने शितू मनातल्या मनात चरकते. दोघांचंही एकमेकांवर जीवापाड प्रेम असतं पण शितू विचार करते.. “ मी माझे दोन नवरे गिळलेले आहेत. उद्या विसूच्या जीवाचे काही बरे वाईट झाले तर ? लोक काय म्हणतील ? आश्रयदात्या आप्पांना काय वाटेल ?”..  सळसळतं तारुण्य  आता लहानपणीच्या सहज भेटीतला अडसर बनलं होतं. विसूला शितू हवीच होती. शितूलाही विसू हवाच होता. पण प्रेमाचं सूत कधीच सरळ नसतं. त्याला अनेक गाठी असतात. आता त्या गाठीची परीक्षा घेणं शितूला नको वाटत होतं.

एके रात्री भयानक दुःखद घटना वेळशीत घडली. आप्पांना लालबुंद सापानं डंख मारला होता. सापाच्या जहरानं वेळशीचा जीत्ताजागता वेळेश्वर त्यांच्यातून हिरावून नेला होता. विसू व शितूसाठी आभाळच फाटलं होतं. विसूसाठी सारं गाव होतं ,आप्पांची पुण्याई होती. पण दुर्दैवी शितूसाठी आप्पांच्या जाण्यानं मागं काहीच उरलं नव्हतं. विसूही अक्षरशः वेडापिसा होतो. विसूला शितूच्या आधाराची गरज होती.आप्पानं केलेल्या उपकाराची परतफेड विसूला आधार देऊनच होणार होती. .  . विसूला शितू खरोखरीच सावरते पण त्यामुळे विसू शितूच्या अधिक जवळ जातो. पण शितू सावध असते. तिचंही विसूवर खूप प्रेम असतं पण जगाच्या भीतीपुढं तिचं प्रेम  म्हणजे तिला खुरटं झुडूप वाटते. ती विसूला टाळूही शकत नव्हती व जवळही घेऊ शकत नव्हती.

….  लाघवी भाषेच्या, कोकणी सौंदर्याने नटलेल्या, शितू-विसू प्रेमकथेचा शेवट काय झाला असेल ? 

तो गोडवा ,तो थरार अनुभवण्यासाठी शितू ही कादंबरी स्वतः वाचायला हवी.

पन्नाशीच्या दशकात गोनीदांनी रेखाटलेली शितू काल्पनिक कादंबरी आहे. म्हणायला ती गद्यात्मक कादंबरी आहे पण गद्य वाचताना, तिच्यातला भाव वाचताना असं वाटतं की ही कादंबरी नसून प्रेमकाव्य आहे. दर्याच्या संगतीने शांत खाडीत ती उगम पावते. फेसाळत्या सागराप्रमाणे ती उधाणते. पण मर्यादा ध्यानात येताच स्वतःचं आकुंचन करून घेते. त्या दोन संवेदनाक्षम जीवांचा गोफ गोनीदांनी इतका छान गुंफलाय की वाचक त्यात कसा अडकत जातो ते समजतच नाही. लेखकाच्या दृष्टीने शितू काल्पनिक असेल, पण वाचकाच्या दृष्टीने ती कुठेच घडली नसेल असं मात्र नाही. प्रेम हे सहज असतं ,निरामय असतं– पण त्याची प्रस्तुती खूप भयावह आहे. 

आज अनेक प्रेमकथांचा जन्म मनातच होतो अन् त्या मनातच विरतात. पण विरताना मनाला भावणा-या खुणा सोडून जातात. आणि या खुणा जगण्यासाठी साता जन्माचं बळ देतात. .

ही “ शितू “ नावाची सुंदर हळुवार प्रेमकथा अगदी तशीच —- इतकंच म्हणेन…… 

परिचयकर्ता – श्री कचरू सूर्यभान चांभारे

संपर्क – मुख्याध्यापक, जि. प. प्रा. शाळा, मन्यारवाडी, ता. जि. बीड

मो – 9421384434 ईमेल –  [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #200 ☆ व्यंग्य – ‘गाँव का दामाद’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘गाँव का दामाद’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 199 ☆

☆ व्यंग्य ☆ ‘गाँव का दामाद’

जनार्दन को हम लोग ‘जनार्दन द ग्रेट’ कहते हैं। एकदम व्यवहारिक आदमी है, ‘मैटर ऑफ फैक्ट’। जनार्दन उन लोगों में से हैं जो गुलाब की कद्र उसकी खूबसूरती के कारण नहीं, बल्कि गुलकंद या गुलाबजल की वजह से करते हैं। ऐसे ही लोग इस असार संसार में धन-धान्य का संग्रह कर सुख की स्थिति को प्राप्त प्राप्त होते हैं।

जनार्दन मुझे पसन्द करता है। शायद इसका कारण यह है कि मैं सांसारिक मामलों में उतना ही बोदा हूँ जितना वह सिद्ध है। विज्ञान के हिसाब से विपरीत ध्रुव एक दूसरे को आकर्षित करते हैं। मैं जनार्दन के साथ प्रतियोगिता में खड़ा नहीं होता, इसीलिए वह मेरा साथ पसन्द करता है। मेरे साथ वह बहुत ‘रिलैक्स्ड’ महसूस करता है।

जनार्दन अभी कुँवारा है और बड़ी बोली लगाने वालों की तलाश में है। उसकी नज़र में धन जीवन में सबसे अहम चीज़ है। धन होने पर अन्य विभूतियाँ अपने आप खिंची चली आती हैं। उसकी नज़र साध्यों पर रहती है, साधनों के औचित्य को लेकर मगजपच्ची करना उसकी फितरत में नहीं है।

जनार्दन यारबाश आदमी है। अकेले कहीं आना जाना या तनहाई में वक्त गुज़ारना उसे पसन्द नहीं। एक दिन मुझसे बोला, ‘तुम्हें अपने भाई की ससुराल घुमा लाता हूँ। सिर्फ चार घंटे का सफर है। दो दिन रह कर लौट आएंगे। बहुत दिन से जाने की सोच रहा हूँ।’

उसकी नज़र में ससुराल एक ऐसा स्थान था जहाँ दामाद और दामाद के रिश्तेदारों को हमेशा उत्तम सेवा पाने का अधिकार था। उसका मत था कि ससुराल को जितना दुहा जा सके, निश्चिंत होकर कर दुहना चाहिए।

मेरे लाख मना करने पर भी वह मुझे पकड़ कर ले गया। जहांँ हम उतरे वह एक गाँव था, सड़क से दो तीन फर्लांग दूर। सड़क पर तीन चार दूकानें थीं। हमारे पास हैंडबैग थे। मैं अपना हैंडबैग लेकर बढ़ने लगा तो जनार्दन ने मुझे रोका, कहा, ‘हैंडबैग यहीं दूकान पर छोड़ देते हैं।’

मैंने विरोध किया,कहा, ‘ज़रा सा तो वज़न है।’

जनार्दन ने हाथ उठाकर घोषणा की, ‘इज्जत का सवाल है। यह हमारे समाज का शाश्वत नियम है कि दामाद को कोई भी बोझ नहीं उठाना चाहिए।’

मैंने उसे समझाने की कोशिश की तो उसने कुछ नाराज़ होकर कहा, ‘भैया, यह ‘डिग्निटी ऑफ लेबर’ का सिद्धांत थोड़ी देर के लिए छोड़ दो। मैं इन थोथे सिद्धांतों के चक्कर में अपनी पुरानी परंपराओं को नहीं छोड़ सकता।’

हम हैंडबैग दूकान पर छोड़ कर गाँव में दाखिल हुए। वह एक बड़े से खपरैल वाले मकान के सामने मुझे ले गया। सामने मचिया पर एक वृद्ध बैठे थे। जनार्दन को देखकर वे हड़बड़ा गये। दौड़कर घर के भीतर आवाजें देने लगे,’अरे देखो, छोटे कुँवर साहब आये हैं।’

घर में भगदड़ मच गयी। वृद्ध जनार्दन के भैया के ससुर थे। जल्दी उनके दो पुत्र निकले। राम-रहीम हुई।दो तीन लड़कियाँ निकलीं। सलज्ज मुस्कान फेंक कर खड़ी हो गयीं। दूर कई घूँघट और बिना घूँघट वाले चेहरे हमारी तरफ ताक-झाँक करते दिखने लगे। जनार्दन ने ससुर साहब के घुटने छूकर आदर देने की रस्म पूरी की।

जल्दी ही बाल्टी में पानी और लोटा लिये एक सेवक आया। ससुर साहब बोले, ‘हाथ पाँव धो लीजिए।’

सेवक अपने हाथों से जनार्दन के चरण धोने लगा और जनार्दन निर्विकार भाव से धुलवाते रहे। मेरी बारी आयी तो मैंने सेवक के हाथ से लोटा ले लिया। जनार्दन की कुपित दृष्टि और ससुर साहब के इसरार के बावजूद मैंने सेवक की सेवा नहीं ली।

लड़कियाँ पानी शर्बत ले आयीं। फिर थोड़ी देर में चाय, मिठाई, नमकीन का दौर हुआ। जनार्दन बहुत महत्वपूर्ण होने का ‘पोज़’ मार रहा था। उसके ‘पोज़’ से मुझे असुविधा हो रही थी।

तब तक शाम हो गयी थी। दोनों साले जनार्दन से घुल घुल कर बात कर रहे थे। लड़कियाँ भी वहीं  भिनभिना रही थीं। मैं इस सब में फिट नहीं हो पा रहा था, लेकिन जनार्दन आकंठ आनन्द में डूबा हुआ था।

रात को भोजन का बुलावा हुआ। सास जी सामने भोजन कराने के लिए बैठी थीं। सेवक पंखा लिये तैनात था। मनुहार करके ज़बरदस्ती खाना खिलाया गया। लड़कियाँ टिप्पणी करतीं– ‘शरमाइए मत। भूखे रह जाएंगे। फिर हमारी बदनामी करेंगे।’ इस चक्कर में पेट पर खासा अत्याचार हो गया।

बिस्तर पर आकर मैंने पेट बजाकर जनार्दन से कहा, ‘आवभगत इसी रफ्तार से होती रही तो सही सलामत वापस होना मुश्किल है।’

जनार्दन विजय भाव से बोला, ‘सब पच जाएगा। ससुराल का माल है। समझदार लोग कह गये हैं कि पराया अन्न संसार में दुर्लभ है।’

सबेरे से फिर पेट पर आक्रमण शुरू हो गया। नाश्ता इतना ज़बरदस्त हुआ कि भोजन की ज़रूरत खत्म हो गयी। लेकिन भोजन से बचना मुश्किल था।

मैंने जनार्दन से कहा, ‘भाई, मैं मंदाग्नि का स्थापित रोगी हूँ। तुम्हारी ससुराल का यह प्रेम भाव मुझे बहुत मँहगा पड़ेगा।’

जनार्दन ने सिर झटक कर मेरी बात को उड़ा दिया।

वहाँ वह लड़कियों से ऐसे मज़ाक करता था जो शालीनता की परिधि को लाँघ जाते थे। मैंने उसे मना किया तो वह बोला, ‘तुम अनोखे हो। अपने यहाँ सालों सालियों से अश्लील मज़ाक करने का रिवाज है। यह दामादों का सनातन अधिकार है। तुम्हें क्यों बुरा लगता है?’

पूरा परिवार हमारी सेवा में इस तरह लगा था जैसे हम लोग कहीं के फरिश्ते हों। ससुर साहब हम लोगों को देखकर उठ पर खड़े हो जाते। मुझे संकोच लगता, लेकिन जनार्दन उसे सहज भाव से ले रहा था।

उस दिन शाम तक आतिथ्य की मार से मेरी हालत खराब हो गयी। मैंने शाम को जनार्दन से कहा, ‘चलो, थोड़ा टहल कर आते हैं। खाना पचेगा।’

वह पलंग पर पसरता हुआ बोला, ‘पागल हो क्या? यहाँ घर में पलंग है, बिस्तर है, सालियों की मधुर बातें हैं। यह सब छोड़कर सड़क की खाक छानने की तुम्हें क्या सूझ रही है?’

मैंने कहा, ‘चलो गाँव के कुछ लोगों से मिल आते हैं। मन बहलेगा।’

वह बोला, ‘क्या गजब करते हो? हम गाँव के दामाद हैं। हर ऐरे-गैरे के घर नहीं जा सकते। यहीं बैठो।’

वह अपनी जगह से नहीं हिला।

थोड़ी देर में शिष्टाचार प्रदर्शन के लिए गाँव के सात आठ लोग हमारे पास आकर बैठ गये। उनके बीच में जनार्दन ऐसे मुँह बना कर बैठ गया जैसे कहीं का राजकुमार हो। उनसे बात करता जो एकदम सर्वज्ञ की मुद्रा में,जैसे वे मूढ़ जाहिल हों।

उनमें से एक कुछ हीनता के भाव से बोला, ‘कुँवर साहब, हमारा मुन्ना बारहवीं में फैल कर गया है। उसकी नौकरी आपको लगवाना है। आप कहो तो साथ भिजवा दें।’

जनार्दन ठसक से बोला, ‘हाँ हाँ जरूर। मेरी पहचान के कई लोग हैं शहर में। लेकिन अभी साथ भेजने की जरूरत नहीं है। मैं वहाँ से फोन करूँगा, तब भेज देना।’

लड़के के बाप ने गद्गद होकर हाथ जोड़े।

बाद में मैंने जनार्दन से कहा, ‘क्यों झूठी शेखी बघारता है?’

वह कुटिल हँसी हँसकर बोला, ‘अपनी गाँठ से क्या जाता है? वह भी खुश, हम भी खुश।’

छोटे साले से वह बोला, ‘इस साल मटर वटर कैसी आयी है?’

थोड़ी देर में मटर से भरी बड़ी थाली आ गयी। मैंने उससे पूछा, ‘इतना तो ठूँस रहे हो। अब इसे कहाँ रखोगे?’

वह हँसकर बोला, ‘मटर की थैली में। सब पदार्थों के लिए अलग अलग थैलियाँ होती हैं। चिन्ता मत करो। जिसने खाने के लिए मुँह दिया है वह पचाने की व्यवस्था भी करेगा।’

एक दिन वहाँ और ठहर कर और पेट का पूरा सत्यानाश कर के हमने लौटने की तैयारी की। चलते वक्त सास जी ने हमें पाँच पाँच सौ रुपये दिये। जनार्दन ने निश्चिंत भाव से जेब में रख लिये। मैंने पूछा, ‘यह किस लिए?’ सास जी ने जवाब दिया, ‘मिठाई खाने के लिए।’ जनार्दन ने मेरी तरफ देख कर आँख दबायी। बाद में बोला, ‘आती हुई लक्ष्मी का हमेशा स्वागत करना चाहिए। और फिर ससुराल में जो मिल जाए उसे थोड़ा समझ कर रख लेना चाहिए।’

हमारे बैग सेवक के हाथ में थे। मटर की एक बोरी भी थी। बस अड्डे के रास्ते में देखा, जनार्दन के चेहरे पर कुछ कष्ट का भाव था। पूछा, ‘क्या बात है?’

वह बोला, ‘पेट में तकलीफ है।’

बस अड्डे पर बैठा हुआ वह बार-बार पहलू बदलता रहा, पेट को दबाता रहा। दूर खेतों के पास गड्ढों में भरे पानी को हसरत की निगाह से देखता। मैंने कहा, ‘प्यारे भाई, सीधे बैठे रहो। यहाँ तुम गाँव के कुँवर साहब हो। कोई ऐसी हरकत मत करना कि तुम्हारी इज्जत में बट्टा लग जाए।’

बस में भी उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। बस चलने के साथ उसकी कुँवर साहबी के छिलके एक-एक कर उतर रहे थे और वह तेजी से वापस जनार्दन बन रहा था। मैंने कहा, ‘भाई, यह जो तुम्हें पाँच सौ रुपये ससुराली धन के रूप में मिले हैं, लगता है वे किसी डॉक्टर के खाते में चढ़ जाएँगे।’

वह चुप बैठा था। थोड़ी देर में मैंने कहा, ‘कहो कुँवर साहब! क्या हाल है?’

वह कुढ़ कर बोला, ‘चूल्हे में गयी कुँवर साहबी। तुम शहर पहुँचकर मेरी दवा- दारू का इंतजाम करो। कुँवारा आदमी हूँ। बीमार पड़ जाऊँगा तो कोई दो रोटी भी नहीं देगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 147 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 147 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 147) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 147 ?

☆☆☆☆☆

गमगीन तो यहाँ सभी हैं मगर

फर्क सिर्फ़ इतना सा है…

कोई रोकर इजहार कर  देता है तो

कोई हंस कर छुपा लेता है…

☆☆

Everyone  is  sad here, but

the only difference is that

Few express it by crying while

Others hide it in their smiles

☆☆☆☆☆

रहने की कुछ

बेहतरीन जगहों में,

एक जगह

अपनी औकात भी है…

☆☆

One place amongst the

best of places to live in

is your own abode or

the earned status

☆☆☆☆☆

टूटें  तो

बड़े  चुभते हैं,

क्या  काँच,

क्या  रिश्ते…!

☆☆

If broken, they

prick a lot,

Be it glass

Or a relationship…!

☆☆☆☆☆

जो हमेशा आपके

दिल  में  रहते  हैं…

उनकी  बातें  दिल  पे

ना  लेना  कभी…!

☆☆

Never take the words

of those to the heart

Who perpetually live in  

your heart passionately…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 198 – गुरुत्वाकर्षण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 198 ☆ गुरुत्वाकर्षण ?

आदमी मिट्टी के घर में रहता था, खेती करता था। अनाज खुद उगाता, शाक-भाजी उगाता, पेड़-पौधे लगाता। कुआँ खोदता, कुएँ की गाद खुद निकालता। गाय-बैल पालता, हल जोता करता, बैल को अपने बच्चों-सा प्यार देता। घास काटकर लाता, गाय को खिलाता, गाय का दूध खुद निकालता, गाय को माँ-सा मान देता। माटी की खूबियाँ समझता, माटी से अपना घर खुद बनाता-बाँधता। सूरज उगने से लेकर सूरज डूबने तक प्रकृति के अनुरूप आदमी की चर्या चलती।

आदमी प्रकृति से जुड़ा था। सृष्टि के हर जीव की तरह अपना हर क्रिया-कलाप खुद करता। उसके रोम-रोम में प्रकृति अंतर्निहित थी। वह फूल, खुशबू, काँटे, पत्ते, चूहे, बिच्छू, साँप, गर्मी, सर्दी, बारिश सबसे परिचित था, सबसे सीधे रू-ब-रू होता । प्राणियों के सह अस्तित्व का उसे भान था। साथ ही वह साहसी था, ज़रूरत पड़ने पर हिंसक प्राणियों से दो-दो हाथ भी करता।

उसने उस जमाने में अंकुर का उगना, धरती से बाहर आना देखा था और स्त्रियों का जापा, गर्भस्थ शिशु का जन्म उसी प्राकृतिक सहजता से होता था।

आदमी ने चरण उटाए। वह फ्लैटों में रहने लगा। फ्लैट यानी न ज़मीन पर रहा न आसमान का हो सका।

अब आदमियों की बड़ी आबादी एक बीज भी उगाना नहीं जानती। प्रसव अस्पतालों के हवाले है। ज्यादातर आबादी ने सूरज उगने के विहंगम दृश्य से खुद को वंचित कर लिया है। बूढ़ी गाय और जवान बैल बूचड़खाने के रॉ मटेरियल हो चले, माटी एलर्जी का सबसे बड़ा कारण घोषित हो चुकी।

अपना घर खुद बनाना-थापना तो अकल्पनीय, एक कील टांगने के लिए भी कथित विशेषज्ञ  बुलाये जाने लगे हैं। अपने इनर सोर्स को भूलकर आदमी आउटसोर्स का ज़रिया बन गया है। शरीर का पसीना बहाना पिछड़ेपन की निशानी बन चुका। एअर कंडिशंड आदमी नेचर की कंडिशनिंग करने लगा है।

श्रम को शर्म ने विस्थापित कर दिया है। कुछ घंटे यंत्रवत चाकरी से शुरू करनेवाला आदमी शनैः-शनैः यंत्र की ही चाकरी करने लगा है।

आदमी डरपोक हो चला है। अब वह तिलचट्टे से भी डरता है। मेंढ़क देखकर उसकी चीख निकल आती है। आदमी से आतंकित चूहा यहाँ-वहाँ जितना बेतहाशा भागता है, उससे अधिक चूहे से घबराया भयभीत आदमी उछलकूद करता है। साँप का दिख जाना अब आदमी के जीवन की सबसे खतरनाक दुर्घटना है।

लम्बा होना, ऊँचा होना नहीं होता। यात्रा आकाश की ओर है, केवल इस आधार पर उर्ध्वगामी नहीं कही जा सकती। त्रिशंकु आदमी आसमान को उम्मीद से ताक रहा है। आदमी ऊपर उठेगा या औंधे मुँह गिरेगा, अपने इस प्रश्न पर खुद हँसी आ रही है। आकाश का आकर्षण मिथक हो सकता है पर गुरुत्वाकर्षण तो इत्थमभूत है। सेब हो, पत्ता, नारियल या तारा, टूटकर गिरना तो ज़मीन पर ही पड़ता है।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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