हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 137 ☆ 24 जून बलिदान दिवस विशेष – “रानी दुर्गावती…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित 24 जून बलिदान दिवस पर विशेष रचना “रानी दुर्गावती…”हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

24 जून बलिदान दिवस विशेष – “रानी दुर्गावती…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

गूंज रहा यश कालजयी उस वीरव्रती क्षत्राणी का

दुर्गावती गौडवाने की स्वाभिमानिनी रानी का।

उपजाये हैं वीर अनेको विध्ंयाचल की माटी ने

दिये कई है रत्न देश को माॅ रेवा की घाटी ने

उनमें से ही एक अनोखी गढ मंडला की रानी थी

गुणी साहसी शासक योद्धा धर्मनिष्ठ कल्याणी थी

युद्ध भूमि में मर्दानी थी पर ममतामयी माता थी

प्रजा वत्सला गौड राज्य की सक्षम भाग्य विधाता थी

दूर दूर तक मुगल राज्य भारत मे बढता जाता था

हरेक दिशा मे चमकदार सूरज सा चढता जाता था

साम्राज्य विस्तार मार्ग में जो भी राज्य अटकता था

बादशाह अकबर की आॅखो में वह बहुत खटकता था

एक बार रानी को अकबर ने स्वर्ण करेला भिजवाया

राज सभा को पर उसका कडवा निहितार्थ नहीं भाया

बदले मेे रानी ने सोने का एक पिंजन बनवाया

और कूट संकेत रूप मे उसे आगरा पहुॅचाया

दोनों ने समझी दोनों की अटपट सांकेतिक भाषा

बढा क्रोध अकबर का रानी से न थी वांछित आशा

एक तो था मेवाड प्रतापी अरावली सा अडिग महान

और दूसरा उठा गोंडवाना बन विंध्या की पहचान

घने वनों पर्वत नदियों से गौड राज्य था हरा भरा

लोग सुखी थे धन वैभव था थी समुचित सम्पन्न धरा

आती हैें जीवन मेे विपदायें प्रायः बिना कहे

राजा दलपत शाह अचानक बीमारी से नहीं रहे

पुत्र वीर नारायण बच्चा था जिसका था तब तिलक हुआ

विधवा रानी पर खुद इससे रक्षा का आ पडा जुआ

रानी की शासन क्षमताओ, सूझ बूझ से जलकर के

अकबर ने आसफ खाॅ को तब सेना दे भेजा लडने

बडी मुगल सेना को भी रानी ने बढकर ललकारा

आसफ खाॅ सा सेनानी भी तीन बार उससे हारा  

तीन बार का हारा आसफ रानी से लेने बदला

नई फौज ले बढते बढते जबलपुर तक आ धमका

तब रानी ले अपनी सेना हो हाथी पर स्वतः सवार

युद्ध क्षेत्र मे रण चंडी सी उतरी ले कर मे तलवार

युद्ध हुआ चमकी तलवारे सेनाओ ने किये प्रहार

लगे भागने मुगल सिपाही खा गौडी सेना की मार

तभी अचानक पासा पलटा छोटी सी घटना के साथ

काली घटा गौडवानें पर छाई की जो हुई बरसात

भूमि बडी उबड खाबड थी और महिना था आषाढ

बादल छाये अति वर्षा हुई नर्रई नाले मे थी बाढ

छोटी सी सेना रानी की वर्षा के थे प्रबल प्रहार

तेज धार मे हाथी आगे बढ न सका नाले के पार

तभी फंसी रानी को आकर लगा आॅख मे तीखा बाण

सारी सेना हतप्रभ हो गई विजय आश सब हो गई म्लान

सेना का नेतृत्व संभालें संकट मे भी अपने हाथ

ल्रडने को आई थी रानी लेकर सहज आत्म विष्वाश

फिर भी निधडक रहीं बंधाती सभी सैनिको को वह आस

बाण निकाला स्वतः हाथ से यद्यपि हार का था आभास

क्षण मे सारे दृश्य बदल गये बढें जोश और हाहाकार

दुश्मन के दस्ते बढ आये हुई सेना मे चीख पुकार

घिर गई रानी जब अंजानी रहा ना स्थिति पर अधिकार

तब सम्मान सुरक्षित रखने किया कटार हृदय के पार

स्वाभिमान सम्मान ज्ञान है माॅ रेवा के पानी मे

जिसकी आभा साफ झलकती हैं मंडला की रानी में

महोबे की बिटिया थी रानी गढ मंडला मे ब्याही थी

सारे गोैडवाने मे जन जन से जो गई सराही थी

असमय विधवा हुई थी रानी माॅ बन भरी जवानी में

दुख की कई गाथाये भरी है उसकी एक कहानी में

जीकर दुख मे अपना जीवन था जनहित जिसका अभियान

24 जून 1564 को इस जग से किया प्रयाण

है समाधी अब भी रानी की नर्रई नाला के उस पार

गौर नदी के पार जहाॅ हुई गौडो की मुगलों से हार

कभी जीत भी यश नहीं देती कभी जीत बन जाती हार

बडी जटिल है जीवन की गति समय जिसे दें जो उपहार

कभी दगा देती यह दुनियाॅ कभी दगा देता आकाश

अगर न बरसा होता पानी तो कुछ और हुआ होता इतिहास

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 158 – नको गर्व वेड्या ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 158 – नको गर्व वेड्या ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

नको गर्व वेड्या

वृथा या धनाचा।

असू देत ओला

 तो कोना मनाचा।

 

खुळी द्वैत बुद्धी

तुला साद घाली।

अथांग मनाला

कुठे जाग आली।

 

हा पैसा नि सत्ता

असे धूप छाया।

तू धुंदीत यांच्या

नको तोलू माया।

 

लाखो सिकंदर

इथे आले गेले।

सत्तेमुळे कोणा

अमरत्व आले।

 

नको देऊ थारा

मनाच्या तरंगा।

विवेकी मनाला

धरी अंतरंगा।

 

बोली मनाची ही

मनाला कळावी।

निस्वार्थ हळवी

सरम जुळावी।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #188 ☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वाणी माधुर्य व मर्यादा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 188 ☆

☆ वाणी माधुर्य व मर्यादा 

‘सबद सहारे बोलिए/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद औषधि करे/ एक सबद करे घाव,’  कबीर जी का यह दोहा वाणी माधुर्य व शब्दों की सार्थकता पर प्रकाश डालता है। शब्द ब्रह्म है, निराकार है; उसके हाथ-पाँव नहीं हैं। परंतु प्रेम व सहानुभूति के दो शब्द दोस्ती का विकल्प बन जाते हैं; हृदय की पीड़ा को हर लेने की क्षमता रखते हैं तथा संजीवनी का कार्य करते हैं। दूसरी ओर कटु वचन व समय की उपयुक्तता के विपरीत कहे गए कठोर शब्द महाभारत का कारण बन सकते हैं। इतिहास ग़वाह है कि द्रौपदी के शब्द ‘अंधे की औलाद अंधी’ सर्वनाश का कारण बने। यदि वाणी की मर्यादा का ख्याल रखा जाए, तो बड़े-बड़े युद्धों को भी टाला जा सकता है। अमर्यादित शब्द जहाँ रिश्तों में दरार  उत्पन्न कर सकते हैं; वहीं मन में मलाल उत्पन्न कर दुश्मन भी बना सकते हैं।

सो! वाणी का संयम व मर्यादा हर स्थिति में अपेक्षित है। इसलिए हमें बोलने से पहले शब्दों की सार्थकता व प्रभावोत्पादकता का पता कर लेना चाहिए। ‘जिभ्या जिन बस में करी, तिन बस कियो जहान/ नाहिं ते औगुन उपजे, कह सब संत सुजान’ के माध्यम से कबीरदास ने वाणी का महत्व दर्शाते हुये उन लोगों की सराहना करते हुए कहा है कि वे लोग विश्व को अपने वश में कर सकते हैं, अन्यथा उसके अंजाम से तो सब परिचित हैं। इसलिए ‘पहले तोल, फिर बोल’ की सीख दिन गयी है। सो! बोलने से पहले उसके परिणामों के बारे में अवश्य सोचें तथा स्वयं को उस पर पलड़े में रख कर अवश्य देखें कि यदि वे शब्द आपके लिए कहे जाते, तो आपको कैसा लगता? आपके हृदय की प्रतिक्रिया क्या होती? हमें किसी भी क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे न केवल लोकतंत्र की गरिमा का हनन होता है; सुनने वालों को भी मानसिक यंत्रणा से गुज़रना पड़ता  है। आजकल मीडिया जो चौथा स्तंभ कहा जाता है; अमर्यादित, असंयमित व अशोभनीय भाषा  का प्रयोग करता है। शायद! उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। इसलिए अधिकांश लोग टी• वी• पर परिचर्चा सुनना पसंद नहीं करते, क्योंकि उनका संवाद पलभर में विकराल, अमर्यादित व अशोभनीय रूप धारण कर लेता है।

‘रहिमन ऐसी बानी बोलिए, निर्मल करे सुभाय/  औरन को शीतल करे, ख़ुद भी शीतल हो जाए’ के माध्यम से रहीम जी ने मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया है, क्योंकि इससे वक्ता व श्रोता दोनों का हृदय शीतल हो जाता है। परंतु यह एक तप है, कठिन साधना है। इसलिए कहा जाता है कि विद्वानों की सभा में यदि मूर्ख व्यक्ति शांत बैठा रहता है, तो वह बुद्धिमान समझा जाता है। परंतु जैसे ही वह अपने मुंह खोलता है, उसकी औक़ात सामने आ जाती है। मुझे स्मरण हो रही हैं यह पंक्तियां ‘मीठी वाणी बोलना, काम नहीं आसान/  जिसको आती यह कला, होता वही सुजान’ अर्थात् मधुर वाणी बोलना अत्यंत दुष्कर व टेढ़ी खीर है। परंतु जो यह कला सीख लेता है, बुद्धिमान कहलाता है तथा जीवन में कभी भी उसकी कभी पराजय नहीं होती। शायद! इसलिए मीडिया वाले व अहंवादी लोग अपनी जिह्ना पर अंकुश नहीं रख पाते। वे दूसरों को अपेक्षाकृत तुच्छ समझ उनके अस्तित्व को नकारते हैं और उन्हें खूब लताड़ते हैं, क्योंकि वे उसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं होते।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और क्रोध का जनक है। उस स्थिति में उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। मानव अपना आपा खो बैठता है और अपरिहार्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो नासूर बन लम्बे समय तक रिसती रहती हैं। सच्ची बात यदि मधुर वाणी व मर्यादित शब्दावली में शांत भाव से कही जाती है, तो वह सम्मान का कारक बनती है, अन्यथा कलह व ईर्ष्या-द्वेष का कारण बन जाती है। यदि हम तुरंत प्रतिक्रिया न देकर थोड़ा समय मौन रहकर चिंतन-मनन करते हैं, तो विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं होती। ग़लत बोलने से तो मौन रहना बेहतर है। मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इसलिए मानव को मौन रहकर ध्यान की प्रक्रिया से गुज़रना चाहिए, ताकि हमारे अंतर्मन की सुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो सकें।

जिस प्रकार गया वक्त लौटकर नहीं आता; मुख से नि:सृत कटु वचन भी लौट कर नहीं आते और वे दांपत्य जीवन व परिवार की खुशी में ग्रहण सम अशुभ कार्य करते हैं। आजकल तलाक़ों की बढ़ती संख्या, बड़ों के प्रति सम्मान भाव का अभाव, छोटों के प्रति स्नेह व प्यार-दुलार की कमी, बुज़ुर्गों की उपेक्षा व युवा पीढ़ी का ग़लत दिशा में पदार्पण– मानव को सोचने पर विवश करता है कि हमारा उच्छृंखल व असंतुलित व्यवहार ही पतन का मूल कारण है। हमारे देश में बचपन से लड़कियों को मर्यादा व संयम में रहने का पाठ पढ़ाया जाता है, जिसका संबंध केवल वाणी से नहीं है; आचरण से है। परंतु हम अभागे अपने बेटों को नैतिकता का यह पाठ नहीं पढ़ाते, जिसका भयावह परिणाम हम प्रतिदिन बढ़ते अपहरण, फ़िरौती, दुष्कर्म, हत्या आदि के बढ़ते हादसों के रूप में देख रहे हैं।  लॉकडाउन में पुरुष मानसिकता के अनुरूप घर की चारदीवारी में एक छत के नीचे रहना, पत्नी का घर के कामों में हाथ बंटाना, परिवाजनों से मान-मनुहार करना उसे रास नहीं आया, जो घरेलू हिंसा के साथ आत्महत्या के बढ़ते हादसों के रूप में दृष्टिगोचर है। सो! जब तक हम बेटे-बेटी को समान समझ उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवाएंगे; तब तक समन्वय, सामंजस्य व समरसता की संभावना की कल्पना बेमानी है। युवा पीढ़ी को संवेदनशील व सुसंस्कृत बनाने के लिए हमें उन्हें अपनी संस्कृति का दिग्दर्शन कराना होगा, ताकि उनका उनका संवेदनशीलता व शालीनता से जुड़ाव बना रहे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #187 ☆ पितृ दिवस पर विशेष – पिता धरा आकाश हैं… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “पितृ दिवस पर विशेष – पिता धरा आकाश हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 187 – साहित्य निकुंज ☆

☆ पितृ दिवस पर विशेष – पिता धरा आकाश हैं ☆

पापा मेरे साथ हैं, हूँ मैं बड़ी महान।

साहित्यिक आकाश में, मिली उन्हें पहचान।।

 

पापा मेरी प्रेरणा, पापा मेरी शान।

पापा से हम सीखते, जीवन का हर ज्ञान।।

 

पिता धरा आकाश हैं, पिता हमारी छाँव।

मुश्किल क्षण में पिता ने, पार लगाई नाव।।

 

पिता से जीवन मिलता, पिता खुशी का साज।

आए दौड़े  वो अभी, बच्चों की आवाज।।

 

सुमित्र हैं मेरे पिता, साहित्यिक वरदान।

लिखा आपने बहुत कुछ, किया बड़ा अवदान।।

 

दिए हमें ही आपने, बड़े ही संस्कार।

होली दिवाली साथ ही, मना रहे त्योहार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #173 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 173 ☆

 ☆ “संतोष के दोहे…☆ श्री संतोष नेमा ☆

संकट में जिसने दिया, सदा हमारा साथ

करें प्रकट आभार हम, जिनका सिर पर हाथ

रहा निर्धनों का कभी, अन्न बाजरा ज्वार

किन्तु आज उनमे दिखें, न्यूट्रीशन- भरमार

बचपन से ही बन गये, बच्चे जब सुकुमार

संघर्षों से डरें तभी, हो जाते लाचार

दिल की पुलकन तब बढ़े, जब हो खुशी अपार

सुखद लगे आबोहवा, सुरभित चले बयार

चितवन मेरे श्याम की, मन हर लेती रोज

कहतीं राधा प्रेम से, आज करें हम खोज

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #180 ☆ पदोपदी वारी…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 180 – विजय साहित्य ?

🌼 पदोपदी वारी…! 🌼 ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

आत्मानंदी बोध, आळंदीचे धाम

मुखी हरीनाम, शुभारंभी…! १

 

जन्म जन्मांतरी, नष्ट‌ होई पाप

पुण्याचा प्रताप,  पुण्यशील..! २

 

पालखी विठोबा , पुणे शहरात

माहेरपणात, रमे वारी…! ३

 

अष्टांग योगाचा, दिव्य दिवे घाट

भक्ती रस लाट, उचंबळे…! ४

 

सप्तचक्र‌ ताबा, प्राणायाम ठेवा

सोपानाची सेवा,‌सासवड…! ५

 

जिंकतो इंद्रिये, विनासायास

जेजुरी निवास, मोक्षदायी…! ६

 

जिव्हाळा‌ संपन्न, वाल्ह्याचा मुक्काम

प्रेमळ विश्राम, पालखीचा..! ७

 

वैष्णवांसी लाभे , आनंदाचा कंद

सज्ज हे लोणंद, स्वागतासी…! ८

 

तरडगावात, ब्रम्हानंदी सुख

चिंतनी सन्मुख, पांडुरंग…! ९

 

ब्रम्ह पुर्ण सत्य, फलटणी  बोध

जीवनाचा शोध, संकीर्तनी..! १०

 

द्वंद्वमुक्त होई, बरड निवासी

वारीचा प्रवासी, सुजलाम..! ११

 

नातेपुते गावी, मुक्त मोहातून

व्यक्त श्वासातून, पांडुरंग…! १२

 

ज्ञानाची साखळी, माळशिरसात 

भक्ती अंतरात, नवविधा…! १३

 

नको‌ वेळ वाया, सांगे वेळापूर

दिसे अंतपूर, पंढरीचे…! १४

 

वाखरी मुक्कामी, वाचासिद्ध वाणी

प्रासादिक गाणी,  ठायी ठायी..! १५

 

पांडुरंगमय, होई वारकरी

कृपाछत्र धरी, पांडुरंग…! १६

 

केला नामोल्लेख,पदोपदी वारी

सुखदुःखे हारी, मुक्कामात..! १७

 

कविराज चित्ती, प्रतिभेची मात्रा

घडविली यात्रा, प्रासादिक..! १८

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद : मण्डल १ – सूक्त २६ (अग्निसूक्त) : ऋचा ६ ते १० — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २६ (अग्निसूक्त) : ऋचा ६ ते १० — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २६ (अग्निसूक्त) – ऋचा ६ ते १०

ऋषी – शुनःशेप आजीगर्ति : देवता – अग्नि

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील सव्विसाव्या  सूक्तात शुनःशेप आजीगर्ती  या ऋषींनी अग्नी देवतेला आवाहन केलेले  असल्याने हे अग्निसूक्त म्हणून ज्ञात आहे.  आज मी आपल्यासाठी अग्निदेवतेला उद्देशून रचलेल्या सहा ते दहा या ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे. 

मराठी भावानुवाद ::

यच्चि॒द्धि शश्व॑ता॒ तना॑ दे॒वंदे॑वं॒ यजा॑महे । त्वे इद्धू॑यते ह॒विः ॥ ६ ॥

भिन्न देवता तरीही त्यांच्यासाठी एक हवी

अर्पण केला त्या सर्वांना भक्तीने हा हवी

तुम्हासाठी घेऊनी आलो प्रेमाने हा हवी

संतोषा पावावे आता स्वीकारुनिया हवी ||६|| 

प्रि॒यो नो॑ अस्तु वि॒श्पति॒र्होता॑ म॒न्द्रो वरे॑ण्यः । प्रि॒याः स्व॒ग्नयो॑ व॒यम् ॥ ७ ॥

शुभदायी पंचाग्नीचे करितो प्रेमे पूजन

त्यांच्याठायी लुब्ध जाहले भक्ती भरले मन

आम्हालाही प्रीती द्यावी हे अग्निदेवा

नृपती तू तर देवांना अमुचा हा हवि पोचवा  ||७||

स्व॒ग्नयो॒ हि वार्यं॑ दे॒वासो॑ दधि॒रे च॑ नः । स्व॒ग्नयो॑ मनामहे ॥ ८ ॥

शुभदायक अग्नीचे असती स्नेही थोर देव

सामर्थ्याने उभारले स्तुतिपात्राचे वैभव

हितकर्त्या अनलाचे भक्त आम्ही निस्सीम

सदैव त्याचे चिंतन करितो होउन निष्काम ||८||

अथा॑ न उ॒भये॑षा॒ममृ॑त॒ मर्त्या॑नाम् । मि॒थः स॑न्तु॒ प्रश॑स्तयः ॥ ९ ॥

ऐका अमुची आर्त प्रार्थना अमर अशा देवा

होतृ ऋत्विज यांच्या मध्ये सुसंवाद ठेवा

होमकुंड हे जागृत केले पुण्यसंचयाला

समर्थ तुम्ही यज्ञाला संपन्न करायला ||९||

विश्वे॑भिरग्ने अ॒ग्निभि॑रि॒मं य॒ज्ञमि॒दं वचः॑ । चनो॑ धाः सहसो यहो ॥ १० ॥

समस्त विश्वा सर्व ज्ञात तुमचे सामर्थ्य

यज्ञासाठी तुमची अर्चना सर्वार्थाने सार्थ

पंचाग्निसह येउनी अनला यज्ञा साक्ष करा

या यज्ञावर या स्त्रोत्रावर उदंड प्रेम करा ||१०||

(या ऋचांचा व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे.. या व्हिडीओची लिंक देखील मी शेवटी देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)

https://youtu.be/eAAKZ4eDAU0

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Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 26 Rucha 6-10

Rugved Mandal 1 Sukta 26 Rucha 6-10

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 120 ☆ लघुकथा – क्लीअरेंस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘क्लीअरेंस’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 120 ☆

☆ लघुकथा – क्लीअरेंस ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘सर! इस फॉर्म पर आपके साईन चाहिए। परीक्षा है, क्लीअरेंस करवाना है‘ – विभाग प्रमुख से एक छात्रा ने कहा।

‘ठीक है। आपने विभागीय ग्रंथालय की सब पुस्तकें वापस कर दीं?’

‘सर! मैंने ग्रंथालय से एक भी पुस्तक नहीं ली थी। जरूरत ही नहीं पड़ी।‘

‘अच्छा, पिछले वर्ष पुस्तकें ली थीं आपने?‘

‘नहीं सर, कोविड था ना! ऑनलाईन परीक्षा हुई थी, तो गूगल से ही काम चल गया। सर! पाठ्यपुस्तकें भी नहीं खरीदनी पड़ीं। बी.ए. के तीन साल ऐसे ही निकल गए’ – छात्रा बड़े उत्साह से बोल रही थी।

‘सर! जल्दी साईन कर दीजिए प्लीज, ऑफिस बंद हो जाएगा।‘

हूँ —–

पास बैठे एक शिक्षक महोदय बोले – ‘सर! मैं तो कब से कह रहा हूँ, किताबें कॉलेज के ग्रंथालय को वापस कर देते हैं। विद्यार्थी पाठ्यपुस्तकें तो पढ़ते नहीं हैं, ग्रंथालय से पुस्तकें लेकर क्या पढ़ेंगे?‘

‘ठीक कह रहे हैं सर आप, गूगल से ही पढ़ाई हो जाती है अब तो ‘– छात्रा यह कहती हुई क्लीअरेंस फॉर्म पर साईन लेकर तेजी से बाहर निकल गई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 154 ☆ कहत धतूरे सों कनक, गहनों गढ़ो न जाए… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “कहत धतूरे सों कनक, गहनों गढ़ो न जाए…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 154 ☆

कहत धतूरे सों कनक, गहनों गढ़ो न जाए

विकास की प्रक्रिया प्रकृति का मूलाधार है। प्रकृति केवल उपयोगिता के आधार पर किसी को  जीवित नहीं रखती वो ये भी देखती है, कि समय के साथ कोई भी सजीव या निर्जीव कैसे तालमेल बनाकर रहता है। बदलाव केवल हमारे जीवन का ही अंग नहीं है, वरन ये प्रकृति का भी मूल तत्व है।

समय के साथ जो तेजी से भाग सकता है, भगा सकता है वही अपने अस्तित्व को बना कर  प्रतिष्ठित होगा। अक्सर देखा गया है कि जिन्होंने किसी विचार को क्रियान्वित कर  एक रूप देकर भव्यमहल का निर्माण किया, वही वहाँ नहीं रह पाए क्योंकि उनमें केवल सृजन की क्षमता थी अपने को विकसित करने, कुछ नया करने व अपने में बदलाव करने की योग्यता नहीं थी इसलिए निर्माता होते हुए भी उदास होकर हार गए। हारे हुए व्यक्ति, मुरझाए हुए फूल किसी काम के  नहीं होते। प्रेरणा की जरूरत हर किसी को होती है। माना आप  सबको दिशा निर्देशित कर रहें हैं पर  स्वयं को नहीं कर पा रहे हैं। आपको भी एक योग्य गुरु की अवश्यकता है। हम जैसे ही अपनी मंजिल पर पहुँचते हैं वहाँ वो खुशी नहीं मिलती जो सोच कर चल रहे थे। क्योंकि ये मानव मन की विशेषता है कि जैसे ही सब कुछ उसका हुआ तो वो आगे की ओर देखने लगता है। दूसरे शब्दों में पूरी विकास प्रकिया का आधार मनुष्य का आवश्यकता से अधिक एकत्र करना व अप्राप्य को पाने की चाहत ही है।

कदम दर कदम बढ़ते हुए हम पर्यावरण के सबसे बड़े शत्रु के रूप में अपने को विकसित करते जा रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अंजाम की परवाह किए बिना, पेड़ की शाख पर बैठकर उसे ही काटना।

अब आवश्यकता है, कि नित्य क्या नया सीखा, कैसे सबके साथ मिलकर रहना है व अपने को हमेशा तैयार रखना है एक नए सकारात्मक बदलाव के लिए जो विकास के सोपान का एक नया आधार हो। ऐसा करके ही हम आगे आने वाली पीढ़ियों को अलंकृत कर सकेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 218 ☆ आलेख – विश्वगुरू भारत… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखविश्वगुरू भारत

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 218 ☆  

? आलेख –विश्वगुरू भारत?

भारतीय सभ्यता आज विश्व की प्राचीनतम फल फूल रही जीवंत सभ्यताओ में से एक है. अपने श्रेष्ठ अतीत पर गौरव करना स्वाभाविक ही है. हमारी संस्कृति प्रामाणिक रूप से पांच हजार वर्षो से भी प्राचीन है. भारत ने सदैव सह अस्तित्व, वसुधैव कुटुम्बकम, नारी समानता, प्रकृति पूजा, ज्ञान पर सबका अधिकार, गुरु के सम्मान, कमजोर की मदद, शरणागत को अभय  जैसे सार्वभौमिक, सर्वकालिक, वैश्विक समन्वय के सिद्धांतो का समर्थन किया है.

  हमारे महर्षि आर्यभट्ट ने ही  दुनिया को सबसे पहले शून्य के उपयोग के बारे में समझाया था. इसके अलावा वेदों से हमें 10 खरब तक की संख्याओं के बारे में पता चलता है. सम्राट अशोक के शिलालेखों से पता चलता है कि हमें संख्याओं का ज्ञान बड़े प्राचीन समय से था. भास्कराचार्य की लीलाबती में लिखा हुआ है कि “जब किसी अंक में शून्य से भाग दिया जाता है तब उसका फलक्रम अनंत आता है. इस तरह प्रामाणिक रूप से गणितीय ज्ञान में हम अग्रणी हैं.

पौराणिक प्रमाण मिलते हैं कि शल्य चिकित्सा का जन्म भी भारत में ही हुआ. इस विज्ञान के अंतर्गत शरीर के अंगों की चीड-फाड़ की जाती है और उन्हें ठीक किया जाता है. शरीर को ठीक करने वाली इस विधि की शुरुआत सबसे पहले महर्षि सुश्रुत द्वारा की गई.

योग एक जीवन शैली है जिसकी शुरुआत भारत में ही हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों द्वारा की गई थी. आज के दौर में विभिन्न मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं से मुक्त संतुलित निरोगी जीवन  के लिए ध्यान ऐसा रास्ता है जिसे सारा विश्व अपना रहा है. प्रति वर्ष २१ जून को विश्व योग दिवस मनाये जाने को मान्यता मिलना विश्वगुरू भारत की परिकल्पना की यथार्थ में परिणिति की ओर एक कदम है.

ज्योतिष शास्त्र के रूप में दुनिया को भारत ने एक अनोखी भेंट दी है. ज्योतिष की गणनाओं से ही पता चला कि यह पृथ्वी गोल है और इसके घूमने से ही दिन रात होते हैं. आर्यभट तो सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण होने के कारण भी जानते थे. वेदों में इस अनंत ब्रम्हाण्ड का  वर्णन है और उड़न तश्तरी अर्थात UFO के बारे में भी वर्णन मिलता है.

संस्कृत भाषा को  विश्व की सबसे प्राचीन भाषा माना जाता है. दुनिया में बोली जाने वाली कई भाषाएँ संस्कृत से प्रभावित हैं अथवा उन भाषाओं में संस्कृत के शब्द देखने को मिलते हैं. नासा ने भी संस्कृत को विज्ञान संमत भाषा प्रमाणित किया है. हमारे सारे पौराणिक ग्रंथ संस्कृत में ही हैं.

महात्मा गांधी ने, गौतम बुद्ध ने विश्व को अहिंसा से समस्याओ के निराकरण के जो सूत्र दिये हैं वे भारत की पूंजी हैं. भगवत गीता और रामचरित मानस हमारे विश्व ग्रंथ हैं, जिनमें हर परिस्थिति में सफल जीवन दर्शन के सारे पाठ हैं.

नया विश्व तर्क और विज्ञान का है. अप्रत्यक्ष रूप से परमाणु शक्ति आज देशो की वह ताकत बन चुकी है जो दुनिया में किसी राष्ट्र का महत्व प्रतिपादित कर रही है. भारत स्वयं अपने बूते परमाणु शक्ति संपन्न है, और इसका प्रयोग शांति पूर्ण तरीको से विकास के लिये करने को प्रतिबद्ध है, यह तथ्य हमें अन्य देशो से भिन्न व विशिष्ट बनाकर प्रस्तुत करता है.

यदि भारत को वर्तमान परिस्थितियों में पुनः विश्वगुरू के रूप में स्वयं को स्थापित करना है तो हमें विश्व नागरिकता  के लिये पैरवी करनी होगी आज युवा पीढ़ी वैश्विक हो चुकी है उसे कागजी वीसा पासपोर्ट के बंधनो में ज्यादा बांधे रहना उचित नही है, अंतरराष्ट्रीय वैवाहिक संबंध हो रहे हैं, अब महर्षि महेश योगी की विश्व सरकार की परिकल्पना मुर्त स्वरूप ले सकती है. पहले चरण में भारत को ई वीसा के लिये समान वैश्विक मापदण्ड बनाने के लिये प्रयास होने जरूरी हैं ।   विदेश यात्रा हेतु इमरजेंसी हेल्थ बीमा अधिक उम्र के लोगों के लिए उपलब्ध नहीं है, विदेशों में भारत की तुलना में इमरजेंसी हेल्थ सेवा बहुत मंहगी है ।

यू ए ई में तो बिना हेल्थ बीमा के वीजा ही नहीं दिया जाता, तो वरिष्ठ व्यक्ति वहां कैसे जाएं ?

सरकारों को विजीटर्स को स्वास्थ्य सेवा तो देनी ही चाहिए । यह ह्यूमन राइट्स है।  यू एन ओ में भारत को यह प्रस्ताव लाना चाहिये, तथा इसके लिये विभिन्न देशो का समर्थन जुटाने के पुरजोर प्रयास द्विपक्षीय स्तर पर किये जाने चाहिये. जब कोई सेना पक्षियो की दुनियां भर में निर्बाध आवाजाही, सूरज, चांद, हवा, पानी को नही रोक सकती, सीमाओ को जब संगीत की स्वर लहरियां यूं ही पार कर सकती हैं तो संकुचित नागरिकता का विचार कितना बौना, अनैसर्गिक और तुच्छ है यह सहज ही समझा जा सकता है.

एक बहुत छोटा सा मुद्दा है इस ग्लोबल दुनिया मे आज कही लेफ्ट हेंड ड्राइव सड़के गाड़ियां हैं तो किन्ही देशों में राइट हेंड ड्रिवन गाड़ियां चल रही है । इसमें एकरूपता जरूरी है, आवश्यकता केवल पहल करने की है ।

इंटरनेट आधारित दुनिया पर किसी का कोई नियंत्रण ही नही है । पोर्न साइट्स व सायबर अपराध बढ़ रहे हैं । भारत पहल कर इसे नियमो में ला सकता है जिसके लिए वैश्विक सहमति बनाने का काम करना होगा।

दुनियां में निरस्त्रीकरण एक बलशाली मुद्दा है. अनेक देशो की ईकानामी ही हथियारो के व्यापार पर टिकी हुई है. यदि मिलट्री पर होने वाला व्यय गरीबो के विकास पर लगाया जावे तो साल भर में दुनियां के हालात बदल सकते हैं, जरूरत है कि भारत इस आवाज को बुलंदियां देने की पहल करे.

किसी भी देश के वैज्ञानिको द्वारा किये जा रहे शोध पर पूंजी लगाने वाले देश का नही समूची मानवता का अधिकार होना चाहिये इस सिद्धांत को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है. क्योकि सचाई यह है कि जो भी अगले शोध हो रहे हैं वे पिछले अनुसंधान तथा अन्वेषणो पर ही आधारित हैं. भारत जैसे देशो से ब्रेन ड्रेन बहुत सरल है, अमेरिका में शोध केवल इसलिये संभव हो पा रहे हैं क्योकि वहां वैसी सुविधायें तथा वातावरण विकसित हुआ है. अतः वैज्ञानिक शोध पटेंट से परे मानव मात्र की धरोहर होनी चाहिये.

अंतरिक्ष, समुद्र और ब्रम्हांड की संपदा, शोध पर सारी मानव जाति के अधिकार को हमें प्रतिपादित करना चाहिये. साल २०१४ में पहले ही प्रयास में मंगलयान का मंगल गृह की कक्षा में पहुँच जाना हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि है. भारतीयों का प्रौद्योगिकी ज्ञान पश्चिम से भी आगे पहुंचे और हम उदारमना उसे सबके लिये सुलभ करवायें तभी हम विश्वगुरू की पदवी के सच्चे हकदार बन सकते हैं. कहा गया है रिस्पेक्ट इज कमांडेड नाट डिमांडेड, मतलब हमें हर स्तर पर स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना होगा तभी हम नेतृत्व कर सकेंगें.

आतंकवाद से विश्वस्तर पर निपटने में भारत ने बहुत महत्वपूर्ण अगुवाई की  है. आवश्यक है कि इस दिशा में स्थाई वैश्विक अभिमत बनाया जावे. धार्मिक कट्टरता नियंत्रित करने में भारत को कड़े कदम उठाने होंगे.

यह युग बाजारवाद का समय है. मल्टी नेशनल कंपनियों में अनेकानेक देशो की पूंजी दुनियां भर में लगी हुई है, दुनियां भर के युवा, इन कंपनियो में अपने देश से बाहर जगह जगह कार्यरत हैं. सोशल मीडिया का युग है, अब ज्ञान का अश्वमेध ही विश्व विजय करवा सकता है. सेनाओ के भरोसे भौतिक युद्ध जीतने की परिकल्पना समय के साथ अव्यवहारिक होती जा रही है. ऐसे समय में भारत को विश्व का  समुचित नेतृत्व करते हुये वसुधैव कुटुम्बकम के वेद वाक्य को सुस्थापित कर स्वयं को विश्वगुरू सिद्ध करने की परिकल्पना को मूर्त रूप देने का समय आ चुका है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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