हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #3 ☆ कविता – “कायनात…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #3 ☆

 ☆ कविता ☆ “कायनात…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

ये ज़ुल्फें ये बेलें

ये पत्ते ये कलियाँ

ये फल ये कायनात

है अदा की ये खैरात

 

ये हंसी ये लब  

ये पौधे ये पेड़

ये आंखे ये गुफ़ा

ये मिट्टी ये आसमां

 

है ये बस तुम्हारी कला

निरर्थक हैं ये उसके बिना

जैसे छांव है बिना मक़सद

सुलगते उस सूरज बिन

 

अगर वो रुक जाएं

तो क्या तुम हो

उस हवा बिन

फूलों की इक लाश हो

 

वो तुम्हारी जां है

तुम उसकी मौत ना बन जाओ

बजाये मल्हार वो बैराग जो गा जाये

और कहीं तुम बस मिट्टी बनके रह जाओ

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 165 ☆ बाल कविता – पंख लगाओ पेड़ सखा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 165 ☆

☆ बाल कविता – पंख लगाओ पेड़ सखा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

पेड़ सखा तुम उड़ते वैसे

       जैसे बादल हैं उड़ते ।

डाल तुम्हारी बैठ-बैठ कर

      सैर मजे से हम करते।।

 

बादल राजा सैर कर रहे

         धरती और गगन में नित।

कहीं बरसते, कहीं सरसते

             सबका करते बादल हित।।

 

खुशबू फैलाते दुनिया में

        सुन्दर – सुंदर फूलों की।

सब बच्चों को फल खिलवाते

       पैंग बढ़ाते झूलों की।।

 

बातें करते हर पंछी से

        मिल-जुलकर ही हम सारे।

भोर सदा ही हम जग जाते

             गीत सुनाते नित न्यारे।।

 

खेल-कूद ,योगासन करना

        सबको रोज पढ़ाते हम।

हिंदी, इंग्लिश सब कुछ पढ़कर

        नया ज्ञान बढ़वाते हम ।।

 

कभी न लड़ते आपस में हम

         सदा प्रेम से ही रहते।

हर मुश्किल का समाधान कर

         नदियों जैसा ही बहते।।

 

सुख जैसे तुम सबको देते

       नहीं किसी से लड़ते हो।

धूप, ताप तुम सब सह जाते

       आगे-आगे बढ़ते हो ।।

 

वैसे ही हम बढ़े चलें नित

     कभी न हिम्मत हारेंगे।

सबके ही हितकारी बनकर

      सबको ही पुचकारेंगे।।

 

पंख लगाओ पेड़ सखा तुम

      सैर करें पूरे जग की।

हँसी-खुशी से जीवन जीना

     मूल्यवान पूँजी सबकी।।

  

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #142 – “बाल कहानी – जूते चप्पल की लड़ाई” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य  – बाल कहानी – जूते चप्पल की लड़ाई)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 142 ☆

 ☆ “बाल कहानी – जूते चप्पल की लड़ाई” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

पुराने समय की बात है। एक ही कोठरी में एक जूता और एक चप्पल रहती थी। जूता चमड़े का बना था और उसकी एड़ी ऊँची थी, जबकि चप्पल कपड़े की बनी थी और उसका तलवा चपटा था।

जूता को अपने आप पर बहुत गर्व था। उसने सोचा कि इस चप्पल से कहीं अधिक उपयोगी है।

“मैं चमड़े से बना हूँ,” जूता ने कहा।

“मैं मजबूत और टिकाऊ हूं। मुझे किसी भी मौसम में पहना जा सकता है। मैं औपचारिक अवसरों के लिए बिल्कुल सही हूं।”

चप्पल प्रभावित नहीं हुई।

“आप मजबूत और टिकाऊ हो सकते हैं,” चप्पल ने कहा। “लेकिन मैं अधिक सहज हूं। मैं अधिक व्यावहारिक भी हूं। मुझे समुद्र तट से लेकर किराने की दुकान तक कहीं भी पहना जा सकता है। मैं हर रोज पहनने के लिए एकदम सही हूं।”

दोनों में कई दिनों तक इस पर बहस होती रही। अंत में, उन्होंने यह देखने के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित करने का निर्णय लिया कि कौन अधिक उपयोगी है।

अगले दिन जूता-चप्पल खरीददारी के लिए निकले। जूता एक रेस्तरां में गया था, जहां हर किसी ने उसकी प्रशंसा की। वाह बहुत खूबसूरत है। चप्पल समुद्र तट पर गई। वह आरामदायक और सुंदर थी। सभी ने कहा कि चप्पल अच्छी व आरामदायक है।

घूमते-घमते जूता और चप्पल दोनों थक गए। वे एक बेंच पर बैठ गए और एक दूसरे को देखने लगे।

“तुम्हें पता है,” जूता ने कहा, “आप सही कह रही थी कि आप अधिक आरामदायक और सुंदर हो। मुझे यकीन है कि मैं समुद्र तट पर पहन कर नहीं जा सकता हूं। लेकिन मैं देख सकता हूं कि आप बहुत खूबसूरत हो।”

“धन्यवाद,” चप्पल ने कहा, “लेकिन आप इतने बुरे नहीं हो। आप निश्चित रूप से मुझसे ज्यादा स्टाइलिश हो। मुझे लगता है कि हम दोनों की अपनीअपनी क्षमता और ताकत है।”

जूता और चप्पल एक दूसरे को देखकर मुस्कराए। वे दोनों अपने-अपने तरीके से उपयोगी थे, और दोनों को उनके व्यक्तिगत गुणों के लिए सराहा जा सकता हैँ।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

03-02-2023 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #166 ☆ संत चांगदेव… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 166 ☆ संत चांगदेव☆ श्री सुजित कदम ☆

योग सामर्थ्य प्रचुर

चांगदेव महाराज

चांगा वटेश्वर स्वामी

तपश्चर्या शोभे साज…! १

 

तापी पुर्णा नदीतीरी

केली तपश्चर्या घोर

चौदा सहस्त्र वर्षाचे

योगी चांगदेव थोर…! २

 

प्रस्तावना काय लिहू

चांगदेव संभ्रमात

आत्मज्ञान गुरू कृपा

ज्ञाना निवृत्ती शब्दात…! ३

 

संत ज्ञानेश्वर कीर्ती

ऐकुनीया घेई भेट

पत्र कोरेच धाडले

अहंकारी भाव थेट….! ४

 

भेटण्यासी आला योगी

वाघारूढ होऊनीया  

दाखविला चमत्कार

बोधामृत देऊनीया…! ५

 

चांगदेव पासष्टीने

दिलें पत्रास उत्तर

मुक्ताईस केले गुरू

सेवा कार्य लोकोत्तर…! ६

 

गुरू शिष्य प्रवासात

चांगदेवा उपदेश

मेळवावा अंतरंगी

मानव्याचा परमेश…! ७

 

स्फुट काव्य अभंगात

चांगदेव विवेचन

आयुष्याचे कथासार

योग साधना मंथन…! ८

 

सांप्रदायी साहित्याला

दिली योगशक्ती जोड

मन निर्मळ पावन

घेई हरीनाम गोड…! ९

 

चौदा सहस्त्र वर्षाचा

योगी राही कोरा कसा

मुक्ता करी प्रश्न साधा

दिला भक्ती मार्ग वसा…! १०

 

 

आत्म स्वरुपाचे ज्ञान

लोक कल्याणाचा वसा

ज्ञाना निवृत्ती मुक्ताई

चांगदेव शब्द पसा…! ११

 

अंतरंगी तेजोमयी

होते ईश्वराचे रूप

गर्व अहंकार नाश

प्रकाशले निजरूप….! १२

 

ज्ञानदेव गाथेतील

केले अभंग लेखन

तत्वसार ओवी ग्रंथ

चांगदेव सुलेखन…! १३

 

दर शंभर वर्षांनी

बदलले निजधाम

योग साधना प्रबळ

तप साधना निष्काम…! १४

 

चौदा सहस्त्र वर्षाचा

संत योगी चांगदेव

तपश्चर्या भक्ती भाव

दैवी अध्यात्मिक ठेव…! १५

 

पुणतांबा पुण्यक्षेत्री

आहे समाधी मंदिर

संजीवन समाधीत

ध्यानमग्न  गोदातीर…! १६

 

© श्री सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #187 – कविता – विक्रय हेतु रचा नहीं है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “विक्रय हेतु रचा नहीं है)

☆  तन्मय साहित्य  #187 ☆

☆ विक्रय हेतु रचा नहीं है☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

मैंने अपनी रचनाओं को

विक्रय हेतु रचा नहीं है

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

 

गहन मनन-चिंतन से उपजी

बड़े जतन से इन्हें सँवारा

सत्यनिष्ठ ये सहनशील

निष्पक्ष, निर्दलीय समरस धारा

सुख अव्यक्त दे,

जब भावों को शब्द शब्द

साकार बुनूँ तो।

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

 

मेले-ठेले बाजारों में

नहीं प्रदर्शन की अभिलाषा

करे उजागर समय सत्य को

शिष्ट, विशिष्ट, लोकहित भाषा,

अन्तस् का तब ताप हरे

जब काव्य पथिक बन

इन्हें चुनूँ तो।

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

 

करुणा, दया, स्नेह ममता

शुचिता सद्भावों से वंचित हैं

कहो! काव्य के सौदागर

कितना झोली में धन संचित है

है अमूल्य यह सृजन धरोहर

पढ़ पढ़ इनको

और गुनूँ तो।

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

 

तुमने दिए प्रशस्तिपत्र नारियल,

उढ़ाये शाल-दुशाले

पर मन ही मन दाता होने के

गर्वित भ्रम, मन में पाले,

ऐसे सम्मानों के पीछे छिपे इरादे

जान, अगर मैं

शीष धुनूँ तो

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 12 ☆ सूखी  बगिया… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सूखी  बगिया।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 12 ☆ सूखी  बगिया… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

अपनेपन से ख़ाली-ख़ाली

है अपनी बगिया

रिश्तों की जाने कब सूखी

भरी हुई नदिया।

 

नदिया के हर घाट

रेत के बने मरुस्थल

नहीं आँख में पानी

सूख गये हैं काजल

 

जगह-जगह से उधड़ी सारी

सपनों की बखिया।

 

उल्टी गिनती गिनें

आज हम संबंधों की

शेष बचा जो

पीड़ा भोगे प्रतिबंधों की

 

पीस रही है बैठ उमर को

सुख-दुख की चकिया।

 

स्वार्थ-सिद्धियाँ और

आदमी बना खिलौना

संवेदन को भूल

लोभ का लगा डिठौना

 

सत्य खड़ा चुपचाप, झूठ है

पंचायत मुखिया।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 71 – पानीपत… भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की पहली कड़ी।)   

☆ आलेख # 71 – पानीपत – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

एक थी मुख्य शाखा और एक थे मुख्य प्रबंधक. शाखा अभी भी है, हालांकि, अब तो अपने स्थान से दूसरी जगह स्थानांतरित हो गई है. इसे बहुत साल पहले हिंदी में पानीपत और अंग्रेजी में वाटरलू कहा जाता था. वाटरलू वह स्थान है जहाँ नेपोलियन बोनापार्ट ने शिकस्त को टेस्ट किया था याने वरमाला का नहीं पर विजयरथ पर लगाम लगाने वाली “हार”का सामना किया था. इस शाखा के बारे भी यही किवदंती थी कि यहाँ के मुख्य नायक या तो अपना कार्यकाल पूरा करते हुये सहायक महाप्रबंधक के पथ पर अग्रसर होते हैं या फिर नेतृत्व के लायक मनोबल का अभाव महसूस करते हुये स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति की ओर अग्रसर होते हैं. “भैया, हमसे ना हो पायेगा” का ही इंग्लिश रूपांतरण वीआरएस है और “यार जब आपसे संभलती नहीं तो फिर ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों’ वाला गाना गाते हुये रुखसती क्यों नहीं लेते. ये या फिर ऐसा इनके सभी शुभचिंतकों और अशुभचिंतकों का सोचना रहता है. इस शाखा का तालघाट से या किसी भी ताल, तलैया, घाट, गढ़, पुर, गाँव, नगर से कोई संबंध नहीं है. कृपया ढूंढने में समय जाया न कर इस व्यंग्य का आनंद लेने की गुजारिश की जाती है. ऐसी चुनिंदा शाखा और आगे वर्णित मुख्य प्रबंधक से हम सभी का सर्विस के दौरान वास्ता पड़ा होगा या फिर दूर से देखा और सुना भी होगा. कुछ ने मन ही मन कहा भी होगा कि “अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे”या फिर इन तीसमारखाँ के तीस टुकड़े हो जाने हैं यहाँ पर, हमने तो पहले ही समझाया था भाई कि प्रमोशन वहीं तक लेना सही है जहाँ नौकरी सुरक्षित रहे. अब ये तो न पहले समझे न बाद में. वही “हाथ पैर में दम नहीं और हम किसी से कम नहीं”अब जब वास्ता पड़ेगा तो समझ में आ जायेगा कि कभी कभी दुश्मन भी सही और हितकारी सलाह दे देता है. आखिर उसे भी तो अदावत भंजाने के लिये विरोधी के होने की जरूरत पड़ती रहती है. अब नये नये विरोधी आये दिन तो मिलते नहीं.

अब बात इन” काल्पनिक रिपीट काल्पनिक “पात्र की जो अपने कैडर की प्रमोशन पाने की निर्धारित रफ्तार से बहुत आगे चल रहे थे और इस मुगालते में थे कि हर कुरुक्षेत्र में हर अर्जुन को कोई न कोई श्रीकृष्ण मिल ही जाता है और अगर कहीं न भी मिल पाये तो सामने कौरव, भीष्म पितामह, कर्ण और द्रोणाचार्य जैसे परमवीर नही मिलते. “खुदी को कर बुलंद इतना कि खुदा बंदे से खुद पूछे कि भाई तेरी रज़ा क्या है. ऐसे आत्मविश्वास की बुलंदियों पर आसमां को छूने की कोशिश इसलिए भी कर पाने की सोच बन गई कि प्रायः नंबर दो, तीन, चार पर काम करते हुये ये धारणा पाल बैठे कि मेहनत तो हम ही करते हैं और हमारी मेहनत और ज्ञान के दम पर जब नंबर वन क्रेडिट भी लेते रहे और ऐश भी करते रहे तो अब जब हमको यही सुअवसर मिला है तो हम भी इसका फायदा क्यों न उठायें और फिर झंडे गाड़कर ये साबित कर दें कि भाई हमारा कोई कैडर नहीं पर ऊपरवाला याने ईश्वर योग्यता और बुद्धि देते समय ये सब नहीं देखता. उसका न्याय सटीक और सर्वश्रेष्ठ होता है।

तो इस बुलंद आत्मविश्वास के साथ वो पहुंच गये राजा के सिंहासन पर बैठकर हुकूमत चलाने. चूंकि जिस स्थान से पदोन्नत हुये थे वो बहुत दुर्गम और खतरनाक था इसलिए यह भी एहसास बना रहा कि टाईमबाउंड स्टे के बाद जो कि इन्होंने स्वयं ही निर्धारित कर लिया था, वापस उस स्थान पर एक कर्तव्यनिष्ठ और बलिदानी सेनापति के समान वापस चले जायेंगे जहाँ परिवार विराजमान था, भार्या भी बैंकिंग की भाषा में अभ्यस्त थी. ये डबल इंजन की सरकार थी जो परिवार रूपी गाड़ी चला रही थी तो स्वाभाविक था कि हर सुविधा, होमडेकोरेशन की हर लक्जरी याने हर बेशकीमती वस्तु सबसे पहले इनके दरवाजे पर ही दस्तक देती थी. डबल इंजन की सरकार पद और लक्जरी के समानुपात को नहीं मानती इसलिए इनकी सौम्यता, विनम्रता और सज्जनता के बावजूद इनके उच्चाधिकारियों के रश्क का टॉरगेट, यही हुआ करते. जब वहाँ से ये पदोन्नति पाकर स्थानांतरित हुये तो परिवार स्थानांतरित नहीं हुआ पर फिर भी गृहणियों की तुलनाबाजी से परेशान पड़ोसियों ने राहत की सांस ली कि अब तो कम से कम एक इंजन का परिचालन खर्च भी बढ़ेगा.

पानीपत का युद्ध भी चलता रहेगा, तालघाट की तरह.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 187 ☆ जन्म मृत्यू… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 187 ?

जन्म मृत्यू… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

झाले असेल स्वागत

जन्मा आले तेव्हा खास

मोठ्या मुला नंतरची

लेक आनंदाची रास

 

जन्मगाव आजोळच

आजी मायेचाच ठेवा

भाग्य माझे फार थोर

कसे घडविले देवा

 

असे चांदण्यांचा गाव

खेळायला, फिरायला

सुशेगात होई सारे

आरामात जगायला

 

सुखासिन आयुष्यात

घडे भले बुरे कधी

लपंडाव नियतीचा

कधी गवसली संधी

 

सुखकर हे जगणे

कधी पडले ना कष्ट

दिस आले दिस गेले

लागो कुणाची न दृष्ट

 

अशी संतुष्टी लाभली

नसे कशाचीच हाव

माझी कविताच आहे

सा-या आयुष्याची ठेव

 

आता निरोप घेताना

आहे एवढीच आस

मिळो सुखांत जिवाला

तृप्त शेवटचा श्वास

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – ☆ पुस्तकावर बोलू काही ☆ “माझं चीज कोणी हलवलं?“ – मराठी अनुवाद – शरद माडगूळकर ☆ परिचय – सुश्री मधुमती वऱ्हाडपांडे ☆

सुश्री मधुमती वऱ्हाडपांडे

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “माझं चीज कोणी हलवलं?“ – मराठी अनुवाद – शरद माडगूळकर ☆ परिचय – सुश्री मधुमती वऱ्हाडपांडे ☆ 

मूळ इंग्रजी पुस्तक – “Who Moved My Cheese?“

मराठी अनुवाद – शरद माडगूळकर

प्रकाशक – मंजुल पब्लिशिंग हाऊस प्रायव्हेट लिमिटेड 

किंमत – 125-/ रुपये

पुस्तकं तर आपण अनेक वाचतच असतो नेहमी. काही वरवर चाळतो, काही अर्धवट वाचतो, काही काही पुनः पुन्हा वाचतो. काही तिथल्यातिथे विसरून जातो तर काही मनात खूप दिवस घोळत राहतात. काही खूप काही शिकवतात, काही अंतर्मुख करतात. आज ज्या पुस्तकाबद्दल सांगतेय ते एक लहानसे पण फार मोठं तत्व शिकवणारे पुस्तक आहे. “माझं चीज कोणी हलवलं?” हे ते पुस्तक! अगदी छोटेसे, एका बैठकीत पूर्ण होणारे, खूप काही सकारात्मक बदल आपल्यात घडवण्याची शक्ती असलेले डॉ. स्पेंसर जॉनसन ह्यांच्या ओघवत्या भाषाशैलीतील हे पुस्तक. मूळ इंग्रजीतील “Who Moved My Cheese?“ ह्या पुस्तकाचा शरद माडगूळकर ह्यांनी केलेला हा अनुवाद.

 ह्या पुस्तकात आपल्याला भेटतात दोन छोटे उंदीर, स्निफ आणि स्करी नावाचे आणि त्याच आकाराची दोन छोटी माणसेही हेम आणि हॉ! या चार काल्पनिक पात्रांचा आधार घेऊन जगण्यातील एक शाश्वत सत्य लेखकाने मांडलंय. जगात प्रत्येकालाच केव्हा ना केव्हा संघर्षाचा सामना करावा लागतो. ह्यात अनेकदा आपण रस्ता चुकतो, भरकटतो, गोंधळून जातो. पण आपण ज्या परस्थितीत आहोत ती परिस्थिती कायम तशीच राहावी अशी आपली अपेक्षा असते. त्यामध्ये काहीही बदल झाला तर आपण गडबडून जातो. तो बदल आपल्याला अजिबात सहन होत नाही.

 अगदी साधे उदाहरण द्यायचे तर आपल्याकडे रोज येणारी कामवाली बाई! ती आपलं सगळं काम व्यवस्थित करत असते. घरातलं तिला सगळं माहिती झालेलं असतं. त्यामुळे आपण निश्चिंत असतो. तिचे दोन तीन खाडे वगैरे आपण गृहीत धरलेले असतात. अन अचानकच एका दिवशी ती सांगते की ती उद्यापासून येणार नाही. ती कुठेतरी जाणार आहे किंवा तिची काहीतरी वैयाक्तिक अडचण आहे. आता त्या क्षणाला कुठल्याही गृहिणीची काय अवस्था होते ते सांगायलाच नको. अगदी आभाळ कोसळल्यासारखी गत होते! कारण तिची आपल्याला इतकी सवय झाली असते की त्या क्षणी सगळं त्राणच निघून जातं. आता कसं होणार आपलं म्हणून? वास्तविक पाहता दुसरी बाई शोधणं काही फार कठीण नसतं. थोडंसं चार दोन दिवसात तिलाही कामाचं तंत्र अवगत होणारच असतं. पण बदल म्हटला की मनुष्यस्वभाव त्याचं स्वागत करायला तयार होत नाही पटकन! खरं तर असलेल्या बाई बद्दल अनेक तक्रारी असतात आपल्या. पण दुसरी बाई हिच्यापेक्षाही चांगली मिळू शकते असा सकारात्मक विचार फार क्वचित करतो आपण! 

 तर हे छोटेखानी पुस्तक माणसाच्या नेमक्या ह्या स्वभाववैशिष्ट्यावर प्रकाश टाकते. वर उल्लेख केलेली चारही पात्रे चीज च्या शोधात एका भुलभुलैय्यात जातात. खूप शोधल्यावर एके दिवशी त्यांना हवे असलेले भरपूर स्वादिष्ट चीज त्यांना सापडतं. चौघेही निश्चिंत होऊन त्याचा मनसोक्त आस्वाद घेतात. भरपूर स्वादिष्ट चीज आपल्याला मिळतच राहणार हे ते गृहीत धरायला लागतात. थोडक्यात त्याची त्यांना सवय होऊन जाते. असे अनेक दिवस मजेत गेल्यावर हळूहळू कमीकमी होत जाणारे ते चीज एकदा पूर्णपणे संपते. आता मात्र ‘असंही कधी होऊ शकतं!’ हे अजिबातच गृहीत न धरल्याने चौघेही हतबल होतात. पण त्यानंतर चौघे त्या परिस्थितीला कसे कसे सामोरे जातात आणि त्याचा काय परिणाम होतो ते लेखकाने खूप छान परिमाणकारक रीतीने रंगवले आहे.

 ह्या छोट्याश्या गोष्टीत चीज म्हणजे तुमचा जॉब, तुमचा उद्योग, पैसे, ऐश्वर्य, स्वातंत्र्य, आरोग्य ह्यापैकी काहीही जे तुम्हाला आयुष्यात मिळवावेसे वाटते ते ते! आपली प्रत्येकाची चीज ची कल्पना वेगवेगळी असते आणि आपण ह्या जगरूपी भूलभुलैय्यात ते शोधत असतो. कधीनाकधी ते आपल्याला मिळतंही. एकदा मिळाल्यावर हे चीज आपण सहजासहजी सोडत नाही. मात्र हे कधी परिस्थितीनुरूप हरवले किंवा नाहीसे झाले तर आपल्याला सहन होत नाही. थोडक्यात आपल्या दैनंदिन आयुष्यात कालानुरूप झालेला बदल आपण सहजासहजी पचवत नाही. पण ज्या व्यक्ती बदल घडल्यावर योग्य निर्णय घेऊन त्याला सामोरे जातात त्याच शेवटपर्यंत तग धरू शकतात. ज्या चीजचा तुम्ही आम्ही आस्वाद घेताय ते कधीतरी संपणारच आणि ते संपल्यावर नवीन चीज शोधायला तुम्हाला हातपाय हलवावेच लागणार, त्या बदलाचा स्वीकार केला तरच पुन्हा नवीन चीज सापडेल आणि तुम्ही परत आनंदी व्हाल हा सोपा पण महत्वाचा जगण्याचा मंत्र ह्या छोट्याश्या रूपकात्मक गोष्टीतून आपल्यासमोर येतो. पुस्तकाची आणखी एक खासियत म्हणजे ह्यात मधून मधून चीजच्या मोठमोठ्या तुकड्यांची चित्रे आहेत अन प्रत्येक तुकड्यावर सारांश रूपाने सोप्या भाषेतली सकारात्मक वाक्ये आहेत जी आपणाला खूप काही शिकवून जातात अन सोबतच आनंददायी जगण्याचा एक सुंदर, सोपा मंत्र देऊन जातात.

© सुश्री मधुमती वऱ्हाडपांडे

मो 9890679540

अकोला

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 08 – जड़ा नियंत्रण है फौलादी… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – जड़ा नियंत्रण है फौलादी।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 08 – जड़ा नियंत्रण है फौलादी… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

अपनों से कट गये आज हम

साथ नहीं हैं दादा-दादी

 

मम्मी-डैडी बहुत व्यस्त हैं

अधिक कमाने की मजबूरी

स्वर्णिम सपने पूरे करने

हुई बुजुर्गों से भी दूरी

हमें प्रसन्‍न व्यस्त रखने को

कम्प्यूटर की गुड़िया ला दी

 

मिला नहीं ममतालू आँचल

आया ने हमको पाला है

वृद्धों का आशीष न पाया

अपनी मस्ती पर ताला है

कोमल मन, सुकुमार हृदय पर

जड़ा नियंत्रण है फौलादी

 

शिशु मन पर वात्सल्य बड़ों का

अब तक खुशबू सा अंकित है

किन्तु प्रथम आने की तृष्णा

प्रतिपल करती आतंकित है

नई फसल को उन्नत करने

क्यों जहरीली खाद मिला दी

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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