हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 70 – किस्साये तालघाट… भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 70 – किस्साये तालघाट – भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

समय की गति और निर्ममता का मुकाबला किसी से नहीं किया जा सकता. समय के चक्र में कब 25 वर्ष बीत गये पता ही नहीं चला. अभय कुमार के जीवन से उनकी पहली ब्रांच और उसके उस समय के शाखा प्रबंधक कभी भी दूर नहीं हुये, फुरसत के हर पलों में हमेशा मौजूद रहे. उन यादों को, उस गुरुता को और उस प्रेरणादायक प्रशिक्षण को भुलाना असंभव था. समय के साथ प्रगति के सोपान चढ़ते हुये और अपने गुरु को तालघाट शाखा से ही ट्रेनी ऑफिसर बन कर अपने कैरियर का सफर शुरू कर, आज अभय कुमार उस प्रदेश के राजधानी स्थित प्रधान कार्यालय में महाप्रबंधक के पद पर पदस्थ थे जिस प्रदेश के निवासियों का श्रेष्ठिभाव आज भी कायम था. हालांकि दोनों पड़ोसी प्रदेशों के राज्यपथ अब समान रूप से विस्तृत और सपाट थे इन पथों पर एयर प्लेन की लेंडिंग का दावा दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री तालठोक कर किया करते थे जबकि सरकारें एक ही दल की जनशक्ति से बनी थीं. प्रदेशों के निवासियों में श्रेष्ठता और हीनता का द्वंद आज भी जारी था और लगता है हमेशा ही जारी रहेगा.

पर अभय कुमार इन सबसे दूर थे क्योंकि उनका मूल प्रदेश, प्रेरणादायक प्रदेश और वर्तमान प्रदेश अलग अलग था. उनकी नजरों में सब बराबर थे पर सर्विस और कैरियर के हिसाब से पहला प्यार तालघाट से जुड़ा प्रदेश ही था जहाँ उनके कैरियर ने अपनी गरुण की उड़ान पायी थी. आज वो जिस नगर में आये थे, वहाँ से तालघाट सौ कि. मी. से भी कम दूरी पर था. सुबह सुबह जैसे ही राजधानी वापस जाने के लिए कार म़े बैठे, रास्ते में दूरीमापक बोर्ड पर नजर पड़ी जो यात्रियों को सूरक्षित वापसी और फिर वापस आने का निमंत्रण दे रहा था और दूसरे प्रदेश स्थित नगरों की दूरी भी संकेत कर रहा था. अचानक ही बिना किसी पूर्व योजना के सामने की सीट पर बैठे अपने निजी सचिव को निर्देश दिया “तालघाट की ओर चलिए “आगे बैठे निजी सचिव और ड्राइवर दोनों ही चौंक गये क्योंकि ये विजिट प्रोग्राम में नहीं था. “सर, तालघाट शाखा हमारी ब्रांच नहीं है. ” उनके निजी सचिव ने कहा. ‘ पर ये मेरी पहली ब्रांच थी’ कुयें की गहराई से आती आवाज से फ्रंट सीट के यात्री चकित थे और स्तब्ध भी. पर वही हुआ जो आदेश था और लगभग एक घंटे बाद उनकी कार बैंक की तालघाट शाखा के सामने खड़ी थी.

शाखा अपने पुराने परिसर से शिफ्ट होकर नये और विशाल तथा आधुनिक परिसर में आ गई थी और शाखा और प्रबंधन का लेवल अपग्रेड होकर स्केल फोर हो चुका था. अब यहाँ शाखाप्रबंधक नहीं पाये जाते और मुख्य प्रबंधक कक्ष में लगी सूची में भी इतने पुराने वक्त के शाखाप्रबंधक का नाम नहीं था. शाखा का पुराना परिसर और शाखा प्रबंधक निवास जिनसे अभय कुमार जी की यादें जुड़ी थीं, अब वेयर हाऊस में तब्दील हो चुके थे. वो बीते हुये पल, वो उनके गुरु सदृश्य शाखाप्रबंधक का शून्य में मिल जाना, प्रशिक्षण और बैंकिंग के काम सीखने में गुजरा हुआ वक्त, सब कुछ निर्मम शून्य में विलीन हो चुके थे. बीते वक्त के स्मारक अब थे नहीं जिन्हें छूकर वे उस दौर को फिर से पाने की कोशिश करने के लिये आये थे.

शाखा के वर्तमान परिसर में विराजित मुख्य प्रबंधक से औपचारिक और संस्थागत अनौपचारिक चर्चा संपन्न कर और पेश किये गये स्नेक्स को संक्षिप्त और औपचारिक रूप से ग्रहण कर उन्होंने अपने वर्तमान की ओर प्रस्थान किया. मन में खीर की मिठास और मृदुलता न मिल पाने की टीस, पीड़ा दे रही थी. अतीत हमें सुनहरा लगता है उस वक्त जब हम ऊपर वर्तमान में उड़ रहे होते हैं पर नीचे पहुंचने पर उसे ढूंढना संभव नहीं होता क्योंकि अतीत की कोई जमीन नहीं होती. ये सिर्फ उड़ान भरने वालों का लांचिंग पैड होता है और इस लांचिंग के सपोर्ट धीरे धीरे विलुप्त होते जाते हैं.

दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन पर वो मिलते नहीं क्योंकि जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते”  निर्मम वक्त उन्हें अपनी आगोश में समेटकर, हमारे वर्तमान से बहुत दूर विलुप्त हो जाता है.

 – समाप्त – 

नोट : किस्साये तालघाट यहीं समाप्त होता है. अपडाउनर्स और बहुत से ब्रेक कभी खत्म नहीं होते, रूप बदलते रहते हैं. इनके बीच ही कुछ “अभय कुमार”आते हैं जो एक खुशनुमा एहसास होते हैं और यह भी जताते हैं” कि उम्मीद कभी नाउम्मीदी से परास्त नहीं होती”. आशा है आपको यह कथा पसंद आई होगी. इस कथा में लगभग 80% याने काफी कुछ सच्चा घटित हुआ भी है जिसे 20% कल्पना के फेविकॉल से जुड़कर यह किस्साये तालघाट बनी है. धन्यवाद!!!

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 186 ☆ धर्मवीर संभाजी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 186 ?

धर्मवीर संभाजी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

शिवपुत्र शंभूराजे आम्हाला प्राणांहून प्रिय,

या भूमीवर सदैव राहो,

हे नाव ….अमर अक्षय!

वीर,पराक्रमी,राजा अमुचा,

निधड्या छातीचा,

अखेर तो ही होता छावा,

शूर सिंहाचा….!

लिहिले कोणी काहीबाही,

त्यात नसे काही अर्थ,

फुकाच का देते कोणी,

बलिदान असे व्यर्थ?

किती सोसले हाल शरीराचे,

डगमगला नाही,

क्लेश, यातना, छळ सोसूनही,

शरणागत जाहला नाही!

कवी मनाचा शूर वीर शंभू,

संस्कृत पंडित, “बूधभूषण” रचनाकार,

भव्य दिव्य त्या ग्रंथात होई,

देवी शारदेचा साक्षात्कार!

येसूबाई महाराणी शोभली,

अनुरूप अर्धांगिनी,

ती तर होती शंभूराजांची,

सदैव शुभांगिनी !

इतिहासाच्या पानांमधली….

प्रतिमा शोधू खरी,

वीर संभाजी महाराजांचे,

अल्पायुष्य लखलखते…भरजरी!!

चित्र साभार – विकिपीडिया 

© प्रभा सोनवणे

(१ जानेवारी १९९९)

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “विवेकी पालकत्व” – डॉ. अंजली जोशी ☆ श्री ओंकार कुंभार ☆

☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “विवेकी पालकत्व” – डॉ. अंजली जोशी ☆ श्री ओंकार कुंभार ☆ ☆ 

पुस्तक -विवेकी पालकत्व

लेखिका – डॉ. अंजली जोशी

प्रकाशक – शब्द प्रकाशन

पृष्ठ संख्या – 204

किंमत – 275

नावावरून पालकांसाठीच वाटणारं हे पुस्तक पालकांसाठी तर महत्वाचे आहेच, त्याचबरोबर सर्वच स्री-पुरूषांसाठी अतिशय उपयुक्त असे आहे.

या पुस्तकाच्या लेखिका डॉ. अंजली जोशी यांनी डॉ. अल्बर्ट एलिस यांनी विकसित केलेल्या विवेकनिष्ठ मानसोपचारशास्राच्या अनुषंगाने संशोधन करून पी.एच.डी ही पदवी संपादन केली आहे. एवढेच नाही तर स्वतःच्या मुलांचे संगोपन ही या पद्धतीने केले आहे. त्यामुळे हे लेखन अनुभवसिद्ध असे आहे.

विवेकी पालक होणे ही तशी सोपी गोष्ट नाही. परंतु, निश्चितच ती अशक्य गोष्ट नाही. फक्त त्यासाठी नियमित सजगता मात्र हवी. आपल्या धारणा तपासून घ्यायला हव्यात. आपल्यात बदल झाल्याशिवाय त्याची रुजवात पाल्यात होणार नाही हेही लक्षात घ्यायला हवे.

त्यासाठी आपल्याला हे पुस्तक सर्वतोपरी मदत करते. पुस्तकाची मांडणी खूपच सुंदर आहे. विविध उदाहरणांद्वारे रंजक पद्धतीने विवेकी पालकत्व हा विषय लेखिकेने मांडला आहे. त्यामुळे विषय व आषय समजायला सोपे जाते.

हे पुस्तक ज्यांच्यामुळे माझ्या वाचनात व संग्रहात आले व सातत्याने आम्हा मंडळींना वाचनास नेहमी प्रोत्साहित करत असतात, त्या श्री. राजेंद्र घोडके सरांना मी मनःपूर्वक धन्यवाद देतो.

शेवटी सर्वांना विनंती की, आवर्जून सर्वांनी हे पुस्तक लवकरात लवकर वाचावे.🙏

 धन्यवाद!

©️ श्री ओंकार कुंभार

श्रीशैल्य पार्क, हरिपूर सांगली.

मो.नं. 9921108879

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 07 – कथा लिखी  बदहाली की… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कथा लिखी  बदहाली की।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 07 – कथा लिखी  बदहाली की… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

पीड़ा का अध्याय जुड़ा क्‍यों

पुस्तक में खुशहाली की

 

जहाँ चाँद का चित्र बनाया

तारक दल का वहीं घनेरा

नभ पर शुभग वितान तना था

राहु-केतु से उल्‍का दल ने

पल में यूँ आतंक मचाया

फैली खूनी लाली थी

 

बन्द हुआ परियों का नर्तन

तम्बू उखड़ गये उत्सव के

हुआ दृश्य का यूँ परिवर्तन

महारास रूक गया अचानक

पल-भर में अंधियारा छाया

दुख की छाया काली थी

 

रक्त रंजिता हुई दिशाएँ.

ऐसी रात पिशाचिन आयी

अग्निबाण छोड़ें उल्काएँ

बहके अश्व विकास मार्ग से

चकनाचूर स्वप्न कर डाले

   कथा लिखी बदहाली की

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 84 – सजल – अग्नि सदा देती है आँच… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “सजल – अग्नि सदा देती है आँच…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 84 – सजल – अग्नि सदा देती है आँच… ☆

अग्नि सदा देती है आँच ।

ज्ञानी तू, पुस्तक को बाँच।।

 

देख-सम्हल कर, चलें सभी,

राहों में बिखरे हैं, काँच।

 

क्यों करता तन पर अभिमान

ईश्वर करता सबकी जाँच।

 

नाच न आए आँगन टेढ़ा,

जीवन में तुम बोलो साँच।

 

उमर बढ़ी चलो सम्हल कर,

कभी न पथ पर भरो कुलाँच

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 12 ☆ नर्मदा परिक्रमा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…नर्मदा परिक्रमा – )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 13 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… नर्मदा परिक्रमा ?

हमारे जीवन का हर अध्याय अपने समय पर ही खुलता है और पूर्ण भी होता है। कुछ बातें ऐसी होती हैं जो समय आने पर ही संभव होती हैं और समझ में भी आती हैं।

हमारा रिटायर्ड शिक्षिकाओं का एक छोटा – सा समूह है जिसे हम यायावर दल कहते हैं क्योंकि हम सब रिटायर होने के बाद निरंतर कहीं ना कहीं घूमने के लिए निकल पड़ते हैं। इस दल में पचहत्तर वर्षीया शिक्षिका सबसे उत्साही हैं।

कुछ समय से आपस में हम सभी नर्मदा परिक्रमा की बात कर रहे थे और लो 2022 आते-आते मानो सभी के मन की बात खुलकर सामने आ गई और 5 मार्च हम 4 सहेलियाँ नर्मदा परिक्रमा के लिए निकल पड़ीं।

सच पूछा जाए तो इस परिक्रमा के विषय में विशेष कोई जानकारी हमें नहीं थी। यह अवश्य ज्ञात था कि एक पवित्र नदी के चारों तरफ एक परिक्रमा पूर्ण करना हिंदू धर्म के अंतर्गत एक तीर्थ यात्रा ही है। बस तो उसी अनुभव को प्राप्त करने के लिए हम लोग निकल पड़े।

मन में एक आस्था थी। हमें यह विश्वास भी था कि कुछ अलग, कुछ हटकर और कुछ विशेष करने के लिए जा रहे थे। साथ में मन में खास कोई अपेक्षाएँ भी नहीं थीं कि हमें किस तरह के दृश्यों का या परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। पर जो कुछ मिला, जो देखा जो अनुभव किया वह सब न केवल अद्वितीय और अनोखा है बल्कि अविस्मरणीय भी।

हम चार सहेलियों ने एक इनोवा बुक किया और 3500 किलोमीटर की यात्रा बाय रोड करने का निर्णय लिया क्योंकि हमारे पास वह शारीरिक बल, क्षमता और संकल्प करने की दृढ़ता नहीं थी कि हम यह यात्रा पदयात्रा के रूप में पूर्ण करते जबकि यह यात्रा लोग पदयात्रा के रूप में ही पूर्ण करते हैं।

हम पुणे से 5 मार्च को प्रातः ओंकारेश्वर के लिए रवाना हुए। यह 603 किलोमीटर की दूरी है। हमें वहाँ पहुँचने में रात हो गई। वहीं पर हमसे ट्रैवेल एजेंट श्री मयंक भाटे मिलने आए जो मूल रूप से इंदौर के निवासी हैं। इस परिक्रमा की सारी व्यवस्था उनके द्वारा ही की गई थी। रात को भोजन कर एक साधारण होटल में रात बिताने के लिए हम सब उपस्थित हुए।

दूसरे दिन प्रातः नर्मदा स्नान कर वहीं घाट पर पूजा -अर्चना कर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए रवाना हुए। हमने नाव द्वारा मंदिर जाने का निर्णय लिया। वैसे यदि यात्री चाहें तो एक बड़ा पुल है उसे भी पार कर चलकर मंदिर में जा सकते हैं। हमें नर्मदा में नौका विहार का भी आनंद लेना था इसलिए हम लोगों ने नाव से ही जाना उचित समझा।

यहाँ एक और आवश्यक बात की जानकारी देना चाहूँगी कि नियमानुसार परिक्रमा करने वाले जब घाट पर पूजा अर्चना करते हैं तो वहाँ पर पंडित आपसे एक संकल्प करवाते हैं। उस संकल्प के आधार पर जिस घट में आप पानी लेकर पूजा करते हैं उसे लेकर दूसरे दिन गुजरात के भरूच डिस्ट्रिक्ट अंकलेश्वर में समुद्र में उस पानी को छोड़ना होता है। नर्मदामाता भी वहीं तक अपनी यात्रा बनाए रखती हैं। हाँ जाने के लिए 4 घंटे नाव से यात्रा करने की आवश्यकता होती है। उस नाव में काफी भीड़ होती है। लाइफ जैकेट की कोई व्यवस्था नहीं होती और साथ ही साथ कितने दिनों में समुद्र में जाकर नाव पहुँचेगी इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती। कारण बड़ी भीड़ होती है। इसलिए हम चारों सहेलियों ने संकल्प ना करते हुए ज्योतिर्लिंग का दर्शन कर एक और रात ओंकारेश्वर में बिताकर वहाँ से दूसरे दिन राजपिपल्या होते हुए शहादा पहुँचे।

रास्ते में हम भटियाण बुजुर्ग नामक गाँव के एक संत का दर्शन करने गए। वे 99 वर्षीय हैं। पचास -साठ वर्ष पूर्व पदयात्रा करने निकले थे फिर किसी साधु की सेवा में सारा जीवन वहीं रह गए। वे दक्षिणा के रूप में दस रुपये ही लेते हैं और सभी को भुने चने और इलायचीदाने (साखरफुटाणे)देते हैं।

दोपहर को हम नर्मदालय में भारती ठाकुर के आश्रम पहुँचे। भारती ठाकुर पिछले कई दशकों से बंजारों के बच्चों को शिक्षित करने तथा उनकी देखभाल में जुटी हैं। उनसे मुलाकात तो न हो सकी पर उनका आश्रम देखकर और समाज सेवाभाव देखकर हम सब निःशब्द हो गए। उस रात हम शहदा में रुके। भारती ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस और माँ शारदा की भक्ति करती हैं और मिशन से जुड़ी हुई हैं।

केदारेश्वर, पुष्पदंतेश्वर महादेव मंदिर, शूलपाणी मंदिर स्वामी नारायण मंदिर, रंगावधूत नारेश्वर होते हुए नारेश्वर आश्रम में निवास के लिए एक रात रुके।

यहाँ पर नर्मदापरिक्रमा पद यात्री रात के समय रुकते हैं। हम प्रातः स्नान करने गए तो वहाँ कुछ गेरवावस्त्र धारी नदी को स्वच्छ करते हुए दिखाई दिए। वे फूल, निर्माल्य, दीया आदि वस्तुएँ एकत्रित करते दिखे। नदी के प्रति समर्पित भाव देखकर हम भी अभिभूत हुए।

अगले दिन हम नारेश्वर दर्शन, कुबेर भंडारी दर्शन कर गरुड़ेश्वर में रुके। आपको बता दें कि यह स्थान सरदार सरोवर से केवल छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यात्री स्टैच्यू ऑफ यूनिटी भी देखने के लिए जा सकते हैं।

अगले दिन हम गरुड़ेश्वर मंदिर वासुदेव सभा मंडप, दत्त मंदिर, जल कोटि – सहस्र धारा, राज राजेश्वर मंदिर अहिल्याबाई फोर्ट अहिल्या घाट देखने के लिए माहेश्वर पहुँचे।

नर्मदा नदी के किनारे बसा यह शहर अपने बहुत ही सुंदर व भव्य घाट तथा माहेश्वरी साड़ियों के लिये प्रसिद्ध है। घाट पर अत्यंत कलात्मक मंदिर हैं जिनमें से राजराजेश्वर मंदिर प्रमुख है।

विश्वास है कि आदिगुरु शंकराचार्य तथा पंडित मण्डन मिश्र का प्रसिद्ध शास्त्रार्थ यहीं हुआ था। इस शहर को महिष्मती नाम से भी जाना जाता था। कालांतर में यह महान देवी अहिल्याबाई होल्कर की भी राजधानी रही है। देवी अहिल्याबाई होलकर के कालखंड में बनाए गए यहाँ के घाट सुंदर हैं और इनका प्रतिबिंब नदी में और खूबसूरत दिखाई देते हैं। संध्या के समय जब किले में रोशनी की जाती है तो सारा परिसर जगमगा उठता है।

अहिल्याबाई घाट पर स्नान करने की सुविधा उपलब्ध है। हम स्नान व माता की पूजा कर किला व अहिल्याबाई होल्कर के निवास स्थान का दर्शन करने गए। अहिल्याबाई शिव मंदिर में आज भी नर्मदा की मिट्टी से 108 लिंग बनाकर उनकी पूजा की जाती है और तत्पश्चात विसर्जित कर दिया जाता है। यह प्रथा अहिल्याबाई के समय से आज तक चलती आ रही है। वहीं पर बाल गोपाल के लिए बना हुआ सोने के झूले का दर्शन भी मिला।

इतिहास गवाह है कि एक विधवा स्त्री ने किस तरह माता नर्मदा पर आस्था रखते हुए अपनी प्रजा के लिए कितना काम किया। माहेश्वर में आज जो साड़ियाँ बनती हैं इस कार्य को अहिल्याबाई ने ही स्त्रियों को कुटीर उद्योग सिखाने और स्वावलंबी बनाने के लिए प्रारंभ किया था। वे अत्यंत न्यायप्रिय रानी थीं।

उस रात हम मंडलेश्वर गोंधवलेकर महाराज नेमावर आश्रम में संध्यारती के लिए पहुँचे। प्रसाद भी अनेक पदयात्रियों के साथ ग्रहण किया और उन सबसे बातचीत करने, उनके अनुभव जानने का अवसर मिला।

इसके अगले दिन हम जबलपुर पहुँचे। यह हमारी यात्रा का नौवां दिन था। हम लोगों ने कभी आश्रमों में रात गुज़ारी तो कभी साधारण व उपलब्ध होटलों में। सभी स्थान पर ताज़ा भोजन और स्नान के लिए गरम पानी अवश्य मिला। साफ़ – सुथरा स्थान आवास के लिए उपलब्ध कराए गए।

आज भेड़ाघाट नामक अलग स्टेशन है। भेड़ाघाट में नर्मदा का विशाल प्रवाह देखने को मिला। तीव्र गति से प्रवाहित होता स्वच्छ जल आपको आकर्षित करेगा। यहाँ नौका विहार और केबल कार की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। विविध रंग के संगमरमर के बीच से गुज़रती नाव और आकर्षक दृश्य आपको आह्लादित कर देंगे। संध्या के समय ग्वारी घाट जबलपुर में माता नर्मदा की अद्भुत सुंदर संध्यारती होती है। हम सबने इसका भी आनंद लिया। लोगों की नदी के प्रति आस्था ही उसे जीवित बनाती है। यहाँ नौका विहार के लिए नावों को खूब सजाया जाता है और संध्यारती से पूर्व लोग नौका विहार करते हैं।

दूसरे दिन सुबह धुआँधार जल प्रपात और चौंसठ योगिनी मंदिर दर्शन के लिए गए। चौंसठ योगिनी मंदिर हज़ार वर्ष पुराना मंदिर है। शिव -पार्वती की मूर्तियों के साथ चौंसठ अन्य मूर्तियाँ भी हैं। पुराण के अनुसार एक संपूर्ण पुरुष बत्तीस कलाओं से युक्त होता है और स्त्री भी बत्तीस कलाओं से युक्त होती है। दोनों के संयोग से बनते हैं चौंसठ। तो ये माना जा सकता है कि चौंसठ योगिनी शिव और शक्ति जो सम्पूर्ण कलाओं से युक्त हैं उन के मिलन से प्रकट हुई हैं। अन्य कई कथाएँ भी हैं। आज यह खंडहर मात्र है। औरंगज़ेब ने इन मूर्तियों को क्षति पहुँचाई थी।

हमारी यात्रा के दौरान भारी संख्या में हमें पदयात्री मिलते रहे। ये पदयात्री दिन में पच्चीस से तीस किलोमीटर चलते हैं। कुछ भक्त नंगे पैर चलते हैं। प्रातः सात बजे चलना प्रारंभ करते हैं और सूर्यास्त से पूर्व किसी आश्रम में रात गुज़ारने के लिए पहुँच ही जाते हैं।

समस्त मार्ग में पदयात्रियों को लोग जल, बिस्कुट, अल्पाहार देकर उनकी सेवा करते हैं।

समस्त राज्य में परिक्रमायात्रियों के लिए लोगों के मन में गहन श्रद्धा भाव परिलक्षित होता है।

स्त्री-पुरुष सभी निर्भय होकर यात्रा करते हैं। उनकी पीठ पर एक हैवरसैक होता है। जिसमें दो जोड़े वस्त्र, थाली, गिलास, चम्मच, चादर आवश्यक दवाइयाँ होती हैं। एक योगासन मैट का रोल होता है जिसे वे सोने के लिए काम में लाते हैं। साथ में मोबाइल और एक लाठी होती है। एक डोलची लेकर चलते हैं जिसमें जल भरकर रखते हैं। सभी यात्री बिना रुपये – पैसे के चलते हैं। अन्य लोग उन्हें धर्म के नियमानुसार दक्षिणा देते रहते हैं। पद यात्री श्वेत वस्त्र धारण किए हुए होते हैं। इससे उन्हें पहचानना भी आसान हो जाता है। प्रत्येक यात्री एक अद्भुत आस्था लेकर चलता है और उसे भी 3500 किलोमीटर की यात्रा पूरी करनी पड़ती है।

शूलपाणी का इलाका घने जंगल का इलाका है। यहाँ पक्की सड़क अवश्य बनाई गई है पर यह बंजारों का गाँव है, वे मुख्य सड़क से बहुत दूर जंगल के भीतर निवास करते हैं। पच्चीस -तीस किलोमीटर के परिसर में न रुकने का स्थान है न पानी की सुविधा। पर पदयात्री तो इसी मार्ग से चलते हैं। उनका अनुभव है कि नौ किलोमीटर की दूरी से मोटरसाइकिल पर सवार लोग पानी, चाय, बिस्कुट आदि देने के लिए आते हैं। यह सेवा भाव ही है जो सनातन धर्म की शक्ति है।

अगली सुबह हम अमरकंटक के लिए रवाना हुए। यह यात्रा काफी लंबी थी। हमें पहुँचते रात हो गई। यहाँ रामकृष्ण मठ में हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। हम रात की आरती में सम्मिलित होने के लिए नर्मदामाता मंदिर पहुँचे। सुंदर तथा विशाल परिसर, जल से भरे कई कुंड दिखाई दिए। रात के आठ बजे आरती प्रारंभ हुई। समस्त परिसर आलोकित था मानो नर्मदा माता स्वयं वहाँ उपस्थित थीं।

हर स्थान पर हमें अनुभव रहा कि माता हर समय साथ चल रही हैं। जल में उतरे तो वह हमें बुलाती हैं मानो कहती हैं -आओ मुझसे गले लगो। तट पर हों तो वह स्वयं बढ़कर हम तक आती हैं। मन के भीतर एक अद्भुत शांति का अहसास होता है जिसे हम शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकते। स्नान करते हुए हर श्रद्धालु कहता है माता आओ।

दूसरे दिन प्रातः कपिल धारा और दूध धारा जल प्रपातों का हमने दर्शन किया। यहाँ कुछ गुफाएँ हैं जहाँ ऋषि कपिल और ऋषि दुर्वासा तपस्या करते थे। कहा जाता है कि ऋषियों की तपस्या में व्यवधान उत्पन्न न हो इस कारण माता ने अपने प्रवाह को अन्यत्र मोड़ लिया।

हम माता की बगिया नामक स्थान देखने पहुँचे। यह नर्मदा नदी का उद्गम स्थल है। एक छोटा सा कुंड मात्र दिखाई देता है और जल पृथ्वी में समा जाता है। आगे डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर जल बाहर निकलकर अपने पूर्ण व विस्तृत रूप में नदी बनकर बहने लगता है। इस स्थान में श्रद्धालु माता को साड़ी पहनाते हैं जो सिंबॉलिक होता है। कई स्थानों पर साड़ी टंगी हुई दिखाई देती है।

हमारी अगली यात्रा अब नरसिंहपूर से होशंगाबाद की ओर प्रारंभ हुई। होशंगाबाद को अब नर्मदापुरम कहा जाता है। यहाँ एक सुंदर स्वच्छ घाट है, नाम है सेठानी घाट। हम दोपहर को पहुँचे इसलिए केवल नर्मदा माता का दर्शन मात्र कर सके। तेज़ धूप और गर्मी का प्रकोप भारी पड़ने लगा था।

नर्मदापुरम से आगे एक लच्छोरा नामक गाँव है। यहाँ पुणे की प्रतिभाताई चितळे रहती हैं। हम उनसे मिलने गए। वे कई वर्ष पूर्व नर्मदा परिक्रमा करने निकली थीं। इस अवसर पर उन्हें जो अनुभव मिला तो वे सब कुछ छोड़कर अपने पति के साथ नर्मदा के तट पर घर बनाकर रहने लगीं। आज वे उन लोगों की सेवा करती हैं जो पदयात्रा करते हुए परिक्रमा करते हैं। ऐसे कई यात्री और श्रद्धालु हैं जो नदी के तट पर से ही यात्रा करते हैं। यह और भी कठिन यात्रा है। बीहड़ जंगल, भरी हुई अन्य छोटी नदियों तथा पहाड़ और असमतल मार्ग का उन्हें सामना करना पड़ता है। ऐसे लोग अक्सर प्रतिभाताई के घर रुकते हैं। उन्हें पूर्ण आराम और निःशुल्क सेवा प्रदान की व्यवस्था चितळे दंपति स्वयं करते हैं। संपूर्ण समर्पण का उत्कृष्ट उदाहरण हैं चितळे दंपति। नर्मदा मैया का श्रद्धालुओं के प्रति सेवा भाव और स्नेह का दर्शन आप यहाँ कर सकते हैं। वरना गृहस्थ जीवन उत्सर्गित करके कोई इस तरह सेवा कैसे भला कर सकता है!!

अब तक हमारी यात्रा के बारह दिन निकल चुके थे। हम एक रात हरदा में रहे। पट्टभिराम मंदिर का दर्शन किया जो अपने आप में एक अद्भुत सुंदर पुरातन मंदिर है। पदयात्री यहाँ भी अमरकंटक से लौटते समय रुकते हैं और निःशुल्क आवास, भोजन, स्नान आदि की सुविधाएँ पाते हैं।

हमारी यात्रा अब समाप्ति की ओर थी। हम लौटकर ओंकारेश्वर आए, इस बार हमें गजानन महाराज के आश्रम में एक कमरा मिल ही गया। यह नर्मदा नदी के तट से थोड़ी दूरी पर स्थित है। स्वच्छ तथा सुलभ व्यवस्था जिसके लिए एक छोटी -सी रकम ली जाती है। परंतु जो पदयात्री होते हैं उन्हें प्राथमिकता दी जाती है और उनके लिए सभी सुविधाएँ निःशुल्क हैं।

फिर एक बार मैया के जल में स्नान करने का हम सबको स्वर्णिम अवसर मिला। स्नान के बाद वस्त्र बदलने के लिए हर घाट पर छोटे -छोटे अस्थायी कमरे जैसा बना हुआ होता है जहाँ सभी जाकर गीले वस्त्र बदल सकते हैं। अबकी बार हम सब चलकर ऊँचे पुल पर चलकर ओंकारेश्वर मंदिर में दर्शन करने गए। अपनी भक्ति और आस्था से भोलेनाथ का उत्तम दर्शन हम सबने पाया। अभिषेक का भी अवसर मिला।

अगले दिन हम उज्जैन के लिए निकले। दो दिन दो ज्योतिर्लिंग के दर्शन को हमने अपना अहो भाग्य माना।

हमारी यह संपूर्ण यात्रा न केवल सुखद रही बल्कि विश्वास दृढ़ हो गया कि चाहे कोई कितना भी प्रयास कर ले, गुलाम बना लिया अत्याचार कर लिया, तलवारें चला लीं, मंदिरों को क्षति पहुँचाई पर सनातन धर्म न डिगा।

देश की हर नदी पूजनीय है। वह जीवन दान देती है। वह माता है। हम सबका पोषण करती है। यही कारण है कि भारत आज भी हिंदुत्व को जीवित रखने में सक्षम है।

दुनिया में हर जगह नदियाँ बहती हैं, उसके किनारे ही दुनिया बसती है पर भारतीय संस्कृति ने नदियों को, पेड़ों को जंगलों को जीवित माना है। उनकी पूजा की जाती है और आज भी करते हैं। कर्नाटक में विशाल मंदिर है जहाँ बनशंकरी की पूजा होती है। इसी माता बनशंकरी ने हनुमान जी का मार्ग दर्शन किया था और वे लंका तक जा पहुँचे थे। यह आस्था ही तो है जो हमारे धर्म को जीवित रखती है।

दुनिया हेवन माँगती है, जन्नत माँगती है ताकि मरने के पश्चात भी आनंद लिया जा सके परंतु सनातन धर्म कर्मों के बल पर मोक्ष का मार्गदर्शन करता है।

जीवन के अंत में जिसने जन्म दिया उसीमें एकाकार हो जाने की उत्कट इच्छा ही सनातन धर्म है। ।

नर्मदे हर, नर्मदे हर, नर्मदे हर!

अनायासेन मरणं विना दैन्येन जीवनम्। देहान्ते तव सायुज्यं देहि मे परमेश्वरम् ॥

© सुश्री ऋता सिंह

28/3/2022

फोन नं 9822188517, ईमेल – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 140 – “मौन के अनुनाद से भरा मैं”. . .” – श्री अजय श्रीवास्तव “अजेय” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री अजय श्रीवास्तव “अजेय” जी की संपादित पुस्तक  मौन के अनुनाद से भरा मैंपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 140 ☆

☆“मौन के अनुनाद से भरा मैं”. . .” – श्री अजय श्रीवास्तव “अजेय” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

मौन के अनुनाद से भरा मैं

अजय श्रीवास्तव “अजेय”

हिन्द युग्म ब्लू , दिल्ली 

संस्करण २०१९

सजिल्द , पृष्ठ १२८, मूल्य २००रु

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव , भोपाल 

अजय बने हुये कवि नहीं हैं. वे जन्मना संवेदना से भरे, भावनात्मक रचनाकार हैं ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

किताब के बहाने थोडी चर्चा प्रकाशक की भी. वर्ष २००७..२००८ के आस पास की बात होगी. हिन्दी ब्लागिंग नई नई थी. इंजी शैलेष भारतवासी और साथियों ने हिन्द युग्म ई प्लेटफार्म को विकसित करना शुरू किया था. काव्य पल्लवन नाम से दिये गये विषय पर पाक्षिक काव्य प्रतियोगिता आयोजित की जाती थी. इंटरनेट के जरिये बिना परस्पर मिले भी अपने साहित्यिक कार्यों से युवा एक दूसरे से जुड़ रहे थे. काव्य पल्लवन के लिये कई विषयों का चयन मेरे सुझाव पर भी किया गया. फिर दिल्ली पुस्तक मेले में हिन्द युग्म ने भागीदारी की. वहां मैं मण्डला से पहुंचा था, जिन नामों से कम्प्यूटर पर मिला करता था उनसे प्रत्यक्ष भेंट हुई. हिन्द युग्म साहित्यिक स्टार्टअप के रूप में स्थापित होता चला गया. आज की तरह लेखक के व्यय पर किताबें छापने का प्रचलन तब तक ढ़ंका मुंदा ही था, पर हिन्द युग्म ने सत्य का स्पष्ट प्रस्तुतिकरण किया. स्तरीय सामग्री के चयन के चलते प्रकाशन बढ़ चला. और आज हिन्दयुग्म स्थापित प्रकाशन गृह है, जो रायल्टी भी देता है और पारदर्शिता से लेखकों को मंच दे रहा है. नई वाली हिन्दी स्लोगन के साथ अब तक वेअनेक लेखको की ढ़ेर किताबें प्रायः सभी विधाओ में छाप चुके हैं. अस्तु पेशे से इंजीनियर पर मन से सौ फीसदी कवि अजय श्रीवास्तव “अजेय” की यह कृति “मौन के अनुनाद से भरा मैं ” भी हिन्द युग्म से बढ़िया गेटअप में प्रकाशित है.

डा विष्णु सक्सेना ने किताब की सारी कविताओ को बारीकी से पढ़कर विस्तृत समालोचना की है जो किताब के प्रारंभिक पन्नो में शामिल है. इसे पढ़कर आप कविताओ का आनंद लेने से पहले कवि को समझ सकते हैं. पुस्तक में ५१ दमदार मुक्त छंद शैली में कही गई प्रवाहमान नई कवितायें शामिल हैं. मुझे इनमें से कई कविताओ को अजय जी के मुंह से उनकी बेहद प्रभावी प्रस्तुति में सुनने समझने तथा आंखे बन्द कर कविता से बनते चित्रमय आनंद लेने का सुअवसर मिला है. यह श्रीवास्तव जी का तीसरा कविता संग्रह है. स्पष्ट है कि वे अपनी विधा का जिम्मेदारी से निर्वाह कर रहे हैं. भूमिका में अजय लिखते हैं कि ” मेरी कवितायें आंगन के रिश्तों की बुनियाद पर कच्ची दीवारों सी हैं जिन पर कठिन शब्दों का मुलम्मा नहीं है. वे बताते हैं कि हर कविता के रचे जाने का एक संयोग होता है, हर कविता की एक यात्रा होती है.”

सचमुच अपने सामर्थ्य के अनुसार अनुभवों और परिवेश को कम से कम शब्दों में उतारकर श्रोता या पाठक के सम्मुख शब्द चित्र संप्रेषित कर देने की अद्भुत कला के मर्मज्ञ हैं अजय जी. कविताये पढ़ते हुये कई बार लगा कि अजय कवि बड़े हैं या व्यंग्यकार ? वे समाजशास्त्री हैं या मनोविज्ञानी ?

पीठ पर बंधा

नाक बहाता

चिल्लाता नंगा बच्चा

या

आत्म शुद्धि करता हूं

दिल दिमाग का

और आत्म शुद्धि करता हूं

दिल और दिमाग का

मन के गटर में सड़ांध मारते

गहरे तले में बैठे

बुराइयों को ईर्ष्या को डाह को साफ करता हूं.

अपनी कविताओ से वे सीधे पाठक के अंतस तक उतरना जानते हैं. विष्णु सक्सेना लिखते हैं कि इन कविताओ के भाव पक्ष इतने प्रबल हैं कि पढ़ते हुये आंखे नम हो जाती हैं. यह नमी ही रचनाकार और रचना की सबसे बड़ी सफलता है.

शीर्षक कविता से अंश पढ़िये…

मौन उस काले जूते का, उस चश्में का

उस छाते का

जिसे बाउजी चुपचाप छोड़ गये.

उनकी रचनाओ में सर्वथा नयी उपमायें,नये प्रतिमान सहज पढ़ने मिलते हैं….

पानी में तैरते

दीपों के अक्स

प्रतिबिंबित होते हैं

आसमान पर

छिटक छिटक कर

या

घूमती रहती हे पृ्थ्वी

मंथर गति से

सांस की तरह

और मैं

एक ठोस,

इकट्ठे सूरज की तलाश में

उलझ जाता हूं.

मैं कह सकता हूं कि अजय बने हुये कवि नहीं हैं. वे जन्मना संवेदना से भरे, भावनात्मक रचनाकार हैं. यह संग्रह खरीद कर पढ़िये आपको कई स्वयं के देखे किन्तु संवेदना के उस स्तर की कमी के चलते ओझल दृश्य पुनः शब्द चित्रों के माध्यम से देखने मिलेंगे. अजय से हिन्दी नई कविता को बेहिसाब उम्मीदें हैं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 38 – देश-परदेश – बिल्ली मौसी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 38 ☆ देश-परदेश – बिल्ली मौसी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज प्रातः भ्रमण के समय घरों और सड़कों पर अनेक स्थानों पर बिल्लियों की चहल कदमी देख कर आश्चर्य हुआ। सामान्यतः श्वान सड़कों में विचरण करते हुए ही बहुतायत में पाए जाते हैं। प्रथम मन में विचार आया की सुबह बिल्ली का रास्ता काटना शुभ नहीं माना जाता है, तभी ऊपर लगे बैनर पर दृष्टि पड़ी, तो लगा इस घर में रहने वाले तो हर समय ही बिल्लियों के बीच में रहकर भी रईस प्रतीत हो रहे हैं। शायद ये मान्यताएं अब बदल गई हैं। घर वापसी के समय जब दूध का पैकेट लिया तो विक्रेता ने कहा आज तो “शरत पूर्णिमा” है, अतिरिक्त दूध ले जाए, खीर बनती है। तब समझ में आया बिल्लियों की चहलकदमी आने वाली रात्रि की तैयारी है, ताकि घर के बाहर रखी खीर को येन केन अपने भोजन का हिस्सा बनाया जाय। हो सकता है आने वाले कल के दिन “कबूतरों” के शिकार कम हों, क्योंकि ये बिल्लियां रात्रि भर लोगों के घर के बाहर चांदनी रात में रखी हुई खीर का शिकार जो कर चुकीं होंगी।

कंजी आंख वाले मनुष्य को “बिल्ली आंख” या बिना आवाज़ के चलने वाले को भी “बिल्ली चाल” की उपमा देना हमारे दैनिक जीवन का ही भाग है।

विदेशों के समान अब हमारे देश में भी बिल्ली पालन अब स्टेटस सिंबल हो गया है। महानगरों में बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर श्वान के साथ ही साथ बिल्लियों के पालन के लिए भी अलग से खंड (विभाग) की व्यवस्था करे हुए हैं। जेब में पैसा होना चाहिए, बस! बिल्ली प्राणी पालतू श्रेणी में  आती है, चुंकि ये  सिंह परिवार का सदस्य है, और मांसाहारी भी है, इसलिए कुछ परिवार इससे दूरी बनाए रखते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 160 – सभी का आदर करें ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं बालसुलभता  पर आधारित एक विचारणीय  एवं शिक्षाप्रद बाल लघुकथा “सभी का आदर करें ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 160 ☆

☆ लघुकथा – 🙏 सभी का आदर करें 🙏

 

हमारी भारतीय परंपरा और बड़े बुजुर्गों का कथन – सदैव हमें जीवन में लाभ पहुँचाता है। ऐसा ही एक कथन “सभी का आदर करें” हमें बचपन से सिखाया जाता है।

कृति का आज दसवां जन्मोत्सव है सुबह से ही घर में तैयारियाँ हो रही थी। मेहमानों का आना जाना लगा था। मम्मी- पापा से लेकर नौकर चाकर सभी प्रसन्न होकर अपना – अपना काम कर रहे थे।

शानदार टेबल सजा हुआ था। मेहमान एक के बाद एक करके उपहार देते जा रहे थे। कृति भी बहुत खुश नजर आ रही थी। मम्मी पापा दोनों सर्विस वाले थे। घर पर आया एक मालिश वाली बाई थी। जो कभी दादी कभी मम्मी और कभी-कभी कृति के बालों, हाथ पैरों पर मालिश कर उसके दिन भर की थकान को दूर कर देती थी।

कृति की दादी पुरानी कहानियों के साथ-साथ वह सभी बातें सिखाती थी। जो अक्सर हम दादी नानी के मुँह से सुना करते हैं। दादी कहती अपने से बड़ों का और सभी का सदैव सम्मान आदर करना चाहिए, क्योंकि सभी के आशीर्वाद में ईश्वर की बात छुपी होती है।

कृति के मन पर भी यह बात बैठ गई थी। वह भी बहुत ही मिलनसार थी। परंतु मम्मी की थोड़ी नाराजगी रहती इस वजह से चुप हो जाया करती थी। मम्मी कहती छोटों को मुंह नहीं लगाना चाहिए।

कृति ने देखा मालिश वाली अम्मा अपने पुराने से झोले में कुछ निकालती फिर रख लेती। उसे वह दे नहीं पा रही थी। उसे लग रहा था इतने सारे सुन्दर गिफ्ट में बेबी मेरा छोटा सा बाजा का क्या करेगी।

कृति दौड़कर आया बाई के पास आई और पैर छू लिए और बोली अम्मा मेरे लिए कुछ नहीं लाई हो। बस फिर क्या था आया अम्मा की आँखों से आँसू बह निकले और अपने झोले से निकालकर वह  मुड़े टुडे कागजों से बंधा खिलौना कृति के हाथों में दे दिया।

कृति ने झट उस खिलौने को निकाल कर मुँह से बजाने लगी और पूरे दालान में लगे सजावट के साथ-साथ भागने लगी। एक बच्चा, दूसरा बच्चा और पीठ पीछे बच्चों की लाइन लगती गई। बच्चों की रेलगाड़ी बन चुकी थी। आगे-आगे कृति उस बाजे को बजाते हुए और बच्चे एक दूसरे को पकड़े पकड़े दौड़ लगा रहे थे।

सभी लोग ताली बजा रहे थे। फोटोग्राफर ने खूब तस्वीरें निकाली। दादी ने खुश होकर कहा.. “अब मुझे चिंता नहीं है मेरी कृति अनमोल कृति है उसने सभी का आदर करना सीख लिया है।”

मालिश वाली बाई मम्मी से कह रही थी.. “खेलने दीजिए मेम साहब मैं अच्छे से मालिश कर उसकी थकान उतार दूंगी”, परंतु वह जानती थी। कृति तो आज उसको आदर दें उसे खुश कर रही है। दिल से दुआ निकली जुग जुग जिये बिटिया रानी ।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #192 ☆ करुणा सागर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 192 ?

करुणा सागर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

अनेक वळणे घेते होते तयार अक्षर

भाग्य लाभले अक्षरास ते नाही नश्वर

काला अक्षर भैस बराबर मूर्खांसाठी

अक्षर अक्षर गिरवत होई कुणी कलेक्टर

मुळाक्षरांना ईश्वर मानू पूजा बांधू

मिळेल आशिष होऊ आम्ही सारे साक्षर

अक्षर ओळख नाही त्याची ऐसी दैना

मूर्ख अडाणी आणिक म्हणती त्याला पामर

साहित्याचे जुने बाड अन् ग्रंथ जपूया

संगणकावर देऊ जागा करून आदर

माठ मातिचा इथे बनवला कुंभाराने

वर्गामधले माठ घडवतो आहे मास्तर

मराठीतली अभंग, ओवी अभंग आहे

या संताचा ठेवा म्हणजे करुणा सागर

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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