हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 141 ☆ काव्य समीक्षा – शब्द अब नहीं रहे शब्द – डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा डॉ राजकुमार तिवारी ”सुमित्र’ जी की कृति “आदमी तोता नहीं” की काव्य समीक्षा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 141 ☆ 

☆ काव्य समीक्षा – शब्द अब नहीं रहे शब्द – डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

काव्य समीक्षा

शब्द अब नहीं रहे शब्द(काव्य संग्रह)

डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

प्रथम संस्करण २०२२

पृष्ठ -१०४

मूल्य २५०/-

आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१८-९

पाथेय प्रकाशन जबलपुर

शब्द अब नहीं रहे शब्द :  अर्थ खो हुए निशब्द – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

*

[, काव्य संग्रह, डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’, प्रथम संस्करण २०२२, पृष्ठ १०४, मूल्य २५०/-, आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१८-९, पाथेय प्रकाशन जबलपुर]

*

 कविता क्या है?

 

कविता है

आत्मानुभूत सत्य की

सौ टंच खरी शब्दाभिव्यक्ति।

 

कविता है

मन-दर्पण में

देश और समाज को 

गत और आगत को

सत और असत को

निरख-परखकर

कवि-दृष्टि से

मूल्यांकित कार

सत-शिव-सुंदर को तलाशना।

 

कविता है

कल और कल के

दो किनारों के बीच

बहते वर्तमान की

सलिल-धार का 

आलोड़न-विलोड़न।

 

कविता है

‘स्व’ में ‘सर्व’ की अनुभूति

‘खंड’ से ‘अखंड’ की प्रतीति

‘क्षर’ से ‘अक्षर’ आराधना

शब्द की शब्द से

निशब्द साधना।

*

कवि है

अपनी रचना सृष्टि का

स्वयंभू परम ब्रह्म

‘कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू’।

 

कवि चाहे तो

जले को जिला दे।

पल भर में  

शुभ को अमृत

अशुभ को गरल पिला दे।

किंतु

बलिहारी इस समय की

अनय को अभय की

लालिमा पर

कालिमा की जय की।

 

कवि की ठिठकी कलम

जानती ही नहीं

मानती भी है कि

‘शब्द अब नहीं रहे शब्द।’

 

शब्द हो गए हैं

सत्ता का अहंकार

पद का प्रतिकार    

अनधिकारी का अधिकार

घृणा और द्वेष का प्रचार

सबल का अनाचार

निर्बल का हाहाकार।

 

समय आ गया है

कवि को देश-समाज-विश्व का

भविष्य उज्जवल गढ़ने के लिए

कहना ही होगा शब्द से 

‘उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत’

उठो, जागो, बोध पाओ और दो

तुम महज शब्द ही नहीं हो

यूं ही ‘शब्द को ब्रह्म नहीं कहा गया है।’३  

*

‘बचाव कैसे?’४

किसका-किससे?

क्या किसी के पास है

इस कालिया के काटे का मंत्र?

आखिर कब तक चलेगा 

यह ‘अधिनायकवादी प्रजातन्त्र?’१५

‘जहाँ प्रतिष्ठा हो गई है अंडरगारमेंट

किसी के लिए उतरी हुई कमीज।‘१६

‘जिंदगी कतार हो गई’ १७

‘मूर्तियाँ चुप हैं’ १८

लेकिन ‘पूछता है यक्ष’१९ प्रश्न

मौन और भौंचक है

‘खंडित मूर्तियों का देश।’१९

*

हम आदमी नहीं हैं

हम हैं ‘ग्रेनाइट की चट्टानें’२०

‘देखती है संतान

फिर कैसे हो संस्कारवान?’२१

मुझ कवि को

‘अपने बुद्धिजीवी होने पर

घिन आती है।‘२३

‘कैसे हो गए हैं लोग?

बनकर रह गए हैं

अर्थहीन संख्याएँ।२४

*

रिश्ता

मेरा और तुम्हारा

गूंगे के गुड़ की तरह।२६

‘मैं भी सन्ना सकता हूँ पत्थर२८

तुम भी भुना सकते हो अवसर,

लेकिन दोस्त!

कोई उम्मीद मत करो

नाउम्मीद करने-होने के लिए। २९ 

तुमने 

शब्दों को आकार दे दिया  

और मैं

शब्दों को चबाता रहा। ३०

किस्से कहता-

‘मैं भी जमीन तोड़ता हूँ,

मैं कलम चलाता हूँ।३१

*

मैं

शब्दों को नहीं करता व्यर्थ।

उनमें भरता हूँ नित्य नए अर्थ।

मैं कवि हूँ

जानता हूँ

‘जब रेखा खिंचती है३२

देश और दिलों के बीच

कोई नहीं रहता नगीच।

रेखा विस्तार है बिंदु का

रेखा संसार है सिंधु का

बिंदु का स्वामी है कलाकार।‘३३ 

चाहो तो पूछ लो

‘ये कौन चित्रकार है ये कौन चित्रकार?’

 समयसाक्षी कवि जानता है

‘भ्रष्टाचार विरोधी जुलूस में

वे खड़े हैं सबसे आगे

जो थामे हैं भ्रष्टाचार की वल्गा।

वे लगा रहे हैं सत्य के पोस्टर

जो झूठ के कर्मकांडी हैं।३६

*

लड़कियाँ चला रही हैं

मोटर, गाड़ी, ट्रक, एंजिन

और हवाई जहाज।

वे कर रही हैं अंतरिक्ष की यात्रा,

चढ़ रही हैं राजनीति की पायदान

कर रही हैं व्यापार-व्यवसाय

और पुरुष?

आश्वस्त हैं अपने उदारवाद पर।३७

क्या उन्हें मालूम है कि

वे बनते जा रहे हैं स्टेपनी?

उनकी शख्सियत

होती जा रही है नामाकूल फनी। 

मैं कवि हूँ,

मेरी कविता कल्पना नहीं

जमीनी सचाई है।  

प्रमाण?

पेश हैं कुछ शब्द चित्र

देखिए-समझिए मित्र!

ये मेरी ही नहीं

हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे और

ख़ास-उल-खास की

जिंदगी के सफे हैं। 

 

‘जी में आया 

उसे गाली देकर

धक्के मारकर निकाल दूँ

मगर मैंने कहा- आइए! बैठिए।४४  

 

वे कौन थे

वे कहाँ गए

वे जो

धरती को माँ

और आकाश को पिता कहते थे

 

दिल्ली में

राष्ट्रपति भवन है,

मेरे शहर में

गुरंदी बाजार है।४७ 

 

कलम चलते-चलते सोचती है

काश! मैं

अख्तियार कर सकती

बंदूक की शक्ल।

 

मेरे शब्द

हो गए हैं व्यर्थ।

तुम नहीं समझ पाए

उनका अर्थ। ५२

 

आज का सपना

कल हकीकत में तब्दील होगा

जरूर होगा।५३

 

हे दलों के दलदल से घिरे देश!

तुम्हारी जय हो। 

ओ अतीत के देश

ओ भविष्य के देश

तुम्हारी जय हो।

*

ये कविताएँ

सिर्फ कविताएँ नहीं हैं,

ये जिंदगी के

जीवंत दस्तावेज हैं। 

ये आम आदमी की

जद्दोजहद के साक्षी हैं।

इनमें रची-बसी हैं

साँसें और सपने

पराए और अपने

इनके शब्द शब्द से

झाँकता है आदमी। 

ये ख़बरदार करती हैं कि

होते जा रहे हैं

अर्थ खोकर निशब्द,

शब्द अब नहीं रहे शब्द।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२६-५-२०२३, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य की दुनिया ☆ प्रस्तुति – श्री कमलेश भारतीय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्य की दुनिया – श्री कमलेश भारतीय  🌹

(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है। देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल / पुस्तक मेले / साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)

☆ साहित्यिक गोष्ठियों का सिलसिला ☆

साहित्यिक गोष्ठियों का अलग अलग शहरों में सिलसिला जारी है जिससे संवाद और विचार विमर्श होने से लेखक अपनी रचना को और खूबसूरत बना सकते हैं। ये गोष्ठियां अपने ही खर्च और कोशिश से की जाती हैं। मुझे हरियाणा में कैथल की साहित्य सभा की गोष्ठियों का सफर याद है जो चालीस वर्ष से ऊपर होने जा रहा है। जालंधर में पंकस अकादमी पिछले छब्बीस वर्ष से वार्षिक साहित्यिक समारोह व सम्मान देती आ रही है। इसी प्रकार गाजियाबाद में कथा रंग संस्था प्रतिमाह कथा गोष्ठी का आयोजन करती है तो इलाहाबाद में कहकशां भी ऐसे आयोजन करती रहती है। शिमला में हिमालय मंच और परिवर्तन संस्थायें सक्रिय हैं। पंचकूला के पास साहित्य संगम संस्था चल रही है। इस तरह अनेक शहरों में अनेक संस्थायें साहित्य को गोष्ठियों के माध्यम से आगे बढ़ा रही हैं ।

डाॅ अजय शर्मा की औपन्यासिक यात्रा : त्रिवेणी साहित्य अकादमी, जालंधर के तत्वावधान में डॉ अजय शर्मा के उपन्यास ‘शंख में समंदर‘ पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। डा. अजय शर्मा वर्तमान में पंजाब के ही नहीं भारत के प्रमुख उपन्यासकारों में से एक हैं। डॉ तरसेम गुजराल ने उनकी रचना प्रक्रिया पर विस्तारपूर्वक जानकारी दी और उनकी औपन्यासिक यात्रा की यात्रा के बारे में प्रकाश डालते हुए कहा, यह एक प्रयोगधर्मा उपन्यास है। प्रो. सरला भारद्वाज ने शिल्प विधा की मौजूदा स्थितियों की व्याख्या का उल्लेख करते हुए कहा, डा अजय ने इस उपन्यास में सभी विधाओं का प्रयोग करते हुए एक नई परंपरा को जन्म दिया है। डा विनोद शर्मा ने उपन्यास के नए कलेवर की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उपन्यास पर चर्चा की। इस तरह की गोष्ठियों का आयोजन गीता डोगरा ने शुरू किया है। उन्होंने बताया कि डाॅ अजय शर्मा पंजाब के ऐसे साहित्यकार हैं जो देश, काल परिस्थिति के अनुरूप लिखते हैं। प्रो. बलवेन्द्र सिंह,  प्रो. रमण शर्मा, रीतू कलसी , डाॅ कुलविंद्र कौर , कैलाश भारद्वाज और लुधियाना से आई सीमा भाटिया ने भी उपन्यास पर अपने विचार रखे ।

सृजन कुंज सेवा संस्थान  : श्रीगंगानगर ( राजस्थान) में सन् 2014 से सृजन कुंज सेवा संस्थान सक्रिय है जो प्रतिमाह ‘लेखक से मिलिये’ कार्यक्रम का आयोजन करता है। अब तक इसके सौ से ऊपर आयोजन हो चुके हैं। इसके साथ ही साहित्य कुंज नाम से पत्रिका प्रकाशन भी किया जा रहा है। इसके संयोजक डाॅ कृष्ण कुमार आशु ने बताया कि प्रतिवर्ष विविध विधाओं में नौ पुरस्कार भी दिये जाते हैं। लेखक से मिलिये कार्यक्रम में किसी भी लेखक को रिपीट नहीं किया जाता। यह संस्था साहित्य की अनुपम सेवा कर रही है। इसके लिये डाॅ कृष्ण कुमार आशु को सलाम तो बनता है ।

साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क – 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – फुल देखणे… – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?फुल देखणे– ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

फुल देखणे मला न भुलवी

गंधित  परिमल ना बोलावी

हवा मज मकरंद  आतला

चोच माझी अलगद मिळवी

एक थेंब त्या  मधुस्वादाने

खरी तृप्तता मनास मिळते

नाजुक सुमनातुन मध घेणे

निसर्गत: मज वरदानच ते

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #193 – 79 – “दरिया ए इश्क़ में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “दरिया ए इश्क़ में…”)

? ग़ज़ल # 79 – “दरिया ए इश्क़ में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

चार दिन की ज़िंदगी में दो दिन प्यार के,

मुसलसल इम्तहान चल रहे जीत हार के।

नाव मेरी है भंवर में  ना कोई नाख़ुदा,

है भरोसा पार होगी ये बिन पतवार के।

एक झलक पर मर मिटा दिवाना आशिक़,

हैं कई परवाने उस महताब ए रूखसार के।

कड़कड़ाती ठंड में उनकी मुहब्बत का असर,

कंबल सी मुलायम गर्मी देते पहलू यार के।

दरिया ए इश्क़ में हम गहरे उतरते चले गए,

अब भँवर में है सफ़ीना जज़्बाती अदाकार के।

इक दिया देहरी पे अब भी जल रहा उम्मीद का,

दिन ज़रूर बदलेंगे बारिश में खस ओ खार के।

आतिश अब तुम पर ख़ुदा तक का साया नहीं,

ज़िंदगी जी नहीं जाती बिना किसी दिलदार के।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 71 ☆ ।। सब कुछ धरा का, धरा पर, धरा ही रह जायेगा ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।। सब कुछ धरा का, धरा पर, धरा ही रह जायेगा ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

जीत का भी हार का भी  मज़ा कीजिए।

खिलकर बन संवर  कर सजा कीजिए।।

तनाव अवसाद ले जाते हैं  जीवन पीछे।

जो दिया खुशी से प्रभु ने  रजा कीजिए।।

[2]

बात बनती बात बिगड़ती जीवन धरम है।

वक्त पर भाग्य साथ दे यहअच्छे करम हैं।।

धूप छांव खुशी गम सब काआनंद लीजिए।

तभी कहते जीवन के रास्ते नरम गरम हैं।।

[3]

चिकनीचुपड़ी सूखी रोटी सबआनंद लीजिए।

जितना हो सके आप जरा परमार्थ कीजिए।।

धरा का सब  धरा पर   धरा ही रह जायेगा।

सुख दुःख जीवन में हर   रस पान पीजिए।।

[4]

यह जीवन बहुत अनमोल हर रंग स्वाद है।

वो जीता सुखशांति से जब ढंग निस्वार्थ है।।

जियो और जीने दो  का  मंत्र ही है सफल।

वो जीवन तो निष्कृष्ट जिसे लगी जंग स्वार्थ है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 135 ☆ बाल गीतिका से – “आजाद देश की पहचान…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “आजाद देश की पहचान…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “आजाद देश की पहचान…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आजाद देश की कई होती अलग पहचान

जैसे कि राष्ट्र चिह्न राष्ट्र ध्वज व राष्ट्रगान ॥

 

हर एक को हो इनका ज्ञान और सदा ध्यान

हर नागरिक को चाहिये दे इनको वे सन्मान ॥

 

इनका स्वरूप कैसे बना, क्या है इनका अर्थ

यह समझना जरूरी है जिससे न हो अनर्थ ॥

 

भारत के ये प्रतीक क्या हैं इनको जानिये

तीनों का अर्थ समझिये मन से ये मानिये ॥

 

सम्पन्नता, बलिदान, त्याग, गति, विकास की ।

देती है इनसे निकलती किरणें प्रकाश की ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 156 – माझे अण्णा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 156 – माझे अण्णा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

वालुबाई पोटी।

जन्माले सुपुत्र।

भाऊराव छत्र।

तुकोबांचे।।१।।

 

वाटेगावाचे हो

भाग्य किती थोर।

उजळली भोर।

तुकोबाने।।२।।

 

कथा कादंबरी।

साहित्यिक तुका।

पोवाड्यांचा ठेका।

अभिजात।।३।।

 

गण गवळण।

वग, बतावणी।

समाज बांधणी।

अविरत।।४।।

 

वर्ग विग्रहाचे।

ज्ञान रुजविले।

किती घडविले।

क्रांतीसूर्य।।५।।

 

लाल बावट्याचे।

कार्य ते महान।

समाज उत्थान।

कार्यसिद्धी।।६।।

 

अविरत काम।

कधी ना आराम।

प्रसिद्धीस नाम।

अण्णा होय।।७।।

 

दीन दलितांचा।

आण्णा भाष्यकार।

टीपे कथाकार।

दुःखे त्यांची।।८।।

 

कथा कादंबऱ्या।

संग्रहांची माला।

कम्युनिस्ट चेला।

वैचारिक।।९।।

 

कलावंत थोर।

जगात संचार।

इप्टा कारभार।

स्विकारला।।१०।।

 

भुका देश माझा।

भाकरी होईन।

जीवन देईन।

शब्दातून।।१०।।

 

अनेक भाषात।

भाषांतर झाले।

जगात गाजले।

साहित्यिक ।।११।।

 

त्रिवार असू दे

मानाचा मुजरा ।

साहित्यिक खरा।

स्वयंसिद्ध।।१२।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – ☆ पुस्तकावर बोलू काही ☆ “सुनीता“ – सुश्री मंगला गोडबोले ☆ परिचय – सुश्री मधुमती वऱ्हाडपांडे ☆

सुश्री मधुमती वऱ्हाडपांडे

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “सुनीता“ – सुश्री मंगला गोडबोले ☆ परिचय – सुश्री मधुमती वऱ्हाडपांडे ☆ 

पुस्तक – सुनीताबाई

लेखिका : सुश्री मंगला गोडबोले

श्रेणी : व्यक्तिचित्रण

प्रकाशक : राजहंस प्रकाशन 

पृष्ठ संख्या : 198

मूल्य – 275

सुनीताबाई देशपांडे!  मराठी साहित्यसृष्टीतील एक अढळ तारा, महाराष्ट्राचे सर्वाधिक लाडके अन लोकप्रिय लेखक,  पु. ल. देशपांडे ह्यांच्या अर्धांगिनी!  हे एक सामान्यातलं असामान्य व्यक्तिमत्व! प्रखर, तीक्ष्ण बुद्धीमत्तेचं वरदान लाभलेली ही स्त्री मंगला गोडबोलेंच्या “सुनीताबाई” ह्या पुस्तकातून आपणासमोर विविध मनोज्ञ रूपात उलगडत जाते. पुस्तकाच्या सुरवातीलाच मंगलाताई म्हणतात की हा काही गौरव ग्रंथ किंवा स्मृती ग्रंथ नाही किंवा आरतीसंग्रह नाही तर त्यांना उमगलेल्या ह्या विलक्षण व्यक्तिमत्वाचा मागोवा घेण्याचा प्रयत्न आहे. त्यामुळेच हे संस्मरण नुसतेच  रंजक नसून अनेक  वेगवेगळ्या अर्थांनी उदबोधक झाले आहे. 1990 साली  प्रसिद्ध झालेल्या सुनीताबाईंच्या  ‘आहे मनोहर तरी …’ ह्या  परखड आत्मचरित्रपर पुस्तकाने साहित्यविश्वात खळबळ  उडवून दिलेली होती. अगदी मुखपृष्ठापासूनच आगळ्या वेगळ्या ठरलेल्या ह्या पुस्तकावर अनेकांनी विविध प्रतिक्रिया व्यक्त केल्यात. सुनीताबाईंवर भरपूर टीकाटिप्पणी ही झाली आणि तरीही त्यावर्षीच ते सर्वाधिक खपाचे पुस्तक ठरलं. मंगला गोडबोलेंनी “सुनीताबाई” पुस्तकात “आहे मनोहर तरी..” मधले बरेच संदर्भ वापरले आहेत.

“सुनीताबाई” हे पुस्तक तीन भागांमधे विभागले आहे. “असं जगणं”, “असं लिहिणं” आणि “असं वागणं” !

“असं जगणं” मधे  सुनीताबाईंच्या अगदी बालपणापासूनचे सगळे वर्णन आलेले आहे. सुनीताबाईंचे वडील म्हणजे रत्नागिरीचे प्रसिद्ध फौजदारी व सरकारी वकील  सदानंद महादेव ठाकूर उर्फ अप्पा! त्यांच्याकडून आपण निवृत्ती तथा  निर्मोहीपणा उचलला तर आई सरलादेवींकडून आपणास मोठ्यांदा बोलणं, कुणाचंही तोंडावर कौतुक न करता येणं, स्पष्टवक्तेपणा, फटकळपणा, दीर्घोद्योगीपणा आणि लक्ख गोरा रंग ह्या गोष्टी वारसाहक्काने मिळाल्या असं त्या म्हणत. ही  सारी स्वभाव वैशिष्ट्ये त्या आठही भावंडांमध्ये  थोड्याफार फरकाने आलेली होती. वयाच्या  सोळाव्या वर्षांपर्यंत रत्नागिरीत राहिलेल्या सुनीताबाईंसाठी ‘रत्नागिरी’ हा कायम जिव्हाळ्याचा विषय होता. लहानपणा पासूनच त्या अतिशय बुद्धिमान, मेहनती, ध्येयवादी, कलासक्त आणि जिद्दी होत्या. हातात घेतलेलं कुठलंही काम परफेक्ट करण्याकडे त्यांचा कल असायचा. सोळाव्या वर्षी मॅट्रिक च्या परीक्षेत अतिशय चांगले यश मिळवल्यानंतर पुढील शिक्षणासाठी त्या भावासोबत मुंबईला आल्यात. पण त्याचवेळी ‘चले जावं’ चळवळीला तोंड फुटलं आणि सुनीताबाईंनी  शिक्षणाला रामराम ठोकून स्वतः ला त्यात झोकून दिलं. चळवळीने त्यांच्या  विचारांना आणखी समृद्ध करत जीवनाला एक वेगळी दिशा दिली. स्वतः मधल्या क्षमतेची त्यांना जाणीव झाली. साधेपणातल्या मूल्यांची ओळख पटली. स्वावलंबी होण्यासाठी त्यांनी मग माटुंग्याच्या एका शाळेत नोकरी पत्करली. तेथेच त्यांची पुलंशी ओळख झाली आणि हळूहळू ओळखीचे रूपांतर स्नेहबंधात झाले. आणि बघता बघता पुलंमधल्या उमद्या कलावंताच्या प्रेमात सुनीताबाई केव्हा पडल्या त्यांनाही कळले नाही!  त्या काळातही सुनीताबाईंचे  विचार खूप सुधारक होते. लग्न नावाचे कृत्रिम बंधन त्यांना अनावश्यक वाटत होते. परंतु पुलंना कोणत्याही पद्धतीचे का होईना पण लग्न हवेच होते. त्यामुळे मग अतिशय साध्या  नोंदणी पद्धतीने 12 जून 1946 ला त्यांचे लग्न पार पडले. त्यासाठी लागणारा आठ आण्यांचा फॉर्म सुद्धा दुसऱ्याला त्रास किंवा भुर्दंड नको म्हणून सुनीताबाईंनी स्वतःच आणून ठेवला होता!  पुलंनी आपल्या ह्या लग्नाला  “भारतीय विवाहसंस्थेच्या इतिहासातला अभूतपूर्व विवाह” म्हणून गमतीने गौरवले आहे तर सुनीताबाईंनीही  “आठ आण्यातलं लग्न” ह्या आपल्या लेखात हे सगळं वर्णन खूप खुमासदार केलंय! लग्नानंतर त्यांना अनेक बदलांशी जुळवून घ्यावे लागले. स्वतःच्या तत्वांना मुरड न घालताही त्यांना ते छान जमले. त्यामुळेच सासर आणि माहेर दोन्ही कडे त्याची पत कायम राहिली. “माईआत्या वॉज द फायनल ऑथॉरिटी इन ठाकूर हाऊस” असा अभिप्राय त्यांची भाचरं नेहमी देत.

लग्नानंतरचा काही काळ दोघांसाठीही खूप संघर्षाचा गेला. पण अत्यंत अल्प पैशात आपण जगू शकतो ह्या विचारधारेमुळे त्यांना त्याचे काही वाटले नाही. कष्ट करण्याची त्यांची नेहमी तयारी असायची. मित्रमंडळींच भरपूर पाठबळही होतंच. हळूहळू नाटक, सिनेमा, लेखन अशा सर्वच आघाडींवर पुलं  नावारूपाला यायला लागले आणि नंतर त्या सगळ्याचे नियोजन करण्यात सुनीताबाई आकंठ बुडून गेल्यात. हे सगळं होत असताना ह्या विलक्षण बुद्धिमान स्त्रीने स्वतः च्या करिअर बद्दल कुठली ठोस विचार केला नाही. त्यादृष्टीने बघितलं तर त्या सर्वार्थाने आधुनिक काळातल्या डोळस पतिव्रता होत्या असे म्हणावेसे वाटते. त्यांच्या आयुष्यातला एक  छोटासा प्रसंग हे छानच अधोरेखित करतो.  सुनीताबाईंच्या एका वाढदिवसाला पुलं त्यांना म्हणाले, “सुनीता, तुला उद्या कोणती भेट देऊ सांग?” तर सुनीताबाईंनी काय मागावे? “तुझं आहे तुजपाशी” चा तिसरा अंक पुलंनी अर्धवट लिहून ठेवून दिला होता. सुनीताबाईंनी त्यांना तो अंक पूर्ण करून देण्याची मागणी केली आणि पुलंनी सुद्धा आपल्या पत्नीची ही  मागणी आनंदाने मान्य केली आणि काही तास सलग बसून त्यांची तो अंक पूर्ण केला! वाढदिवसाची अशी अनोखी भेट मागणारी सहचरी मिळणं हे पुलंचं सुद्धा भाग्यच म्हणायचं!  पुलंच्या पुढच्याही सर्व यशस्वी कारकिर्दीचे भरपूरसे श्रेय दर्जा बद्दल कुठलीही तडजोड न करणाऱ्या सुनीताबाईंकडे निश्चितच जाते. ह्या सगळ्या गोष्टी, त्यांच्या आयुष्यात आलेले अनेक सुप्रसिद्ध सहृदय, त्यांच्या कारकिर्दीचा चढता आलेख ह्या सगळ्यांबद्दल ह्या पाहिल्या भागात सविस्तर प्रकाश टाकला आहे.

पुस्तकाचा दुसरा भाग आहे “असं लिहणं!”. ह्यात सुनीताबाईंच्या एकूणच लेखनप्रवासाचा एक आढावा घेतला आहे. कुशाग्र बुद्धी, विपुल आणि विविध प्रकारचे वाचन, सूक्ष्म निरीक्षण शक्ती, चिंतनशील वृत्ती इत्यादि सगळ्या गुणांमुळे  त्यांना स्वतंत्र लेखन करणे अगदी सहज शक्य होते. परंतु वयाच्या साठीपर्यंत त्यांनी कधी फारसं लिखाण केलं नाही. मात्र त्यांचे पत्रलेखन अव्याहत सुरू होते. जी. ए. शी त्यांचा पत्रव्यवहार तर कित्येक दिवस सुरु होता. तेव्हा जी. ए. नी त्यांना अनेकदा स्वतंत्र लिखाणाबद्दल सुचविले. पण सुनीताबाई तो विषय तेथेच झटकून टाकत असत. बऱ्याच पुढे त्यांचा  आणि जी. ए. चा हा पत्रसंवाद  ‘प्रिय जी. ए..” ह्या पुस्तक रूपाने प्रसिद्ध झाला. दोन भिन्नलिंगी व्यक्तींमधली  निकोप, निर्मळ मैत्री अशी असावी म्हणून त्याचे वाचकांनी मनापासून स्वागतही केले. काही दिवसांनी 1983 साली त्यांचे  वडील गेले आणि सुनीताबाईंना वयाच्या त्या टप्प्यावर आतापर्यंत काय मिळवलं अन काय गमावलं ह्याचा लेखाजोखा मांडावासा वाटला. आणि गतजीवनातलं  जे जे आठवले ते ते त्या लिहायला लागल्या. पुढे जी. ए. कुलकर्णी ह्यांच्या निधनानंतर त्यांच्यावर लिहिलेला लेख ‘मौज’ च्या दिवाळी अंकात प्रसिद्ध झाला. आणि त्यांनी लिहिलेल्या  काही आठवणी ‘महाराष्ट्र टाइम्स’ मध्ये प्रसिद्ध झाल्या त्या वाचकांना इतक्या आवडल्या की त्याचे पुस्तक व्हावे अशी चहुबाजूने मागणी होऊ लागली आणि अखेर  “आहे मनोहर तरी ..” पुस्तकरूपाने वाचकांच्या भेटीस आले. ह्या पुस्तकाचे बाकी अभूतपूर्व असे स्वागत झाले. आणि सुनीताबाई एक प्रभावी, दखलपात्र लेखिका म्हणून वाचकांच्या समोर आल्या. ह्या पुस्तकावर प्रचंड मोठ्या प्रमाणात चर्चा, टीकाटिप्पण्णी झाली. अनेक बाजूंनी त्याची चिकित्सा झाली. त्याच्या सुमारे अठरा हजार प्रति हातोहात विकल्या गेल्यात. अनेक मानाचे पुरस्कार ह्या पुस्तकाने पटकावले. हिंदी, इंग्रजी, गुजराथी, कन्नड अशा अनेक भाषांमध्ये त्याचे अनुवादही  झाले. महत्वाचे म्हणजे 1990-91 मध्ये खुद्द पुलंच्या पुस्तकां पेक्षा जास्त विक्री “आहे मनोहर तरी..” ची  झाली!  त्यानंतर ‘समांतर लेख’ , ‘सोयरे सकळ’ , ‘मण्यांची माळ’ वगैरे पुस्तकांबद्दल सविस्तर वर्णन आपल्याला ह्या पुस्तकात वाचायला मिळते.

पुस्तकाचा तिसरा भाग म्हणजे “असं वागणं..” ह्यात सुनीताबाईंच्या एकूणच स्वभाव वैशिष्टांविषयी वर्णन आहे. त्यांची काव्याप्रती असलेली ओढ, त्यांच्यातली कर्तव्यतत्पर पत्नी, कठोर व्यवस्थापिका, आप्तस्वकीय आणि स्नेहीजण ह्याच्याशी त्याचे असलेले संबंध, त्याच्यामधला वात्सल्यभाव, कळवळा, वेदनेबद्दलची ची सहानुभूती, स्त्रीवादाचा पुरस्कार करत असूनही त्यांच्यातली गृहकृत्यदक्षता, संसारदक्षता अशा नानाविध पैलू अधोरेखित करणाऱ्या अनेक  घटना, प्रसंग ह्यात सविस्तर आलेले आहेत. मुख्य म्हणजे पुलंनी  सुनीताबाईंचं हे सार्वभौमत्व जाहीरपणे मान्य केलं होतं. कविश्रेष्ठ कुसुमाग्रजांनी तर ‘माणुसकीचे आकाश” मध्ये त्यांचा गौरव करतांना  म्हटलंय की  ‘कलावंताच्या पत्नीला पदराखाली दिवा नेणाऱ्या बाईसारखे दिव्य  करावं लागतं. दिवा विझू द्यायचा नाही, भडकू द्यायचा नाही आणि पदरही पेटू द्यायचा नाही. हे दिव्य  सुनीताबाईंनी अतिशय समंजसपणे आणि आनंदाने केलं आहे.’ पुलंची प्रतिभा आणि प्रतिमा दोन्ही असोशीने जपणाऱ्या सुनीताबाईंसाठी ही महत्वाची पावतीच होती. 

सरतेशेवटी ‘ऐसे कठीण कोवळेपण’ हा अरुणा ढेरेंचा एक स्वतंत्र लेख आहे ज्यात त्यांनी सुनीताबाईंचं एकूणच आयुष्य, त्यांचं  कविताप्रेम, त्यांच्या स्वभावातले विविध कंगोरे, त्यांची प्रगल्भता, पुलंच्या एकूणच यशस्वी कारकिर्दीच्या मागे असलेले त्यांचे अथक परिश्रम, कुठलीही गोष्ट सर्वोत्तम करण्याचा ध्यास, पुलंच्या जाण्यानंतर त्यांनी वरवर तरी सहज स्वीकारलेले एकटेपण, अगदी शेवटी त्यांना आलेलं परालंबीत्व इ. अनेक गोष्टींविषयी विस्ताराने लिहलंय. वाचता वाचता आपल्या डोळ्यासमोर सुनीताबाई नावाचं  लखलखीत  व्यक्तिमत्व साकारत जातं आणि आपण नतमस्तक होतो !

© सुश्री मधुमती वऱ्हाडपांडे

मो 9890679540

अकोला

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #186 ☆ मौन : सबसे कारग़र दवा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मौन : सबसे कारग़र दवा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 186 ☆

☆ मौन : सबसे कारग़र दवा 

‘चुप थे तो चल रही थी ज़िंदगी लाजवाब/ ख़ामोशियाँ बोलने लगीं तो मच गया बवाल’– यह है आज के जीवन का कटु यथार्थ। मौन सबसे बड़ी संजीवनी है, सौग़ात है। इसमें नव-निधियां संचित हैं, जिससे मानव को यह संदेश प्राप्त होता है कि उसे तभी बोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन से श्रेष्ठ, बेहतर व उत्तम हों। जब तक मानव मौन की स्थिति में रहता है; प्रत्युत्तर नहीं देता; न ही प्रतिक्रिया व्यक्त करता है– किसी प्रकार का भी विवाद नहीं होता। संवाद की स्थिति बनी रहती है और जीवन सामान्य ढंग से ही नहीं, सर्वश्रेष्ठ ढंग से चलता रहता है…जिसका प्रत्यक्ष परिणाम हैं वे परिवार, जहां औरत कठपुतली की भांति आदेशों की अनुपालना करने को विवश होती है। वह ‘जी हां!’ के अतिरिक्त वह कुछ नहीं कहती। इसके विपरीत जब उसकी चुप्पी अथवा ख़ामोशी टूटती है, तो जीवन में बवाल-सा मच जाता है अर्थात् उथल-पुथल हो जाती है।

आधुनिक युग में नारी अपने अधिकारों के प्रति सजग है और वह अपनी आधी ज़मीन वापिस लेना चाहती है, जिस पर पुरुष-वर्ग वर्षों से काबिज़ था। सो! संघर्ष होना स्वाभाविक है। वह उसे अपनी धरोहर समझता था, जिसे लौटाने में उसे बहुत तकलीफ हो रही है। दूसरे शब्दों में वह उसे अपने अधिकारों का हनन समझता है। परंतु अब वह बौखला गया है, जिसका प्रमाण बढ़ती तलाक़ व दुष्कर्म व हत्याओं के रूप में देखने को मिलता है। आजकल पति-पत्नी एक-दूसरे के पूरक नहीं होते; प्रतिद्वंदी के रूप में व्यवहार करते भासते हैं और एक छत के नीचे रहते हुए अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं। उनके मध्य व्याप्त रहता है–अजनबीपन का एहसास, जिसका खामियाज़ा बच्चों को ही नहीं; पूरे परिवार को भुगतना पड़ता है। सभी एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। एकल परिवार की संख्या में इज़ाफा हो रहा है और बुज़ुर्ग वृद्धाश्रमों की ओर रुख करने को विवश हैं। यह है मौन को त्यागने का प्रतिफलन।

‘एक चुप, सौ सुख’ यह है जीवन का सार। यदि आप मौन रहते हैं और कोई प्रतिक्रिया नहीं देते, तो समस्त वातावरण शांत रहता है और सभी समस्याओं का समाधान स्वत: हो जाता है। सो! आप घर-परिवार को बचा सकते हैं। इसलिए लड़कियों को जन्म से यह शिक्षा दी जाती है कि उन्हें हर स्थिति में चुप रहना है। कहना नहीं, सहना है। उनके लिए श्रेयस्कर है चुप रहना–इस घर में भी और ससुराल में भी, क्योंकि पुरुष वर्ग को न सुनने की आदत कदापि नहीं होती। उनके अहम् पर प्रहार होता है और वे बौखला उठते हैं, जिसका परिणाम भयंकर होता है। तीन तलाक़ इसी का विकृत रूप है, जिसे अब ग़ैर-कानूनी घोषित किया गया है। ग़लत लोगों से विवाद करने से बेहतर है, अच्छे लोगों से समझौता करना, क्योंकि अर्थहीन शब्द बोलने से मौन रहना बेहतर होता है। मानव को ग़लत लोगों से वाद-विवाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि उससे मानसिक प्रदूषण बढ़ता है। इसलिए सदैव अच्छे लोगों की संगति करनी बेहतर है। वैसे भी सार्थक व कम शब्दों में बात करना व उत्तर देना व्यवहार-कुशलता का प्रमाण होता है, अन्यथा दो क़रीबी दोस्त भी एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते।

‘एक्शनस स्पीक लॉउडर दैन वर्ड्स’ अर्थात् मानव के कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में बोलते हैं। इसलिए अपनी शेखी बखान करने से अच्छा है, शुभ कर्म करना, क्योंकि उनका महत्व होता है और वे बोलते हैं। सो! मानव के लिए जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाना अत्यंत कारग़र है और मौन रहना सर्वश्रेष्ठ। मानव को यथासमय व  अवसरानुकूल सार्थक ध्वनि  व उचित अंदाज़ में ही बात करनी चाहिए, ताकि जीवन व घर- परिवार में समन्वय व सामंजस्यता की स्थिति बनी रहे। मौन वह संजीवनी है, जिससे सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है और जीवन सुचारू रूप से चलता रहता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #185 ☆ अपनी यही कहानी… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी भावप्रवण कविता  अपनी यही कहानी।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 185 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – अपनी यही कहानी… ☆

तेरी मैं दिवानी

अपनी यही कहानी।

 

मिला तेरा प्यार

बीती है जवानी

 

साथ तेरा प्यारा

प्यारी है निशानी

 

जिंदगी सही है

जीवन है रवानी

 

बातें तेरी मीठी

सबको है सुनानी

 

कहते सबको सुनते

अपनी ही कहानी

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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