हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 133 ☆ # नवतपा… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# नवतपा… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 133 ☆

☆ # नवतपा… # ☆ 

अंबर से आग के शोले

बरस रहे हैं

पशु, पक्षी, मानव

छांव को तरस रहे हैं

बहती गर्म हवाएं

शरीर को झुलसा रही है

कंचन, कोमल काया

ताप से कुम्हला रही है

धरती जलकर

गर्म हो गई है

प्रेम में व्याकुल

दुल्हन सी

अंदर से नर्म

हो गई है

उसकी प्यास बढ़ती ही

जा रही है

दूर दूर से

मेघों की बारात

मृगतृष्णा जगा रही है

कभी कभी

छोटी छोटी बूंदें

आसमान से

धरती पर उतर आती है

बादलों में गर्जन

बिजुरी की कड़क

आंधी और तूफान

बहुत है पर कहीं

गर्मी से राहत

नजर नहीं आती है

हर सुबह

हर दोपहर

हर शाम

वो बावरी बन

आकाश में

ताक रही है

हर पल

हर घड़ी

हर वक्त

अपने प्रियंकर

मेघों को

झांक रही है

क्या यह नवतपा

प्रचंड तपकर

घनघोर मानसून लायेगा

या

धरती से झूठे वादे कर

काली घटाओं में छाकर

धरती को व्याकुल छोड़कर

राजनीतिक मौसम की तरह

वो बेवफा हो जायेगा  /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 134 ☆ अभंग – सूर्य ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 134 ? 

☆ अभंग – सूर्य ☆

मावळता सूर्य, घाईमध्ये होता

निघालाही होता, स्वस्थानाला. !!

 

त्याला मी बोललो, थांब ना रे थोडे

बोलणारे गडे, माझ्यासवे. !!

 

घाईत असता, बोलला तो सूर्य

अरे माझे कार्य, प्रकाशाचे. !!

 

जरी मी थांबलो, सर्व ही थांबेल

दोष ही लागेलं, माझ्या कार्या. !!

 

म्हणोनी न थांबणे, कार्य हे करणे

सदैव चालणे, नित्य-कार्या. !!

 

काल्पनिक भाव, माझा मी मांडला

त्यातून शोधला, गर्भ-अर्थ. !!

 

कवी राज म्हणे, शब्द अंतरीचे

आहे कल्पनेचे, साधे-शब्द. !!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #195 ☆ कहानी – एक मुख़्तसर ज़िन्दगी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसंवेदनशील एवं विचारणीय कहानी ‘एक मुख़्तसर ज़िन्दगी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 195 ☆

☆ कहानी ☆  एक मुख़्तसर ज़िन्दगी

विष्णु अपने माँ-बाप की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा था। पिताजी पढ़े-लिखे आदमी थे। एक स्कूल में टीचर। पढ़े-लिखे आदमियों की उम्मीदें बेपढ़े-लिखे आदमियों की तुलना में कुछ ज़्यादा होती हैं क्योंकि उन्हें दुनिया की जानकारी होती है। विष्णु के पिता ने भरसक अपने बेटों को काबिल बनाने की कोशिश की थी। दोनों बड़े बेटे काम लायक पढ़कर नौकरी में लग गये थे, लेकिन विष्णु का मन पढ़ने में नहीं लगा। स्कूल की परीक्षा किसी तरह पास करके वह कॉलेज में तो गया, लेकिन कॉलेज की डिग्री नहीं ले पाया।

कॉलेज में उसे एक ग्रुप मिल गया था जिसका लीडर एक पैसे वाला लड़का था। नाम अरुण। वह शहर के एक बड़े व्यापारी का बेटा था। पढ़ने-लिखने के बारे में उसका नज़रिया साफ था। उसे ज्ञान की नहीं, डिग्री की ज़रूरत थी जिससे उसे अपने समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त हो सके और ब्याह-शादी के मामले में उसकी स्थिति कमज़ोर साबित न हो। उसे नौकरी की ज़रूरत नहीं थी। इसलिए कॉलेज में कक्षा में बैठने के बजाय उसका ज़्यादातर वक्त कैंटीन में या इधर उधर ठलुएबाज़ी में गुज़रता था। उसके पिछलग्गू भी कक्षाएँ छोड़कर उसके पीछे डोलते रहते थे, यद्यपि उन सब की हैसियत उस जैसी नहीं थी। विष्णु भी उन्हीं में से एक था। अभी उसे भविष्य की चिन्ता नहीं थी। यही काफी था कि आज का दिन मस्ती में गुज़र रहा था।

अरुण ने ही विष्णु को कार चलाना सिखाया। उसके सैर-सपाटे की पूरी जानकारी उसके घर में न पहुँचे इसलिए वह ड्राइवर को पच्चीस पचास रुपये देकर कहीं भेज देता था और फिर स्टियरिंग विष्णु को सौंप देता था। विष्णु को कार चलाने में बड़ा मजा आता था। अरुण ने ही उसे ड्राइविंग लाइसेंस दिलवाया।

पिताजी विष्णु की लापरवाही से दुखी थे, लेकिन उनकी सारी सीख विष्णु के सिर पर से निकल जाती थी। उसे इस बात की कल्पना नहीं थी कि उसका भविष्य उसके वर्तमान से भिन्न हो सकता था। लगता था कि कल आज का ही विस्तार होगा।

विष्णु प्रथम वर्ष की परीक्षा में नहीं बैठा और इसके साथ ही अच्छी नौकरी पाने की उसकी संभावनाएँ खत्म हो गयीं। लेकिन उसे अभी समझ नहीं आयी क्योंकि अभी कोई बड़ा झटका नहीं लगा था। माता-पिता की कृपा से उसकी ज़िन्दगी की गाड़ी लुढ़क रही थी।

अरुण के साथ उसका घूमना-घामना  चलता रहा। कॉलेज से नाम कट जाने के बावजूद वह अब भी अरुण के पीछे-पीछे कॉलेज में डोलता रहता था। अरुण पास हो गया था क्योंकि घर में उसके लिए हर विषय के ट्यूटर लगे थे।

लेकिन विष्णु के पिता को उसका परीक्षा में न बैठना और फिर बेमतलब घूमना अखर रहा था। अब उसे गाहे-बगाहे उनकी झिड़की सुनने को मिल जाती थी। उनका कहना था कि यदि उसे उनके बताये रास्ते पर नहीं चलना है तो वह अपनी पसन्द का रास्ता चुने, लेकिन आवारागर्दी और व्यर्थ की ठलुएबाज़ी बन्द करे। उनके विचार से विष्णु अपनी हरकतों से उन्हें और अपनी माँ को तकलीफ दे रहा था, जिसका कोई औचित्य नहीं था।

विष्णु के भाई भी गाहे-बगाहे उसे ताना देने से नहीं चूकते थे। उनकी नज़र में वह खामखाँ बूढ़े माँ-बाप पर बोझ बना हुआ था। उनकी बातें सुन सुन कर विष्णु के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान में दीमक लगने लगी थी। माँ अभी खामोशी से उसके सामने भोजन की थाली रख देती थी, लेकिन अब निवाला विष्णु के गले में अटकने लगा था। उसे समझ में आने लगा था कि जो रोटी वह खा रहा है वह बेइज़्ज़ती की है। खाना खाते वक्त अब उसकी नज़र थाली से ऊपर नहीं उठती थी।

मुश्किल यह थी कि उसकी पढ़ाई को देखते हुए अच्छी नौकरी की कोई संभावना नहीं थी और घर में इतनी पूँजी नहीं थी कि वह  अपना कोई व्यवसाय शुरू कर सके। भाइयों को तनख्वाह के अलावा अच्छी ऊपरी कमाई भी होती थी, लेकिन उनके रुख को देखते हुए उनसे कुछ मिलने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। पिता-माता विष्णु को क्या देते हैं इस पर भी उनकी नज़र रहती थी।

विष्णु समझ गया कि अब बिना हाथ-पाँव चलाये काम नहीं चलेगा। मटरगश्ती से पूरी ज़िन्दगी नहीं काटी जा सकती। उसने अरुण से कहा कि उसे किसी निजी प्रतिष्ठान में नौकरी दिलवा दे और अरुण ने उसे आश्वस्त किया कि वह जल्दी उसे कहीं काम पर लगवा देगा।

एक हफ्ते बाद ही अरुण ने उसे एक टैक्सी-मालिक के पास भेज दिया जिसकी आठ दस टैक्सियाँ चलती थीं। उसका दफ्तर बस-स्टैंड के परिसर में था।

टैक्सी-मालिक को उसके जानने वाले बाबूभाई के नाम से पुकारते थे। वह मज़बूत काठी का अधेड़ आदमी था। हमेशा दस बारह दिन की बढ़ी दाढ़ी और पान से चुचुआते ओंठ। बात में पूरा व्यवसायी।

विष्णु से पहली भेंट में ही बोला, ‘कसाले का काम है, आराम की बात दिमाग से निकाल दो। दिन रात में कभी भी ड्यूटी हो सकती है, सवारी का क्या भरोसा! हम जरूरी आराम देने की कोशिश करेंगे, लेकिन कोई गारंटी नहीं दे सकते। सवारी के साथ पूरी ईमानदारी रखना है। सवारी गाड़ी में पर्स, सामान छोड़ देती है। उसमें गड़बड़ नहीं होना चाहिए। गड़बड़ी की तो बिना रू-रियायत के पुलिस में दे देंगे। सवारी दस तरह की होती है, सबके साथ एडजस्ट करने की आदत डालनी होगी। बदतमीजी बिलकुल नहीं। अभी पगार पाँच हजार होगी। बाहर भेजेंगे तो दो सौ रूपया रोज खाना- खूराक का देंगे। मंजूर हो तो जब से आना हो आ जाओ।’

विष्णु को सुनकर झटका लगा, लेकिन अभी उसके पास कोई विकल्प नहीं था। सोचा, कम से कम भाइयों का मुँह तो बन्द होगा। अभी अकेला छड़ा है, जब शादी होगी तब तक शायद कोई बेहतर नौकरी मिल जाए। पाँच हजार में से डेढ़ दो हजार माँ को देगा तो उन्हें भी अच्छा लगेगा और खुद उसे भी।

हफ्ते भर में ही उसकी समझ में आ गया कि टैक्सी- ड्राइवर का काम कितना मुश्किल  है। काम का कोई निश्चित समय नहीं। जब सवारी को दरकार हो, लेकर चल पड़ो। सब कुछ सवारी के हिसाब से, ड्राइवर के आराम के लिए कोई गुंजाइश नहीं। कुछ सवारियाँ इतनी बदतमीज़ होतीं कि उनके साथ चार कदम जाना सज़ा होती, लेकिन फिर भी शिष्टता का नाटक करते हुए उनकी सेवा में घंटों रहना पड़ता। पैसे के मद में झूमते लोग, ड्राइवर को आदमी भी न समझने वाले। मालिक भी ऐसा कि कभी-कभी घर पहुँच कर नहा-धो भी नहीं पाता कि बुलावा आ जाता, ‘जल्दी चलो, सवारी खड़ी है। बाहर जाना है।’

सवारी लेकर शहर से बाहर जाता तो मालिक की हिदायत रहती— ‘गाड़ी या तो गैरेज में रखना है या नजर के सामने। कुछ भी नुकसान हुआ तो जिम्मेदारी तुम्हारी।’ नतीजतन अक्सर गाड़ी के भीतर ही सोना पड़ता, चाहे कितनी भी असुविधा क्यों न हो। इसके अलावा सवारी यह उम्मीद करती कि उसे जिस वक्त भी आवाज़ दी जाए वह हाज़िर मिले। दो चार आवाज़ें लगाने के बाद सवारी की त्यौरियाँ चढ़ जातीं।

बाहर अक्सर टॉयलेट की सुविधा न मिलती। निर्देश मिलता, ‘बोतल लेकर सड़क के आसपास कहीं चले जाओ। वहीं कहीं नल पर नहा लेना।’

एक बार एक सवारी को लेकर उसके गाँव गया था। वहाँ पहुँचकर उसने सवारी से एक कप चाय की फरमाइश कर दी तो सवारी ने कुपित होकर सीधे बाबूभाई को फोन लगा कर उसकी गुस्ताखी की शिकायत कर दी। जैसा कि अपेक्षित था, बाबूभाई ने बाजारू भाषा में उस की खूब खबर ली और विष्णु ने आगे सवारी से कोई भी फरमाइश करने से तौबा कर ली।

विष्णु लगातार कोशिश कर रहा था  कि कहीं ऐसी जगह नौकरी मिल जाए जहाँ काम के घंटे निश्चित हों और पगार भी कुछ बेहतर हो। लेकिन दुर्भाग्य से कहीं जम नहीं रहा था ।अब उसे समझ में आ रहा था कि पढ़ाई बीच में छोड़ कर उसने कितनी बड़ी गलती की थी।

उसके पिता को यह नौकरी पसन्द नहीं थी, लेकिन माँ का खयाल और था। उनकी नज़र में वह काम-धाम से लग गया था, इसलिए अब उसकी शादी हो जानी चाहिए थी। उनके हिसाब से शादी-ब्याह की एक उम्र होती है। घर अपना था, बाकी भगवान पूरा करता है।

माँ ने ज़िद करके जल्दी ही उसकी शादी एक सामान्य परिवार में करा दी। शायद कहीं विष्णु की भी इच्छा रही हो क्योंकि उसे लगता था कि दो आदमियों का खर्च वह उठा सकता है। घर अपना होने के कारण इज्जत का फालूदा बनने की गुंजाइश कम थी। लड़की के बाप को बताया गया कि लड़का एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में नौकरी करता है।

शादी के बाद रश्मि के साथ विष्णु के कुछ दिन अच्छे कटे। एक दिन के लिए बाबूभाई ने उसे एक गाड़ी दे दी कि पेट्रोल भरा कर घूम-घाम ले। रश्मि ने उससे पूछा कि गाड़ी किसकी है, तो विष्णु का जवाब था, ‘अपनी ही समझो।’ उस दिन शहर के सभी दर्शनीय स्थानों की सैर हुई। खाना- पीना भी बाहर हुआ। रश्मि खूब आनंदित हुई।

लेकिन ये सुकून ज़्यादा दिन नहीं चला। एक रात ग्यारह बजे बाबूभाई का आदमी उनके सुख में खलल डालने आ गया। किसी सवारी को लेकर तुरन्त जाना था। रश्मि के ऐतराज़ के बावजूद विष्णु को जाना पड़ा। मना करने का मतलब नौकरी से हाथ धो लेना था, और शादी के बाद नौकरी उसकी और बड़ी ज़रूरत बन गयी थी।

फिर यह आये दिन की बात हो गयी। बाबूभाई का आदमी कभी भी सर पर सवार हो जाता, न रात देखता न दिन। रश्मि का माथा गरम होने लगा। कहती, ‘मैं कह देती हूँ कि तुम घर में नहीं हो।’ विष्णु उसके हाथ जोड़कर झटपट तैयार होकर भाग खड़ा होता।

रश्मि नाराज़ रहने लगी। वह विष्णु से पूछती थी कि यह कैसी नौकरी है जिसमें कभी भी पकड़ कर बुला लिया जाता है? उसने अभी तक ऐसी नौकरियाँ ही देखी थीं जिनमें आदमी सुबह काम पर जाता है और शाम को सब्ज़ी-भाजी लेकर वापस आ जाता है। उधर विष्णु जाता तो हफ्तों लौट कर न आता।

एक दिन विष्णु बाहर से लौटकर घर आया तो रश्मि की चिट्ठी उसका इंतज़ार कर रही थी। लिखा था— ‘मैं जा रही हूँ। अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती। जब कोई ढंग की नौकरी मिल जाए तो खबर करना। तब तक मुझे मत बुलाना।’

विष्णु बदहवास ससुराल पहुँचा, लेकिन रश्मि उससे नहीं मिली। उसके बड़े भाई ने बेरुखी से कहा, ‘कोई ठीक नौकरी ढूँढ़ लीजिए तो हम भेज देंगे। तब तक रश्मि को यहीं रहने दीजिए।’

विष्णु को आघात लगा। उसने सोचा था कि उसकी कठोर और थकाने वाली दिनचर्या के बाद रश्मि उसके लिए ठंडी छाँह होगी। उसे बताया गया था कि पति-पत्नी का रिश्ता जन्म- जन्म का होता है। उसका दिल टूट गया। वह, परास्त, घर लौट आया। जब वह घर पहुँचा तो बाबूभाई का आदमी उसे ढूँढ़ता फिर रहा था। एक जोड़े को लेकर चार दिन के लिए पचमढ़ी जाना था।

जाने वाले नवविवाहित दिखते थे। दोनों एक दूसरे में रमे थे, दीन दुनिया से बेखबर। विष्णु का मन ड्यूटी करने का बिलकुल नहीं था। उस जोड़े का प्यार देखकर उसे चिढ़ हो रही थी। उसे लग रहा था प्यार व्यार सब ढोंग है। ढोंग न होता तो रश्मि उसे छोड़कर इस तरह कैसे चली जाती?

सफर के दौरान गाड़ी में भी वह जोड़ा एक दूसरे से लिपट-चिपट रहा था। विष्णु का दिमाग भिन्ना गया। पलट कर युवक से बोला, ‘ठीक से बैठिए। दुनिया देखती है।’

युवक गुस्से से आगबबूला हो गया। डपट कर बोला, ‘गाड़ी रोक।’

गाड़ी रुकने पर वह विष्णु से धक्का-मुक्की करने लगा। बोला, ‘तेरी यह हिम्मत! दो कौड़ी का आदमी।’

विष्णु ने अपना सन्तुलन खो दिया। उसने क्रोध में युवक को ज़ोर का धक्का दिया तो वह ज़मीन पर ढह गया। भय से विस्फारित नेत्रों से वह चिल्लाने लगा— ‘हेल्प, हेल्प, ही विल किल मी।’ उसकी पत्नी मुँह पर मुट्ठियाँ रखकर चीख़ने लगी।

विष्णु के मन में क्रोध का स्थान भय ने ले लिया। वह गाड़ी लेकर वापस भागा। पीछे मुड़ मुड़ कर देख लेता था कि पुलिस की या अन्य गाड़ी पीछा तो नहीं कर रही है। बदहवासी में उसे होश नहीं था कि गाड़ी की स्पीड कितनी ज़्यादा है। दूसरी तरफ उस पर यह डर भी हावी था कि बाबूभाई उसे कोई बड़ी सज़ा दिये बिना नहीं छोड़ेगा। इन्हीं दुश्चिंताओं के बीच फँसे विष्णु के सामने अचानक एक लड़का आ गया और उसे बचाने के चक्कर में गाड़ी सन्तुलन खोकर एक पेड़ से चिपक गयी।

राहगीरों ने खींच-खाँचकर विष्णु को गाड़ी से बाहर निकाला। गाड़ी की तरह उसका शरीर भी पिचक गया था। उसे सड़क के किनारे लिटा दिया गया। कोई दयालु गाड़ीवाला सौभाग्य से गुज़रे तो कुछ मदद की गुंजाइश बने।

जब बाबूभाई को दुर्घटना की खबर मिली तो वह बोला, ‘गनीमत है कि गाड़ी का बीमा था, वर्ना लौंडे ने तो कबाड़ा ही कर दिया था।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 142 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 142 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 142) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 142 ?

☆☆☆☆☆

बहुत कुछ सिखाया ज़िन्दगी के

सफर ने अनजाने में,

वो किताबो में दर्ज़ ही नहीं था

जो सबक पढ़ाया ज़माने ने…

☆☆

The journey of life has taught

me a great deal unknowingly

the lesson taught by the life,

was not covered in the books

☆☆☆☆☆ 

कुछ लोग मुझे अपना

    कहा  करते  थे,

लेकिन सच कहूँ तो सिर्फ़

    कहा ही करते थे…!

☆☆

Some people used  to call

    me their very own, but

To be honest, they’d call me

    so for saying sake only..!

 ☆☆☆☆☆ 

इस कदर दर्द को रवाँ किया दिल में,

अब किसी चोट से हमें दर्द नहीं होता…

☆☆

So much of pain has been

    flown  into  the  heart,

That now I don’t even feel

    the pain from any injury..!

☆☆☆☆☆

 होती है शाम, आँख से आँसू  रवाँ हुए

ये वक़्त है, क़ैदियों की रिहाई का वक़्त

☆☆

It’s the evening, for tears

    to flow  from  the  eyes

It’s the time when the

    prisoners  are  released…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 193 – कबीर जयंती विशेष – साधो देखो जग बौराना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 193 ☆ कबीर जयंती विशेष – साधो देखो जग बौराना ?

आज कबीर जयंती है। यूँ कहें तो कबीर याने फक्कड़ फ़कीर, यूँ समझें तो कबीर याने दुनिया भर का अमीर। वस्तुत: कबीर को समझने के लिए पहले आवश्यक है यह समझना कि वस्तुतः हमें किसे समझना है। पाँच सौ साल पहले निर्वाण पाए एक व्यक्ति को या कबीर होने की प्रक्रिया को? दहन किये गए या दफ़्न किये गए या विलुप्त हो गये  दैहिक कबीर को पाँच सदी की लम्बी अवधि बीत गई। अलबत्ता आत्मिक कबीर को समझने के लिए यह समयावधि बहुत कम है।

प्रश्न तो यह भी है कि कबीर को क्यों समझें हम? छोटे मनुष्य की छोटी सोच है कि कबीर से हमें क्या हासिल होगा? कबीर क्या देगा हमें? कबीर जयंती पर इस प्रश्न का स्वार्थ अधिक गहरा जाता है।

कबीर को समझने में सबसे बड़ा ऑब्सटेकल या बाधा है कबीर से कुछ पाने की उम्मीद। कबीर भौतिक रूप से कुछ नहीं देगा बल्कि जो है तुम्हारे पास, उसे भी छीन लेगा। पाने नहीं छोड़ने के लिए तैयार हो तो कबीर आत्मिक रूप से तुम्हें मालामाल कर देगा।

आत्मिक रूप से मालामाल कर देने का एक अर्थ कबीर का ज्ञानी, पंडित, आचार्य, मौलाना, फादर या प्रीस्ट होना भी है। इन सारी धारणाओं का खंडन खुद कबीर ने किया, यह कहकर,

‘मसि कागद छूयौ नहिं, कलम नहिं गहि हाथ।’

कबीर दीक्षित है, शिक्षित नहीं।

कबीर अंगूठाछाप है। ऐसा निरक्षर जिसके पास  अक्षर का अकूत भंडार है। कबीर कुछ सिखाता नहीं। अनसीखे में बसी सीख, अनगढ़ में छुपे शिल्प को देखने-समझने की आँख है कबीर। हासिल होना कबीर होना नहीं है, हासिल को तजना कबीर है। भरना पाखंड है, रीत जाना आनंद है। पाना रश्क है, खोना इश्क है,

हमन से इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या

रहे।

आज़ाद या जग से, हमन को  दुनिया से यारी क्या।

और जब इश्क या प्रेम हो जाए तो अनसीखा आत्मिक पांडित्य तो जगेगा ही,

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

कबीर सहज उपलब्ध है। कबीर होने के लिए, उसकी संगत काफी है। ओशो ने सहक्रमिकता के सिद्धांत या लॉ ऑफ सिंक्रोनिसिटी का उल्लेख कबीर के संदर्भ में किया है। किसी वाद्य के दो नग मंगाये जाएँ। कमरे के किसी कोने में एक रख दिया जाए। दूसरे को संगीत में डूबा हुआ संगीतज्ञ (ध्यान रहे, ‘डूबा हुआ’ कहा है, ‘सीखा हुआ’ नहीं)  बजाए।  सिंक्रोनिसिटी के प्रभाव से कोने में रखा वाद्य भी कसमसाने लगता है। उसके तार अपने आप कसने लगते हैं और वही धुन स्पंदित होने लगती है।

कबीर का सान्निध्य भीतर के वाद्य को स्पंदित करता है। भीतर का स्पंदन मनुष्य में मानुषता का सोया भाव जाग्रत कर देता है। जाग्रत अवस्था का मनुष्य, सच्चा मनुष्य हो जाता है और बरबस कह उठता है,

साँची कहौ तो मारन धावै झूँठे जग पतियाना।

साधो, देखो जग बौराना।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 140 ☆ काव्य समीक्षा – आदमी तोता नहीं – डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा डॉ राजकुमार तिवारी ”सुमित्र’ जी की कृति “आदमी तोता नहीं” की काव्य समीक्षा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 140 ☆ 

☆ काव्य समीक्षा – आदमी तोता नहीं – डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

काव्य समीक्षा

आदमी तोता नहीं (काव्य संग्रह)

डॉ। राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

प्रथम संस्करण २०२२

पृष्ठ -७२

मूल्य १५०/-

आईएसबीएन ९७८-९३-९२८५०-१२-७

पाथेय प्रकाशन जबलपुर

☆ आदमी तोता नहीं : खोकर भी खोता नहीं – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

*

महाकवि नीरज कहते हैं-

‘मानव होना भाग्य है

कवि होना सौभाग्य।

 

कवि कौन?

वह जो करता है कविता।

 

कविता क्या है?

काव्य ‘रमणीय अर्थ प्रतिपादक’।

‘ध्वनि आत्मा’, कविता की वाहक।

‘वाक्य रसात्मक’ ही कविता है।

‘ग्राह्य कल्पना’ भी कविता है।

‘भाव प्रवाह’ काव्य अनुशीलन।

‘रस उद्रेक’ काव्य अवगाहन।

कविता है अनुभूति सत्य की ।

कविता है यथार्थ का वर्णन।

कविता है रेवा कल्याणी।

कविता है सुमित्र की वाणी।

*

कवि सुमित्र की कविता ‘लड़की’

पाए नहीं मगर खत लिखती।

कविता होती विगत ‘डोरिया’

दादा जिसे बुन करते थे,

जिस पर कवि सोता आया है

दादा जी को नमन-याद कर।

अब के बेटे-पोते वंचित

निधि से जो कल की थी संचित

कल को कैसे दे पाएँगे?

कल की कल  कैसे पाएँगे?

*

कवि की भाषा नदी सरीखी

करे धवलता की पहुनाई।

‘शब्द दीप’ जाते उस तट तक

जहाँ उदासी तम सन्नाटा। 

अधरांगन बुहारकर खिलता

कवि मन कमल निष्कलुष खाँटा।

‘त्याज्य न सब परंपरा’ कवि मत

व्यर्थ न कोसो, शोध सुधारो’

‘खोज’ देश की गाँधीमय जो  

‘काश!’ बने ऊसर उपजाऊ।

‘रिश्ते’ रिसने लगे घाव सम

है आहत विश्वास कहो क्यों?

समझ भंगिमा पाषाणों की

बच सकता है ‘गुमा आदमी’।

है सरकार समुद जल खारा

कैसे मिटे प्यास जनगण की?

*

कवि चिंता- रो रहे, रुला क्यों?

जाति-धर्म लेबिल चस्पा कर।

कवि भावों का शब्द कोश है।

शब्द सनातन, निज न पराए।

‘संस्कार’ कवि को प्रिय बेहद

नहिं स्वच्छंद आचरण भाए।

‘कवि मंचीय श्रमिक बंधुआ जो 

चाट रहे चिपचिपी चाशनी

समझौतों की स्वाभिमान तज।

कह सुमित्र कवि-धर्म निभाते।

कभी निराला ने नेहरू को

कवि-पाती लिखकर थी भेजी।

बहिन इंदिरा ने सुमित्र को

कवि-पाती लिख सहज सहेजी। 

*

‘मनु स्मृति’ विवाद बेमानी

कहता है सुमित्र का चिंतक।

‘युद्ध’ नहीं होते दीनों-हित

हित साधें व्यापारी साधक।

रुदन न तिया निधन पर हो क्यों?

 ‘प्रथा’ निकष पर खरी नहीं यह।

‘हद है’ नेक न सांसद मंत्री

‘अद्वितीय वह; समझे खुद को।

मंशाराम! बताओ मंशा

क्या संपादक की थी जिसने

लिखा नहीं संपादकीय था

आपातकाल हुआ जब घोषित?

*

युगद्रष्टा होता है कवि ही

कहती हर कविता सुमित्र की।

शब्द कैमरे देख सके छवि

विषयवस्तु जो थी न चित्र की।

भूखा सोता लकड़ीवाला

ढोता बोझ बुभुक्षा का जो

भारी अधिक वही लकड़ी से

सार कहे कविता सुमित्र की।

तोड़ रहा जंजीर शब्द हर

गोड़ जमीन कड़ी सत्यों की

कोई न जाने कितना लावा

है सुमित्र के अंतर्मन में?

चलें कुल्हाड़ी, गिरें डालियाँ

‘क्या बदला है?’ समय बताए।

पेड़ न तोता अंतरिक्ष में

ध्वनि न रंग न रस तरंग ही।

*

ये कविताएँ शब्द दूत हैं ।

भाषा सरल, सटीक शब्द हैं।

सिंधु बिन्दु में सहज न भरना

किन्तु सहज है यह सुमित्र को।

बिम्ब प्रतीक अर्थगर्भित हैं।

नवचिंतन मन को झकझोरे।

पाठक मनन करे तो पाता

समय साक्षी है सुमित्र कवि।

बात बेहिचक कहता निर्भय

रूठे कौन?, प्रसन्न कौन हो?

कब चिंता करते हैं चिंतक?

पत्रकार हँस आँख मिलाते।

शब्द-शब्द में जिजीविषा है,

परिवर्तन हित आकुलता है।

सार्थक काव्य संकलन पढ़ना

युग-सच पाठक पा सकता है।

तब तक तोता नहीं आदमी

जब तक खोता नहीं आदमी।

सपने बोता रहे आदमी

 कविता कहता रहे आदमी।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२९-५-२०२३, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – सोंगटी… – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– सोंगटी…– ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

मीपण माझे मला माहिती

प्यादे मी तर समाजस्थानी

दर्पणात मी प्रतिमा पहाता

वजीर भासतो मीच दर्पणी

 आत्मसंमान जपता आपण

 आपसूक आत्मविश्‍वास  येतो

 खडतर जिवन रस्त्यावरती

  ठामपणाने जात राहतो

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #192 – 78 – “ग़म तो दौलत ठहरी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ग़म तो दौलत ठहरी …”)

? ग़ज़ल # 78 – “ग़म तो दौलत ठहरी …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

जब तुम्हारा दिल गुलशन में सजा पाया,

क़सम ख़ुदा की हमने बड़ा ही मज़ा पाया।

अस्त्र हैं इस दिलचस्प खेल के वफ़ा बेवफ़ा,

अब क्या रोना है जो उस को जफ़ा पाया।

वस्ल ओ फ़ुरक़त की तय होती नहीं सीमा,

मुहब्बत ने भी ख़ुद को अक्सर ठगा पाया।

ग़म तो दौलत ठहरी इस रस्मे रूहानी की,

इसका हासिल ज़िंदगी जी कर जता पाया।

जन्नत दोज़ख़ गुज़रेगा तुमसे कुछ रुक कर,

आतिश ने इसे इम्तिहान में आज़मा पाया।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 70 ☆ ।। यह छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए भी कम है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।। यह छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए भी कम है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

ज्ञान बुद्धि विनम्रता   तेरे  आभूषण हैं।

सत्यवादिता प्रभु  आस्था तेरे भूषण हैं।।

मत राग द्वेष कुभावना    धारण करना।

ईर्ष्या और घृणा कुमति भी     दूषण हैं।।

[2]

आत्म विश्वास से खुलती सफल राह है।

सब कुछ संभव यदि जीतने की चाह है।।

व्यवहार कुशलता  बनती उन्नति साधक।

बाधक बनती हमारी नफरतऔर डाह है।।

[3]

मत पालो क्रोध  प्रतिशोध  बन जाता है।

मनुष्य स्वयं जलता औरों को जलाता है।।

प्रतिशोध का  अंत  पश्चाताप  से है होता।

कभी व्यक्ति प्रायश्चित भी नहीं कर पाता है।।

[4]

विचार आदतों से ही चरित्र निर्माण होता है।

इसीसे तुम्हारा व्यक्तित्व चित्र निर्माण होता है।।

तभी बनती तुम्हारी   लोगों के दिल में जगह।

गलत राह पर केवल दुष्चरित्र निर्माण होता है।।

[5]

बस छोटी सी जिंदगी प्रेम के लिए भी कम है।

नफरत बन  जाती   जैसे लोहे की जंग   है।।

बदला लेने में बर्बाद नहीं  करें इस वक्त को।

तेरा सही रास्ता ही लायेगा सफलता का रंग है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 134 ☆ बाल गीतिका से – “भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

भगवान हमें प्यार का वरदान दीजिये ।

औरों के कष्ट का सही अनुमान दीजिये ॥

 

दुनिया में भाई-भाई से हिलमिल के सब रहें

है द्वेष जड़ लड़ाई की – यह ज्ञान दीजिये ॥

 

होता नहीं लड़ाई से कुछ भी कभी भला

सुख-शांति के निर्माण का अरमान दीजिये ॥

 

निर्दोष मन औ’ शुद्ध भावनाओं के लिये

हर व्यक्ति को सबुद्धि औ’ सद्ज्ञान दीजिये ॥

 

दुनिया सिकुड़ के  आज हुई एक नीड़ सी

इस नीड़ के कल्याण का विज्ञान दीजिये ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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