हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 81 – मनोज के दोहे … ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण एवं विचारणीय सजल “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 82 – मनोज के दोहे…

1 मिथ्या

मिथ्या वादे कर रहे, राजनीति के लोग।

मिली जीत फिर भूलते, खाते छप्पन भोग ।।

2 छलना

छलना है संसार को, कैसा पाकिस्तान।

पहन मुखौटे घूमता, माँगे बस अनुदान।।

3 सर्प

सर्प बिलों में छिप गए, स्वर्ग हुआ आबाद।

काश्मीर पर्यटन बढ़ा, खत्म हुआ उन्माद।।

4 मछुआरा

मछुआरा तट बैठकर, देख रहा जलधार।

मीन फँसे जब जाल में, पले सुखद परिवार।।

5 जाल

मोह जाल में उलझकर, मन होता बेचैन।

सजे चिता की सेज फिर, पथरा जाते नैन।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 10 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ६ – स्वर्ण मंदिर ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग छह – स्वर्ण मंदिर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 10 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग छह – स्वर्ण मंदिर  ?

(वर्ष 1994 -2019)

मेरे हृदय में गुरु नानकदेव जी के प्रति अलख जगाने का काम मेरे बावजी ने किया था। बावजी अर्थात मेरे ससुर जी, जिन्हें हम सब इसी नाम से संबोधित करते थे।

बावजी गुरु नानक के परम भक्त थे। यह सच है कि घर के मंदिर में गुरु नानकदेव की  कोई तस्वीर नहीं थी। वहाँ तो हमारी माताजी (सासुमाँ ) के आराध्या शिव जी विराजमान थे। लेकिन बावजी लकड़ी की अलमारी के एक तरफ चिपकाए गए  नानक जी की एक पुरानी तस्वीर के सामने खड़े होकर अरदास किया करते थे।

मुझे बहुत आश्चर्य होता था कि एक सिख परिवार में यह दो अलग-अलग परंपराएँ कैसे चली हैं ? पर उम्र कम होने की वजह से मैंने उस ओर कभी विशेष ध्यान ही नहीं दिया और दोनों की आराधना करने लगी। मैं शिव मंदिर भी जाती रही और बावजी से समय-समय पर नानक जी से जुड़ी अलग-अलग कथाएँ भी सुनती रही।

 धीरे – धीरे मन में गुरुद्वारे जाने की इच्छा होने लगी इस इच्छा को पूर्ण होने में बहुत ज्यादा समय ना लगा क्योंकि पुणे शहर के रेंज्हिल विभाग में जहाँ एक ओर स्वयंभू शिव मंदिर स्थित है वहीं पर गुरुद्वारा भी है। जब भी माथा टेकने की इच्छा होती मैं चुपचाप वहाँ चली जाया करती थी। अब यही इच्छा थोड़ी और तीव्रता की ओर बढ़ती रही और मुझे अमृतसर जाने की इच्छा होने लगी। जीवन की आपाधापी में यह  इच्छा अन्य कई इच्छाओं की परतों के नीचे दब अवश्य गई लेकिन सुसुप्त रूप से वह कहीं बची ही रही।

अमृतसर की यात्रा का पहला अवसर मुझे 1994 मैं जाकर मिला। उन दिनों हम लोग चंडीगढ़ में रहते थे। संभवतः नानक जी मेरी भी श्रद्धा की परीक्षा ले रहे थे और उन्होंने मुझे इतने लंबे अंतराल के बाद दर्शन के लिए  अवसर दिया। फिर तो न जाने कहाँ – कहाँ नानक जी के दर्शन  का सौभाग्य  मुझे मिलता ही रहा,जिनका उल्लेख अपनी विविध यात्राओं में मैं कर चुकी हूँ। 1994 से  2019 के बीच न जाने कितनी ही बार अमृतसर दर्शन  करने का अवसर मिलता ही रहा है।ईश्वर की इसे मैं परम कृपा ही कहूँगी।मुझ जैसी बँगला संस्कारों में पली लड़की के हृदय में नानकजी घर कर गए। आस्था, भक्ति ने सिक्ख परंपराओं से जोड़ दिया।

1994 का अमृतसर अभी भी ’84 के घावों को भरने में लगा था। जगह – जगह पर पुरानी व टूटी फ़र्शियों को उखाड़ कर वहाँ नए संगमरमर की फ़र्शियाँ लगाई जा रही थीं। भीड़ वैसी ही बनी थी पर काम अपना चल रहा था। हम गए थे जनवरी महीने के संक्रांत वाले दिन यद्यपि यह त्यौहार घर पर ही लोग मनाते हैं फिर भी देव दर्शन के लिए मंदिरों में आना हिंदू धर्म,  सिख धर्म का एक परम आवश्यक हिस्सा है।

अमृतसर का विशाल परिसर देखकर आँखें खुली की खुली रह गई थीं। उसी परिसर के भीतर दुकानें लगी हुई थीं।पर आज सभी दुकानें बाहर गलियारों में कर दी गई  हैं और मंदिर के विशाल परिसर के चारों ओर ऊँची दीवार चढ़ा दी गई  है।

आज वहाँ भीतर नर्म घासवाला उद्यान आ गया है। 1919 जलियांवाला बाग कांड ,1947 देशविभाजन के समय के दर्दनाक दृश्य,  1984 के समय के विविध हत्याकांड तथा  अत्याचार आदि की तस्वीरों का एक संग्रहालय भी है। आज प्रवेश के लिए 12 प्रवेश द्वार हैं। वहीं चप्पल जूते रखने और नल के पानी से हाथ धोने की व्यवस्था भी है। स्त्री पुरुष सभी के लिए सिर ढाँकना अनिवार्य है।अगर किसी के पास सिर ढाँकने का कपड़ा न हो तो वहाँ के स्वयंसेवक नारंगी या सफेद कपड़ा देते हैं जिसे पटका कहते हैं। हर जाति, हर धर्म और हर वर्ण का व्यक्ति दर्शन के लिए आ सकता है। सर्व धर्म एक समान,एक ओंकार का नारा स्पष्ट दिखाई देता है।

मंदिर में प्रवेश से पूर्व  निरंतर पानी का बहता स्रोत है जो एक नाले के रूप में है,  हर यात्री पैर धोकर  और फिर बड़े से पापोश या पाँवड़ा पर पैर पोंछकर  मंदिर में प्रवेश करता है। ठंड के दिनों में यही पानी गर्म स्रोत के रूप में बहता है ताकि थके यात्री आराम महसूस करें।

पूरे परिसर में फ़र्श  के रूप में संगमरमर बिछा है। मौसम के बदलने पर फ़र्श गरम या ठंडी हो जाती है इसलिए  कालीन बिछाकर रखा जाता है ताकि यात्री आराम से चलकर दर्शन कर सकें। कई स्थानों में कड़ा प्रसाद निरंतर बाँटा  जाता है।यात्री प्रसाद खरीदकर भी घर ले जा सकते हैं। घी की प्रचुरता के कारण वह खराब नहीं होता।

स्वर्ण मंदिर को हरिमंदर साहब कहा जाता है। यहाँ एक छोटा सा तालाब है और उसके पास एक विशाल वृक्ष भी है। कहा जाता है कि कभी नानकदेव जी ने भी इसी स्थान के प्राकृतिक सौंन्दर्य से आकर्षित होकर यहाँ कुछ समय के लिए वृक्ष के नीचे विश्राम किया था तथा ध्यान भी  किया था।  सिक्ख धर्म के तीसरे गुरु श्री गुरु अमरदास जी ने श्री गुरु नानक देव जी का इस स्थान से संबंध होने के कारण यहीं पर एक मंदिर बनवाने का निर्णय लिया। यहाँ पर गुरुद्वारे की पहली नींव रखी गई थी। कहा जाता है कि श्रीराम के दोनों पुत्र शिकार करने के लिए भी कभी इस तालाब के पास आए थे पर इसका कोई प्रमाण  नहीं है।

इस तालाब के पानी में कई  मछलियाँ हैं पर न मच्छर हैं न कोई दुर्गंध।लोगों का विश्वास है कि इस जल से स्नान करने पर असाध्य रोग दूर हो जाते हैं।स्थान स्थान पर स्त्री -पुरुष के स्नान करने और वस्त्र बदलने की व्यवस्था भी है।

इतिहासकारों का मानना है कि 550 वर्ष पूर्व अमृतसर शहर अस्तित्व में आया।। सिक्ख धर्म के चौथे गुरु श्री गुरु रामदास जी ने इस गुरुद्वारे की स्थापना श्री हरिमंदर साहिब की नींव रखकर की थी।

1564 ई. में चौथे गुरु श्री गुरु रामदास जी ने वर्तमान अमृतसर नगर की नींव रखने के बाद  स्वयं भी यहीं रहने लगे थे। उस समय इस नगर को रामदासपुर या चक-रामदास कहा जाता था।

 यह गुरुद्वारा सरोवर के बीचोबीच  बना हुआ है। इस के सौंदर्य को कई बार नष्ट किया गया आखिर राजा रणजीत सिंह ने  स्वर्ण-पतरों से इसकी दीवारों, गुम्बदों को मढ़ दिया। इस कारण इस गुरुद्वारा साहिब का नाम  स्वर्ण मंदिर भी रखा गया।

आज यह पूरे विश्व में सिक्खों का प्रसिद्ध धर्मस्थल है। बिना किसी शोर-शराबा के,  बिना किसी घंटा -घड़ियाल के यहाँ पाठी शबद गाते रहते हैं।सारा परिसर पवित्रता और शांति का द्योतक बन उठता है।

यहाँ लंगर की बहुत अच्छी व्यवस्था है और दिन भर में एक लाख से अधिक लोग भोजन करते हैं।दर्शनार्थी कार सेवा भी करते रहते हैं।आज यहाँ आटा मलने, रोटी बनाने, सब्जियाँ काटने ,दाल ,कढ़ी राजमा, छोले, चावल पकाने  आदि के लिए  बिजली की मशीनें लगा दी गई  हैं। विदेश में रहनेवाले सिक्ख श्रद्धालु  प्रतिवर्ष भारी आर्थिक सहायता देते रहते हैं जिस कारण मंदिर की देखरेख भली प्रकार से होती रहती है।

अमृतसर पंजाब राज्य का अत्यंत महत्वपूर्ण शहर है। यह पाकिस्तानी सीमा पर है।जिसका नाम अटारी बॉर्डर है पर लोग आज भी इस स्थान को बाघा बॉर्डर कहते हैं। बाघा गाँव विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया ।हमारे हिस्से की सीमा अटारी गाँव है। न जाने  हम भारतीयों में चलता है वृत्ति क्यों कूट-कूटकर भरी है कि हम आज भी अपनी सीमा का नाम न लेकर पाकिस्तान की सीमा का नाम लेते रहते हैं।

यह अटारी बॉर्डर स्वर्ण मंदिर से 35 कि.मी.की दूरी पर है। किसी ऑटो वाले से आप अटारी बॉर्डर  जाने के लिए कहेंगे तो वह पूछेगा ओ कित्थे साब? जबकि हमारे बॉर्डर के कमान पर अटारी लिखा हुआ है पर हमारी लापरवाही ही तो अब तक की तबाही का कारण रह चुकी है न!

अमृतसर के गुरुद्वारा श्री हरमंदिर साहिब या गोल्डन टैम्पल के पास  ही जलियांवाला बाग है। पर्यटक इस ऐतिहासिक स्थल का अवश्य ही दर्शन करते हैं। जलियांवाला बाग अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के पास का एक छोटा सा बगीचा है। 1919 में जनरल डायर के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने गोलियाँ चला कर सभा में उपस्थित निहत्थे पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सहित सैंकड़ों लोगों को मार डाला था। इस घटना ने भारत के इतिहास की धारा को बदल कर रख दिया। इस हत्याकांड का बदला लेने के लिए शहीद उधम सिंह बाईस वर्ष तक प्रतीक्षा करते रहे और आखिर इंगलैंड जाकर उस समय रह चुके भारतीय गवर्नर डायर को गोलियों  से भून दिया और स्वयं हँसते हुए शहीद ढींगरा की तरह फाँसी के फंदे में झूल गए।पर हमारे इतिहास में शायद ही कहीं उनका नाम आता है।

अमृतसर शहर घूमने आनेवाले गोबिंदगढ़ किले को देखने के लिए जरूर जाते हैं। यहाँ जाने के लिए शाम चार बजे का समय सबसे उत्तम होता है। किले का नज़ारा लेने के बाद यहाँ  होने वाले सांस्‍कृतिक कार्यक्रम का भी आनदं लिया जा सकता है। इस शो में भँगड़ा और मार्शल आर्ट्स का आयोजन होता है। इस किले में लाइट एंड साउंड शो भी एक मुख्य आकर्षण होता है।

ईश्वर की असीम कृपा है मुझ पर कि आज तक ऐसे अनेक विशेष स्थानों पर दर्शन के कई  अवसर प्रदान किए।

आज गुरुपूरब के अवसर पर ईश्वर से प्रार्थना भी यही है कि मेरी यायावर यात्राएँ मृत्यु तक जारी रहे, प्रभु के दर्शन मिलते रहे। नानकसाहब की कृपा बनी रहे।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 139 – “सकारात्मकता से संकल्प विजय का”. . .” – सम्पादन – सुश्री मंजु प्रभा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है सुश्री मंजु प्रभा जी की संपादित पुस्तक  सकारात्मकता से संकल्प विजय कापर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 139 ☆

☆“सकारात्मकता से संकल्प विजय का”. . .” – सम्पादन – सुश्री मंजु प्रभा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

सकारात्मकता से संकल्प विजय का

संपादन मंजु प्रभा

दधीची देहदान समिति

प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली

मूल्य चार सौ रुपये, पृष्ठ १८०, प्रकाशन वर्ष २०२२

चर्चा. . . विवेक रंजन श्रीवास्तव

☆ स्वास्थ्य विमर्श पर साहित्य की यह किताब अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

वर्ष २०२० के पहले त्रैमास में ही सदी में होने वाली महामारी कोरोना का आतंक दुनिया पर हावी होता चला गया. दुनिया घरो में लाक डाउन हो गई. कोरोना काल सदी की त्रासदी है. वर्तमान पीढ़ी के लिये यह न भूतो न भविष्यति वाली विचित्र स्थिति थी. आवागमन बाधित दुनियां में संपर्क के लिये इंटरनेट बड़ा सहारा बना. दूसरी कोरोना लहर के कठिन समय में मोबाइल की घंटी से भी किसी अप्रिय सूचना का भय सताने लगा था. अंततोगत्वा शासन और आम आदमी के समवेत प्रयासो की, जीवंतता की, सकारात्मकता का संघर्ष विजयी हुआ. रचनात्मकता नही रुकी. मानवीयता मुखरित हुई. कोरोना काल साहित्य के लिये भी एक सक्रिय रचनाकाल के रूप में जाना जायेगा. इस कालावधि में एकाकीपन से निपटने लेखन के जरिये लोगों ने अपनी भावाभिव्यक्ति की. इंटरनेट के माध्यम से फेसबुक, गूगल मीट, जूम जैसे संसाधनो के प्रयोग करते हुये ढ़ेर सारे आयोजन हुये. यू ट्यूब इन सबसे भरा हुआ है.

विगत पच्चीस बरसों से दिल्ली एन सी आर में सक्रिय समाजसेवी संस्था दधीची देहदान समिति ने भी स्वस्फूर्त कोरोना से लड़ने का बीड़ा उठाकर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये. जब आम आदमी विवशता में मन से टूट रहा था, सकारात्मकता के विस्तार की आवश्यकता को समझ कर एक आनलाइन व्याख्यानमाला आयोजित की गई. हमेशा से वैचारिक पृष्ठभुमि ही जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है. सकारात्मक विचार ही जीवन संबल बनते हैं. दस दिनो तक कोरोना की विषमता से निपटने के लिये जन सामान्य में मानसिक ऊर्जा का नव संचार मनीषियों के चिंतन पूर्ण वैचारिक संप्रेषण से संभव हुआ. आन लाइन व्याख्यान की तात्कालिक पहुंच भले ही दूर दूर तक होती है, किन्तु वे शाश्वत संबोधन भी तब तक चिर जीवी संदर्भ नहीं बन पाते जब तक उन व्याख्यानो को पुस्तक का स्थाई स्वरूप न मिले. मंजु प्रभा जी ने यह जिम्मेदारी कुशलता पूर्वक उठाकर यह कृति “सकारात्मकता से संकल्प विजय का “ प्रस्तुत की है. इस द्विभाषी पुस्तक में हिन्दी और अंग्रेजी में स्थाई महत्व की सामग्री चार खण्डो में संग्रहित है. पहले खण्ड में तत्कालीन उप राष्ट्रपति एम वैंकैया नायडू का देहदानियों के सम्मान उत्सव के अवसर पर संबोधन संपादित स्वरूप में शामिल है, उनका यह कहना महत्वपूर्ण है कि- अंगदान से न केवल आप दूसरे के शरीर में जीवित बने रहते हैं बल्कि मानवता को भी जीवित रखते हैं. शंकराचार्य विजयेंद्र सरस्वती जी ने अपने व्याख्यान में अशोक वाटिका में सीता जी के हतोत्साहित मन में सकारात्मकता के नव संचार करने वाले हनुमान जी के सीता जी से संवाद वाले प्रसंग की व्याख्या की है. मोहन भागवत जी ने अपने लेख में ” सक्सेज इज नाट फाइनल, फेल्युअर इज नाट फेटल, द करेज टु कंटीन्यू इज द आनली थिंग दैट मैटर्स “ की विशद व्याख्या की है. उन्होंने चर्चिल को उधृत किया है “वी आर नाट इंटरेस्टेड इन पासिबिलिटीज आफ डिफीट, दे डू नाट एक्जिस्ट “. अजीज प्रेम जी ने आव्हान किया है ” कम टुगेदर एन्ड दू एवरी थिंग वी कैन “. उन्होने कहा कि ” दि कंट्री मस्ट कम टुगेदर एज वन. “ सदगुरु जग्गी वासुदेव जी ने विवेचना करते हुये बताया कि ” दि प्राबलेम इज दैट वी आर मोर डेडीकेटेड टु आवर लाइफ स्टाइल देन अवर लाइफ इटसेल्फ “. उन्होनें समझाया कि ” हाउ वी कैन बी पार्ट आफ द सोल्यूशन “. श्री श्री रविशंकर जी ने कहा कि इस वक्त हमें करनी होगी वही बात कि निर्बल के बल राम. ईश्वर पर विश्वास ही हमको मानसिक तनाव से दूर रखता है. उन्होंने बताया कि योग, प्राणायाम, ध्यान और समुचित आहार ही जीवन का सही रास्ता है.

साध्वी ॠतंभरा के कथन का सार था कि “शुभ कर्मो के बिना कभी भी हुआ नहीं निस्तारा, जीत लिया जिसने मन उसने जीत लिया जग सारा, ५ स दुनियां का सार एक है नित्य अबाध रवानी, अपनी राह बना लेता है, खुद ही बहता पानी “

महंत संत ज्ञानदेव सिंह जी ने अपने व्यक्त्व्य में संदेश दिया “उठो जागो और अपने स्वरूप को पहचानो “. मुनि प्रमाण सागर जी ने मन को प्रबल बनाये रखने कासंदेश दिया उन्होने कहा कि तन की बीमारी को कभी भी मन पर हावी न होने दें. प्रसिद्ध नृत्यांगना सोनल मानसिंग ने कला को संबल बताया, हमारी हाबी ही हमें मानसिक शारीरिक व्याधियों से बचाकर निकाल लाती है. उन्होंने पाजीटिविटी, ग्रेच्युटी, और प्रेयर का महत्व प्रतिपादित किया. निवेदिता भिड़े जी ने कहा कि जो विष धारण करने की क्षमता विकसित कर लेता है, अंततोगत्वा वही जीतता है और अमृत पीता है. उन्होंने स्वामी विवेकानंद की पुस्तक पावर्स आफ द माइंड का उल्लेख किया. श्री रामरक्षा स्तोत्र  तथा विष्णु सहस्त्र नाम का भी उन्होने महात्म्य समझाया.

समाज के विभिन्न क्षेत्रो की आइकानिक हस्तियों को एक मंच पर इकट्ठा करके एक विषय पर केंद्रित आलेखों का उनका यह संग्रह एक संदर्भ कृति बन गया है. आलोक कुमार जी का आलेख कोरोना और युगधर्म पठनीय है. पुस्तक के दूसरे खण्ड “वे लड़े कोरोना से” में उन कुछ व्यक्तियों की चर्चा है जिन्होंने इस लड़ाई में अपना योगदान दिया है, यद्यपि कहना होगा कि यह खण्ड ही अत्यंत वृहत हो सकता है, क्योंकि हर शहर ऐसे विलक्षण समर्पित जोशीले लोगों से भरा हुआ था तब तो हम कोरोना को हरा सके हैं, किन्तु जो भी सात आठ प्रासंगिक उल्लेख पुस्तक में समावेशित हो सका वह एक प्रतिनिधी चित्र तो अंकित करता ही है. तीसरा खण्ड कथाएं अनुपम त्याग की में समिति के मूल उद्देश्य अंग दान को लेकर महत्वपूर्ण सामग्री है. प्रायः हमें अखबारों में भागते वाहनो में अंग प्रत्यारोपण के लिये ग्रीन कारीडोर की कबरें पढ़ने मिलती हैं. हमारा देश दधीचि का देश है, राजा शिवि का देश है. अंगदान को प्रोत्साहन देता यह खण्ड चिंतन मनन के लिये विवश करता है. चौथे खण्ड में दधीची देहदान समिति के कार्यों का वर्णन है. बीच बीच में समिति के क्रिया कलापों, आयोजनो आदि के चित्र व टेस्टीमोनियल्स भी लगाये गये हैं. एक समीक्षक की दृष्टि से मेरा सुझाव है कि बेहतर होता यदि ये चारों ही खण्ड प्रत्येक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रस्तुत हो पाता. इसी तरह हिन्दी तथा अंग्रेजी के आलेख एक साथ रखने की अपेक्षा उनके अनुवादित तथा संपादित आलेख तैयार करके दोनो भाषाओ की दो अलग अलग पुस्तकें बनाई जातीं. यद्यपि यह खिचड़ी प्रयोग भी नवाचारी है. अस्तु मैं दधीची देहदान समिति के इस स्तुत्य साहित्यिक प्रयास की मन से अभ्यर्थना करता हूं. स्वास्थ्य विमर्श पर साहित्य की यह किताब अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारियों के साथ प्रस्तुत करने के लिये मंजु प्रभा जी को हार्दिक बधाई और पुस्तक प्रकाशन हेतु वित्त सुलभ करवाने हेतु लाला दीवान चंद ट्रस्ट तथा प्रकाशन के लिये प्रभात प्रकाशन का भी आभार. यह किताब कोरोना संकट के मानसिक तनाव से उबरने का दस्तावेज बन पड़ी है, पठनीय और संदर्भो के लिये संग्रहणीय है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 159 – गलती से सीख ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं बालसुलभता  पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “गलती से सीख”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 159 ☆

☆ लघुकथा – गलती से सीख

मालती मैडम अपने बगीचे में घूम रही थी। अभी शहर से स्थानांतरण पर वह गाँव के एक स्कूल में प्रधानाध्यापिका बन कर आई थी। स्कूल के पास ही उसने मकान लिया। उस मकान में चारों तरफ आम के वृक्ष थे। अभी गर्मी की छुट्टियां चल रही थी। मकान में जब मालती मैडम का परिवार रहने आया परिवार के नाम पर सिर्फ उसके पति देव और एक काम करने वाला नौकर। उनका अपना बेटा बाहर नौकरी करता था।

आम वृक्ष पर लगे फल दिखने शुरू हो गए थे और बगीचा भी आम की खुशबू से महक उठा था। सुनने में आया था वह कभी किसी को अपने घर आने जाने देना पसंद नहीं करती थी। अक्सर गाँव के बच्चे खेलते खेलते, वहाँ आते, पेड़ पर लगे फलों पर पत्थर मारते और दो चार आम गिरते, वहीं मिल बांट कर खा लिया करते।

उनके अपने बालपन का अभिन्न अंग बन गया था। खेलते खेलते आकर वही हैंडपंप में पानी भी पी लिया करती थे। चों – चों की आवाज करती उस हैंडपंप को भी बच्चों का इंतजार रहता था। परंतु जब से मालती मैडम आई थी किसी ने कह दिया था “मैडम बहुत सख्त है। कोई नहीं जाएगा, नहीं तो सजा मिलेगी।” बच्चे सहमे वहाँ तक जाते और बस लौट कर चले आते। पर मन में बात उनकी ठहर जाती थी।

आज हिम्मत करके दो बच्चे किसी तरह बगीचे में घुसे। बाकी सब बाहर तांके खड़े थे। खिड़की से मालती देख रही थी। अनायास अपने बेटे के हाथ पर लगी चोट और पुलिस थाना से लेकर कोर्ट कचहरी तक की बात को याद कर वह सहम गई। चुपचाप अनजान बन दूसरे कमरे में चली गई। मालती को वह घटना याद आ गई जब उसका अपना बेटा छोटा था और वह एक आम के बगीचे में आम तोड़ने की सजा उसे मिली थी। मन को आज भी नम  कर रहा था और उसी के कारण वह कभी किसी बच्चे को अपने यहाँ आने नहीं देना चाहती थी।

स्कूल में भी उनका व्यवहार सख्त था। परंतु आज बच्चों की सहमे चुपचाप चलने और बाल सुलभ चंचलता को देख मन बदल गया। वह बाहर निकल ही रही थी। बच्चे भागने लगे, पर देखा मैडम स्वयं बुला रही है और बांस की लंबी लकड़ी से आम तोड़ती नजर आ रही थी। अब तक जो बच्चे बाहर खड़े थे लगभग सभी बगीचे के अंदर आ गए।

उनका उछलना कूदना आज मैडम मालती को बहुत अच्छा लग रहा था। सच!!! इंसान अपनी गलती से ही कुछ सुधार कर सिखता है और आज भी यदि इन  बच्चों को क्रूरता से भगा देती तो यह प्रसन्नता का पल खो देती। अपने जीवन को और अधिक बोझिल और अकेलापन फिर से बना लेती।

आज बरसों बाद मैडम मालती को असीम शांति और प्रसन्नता हो रही थी। आम को जेबों में भर कर हाथ हिलाते बच्चों को आज मालती खड़ी हो कर हाथ हिला रही थी। पतिदेव की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने धीरे से कहा “मेरा गाँव आना सार्थक हो गया।”

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 36 – देश-परदेश – बूट पॉलिश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 36 ☆ देश-परदेश – बूट पॉलिश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त फोटो अमेरिका के बोस्टन शहर के हवाई अड्डे पर खींचा था। दो महराजा स्टाइल की कुर्सियां जैसे विवाह में नवविवाहितों के लिए ऊंचे मंच पर रखी होती हैं, उसी प्रकार से यहां हवाई अड्डे के अंदर रखी हुई थी, उसी के ऊपर ये बोर्ड लगा हुआ हैं। दो सज्जन अच्छी कद काठी वाले यात्रियों की तरफ लालियत निगाहों से जूते पोलिश करने का इंतजार करते रहते हैं। हमने रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर जूते साफ करने वाले ब्रश से थक थक करने की आवाज़ से ग्राहकों को रिझाते हुए तो अनेकों वर्षों से देखा और महसूस भी किया हैं। लेकिन विमानतल पर पहली बार ये सुविधा देखने को मिली।

हमारी जल्दी पहुंचने की अदातानुसार यहां भी हम निर्धारित समय से बहुत पूर्व ही अपना आसन जमा चुके थे। ये पॉलिश सुविधा की दुकान हमारे बोर्डिंग के अंत्यंत ही करीब थी।

भाव तालिका पर नजर डाली तो जूते के दस अमरीकी रूपे और बूट के पंद्रह राशि अंकित थी। जूते और बूट में अंतर समझने के लिए गूगल बाबा का सहरा लिया, तब कुछ अंतर समझ सके। बचपन से हम तो दिल्ली बूट हाउस या बॉम्बे बूट नामक  से ही  चप्पल,  जूता आदि खरीदते थे।

बूट पॉलिश करने वाले ने जब हमारे पैरों की तरफ नज़र डाली तो थोड़ा सा मुस्करा दिया, क्योंकि हम तो खिलाड़ी (स्पोर्ट्स) जूते पहने हुए थे। बातचीत का सिलसिला आरंभ हुआ तो उसने दुःखी मन से बताया की अब अधिकतर स्पोर्ट्स जूते ही उपयोग करने लगे हैं। उनकी रोज़ी रोटी मुश्किल हो गई हैं। उसी समय वर्दीधारी सज्जन ऊंची कुर्सी पर विराजमान हो गए और एक पॉलिश करने वाला नीचे बैठ कर जूते को चमकाने लगा। कुछ समय में वो बिना पैसे, धन्यवाद बोल कर विदा हो गया। हमने इसका कारण पूछा तो वो बोला ये पायलट है, इसलिए इनको मुफ्त सुविधा, प्रशासन द्वारा उपलब्ध हैं।

हमारे देश में भी स्टेशन/ बस स्टैंड का स्टाफ ऐसे कार्य फ्री में ही करवाता हैं। वैसे पुलिस वाले तो सभी सुविधाएं फ्री में लेने को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं।

हम लोग तो अधिकतर घर पर ही जूते पोलिश करते हैं,  लेकिन जब किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए जाते है, तो अवश्य बूट पालिश वालों की सेवाएं लेते हैं। जैसे की विवाह के लिए लड़की देखने जाना या नौकरी में साक्षात्कार पर जाना हो आदि। इस प्रकार हाथ से कार्य करते बहुत कम लोग ही विदेशों में देखने को मिलते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #190 ☆ सराव… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 190 ?

☆ सराव… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

दुःखांत पोहण्याचा इतका सराव आहे

वाट्यास खूप छोटा आला तलाव आहे

मी सोसल्या उन्हाचे दुःख का करावे ?

त्या तप्त भावनांशी माझा लगाव आहे

केला विरोध जेव्हा मी भ्रष्ट यंत्रणेचा

नाठाळ एक झाले आला दबाव आहे

मारून त्या बिचाऱ्या गेले टवाळ सारे

आता सभोवताली जमला जमाव आहे

उपवास नित्य शनिचा केला जरी इथे मी

हट्टी ग्रहा तुझा रे वक्री स्वभाव आहे

दारी तुझ्या प्रभू मी याचक म्हणून आलो

झाली तुझी कृपा अन् सरला तनाव आहे

यात्रा करून येथे थकलेत पाय माझे

दारात ईश्वराच्या पुढचा पडाव आहे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – पुढे चालत रहाण्यासाठी… – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

 

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– पुढे चालत रहाण्यासाठी…– ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

       .

जोवर पायात ताकत आहे

तोवर तु चालत रहा

साथीला कोणी नसेल तर

आपल्याच सावलीकडे पहा

अंधारात  गेलास तरीही

सावली साथ सोडत नसते

पायाजवळ येत येत ती

आपल्यातच मुरत असते

 उन्हामधे चालता चालता

 थकवा येईल भाजतील पाय

 तसच चालत रहा सतत

 अजिबात  थांबायच नाय

 परिक्षा घेणार आभाळ मग

आपोआप  भरून येईल

 चिंब चिंब  भिजवून  तुला

सारा थकवा घालवून  देईल

आता मात्र  थांब तू  चिंब  हो

 हात पसरून  स्वागत कर

मिठी मारून कवेत घे

पुढ चालत रहाण्यासाठी

पाऊस सारा मुरवून  घे

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 141 – तुम अच्छी लगती हो… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – तुम अच्छी लगती हो।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 141 – तुम अच्छी लगती हो…  ✍

लोग बुरा कहते है मुझको

तुम मुझको अच्छी लगती हो।

जाने तुममें ऐसा क्या है।

अनजाने ही यह लगाव है

तुम जाने क्या सोचा करती

मेरे मन में एक भाव है

ओ, मनभावन सच कहता हूँ

तुम मुझको अच्छी लगती हो।

ऐसा मन पाया है तुमने

जैसे बिल्कुल निर्मल जल हो

धुला धूप में तन है जैसे

दूध नहाया रक्त कमल हो।

राजकुमार अभावों का मैं

तुम मुझको अच्छी लगती हो।

चाहे दूर दृष्टि से हो पर

हरदम मेरे आसपास हो

जब चाहे छूलूँ मैं तुमको

इन प्राणों के बहुत पास हो।

जाने मैं कैसा लगता हूँ

तुम मुझको अच्छी लगती हो।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 140 – “दुर्गम्य पथों का अनुरागी…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  “दुर्गम्य पथों का अनुरागी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 140 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ दुर्गम्य पथों का अनुरागी ☆

वो जो आत्ममुग्ध थे

अपने उन्नत लेखन पर

चले गये ऐसे ही वे

संक्षिप्त निवेदन पर

 

समझे थे खुद को

दुर्गम्य पथों का अनुरागी

वाणी में लेकर चलते

प्रज्जवलिताआगी

 

उन्हे क्षमा करने का हक

लोगो ने जब पाया

देते रहे चाँदनी तब

उनके आवेदन पर

 

यह मुहावरा बाछें खिलना

आया प्रचलन में

उन की परछाई बन चलना

था अनुशीलन में

 

कई कई उद्धरण बिखरकर

पहुँचे जन-जन तक

जिनमें उनकी ललक दिखी

यश के सम्वेदन पर

 

उनकी दिनचर्या होती थी

दिन का घटना क्रम

दिवस रैन जारी रहता था

यह महानतम भ्रम

 

जिसका अनुमोदन करने को

था उन ने सोचा

माँगेगे हम सिर्फ अमरता

इस आरेखन पर

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

28-05-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 190 ☆ “सोशल पर अवतरण दिवस…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य  – सोशल पर अवतरण दिवस)

☆ व्यंग्य — “सोशल पर अवतरण दिवस…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

अच्छे दिन आने वाले हैं ऐसा सोचकर कितना अच्छा लगता है। दुःख, परेशानियां, मुसीबतों के बीच जब खूब सारे लोग बधाईयां और शुभकामनाएं देने लगते हैं तो अच्छा तो लगता है,वो दिन अच्छा लगता है ये दिन झूठ मूठ का भले हो।साल भर में दो चार बार अच्छे दिन लाने को लिए आजकल सोशल मीडिया बड़ा साथ दे रहा है। आजकल अच्छे दिन का अहसास कराने के लिए अपन झूठ-मूठ के लिए फोटो लगाकर अपना अवतरण दिवस या जन्मदिन की घोषणा कर देते हैं ये बात अलग है कि लोग इस झटके को हैप्पी बनाने के लिए हैप्पी बर्डे का नाम दे देते हैं, जैसे आज मेरा सरकारी जन्मदिन है और अगर इस दुनिया में किसी नकली चीज़ पर भी सरकारी मुहर लग जाए तो वही असली हो जाती है।

मेरा जन्मदिन मेरे बच्चों के अलावा किसी को याद नहीं रहता। घरवाली अक्सर इग्नोर करती है,पर बच्चे मुझे याद दिला देते हैं, फिर भी मै भी भूलने की कोशिश करता हूं। मोबाइल में खामखां केक और लड्डुओं का इतना ढेर लग जाता है कि अगर सब सजा दूं तो लोग घर को मिष्ठान भंडार समझ लें। मुश्किल ये कि आप इन्हें न खा सकते हैं और न पड़ोसी के यहां भिजवा सकते हैं। सबके सब मोबाइल से बाहर निकलते ही नहीं है। जब बहुत दिन हो जाते हैं तो फिर मन में कुलबुलाहट होने लगती है और अचानक दादी असली वाले जन्मदिन की याद दिला देती है मैं सोचता हूं अभी चार महीने पहले तो झूठ मूठ की इतनी बधाई और शुभकामनाएं बटोरीं थीं फिर पोल न खुल जाए पर मौसी उधर देहरादून से फेसबुक में हैप्पी बर्डे की पोस्ट डाल देती है फिर दिन भर बधाई और शुभकामनाओं का तांता लग जाता है हालांकि कि कुछ लोग फोन पर कटाक्ष करने लगते हैं कि यार बताओ कि तुम साल में कितने बार पैदा हुए हो…. अब आप ही बताओ कि बहुत लोगों को यदि अलग माह में मेरा हैप्पी बर्डे मनाने को इच्छा है तो किसी को मैं रोक सकता हूं कई बार तो ऐसा भी होता है कि मगरमच्छ जैसे निष्क्रिय रहने वाले समूह सदस्य भी जन्मदिन का मैसेज पढ़कर तुरंत  तैयार शुदा बधाई प्रेषित करने में देरी नहीं करते , तुरंत फारवर्ड वाला रेडीमेड मैसेज भेज देते हैं, फिर मुझे एक एक सदस्य को अलग अलग धन्यवाद प्रेषित करना ही पड़ता है,डर लगता है कि यदि धन्यवाद नहीं दिया तो सामने वाला नाराज होकर अगली बार  बधाई और शुभकामनाएं न भेजे। समूह के कुछ सदस्य तो समूह के अलावा अलग से भी बधाई का मैसेज भेज देते हैं, अब आप ही बताओ कि मैं अपनी इज्जत कैसे बचाऊं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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