मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 154 – देवा पांडुरंगा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 154 – देवा पांडुरंगा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

देवा पांडुरंगा।

पाहसी का अंत।

दाटलीसे खंत।

माझ्या मनी।।१।।

 

गेली दोन सालं।

लेकरे बंदिस्त।

घातली रे गस्त।

कोरोनाने।।२।।

 

आषाढीची वारी।

निघे पांडुरंगा।

येऊ कैसे सांगा।

पंढरीत।।३।।

 

बालकात दिसे।

विठू रखुमाई।

शिकण्याची घाई।

तया लागी।।४।।

 

खडू फळा जणू।

टाळ नि मृदुंग।

पुस्तकात दंग।

पांडुरंग।।४।।

 

वाचतो मी नेमे।

अक्षरांची गाथा।

ज्ञानार्जनी माथा।

ठेवी नित्य।।५।।

 

पुन्हा जोडलीया।

शिक्षणाची नाळ।

विठाईच बाळ।

भासे मज ।।६।।

 

देवा पांडुरंगा।

आम्ही वारकरी।

शिक्षण पंढरी।

ध्यास ऊरी।।७।।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #184 ☆ मूर्खों के पांच लक्षण ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मूर्खों के पांच लक्षण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 184 ☆

☆ मूर्खों के पांच लक्षण 

‘मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ  और दूसरों की बात का अनादर।’ वाट्सएप के इस संदेश ने मुझे इस विषय पर लिखने को विवश कर दिया, क्योंकि सत्य व यथार्थ सदैव मन के क़रीब होता है; भावनाओं को झकझोरता है और चिंतन-  मनन करने को विवश करता है। सामान्यत: यदि कोई अटपटी बात करता है; अपना पक्ष रखने के लिए व्यर्थ की दलीलें देता है; अपनी विद्वत्ता का बखान करता है; बात-बात पर अकारण क्रोधित  होता है तथा दूसरों की पगड़ी उछालने में पल-भर भी नहीं लगाता..उसे अक्सर मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है, क्योंकि वह दूसरों की बातों की ओर तनिक भी ध्यान अथवा तवज्जो नहीं देता…सदैव अपनी-अपनी हांकता है। वैसे नास्तिक व्यक्ति भी परमात्म-सत्ता में विश्वास नहीं रखता और वह स्वयं को सर्वज्ञ, सर्वज्ञानी व सर्वश्रेष्ठ समझता है। वास्तव में ऐसा प्राणी करुणा अथवा दया का पात्र होता है। आइए! विचार करें, मूर्खों के पांचों लक्षणों पर… परंतु जो इन दोषों से मुक्त हैं– ज्ञानी हैं, विद्वान हैं, श्रद्धेय हैं, उपास्य हैं।

गर्व, घमण्ड व अभिमान मानव के सर्वांगीण विकास में बाधक हैं और अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो भौतिक व आध्यात्मिक विकास में बाधक है। वास्तव में अहं गर्व-सूचक है … आत्म-प्रवंचना व आत्म-श्लाघा का, जो मानव की नस-नस में व्याप्त है, परंतु वह परमात्मा द्वारा प्रदत्त नहीं है। दूसरे शब्दों में आप उन सब गुणों-खूबियों का बखान करते हैं, जो आप में नहीं हैं और जिसके आप योग्य नहीं है। दूसरे शब्दों में इसे अतिशयोक्ति भी कहा जाता है। इसका दूसरा भयावह पक्ष यह है कि जो आपके पास है, उसके कारण आप अहंनिष्ठ होकर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, दूसरों को नीचा दिखाते हैं; उनकी भावनाओं को रौंदते हुए, उन पर आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं– जो सर्वथा अनुचित है। अहंभाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है, जिसके परिणाम-स्वरूप वह एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होता है। सब उसे शत्रु-सम भासते हैं और जो भी उसे सही राह दिखाने की चेष्टा करता है; जीवन के सत्य व कटु यथार्थ से परिचित कराना चाहता है; उसकी कारस्तानियों से अवगत कराना चाहता है–वह उस पर ज़ुल्म ढाने से गुरेज़ नहीं करता। जब इस पर भी उसे संतोष नहीं होता, तो वह उसके प्राण लेकर सूक़ून पाता है। इसलिए  वह अपने अहंभाव के कारण आजीवन सत्मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाता।

अपशब्द अर्थात् बुरे शब्द अहंनिष्ठता का परिणाम हैं, क्योंकि क्रोध व आवेश में वह मर्यादा को ताक़ पर रख व सीमाओं को लांघकर अपनी धुन में ऊल- ज़लूल बोलता है…सबको अप-शब्द कहता है, गाली -गलौच पर उतर आता है। वह भरी सभा में किसी पर भी झूठे आक्षेप-आरोप लगाने व वह नीचा दिखाने के लिए हिंसा पर उतारू हो जाता है। जैसा कि सर्वविदित है– बाणों के घाव तो कुछ समय पश्चात् भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। द्रौपदी का ‘अंधे की औलाद अंधी’ वाक्य महाभारत के युद्ध का कारण बना। ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है इतिहास… सो! ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ को सिद्धांत रूप में अपने जीवन में उतार लेना ही श्रेयस्कर है। आप किसी को अपशब्द बोलने से पूर्व स्वयं को उसके स्थान पर तराज़ू में रखकर तोलिए और यदि वह उस कसौटी पर ख़रा उतरता है–तो उचित है; वरना उन शब्दों का प्रयोग कदाचित् मत कीजिए, क्योंकि वे शब्द-बाण कभी भी आपके गले की फांस बन सकते है।

प्रश्न उठता है कि अपशब्द का मूल क्या है? किन परिस्थितियों व कारणों से वे जन्म लेते हैं; अस्तित्व में आते हैं। सो! इनका जनक है क्रोध और क्रोध चांडाल होता है, जो बड़ी से बड़ी आपदा का सब कुछ जानते हुए भी आह्वान करता है। वह सबको एक नज़र से देखता है; एक ही लाठी से हांकता है; सभी सीमाओं का अतिक्रमण करता है। मर्यादा शब्द तो उसके शब्दकोश के दायरे से बाहर रहता है।

परशुराम का क्रोध में अपनी माता की हत्या कर देना, तो सर्वविदित है। क्रोध के परिणाम सदैव भीषण व भयंकर होते हैं। सो! मानव को इसके चंगुल से बाहर रहने का सदैव प्रयास करना चाहिए।

हठ…हठ अथवा ज़िद का प्रणेता है क्रोध। बाल-हठ से तो आप सब अवगत होंगे। बच्चे किसी पल, कुछ भी करने व किसी वस्तु को पाने का हठ कर लेते हैं; जिसे पूरा करना असंभव होता है। परंतु उन्हें बात बदल कर,व अन्य वस्तु देकर बहलाया जा सकता है। सो! इससे किसी की भी हानि नहीं होती, क्योंकि बाल-मन तो कोमल होता है …राग-द्वेष से परे होता है। परंतु यदि कोई मूर्ख व्यक्ति हठ करता है, तो वह पूरे समाज को  विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। उसे समझाने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं होती, क्योंकि हठी व्यक्ति जो ठान लेता है, लाख प्रयास करने पर भी वह टस-से-मस नहीं होता। अंत में वह उस मुक़ाम पर पहुंच जाता है, जहां वह अपनी सल्तनत तक को अपने हाथों जला अथवा नष्ट कर तमाशा देखता है और उस स्थिति में स्वयं को हरदम नितांत अकेला अनुभव करता है, क्योंकि उसके सुंदर स्वप्न जल कर राख हो चुके होते हैं।

मूर्ख व्यक्ति दूसरों का अनादर करने में पल-भर भी नहीं लगाता, क्योंकि वह अहं व क्रोध के शिकंजे में इस क़दर जकड़ा होता है कि उससे मुक्ति पाना उस के वश में नहीं होता। वह सृष्टि-नियंता के अस्तित्व को नकार, स्वयं को बुद्धिमान व सर्वशक्तिमान

स्वीकारता है और उसके मन में यह प्रबल भावना घर कर जाती है कि उससे अधिक ज्ञानवान् इस संसार में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। सो! वह अपनी अहं-तुष्टि ही नहीं, अहं-पुष्टि हेतु क्रोध के आवेश में हठपूर्वक अपनी बात मनवाना चाहता है, जिसके लिए वह अमानवीय-कृत्यों तक का सहारा भी लेता है। ‘बॉस इज़ ऑलवेज़ राइट’ अर्थात् बॉस अथवा मालिक सदैव ठीक होता है तथा कोई ग़लत काम कर ही नहीं सकता अर्थात् ग़लत शब्द उसके शब्दकोश की सीमा से बाहर रहता है। वह निष्ठुर प्राणी कभी भी अनहोनी कर गुज़रता है, क्योंकि उसे अंजाम की परवाह नहीं होती ही नहीं।

यह थे मूर्खों के पांच लक्षण…वैसे तो इंसान ग़लतियों का पुतला है। परंतु यह वे संचारी भाव हैं, जो स्थायी भावों के साथ-साथ, समय-समय पर प्रकट होते हैं, परंतु शीघ्र ही इनका शमन हो जाता है। यह कटु सत्य है कि जो भी जीवन में इन्हें धारण कर लेता है अथवा अपना लेता है… उसे मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। वह घर-परिवार के लोगों का जीना भी दूभर कर देता है तथा उन सबको अपना विरोधी स्वीकारते हुए, अपना पक्ष रखने का अवसर व अधिकार ही कहां प्रदान करता है? अपने पूर्वजों की धरोहर के रूप में रटे-रटाए चंद वाक्यों का प्रयोग; वह हिटलर की भांति किसी भी अवसर पर धड़ल्ले से करता है। हां! घर से बाहर वह प्रसन्न-चित्त रहता है; सदैव अपनी-अपनी हांकता है तथा किसी को बोलने अथवा अपना पक्ष रखने का अवसर ही प्रदान नहीं करता। परंतु चंद लम्हों में लोग उसकी फ़ितरत को समझ जाते हैं तथा उसके चारित्रिक गुणों से वाक़िफ़ हो जाते हैं। वे उससे निज़ात पा लेना चाहते हैं, ताकि कोई अप्रत्याशित हादसा घटित न हो जाए। वैसे परिवारजनों को सदैव यह आशंका बनी रहती है कि उस द्वारा बोला उच्चरित कोई वाक्य, कहीं उन सबके लिए बवाल व भविष्य में जी का जंजाल न बन जाए। वैसे ‘बुद्धिमान को इशारा काफी’ अर्थात् जो लोग उसके साथ रहने को विवश होते हैं, उनकी ज़िंदगी नरक-तुल्य बन जाती है। परंतु गले पड़ा ढोल बजाना उनकी विवशता होती है; जिसे सहर्ष स्वीकारना व अनुमोदन करना–उनकी नियति बन जाती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #183 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 183 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… ☆

ग्रीष्म काल की तपन का, अब होता आभास।

झुलस रहे देखो सभी, बस वर्षा की आस।।

धरती तपती ताप से, पंछी हैं बेहाल।

सूखे है जल कूप अब, बुरा हुआ है हाल।।

गर्मी जब से आ गई, नहीं मिली है ठांव।

गांव-गांव सब सूखते, गायब होती छांव।।

जितनी बढ़ती तपन हैं, सूरज खेले दांव।

धीरे-धीरे बढ़ रहे, वर्षा के अब पांव।।

धरती कहे आकाश से, तपन बहुत है आज।

बरसो घन अब आज तुम, हे बादल सरताज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #169 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 169 ☆

☆ “संतोष के दोहे …☆ श्री संतोष नेमा ☆

(विधा:-  कुंडलिया छंद,  विधान:-1 दोहा (13-11) 2 रोला (11-13))

गरमी में जो रख रहे, पशु-पक्षी का ध्यान

रखें सकोरा जल सहित, धन्य वही इंसान। 

धन्य वही इंसान, समझते जो पर पीड़ा

रख ओरों का मान, बनो मत बिच्छू कीड़ा।

कहते कवि “संतोष”, बनें हम सच्चे धरमी

खोजें खुद में दोष, रखें शांत मन गरमी। 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #176 ☆ सरस्वती स्तवन… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 176 – विजय साहित्य ?

☆ सरस्वती स्तवन… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

मयुरवाहिनी,पद्ममालिनी, देवी शारदा नमो नमो

हंस वाहिनी, विद्यावती तू, भुवनेश्वरी नमो नमो.  ||धृ.||

शास्त्ररूपीणी,त्रिकालज्ञायै, चंद्रवदनी तीव्रा भामा

सुरवन्दिता,सुरपुजिता, पद्मनिलया, विद्या सौम्या

विन्धयवासिनी सौदामिनी तू,पद्मलोचना नमो नमो  ||१.||

महाकारायै,पुस्तक धृता, विमला विश्वा वरप्रदा

महोत्सहायै,महाबलायै, दिव्यांगा, वैष्णवी,श्रीप्रदा

सौदामिनी तू,सुवासिनी तू,कामरूपायै नमो नमो ||२.||

सावित्री,सुरसा,गोमती तू, महामायायै रमा परा

शिवानुजायै, सीता सुरसा, शुभदा कांता, चित्रांबरा

विशालाक्षी तू,त्रिकालज्ञायै,धुम्रलोचनी नमो नमो ||३.||

गोविंदा, गोमती,नीलभुजा, शिवानुजायै, महाश्रया

श्वेतसनायै, सुधामुर्ती तू, कला संपदा, सुराश्रया

जटिला,चण्डिका,पद्माक्षी तू,ज्ञानरूपायै नमो नमो ||४.||

शिवात्मकायै,सरस्वती तू, चतुरानन कलाधारा

निरंजना तू,महाभद्रायै,वीणावादिनी, स्वरधारा

साहित्यकलेची,स्वरदेवी, सृजनप्रिया नमो नमो||५.||

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २५ : ऋचा १ ते ७ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २५ : ऋचा १ ते ७ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

मण्डल १ – सूक्त २५ (वरुणसूक्त) – ऋचा १ ते ७

ऋषी – शुनःशेप आजीगर्ति : देवता – वरुण 

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील पंचविसाव्या  सूक्तात शुनःशेप आजीगर्ती  या ऋषींनी वरुण देवतेला आवाहन केलेले  असल्याने हे वरुणसूक्त म्हणून ज्ञात आहे.  आज मी आपल्यासाठी वरुण देवतेला उद्देशून रचलेल्या पहिल्या सात ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे. 

मराठी भावानुवाद ::

यच् चि॒द्धि ते॒ विशो॑ यथा॒ प्र दे॑व वरुण व्र॒तम् । मि॒नी॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि ॥ १ ॥

वरूण राजा तुमची प्रजा अज्ञानी आम्ही

तुमची आज्ञा आम्हा अज्ञा उमगत ना काही

अवधानाने उल्लंघन झाले अमुच्या आचरणे

विशाल हृदयी क्षमा करोनी हृदयाशी घेणे ||१|| 

मा नो॑ व॒धाय॑ ह॒त्नवे॑ जिहीळा॒नस्य॑ रीरधः । मा हृ॑णा॒नस्य॑ म॒न्यवे॑ ॥ २ ॥

आज्ञेच्या अवमानासाठी  देहान्त शासन 

कोप करोनी आम्हावरती नका करू ताडण 

झाला आज्ञाभंग तरी तो केला ना बुद्ध्या 

नका देऊ हो बळी अमुचा तीव्र अपुल्या क्रोधा ||२|| 

वि मृ॑ळी॒काय॑ ते॒ मनो॑ र॒थीरश्वं॒ न संदि॑तम् । गी॒र्भिर्व॑रुण सीमहि ॥ ३ ॥

वेसण घालूनिया वारूला योद्धा बांधून ठेवी

स्तोत्रे तशीच अमुची वेसण मना जखडूनि ठेवी

सुखा मागण्या तुमच्या ठायी बद्ध आम्ही होतो

तव चरणांवर अर्पण करुनी श्रद्धा  निरुद्ध करतो ||३||

परा॒ हि मे॒ विम॑न्यवः॒ पत॑न्ति॒ वस्य॑इष्टये । वयो॒ न व॑स॒तीरुप॑ ॥ ४ ॥

द्विजगण अवघे घेत भरारी अपुल्या कोटराते

मनोरथांची कल्पना तशी तुम्हाकडे पळते

तुमच्या चरणी आर्त प्रार्थना आलो घेऊनिया  

सुखलाभाच्या वर्षावाचे दिव्य दान मागण्या ||४||

क॒दा क्ष॑त्र॒श्रियं॒ नर॒मा वरु॑णं करामहे । मृ॒ळी॒कायो॑रु॒चक्ष॑सम् ॥ ५ ॥

चंडपराक्रम अलंकार हा तुमचा वरूणदेवा

प्रसन्न होऊन अमुच्यावरती यज्ञी झडकरी धावा

तुष्ट होऊनीया भक्तीने आम्हाला वर द्यावा

जीवनात अमुच्या वर्षाव सुखतृप्तीचा व्हावा ||५||

तदित्स॑मा॒नमा॑शाते॒ वेन॑न्ता॒ न प्र यु॑च्छतः । धृ॒तव्र॑ताय दा॒शुषे॑ ॥ ६ ॥

उभय देवता अती दयाळू स्वीकारून घेती

समसमान वाटुनिया अमुच्या हविर्भागा घेती

आज्ञाधारक यजमानावर प्रसन्न ते होती

वरदायी होती, तयाला निराश ना करिती ||६||

वेदा॒ यः वी॒नां प॒दम॒न्तरि॑क्षेण॒ पत॑ताम् । वेद॑ ना॒वः स॑मु॒द्रियः॑ ॥ ७ ॥

मुक्त विहंगत व्योमातुनिया द्विजगण अगणित

मार्ग तयांचा कसा जातसे  हे जाणुनि आहेत  

निवास यांचा सागरावरी सदैव नि शाश्वत

तारु तरंगत कैसे जात ज्ञात यांसि वाट ||७||

(या ऋचांचा व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे.. या व्हिडीओची लिंक देखील मी शेवटी देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)  

https://youtu.be/YfxdaAdbE_8https://youtu.be/YfxdaAdbE_8

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Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 25 Rucha 1-7

 

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ कण कण वेचिताना… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

 

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ कण कण वेचिताना… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

… असं म्हणतात की जो इथं जन्माला आला त्याच्या अन्नाची सोय झालेली असतेच. अर्थात चोच आहे तिथे चाराही असतो.. फक्त ज्याला त्याला तो शोधावा लागतो.. त्यासाठी त्याला जन्मताच मिळालेले हातपाय योग्य वेळ येताच हलवावे लागतात.. असेल माझा हरी देई खाटल्यावरी असे भाग्यवंत खूप विरळे असतात.. अदरवाईज जिथे जिथे दाणा पाणी असेल तिथवर यातायात हि करावीच लागते.. बरं पोटाची व्याप्ती पण एकच एक दिवसाची असते.. होय नाही तर ते एकदा ओतप्रोत.. नव्हे नव्हे तट्ट ( फुटेपर्यंत) भरले एकदा आता पुढे चिंता मिटली असं का होतं. तुमचा आमचा अनुभव असा तर अजिबात नाही ना हे सर्व मान्य अक्षय सत्य आहे. दुसरं त्यात पहाना आपलं एकटयाचंच उदरभरणाची गोष्ट असती तर एकवेळ थोडा पोटाला चिमटा घेऊन रोजची हि दगदग न करता एक दोन दिवसाच्या फरकाने चाऱ्याचा शोधात हिंडता आले असते. पण तसं नशिबात नसतं. आपल्या बरोबर आपलीच रक्तामासाची, आपुलकीच्या वीणेने बांधलेली नाती यांची जबाबदारी …घरटयातला कर्त्याला कर्तव्य चुकत नसतं.. अन मग रोज मिळालेला चारा सर्वांना पुरणारा नसेल तर स्वताच्या पोटाला चिमटा घ्यावा लागतो तो खऱ्या अर्थाने. तैल बुद्धीच्या माणसांसारखा हा अन्नाचा साठा करून ठेवण्याची क्षमता आमच्या पक्ष्यांच्या घरटयात नाही.. त्यामुळे फार काळ साठवलेले अन्नधान्य नाहक नाशवंत होण्याचा धोकाही होत नाही…उन्हाळ्या असो वा पावसाळा, वा हिवाळयाचा कडाका , दाण्याच्या शोधात गावात करावा लागतोच फेरफटका… हि आम्हाला पक्ष्यांना नैसर्गिक शिकवण दिलीयं.. गरजेपुरते आजचे घ्या आणि इतर भुकेलेल्यांना शिल्लक ठेवा निस्वार्थ बुद्धीने.. त्यामुळे कधीही कमतरता पडलीच नाही, भुकबळी झालाच नाही, ना चाऱ्यासाठी आपापसांत भांडण तंटे, चोऱ्यामाऱ्या झाल्या नाहीत.. जे आम्हाला माणसांच्या जगात नेहमी दिसत आलयं.. जे मिळालयं त्यात तृप्तता आमच्या अंगाखांद्यावर दिसून येते..निसर्गत: सामाजिक बांधिलकीची समज असते ती आपल्या सर्वप्राणीमात्रात फक्त आम्हाला उमजलीय .. नि तुम्हा मानवांना स्वार्थाचा तण जो असतो तो मात्र उमजून घेण्याची तसदी घेत नाही… ती लवकरच उमजून यावी हि त्या जगनियंत्याला प्रार्थना..

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 150 ☆ क्यों दाता बनें विधाता…? ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “क्यों दाता बनें विधाता…?। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 150 ☆

☆  क्यों दाता बनें विधाता…?

प्रचार- प्रसार के माध्यमों से लोक लुभावन सपने दिखाना तो एक हद तक सही हो सकता है, किंतु मुफ्त में सारी सुविधाओं को देने से कामचोरी की आदत पड़ जाती है। जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं, अशक्त हैं उन्हें मजबूत करने के प्रयास हों। पर जाति, धर्म, अल्पसंख्यक के नाम पर समाज को विभाजित करके सुविधाओं का आरक्षण देना समाज को जड़ से कमजोर करने की दिशा में उठाया गया कदम साबित हो रहा है।

जब राष्ट्रवाद की परिकल्पना साकार होती है तो व्यक्ति हर प्रश्नों से ऊपर उठकर अपना कर्तव्य निभाने की ओर चल देता है। हर वर्ग ने जाति, धर्म, अमीरी- गरीबी से ऊपर उठ केवल देश हित को सर्वोपरि माना है। कहा भी गया है – जननी जन्मभूमिश्चय स्वर्गादपि  गरियसी  अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है।

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।

हृदय नहीं वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। ।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियाँ सबका मार्गदर्शन करती हैं। क्या अच्छा नहीं होगा कि सत्ता को पाने के लिए दाता बना भाग्य विधाता की सोच से ऊपर उठकर हम कार्य करें। जनमानस को सचेत होकर अपने दायित्वों का निर्वाहन करना होगा तभी बिड़गी चाल पर नियंत्रण रखा जा सकेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 214 ☆ आलेख – निद्रा योग… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख  –निद्रा योग

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 214 ☆  

? आलेख निद्रा योग?

अनिद्रा एक ऐसी परेशानी है जो  शरीर के अनेक रोगों का कारण होती है । जब कोई व्यक्ति अनिद्रा से पीड़ित हो तो उसे यह समझना चाहिए कि उसके शरीर में कोई समस्या है, जो बाद में किसी अन्य रूप में विकसित हो जाएगी। अनिद्रा के कारण पाचन तन्त्र प्रभावित हो जाता है ।  जो लोग ठीक से  सो नहीं पाते , उनमें से अधिकतर लोगों का यकृत खराब हो जाता है। समय के साथ अनिद्रा के चलते शरीर की सामान्य क्रियायें अव्यवस्थित हो जाती हैं। जब स्नायु तन्त्र में समस्या उत्पन्न होती है तो हम दैनिक कार्य भी कर पाने में असमर्थ हो जाते हो, जल्दी थक जाते हैं।

 धुनिक चिकित्सा में जब कोई अनिद्रा से पीड़ित होता है तो उसे प्रायः नींद की गोलियाँ दी जाती हैं। नींद की गोलियाँ आराम तो देती हैं, इसमें कोई संदेह नहीं, परन्तु वे रोग के कारण को दूर नहीं कर पाती हैं। कई बार शरीर के हॉर्मोनों का ठीक से कार्य न करना अनिद्रा का कारण होता है। उदाहरण के लिए यदि एड्रीनल ग्रन्थि ठीक से कार्य न करें, तो विषाद रोग हो जाता है। कई बार जब हम जीवन के किसी पहलू को लेकर चिन्तित रहते हैं तब  अनिद्रा के शिकार हो जाते हैं,  अतः यह आवश्यक है कि लोग जानें कि स्वाभाविक रूप से अच्छी तरह कैसे सोया जाए। इस सम्बन्ध में योग की  भूमिका    महत्त्वपूर्ण है। नींद की समस्या के बढ़ते, विदेशों में स्लीप क्लीनिक तक खुल रहे हैं।

 योग के ऐसे अनेक अभ्यास हैं जिनसे अच्छी नींद आती है। मस्तिष्क में विद्युत की आवृत्तियाँ होती हैं जिन्हें मस्तिष्क तरंग कहते हैं। अलग-अलग समय पर ये तरंगें बदलती रहती हैं। ये तरंगें डेल्टा, थीटा, अल्फा और बीटा कहलाती हैं। मस्तिष्क की उच्च आवृत्ति को नीचे लाना आवश्यक है, विशेषकर रात्रि में जब मस्तिष्क में आवृत्तियाँ न्यूनतम हो जाती हैं, तो शरीर में क्रियाशीलता भी न्यूनतम हो जाती है और ऑक्सीजन की खपत भी न्यूनतम हो जाती है जब हम ठीक से सोते हैं तो  अगले दिन  अधिक शक्ति से सक्रिय हो पाते हैं।

 योग में निद्रा को बहुत महत्त्वपूर्ण समझा जाता है क्योंकि योग दर्शन के अनुसार निद्रा एक निष्क्रिय अवस्था नहीं है गहन निद्रा के समय व्यक्ति अचेतन तल पर बहुत सक्रिय हो जाता है और वह अपनी अन्तरात्मा के बहुत निकट आ जाता है। यही कारण है कि निद्रा  इतनी शक्ति इतनी ताजगी और इतना आनन्द देती है।  इसी कारण से योग ने कुछ अनुशासन बनाए हैं।

 योग में अनिद्रा से सम्बन्धित प्रथम अनुशासन यह है कि ज्यादा भरे हुए पेट के साथ नहीं सोना चाहिए।  यदि रात्रि में पेट में बिना पचा हुआ भोजन रहता है तो अति अम्लता से पेट में जलन होती है। 

पेट में एसिडिटी गैस के चलते रात्रि में बेतुके, विचित्र स्वप्न आते हैं जिससे निद्रा में व्यवधान उत्पन्न होता है अतः योग में यह सलाह दी गई है कि रात्रि के भोजन और सोने में कम-से-कम तीन घण्टों का फासला होना चाहिए। यह शाकाहारी लोगों के लिए है। मांसाहारी लोगों के लिए तीन घंटे से ज्यादा समय होना चाहिए ।

 दूसरा अनुशासन यह है की बाएँ करवट सोना चाहिए। कुछ लोग पीठ के बल सोना पसन्द करते हैं, अन्य लोग अपनी दायीं तरफ घूम कर सोना पसन्द करते हैं और अनेक लोग पेट के बल सोते हैं। ये तीनों स्थितियाँ वैज्ञानिक नहीं समझी जातीं। हाँ, जो लोग स्लिप डिस्क या सायटिका से पीड़ित हैं उन्हें पेट के बल सोना चाहिए, लेकिन एक आम व्यक्ति को बायीं तरफ सोना चाहिए, क्योंकि इससे हृदय पर बहुत कम दबाव पड़ता है।

 तीसरा यौगिक नियम है, बिस्तर पर जाने के पूर्व  दस से बीस मिनट के लिए शांत बैठ जाना चाहिए। यह केवल अनिद्रा से पीड़ित लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि हम सभी के लिए है, क्योंकि जब हम बिस्तर पर जाते हैं तो अवचेतन मन सक्रिय हो जाता है।

 निद्रा एक मानसिक अवस्था है और मन की एकाग्रता मन्त्र के रूप में होनी चाहिए। ‘ॐ ॐ ॐ का मानसिक उच्चारण करना चाहिए, क्योंकि ॐ एक सार्वभौमिक ब्रह्माण्डीय ध्वनि है । सोने के पहले मंत्र जप शान्ति और एकाग्रता उत्पन्न करती है। सत्ताईस दानों की एक छोटी माला रखना भी अच्छा है जिसमें कहीं कोई रुकावट न हो ज्यादातर मालाओं के बीच में एक विराम होता है, जिसे सुमेरु या शीर्ष कहते हैं, परन्तु रात में बिस्तर पर जाने के पहले  जिन मालाओं का उपयोग करते हैं उनमें यह व्यवधान नहीं होना चाहिए।

 चौथा महत्त्वपूर्ण अनुशासन है योगनिद्रा का अभ्यास योगनिद्रा एक बहुत शक्तिशाली विधि है।

  शरीर के अनेक अंग हैं, जैसे हाथों के अंगूठे और अंगुलियाँ, होंठ और नाक, नितम्ब और कमर, पैरों के अंगूठे और अंगुलियाँ। इस प्रकार तुम्हारे बाह्य शरीर में छिहत्तर केन्द्र हैं जिनके प्रतिरूप मस्तिष्क के एक विशेष भाग में स्थित होते हैं। जब हम एक-के-बाद-एक शरीर के इन अंगों पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो विशेष प्रकार की सम्वेदना उत्पन्न होती है। यह सम्वेदना एक भावना के रूप में मस्तिष्क के केन्द्रों में संचारित होती है। जैसे ही इस सम्वेदना का संचार मस्तिष्क में होता है, अविलम्ब विश्राम का अनुभव होता है।  यह योगनिद्रा का अभ्यास है।

 योगनिद्रा प्रारम्भ करने से पूर्व एक अन्य महत्त्वपूर्ण अभ्यास है,रात को बिस्तर पर जाने से पूर्व एक प्रकाश पुंज  इस प्रकार रखें कि उसकी वह आँखों के स्तर से बहुत ऊँचा न हो और स्थिर रहे।  जितनी देर सम्भव हो उतनी देर उसे अपलक निहारते रहे, फिर  आँखें बन्द करने के बाद अपने मन को  माथे के मध्य पर एकाग्र करो और वहाँ प्रकाश के प्रतिरूप को देखने का प्रयास करो कुछ देर इसे करो और उसके बाद ओम मन्त्र का जप करो। फिर पीठ के बल लेट जाओ और थोड़ा योगनिद्रा का अभ्यास करो, तय है की गहरी नींद आ आएगी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 161 ☆ बाल गीत – लंबी गर्दन लंबे पैर ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 161 ☆

☆ बाल गीत – लंबी गर्दन लंबे पैर ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

लंबी गर्दन लंबे पैर।

सदा वनों में करता सैर।।

 

थल पशुओं में सबसे लंबा

धरती का है बड़ा अचम्भा

अट्ठारह फुट ऊँचा होता

शाकाहारी जैसे तोता।।

 

जो भी इस पर हमला करता

मार दुलत्ती लेता खैर।

सदा वनों में करता सैर।।

 

अफ्रीका का जंतु अनोखा

नहीं आक्रमण का दे मौका

घास – पात है इसका चारा

चितकबरा है अद्भुत प्यारा।।

 

सदा शांत रहने वाला यह

नहीं किसी से रखता बैर।

सदा वनों में करता सैर।।

 

जू की सैर कर रहे सोनू

साथ में उनके भैया मोनू

थी जिराफ की उसमें प्रतिमा

हमें बिठाओ इस पर अम्मा।।

 

बैठे दोनों उड़े गगन में

खूब मजे में कर ली सैर।।

सदा वनों में करता सैर।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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