हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 131 ☆ # फैमिली कोर्ट… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# फैमिली कोर्ट… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 131 ☆

☆ # फैमिली कोर्ट… # ☆ 

वो फैमिली कोर्ट में खड़े है

अपनी अपनी जिद पर अड़े है

शिक्षित, नौकरी पेशा है

संस्कारवान, धर्मभीरु हमेशा है

दोनों सुंदर और सुशील है

दयालु, करूणा से भरे नेकदिल है

चांद चांदनी की जोड़ी है

एक है फूल तो दूसरा पंखुड़ी है

दांपत्य की एक

चिंगारी से झुलस गये

दोनों के अहम टकराये

दोनों अलग हुए

कोर्ट में लगाई अर्जी है

तलाक चाहिए यह मर्जी है

प्यारा सा मासूम

छोटा-सा एक बच्चा है

बालपन की अवस्था है

मम्मी का हाथ थामा है

पास उसके मामा है

पापा को देख

हल्के हल्के मुस्कुराता है

पापा को मन ही मन

रूलाता है

क्या हो रहा है

वो समझ नहीं पाता है

कभी मम्मी तो

कभी पापा को

देखते जाता है।

 

न्यायाधीश ने पूछा -?

अगर तलाक हो गया

तो बच्चा किसके

पास रहेगा ?

इसका भरण पोषण

कौन करेगा ?

महिला ने कहा –

यह मेरे आंखों का उजाला है

मैंने इसे नौ महीने

अपने उदर में पाला है

पुरूष ने कहा –

यह मेरे वंश की निशानी है

इसके बिना तो

अधूरी मेरी कहानी है

न्यायाधीश को ना जाने

क्या सूझा ?

उन्होंने बच्चे से पूछा –

आप किसके पास रहोगे ?

मम्मी या पापा ?

अबोध बालक ने

एक हाथ से

मम्मी का हाथ पकड़ा और

दूसरे हाथ से

पापा का हाथ पकड़ा

और बोला –

दोनों के साथ रहूंगा

दोनों का प्यार चाहूंगा

न्यायाधीश ने आदेश दिया

सुंदर निर्णय लिया

आप दोनों सालभर

बच्चे के साथ रहेंगे

आगे कुछ नहीं कहेंगे

सालभर बाद जब

दोनों कोर्ट आये

बच्चे को साथ लाये

न्यायाधीश से बोलें –

हम दोनों अपने भूल पर

शर्मिंदा है

अब खुशी खुशी

साथ में जिंदा है

आपने गृहस्थी का

मतलब समझाया है

आपने हमारा घर

टूटने से बचाया है  /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 132 ☆ वेदनेच्या कविता …! ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 132 ? 

☆ वेदनेच्या कविता…! ☆

वेदनेच्या ह्या कविता सांगू कशा 

मूक झाली भावना ही महादशा..धृ

 

अश्रू डोळ्यांतील संपून गेले पहा 

स्पंदने हृदयाची थांबून गेली पहा 

आक्रोश मी कसा करावा, कळेना हा.. १

नाते-गोते आप्त सारे विखुरले 

रक्ताचे ते पाणी झाले आटले 

मंद मंद मृत शांत भावना.. २

 

ऐसे कैसे दिस आले, सांगा इथे 

कीव ना इतुकी कुणाला काहो इथे 

आंधळे हे विश्व अवघे भासे इथे.. ३

 

सांगणे इतुकेच माझे आता गडे 

अंध ह्या चालीरीतीला पाडा तडे 

राज कवीचे शब्द आता तोकडे.. ४

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-8… ☆भावानुवाद- सुश्री शोभना आगाशे ☆

सुश्री शोभना आगाशे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-8…  ☆भावानुवाद-  सुश्री शोभना आगाशे ☆

परमात्मवस्तु स्वानंदरूप

स्वयंस्फूर्त अन् प्रकाशरूप॥३६॥

 

पुत्र तू वटेश्वराचा असशी

परमात्म्याचा अंश असशी

कर्पुराच्या कणी कर्पुरगुण

आत्म्याठायी परमात्मगुण

साधर्म्य तुझ्या माझ्यातले

ऐक सांगतो तुज पहिले॥३७॥

 

दोघे आहो परमात्म्याचे अंश

माझ्या उपदेशी तुझा सारांश

जणु आपुल्या एका हातासि

मिठी पडे दुसर्‍या हाताची॥३८॥

 

शब्दे ऐकावा शब्द जसा

स्वादे चाखावा स्वाद जसा

उजेडे पहावा आपुला उजेड जसा

मी उपदेश तुवा करावा तसा॥३९॥

 

सोन्याचा मुलामा सोन्यावर देण्या

मुखाचाच आरसा मुख पाहण्या

तैसा आपुला संवाद शब्दहीन

आत्मा आत्म्यात विलीन॥४०॥

© सुश्री शोभना आगाशे

सांगली 

दूरभाष क्र. ९८५०२२८६५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #193 ☆ व्यंग्य – मल्लू का ड्रॉइंग-कम-डाइनिंग रूम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मल्लू का ड्रॉइंग-कम-डाइनिंग रूम’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 193 ☆

☆ व्यंग्य ☆  मल्लू का ड्रॉइंग-कम-डाइनिंग रूम

मल्लू ने मकान बनवाया। इंजीनियर साहब ने कहा बीस लाख में तुम्हें मकान में घुसा देंगे, लेकिन मल्लू पच्चीस लाख से ज़्यादा से उतर गया। बैंक के कर्ज़ के अलावा और कई लोगों का कर्ज़ चढ़ गया। कई गलियों से मल्लू का निकलना बन्द हो गया।

आदमी की यह प्रकृति होती है कि किराये का मकान जैसा भी सड़ा- बुसा हो, उसमें वह बीसों साल बिना शिकायत के रह लेता है, लेकिन अपना मकान बनाते ही उसकी सारी हसरतें जाग जाती हैं। अपने ख्वाबों को पूरा करने का चक्कर शुरू हो जाता है और फिर सलाहकारों की भी लाइन लग जाती है। नतीजा यह होता है कि मकान बनाने वालों को लंबा चूना लगता है। मकान चमकाने के चक्कर में चेहरे की रौनक ख़त्म हो जाती है। मकान तो तीस साल में खंडहर होता है, आदमी पाँच साल में खंडहर हो जाता है।

मल्लू के इंजीनियर साहब ने नक्शा बनाया। मल्लू ने नक्शा देखा तो इंजीनियर साहब से पूछा, ‘यह इतना बड़ा कमरा किसलिए है?’

इंजीनियर साहब ने मल्लू को समझाया, ‘यह ड्रॉइंग-कम-डाइनिंग रूम है।’

मल्लू बोला, ‘मतलब?’

‘मतलब यह कि यह बैठक भी है और खाने का कमरा भी।’

मल्लू ने पूछा, ‘बैठक और खाने का कमरा एक साथ मिलाने से क्या फायदा?’

इंजीनियर साहब ने परेशानी में सिर खुजाया, फिर बोले ‘आजकल यही फैशन है।’

मल्लू आसानी से समझने वाले आदमी नहीं थे। बोले, ‘फैशन तो ठीक है, लेकिन इनको मिलाने की ज़रूरत क्या है?’

इंजीनियर साहब खिसियानी हँसी हँसे, बोले, ‘इस तरह आपको एक बड़ा हॉल मिल जाएगा तो वक्त ज़रूरत पर काम आएगा।’

मल्लू बोले, ‘बड़े हॉल की क्या ज़रूरत पड़ेगी?’

इंजीनियर साहब अब पस्त हो रहे थे। बोले, ‘कभी फंक्शन के काम आएगा, शादी ब्याह वगैरह में।’

मल्लू बोले, ‘मेरी शादी तो हो गयी। नट्टू अभी आठ साल का है। उसकी शादी में सत्रह अट्ठारह साल लगेंगे। किसकी शादी होनी है?’

इंजीनियर साहब हार गये, बोले, ‘अरे तो कभी हम लोगों को बुलाकर ही जश्न मना लीजिएगा।’

बल्लू की समझ में नहीं आया, लेकिन इंजीनियर साहब की ज़िद के चलते ड्रॉइंग कम डाइनिंग रूम बन गया। अब कमरे में एक तरफ मल्लू का पुराना सोफा था और दूसरी तरफ उनकी पुरानी डाइनिंग-टेबिल। नये घर में पुराना सोफा और पुरानी डाइनिंग-टेबिल वैसे भी आँखों में गड़ते थे। डाइनिंग-टेबिल की छः कुर्सियों में से दो की टाँगें टूट गयी थीं और नट्टू ने उनके विकेट बना लिये थे।

मकान बनाने के बाद मल्लू ने महसूस किया ड्रॉइंग-रूम और डाइनिंग-रूम एक साथ रखने के लिए घर में बहुत सी चीजे़ं दुरुस्त होनी चाहिए। जो लोग बैठक में बैठते थे वे डाइनिंग-टेबिल की टीम-टाम भी देखते थे।

नट्टू पूरी टेबिल पर और ज़मीन पर खाना गिरा देता था। मल्लू अक्सर खाना खाते वक्त कुर्सी पर पालथी मार लेता था। अब बाहर किसी की आहट सुनायी पड़ते ही उसकी टाँगें  अपने आप नीचे आ जाती थीं। उसकी बीवी उसकी इस आदत को लेकर अक्सर उसकी लानत- मलामत करती रहती थी।

घर में टेबिल-मैनर्स की क्लासें चलने लगी थीं। मल्लू की बीवी उसे बताती कि खाना खाते वक्त उसके मुँह से ‘चपड़-चपड़’ आवाज़ निकलती थी। नट्टू को भी डाँट-डाँट कर खाने का ढंग सिखाया जाता। ड्रॉइंग-रूम डाइनिंग-रूम पर सवार हो गया था।

खाने के बर्तन नट्टू ने पटक-पटक कर चपटे कर दिये थे। अब उन बर्तनों में खाते शर्म आती थी क्योंकि कभी भी कोई अतिथि प्रकट हो जाता था। अगर कोई अतिथि महोदय भोजन के समय आकर बैठक लगा लेते तो भोजन तब तक मुल्तवी रहता जब तक वे विदा न हो जाते। घर में डोंगे नहीं थे। अब उन्हें खरीदने की ज़रूरत महसूस हुई।

खाने के स्तर को लेकर चिन्ता होने लगी। जब घर में सिर्फ खिचड़ी या दाल-रोटी बनती तो चिन्ता लगी रहती कि कोई मेहमान देखने के लिए न आ जाए। फ्रिज की ज़रूरत भी महसूस होने लगी ताकि डाइनिंग-रूम कुछ रोबदार बन सके। लेकिन मकान के कर्ज़ ने मल्लू की कमर तोड़ रखी थी। वैसे भी मल्लू और उसकी बीवी के संस्कार मध्यवर्गीय थे। सामने कोई मेहमान आ कर बैठ जाता तो निवाला उनके हलक में अटकने लगता। इसीलिए जब खाना खाते वक्त कोई मेहमान आ जाता तो दोनों प्लेटें उठाकर भीतर की तरफ भागते। मेहमान भीतर घुसता तो उसे डाइनिंग-टेबिल खाली मिलती। फिर जब तक मल्लू मेहमान से बात करता तब तक उसकी बीवी भीतर पलंग पर बैठकर खाना खाती।जब वह खाना खा चुकती तो वह बाहर आकर मेहमान से बातें करती और मल्लू भीतर बैठकर भोजन करता।

अन्ततः मल्लू आपने डाइनिंग-कम- ड्रॉइंग रूम से तंग आ गया। इस विषय पर मियाँ-बीवी की कॉन्फ्रेंस हुई। यह तय हुआ कि हज़ार दो हज़ार रुपये खर्च करके ड्रॉइंग-रूम और डाइनिंग-रूम के बीच पर्दा डाल दिया जाए। पर्दा ज़रूर कुछ ढंग का हो क्योंकि मेहमान डाइनिंग-टेबिल की जगह अब पर्दे की जाँच-पड़ताल करेगा।

एक शुभ दिन पर्दा खरीद कर ड्रॉइंग- रूम और डाइनिंग-रूम के बीच बँटवारा कर दिया गया और मल्लू को अपनी परेशानियों से निजात मिली। अब मल्लू फिर आराम से कुर्सी पर पालथी मारकर खाना खा सकता था। नट्टू पर पड़ने वाली डाँट भी कम हो गयी। अब मल्लू का डाइनिंग-रूम उसके ड्रॉइंग-रूम के आतंक से मुक्त हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 140 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 140 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 140) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 140 ?

☆☆☆☆☆

Fear 

☆☆☆

खौफजदा बैठा हुआ है

जंगल का सारा इलाका,

कल किसी ने कह दिया,

कि इंसान आने वाले हैं…!

 

घर लौटते परिंदों में भी आज

एक  बेइंतहा सी बदहवासी है

कटते जंगलों में मेरे घोंसले वाला

दरख़्त सलामत है भी कि नहीं…

☆ ☆

Today the whole forest

is under the grip of fear

Yesterday someone told that

the humans are coming here…!

Even among the birds returning

home, there’s an anxiety if the

Trees having their nests are safe

or chopped off with the trees…!

☆☆☆☆☆

Mirror 

लफ्ज ही होते हैं किसी की

शख्सियत का हक़ीक़ी आईना

शक्ल तो उम्र और हालात के

साथ-साथ बदलती रहती है…!

☆ ☆ 

Words are the true mirror

of one’s real personality…

Appearances keep changing with

the age and circumstances…!

☆☆☆☆☆ 

वहाँ से पानी की इक…

बूँद तलक भी न निकली,

तमाम उम्र जिन आँखों को

झील लिखते रहे हम…!

☆ ☆

Not even a drop of water

came out from there,

The eyes, I kept writing as

the lake, my whole life!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 191 ☆ अस्तित्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 191 अस्तित्व ?

बिरले होते हैं जो मुँह में सोने का चम्मच लेकर पैदा हों। अधिकांश लोग अपने जीवन में संघर्ष करते हैं। समय साक्षी है कि संघर्षशील व्यक्ति कठोर परिश्रम करता है। शनै:-शनै: अपने जीवन के भौतिक स्तर को ऊँचा ले जाता है। किसी से भी बात कीजिए, हरेक के पास उसके संघर्ष की गाथा मिलेगी।

जीवन के इस संघर्ष को पर्वतारोहण से जोड़कर आसानी से समझा जा सकता है। पहाड़ चढ़ना अर्थात लगातार ऊँचाई की ओर बढ़ना, पैर लड़खड़ाना, पाँव सूजना, साँस फूलना, अंतत: शिखर पर पहुँचकर आनंद से उछलना।

यहाँ तक तो हर कहानी एक-सी है। असली परीक्षा शिखर पर पहुँचने के बाद आरम्भ होती है। शिखर संकरा होता है, नुकीला और पैना होता है। यहाँ पहुँचने की तुलना में यहाँ टिके रहना बड़ी बात है।

मनुष्य का इतिहास या वर्तमान ऐसे किस्सों से भरा पड़ा है जो बताते हैं कि जो जितनी गति से शिखर पर पहुँचे, उससे अनेक गुना अधिक वेग से लुढ़कते हुए रसातल में आ पहुँचे। मनुष्य जाति का अनुभव है कि धन, बल, कीर्ति के शिखर पर बैठा व्यक्ति जब फिसलना आरंभ करता है तो चढ़ने में जितना समय लगा था, उसका दो प्रतिशत समय भी उसे नीचे गिरने में नहीं लगता।

ऐसा क्यों होता है? यहीं दर्शन प्रवेश करता है, मनुष्य नाम के दोपाये को सजीव जगत में उच्च स्थान दिलानेवाली मनुष्यता प्रासंगिक हो उठती है। अधिकांश मामलों में अहंकार और मैं-मैं की रट से शिखर का ग्लेशियर पिघलने लगता है और बेतहाशा लुढ़कता मनुष्य सब कुछ खो देता है।

विचार करें तो पहाड़ की चोटी पर पहुँचना अर्थात प्रदूषण तजना, अपने फेफड़ों में शुद्ध प्राणवायु भरना। सामान्यत: अपने मानसिक प्रदूषण से व्यक्ति उबर नहीं पाता। अहंकार का मद, स्वयं को ऊँचा मानने का मिथ्याभिमान शिखर को स्वीकार्य नहीं। फलस्वरूप अपने ही कर्मों के बोझ से मनुष्य लुढ़कने लगता है।

प्रमाद का शिकार होकर शिखर खो देना मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है। अपनी रचना ‘अस्तित्व’ का स्मरण हो आता है,

पहाड़ की ऊँची चोटियों के बीच

अपने कद को बेहद छोटा पाया,

पलट कर देखा,

काफी नीचे सड़क पर

कुछ बिंदुओं को हिलते डुलते पाया,

ये वही राहगीर थे,

जिन्हें मैं पीछे छोड़ आया था,

ऊँचाई पर हूँ, ऊँचा हूँ,

सोचकर मन भरमाया,

एकाएक चोटियों से साक्षात्कार हुआ,

भीतर और बाहर एकाकार हुआ,

ऊँचाई पर पहुँच कर भी,

छोटापन नहीं छूटा

तो फिर क्या छूटा?

शिखर पर आकर भी

खुद को नहीं जीता

तो फिर क्या जीता?

पर्वतों के साये में,

आसमान के नीचे,

मन बौनापन अनुभव कर रहा था,

पर अब मेरा कद

चोटियों को छू रहा था..!

अपने कद को चोटियों जैसा ऊँचा करने के लिए  छोटेपन से मुक्त होना ही होगा। अस्तित्व के उन्नयन के लिए बड़प्पन से युक्त होना ही होगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 139 ☆ क्यों?… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  “क्यों?”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 139 ☆ 

☆ क्यों? ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

अघटित क्यों नित घटता हे प्रभु?

कैसे हो तुम पर विश्वास?

सज्जन क्यों पाते हैं त्रास?

अनाचार क्यों बढ़ता हे विभु?

कालजयी क्यों असत्-तिमिर है?

क्यों क्षणभंगुर सत्य प्रकाश?

क्यों बाँधे मोहों के पाश?

क्यों स्वार्थों हित श्वास-समर है?

क्यों माया की छाया भाती?

क्यों काया सज सजा लुभाती?

क्यों भाती है ठकुरसुहाती?

क्यों करते नित मन की बातें?

क्यों न सुन रहे जन की बातें?

क्यों पाते-दे मातें-घातें?

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९-२-२०२२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ नूपूर आणि बेडी… (विषय एकच… काव्ये दोन) ☆ श्री आशिष बिवलकर आणि सुश्री वर्षा बालगोपाल  ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ?  नूपूर आणि बेडी… (विषय एकच… काव्ये दोन) ? ☆ श्री आशिष बिवलकर आणि सुश्री वर्षा बालगोपाल  ☆

(जे जे स्कूल ऑफ आर्टचा स्कल्प्चर गोल्डमेडॅलिस्ट श्री.सुहास जोशी, देवगड याने पाठवलेलं चित्र.)

श्री आशिष बिवलकर   

( १ ) 

कुणा पायात  घुंगरू,

कुणा पायात शृंखला !

जीवनाच्या रंगमंचाचा,

वास्तववादी  दाखला !

मेहंदीने रंगले पाय कुणाचे,

कुणाचे रंगले ओघळत्या लाल रक्ताने !

रंगमंची कोणी दंग झाला,

स्वातंत्र्याचा यज्ञ मांडला देशभक्ताने !

कोणी बेधुंद नाचून ऐकवीत होता,

छुमछुमणाऱ्या घुंगरांचा चाळ !

कोणी आनंदाने मिरवीत होता,

अंगावर अवघड बेड्यांची माळ!

कुणा टाळयांचा कडकडाट,

होऊन मिळत होती दाद !

कुणा चाबकाने फटकारत,

देशभक्ती ठरवला गेला प्रमाद !

कुणी नटराज होऊन,

करीत होता कलेचा उत्सव !

कुणी रुद्र रूप धारण करून,

स्वतंत्रतेसाठी मांडले रुद्र तांडव !

कुणी नृत्याने शिंपडत होता,

आनंदात नृत्यकलेचे अमृतजल !

कोणी कठोर शिक्षा भोगून,

प्राशन करत होता हलाहल !

नृत्य कलाकार त्याच्या परी थोर,

साकारला रंगदेवतेचा कलोत्सव!

स्वातंत्र्य सैनिकांना त्रिवार वंदन,

अनुभवला स्वातंत्र्याचा अमृतमहोत्सव!

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

(२) 

एक पाय बंधनातील

एक पाय हा मुक्तीचा

दोन्ही मध्ये एकच सीमा

प्रश्न फक्त उंबर्‍याचा॥

एक घर सांभाळते

एक घर साकारते

आजची स्त्री परंतु

दोन्ही भूमिका निभावते॥

बंधनातही मुक्त जीवन

मुक्तीमधेही अनोखे बंधन

जणू हेच अध्यात्म सांगे कृतीतून 

रुदन – स्फुरणाचे एकच स्पंदन॥

बंधनाच्या श्रृंखला वा

कलेची ती मुक्त रुणझुण

नारी जीवन कसरतीचे

कधी बेडी कधी पैंजण॥

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #190 – 76 – “मिल गए ज़िंदगी में जो तुम…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मिल गए ज़िंदगी में जो तुम…”)

? ग़ज़ल # 76 – “मिल गए ज़िंदगी में जो तुम…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

हसीन हो जवाँ हो  कुछ तो इशारे होने चाहिए,

एक तरफ़ हम दूसरी तरफ़ नजारे होने चाहिए।

तराशा है संदल बदन चमकता हुआ चहरा तेरा,

तुम्हारा दिलवर एक नहीं बहुत सारे होने चाहिए।

असर मुहब्बत का महबूब को देखकर वाजिब है,

उधर घटा महकती हुई इधर दिलारे होने चाहिए। 

मिल गए ज़िंदगी में जो तुम हमको ए हमसफ़र,

मिल कर हम को अब प्यार में प्यारे होने चाहिए।

हम तुम मुश्किलों से मिलकर यूँही गुज़र जाएँगे,

चश्मतर आतिश अश्क़ों के नहीं धारे होने चाहिए।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 68 ☆ ।। मैं तेरी बात करूँ, तू मेरी बात करे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।। मैं तेरी बात करूँ, तू मेरी बात करे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हाथों में सबके  ही  सबका हाथ हो।

एक दूजे के लिए  मन से  साथ   हो।।

जियो जीने दो,एक ईश्वर की संतानें।

बात ये दिल में हमेशा जरूर याद हो।।

[2]

सुख सुकून हर किसी   का आबाद हो।

हर किसी लिए संवेदना ये फरियाद हो।।

हर किसी लिए सहयोग बस हो सरोकार।

मानवता रूपी  एक  दूसरे से संवाद हो।।

[3]

हर दिल में  स्नेह  नेह का ही लगाव हो।

दिल भीतर तक बसता प्रेम का भाव हो।।

प्रभाव नहीं हो किसी पर घृणा  दंश का।

आपस में मीठेबोल का कहीं नअभाव हो।।

[4]

हर कोई दूसरे के जज्बात की ही बात करे।

विश्वास का बोलबाला न घात प्रतिघात करे।।

स्वर्ग से ही हिल मिल  कर रहें धरती पर हम।

मैं बस तेरी बात करूं, और तू मेरी बात करे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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