हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 118 ☆ लघुकथा – धूल छंट गई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘धूल छंट गई’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 118 ☆

☆ लघुकथा – धूल छंट गई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

दादा जी! – दादा जी! आपकी छत पर पतंग आई है, दे दो ना !

दादा जी छत पर ही टहल रहे थे उन्होंने जल्दी से पतंग उठाई और रख ली।

हाँ यही है मेरी पतंग, दादा जी! दे दो ना प्लीज– वह मानों मिन्नतें करता हुआ बोला। लडके की तेज नजर चारों तरफ मुआयना भी करती जा रही थी कि कहीं कोई और दावेदार ना आ जाए इस पतंग का।

 वे गुस्से से बोले — संक्रांति आते ही तुम लोग चैन नहीं लेने देते हो। अभी और कोई आकर कहेगा कि यह मेरी पतंग है, फिर वही झगडा। यही काम बचा है क्या मेरे पास?  पतंग उठा – उठाकर देता रहूँ तुम्हें? नहीं दूंगा पतंग, जाओ यहाँ से। बोलते – बोलते ध्यान आया कि अकेले घर में और काम हैं भी कहाँ उनके पास? जब तक बच्चे थे घर में खूब रौनक रहा करती थी संक्रांति के दिन। सब मिलकर पतंग उडाते थे, खूब मस्ती होती थी। बच्चे विदेश चले गए और —

दादा जी फिर पतंग नहीं देंगे आप – उसने मायूसी से पूछा। कुछ उत्तर ना पाकर वह बडबडाता हुआ वापस जाने लगा – पता नहीं क्या करेंगे पतंग का, कभी किसी की पतंग नहीं देते, आज क्यों देंगे —

तभी उनका ध्यान टूटा — अरे बच्चे ! सुन ना, इधर आ दादा जी ने आवाज लगाई — मेरे पास और बहुत सी पतंगें हैं, तुझे चाहिए? 

हाँ आँ — वह अचकचाते हुए बोला।

तिल के लड्डू भी मिलेंगे पर मेरे साथ यहीं छ्त पर आकर पतंग उडानी पडेंगी – दादा जी ने हँसते हुए कहा।

लडके की आँखें चमक उठीं, जल्दी से बोला — दादा जी! मैं अपने दोस्तों को भी लेकर आता हूँ, बस्स – यूँ गया, यूँ आया। वह दौड पडा।

दादा जी मन ही मन मुस्कुराते हुए बरसों से इकठ्ठी की हुई ढेरों पतंग और लटाई पर से धूल साफ कर रहे थे।

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 149 ☆ खाली झोली भरते देर नहीं लगती… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “खाली झोली भरते देर नहीं लगती…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 149 ☆

☆  खाली झोली भरते देर नहीं लगती… ☆

भागादौड़ी के चलते हर कार्य अधूरे रह जाना, सबको खुश रखने के चक्कर में सबको दुःखी कर देना, हर कार्य में मुखिया की तरह स्वयं को प्रस्तुत करना, ये सब जो भी करता है वो विलेन के रूप में अनजाने ही कार्यों को बिगाड़ने लगता है ।

अक्सर आपने देखा होगा कि जो व्यक्ति सबके दुःख सुख में शामिल होता है उसकी जरूरत के समय लोग उससे पल्ला झाड़ लेते हैं, क्योंकि कोई मानता ही नहीं कि उसने कभी कुछ अच्छा किया है। उसकी नकारात्मक छवि लोगों के हृदय में बन जाती है ।

कहते हैं जीत और हार एक सिक्के के दो पहलू  होते हैं। माना कि जीतना एक कला है किंतु इसे सम्हाल कर पाना एक कुशलता है। अयोग्य व्यक्ति को जब भी छप्पर फाड़ कर सफलता मिलती है तो थोड़े समय में ही थोथा चना बजे घना जैसी स्थितियाँ पैदा करते हुए वह उत्साह में खूब हो हल्ला करता है। पर जल्दी ही पता नहीं किसकी नज़र लग जाती है और सब कुछ एक झटके में बिखर जाता है ।

इधर जोड़- तोड़ के खिलाड़ी हारी बाजी को अपने तरफ करते हुए मुखिया के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। जो लोग पूर्वाग्रह को छोड़कर  चरैवेति- चरैवेति  के सिद्धांत को अपनाते हैं, उनकी मदद ईश्वर स्वयं करते हैं। किसी ने सही कहा है- हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं।

मदारी की तरह भले ही डुगडुगी बजानी पड़े किन्तु लक्ष्य को सदैव सामने रखना चाहिए। खाली झोली भरते, चमत्कार होते देर नहीं लगती। बहुमत का क्या वो तो समय के अनुसार बदलता रहता है। वैसे भी कुरुक्षेत्र में एक नारायण के आगे पूरी नारायणी सेना को हारते देर नहीं लगती। सब कुछ छोड़कर बस ईमानदारी से चलते रहिए मंजिलें स्वयं आपकी झोली भरती रहेंगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #138– कविता – “अपनों को भी क्या पड़ी है ?” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  – अपनों को भी क्या पड़ी है ?)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 138 ☆

 ☆ कविता –  “अपनों को भी क्या पड़ी है ?” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’         

वह भूख से मर रहा है। 

दर्द से भी करहा रहा है।

हम चुपचाप जा रहे हैं 

देखती- चुप सी भीड़ अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

सटसट कर चल रहे हैं ।

संक्रमण में पल रहे हैं।

भूल गए सब दूरियां भी 

आदत यह सिमट अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

वह कल मरता है मरे।

हम भी क्यों कर उससे डरें।

आया है तो जाएगा ही 

यही तो जीवन की लड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

हम सब चीजें दबाए हैं।

दूजे भी आस लगाए हैं।

मदद को क्यों आगे आए 

अपनों में दिलचस्पी अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

हम क्यों पाले ? यह नियम है।

क्या सब घूमते हुए यम हैं ?

यह आदत हमारी ही 

हमारे ही आगे खड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

नकली मरीज लिटाए हैं।

कोस कर पैसे भी खाएं हैं।

मर रहे तो मरे यह बला से

लाशें लाइन में खड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

कुछ यमदूत भी आए हैं । 

वे परियों के  ही साए हैं।

बुझती हुई रोशनी में वे 

जलते दीपक की कड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

कैसे इन यादों को सहेजोगे ?

मदद के बिना ही क्या भजोगे ?

दो हाथ मदद के तुम बढ़ा लो 

तन-मन  लगाने की घड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

20-05-2021 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 213 ☆ व्यंग्य – भाई भतीजा वाद… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य  – भाई भतीजा वाद

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 212 ☆  

? व्यंग्य भाई भतीजा वाद?

अंधेर नगरी इन दिनों बड़ी रोशन है। दरअसल अंधेर नगरी में बढ़ रही अंधेरगर्दी को देखते हुए नए चौपट राजा का चुनाव आसन्न हैं। इसलिए नेताजी ए सी कमरे में मुलायम बिस्तर पर भी अलट पलट रहे हैं, उन्हे बैचेनी हो रही है, नींद उड़ी हुई है। वे अपनी जीत सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं। पत्नी ने करवट बदलते पति का मन पढ़ते हुए पूछा, एक बात सुझाऊं? हमेशा पत्नी को उपेक्षित कर देने वाले चौपट राजा बोले, बोलो। पत्नी ने कहा आप न उन्ही की शरण में जाओ जिनका तकिया कलाम जपते रहते हो बात बात पर।

मतलब? राजा ने पूछा।

दर असल चौपट राजा का तकिया कलाम ही था “बहन _ _ “।

सारी महिलाओं को बहन बनाकर “नारी की बराबरी ” नाम से कोई योजना घोषित कर डालिए, अव्वल तो आधी आबादी के वोट पक्के हो जायेंगे, महिला हितैषी नेता के रूप में आपकी पहचान बनेगी वो अलग। घर की महिलाएं आपकी समर्थक होंगी तो उनके कहे में पति और बच्चे भी आपको ही वोट देंगे।

चौपट राजा पत्नी की राजनैतिक समझ का लोहा मान गए, खुशी से पत्नी को बांहों में भरते हुए बोले वाह बहन _ _। दूसरे ही दिन जनसभा में नेता जी महिलाओ को “प्यारी बहन” बनाने का उद्घोष कर रहे थे। पीछे लगा बैनर तेज हवा में फड़फड़ा रहा था, जिस पर लिखा था हम परिवारवाद के खिलाफ हैं, देश में भाई भतीजा वाद, परिवार वाद नहीं चलेगा। चौपट राजा जनता से नए रिश्ते गढ़ रहे थे। पैतृक संपत्ति को लेकर उनकी सगी बहन का कानूनी नोटिस उनकी कार के डैश बोर्ड में पडा था।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 160 ☆ बाल कविता – पक्षियों की चौपाल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 160 ☆

☆ बाल कविता – पक्षियों की चौपाल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

पक्षी आए

हिलमिल कर सब दाना खाए।

अपनी अपनी बातें कहकर

ज्ञान बढ़ाए।।

 

कौए बोले हँसकर सारे –

 

आँख खोलकर करना काम

और सदा चौकन्ना रहना।

हिलमिल कर सब भोजन  खाना

आपस में तुम कभी न लड़ना।।

 

तोते बोले हरियल प्यारे –

 

मेहनत का फल सबको मिलता

करना सदा लगन से काम।

आलस तन में कभी न लाना

जीवन होता सुख का धाम।।

 

मीठे स्वर में बुलबुलें बोलीं-

 

सदा बोलकर मीठा – मीठा

परहित कर ही नाम कमाना।

व्यर्थ बात में कभी न पड़ना

खुद मुस्का कर और हँसाना।।

 

अपनी – अपनी बातें कहकर

उड़े सभी आसमान में प्यारे।

सोच रहे हैं कैसे पाएँ

आसमान के चंदा तारे।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #161 ☆ संत तुलसीदास… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 161 ☆ संत तुलसीदास☆ श्री सुजित कदम ☆

श्रेयस्कर जीवनाचा

महामार्ग दाखविला

राम चरित मानस

भक्ती ग्रंथ निर्मियला…! १

 

जन्म उत्तर प्रदेशी

 चित्रकूटी राजापूरी

श्रावणात सप्तमीला

जन्मोत्सव  घरोघरी…! २

 

मान्यवर ज्योतिषाचे

घराण्यात जन्मा आले.

राम राम जन्मोच्चार

रामबोला नाम झाले…! ३

 

जन्मताच गेली माता

केला आजीने सांभाळ

लहानग्या गोस्वामीची

झाली जन्मतः आबाळ…! ४

 

हनुमान मंदीराच्या

प्रसादात गुजराण

गेली आजी देवाघरी

मातापिता भगवान….! ५

 

नरहरी दास स्वामी

छोट्या तुलसीचे गुरु

वेद पुराणे दर्शने

झाले ज्ञानार्जन सुरू…! ६

 

लघुकथा आणि दोहे

गुरूज्ञान प्रसारित

उपदेश प्रवचन

रामभक्ती प्रवाहीत…! ७

 

भाषा विषयांचे ज्ञान

करी तुलसी अभ्यास

उपनिषदांचे पाठ

नाम संकीर्तन ध्यास…! ८

 

माया मोह जिंकुनीया

ठेवी इंद्रिये ताब्यात

दिली गोस्वामी उपाधी

वेदशास्त्री महात्म्यास…! ९

 

वाल्मिकींचे रामायण

केले अवधी भाषेत

ब्रज भाषा साहित्यात

लोक संस्कृती धारेत…! १०

 

अलौकिक आख्यायिका

प्रभु रामचंद्र भेट

ओघवत्या शैलीतून

ग्रंथ जानकी मंगल…! ११

 

काव्य सौंदर्याची फुले

बीज तुलसी दासाचे

सर्व तीर्थक्षेत्री यात्रा

भक्तीधाम चैतन्याचे…! १२

 

सतसई ग्रंथामध्ये

दोहे सातशे लिहिले

रामकृष्ण भक्तीयोग

संकिर्तनी गुंफियले….! १३

 

हनुमान चालीसा नी

दोहावली गीतांवली

ग्रंथ पार्वती मंगल

काव्य कृष्ण गीतावली…! १४

 

हनुमान रामचंद्र

झाले प्रत्यक्ष दर्शन

संत तुलसी दासांचे

प्रासादिक संकीर्तन….! १५

 

गाढे पंडित वैदिक

वेदांतात पारंगत

आदर्शाचा वस्तू पाठ

दिला नैतिक सिद्धांत…! १६

 

हाल अपेष्टां सोसून

दिले भक्ती सारामृत

संत तुलसी दासांचे

शब्द झाले बोधामृत…! १७

 

थोर विद्वान विभुती

दीर्घायुषी संतकवी

वर्ष सव्वाशे जगली

प्रज्ञावंत ज्योत नवी…! १८

 

जीवनाच्या अखेरीला

काशी श्रेत्रात निवास

राम कृष्ण अद्वैताचा

संत तुलसी प्रवास…! १९

 

गंगा नदीच्या किनारी

शेवटचा रामश्वास

अस्सी घाटावर देह

केला आदर्श प्रवास…! २०

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #182 – कविता – मित्र को पत्र… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  “मित्र को पत्र…”)

☆  तन्मय साहित्य  #182 ☆

☆ मित्र को पत्र… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

नमस्कार प्रिय मित्र

तुम्हारा पत्र मिला

पढ़कर जाने सब हाल-चाल

और कुशल क्षेम के समाचार

मैं भी यहाँ मजे में स्वस्थ

प्रसन्न चित्त हूँ सह परिवार।

 

मित्र! तुम्हारा पत्र सुखद आश्चर्य लिए

कुछ चिंताओं का मंगलमय हल

अपने सँग लेकर आया है

संबंधों के घटाटोप

रिश्तों के रूखे पन

भौतिक आकर्षण में

ये बारिश की पहली फुहार

माटी की सोंधी गंध

प्रेम का शीतल सा झोंका लाया है।

 

अब गुम हुई चिट्ठियाँ

मिलती कहाँ गंध

स्नेहिल हाथों की

खाली है संदूक आज वह

अत्र कुशल तत्रास्तु भाव के

प्रेमपूर्ण रिश्ते-नातों की,

शब्द शब्द में हो जाती

साकार सूरतें तब अपनों की

अब बातें चिट्ठी-पत्री की

हुई हवाई है सपनों की।

 

यूँ तो मोबाइल पर अक्सर  

अपनी भी होती है बातें

पर उन बातों में

तकनीकी मिश्रण के चलते

अपनेपन वाली

मीठी प्रेम चाशनी का

हम स्वाद कहाँ ले पाते।

 

अधुनातन कंप्यूटर और मोबाइल

द्रुतगामी यंत्रों की

भीड़ भाड़ में

भटक गए हैं

कुछ पर्वों त्योहारों पर हम

रटे-रटाए बने बनाए शब्द शायरी

संदेशों के बटन दबाकर

बस इतने पर

अटक गए हैं।

 

ऐसे में यह पत्र तुम्हारा पाकर

मैं अपने में हर्ष विभोर हुआ

संबंधों की पुष्प लता के

रस सिंचन को

लिए लेखनी हाथों में

अंतर मन का आकाश छुआ।

 

लिख लिख मिटा रहा हूँ

अब हर बार शब्द बंजारों को

व्यक्त नहीं कर पाता हूँ

अपने मन के उद्गारों को

शब्द व्यर्थ हो गए

भाव अंतर में जागे मित्र

समझ लेना तुम ही

जो लिखना है अब इसके आगे

समय-समय पर कुशल क्षेम के

पत्र सदा तुम लिखते रहना

घर में सभी बड़े छोटों को

यथा योग्य अभिवादन कहना।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 07 ☆ समझौते… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “समझौते।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 07 ☆ समझौते… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

आओ कुछ

पढ़ डालें चेहरे

फेंक दें उतार कर मुखौटे।

 

पहचानें पदचापें

समय की

कुल्हाड़ी से काटें जंजीरें

तमस के चरोखर में

खींच दें

उजली सी धूप की लकीरें

 

सूरज से

माँगें पल सुनहरे

तोड़ें रातों से समझौते ।

 

पत्थरों पर तराशें

संभावना

सूने नेपथ्य को जगाकर

उधड़े पैबंद से

चरित्रों को

मंचों से रख दें उठाकर

 

हुए सभी

सूत्रधार बहरे

जो हैं बस बोथरे सरौते।

 

ऊबड़-खाबड़ बंजर

ठूँठ से

उगते हैं जिनमें आक्रोश

बीज के भरोसे में

बैठे हैं

ओढ़ एक सपना मदहोश

 

चलो रटें

राहों के ककहरे

गए पाँव जिन पर न लौटे।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 65 ☆ मातृ दिवस विशेष – गीत – अनमोल प्यार… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मातृ दिवस पर आपका एक स्नेहिल गीत – अनमोल प्यार

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 65 ✒️

?  मातृ दिवस विशेष – गीत – अनमोल प्यार… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

मां तेरे अनमोल प्यार को,

आज समझ मैं पाई हूं ।

श्रद्धा सुमन क़दमों पर तेरे ,

अर्पित करने आई हूं  ।।

 

घर के काम सभी तू करती ,

चूड़ियां बजती थीं छन – छन ,

भोर से पहले तू उठ जाती ,

पायल बजती थी छन – छन ,

गोद में लेकर चक्की पीसती ,

मैं प्रेम सुधा से नहायी हूं ।

मां तेरे —————————- ।।

 

बादल गरजते बिजली चमकती ,

वह सीने से चिपकाना ,

आंखों में आंसुओं को छुपाना ,

मेरे दर्द से कराहना ,

याद आता है रह-रहकर ,

बचपन ,

कैसे तुम्हें सतायी हूं ।

मां तेरे —————————– ।।

 

मैं हूं बाबूजी की बेटी ,

तू भी किसी की बेटी है ,

हम तो चहकते हैं चिड़ियों से ,

तू क्यों उदास बैठी है ,

तेरे क़दमों में बसे स्वर्ग को ,

आज देख मैं पायी हूं ।

मां तेरे —————————– ।।

 

गर्भवती हुई पहली बार मैं ,

तब तेरा एहसास हुआ ,

नौ महीने कोख में संभाला ,

दुखों का ना आभास हुआ ,

सीने से सलमा को लगा लो ,

भले ही मैं पराई हूं ।।

मां तेरे —————————— ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 66 – किस्साये तालघाट… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 66 – किस्साये तालघाट – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा में मंगलवार का कार्यदिवस चुनौतियों को टीमवर्क के द्वारा परास्त करने के रूप में सामने आया और विषमताओं और विसंगतियों के बावजूद शाखा की हार्मोनी अखंड रही. इस दैनिक लक्ष्य को पाने के बाद स्टाफ विश्लेषण में व्यस्त हो गया. जो दैनिक अपडाउनर्स थे, उन्होंने अपराध बोध के बावजूद दोष रेल विभाग और राज्यपरिवहन को सुगमता से दान कर दिया. पर इस शाखा में एक लेखापाल महोदय भी थे. वैसे दैनिक तो नहीं पर साप्ताहिक अपडाउनर्स तो वो भी थे पर इसे असामान्य मानते हुये उन्होंने DUD याने डेली अपडाउनर्स से इशारों इशारों में बहुत कुछ कह भी दिया. अगर चाहते तो प्रशासनिक स्तर पर नंबर दो होते हुये समस्या के हल की दिशा में संवाद भी कर सकते थे पर उनका यह मानना था कि ये सब तब तक शाखाप्रबंधक के कार्यक्षेत्र में आता है जब तक कि यह दायित्व उनके मथ्थे नहीं पड़ता. ऐसी स्थिति स्थायी रूप से उन्होंने कभी आने नहीं दी और स्थानापन्न की स्थिति में भी प्रदत्त फाइनेंशियल पॉवर्स का प्रयोग सिर्फ पेटीकेश के वाउचर्स पास करने तक ही सीमित रखा. लेखापाल के पद पर उन्होंने स्वयं ही अपना रोल स्ट्रांग रूम और अपनी सीट तक सीमित करके रखा था. याने उनका कार्यक्षेत्र अटारी और वाघा बार्डर के बीच ही सीमित था.                  

जब पुराने जमाने में शाखाप्रबंधक को बैंक ने “ऐजेंट”पदनाम नवाजा था तब उनका रुतबा किसी राजा के सूबेदार से कम नहीं होता था. बैंक परिसर के ऊपर ही उनका राजनिवास हुआ करता था और यह माना जाता था कि लंच/डिनर/शयन के समय के अलावा उनका रोल शाखा की देखरेख करना ही है. बैंक परिसर के बाहर अगर वे शहर और बाजार क्षेत्र में भी जायें तो उनका पहला उत्तरदायित्व बैंक के वाणिज्यिक हितों का संरक्षण और प्रमोशन ही होना चाहिए. उस जमाने में बैंक विशेषकर अपने बैंक के “ऐजेंट”का रुतबा जिले या तहसील के सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारियों से कम नहीं माना जाता था. पर जब भारतीय जीवन निगम ने अपने घुमंतू बिजनेस खींचको को यही परिचय नाम दिया तो बैंक में ऐजेंट का पद भी रातोंरात “शाखाप्रबंधक” बन गया और बैंक के इस प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण पद की मानमर्यादा की रक्षा हुई. लगा जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी का दौर खत्म हुआ और ईस्ट टू वेस्ट और नार्थ टू साउथ सिर्फ और सिर्फ एक नाम से बैंकिंग के नये दौर की शुरुआत हुई जो आजादी के बाद बने भारत की तरह ही बेमिसाल और अतुलनीय थी. कश्मीर से कन्याकुमारी तक सिर्फ भारत ही नहीं हमारा बैंक भी एक ही है और हमारी कहानियां भले ही कुछ कुछ अलग लगती हों, हमारे धर्म, जाति, भाषा और प्रांतीयता के अलग होते हुये भी ये बैंक का मोनोग्राम ही है जिसके अंदर से हम जैसे ही गुजरते हैं, एक हो जाते हैं. आखिर हम सबकी सर्विस कंडीशन्स और वैतनिक लाभ भी तो एक से ही हैं. विभिन्नता पद और लेंथ ऑफ सर्विस में भले ही हो पर भावना में हमारे यहाँ बैंक के लिए जो मैसेंजर सोचता है, वही मैनेजर भी सोचता है कि यह विशाल वटवृक्ष सलामत रहे, मजबूत रहे और सबकी उम्मीदों को, सबके वर्तमान और भविष्य को संरक्षित करता रहे.

नोट: इस भावना में तालघाट शाखा के लेखापाल का परिचय अधूरा रह गया जो अगले भाग में सामने लाने की कोशिश करूंगा. इन महाशय के साथ का सौभाग्य हमें भी प्राप्त हुआ था तो ये चरित्र काल्पनिक नहीं है, पर नाम की जरूरत भी नहीं है. हो सकता है हममें से बहुत लोग इस तरह की प्रतिभाओं से रूबरू हो चुके हों. पर उनके व्यक्तित्व को चुटीले और मनोरंजक रूप में पेश करना ही इस श्रंखला का एकमात्र उद्देश्य है. किस्साये तालघाट जारी तो रहेगा पर अगर आप सभी पढ़कर इसके साथ किसी न किसी तरह जुड़े तो प्रोत्साहन मिलेगा.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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