हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 189 ☆ परिदृश्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 189 परिदृश्य ?

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।

अर्थात ‘न ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये सारे राजा नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।’

श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के द्वादशवें श्लोक के माध्यम से आया यह योगेश्वर उवाच मनुष्य जीवन के शोध और सरल बोध का पाथेय है। 

मनुष्य जीवन यद्यपि सहजता और सरलता का चित्र है पर मनुष्य विचित्र है। वह सरल को जटिल बनाने पर तुला है। इस सत्य के अवलोकन के लिए किसी प्रकार के प्रज्ञाचक्षु की आवश्यकता नहीं है। जीवन का अपना अनुभव पर्याप्त है। केवल अपने अनुभव  को पढ़ा जाय, अपने अनुभव को गुना जाय तो प्रकृति की सरलता में विद्यमान गूढ़ रहस्य सहज ही सुलझने होने लगते हैं।

एक उदाहरण मृत्यु का लें। मृत्यु अर्थात देह से चेतन तत्व का विलुप्त होना। कभी ग़ौर किया कि किसी एक पार्थिव के विलुप्त होने पर एक अथवा एकाधिक निकटवर्ती मानो उसका ही प्रतिबिम्ब बन जाता है। कई बार अलग-अलग परिजनों में दिवंगत के स्वभाव, शैली, व्यक्तित्व का अंश दिखने लगता है।

“इसका चेहरा दिवंगत जैसा दिखता है। वह दिवंगत की तरह बातें करता है, हँसता है, नाराज़ होता है। उसकी लिखाई दिवंगत जैसी है, वह उठता-बैठता स्वर्गीय जैसा है।”  ऐसा नहीं है कि ये बातें केवल मनुष्य तक सीमित हैं। देखें तो पक्षियों और प्राणियों पर, चर और अचर पर भी लागू है यह सूत्र। 

विज्ञान इसे डीएनए का प्रभाव जानता है, अध्यात्म इसे अमरता का सिद्धांत मानता है।

सत्य यही है कि जानेवाला कहीं नहीं जाता पर किसी एक या अनेक में बँटकर यहीं विद्यमान रहता है। विचार करने पर पाओगे कि विधाता ने तुम्हें सूक्ष्म की अमरता दी है पर तुम स्थूल की नश्वरता तक सीमित रह जाते हो। अपनी रचना ‘सुदर्शन’ में इस अमरता को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया था,

जब नहीं रहूँगा मैं

और बची रहेगी सिर्फ़ देह,

उसने सोचा….,

सदा बचा रहूँगा मैं

और कभी-कभार नहीं रहेगी देह,

उसने दोबारा सोचा…,

पहले से दूसरे विचार तक

पड़ाव पहुँचा,

उसका जीवन बदल गया…,

दर्शन क्या बदला,

जो नश्वर था कल तक,

आज ईश्वर हो गया..!

स्मरण रहे, जब कोई एक होता अदृश्य है तो दूसरा हो जाता उसके सदृश्य है। हर ओर यही दृश्य है, जगत का यही परिदृश्य है।…इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

💥 अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक 💥

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 137 ☆ दोहा सलिला… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  दोहा सलिला)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 137 ☆ 

☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

मोड़ मिलें स्वागत करो, नई दिशा लो देख

पग धरकर बढ़ते चलो, खींच सफलता रेख

*

सेंक रही रोटी सतत, राजनीति दिन-रात।

हुई कोयला सुलगकर, जन से करती घात।।

*

देख चुनावी मेघ को, दादुर करते शोर।

कहे भोर को रात यह, वह दोपहरी भोर।।

*

कथ्य, भाव, लय, बिंब, रस, भाव, सार सोपान।

ले समेट दोहा भरे, मन-नभ जीत उड़ान।।

*

सजन दूर मन खिन्न है, लिखना लगता त्रास।

सजन निकट कैसे लिखूँ, दोहा हुआ उदास।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२-५-२०१८, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य की दुनिया ☆ प्रस्तुति – श्री कमलेश भारतीय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्य की दुनिया – श्री कमलेश भारतीय  🌹

(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है। देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल / पुस्तक मेले / साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)

☆ पुस्तक मेलों की बढ़ती लोकप्रियता

पुस्तक मेला पहले दिल्ली में ही वर्ष में एकबार लगता था लेकिन अब पुस्तक मेलों की आवश्यकता और महत्त्व बढ़ता जा रहा है , खासतौर पर डिजीटल युग यदि हमें छपी हुई पुस्तक बचानी है । अब सिर्फ दिल्ली ही नहीं अनेक शहरों में पुस्तक मेले लगने लगे हैं । दिल्ली के इस बार के पुस्तक मेले पर लम्बी लम्बी कतारों ने छपी हुई पुस्तकों के प्रति पाठकों के प्यार को प्रदर्शित कर दिया था ।एनबीटी के अलावा भी अनेक संस्थायें और विश्वविद्यालय पुस्तक मेले आयोजित कर रहे हैं । फिलहाल गर्मी की मार से हटकर, बचकर हिमाचल की राजधानी शिमला में जून माह में पुस्तक मेला आयोजित किये जाने की खबर है जिसे हिमालय मंच सहयोग देगा । अभी चंडीगढ़ में राजकमल प्रकाशन ने भी पुस्तक मेला आयोजित किया था।

साथी पहली बार’ कृति का विमोचन : हरियाणा के चर्चित रचनाकार बी मदन मोहन की नयी कृति ‘साथी पहली बार’ का विमोचन यमुनानगर के मुकुंद लाल नेशनल काॅलेज में हुआ । पुस्तक में मानव जीवन के अनेक भाव व्यक्त करतीं रचनायें हैं । वरिष्ठ साहित्यकार के के ऋषि मुख्यातिथि रहे जबकि कथाकार डाॅ अशोक भाटिया विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद थे । अनेक साहित्यकारों ने भी विमोचन समारोह में अपनी उपस्थिति से इसकी गरिमा बढ़ाई । बी मदन मोहन को नयी कृति के प्रकाशन पर बधाई।

प्रयागराज में लोई चले कबीरा पर चर्चा : प्रयागराज की संस्था कहकशां फाउंडेशन की ओर से प्रताप सोमवंशी के नाटक लोई चले कबीरा पर विचार चर्चा आयोजित की गयी । जलज श्रीवास्तव ने कबीर के भजनों का गायन कर मंत्रमुग्ध कर दिया । एहतराम इस्लाम ने अध्यक्षता की और संचालन व आयोजन संस्थापक आनंद कक्कड़ ने किया । अनेक रचनाकार मौजूद रहे ।

प्रवासी लेखन पर चर्चा : प्रवासी लेखन पर पिछले सप्ताह आज समाज के इस स्तम्भ में जो चर्चा की गयी थी जिसे देश ही नहीं विदेश में भी गंभीर रूप से चर्चा हुई । कोशिश रही कि सबके बारे में बात की जाये और कई भी । फिर भी कुछ नाम रह गये । निर्मल जायसवाल ने कनाडा से फोन कर अपनी साहित्यिक यात्रा की जानकारी दी । विदेश में ही बसीं हंसा दीप और उनके पति धर्म महेंद्र जैन भी खूब काम कर रहे हैं । अभी हमने पंजाबी प्रवासी लेखन पर बात नहीं की है क्योंकि इनकी सूची बहुत लम्बे है । ये लेखक भी अपनी मातृभाषा पंजाबी को विदेशों में पहुंचाने में भरपूर योगदान दे रहे हैं ।

साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क – 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ नुपूर कुठे…कुठे बेडी… ☆ श्री प्रमोद जोशी ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ?  नुपूर कुठे…कुठे बेडी… ?  श्री प्रमोद जोशी ☆

(जे जे स्कूल ऑफ आर्टचा स्कल्प्चर गोल्डमेडॅलिस्ट श्री.सुहास जोशी, देवगड याने पाठवलेलं चित्र.)

वरवर मुद्रा कथ्थकची पण,

नुपूर कोठे,कोठे बेडी !

गुंतू पाहे कुणी आणखी,

कुणा मुक्तीची आशा वेडी !

मेंदी रंगली एका पायी,

दुसऱ्या पायी ठिबके रक्त !

एक शारदा भक्त असावा,

दुसरा स्वातंत्र्याचा भक्त !

छुमछुम कोठे,कोठे खणखण,

सुख कुठे तर कोठे वणवण !

अलौकिक दोघांची श्रद्धा 

समर्पणास्तव उत्सुक कणकण !

कुणी तुरुंगी,कुणि मंचावर,

प्रत्येकाचे विभिन्न हेतू !

दोघांच्याही स्पष्ट जाणिवा,

मनात नाही किंतु-परंतू !

नृत्यासाठी अशी कल्पना,

सुचली तो तर केवळ ईश्वर !

चिरंजीविता लाभे त्याला,

कधिही होणे नाही नश्वर !

ता थै थैय्या सूर अचानक,

वेदीवरती जाई मुक्तीच्या !

लिहिल्या जातील कथा चिरंजीव,

रसीक आणि देशभक्तीच्या !

कृष्णधवल कुणी,कोणी रंगीत,

ज्याचे त्याचे कर्म वेगळे !

काय करावे,काय स्फुरावे,

ज्याचे त्याचे मर्म वेगळे !

एका जागी भिन्न येऊनी,

सादर होईल अपूर्व चिंतन !

इतिहासावर लिहिले जाईल,

दोघांचेही नाव चिरंतन ! 

© श्री प्रमोद जोशी

देवगड.

9423513604

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #188 – 74 – “भगवान जाने…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “भगवान जाने…”)

? ग़ज़ल # 74 – “भगवान जाने…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

पहली बार गर्मी को लोग तरस रहे हैं,

सावन के बादल झूम कर बरस रहे हैं।

कूलर बोरियत सी महसूस करने लगे हैं,

लू के मौसम में चलने को तरस रहे हैं।

बाज़ार ए सी बिल्कुल ठंडा पड़ गया है,

गन्ना चरखियाँ पूरी तरह नीरस रहे हैं।

लोग जतन में लस्सी के इंतज़ार में थे,

भजिया और पकौड़ा खाकर हरस रहे हैं। 

भगवान जाने क्या माया फैलाई आतिश,

पाकिस्तानी बादल भारत में बरस रहे हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 66 ☆ ।।काँटों के बीच भी गुलाब सा खिलना सीख लो।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।।काँटों के बीच भी गुलाब सा खिलना सीख लो।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

आईने सी जिंदगी मुस्कायो  तो मुस्काती  है।

बाँट कर देखो खुशी  दुगनी होकर आती है।।

जीकर देखो सब के संग साथ जरा मिल कर।

यह जिंदगी सौगातों की झोली खोल जाती है।।

[2]

शिकवा शिकायत नहीं  शुकराना सीख जायो।

हर किसीके आदर में झुक जाना सीख जायो।।

कुछ धीरज और कुछ प्रभु   पर विश्वास रखो।

ईश्वर की मर्जी में राजी हो  पाना सीख जायो।।

[3]

आदमी को हराना नहीं दिल जीत जाना सीखो।

किताबें पढ़ कर उसे  आचरण मे लाना सीखो।।

तुम्हारे कर्म शब्दों  से  अधिक   होते हैं प्रभावी।

आत्मा मन वाणी बस प्रेम की भाषा लाना सीखो।।

[4]

बसा कर प्यार का शहर नफरत मिटाना सीख जायो।

समय पर हर आदमी के काम आना सीख जायो।।

इसी जमीं पर स्वर्ग सी बन सकती तुम्हारी दुनिया।

बस काँटों बीच गुलाब सा खिलखिलाना सीख जायो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 130 ☆ “किसी को मधुर गीतों सी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित ग़ज़ल – “किसी को मधुर गीतों सी…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #130 ☆ ग़ज़ल – “किसी को मधुर गीतों सी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

दुनिया में मोहब्बत भी क्या चीज निराली है।

रास आई तो अमृत है न तो विषभरी प्याली है।।

 

इसने यहाँ दुनियामें हर एक को लुभाया है

पर दिल है साफ जिनका उनकी ही खुशहाली है।

 

सच्चों ने घर बसाये, झूठों के उजाड़े हैं

नासमझों के घर रहते सुख-शांति से खाली हैं।

 

जिनसे न बनी वह तो उनके लिये गाली है।

जो निभ न सके संग मिल, वे जलते रहे दिल में

जिनने सही समझा है घर उनके दीवाली है।

 

कुछ के लिये ये मीठी मिसरी से सुहानी है

पर कुछ को कटीली ये काँटों भरी डाली है।

 

मन के जो भले उनको यह रात की रानी है

जो स्वार्थ पगे मन के, उनको तो दुनाली है।

 

जिसने इसे जो समझा उसके लिये वैसी है

किसी को मधुर गीतों सी, किसी को बुरी गाली है।

 

जग में ’विदग्ध’ दिखते दो रूप मोहब्बत के

कहीं चाँद सी चमकीली कहीं भौंरे से काली है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 151 – देहरक्षा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 151 – देहरक्षा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

देहरक्षेचे महत्त्व वेश्येला नसते ।

शब्दांनी मन क्रूरतेने चिरते।

वेश्याही माणूस असते।

तिलाही मन आसते।

पोट हीच अडचण नसते।

परतीची वाट बंदच असते।

आयुचे गणित विचित्र असते।

इथे रिटेक तरी कुठे असते।

एक पायारी चुकली की

उत्तर चुकलेलेच असते।

दोष कुणाचाही असो

नेहमी तिच चुकीची असते।

कोवळ्या कळ्या क्रूरपणे

कुस्करतात ते शरीफ ।

कधी प्रेमाच्या जाळ्यात

पकडतात तेही शरीफ।

लग्नाचा बाजार

मांडतात तेही शरीफ ।

बदनाम फक्त तिच असते

मुली पळवणारे सज्जन ।

त्याची दलालही सज्जन

तिथे जाणारेही सज्जन

पूनर्वसनाला काळीमा

फासणारेही सज्जन

बळी पडणारीच !!! दुर्जन

नुसतीच का ठोकायची।

वेश्यांच्या देहरक्षणाची

आहेका हिंमत स्विकारण्याची

ना काम तरी देण्याची

ना नजरा बदलण्याची ।

ढोंगी जगात जगणे नसते।

प्रेम बंधन कुठेच नसते।

जीवन संपवायची हिंमत सार्‍यांना कुठे असते ।

रोजचीच ती मरत असते बदनामी जगत असते ।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ न्यायनिष्ठ रामशास्त्री प्रभुणे… श्री रमाकांत देशपांडे ☆ परिचय – सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ न्यायनिष्ठ रामशास्त्री प्रभुणे… श्री रमाकांत देशपांडे ☆ परिचय – सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

पुस्तक परिचय

पुस्तकाचे नाव- न्यायनिष्ठ रामशास्त्री प्रभुणे

लेखकाचे नाव- रमाकांत देशपांडे

प्रकाशक- अनिरुद्ध कुलकर्णी, कॉन्टिनेन्टल प्रकाशन

प्रथम आवृत्ती- १ एप्रिल 20 19

किंमत- 450 रुपये.

“स्वामी” या रणजीत देसाई यांच्या कादंबरीतून ‘राम शास्त्री’ यांचे नाव वाचले, ऐकले होते परंतु त्यांच्याविषयी परिपूर्ण माहिती नव्हती. ती या पुस्तकातून चांगली मिळाली.

राम शास्त्री प्रभुणे यांचे गाव सातारा जवळ माहुली हे होते. विश्वनाथ शास्त्री प्रभुणे यांचे ते चिरंजीव होते. लहान असताना त्यांचे वडील गेले. बालपणी अतिशय हूड स्वभावाचे होते. त्यामुळे त्यांची आई- पार्वती बाई यांना रामची खूप काळजी वाटत असे. लहानपणी शिक्षण घेण्यात त्यांनी खूप टाळाटाळ केली. त्यामुळे सर्वांच्याकडून बोलणी खावी लागत होती. शेवटी गाव सोडून बाहेर पडले. सातारला आले व तिथून पुढे पुण्यापर्यंत आले. त्यानंतर त्यांनी शिक्षणासाठी काशीला जाण्याचा निर्धार केला. काशीला जाऊन विद्वान पंडित होऊन राम शास्त्री बारा वर्षांनी घरी आले. श्रीमंत नानासाहेब पेशव्यांनी त्यांना पुणे येथे वेदशास्त्र संपन्न पंडित म्हणून बोलावून घेतले. तेथपर्यंत त्यांचा जीवन प्रवास वाचताना त्यांचा स्वाभिमान, बाणेदारपणा , निर्भीडपणा हे सर्व गुण दिसून येतात. त्यांची बुद्धी कुशाग्र होती. न्यायी वृत्ती आणि चांगल्या गोष्टीसाठी कोणत्याही प्रकारची तडजोड न करण्याचा स्वभाव हे सर्व कादंबरीकारांनी चांगले रंगवले आहे.

पुणे येथे पेशव्यांच्या दरबारात त्यांचा योग्य तो सन्मान झाला. राम शास्त्रींनी धर्मशास्त्र आणि राजकारण यांची सांगड घालून पेशव्यांच्या दरबारात स्वतःचे स्थान प्रस्थापित केले. नानासाहेबांनंतर श्रीमंत माधवराव पेशवे यांच्या दरबारात त्यांनी अतिशय चांगले कार्य करून न्यायासनाची प्रतिष्ठा राखली. त्यांना न्यायदानाचे सखोल ज्ञान होते.  राघोबा दादांनी नारायण रावांचा खून कसा करवला याविषयीचा सर्व तपशील या कादंबरीत वाचावयास मिळतो. स्वतःला न पटणाऱ्या गोष्टींशी त्यांनी कधीच तडजोड केली नाही. त्यांचा बाणेदार पणा अनेक प्रसंगातून लेखकाने दाखवून दिला आहे. नारायणराव पेशव्यांच्या खुना संदर्भात सर्व पुरावे त्यांनी गोळा केले.आणि त्यानंतर  राघोबा दादांना देहांत प्रायश्चिताची शिक्षा सुनावली. त्यातून त्यांचा निर्भीडपणा दिसून येतो. कादंबरी वाचताना डोळ्यासमोर ते प्रसंग उभे राहतात. ऐतिहासिक कादंबरी लिहिताना सत्य तर हवेच पण रंजक पणा ही  हवा या दोन्ही गोष्टी कादंबरीत दिसून येतात. पुणे, शनिवार वाडा, पेशवाई याविषयीच्या सर्वच गोष्टी मराठी वाचकांना मनाला भावणाऱ्या असतात. त्यामुळे कादंबरी वाचताना आपण कथानकाशी  तद्रुप होऊन जातो.

राम शास्त्री प्रभुणे यांची व्यक्तिरेखा उलगडून दाखवण्यात लेखक अगदी यशस्वी झाले आहे असे या कादंबरी बद्दल मला वाटले!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

वारजे, पुणे.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #181 ☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख्वाब : बहुत लाजवाब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 181 ☆

☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब 

‘जो नहीं है हमारे पास/ वो ख्वाब है/ पर जो है हमारे पास/ वो लाजवाब है’ शाश्वत् सत्य है, परंतु मानव उसके पीछे भागता है, जो उसके पास नहीं है। वह उसके प्रति उपेक्षा भाव दर्शाता है, जो उसके पास है। यही है दु:खों का मूल कारण और यही त्रासदी है जीवन की। इंसान अपने दु:खों से नहीं, दूसरे के सुखों से अधिक दु:खी व परेशान रहता है।

मानव की इच्छाएं अनंत है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती चली जाती हैं और सीमित साधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। इसलिए वह आजीवन इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और सुक़ून भरी ज़िंदगी नहीं जी पाता। सो! उन पर अंकुश लगाना अनिवार्य है। मानव ख्वाबों की दुनिया में जीता है अर्थात् सपनों को संजोए रहता है। सपने देखना तो अच्छा है, परंतु तनावग्रस्त  रहना जीने की ललक पर ग्रहण लगा देता है। खुली आंखों से देखे गए सपने मानव को प्रेरित करते हैं करते हैं, उल्लसित करते हैं और वह उन्हें साकार रूप प्रदान करने में अपना सर्वस्व झोंक देता है। उस स्थिति में वह आशान्वित रहता है और एक अंतराल के पश्चात् अपने लक्ष्य की पूर्ति कर लेता है।

परंतु चंद लोग ऐसी स्थिति में निराशा का दामन थाम लेते हैं और अपने भाग्य को कोसते हुए अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और उन्हें यह संसार दु:खालय प्रतीत होता है। दूसरों को देखकर वे उसके प्रति भी ईर्ष्या भाव दर्शाते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अभावों से नहीं; दूसरों के सुखों को देख कर दु:ख होता है–अंतत: यही उनकी नियति बन जाती है।

अक्सर मानव भूल जाता है कि वह खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। यह संसार मिथ्या और  मानव शरीर नश्वर है और सब कुछ यहीं रह जाना है। मानव को चौरासी लाख योनियों के पश्चात् यह अनमोल जीवन प्राप्त होता है, ताकि वह भजन सिमरन करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सके। परंतु वह राग-द्वेष व स्व-पर में अपना जीवन नष्ट कर देता है और अंतकाल खाली हाथ जहान से रुख़्सत हो जाता है। ‘यह किराये का मकान है/ कौन कब तक रह पाएगा’ और ‘यह दुनिया है एक मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला’ स्वरचित गीतों की ये पंक्तियाँ एकांत में रहने की सीख देती हैं। जो स्व में स्थित होकर जीना सीख जाता है, भवसागर से पार उतर जाता है, अन्यथा वह आवागमन के चक्कर में उलझा रहता है।

जो हमारे पास है; लाजवाब है, परंतु बावरा इंसान इस तथ्य से सदैव अनजान रहता है, क्योंकि उसमें आत्म-संतोष का अभाव रहता है। जो भी मिला है, हमें उसमें संतोष रखना चाहिए। संतोष सबसे बड़ा धन है और असंतोष सब रोगों  का मूल है। इसलिए संतजन यही कहते हैं कि जो आपको मिला है, उसकी सूची बनाएं और सोचें कि कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास उन वस्तुओं का भी अभाव है; तो आपको आभास होगा कि आप कितने समृद्ध हैं। आपके शब्द-कोश  में शिकायतें कम हो जाएंगी और उसके स्थान पर शुक्रिया का भाव उपजेगा। यह जीवन जीने की कला है। हमें शिकायत स्वयं से करनी चाहिए, ना कि दूसरों से, बल्कि जो मिला है उसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। जो मानव आत्मकेंद्रित होता है, उसमें आत्म-संतोष का भाव जन्म लेता है और वह विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँध देता है।

गुलज़ार के शब्दों में ‘हालात ही सिखा देते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह होता है।’

हमारी मन:स्थितियाँ परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। यदि समय अनुकूल होता है, तो पराए भी अपने और दुश्मन दोस्त बन जाते हैं और विपरीत परिस्थितियों में अपने भी शत्रु का क़िरदारर निभाते हैं। आज के दौर में तो अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, उन्हें तक़लीफ़ पहुंचाते हैं। इसलिए उनसे सावधान रहना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए जीवन में विवाद नहीं, संवाद में विश्वास रखिए; सब आपके प्रिय बने रहेंगे। जीवन मे ं इच्छाओं की पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म में सामंजस्य रखना आवश्यक है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा।

सो! हमें जीवन में स्नेह, प्यार, त्याग व समर्पण भाव को बनाए रखना आवश्यक है, ताकि जीवन में समन्वय बना रहे अर्थात् जहाँ समर्पण होता है, रामायण होती है और जहाल इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, महाभारत होता है। हमें जीवन में चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। स्व-पर, राग-द्वेष, अपेक्षा-उपेक्षा व सुख-दु:ख के भाव से ऊपर उठना चाहिए; सबकी भावनाओं को सम्मान देना चाहिए और उस मालिक का शुक्रिया अदा करना चाहिए। उसने हमें इतनी नेमतें दी हैं। ऑक्सीजन हमें मुफ्त में मिलती है, इसकी अनुपलब्धता का मूल्य तो हमें कोरोना काल में ज्ञात हो गया था। हमारी आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती हैं, परंतु इच्छाएं नहीं। इसलिए हमें स्वार्थ को तजकर,जो हमें मिला है, उसमें संतोष रखना चाहिए और निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। हमें फल की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो हमारे प्रारब्ध में है, अवश्य मिलकर रहता है। अंत में अपने स्वरचित गा त की पंक्तियों से समय पल-पल रंग बदलता/ सुख-दु:ख आते-जाते रहते है/ भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह सफलता का मूलमंत्र रे। जो इंसान स्वयं पर भरोसा रखता है, वह सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। इसलिए इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि जो नहीं है, वह ख़्वाब है;  जो मिला है, लाजवाब है। परंतु जो नहीं मिला, उस सपने को साकार करने में जी-जान से जुट जाएं, निरंतर कर्मरत रहें, कभी पराजय स्वीकार न करें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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