हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #180 – बाल गीत – कष्ट हरो मजदूर के… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  बाल गीत “कष्ट हरो मजदूर के…”)

☆  तन्मय साहित्य  #180 ☆

बाल गीत – कष्ट हरो मजदूर के… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(बाल गीत संग्रह “बचपन रसगुल्लों का दोना” से एक बालगीत)

चंदा मामा दूर के

कष्ट हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

 

तेरी चाँदनी के साथी

नींद खुले में आ जाती

सुबह विदाई में तेरे

मिलकर गाते परभाती,

ये मजूर न माँगे तुझसे

लड्डू मोतीचूर के

चंदा मामा दूर के

कष्ट हरो मजदूर के।।

 

पंद्रह दिन तुम काम करो

तो पंद्रह दिन आराम करो

मामा जी इन श्रमिकों पर भी

थोड़ा कुछ तो ध्यान धरो,

भूखे पेट  न लगते अच्छे

सपने कोहिनूर के

चंदा मामा दूर के

कष्टहरो मजदूर के।।

 

सुना आपके अड्डे हैं

जगह जगह पर गड्ढे हैं

फिर भी शुभ्र चाँदनी जैसे

नरम मुलायम गद्दे हैं,

इतनी सुविधाओं में तुम

औ’ फूटे भाग मजूर के

चंदा मामा दूर के

दुख हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 05 ☆ सूरज सगा कहाँ है… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सूरज सगा कहाँ है।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 05 ☆ सूरज सगा कहाँ है… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

घेर हमें अँधियारे बैठे

जाने कब होगा भुन्सारा

सूरज अपना सगा कहाँ है?

 

जले अधबुझे दिए लिए

अब भी चलती पगडंडी

सड़कें लील गईं खेतों को

फसल बिकी सब मंडी

 

गाँव गली आँगन चौबारा

निठुर दलिद्दर भगा कहाँ है?

 

रिश्ते गँधियाते हैं

संबंधों में धार नहीं है

मँझधारों में नैया

हाथों में पतवार नहीं है

 

डूब चुका है पुच्छल तारा

चाँद-चाँदनी पगा कहाँ है?

 

नहीं जागती हैं चौपालें

जगता है सन्नाटा

अपनेपन से ज़्यादा महँगा

हुआ दाल व आटा

 

कैसे होगा राम गुजारा

भाग अभी तक जगा कहाँ है?

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

तालघाट शाखा में जब अपडाउनर्स की प्रभुता बढ़ी तो स्वाभाविक था कि नियंत्रण कमजोर पड़ा. ये जमाना मेनुअल बैंकिंग का था जब शाखाएँ बिना कम्प्यूटर के चला करती थीं और ऐसा माना जाता था कि कुशल मनुष्य ही मशीन से बेहतर परफॉर्मेंस देता है. पर अपडाउनर्स की प्रभुता ने शाखा का संतुलन, अस्थिर करने की शुरुआत कर दी. संतुलन निष्ठा और व्यक्तिगत सुविधा के बीच ही रहता है और यह संतुलन बना रहे तो शाखाएँ भी परफार्म करती हैं और काम करने वालों के परिवार भी संतुष्ट रहते हैं. पर जब व्यक्तिगत सुविधा, कार्यालयीन निष्ठा को दरकिनार कर दे तो बहुत कुछ बाकी रह जाता है और असंतुलन की स्थिति बन जाती है. इसे बैंकिंग की भाषा में बेलेंसिंग का एरियर्स बढ़ना और साप्ताहिक/मासिक निष्पादन की जानकारी पहुंचने में बर्दाश्त के बाहर विलंब होना कहा जाता है.

तालघाट के शाखा प्रबंधक सज्जनता और धार्मिकता के गुणों से लबालब भरे थे पर उनके व्यक्तित्व से दुनियादारी, कठोरता, चतुराई, निगोशिएशन नामक दुर्गुणों या एसाइनमेंट के अनुसार जरूरी गुणों का जरूरत से ज्यादा अभाव था. सारे ऐसे व्यसन, जैसे चाय, पान, तंबाकू, मदिरा जिनसे सरकारें भी टेक्स कमाती हैं, उनसे कोसों दूर थे. हनुमानजी के परम भक्त, हर मंगलवार और शनिवार को हनुमान चालीसा और सुंदरकांड के नियमित वाचक या पाठक अपने परिवार के संग शाखा के ऊपर बने शाखाप्रबंधक निवास में रहते थे. उनकी पूजा की घंटियों और धूप की सुगंध से शाखा भी महक जाती थी और इस प्रातःकाल पूजा का प्रसाद, शाखा में ड्यूटी पर रहे सिक्युरिटी गार्ड भी पाते थे. कभी कभी या अक्सर उनके लिये चाय का भी आगमन हो जाता था क्योंकि शाखाप्रबंधक से ज्यादा गृहसंचालन और परिवार के संचालन में उनकी भार्या कुशल थीं. अतः शाखाप्रबंधक महोदय ने परिवार संचालन का भार पत्नी पर और शाखा संचालन का भार हनुमानजी की कृपा पर छोडकर अपना मन भक्ति भाव में लगा लिया था। पर हनुमानजी तो स्वयं कर्मठ और समर्पित भक्त थे तो धर्म से ज्यादा कर्म और राम के प्रति निष्ठा पर विश्वास करते थे. तो शाखा प्रबंधक महोदय को परिवार से तो नहीं पर नियंत्रक कार्यालय में पदस्थ वरिष्ठ उप प्रबंधक जो उनके मित्र भी थे, का फोन आया. शाखा की समस्याओं पर चर्चा के दौरान जब शाखाप्रबंधक महोदय ने नियंत्रक कार्यालय से रेडीमेड समाधान मांगा तो वरिष्ठ उपप्रबंधक महोदय ने अपनी मित्रता और नियंत्रक कार्यालय के रुआब के मुताबिक उनको समझा दिया कि हम यहां नियंत्रण के लिये बैठे हैं, आपको रेडीमेड समाधान (जो कि होता नहीं) देने के लिये नहीं. परम सत्य आप समझ लो कि शाखाप्रबंधक आप हो और शाखा आपको ही चलानी है. स्टाफ जैसा है, जितना है उससे ही काम करवाना है. बैंक इन सबको और आपको भी इस काम के लिए ही वेतन देती है. आपकी शाखा की इमेज हर मामले में इतनी बिगड़ चुकी है कि हमारे साहब को भी आपके कारण बहुत कुछ सुनना पड़ता है. कोशिश करिये कि वो आपको नज़र अंदाज ही करते रहें या फिर खुद भी सुधरिये और शाखा को भी सुधारने की कोशिश कीजिये. यारी दोस्ती के कारण पहले से आपको बता रहे हैं. शाखाप्रबंधक महोदय इन सब बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल रहे थे क्योंकि उनके ध्यान में तो सिर्फ बजरंगबाण का पाठ चल रहा था. यही पूरा करके वो नीचे शाखाप्रबंधक के कक्ष में विराजमान हो गये और अंशकालिक संदेशवाहक को नारियल और प्रसाद हेतु लड्डू लाने का अ-कार्यालयीन आदेश दिया. आदेश का तत्काल द्रुत गति से पालन हुआ और शाखा में हनुमानजी को प्रसाद अर्पित करने और उसे जो भी शाखा पधार गये थे, उन्हें प्रसाद वितरण कर शाखा के केलेंडर के अनुसार मंगलवार नामक कार्यदिवस का आरंभ हुआ.

नोट : किस्साये तालघाट जारी रहेगा. हममें से अधिकांश इसमें अपनी यादों का आनंद लेंगे, हो सकता है कुछ ऐसे भी हों जिनका इन सब से वास्ता ही न पड़ा हो और वे अपने यथार्थ रूपी अतीत को जो उनकी भी बुनियाद रही है, भूलकर मायाजाल की सोशलमीडियाई कल्पनाओं में ही गर्वित रहें. तो उनके लिए तो इस किस्से का कोई मतलब नहीं भी हो सकता है पर ये किस्सा तो जारी रहेगा मित्रों क्योंकि संतुष्टि का सबसे बड़ा हिस्सा तो लेखक के हिस्से में ही आता है.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 180 ☆ पुण्याई… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 180 ?

💥 पुण्याई… 💥 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

किती पैलू असतात ना,

बाईच्या जगण्याला,

कसे असतो आपण,

मुलगी म्हणून ?

बहिण म्हणून ?

बायको म्हणून?

आई म्हणून ?

 

एका लेखिकेने लिहिल्या होत्या,

आदर्श मातांच्या,

विलक्षण कथा!

मी दिली होती भरभरून दाद,

त्या लेखनाला!

तिने मला मागितला ,

माझ्या आईपणाचा आलेख,

“मला लिहायचंय तुमच्यावर,

“आदर्श माता” म्हणून!”

 

माझा सविनय नकार,

“किती महान आहेत

त्या सा-याजणीच तुम्ही

ज्यांच्यावर लिहिलंय!”

 

मी असं काहीच नाही केलेलं,

माझ्या मुलासाठी!

अंतर्मुख होऊन,

घेतली होती स्वतःची,

उलटतपासणी !

 

आता परत आलंय आवतंन,

आदर्श माता पुरस्कार

 स्वीकारण्याचे !

हसले स्वतःशीच,

आठवल्या माझ्याचं

कवितेच्या ओळी,

“भोग देणं आणि घेणं

सोपं असेलही

किती कठीण असतं

आई होणं !”

 दूरदेशीच्या मुलाशी बोलले,

मिश्किलपणे,

या पुरस्काराबद्दल–

हसत हसत..आणि…

त्याचं बोलणं ऐकून वाटलं,

आई होणं  हेच

 एक पुण्य,

नव्हे जन्मजन्मांतरीची

पुण्याई —

निसर्गाने बहाल केलेला,

केवढा मोठा पुरस्कार!!

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ सांगावा… श्री सचिन वसंत पाटील ☆ परिचय – सुश्री सुनिता गद्रे ☆

सुश्री सुनिता गद्रे

? पुस्तकावर बोलू काही ?

 ☆ सांगावा… श्री सचिन वसंत पाटील ☆ परिचय – सुश्री सुनिता गद्रे ☆ 

पुस्तकाचे नाव- सांगावा

लेखक -श्री सचिन वसंत पाटील

पृष्ठ संख्या -135

 मूल्य- दोनशे रुपये.

अलीकडेच सांगावा हा खूप चांगला कथासंग्रह वाचनात आला.कर्नाळ या सांगली जवळच्या एका छोट्या गावात राहणारे लेखक सचिन पाटील यांचा!… त्यांना नुकताच भेटण्याचा योग आला. अक्षरशः विकलांग अवस्थेत जगणारा, सगळ्या विपरीत परिस्थितीशी लढणारा हा योध्दा!…त्याच्याबरोबरच्या नुसत्या बोलण्याने सुद्धा आपल्यात सकारात्मक ऊर्जेचा संचार होतो.’ सांगावा ‘या कथासंग्रहाची मी वाचली ती चौथी आवृत्ती ! दहा वर्षात चौथी आवृत्ती निघणे ही कुठल्याही नवोदित लेखकाला अभिमान वाटावा अशीच गोष्ट आहे.

श्री सचिन वसंत पाटील

संग्रहातील सर्व कथा ग्रामीण जीवनाचा चेहरा मोहरा दाखवितात. यात एकूण बारा कथांचा समावेश आहे .कथा बीजाची दोन रूपे येथे आढळतात. पहिले रूप म्हणजे आजच्या खेड्यातील मूल्य संस्कृतीचा होऊ घातलेला -हास  आणि दुसरे म्हणजे बदलत्या परिवर्तन प्रक्रियेत माणूस, माणुसकी,नाती, निती,आणि माती पण टिकली पाहिजे हा लेखकाचा दृष्टिकोन. या दोन कथा बीजांभोवती ‘सांगावा’ कथासंग्रहातील कथांचे वर्तुळ तयार झाले आहे.

संग्रहातील भूल ही पहिली कथा! स्वतःच्या हाताने जीवनाची शोकांतिका करणाऱ्या शेतकऱ्याची अंधश्रद्धा, अडाणी समजूत यातून ती साकारली गेलेली आहे. हणमा शेतकरी ऐकीव गोष्टीला बळी पडून ,आपल्या संसाराला रान भूल लागू नये म्हणून भ्रमिष्टासारखा जेव्हा आपल्या शेतातील वांग्याचे बहारातील पीक उध्वस्त करून टाकतो, तेव्हा वाचकाला खूप हळहळ वाटत राहते.

दुसरी कथा ‘काळीज’! ग्रामीण परिसरात ‘सेझ’चे आगमन आणि कृषी जीवनाची फरपट लेखकाने येथे चित्रित केली आहे. शामू अण्णा ,काळी आईचे जिवापाड सेवा करणारा शेतकरी! पण त्याचाच मुलगा जेव्हा त्यांना न विचारता जमीन विक्रीची परवानगी देतो, तेव्हा तो खचून जातो  आणि वेडा बागडा  बिन काळजाच्या, निर्जीव बुजगावण्यागत जगत राहतो.  कथा वाचकाच्या काळजाला एकदम भिडते.

‘पावना ‘कथेत खेडेगावातल्या जीवन मूल्यांचा -हास चित्रित होतो. कितीही कष्ट, त्रास झाला तरी आलेल्या पाहुण्यांचे आदरातिथ्य करणे, त्याला आधार देणे ,विचारपूस करणे हा ग्रामीण माणसाच्या मनाचा मोठेपणा कालौघात ग्रामीण माणसाकडून हिरावला गेलेलाआपल्याला या कथेत दिसतो.

‘मांडवझळ ‘ही एका लाली नावाच्या पाळीव कुत्रीची कथा! ती कुत्रीच येथे सगळं विषद करतेय. भरल्या घरात, लग्न समारंभा दिवशी त्या बिचारीला किती अग्नी दिव्यातून जावे लागले, किती यातना सोसाव्या लागल्या हे वाचून मन विषण्ण  होते.त्या पाळलेल्या बिचारीला खायला द्यायची पण कोणाला सवड आणि आठवण नाहीय. तिचे झालेले हाल आणि अगतिकता बघून मुक्या प्राण्यांना भूक असते, भावना असतात त्यांचे मन समजून घ्या असा मोलाचा संदेश ही कथा देते.

‘वाट ‘कथेत मोठ्या बाहुबली शेतकऱ्याने जाण्या-येण्याच्या वाटेसाठी  एका गरीब शेतकऱ्याची लावलेली  वाट….आजही शेतकऱ्यांच्या नशिबीचा वनवास कसा असतो हे दाखवते.

‘धग’ ही संभा या कष्टाळू प्रामाणिक इस्त्री वाल्याची कथा आहे. त्याच्या जीवन प्रवास बघता, साध्या सरळ स्वभावाच्या माणसांची ही शोकांतिकाच असते काय?.. की त्याला उन्हाळ्याची धग, पोटातील भुकेची धग, न मिळालेल्या मायेची धग यात पिळपटून टाकलं जातं… असा प्रश्न मनात उभा राहतो.

मरणकळा ही नव्या जुन्या पिढीतील खाईची कथा. कथा नायकाला कितीही वाटलं तरी पत्नी विरुद्ध जाऊ न शकल्याने वडिलांचे होणारे हाल.. आणि त्यामुळे वडिलांच्या बरोबरच हळव्या मनाचा तो मरण कळा सोसतोय हे वास्तवाचं विदारक चित्रण येथे आहे.

‘सय’ एक स्वप्न कथा आहे. आपल्या आजोळी गेलेल्या सहा, सात वर्षाच्या मुलाची सय कथा नायकाला किती विचित्र स्वप्न पाडते हे लेखकाने छान रंगवले आहे.

‘चकवा’ ही खेड्यातील प्रेमाचा चकवा देणारी कथा! बाजारातून घरी जाणाऱ्या बज्याला लग्नाचा चकवा, स्त्री भेटल्याचा चकवा, अंधाराचा चकवा इत्यादी प्रतिमांमधून समाजातील अंधश्रद्धा, भूत, पिशाच्यावर विश्वास यावर प्रकाश टाकला आहे.

‘ओझ’एक सुंदर कथा आहे. गावातून शहरात जाऊन खूप मोठा आणि धनाढ्य झालेला मुलगा .गावात पंचवीस वर्षानंतर येऊन गावाचं… बारा बलुतेदारांचं आपल्यावर असलेलं ओझं उतरवतो खूप खुमासदार पद्धतीनं गावाचं चित्र रंगवलं गेलंय.

सांगावा ही संग्रहातील शीर्षककथा! मातृ हृदयानं आपल्या प्रिय पुत्रासाठी, किंबहुना हा एका पिढीने दुसऱ्या पिढीला दिलेला सांगावा आहे. आपल्या निर्वसनी मुलाला नाईलाजानं आईनं शहरात पाठवलंय. चार पैसे कमावले तर कर्ज फिटेल, गावात शेती करून मानानं राहता येईल हा त्यातला विचार. पण शहरातील छंदी-फंदीपणा,व्यसनं या सगळ्यामुळे पैसा हातात आला की नको ते करणं, संगतीचा परिणाम,  सखू म्हातारीच्या मनात असंख्य चित्रे तयार होतात. नको तो पैसा नको ते शहरात रहाणं !पोराला बहकू द्यायचं नसतं. शेवटी मुलाला सांगावा देते”जसा असचील तसा घराकडे निघून ये.”ही कथाही काळजाला जाऊन  भिडते.

आशय, अभिव्यक्ती भाषा मूल्य याने सांगावा कथा संग्रह वाचकांचे लक्ष खिळवून ठेवतो. लेखक सचिन पाटील यांनी ग्रामीण संस्कृती, लोकसंकेत, व्यक्ति, प्रवृतीचं दर्शन मोठ्या सूचकतेने केलं आहे. बोलीभाषा, निवेदनातील सजगता ,सहजता, घडलेला प्रसंग साक्षात् डोळ्यासमोर उभा करण्याची धाटणी खूपच वाखाणण्याजोगी आहे .एक उत्कृष्ट कथासंग्रह वाचल्याचा आनंद ‘सांगावा’ निश्चितच देतो.

** समाप्त**

परिचय – सुश्री सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 01 – पपड़ाये हैं अधर नदी के… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – पपड़ाये हैं अधर नदी के…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 01 – पपड़ाये हैं अधर नदी के… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

पपड़ाये हैं अधर नदी के

है व्याकुल प्यासी

 

जर्जर जीर्ण-शीर्ण दिखते हैं

झील, सरोवर, ताल

मेघ, रूठकर गये

कछारों पर छाया दुष्काल

प्रकृति कराह रही निर्वसना

बेबस अबला सी

 

नींद नहीं खुल रही

नशेड़ी पहरेदारों की

इज्जत लूट रहे आतंकी

हरित कछारों की

वृक्षावलियाँ आज हुई हैं

महलों की दासी

 

नदियों की सेवा करते थे

जो निर्झर नाले

वृक्ष हुए उद्गम से गायब

रस देने वाले

लोक घुनें हैं मूक

नहीं मुखड़े पर उल्लासी 

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 76 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे..”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 76 – मनोज के दोहे…

1 आभार

सबके प्रति आभार है, दिखलाई जो राह।

कविता तट तक जा सका,नाप सका कुछ थाह।।

2 ज्वार

ज्वार बाजरा खाइए, मिटें उदर के रोग।

न्यूट्रीशन तन को मिले, होता उत्तम भोग।।

3 सुकुमार

बाल्यकाल सुकुमार है, रखें सदा ही ख्याल।

संस्कारों की उम्र यह, होता उन्नत भाल।।

4 पुलकन

मन की पुलकन बढ़ गई, मिली खबर चितचोर।

बेटी का घर आगमन, बाजी ढोलक भोर ।।

5 चितवन

चितवन झाँकी राम की, सीता सँग घनश्याम।

आभा मुख की निरखते, हृदय बसें श्री राम।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 06 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग दो – नांदेड़ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग दो – नांदेड़

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 06 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग दो – नांदेड़ ?

(अगस्त 2014)

बीड़ जिले का एक छोटा सा शहर है, नाम है परलीवैजनाथ (परळीवैजनाथ)। इस शहर में BHEL का एक बड़ा विद्यालय है। मुझे इस विद्यालय में खेलों द्वारा भाषा सिखाने की विधि इस विषय से संबंधित वर्कशॉप लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। कार्यक्रम पाँच दिन का था। एक अधिक दिन हाथ में रखकर रात की बस से मुझे छठवें दिन पुणे लौट आना था।

जाते समय रात के 7.30 बजे मैं स्लीपिंग वोल्वो बस में सवार हुई। रात भर का सफ़र था। सुबह 5.30 बजे बस परलीवैजनाथ पहुँचनेवाली थी। पुणे से परलीवैजनाथ का अंतर 372 कि.मी है। मैं आराम से ड्राइवर के पीछेवाली स्लीपिंग सीट में बैठ गई। बस चल पड़ी। यह जुलाई का अंतिम सप्ताह था। बाहर वर्षा हो रही थी।

हम कुछ पचास कि.मी. ही सफ़र कर पाए थे कि ज़ोर से एक झटका लगा। बस में सोए कुछ बच्चे झटका खाकर धम्म से बस की फ़र्श पर गिरे और ज़ोर से रोने लगे। बस डिवाइडर पर चढ़ गई थी। बस के दोनों ओर के ऑटोमेटिक दरवाज़े लॉक हो गए थे। खूब प्रयास के बाद जब दरवाजे नहीं खुले तो पीछे के एमरजेंसी द्वार से सबको नीचे उतारा गया।

मेरे लिए छलाँग मारकर नीचे उतरना किसी सर्कस से कम न था। वह दृश्य आज भी याद करने पर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मेरे हाथ पैर छिल गए पर अब पीछे मुड़कर देखना न था तो अन्य यात्रियों के साथ तेज़ बारिश में भीगती हुई अपना सामान लेकर मैं भी रास्ते के किनारे खड़ी रही। कहीं कोई शेड न था, हाई वे पर रोशनी तो होती नहीं तो अंधकार में ही ईश्वर को स्मरण करते हुए खड़ी रही।

थोड़ी देर में कुछ और वोल्वो बस आईं तो किसी को कहीं तो किसी को कहीं बिठा दिया गया। मुझे एक लालवाली एस.टी में बिठाया और कन्डक्टर ने कहा कि नगर में आपको स्लीपिंग कोच मिल जाएगी। इस बस की भी सारी सीटें भरी थीं।

कुछ घंटे दरवाज़े के पास वाली सीट पर बैठकर रात के कोई ग्यारह बजे नगर पहुँची तो वहाँ से फिर एक दूसरे वोल्वो में मुझे बिठा दिया गया और कहा कि शिरडी से फिर बस बदलनी पड़ेगी।

अब आगे बढ़ते रहने के अलावा कोई चारा न था। रात के एक बजे के करीब शिर्डी पहुँची तो वहाँ से परलीवैजनाथ जाने के लिए शेयरिंग में स्लीपिंग सीट मिली। मरता क्या न करता। एक बूढ़ी महिला के साथ कभी बैठकर तो कभी ढुलकी लेती हुई सुबह साढ़े सात बजे हम परलीवैजनाथ पहुँचे।

मुझे लेने के लिए एक शिक्षिका और दो शिक्षक आए हुए थे। शहर में एक छोटा रेल्वे स्टेशन है। रेल्वे स्टेशन के बाहर ही एक होटल में रहने की व्यवस्था थी। थोड़ा फ्रेश होकर दस बजे से वर्कशॉप प्रारंभ हुआ। न जाने कौन-सी शक्ति आ गई थी जो सारे दर्द भूल गई और जोश के साथ काम प्रारंभ किया।

छोटे शहर के सीधे -साधे सरल लोग, आनंद आया उन सबके साथ पाँच दिन वर्कशॉप लेते हुए। सबके साथ नीचे फर्श पर बैठकर महाराष्ट्रीय भोजन करते हुए आनंद आया। सत्तर शिक्षक थे। उन सबमें आत्मीयता थी, कोई दिखावा नहीं। मैं भी सबके साथ घुलमिल गई।

पाँचवे दिन कार्यक्रम समाप्त हुआ। विद्यालय ने धनराशि के चेक के साथ अनपेक्षित कई प्रकार के अन्य उपहार भी दिए, यह उनका बड़प्पन था। वे वर्कशॉप से अत्यंत प्रसन्न थे तथा छह माह बाद पुनः आने का लिखित आमंत्रण भी दिया।

वर्कशॉप के दौरान ही मैंने यों ही कहा था कि मुझे नांदेड जाने की बड़ी इच्छा है और लो! उसी दिन शाम को एक इनोवा गाड़ी और दो शिक्षक नांदेड जाने के लिए तैयारी करके आए।

हमें 105 कि.मी का फासला तय करना था। रास्ता भी खराब था। हम शाम को साढ़े चार बजे रवाना हुए और तीन घंटे में नांदेड पहुँचे।

यहाँ का परिसर अमृतसर के गुरुद्वारे से भी बड़ा है। स्वच्छ तथा आकर्षक गुरुद्वारा! सब कुछ सफेद संगमरमर का बना हुआ। परिसर में प्रवेश करते ही साथ एक अद्भुत शांति और आनंद का अनुभव हुआ।

इस गुरुद्वारे को हज़ूर साहब सचखंड कहा जाता है। यह भारत के मुख्य पाँच गुरुद्वारों में से एक है। यह गोदावरी नदी के किनारे बसा हुआ है।

1708 में सिक्खों के अंतिम तथा दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी अपने कुछ अनुयायियों के साथ पंजाब से नांदेड सिक्ख धर्म के प्रचार -प्रसार के लिए आए थे। वे यहीं पर कुछ काल तक रहे। कहा जाता है कि कुछ धार्मिक कारणों से नवाब वजीर शाह ने गुरु गोविंद सिंह की हत्या करवाने के लिए हमला करने दो आदमियों को भेजा था। एक हमलावर की गर्दन तो गुरु गोविन्द सिंह जी ने ही अपनी तलवार से छाँट दी और दूसरे को अनुयायियों ने मारा। 7 अक्टूबर 1708 गुरुगोविंद सिंह जी ने देह त्याग किया था। उनके साथ उनके प्रिय घोड़े ने भी अपनी जान दे दी थी। घोड़े का नाम दिलबाग था।

अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा था कि वे अब किसी उत्तराधिकार को गुरु चुनने के बजाए अपने पवित्र धर्म ग्रंथ को ही गुरु मानें। तब से ग्रंथ साहिब को गुरु ग्रंथ साहिब कहा जाने लगा। आपने ही इस शहर को अवचल नगर नाम दिया था।

आज जिस स्थान पर गुरुद्वारा बनाया गया है उस स्थान को सच खंड कहा जाता है। इसी स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह जी की आत्मा पवित्र ज्योत में विलीन हो गई थी।

गुरुद्वारे का भीतरी कमरा अंगीठा साहिब कहलाता है। इसी स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह जी का दाह संस्कार किया गया था। सौ साल से भी अधिक समय बीतने के बाद 1830 में पंजाब के प्रसिद्ध राजा रणजीत सिंह जी ने इस गुरुद्वारे का निर्माण करवाया था।

यह केवल धार्मिक स्थल ही नहीं अपितु हर भारतीय के लिए एक ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल भी है।

मराठी भाषा के तीन प्रसिद्ध कवि विष्णुपंत सेसा, रघुनाथ सेसा और वामन पंडित का जन्म भी इसी शहर में हुआ था।

महाराष्ट्र पंजाब से बहुत दूर है, इसलिए अपनी मृत्यु से पूर्व गुरुगोविंद सिंह जी ने एक अनुयायी संतोक सिंह को छोड़कर बाकी सभी को पंजाब लौट जाने के लिए कहा था और संतोक सिंह को लंगर चलाते रहने की ज़िम्मेदारी सौंपी थी। पर उनके अनुयायी पंजाब न लौटे और नांदेड़ में ही बस गए।

अनुयायियों ने अपने गुरु की याद में एक छोटा- सा मंदिर बनाया था जो सच खंड कहलाया। आज यहाँ बड़ी संख्या में सिक्ख समुदाय के लोग इस शहर में रहते हैं। प्रति वर्ष गुरु गोविन्द सिंह की जयंती मनाई जाती है। लाखों की संख्या में सभी भक्त आते हैं। यह शहर सिक्ख संप्रदायों का महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान है।

गुरुगोविंद सिंह जी अपने घावों के ठीक न हो पाने की वजह से मृत्यु के ग्रास बनें थे।

1666 में जन्में इस महान गुरु ने 41 वर्ष की आयु तक मुगलों द्वारा हिंदुओं पर किए गए अत्याचार का सामना किया। उनके पिता गुरु तेगबहादुर सिंह (जो नौवें गुरु भी थे) और उनके चार पुत्र भी औरंगज़ेब के हाथों कष्ट पाकर शहीद हो गए थे। यही कारण था कि उन्होंने खालसा पंथ का निर्माण किया। इनका काम था मुग़लों के विरुद्ध हथियार उठाना। सभी सिक्ख संप्रदाय जो खालसापंथी थे वे कट् टरता से सभी धार्मिक नियमों का पालन करते थे। यहाँ आज भी भक्तों के माथे पर चंदन का टीका लगाए जाने की प्रथा है।

मंदिर के भीतरी भाग के एक कमरे में गुरुगोविंद सिंह जी के अस्त्र -शस्त्र तथा उनके द्वारा उपयोग में लाई गई वस्तुएँ हैं। यहाँ किसी का भी प्रवेश निषिद्ध है।

हम मंदिर के परिसर में पहुँचे तो जब अपने जूते चप्पल रखने एक निर्धारित स्टैंड पर गए तो एक सिक्ख सज्जन ने न, न कहने पर भी हमारे जूते -चप्पलों को अपने हाथ से उठाकर शेल्फ पर रखा और हमें टोकन दिया।

हम मंदिर में माथा टेककर जब लौट रहे थे तो उस समय रात के कुछ दस बजे होंगे। वे सज्जन जो जूते रख रहे थे अब मंदिर की ओर जा रहे थे। हमें देखकर सतश्रीआकाल कहा और मुस्कराहट के साथ आगे बढ़ गए। साथियों से पूछने पर पता चला कि वे नांदेड़ शहर के जाने-माने व्यापारी थे, जिनकी शहर में कई दुकानें थीं। वे प्रतिदिन सुबह सात से दस और शाम को सात से दस कार सेवा के लिए आते हैं। शायद यही सेवा की भावना उन्हें अहंकार से दूर रखती है। मिट्टी से जोड़े रखती है।

यहाँ रोज़ लंगर चलता है। रोटी, सब्जी,चावल कढ़ी, छोले ,राजमा आदि नियमित बनाए जाते हैं। लोग अपने समयानुसार आकर कार सेवा करते हैं। कोई सब्जी काटता है तो कोई रोटियाँ सेंक देता है। हज़ारों लोग रोज भोजन करने आते हैं। हज़ारों हाथ सेवाजुट भी रहते हैं।

यहाँ तस्वीर खींचने की मनाही है।

गुरुद्वारा एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ हर जाति धर्म, वर्ण का व्यक्ति दर्शन के लिए तथा लंगर का प्रसाद पाने के लिए जा सकता है।

रात के समय संगमरमर से बना विशाल मंदिर बहुत ही आकर्षक दिखाई दे रहा था।

मैं भावविभोर हो उठी। अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं उस पवित्र भूमि पर खड़ी थी जहाँ गुरु गोविंद सिंह जी का पार्थिव शरीर कभी रखा गया था। यह मेरा सौभाग्य ही था जो मैंने चाहा और मुझे मिला। शायद यही कारण था कि बस से उतरते समय जो चोटें लगी थीं वे सब ठीक हो गईं और सफल कार्यक्रम के बाद मैं दर्शन के लिए भी पहुँच गई।

रात को डेढ़ बजे हम वहाँ से रवाना हुए और प्रातः पाँच बजे होटल पहुँच गई।

आज जब अपनी इस अद्भुत यात्रा की बात सोचती हूँ तो यह विश्वास करने को विवश होती हूँ कि हमें ऐसी जगहों से बुलावा आता है और पहुँचने के मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं जहाँ जाने का कभी ख्याल भी नहीं करते हैं हम। पर प्रभु के बुलावे की महिमा ही अद्भुत है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 136 – “मेरी तेरी सबकी” – डा अलका अग्रवाल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा अलका अग्रवाल जी के उपन्यास “मेरी तेरी सबकी” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 136 ☆

☆ “मेरी तेरी सबकी” – डा अलका अग्रवाल ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कृति : मेरी तेरी सबकी

लेखिका : डा अलका अग्रवाल

प्रकाशक: ज्ञान मुद्रा प्रकाशन, भोपाल

मूल्य: २५० रुपये

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

सार्वजनिक विसंगतियों पर प्रायोगिक प्रहार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

डा अलका अग्रवाल का पहला व्यंग्य संग्रह “मेरी तेरी सबकी” पढ़ा. ज्ञान मुद्रा प्रकाशन, भोपाल से बढ़िया गेटअप में आये इस संग्रह पर मेरी प्रथम आपत्ति तो लेखिका के नाम के साथ डा की उपाधि न लगाये जान को लेकर है. उल्लेखनीय है कि श्रीमती अलका अग्रवाल को हाल ही मुम्बई विश्वविद्यालय ने व्यंग्य पुरोधा हरिशंकर परसाई जी पर उनके शोध कार्य के लिये पी एच डी की उपाधि प्रदान की है. अतः इस व्यंग्य के ही संग्रह के आवरण पृष्ठ पर डा अलका अग्रवाल लिखा जाना तर्क संगत है. निश्चित ही किताबें लेखक के नाम और अपने चित्ताकर्षक आवरण से प्रथम दृष्ट्या पाठको को आकर्षित करती ही हैं.

जब हम मेरी तेरी सबकी हाथ में उठाते हैं, अलटते पलटते हैं तो हमें समकालीन सुस्थापित व्यंग्य के हस्ताक्षर श्री हरीश नवल, अलका अग्रवाल के लेखन को युग धर्म के अनूकूल निरूपित करते हैं. तरसेम गुजराल ने लिखा है कि ये व्यंग्य सरोकार से जुड़े हुये हैं. प्रसिद्ध व्यंग्य समालोचक सुभाष चंदर लिखते हैं कि यह संग्रह परसाई परंपरा का लेखन है. सूर्यबाला जी ने लिखा है कि विषय के अनूकूल भाषाई बुनाव अलका जी की लेखनी में है. सुधा अरोड़ा ने संग्रह को असरकारक बताया है तो स्नेहलता पाठक ने अलका के लेखन को आम जनता के जीवन का संघर्ष बताया है. विवेक अग्रवाल ने किताब के शीर्षक लेख से पांच बंदरो के सबक की चर्चा की है. इन सात संतुतियों के बाद स्वयं अलका अग्रवाल ने अपनी बात में लिखा है कि ” व्यंग्य का मतलब केवल विरोध हरगिज़ नहीं होता, बल्कि रचनात्मक विध्वंस होता है। मैं कब व्यंग्य लिखती हूं? जब भी कोई विसंगति सालने लगती है। बेशक राजनीति हम सबके जीवन में अहम स्थान रखती है। राजनीति का अर्थ केवल वोट, कुर्सी, शासन ही नहीं होता। रिश्तों में, दोस्ती में, न जाने कहां-कहां राजनीति ने अपने पैर पसारे हुए हैं। माप- तौल कर ही रिश्ते बनाए जाते हैं। यह सबसे बड़ी विसंगति है। इतना हमेशा चाहती हूं कि नेताओं की राजनीति को देखने की क्षीर-नीर दृष्टि मिलती रहे।”. उनकी यह दृष्टि ही संग्रह को महत्वपूर्ण बना रही है.

मैंने अलका अग्रवाल को बहुत पहले से पढ़ा है उनके लेखन परिवेश, तथा भाव विस्तार से सुपरिचित हूं और उनके व्यंग्य संग्रह पर बहुत कुछ लिख सकता हूं. इन मूर्धन्य रचनाकारों की विस्तृत समीक्षाओ के बाद मेरा काम बड़ा सरल हो गया है. १४० पृष्ठीय इस संग्रह में कुल २५ व्यंग्य लेख समाहित हैं. अलका जी का लेखन परसाई जी से प्रभावित है. संग्रह के व्यंग्य साधो ये जग क्यों बौराना, साध़ो, सोच फटी क्यों रे ? जैसे शीर्षक ही इसकी बानगी देते हैं. व्यंग्य की तीक्ष्णता के साथ विषय में किंचित हास्य का समावेश करना और लेखन के प्रवाह में विषय से न भटकना एक बड़ी कला होती है. लेखन के निर्वाह की यह कला इस किताब में पढ़ने मिलती है.

वे बेचारे, इच्छा मृत्यु ले लो, ये कौन सा पसीना?, भगवान इनकी झोली…, नज़र बदलो नज़रिया बदलो, कैसे उठाऊँ गांडीव ?, बोध ज्ञान आदि वे व्यंग्य हैं जिनमें पौराणिक प्रचलित प्रतीकों का अवलंबन लेकर उत्तम तरीके से अपनी बात कही गई है. कोरोना काल की रचना तलब-लगी जमात में लेखिका ने लाकडाउन जनित स्थितियों का मनोरंजक कटाक्ष पूर्ण वर्णन किया है, अपने कहन में बीच बीच में काव्य उद्वरण का सहारा भी लिया है. नोट, नोटा और लोटा, ड्रैगनफ्लाय, ये तो फेसबुकिया गई हैं, चमकेश वॉरियर्स, बिन डेटा सब सून, व्हॉट्सऐप बाबा की जय, समकालीन नये विषयों की रचनायें हैं, जिनका निर्वाह, विसंगतियों को पकड़ कर पाठक के मन तक पहुंचने में लेखिका कामयाब हुई हैं. पुस्तक का शीर्षक व्यंग्य तेरी मेरी सबकी एक अच्छा व्यंग्य है. इसमें अलका लिखती हैं..

” दिमाग की बत्ती थी कि जल ही नहीं रही थी, इतने में छोटी सी एक बत्ती कहीं जली और उन्हें कुछ खुसुर-पुसुरसुनाई देने लगी‌। दरवाज़े की झिरी से देखा तो आंखें फटी की फटी रह गईं। देखते क्या हैं कि गांधीजी के बंदर अब मिट्टी के माधो नहीं बल्कि चल-फिर रहे हैं, बात भी कर रहे हैं। पर यह क्या, बंदर तीन की जगह पांच कैसे हो गए!!? क्या तीन-पांच चल रही है?

बंदरों को पता नहीं था कि अवसरवादी नेताजी वहां घात लगाए बैठे हैं। उनमें से एक बोला, “यारों ये अवसरवादी कितना धूर्त है! एक तरफ गांधीजी के हत्यारे की जयंती मनाता है, और गांधी जयंती पर कल राजघाट पर फूल चढ़ाने आया था।”

अलका जी की विशेषता है कि वे अपने व्यंग्य लेखन में कभी स्वप्न में परसाई जी से मिलकर बतियाती हैं, तो कभी गांधी जी के बंदरो को जीवित करके उनसे संवाद करती हैं, कभी भगवान और भक्त की मुलाकातें करवा देती हैं.

घोटाला महोत्सव मनाओ सब मिल!, ब से बड़े आदमी, अथ श्री पति-पत्नी कथा, पुल उतारेंगे भव सागर के पार, खोजीं हो तो तुरत ही मिलिहों…, हम होंगे कामयाब! पर…, कविवर महोदय की टंगाटोली, ईससुरी जीएसटी जैसे

मजेदार लेखों का संग्रह है मेरी तेरी सबकी, जिसमें सार्वजनिक विसंगतियों पर प्रायोगिक प्रहार किया गया है. मेरी लेखिका को उनके इस पहले संग्रह पर हार्दिक बधाई. व्यंग्य जगत को अलका अग्रवाल से और बहुत कुछ की अपेक्षायें हैं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ शराफ़त छोड़ दी मैंने… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “शराफ़त छोड़ दी मैंने।)  

? अभी अभी ⇒ शराफ़त छोड़ दी मैंने? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या आपको नहीं लगता, यह सीधी सीधी धमकी है! यह शरीफ़ों की भाषा है ही नहीं।

आपकी ऐसी क्या मज़बूरी थी, जो आप शराफ़त छोड़ने पर आमादा हो गए ? माफ़ करना, आज आपने मुँह खुलवा दिया, हम तो आपको कभी शरीफ़ मानते ही नहीं थे।

हेमाजी की एक फ़िल्म आई थी, शराफ़त, उसका ही यह शीर्षक गीत है। लोग अच्छे बनकर मानो हम पर अहसान कर रहे हों। ज़रा सी बात बिगड़ी, और असली चेहरा सामने! अभी तक तुमने मेरी शराफ़त देखी है, अब मेरा कमीनापन भी देख लेना। वैसे भी, तुम मुझे जानते ही कितना हो। इसे कहते हैं, शराफ़त का भंडाफोड़। ।

स्कूल में एक दोस्त था, सक्सेना!” बड़े आदमी का बेटा था, आज वह भी बहुत बड़ा आदमी बन गया है। दोस्ती में जान हाज़िर! और तुनक-मिज़ाज़ इतना, कि बात बात में, “आज से बात बंद”। स्कूल के दिनों में दोस्ताना भी होता था, और तीखी झड़प और नोक-झोंक भी। महीनों मुँह फुलाये रहेंगे और अचानक फुग्गे की तरह फूट पड़ेंगे।

जब वह नाराज होता, एक डायलॉग अवश्य बोलता! प्रदीप बाबू, सक्सेना दोनों तरफ़ चलना जानता है। लेकिन ज़्यादा चल नहीं पाता था। मोटा था! थक जाता था। दोनों दोस्त फिर साथ साथ चलने लग जाते थे।।

दिलीपकुमार की एक फ़िल्म आई थी, गोपी! ये फिल्में तब की हैं, जब ट्रेजेडी किंग दिलीप साहब अपने देवदास टाइप किरदारों में इतने डूब गए थे कि उन्हें अवसाद (डिप्रेशन) ने घेर लिया था। अभिनय उनकी रग रग में बसा था, अतः मनो-चिकित्सकों ने उन्हें हल्के फुल्के रोल करने की सलाह दी। साला मैं तो साहब बन गया, साहब बनकर कैसा तन गया, उसी फ़िल्म गोपी का गीत है।

गीत की शुरुआत ही, “जेंटलमैन, जेंटलमैन, जेंटलमैन “से होती है। जेंटलमैन ही साहब है, साहब ही शरीफ हैं। सूट-बूट हैट और टाई, सर से पाँव तक हाई-फाई। शरीफ लोग अंग्रेज़ी में गाली बकते हैं। चाय की एक बूँद सूट पर गिर जाए, तो shit बोलते हैं। लेकिन साहब कभी शराफत नहीं छोड़ते।।

साहिर साहब न जाने क्यों इन कथित शरीफ़ज़ादों से चिढ़े हुए रहते थे! क्या मिलिए ऐसे लोगों से, जिनकी फ़ितरत छुपी रहे। नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे।

मैंने बहुत कोशिश की, शराफ़त छोड़ दूँ, लेकिन यह शराफत ही है, जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रही! कई बार मैंने शराफत से गुजारिश की, आप तशरीफ़ ले जाइए, लेकिन वह मानती ही नहीं! कहती है कि अगर मैं तशरीफ़ ले गई, तो आप कहीं तशरीफ़ रखने लायक नहीं रह जाओगे। मुझे आपसे ज़्यादा आपकी तशरीफ़ की चिंता है। अब शराफत इसी में है, जहाँ भी तशरीफ़ ले जाओ, शराफ़त साथ में ले जाओ। लोग कहते भी हैं, देखो! शरीफ़ज़ादे तशरीफ़ ला रहे हैं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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