हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #198 – व्यंग्य- इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 198 ☆

☆ व्यंग्य- इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग इंटरनेट मीडिया का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस इंटरनेट मीडिया में भी फेसबुक सबसे ज्यादा प्रचलित, लोकप्रिय और मोबाइल के कारण तो जेब-जेब तक पहुंचने वाला माध्यम हो गया है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।

उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्र-पत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर इंटरनेट मीडिया पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।

‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है। मगर उसकी चर्चा इंटरनेट मीडिया पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पोस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।

ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज पांच से सात घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकाना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है। कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वे छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकाना उन्हें नहीं आता है। वे इंटरनेट मीडिया से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है। जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।

तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा इंटरनेट मीडिया पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।

चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में इंटरनेट मीडिया पर बने रहते हैं।

ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।

पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है, जितनी रचना छप जाती है। उसे इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।

छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं, जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।

कहने का तात्पर्य यह है कि इंटरनेट मीडिया के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह इंटरनेट मीडिया पर अपना ‘फेस’ चमकते रहते हैं।

इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01-12-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 232 ☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 232 ☆ 

☆ बाल गीत – ज्ञानवर्धक कविता पहेली –  बूझो तो जानें…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

पैने दो-दो सींग जड़े हैं

हरा-हरा है छिलका।

पानीफल मीठा-मीठा है

सूखा आटा मिल का।

नाम बताओ कौन चेस्टनट

कौन है संघाटिका।

कहे उसे हम वारिकुंज भी

कौन है विषाणिका।

 *

उथले पानी में है होता

फाइबर होता है भरपूर।

प्रोटीन, पोटैशियम इसमें

थायराइड को करता दूर।

 *

विटामिन बी छह भी इसमें

मोटापा को दूर भगाता।

श्रृंगमूल , जलकंटक भी कहते

दूर तनाव मौज बढ़ाता।

 *

हलवा खाओ, स्वाद बढ़ाओ

व्रत त्यौहारों काम जो आता।

कौन विषाणी भारत का है

शक्ति अपनी सदा बढ़ाता।

सभी का उत्तर- सिंघाड़ा।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “काय हवय…?” ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

काय हवय…? ☆ श्री सुजित कदम ☆

☆ 

त्या दिवशी मंदीरातून

देवाच दर्शन घेऊन मी बाहेर पडलो

तेवढ्यात…

मळकटलेल्या कपड्यांबरोबर

लेकराचा मळकटलेला हात

समोर आला…!

मी म्हंटलं काय हवंय..?

त्यांनं…

पसरलेला हात मागे घेतला आणि

क्षणात उत्तर दिलं … आई…!

मी काहीच न बोलता

खिशातलं नाणं त्याच्या मळकटलेल्या

हातावर ठेऊन निघून आलो…

पण.. तो मात्र

वाट पहात बसला असेल…

मळकटलेला हात पसरल्यावर

त्यानं असंख्य जणांना दिलेल्या

उत्तराच्या उत्तराची…!

 

© श्री सुजित कदम

मो .. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ३७ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ३७ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- किर्लोस्करवाडी येथील आमच्या आठ वर्षांच्या वास्तव्यात आम्हा कुटुंबियांशी मनाने जोडले गेलेले हे पाटील कुटुंब. १९६७ मधे आम्ही कि. वाडी सोडल्यानंतर त्या कुणाशीच भेटी सोडाच आमचा संपर्कही रहाणे शक्य नव्हतेच. पण याला लिलाताई मात्र अपवाद ठरली होती!)

लिलाताईचं हे असं अपवाद ठरणं खूप वर्षांनंतर पुढं कधीतरी माझ्या संसारात घडणार असलेल्या दु:खद घटनेतून मला सावरुन जन्म, मृत्यू आणि पुनर्जन्म या संकल्पनांमधे लपलेलं गूढ ओझरतं तरी मला जाणवून देण्यास ती निमित्त ठरावी अशी ‘त्या’चीच योजना होती! ‘त्या’च्या या नियोजनाचे धागेदोरे लिलाताईशी आधीपासूनच असे जोडले गेलेले होते हे त्या आश्चर्यकारक घटनाक्रमानंतर मला मनोमन जाणवलंही होतं! आज या लेखनाच्या निमित्तानं हे सगळं पुन्हा जगताना दत्त महाराजांच्या माझ्यावरील कृपालोभाचं मला खरंच खूप अप्रूप वाटतंय!

या सगळ्यातली लिलाताईची भूमिका समजून घेण्यासाठी भूतकाळातल्या पाटील कुटुंबियांच्या आणि विशेषत: लिलाताईसंबंधीच्या आठवणींचा मागोवा घेणं आवश्यक आहे.

हे पाटील कुटुंब आर्थिकदृष्ट्या कनिष्ठ स्तरापेक्षाही खालच्या स्तरातलं. तरीही कष्ट करीत मानानं जगणारं. लिलाताईच्या आईबाबांचा त्यांच्या लहानपणी सर्रास रुढ असलेल्या बालविवाहाच्या प्रथेनुसार नकळत्या वयातच लग्न झालेलं होतं. लिलाताई मोठ्या भावाच्या पाठीवरची आणि बहिणींमधे मोठी. एकूण पाच बहिणी आणि सहा भाऊ असं ते तेरा जणांचं कुटुंब. वडील किर्लोस्कर कारखान्यात कामगार. जेमतेम पगार. आर्थिक ओढाताण कधीच न संपणारी. सततच्या बाळंतपणांमुळे आई नेहमी आजारी. त्यामुळे घरची सगळी कामं लिलाताई आणि तिच्या पाठची बेबीताई दोघी शाळकरी वयाच्या असल्यापासूनच त्यांच्यावर येऊन पडली होती. हे सगळं सांभाळून अभ्यासही करणं झेपेना म्हणून बेबीताईने सातवी नापास झाल्यावर शाळा सोडलेली. लिलाताई मात्र अभ्यासात अतिशय हुशार. वर्गात नेहमीच पहिला नंबर. फक्त अभ्यासच नाही तर गाणं, वक्तृत्त्व, चित्रकला सगळ्याच स्पर्धांमधे तिचा पहिला नंबर ठरलेला. अतिशय शांत, सोशिक, हसतमुख, सात्विक वृत्तीची आणि स्वाभिमानी. मराठा कुटुंबात लहानाची मोठी होऊनही पूर्ण शाकाहारी. इंग्रजी, गणित, मराठी सगळ्याच विषयांवर तिचं प्रभुत्त्व! त्यामुळे शाळेतले मुख्याध्यापक आणि शिक्षक सर्वांचीच ती आवडती होती!

पण म्हणून अभ्यासाचं निमित्त करून तिने घरची कामं कधीही टाळली नाहीत. पाठच्या बहिणीच्या बरोबरीने पुढाकार घेऊन सगळ्या भावंडांची आणि घरकामाची जबाबदारी ती समर्थपणे आणि तेही हसतमुखाने पार पाडत राहिली. ती नववी पास होऊन दहावीत गेली तेव्हा दहावीत नापास झालेला तिचा मोठा भाऊ तिच्याच वर्गात आलेला. पुढे अकरावीत गेल्यावर (त्या वेळची मॅट्रिक) स्वतःबरोबरच त्यालाही अभ्यासात मदत करीत ती ते वर्ष पूर्णतः अभ्यासात व्यस्त राहिली. खूप शिकून मोठ्ठं व्हायचं आणि आपल्या घराला गरिबीच्या खाईतून बाहेर काढायचं हे तिचं एकमेव स्वप्न होतं! पण तसं व्हायचं नव्हतं. उलट त्या गरिबीच्याच एका अनपेक्षित फटक्याने तिचं स्वप्न चुरगाळून टाकलं. याला त्याच्याही नकळत निमित्त झाला होता तो तिच्याच वर्गात शिकणारा हाच तिचा मोठा भाऊ आणि रूढी-परंपरा न् सामाजिक रितीरिवाजांचा पगडा असणारे, सरळरेषेत विचार करीत आयुष्य ओढणारे तिचे कष्टकरी वडील! कारण मॅट्रिकच्या परीक्षेसाठी बोर्डाच्या परीक्षेचा फॉर्म भरायचा शेवटचा दिवस जवळ येत चालला तरीही दोघांच्या फाॅर्म फीच्या पैशांची सोय झालेली नव्हती. खरंतर वडील त्याच चिंतेत आतल्या आत कुढत बसलेले. अखेर फॉर्म भरायचा शेवटचा दिवस उजाडला तेव्हा सकाळी सात वाजता कारखान्यांत कामाला निघालेल्या वडिलांना लीलाताईने आज फॉर्म भरायची शेवटची तारीख असल्याची आठवण करुन दिली. “दुपारच्या जेवायच्या सुट्टीपर्यंत मी कांहीतरी व्यवस्था करतो” असं सांगून त्याच विवंचनेत असलेले वडील खाल मानेने निघून गेले.

पण पैशाची कशीबशी सोय झाली ती फक्त एका फाॅर्मपुरतीच. मुलीपेक्षा मुलाचं शिक्षण महत्त्वाचं म्हणून वडिलांनी तिच्या मोठ्या भावाचा फॉर्म भरायला प्राधान्य दिलं. ‘ तू हवं तर पुढच्या वर्षी परीक्षेला बस’ असं हिला सांगितलं.

ती आतल्या आत कुढत राहिली. अभ्यास, परीक्षा या सगळ्यावरचं तिचं मनच उडालं.

मुख्याध्यापकांना सगळं समजलं तोवर खूप उशीर झाला होता. ते

तिच्यावर चिडलेच. ‘तू लगेच माझ्याकडे कां नाही आलीस? मला कां नाही सांगितलंस? मी फाॅर्मचे पैसे भरले असते’ म्हणाले. पण तोवर वेळ निघून गेलेली होती. नशिबाला दोष देत तिने तेही दुःख गिळलं. आपले वडील वाईट नाहीयेत, दुष्ट नाहीयेत हे स्वतःच्याच मनाला परोपरीने समजावून सांगितलं. नंतरच्या वर्षी मॅट्रीकची परीक्षा पास झाली पण परिस्थितीचा विचार करून नाईलाजाने तिने तिथेच आपलं शिक्षण थांबवलं!

शिक्षण थांबलं तरी स्वत: पूर्णवेळ गरजवंत घरासाठीच नाही फक्त तर स्वत:चा आनंद शोधत ती स्वत:साठीही जगत राहिली. भल्या पहाटे उठून घरासमोरच्या अंगणात सडा रांगोळी घालणं हे तिचं ठरलेलं काम. अंगणात रोज रेखाटलेल्या नवनव्या रांगोळ्या हे संपूर्ण कि. वाडीत वाखाणलं जाणारं तिचं खास वैशिष्ट्य होतं. तिच्या चिमटीतून अलगदपणे झरझर झिरपणाऱ्या रांगोळीच्या रेखीव अशा वळणदार रेखाकृतींमधले आकर्षक आकृतीबंध दृष्ट लागण्याइतके सुंदर असत. काॅलनीतले सगळेच ओळखीचे. त्यामुळे रस्त्यावरुन येणाजाणाऱ्या सर्वांच्याच नजरा आणि पाऊले पाटलांच्या अंगणाकडे हमखास वळायचीच!शिवणकला तर तिने निदान प्राथमिक तंत्र शिकून घेण्याची संधी मिळालेली नसतानाही सरावाने शिकून घेत त्याला कल्पकतेची जोड देऊन त्यात प्राविण्य मिळवलं होतं. त्याकाळी ‘फॅशन डिझाईन’ या संकल्पनेचा जन्मही झालेला नव्हता तेव्हाची ही गोष्ट. तिच्या कल्पनेतून साकारलेल्या विविध आकर्षक फॅशन डिझाईन्सवर तिच्या रांगोळ्यांतल्या आकृतीबंधांवर असायचा तसाच खास तिचा असा ठळक ठसा उमटलेला असे!

गणित हा विषयतर तिच्या आवडीचाच. त्याकाळी शिकवण्यांचं प्रस्थ रुढ नव्हतं झालेलं. तरीही अगदीच कुणी गळ घातली तर ‘मी माझं काम करता करता शिकवणार’ या अटीवर ती दरवर्षी अकरावीतल्या एक-दोन मुलांसाठी गणिताची स्पेशल ट्युशन घ्यायची. याखेरीज आपल्या सर्व भावंडांचा ती स्वत: अभ्यास घ्यायची तो वेगळाच. यातून महिन्याभरांत होणारी तिची कमाई वडिलांच्या तुटपुंज्या पगाराच्या जवळपास असायची जी घरासाठीच खर्चही व्हायची.

लिलाताईचीही दत्तावर अतिशय श्रध्दा होतीच. तिच्या रोजच्या कामांच्या धबगडयांत नित्यनेमांना कुठून वेळ असायला? मात्र आमच्या अंगणात दत्तपादुकांची

प्राणप्रतिष्ठा झाल्यापासून अंत:प्रेरणेनेच असेल पण कांही विशिष्ट संकल्प न सोडताही अगदी साधेपणाने लीलाताईचा नित्यनेम सुरु झाला होता. रोजचं सडासंमर्जन होताच ती आधी स्नान आवरुन पादुकांची पूजा संपण्यापूर्वीच बाहेर येऊन उभी रहायची आणि माझ्या बाबांनी तिला तीर्थप्रसाद देताच प्रदक्षिणा घालून एकाग्रतेने हात जोडून नमस्कार करायची. तिचा हा नित्यनेम पुढे अनेक दिवस न चुकता निर्विघ्नपणे सुरूही होता. पण एक दिवस अचानक याच पाटील कुटुंबाचं स्वास्थ्य नाहीसं करणारी ‘ती’ विचित्र घटना घडली.. ! म्हटलं तर एरवी तशी साधीच पण लिलाताईचं आत्मभान जागं करीत त्या घरालाच हादरा देऊन गेलेली!!

तो प्रसंग तिच्या दत्तगुरुंवरील श्रद्धेची कसोटी पहाणारा ठरला होता आणि माझ्या बाबांकडून तिच्या विचारांना अकल्पित मिळालेल्या योग्य दिशेमुळे ती त्या कसोटीला उतरलीही!

तो दिवस न् ती घटना दोन्हीही माझ्या मनातील लिलाताईच्या आठवणींचा अविभाज्य भाग बनून गेलेले आहेत!

 क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ “No” म्हणजे… भाग – १ ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

डॉ अभिजीत सोनवणे

© doctorforbeggars 

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-☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ “No” म्हणजे… भाग – १ ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

November महिना सरला… ! 

संपुर्ण 12 महिन्यात एव्हढा एकच महिना आहे जो “No” ने सुरू होतो… !

पण हा, “No” दरवेळी नकारात्मकता घेऊन येतो असं नाही…. ! 

“No” चा बोर्ड, जरासा फिरवला तर तो “On” होतो…

No म्हणजे… No worries..

No म्हणजे… No Guilt 

No म्हणजे… No Hate

No म्हणजे… No Expectations 

No म्हणजे… No Selfishness 

No म्हणजे… No hard feelings ! 

असो ….

परवा एका जुन्या मित्राचा फोन येऊन गेला सहज बोलताना तो म्हणाला की नुकताच त्याचा वाढदिवस झाला… सगळे विचारतात तोच कॉमन प्रश्न मी त्याला विचारला आता तुझं वय किती झालं ? 

त्याने वय सांगितलं… ! 

मनात आलं, आपण जन्माला आल्यानंतर आजपर्यंत जे काही जगलो, त्याला वय म्हणून आपण गृहीत धरतो; परंतु त्या अगोदरचे आईच्या सहवासातले नऊ महिने कोणीच का गृहीत धरत नाहीत ? 

आकड्यात सांगायचं झालं, तर जन्मानंतर आपण आजपर्यंत जे जगलो, ते अधिक नऊ महिने हे आपलं आकड्यातलं वय… ! 

खरंतर वय वाढल्याने माणूस मोठा होतच नाही, तो मोठा होतो मॅच्युरिटी वाढल्याने… !!! 

– – दुसऱ्याची प्रगती पाहतानाही आनंद होणं म्हणजे मॅच्युरिटी…

– –ज्याचा काल संध्याकाळी अस्त झाला आहे, त्याचा आज सकाळी उदय पाहणे यात आनंद वाटणे म्हणजे मॅच्युरिटी… !

– – स्वतःला वेदना झाल्यानंतर तर सगळेच रडतात; परंतु दुसऱ्याची वेदना पाहून आपल्या डोळ्यात पाणी येणं म्हणजे संवेदना… वेदना आणि संवेदने मधला फरक कळणं म्हणजे मॅच्युरिटी…

जन्माला येताना निसर्गतः शरीरात 270 हाडं असतात… माणसाचं वय वाढलं की हीच हाडं आतल्या आत जुळून 206 होतात…

– – अगदी याचप्रमाणे वाढत्या वयाबरोबर अपेक्षांची संख्या सुद्धा आपण हळूहळू कमी करायला हवी… थोडं आपणही, हाडांप्रमाणेच जुळवुन घ्यायला शिकायला हवं… हेच तर निसर्गाला सांगायचं नसेल यातून ? 

.. आपण जिवंत असताना सोबत घेऊन चालतो ते आपलं आस्तित्व… ! 

.. आयुष्य जगत असताना; दुसऱ्याला आपण किती दिलं आणि दुसऱ्याकडून किती घेतलं याच्या बेरीज आणि वजाबाकी करून; मृत्यूनंतर जे शिल्लक राहतं, ते आपलं व्यक्तिमत्व… !!

…. फरक फक्त दृष्टिकोनाचा !

शाळेच्या चार भिंतीत काटकोन, त्रिकोण, लघुकोन आणि चौकोन सर्व कोन शिकवतात…

पण दृष्टिकोन शिकण्यासाठी आयुष्यातल्या बिन भिंतीच्या शाळेत अनुभवच घ्यावे लागतात… ! 

शेवटी अनुभव म्हणजे तरी काय ? 

बरोबर येण्यासाठी, आपण सतत केलेल्या चुकांना दिलेलं गोंडस नाव, म्हणजे अनुभव… !!! 

असो.. या महिन्यातल्या चुका – अनुभव, कोन – दृष्टिकोन, वेदना – संवेदना, अस्तित्व – व्यक्तिमत्व या सर्व शब्दांचा अनुभव पुन्हा एकदा या महिन्यात आपल्यामुळे घेता आला.

वेदना – संवेदना

रस्त्यावर लहान मुलीसोबत राहणारी एक ताई. कधी फुगे विकून कधी भीक मागून गुजराण करायची.

एका गुरुवारी शंकर महाराज मठाकडे गेलो, तेव्हा कळलं, मुलीच्या आईला एका चार चाकी गाडीने उडवलं आणि तिचा जागीच अंत झाला. खूप हळहळ वाटली आणि बारा तेरा वर्षाच्या या मुलीचं आता कसं होणार ? अशी चिंता वाटली.

तिथं मागायला बसणाऱ्या आज्या आणि मावश्यांकडे मी ही चिंता व्यक्त केली. त्यातली एक प्रौढ मावशी पुढे आली आणि म्हणाली, ‘ काई काळजी करू नगा डाक्टर, या पोरीला समजायला लागल्यापासनं ती मला मावशी म्हंती… आता हीजी आई मेली, मावशी म्हणून काय हीला उगड्यावर ठीवू का ? मी जिवंत हाय तवर हीचां सांबाळ मीच करणार… ! ‘

या प्रौढ मावशीला आपण फुलं विकण्याचा व्यवसाय सुरू करून दिला आहे. हिलासुद्धा कोणीही नाही. खूप वर्षांपूर्वी नवऱ्याचा अंत झाला… एक मूल होतं, ते कसल्याशा आजाराने लहानपणीच गेलं…

– –मी तिला म्हणालो, “ अग पण फुलांच्या व्यवसायात थोडेफार पैसे मिळतात… त्यात अजून एका व्यक्तीचा भार तुला झेपेल का ? “ 

“ काय डाक्टर… आईला लेकरांचा भार वाटला आस्ता तर, कोंच्याच आईनं लेकराला नऊ म्हैने पोटात घिवून मिरवलं नसतं… एकांदा घास मी कमी खाईन, त्यात काय ? आनी कमी जास्तीला तुम्ही हाईतच की… माझ्या पाठीत धपाटा घालत ती हसत बोलली… ! “ 

“ तसं नाही गं, कुठल्यातरी संस्थेत मी मुलीची व्यवस्था केली असती…”

“ डाक्टर आविष्यात एकदा आई झाले, तवा पोरगं देवानं न्हेलं… आता पुन्ना आई व्हायची येळ आली, तवा पोरगी तुम्ही न्हेनार… मंजी मी फकस्त “बाई” म्हनून जगायचं… मला बी मी मरायच्या आदी एकदा तरी “आई” हुंद्या की…! “ 

… माझ्या डोळ्यात खरोखर पाणी तरळलं…!

आपण खड्ड्यातून बाहेर आल्यावर दुसऱ्याला सुद्धा बाहेर येण्यासाठी हात द्यायचा… हे सतत मी माझ्या लोकांवर बिंबवत असतो… आज या माऊलीने हा विचार खरोखर अंमलात आणला.

आईच्या पदराला खिसा नसतो, पण आई द्यायची कधीच थांबत नाही…. ती कधीच कुठेही दूर जात नाही…

मनातल्या तळ कप्प्यात… ती कुठेतरी, “आभाळ” म्हणून भरून राहत असते.. हो आभाळच… !!! 

कवयित्री शांताबाई शेळके म्हणतात, ‘ ज्या ढगांमध्ये पाणी भरलेलं असतं ते “आभाळ”… आणि ज्यात पाणी नसतं… कोरडं असतं ते “आकाश”… ! ‘ 

आभाळ आणि आकाश यामध्ये फरक असतो… !!! 

विज्ञान सांगतं, माणूस जगतो श्वासावर… रक्तावर…. पाण्यावर… लेकरांचे श्वास, रक्त आणि पाणी, स्वतःच्या नसानसात भरून आई “आभाळ” होते, कायम लेकरांसाठी “धड-पड” करत असते…

छातीच्या डाव्या बाजूला नेहमी “धड – धड” होत असते… विज्ञान त्याला हृदय म्हणतं… ! 

डॉक्टर असूनही, छाती ठोकून सांगतो माऊली, ही “धड – धड”… त्या हृदयाची नसतेच… ही “धड – पड” असते, त्या आभाळाची… “आई” नावाच्या हृदयाची… !!! 

“ काका, मावशीनं मला चिमटा काडला, तीला सांगा ना …” पोरीनं खांद्याला हलवून मला भानावर आणलं… !

…. आता ती मुलगी; त्या मावशीसह थट्टा मस्करी करण्यात मश्गुल होती… !

मुलीला कसं सांगू ? तुला पदरात घेऊन…. तुझी आई होऊन… स्वतःला ती आयुष्यभर चिमटा काढत राहणार आहे… ! 

” एका प्रौढ महिलेने, दिला बारा वर्षाच्या मुलीला जन्म… !!! ” ही “डिलिव्हरी” नॉर्मल नव्हती… सिझेरियन सुद्धा नव्हतं… हा होता फक्त मातृत्वाचा सोहळा !!!

लोक तिला याचक म्हणतात….. आज बघता बघता ती आई म्हणून “आभाळच” होऊन गेली…

घेता हात, आज देता झाला… तिचे हेच हात, मी माझ्या कपाळाला लावले आणि त्यानंतर माझं कपाळ तिच्या पायावर टेकवलं… नतमस्तक झालो…

…. माझ्यासारखा एक कफल्लक, आईला दुसरं देऊच काय शकतो… ??? 

(त्या मुलीच्या शिक्षणाची जबाबदारी तुम्हा सर्वांच्या साक्षीने आपण घेत आहोत)

प्रसंग दोन :

याच महिन्यात एका भीक मागणाऱ्या मुलाला छोटासा व्यवसाय टाकून दिला….

व्यवसाय म्हणजे काय तर, ज्या मंदिराच्या बाहेर तो भीक मागतो, त्याच मंदिराच्या बाहेर भक्तांच्या कपाळावर त्याने आखीव रेखीव असा मस्त उभा – आडवा गंध / ओम / त्रिशूळ काढायचा… त्यांना आरसा दाखवायचा… भक्त मग खुश होऊन 2 /5 /10 /20 /50 रूपये त्यांना जसे जमेल तसे पैसे देतील…! 

हा खूप साधा सोपा व्यवसाय मी माझ्या अनेक याचकांना टाकून दिला आहे…

यात माझी इन्वेस्टमेंट किती ? फार तर 200 ते 300 रुपयांची…. अष्टगंध आणि काळा बुक्का विकत घेणे…

तो ठेवण्यासाठी एक चांगला कप्पा असलेला स्टीलचा डब्बा देणे…

यात पैशाची इन्व्हेस्टमेंट जास्त नसते.. !.. पण ‘ भीक मागू नका रे… हे साधं सोपं काम करा रे आणि सन्मानाने जगा रे ‘.. हे सांगायला मला साधारण माझ्या आयुष्यातले बारा ते पंधरा महिने द्यावे लागतात…

ही मात्र माझी इन्वेस्टमेंट… !

मी काही कुठला जहागीरदार नाही, संस्थानाचा संस्थानिक नाही, कारखानदार नाही, कंपनीचा मालक नाही, हातात कसलीही सत्ता नाही… मी तरी नोकऱ्या कुठून निर्माण करू ? 

– – आणि म्हणून मी लोकांच्या अंगात असलेले अंगभूत कौशल्य, समाजातल्या रूढी – परंपरा, पारंपारिक सण आणि श्रद्धा यांचा वापर चांगल्या कामासाठी करून व्यवसाय निर्माण करण्याचा प्रयत्न करत आहे ! 

– क्रमशः भाग पहिला 

डॉ अभिजित सोनवणे

डाॕक्टर फाॕर बेगर्स, सोहम ट्रस्ट, पुणे

मो : 9822267357  ईमेल :  [email protected],

वेबसाइट :  www.sohamtrust.com  

Facebook : SOHAM TRUST

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #260 – कविता – ☆ कब तक दमन करेंगे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता कब तक दमन करेंगे…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #260 ☆

☆ कब तक दमन करेंगे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कितना दमन करेंगे मन के भावों को

कब तक छिपा सकेंगे अपने घावों को।

*

कईं वर्जनाएँ, घोषित है जीवन में

है निषेध जन-मन के नव परिवर्तन में

लगे टूटने नाते, जब नैसर्गिक से

अंतर्द्वंद्व लगे मचने, अन्तर्मन में,

रिक्त मुक्त हो इनसे

पहचानें अपनी क्षमताओं को…

*

लगी बंदिशें उन पर जरा विचार करें

जो है गलत तोड़ दें, उनसे नहीं डरें

द्रष्टा बन तटस्थ हो कर सोचें समझें

अच्छे-बुरे कृत्य कितने मन में विचरे,

स्वविवेक से करें विसर्जन

मन के व्यर्थ दबावों को…

*

सिद्धान्तों में कब तक मन भरमाएँगे

चित्तवृत्तियों के कैसे हल पाएँगे

संकल्पों की फिसलन से भी बचना है

और स्वयं से दूर कहाँ तक जाएँगे,

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 84 ☆ गीत के अनुवाद… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “गीत के अनुवाद…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 84 ☆ गीत के अनुवाद… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

लिख रहे हैं

आजकल सब

गीत के अनुवाद ।

 

अलगनी पर रात टँगती

मेड़ पर की भोर

पनघटों पर धूप हँसती

नाचते मन मोर

 

अब नहीं सुन

पा रहे हम

चिड़ियों के संवाद ।

 

मादलों पर स्वर थिरकते

पाँव खनके पेंजना

चाँद की हँसुली पहनकर

कनखियों से देखना

 

नहीं भावों

में दमकते

देह के आल्हाद ।

 

बिंब बाँधे प्रतीकों से

शब्द के शहतीर

साधकर संधान करते

बोथरी शमशीर

 

हो रहे हैं

मुखर हरदम

व्यर्थ के प्रतिवाद ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 88 ☆ बदला है वक़्त तौर सियासत  के बदले हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “बदला है वक़्त तौर सियासत  के बदले हैं“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 88 ☆

✍ बदला है वक़्त तौर सियासत  के बदले हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जैसे अभी है ऐसे कभी हम नहीं रहे

इतने तो जिंदगी में कभी ग़म नहीं रहे

फ़रियाद में हो दम तो सुने हाल ही ख़ुदा

सहरा में सबके वास्ते ज़मज़म नहीं रहे

मन मानता नहीं है फ़ज़ीयत करा रहा

पहले से आज मुझमें वो दमखम नहीं रहे

 *

दुश्मन थे चंद दोस्त की भरमार थी मेरे

फ़ितनों के जाल ज़ीस्त में पर कम नहीं रहे

 *

बदला है वक़्त तौर सियासत  के बदले हैं

हाथों में कामरेड के परचम नहीं रहे

 *

कितनी सियाह रात सितारे न चाँद है

जुगनू जो लड़ने आये उतने  तम नहीं रहे

 *

आँखों के रो के सूख गए आबशार सब

इस हिज़्र में अब मेरे नयन नम नहीं रहे

 *

नेकी को डाल देते थे दरिया में जो कभी

इस दौर में वो दोसतो आदम नहीं रहे

 *

गिरगिट सा रंग जबसे बदलना  है आ गया

अपनी ज़ुबाँ पे आदमी कायम नहीं रहे

 *

मौसम न ख़ुशगवार ये लगता बहार का

जबसे अरुण हमारे वो जानम नहीं रहे

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 3 ☆ लघुकथा – परिवर्तन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “परिवर्तन“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 3 ☆

✍ लघुकथा – परिवर्तन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

सड़क पर यातायात बहुत बढ गया। ट्रैफिक जाम हो जाता। ऑफिस जाने आने वाले सुबह शाम परेशान होते, खीजते। व्यवस्था को दोष देते। प्रिंट और मीडिया पत्रकार ट्रैफिक जाम और परेशान नागरिकों के विविध एंगल से प्रभावी फोटो समाचार के साथ प्रकाशित करते। जनता तो खीजते, घिघियाते बड़बड़ाते हुए सहन करने में नंवर वन पहले थी और आज भी है। सोचती है कि हमारा धर्म सहना है। घर हवा पानी सड़क के लिए सरकार कर के रूप में जो माँगे वह अदा करना है। जनता बहुत धार्मिक है, सहनशील है, उदार है और ईश्वर सहित सब पर विश्वास करती है।

जनता के सब्र को फल मिला और मंत्री जी निरीक्षण करने आ गए। स्थिति परिस्थिति का जायजा लिया और सड़क चौराहे के ऊपर उत्तर से दक्षिण की ओर ऊपरी पुल बनाने का निर्णय सुना दिया। निर्णय पर कार्रवाई चलती रही, सड़क का अध्ययन नाप जोख होने लगा। एंक्रोचमेंट हटाए जाने लगे। छोटे मोटे खोमचे वाले, चायपान का ठेला लगाने वाले, सड़क के हिस्से को फुटपाथ समझ उस पर सामान बेचने वाले, धंधा बंद होने से परेशान तो हुए, भुनभुनाते हुए इधर उधर भागने लगे। दो पहिया वाले और पैदल चलने वाले थोड़े खुश हुए कि उन्हें आवागमन के लिए थोड़ी जगह मिल गई। सात आठ महीने ऐसे ही गुजर गए।

इन सबके चलते एक दिन पुल के पिलर के लिए गड्ढे खोदने की प्रक्रिया दिखाई दी। खुदाई प्रक्रिया से सड़क पर अवरोध आने लगा। लोग खुदाई स्थल के दाएं बाएं से अपने दुपहिया चौपहिया वाहन निकाल जैसे तैसे आने जाने लगे। पैदल चलने वालों के लिए तो सड़क पर जगह पहले ही कम थी, अब और अधिक कम हो गई। जाम में खड़े वाहनों के बीच से या इधर उधर से सड़क पार करने वाले वृद्धों, महिलाओं व व्यक्तियों को देखकर वाहन चालकों की निगाहों में प्रश्न उबलते से दिखते कि लोग सड़क पर पैदल क्यों चलते हैं, सड़क पर आते ही क्यों हैं? बच्चों को देखकर उनकी निगाहों में थोड़ा रहम भी दिखाई दे जाता।

सड़क चौक के इधर उधर बने पिलर कांक्रीट की मोटी और भारी बड़ी चादरों से ढंके जाने लगे। असल में ये चादरें नहीं पुल के हिस्से थे जो मशीनों द्वारा बनाए जाते मशीनों द्वारा ऊपर चढाए जाते और मशीनों द्वारा ही एक पिलर से दूसरे पिलर के बीच बिछा दिए जाते । नीचे केवल गड्ढे खोदे गए। पिलर भी ऐसे खडे किए जाते हैं कि नीचे सीमेंट बालू कुछ दिखाई नहीं देता। लोहे की सरियों का बड़ा सा गोल जाल खड़ा किया जाता है और मशीन से तैयार कांक्रीट उस जाल में उड़ेल दिया जाता है। और कुछ दिन में पिलर खडे हो जाते हैं। केवल पिलर के आसपास की जमीन पर बैरियर लगा कर सड़क को छोटा अवश्य करना पड़ता है और आवागमन के लिए रास्ते मोड़ दिए जाते हैं।

अब चौराहे के ऊपर पुल बिछाना शुरू हुआ तो चौराहे पर पुल के नीचे आना जाना बंद कर दिया गया और वाहनों का रूट बदल दिया गया । आम गरीब नागरिकों के लिए सबसे अधिक सुविधाजनक साधन सरकारी बस के अड्डे को इधर उधर बिखरा दिया। चौराहे के उत्तर, दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में बस चौराहे तक आतीं और वहीं से लौट जाती हैं। नियमित बस यात्री को अपने निश्चित स्थान पर बस न पाकर, जहाँ उपलब्ध हैं वहाँ जिस किसी प्रकार पहुंच कर बस पकड़नी होती है और वापसी में उसी जगह उतरना होता है। घर से बस पकड़ने के लिए पहुंचने और वापसी में घर तक पहुंचने के लिए पुल बनाने के लिए किए गए परिवर्तन को सहन करना ही होगा। जब पुल बन जाएगा तब सब ठीक हो जाएगा। ऐसे ही तो विकास होगा। उपलब्ध सड़क पर बढती वाहनों की संख्या से उत्पन्न समस्या से निपटने के लिए परिवर्तन तो होगा ही।

 

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : पुणे महाराष्ट्र 

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 53 – अलार्म…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 53 – अलार्म श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मोबाइल का अलार्म लगातार बज रहा था और सुनीता  बार-बार बंद कर  दे रही थी। मां ने आवाज लगाई  तो उसने रजाई को और ऊपर तक तान कर सो गई। मां ने इस बार जोर से चिल्लाया आखिरी बार बोल रही हूं, उठ कर नीचे जाकर नाश्ता कर लो।  जल्दी उठो वरना अकेली ही घर में रह जाओगी। मैं ताला लगा कर ऑफिस चली जाऊंगी।

सुनीता अलसाई सी चिल्लाकर बोली  मैं कल जरूर आपके साथ कॉलेज जाउंगी आज सारा दिन घर में सोने दो।

माँ ने कहा – कल तो कभी आयेगा ही नहीं? चलो! अब जल्दी से उठकर तैयार जाओ। आज बहुत कोहरा है बाहर कुछ दिख भी नहीं रहा है ठंडी हवा से शरीर कंपकंपा रहा है।

कुछ देर बाद दोनों सड़क पर थे। सुनीता की माँ का ध्यान बाहर सड़क के किनारे झोपड़ी और फुटपाथ में बैठे हुए कुछ लोगों की ओर गया।

इतनी ठंड में सुबह सुबह ये बच्चे कैसे खेल रहे हैं और सभी लोग काम पर जा रहे हैं। ठंड तो सबको लगती है, मुझे भी लग रही है। लेकिन देखो तुम्हारे पिताजी नहीं रहे। मैं पढ़ी लिखी थी इसलिए नौकरी कर तुम्हें पढ़ा रही हूं। अपना और तुम्हारा ध्यान रख रही हूं। तुम बड़ी ऑफिसर बनो। सामाजिक ताकत तो एक बड़े पद पर रहकर ही मिलती है। अन्यथा ये समाज के भेड़िये तुम्हें खा जाएंगे। ठंड में इंसान मजबूर होकर काम पर जाता है। तुम अच्छे से पढ़ाई करो और एक बड़ी ऑफिसर बनो।

अपने लक्ष्य को सामने रखो अपने आप ठंड भाग जाएगी। अपने मन में दृढ़ निश्चय करो। अलार्म बजते ही तुम समय के साथ नहीं चलोगी तो पीछे रह जाओगी। समय किसी के लिए रुकता नहीं है। देखो बातों बातों में तुम्हारा कॉलेज आ गया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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