हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 135 – “बातें कम स्कैम ज्यादा” – श्री नीरज बधवार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री नीरज बधवार जी के उपन्यास “बातें कम स्कैम ज्यादा” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 135 ☆

☆ “बातें कम स्कैम ज्यादा” – श्री नीरज बधवार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

बातें कम स्कैम ज्यादा

व्यंग्यकार… नीरज बधवार

प्रकाशक… प्रभात प्रकाशन,नई दिल्ली

पृष्ठ… १४८ मूल्य २५० रु

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

☆ गोलगप्पे खाने जैसा मजा :  बातें कम स्कैम ज्यादा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

बड़े कैनवास के युवा व्यंग्यकार नीरज उलटबासी के फन में माहिर मिले. किताब पर बैक कवर पर अपने परिचय को ही बड़े रोचक अंदाज में अपराधिक रिकार्ड के रूप में लिखने वाले नीरज की यह दूसरी किताब है. वे अपने वन लाइनर्स के जरिये सोशल मीडीया पर धाक जमाये हुये हैं. वे टाइम्स आफ इण्डिया समूह में क्रियेटिव एडीटर के रूप में कार्य कर रहे हैं.  वे सचमुच क्रियेटिव हैं. सीमित शब्दों में विलोम कटाक्ष से प्रारंभ उनके व्यंग्य अमिधा में एक गहरे संदेश के साथ पूरे होते हैं. रचनायें पाठक को अंत तक बांधे रखती हैं. “मजेदार सफर” शीर्षक से प्राक्कथन में अपनी बात वे अतिरंजित इंटरेस्टिंग व्यंजना में प्रारंभ करते हैं ” २०१४ में मेरा पहला व्यंग्य संग्रह  “हम सब फेक हैं” आया तो मुझे डर था कि कहीं किताब इतनी न बिकने लगे कि छापने के कागज के लिये अमेजन के जंगल काटने पड़ें, किंतु अपने लेखन की गंभीरता वे स्पष्ट कर ही देते हैं  ” यदि विषय हल्का फुल्का है तो कोई बड़ा संदेश देने की परवाह नहीं करते किन्तु यदि विषय गंभीर है तो हास्य की अपेक्षा व्यंग्य प्रधान हो जाता है, पर यह ख्याल रखते हैं कि रचना विट से अछूती न रहे. उन्हीं के शब्दों मे ” व्यंग्य पहाड़ों की धार्मिक यात्रा की तरह है जो घूमने का आनंद तो देती ही है साथ ही यह गर्व भी दे जाती है कि यात्रा का एक पवित्र मकसद है. “

संग्रह में ४०  आस पास से रोजमर्रा के उठाये गये विषयों का गंभीरता से पर फुल आफ फन निर्वाह करने में नीरज सफल रहे हैं. पहला ही व्यंग्य है “जब मैं चीप गेस्ट बना” यहां चीफ को चीप लिखकर, गुदगुदाने की कोशिश की गई है, बच्चों को संबोधित करते हुये संदेश भी दे दिया कि ” प्यारे बच्चों जिंदगी में कभी पैसों के पीछे मत भागना ” पर शायद शब्द सीमा ने लेख पर अचानक ब्रेक लगा दिया और वे मोमेंटो लेकर लौट आये तथा दरवाजे के पास रखे फ्रिज के उपर उसे रख दिया. यह सहज आब्जर्वेशन नीरज के लेखन की एक खासियत है.

“घूमने फिरने का टारगेट”  भी एक सरल भोगे हुये यथार्थ का शब्द चित्रण है, कम समय में ज्यादा से ज्यादा घूम लेने में अक्सर हम टूरिस्ट प्लेसेज में वास्तविक आनंद नहीं ले पाते, जिसका हश्र यह होता है कि पहाड़ की यात्रा से लौटने पर कोई कह देता है कि बड़े थके हुये लग रहे हैं कुछ दिन पहाड़ो पर घूम क्यों नहीं आते. बुफे में ज्यादा कैसे खायें ? भी एक और भिन्न तरह से लिखा गया फनी व्यंग्य है. इसमें उप शीर्षक देकर पाइंट वाइज वर्णन किया गया है. सामान्य तौर पर व्यंग्य के उसूल यह होते हैं कि किसी व्यक्ति विशेष, या उत्पाद का नाम सीधे न लिया जाये, इशारों इशारों में पाठक को कथ्य समझा दिया जाये किन्तु जब नीरज की तरह साफगोई से लिखा जाये तो शायद यह बैरियर खुद बखुद हट जाता है, नीरज बुफे पचाने के लिये झंडू पंचारिष्ट का उल्लेख करने में नहीं हिचकते. “फेसबुक की दुनियां ” भी इसी तरह बिंदु रूप लिखा गया मजेदार व्यंग्य है, जिसमें नीरज ने फेसबुक के वर्चुएल व्यवहार को समझा और उस पर फब्तियां कसी हैं.

दोस्तों के बीच सहज बातचीत से अपनी सूक्ष्म दृष्टि से वे हास्य व्यंग्य तलाश लेते हैं,और उसे आकर्षक तरीके से लिपिबद्ध करके प्रस्तुत करते हैं, इसलिये पढ़ने वाले को उनके लेख उसकी अपनी जिंदगी का हिस्सा लगता है, जिसे उसने स्वयं कभी नोटिस नहीं किया होता. यह नीरज की लोकप्रियता का एक और कारण है. फेसबुक पर जिस तरह से रवांडा, मोजांबिक, कांगो, नाइजीरिया से  फेक आई डी से लड़कियों की फोटो वाली फ्रेंड रिक्वेस्ट आती हैं उस पर वे लिखते हैं ” रिक्शेवाले को दस बीस रुपये ज्यादा देने का लालच देने के बाद भी कोई वहां जाने को तैयार नही हुआ…. जिस तरह गजल में  अतिरेक का विरोधाभास शेर को वाह वाही दिलाता है, कुछ उसी तरह नीरज अपनी व्यंग्य शैली में अचानक चमत्कारिक शब्दजाल बुनते हैं और पराकाष्ठा की कल्पना कर पाठक को हंसाते हैं. बीच बीच में वे तीखी सचाई भी लिख देते हैं मसलन ” प्रकाशक बड़े कवियों तक से पुस्तक छापने के पैसे लेते हैं ” ।

शीर्षक व्यंग्य “बातें कम स्कैम ज्यादा” में एक बार फिर वे नामजद टांट करते हैं, ” बड़े हुये तो सिर्फ एक ही आदमी देखा जो कम बोलता था.. वो थे डा मनमोहन सिंह. इसी लेख में वे मोदी जी से पूछते हैं सर मेक इन इंडिया में आपका क्या योगदान है, आप क्या बना रहे हैं ?  नीरज,  मोदी जी से जबाब में कहलवाते हैं “बातें”.

वे निरा सच लिखते हैं ” कुल मिला कर बोलने को लेकर घाल मेल ऐसा है कि सोनिया जी क्या बोलती हैं कोई नहीं जानता. राहुल गांधी क्या बोल जायें वे खुद नहीं जानते. और मोदी साहब कब तक बोलते रहेंगे ये खुदा भी नही जानता. नीरज अपने व्यंग्य शिल्प में शब्दों से भी जगलरी करते हैं, कुछ उसी तरह जैसे सरकस में कोई निपुण कलाकार दो हाथों से कई कई गेंदें एक साथ हवा में उछालकर दर्शको को सम्मोहित कर लेता है. सपनों का घर और सपनों में घर,  स्क्रिप्ट का सलमान को खुला खत, आहत भावनाओ का कम्फर्ट जोन, इक तुम्हारा रिजल्ट इक मेरा, सदके जावां नैतिकता, चरित्रहीनता का जश्न, अगर आज रावण जिंदा होता,  हमदर्दी का सर्टिफिकेट आदि कुछ शीर्षकों का उल्लेख कर रहा हूं, व्यंग्य लेखों के अंदर का मसाला पढ़ने के लिये हाईली रिकमेंड करता हूं, आपको सचमुच आनंद आ जायेगा.

 सड़क पर लोकतंत्र छोटी पर गंभीर रचना है…. सड़क यह शिकायत भी दूर करती है कि इस मुल्क में सभी को भ्रष्टाचार करने के समान अवसर नहीं मिलते “…

 “लोकतंत्र चलाने वाले नेताओ ने आम आदमी को सड़क पर ला दिया है, वह भी इसलिये कि लोग लोकतंत्र का सही मजा ले सकें”.

बहरहाल आप तुरंत इस किताब का आर्डर दे सकते हैं, पैसा वसूल हो जायेगा यह मेरी गारंटी है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 31 – देश-परदेश – ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 31 ☆ देश-परदेश – पड़ोस का बनिया ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे यहां तो प्राय प्रत्येक गली,नुक्कड़ या मोहल्ले में दैनिक जीवन में उपयोग की जाने वाली सामग्री उपलब्ध हो जाती हैं। कोविड काल में भी इन्होंने जनता के भोजन में कोई कमी नही आने दी थी। पुराने समय में तो इस प्रकार की दुकानें घर में ही होती थी और भोर से देर रात्रि तक सुविधा मिलती रहती थी।वो बात अलग है, की इनका विक्रय मूल्य बाज़ार से अधिक रहता हैं। उधारी की अतिरिक्त सुविधा भी बहुतायत में मिल जाती हैं।हमारी हिंदी फिल्मों के ग्रामीण  पटकथा में अभिनेता “जीवन” ने अनेक   रोल में बनिया बन कर अपनी कला का लोहा मनवाया था।

यहां विदेश में तो विशाल शोरूम के माध्यम से ही दैनिक सामग्री उपलब्ध करवाई जाती है, जिनमें वॉल मार्ट, कोस्को, अमेजान जैसे खिलाड़ी अपनी सेवाएं प्रदान करने में अग्रणी हैं।

वर्तमान निवास से दो मील की दूरी पर एक छोटे से स्टोर में जाना हुआ, तो वहां गुजरात के विश्व  पूज्यनीय संत “स्वामी नारायण” जी के चित्र को देखकर आश्चर्य भी हुआ और अच्छा भी लगा।जानकारी मिली की स्टोर एक गुजराती श्री पिंटू जी विगत अठारह वर्ष से चला रहे हैं। नाम कुछ पश्चिम देश का लगा तो पूछ लिया तो वो हंसते हुए बोले मेरा गुजराती नाम पियुषभाई हैं,अमरीकी लोगों के लिए पिंटू सुविधाजनक और यहां का ही लगता है। इसलिए सभी अब इस नाम से ही जानते हैं।बात भी सही है,नाम में क्या रखा है,काम होना चाइए।

सुबह छः बजे से रात्रि दस बजे तक वो अपनी पत्नी के साथ अपना स्टोर चलते हैं।                                                                     

यहां पर दूध, सिगरेट,शराब, लॉटरी टिकट इत्यादि विक्रय किए जाते हैं।                                

अमेरिका जैसे विकसित और पढ़ें लिखे देश में हमारे देश के गुजराती भाई अनेक दशकों से कई प्रकार के व्यवसाय सफलता पूर्वक चला रहे हैं।कुछ परिवारों की तो तीसरी/ चौथी पीढ़ी यहां के व्यापार जगत में अपनी पैंठ बना चुकी हैं।

हमारे देश के सिंधी भाई भी पूरे गल्फ में छाए हुए हैं। सिख बंधु भी इंगलैंड और कनाडा जैसे देशों की आबादी को हिस्सा बन चुके हैं। दक्षिण पूर्व सिंगापुर, मलेशिया आदि में तमिल भाई अग्रणी हैं।

आई टी सेवा में तो पूरे देश के लोग विश्व में भारत की शान हैं,परंतु बहुतायत आंध्र प्रदेश से आते हैं।

पिंटू जी ने भारतीय संस्कृति का परिचय देते हुए हमें चाय/कॉफी का प्रस्ताव दिया। हमने भी उनकी मेज़बानी स्वीकार किया और अमेरिका देश के बारे में ढेर सारी जानकारी प्राप्त कर ली।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #185 ☆ रेशमाची शाल… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 185 ?

☆ रेशमाची शाल…  ☆

अक्षरांनाही वळाले लागते

आशयासाठी झुरावे लागते

 

कागदावर हक्क शाई सांगता

हृदय त्यावर पांघरावे लागते

 

पीठ थापुन होत नाही भाकरी

दुःख कांडावे दळावे लागते

 

लाकडाची, धातुची कसली असो

लेखणीलाही झिजावे लागते

 

प्राक्तनाला येत नाही टाळता

वेळ येता गरळ प्यावे लागते

 

वादळाला माज सत्तेचा किती

सज्जनांना भिरभिरावे लागते

 

मानसा तू प्रगत होता या इथे

पाखरांना दूर जावे लागते

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 136 – सुमित्र के दोहे… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  – सुमित्र के दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 136 – सुमित्र के दोहे…  ✍

फूल अधर पर खिल गये, लिया तुम्हारा नाम।

 मन मीरा -सा हो गया, आंख हुई घनश्याम ।।

शब्दों के संबंध का ,ज्ञात किसे इतिहास ।

तृष्णा कैसे  मृग बनी, कैसे  दृग आकाश।।

 गिरकर उनकी नजर से, हमको आया चेत।

 डूब गए मझदार में ,अपनी नाव समेत।।

 ह्रदय विकल है तो रहे, इसमें किसका दोष।

 भिखमंगो के वास्ते ,क्या राजा क्या कोष ।।

देखा है जब जब तुम्हें ,दिखा नया ही रूप ।

कभी धधकती चांदनी ,कभी महकती धूप ।।

पैर रखा है द्वार पर ,पल्ला थामे पीठ ।

कोलाहल का कोर्स है, मन का विद्यापीठ ।।

मानव मन यदि खुद सके ,मिले बहुत अवशेष।

 दरस परस छवि भंगिमा, रहती सदा अशेष।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 135 – “आँखों की कोरों से…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  आँखों की कोरों से)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 135 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

आँखों की कोरों से… ☆

मौसम ने बदल दिये

मायने आषाढ़ के

ओट में खड़े कहते

पेड़ कुछ पहाड़ के

 

आँखों की कोरों से

चुई एक बूँद जहाँ

गहरे तक सीमायें

थमी रहीं वहाँ वहाँ

 

ज्यों कि राज महिषी फिर

देख देख स्वर्ण रेख

सच सम्हाल पाती क्या लिये हुये एक टेक

 

सहलाया करती है

दूब को झरोखे से

ऐसे ही दकन के

या पश्चिमी निमाड़ के

 

शंकित हिरनी जैसे

दूर हो गई दल से

काँपने लगी काया

काम के हिमाचल से

 

गंध पास आती है

कान में बताती है

लगता है साजन तक

पहुँच गई पाती है

 

सोचती खड़ी सहसा

सोनीपत पानीपत

अपने हाथों से फिर

देखती उघाड़ के

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-02-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 184 ☆ पृथ्वी दिवस पर कविता  – “धरती से पहचान…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है पृथ्वी दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता  – धरती से पहचान”।)

☆ कविता  # 184 ☆ पृथ्वी दिवस पर कविता  – “धरती से पहचान…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

सबसे बड़ी होती है आग,

और सबसे बड़ा होता है पानी,

 

तुम आग पानी से बच गए,

तो पृथ्वी काम की चीज़ है,

 

धरती से पहचान कर लोगे,

तो हवा भी मिल सकती है,

 

धरती के आंचल से लिपट लोगे,

रोशनी में पहचान बन सकती है,

 

तुम चाहो तो धरती की गोद में,

पांव फैलाकर सो भी सकते हो,

 

धरती को नाखूनों से खोदकर,

अमूल्य रत्नों भी पा सकते हो,

 

या धरती में खड़े होकर,

अथाह समुद्र नाप भी सकते हो,

 

तुम मन भर जी भी सकते हो,

धरती पकडे यूं मर भी सकते हो,

 

कोई फर्क नहीं पड़ता,

यदि जीवन खतम होने लगे,

 

असली बात तो ये है कि,

धरती पर जीवन प्रवाह चलता रहे,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 126 ☆ # झूठे वादे… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# झूठे वादे… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 126 ☆

☆ # झूठे वादे… # ☆ 

अब कौन यह हिम्मत करेगा

की सच बोले

सच के लिए

अपना मुंह खोले

सच बोलने वाले

ना जाने अंधेरे में

कहां खो जाते हैं  

फिर वो दुबारा

कहीं नजर नहीं आते हैं

महफ़िलो में

पार्टियों में

नयी नयी शैलियों में

कभी कभी अनाम रैलियों में

इन्हें परोसा जाता है

आम आदमी

जो सहज है, सरल है

जीवन भर

इसे समझ

नही पाता है

वो इसी मदहोशी में

मस्त रहता है

कभी व्यवस्था के खिलाफ

कुछ नहीं कहता है

वक्त धीरे धीरे 

आगे बढता है

सूरज भी धीरे धीरे 

ऊपर चढ़ता है

इस आग और तपिश

की जलन में

हाथगाड़ी,

फुटपाथों पर

नंगे बदन में

अपनी जिंदगी

हार जाता है

वो चांद की ठंडक या

चांद को कभी

नही पाता है

उसके लिए

पूर्णमासी भी

अमावस बन जाती है

उसके जीवन में

फिर कभी

रोशनी लौट कर नहीं

आती है

पसीने से तरबतर

वो थका-हारा

चांद को ताकते ताकते

ना जाने कब

सो जाता है

भूख और गरीबी में

झूठे वादों के सिवा

वो जीवन मे

कुछ नही पाता है/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 128 ☆ स्त्री व्यथा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 128 ? 

☆ स्त्री व्यथा…

स्त्री जन्म मिळाला

काय दोष घडला

समाजात आम्हाला

सन्मान का अडला…

 

लहानपणी खेळ

खूप खूप खेळले

कळी उमलताच

का कुणाला नडले…

 

वयात येणे आमुचे

का बरे खटकले

देव्हाऱ्यातील देवाला

कोडे असेल पडले…

 

नेमके कसले परिवर्तन

प्रकार नाही कळला

वयात येणं काय

आईने उपदेश केला…

 

हळदी कुंकवाला

आम्हाला अडवलं

शहाणं होणं तेव्हा

माज-घरातचं अडकलं…

 

देवाची असे करणी

नारळात साचे पाणी

आम्ही का असे घडलो

रक्तरंजित झाली न्हाणी…

 

काय हा समाज पहा

काय असली तऱ्हा

देवाच्या दातृत्वाला

ठेवले कुणी पैऱ्हा…

 

चार पाच दिस एकटे

जगणे आले वाट्याला

जिथे अवतार देवा-दिकांचा

त्याचा विंटाळ झाला…

 

मंदिराची कवाडे

बंद केली गेली

ज्ञानी पंडित लोकांनी

आमची, दुर्दशा मांडली…

 

धार्मिक वेडे धुरंदर

अडाणी मूर्ख झाले

दातृत्व कर्तीला

दूर दूर लोटले…

 

असा सर्व पसारा

अशी आमची व्यथा

आमच्या ह्या व्यथेला

नका करू कधीच कथा…

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 64 – मातृभूमीचे पहिले दर्शन ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 64 – मातृभूमीचे पहिले दर्शन डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

जहाजाने इंग्लंड सोडले आणि मातृभूमीच्या परतीचा प्रवास सुरू झाला. मनात अनेक स्वप्न बाळगुनच. इतकी वर्षे भारताबाहेरचे प्रगत देश पाहिले,पाश्चात्य संस्कृती अनुभवली, तिथले लोकजीवन पाहिले,त्यांचे सामर्थ्य आणि ऐश्वर्य पाहिले. तिथल्या लोकांचे त्यांच्या धर्माबद्दलचे विचार ऐकले, समजून घेतले, तिथला सुधारलेला समाज जवळून अनुभवला.वेळोवेळी आपला भारत देश आणि त्याच्या आठवणीने त्यांचे मन भरून यायचे. मनात तुलना व्हायचीच, आपल्या देशातले अज्ञान, काही रूढी,परंपरा, दारिद्र्य आठवले की मन दु:खी व्हायचे. पण आपल्या मातृभूमीचा वारसा, अध्यात्म, धर्म, विचार या बद्दल मात्र आदर वाटायचा आणि गौरवाने मान ताठ व्हायची.

पण बाहेरच्या देशात त्यांना ख्रिस्त धर्म व त्याची शिकवणूक हे आणखी स्पष्ट अनुभवायला मिळत होतं. आता इंग्लंडहून निघून ते फ्रांसला उतरले होते. ख्रिस्त धर्म प्रसाराचा आरंभ जिथे झाला त्या इटलीत . ऐतिहासिक रोमन साम्राज्य आणि तिथल्या परंपरा, जगद्विख्यात चित्रकार ‘लिओ नार्दो द व्हिंची’ च्या कलाकृती, पिसा चा झुकता मनोरा, उद्याने वस्तु संग्रहालये पाहण्याचा त्यांनी आनंद घेतला आणि काय आश्चर्य तिथे उद्यानात अचानक हेल पतिपत्नीची भेट झाली . दोघेही सुखावले. अमेरिकेत उतरल्यावर प्रथम ज्यांनी घरात आश्रय दिला होता त्यांची ही जणू निरोपाचीच भेट असावी.

रोमचा इतिहास त्यांनी अभ्यासला होताच. युरोपातले रोम आणि भारतातले दिल्ली ही शहरे मानव जातीच्या इतिहासातल्या महत्वाच्या घटनांचे साक्षीदार असलेली शहरे होत असे विवेकानंदांना वाटत असे.  त्यामुळे रोम मधील सौंदर्य आणि इतिहासाच्या खाणाखुणा सर्व पाहताना ते चटकन संदर्भ लावू शकत होते.संन्यासी असले तरी ते स्वत: कलाकार होते, रसिक होते म्हणून तिथल्या सौंदर्याचे दर्शन घेताना ते आनंदी होत होते.  योगायोगाने ख्रिस्त जन्माच्या दिवशी विवेकानंद रोम मध्ये होते. मेरीच्या कडेवरील बालरूपातील ख्रिस्त आणि आमच्या हिंदू धर्मातील बाळकृष्ण यात विवेकानंदांना साम्य वाटले. आणि मेरीचा मातृरूप म्हणून आदर पण वाटला. आई मेरी आणि बाळ येशू यांच्या विषयी भक्तीभाव मनात तरळून गेला. हेल पती पत्नी विवेकानंदांबरोबर इथे आठवडा भर होती. आणि ही साम्यस्थळांची वर्णने स्वामीजींकडून ऐकून ते दोघे भारावून गेले होते.विवेकानंदांच्या मनात सर्व धर्मांबद्दल आदरभाव होता तो त्यांच्या भाषणातून सगळ्यांनी अनुभवला होता. तरीही काही प्रसंग असे घडत ,की हिंदू धर्माबद्दल गरळ ओकणारे विवेकानंदांना भेटत, याच प्रवासात दोन ख्रिस्त धर्म प्रचारक जहाजावर होते. विवेकानंद त्यांच्याशी अर्थात हिंदू धर्म आणि ख्रिस्त धर्म यांची तुलना आणि श्रेष्ठत्व यावर बोलत होते. विवेकानंद यांच्यापुढे आपला टिकाव लागत नाही असे लक्षात आल्याने ते दोघे आता हिंदू देवदेवता आणि आचार विचार यांची टवाळी करण्यावर आले. स्वामीजींनी या निंदेकडे बराच वेळ दुर्लक्ष केलं.पण आता सहनशक्तीचा अंत झाला आणि स्वामीजींनी एकाची कॉलर पकडून, जवळ जवळ दरडाऊनच दम भरला की आता माझ्या धर्माबद्दल पुढे काही बोललात तर धरून समुद्रात फेकून देईन. त्यामुळे त्या धर्म प्रचारकांचे तोंड गप्प झाले. स्वामीजींना उदार मनोवृत्ती मुळे आपल्या धर्मा बद्दल कोणीही काहीही बोलेल ते आपण ऐकून घ्यायचे मुळीच पटत नव्हते. त्यात त्यांना दौर्बल्य तर वाटायचेच पण, पाश्चात्य देशातील लोकांना धर्मा धर्मातील भेद बाजूला सारून एकाच विश्वधर्माशी पोहोचावे असा विचार त्यांनी दिला होता आणि भारतात मात्र ख्रित धर्म प्रचारकांच्या प्रचारला बळी पडून अनेक हिंदू धर्मांतर करत होते, तर सुशिक्षित समाज याकडे दुर्लक्ष करत होता हे त्यांना अजिबात आवडले नव्हते.

अशा अनेक गोष्टींना, प्रसंगांना विवेकानंद आपल्या भ्रमण यात्रेत सामोरे जात होते. “नरेन एक दिवस सारं जग हलवेल” असा त्यांच्या गुरूंचा रामकृष्णांचा शब्द खरा करून दाखवलेला हा नरेंद्र सहा वर्षांपूर्वी शारदा देविंचा आशीर्वाद घेऊन निघाला होता तो आता विश्व विजेता होऊन भारतात परतत होता. त्यामुळे त्यांच्या गुरुबंधूंना कोण आनंद झाला असेल ना? स्वामींनी सर्वधर्म परिषदेला शिकागो येथे जाण्यासाठी सर्वांनी कष्ट घेतले होते.ते सर्वजण खूप आनंदले होते. त्यांच्या स्वागताची जोरदार तयारी चालू होती. विवेकानंद सुधा मातृभूमीला भेटायला उत्सुक होते. हा विचारच त्यांच्या अंगावर रोमांच उभे करत होता. भारताच्या आत्म्याला जाग आणण्यासाठी पुढे प्रयत्न करून हिमालयात अद्वैताश्रम उभा करायचे स्वप्न आणि योजना त्यांचे मन आखत होते. पंधरा जानेवारी चा सूर्योदय पहिला तो श्रीलंकेच्या किनार्‍यावरचा अर्थात तेंव्हाच्या सिलोन चा. जहाज पुढे पुढे जात होते तसतसे किनार्‍यावरीला नारळीच्या बागा दिसू लागल्या. कोलंबो बंदर लागले. भारताचे दर्शन झाल्याने स्वामीजींच्या चेहर्‍यावर समाधानाचे भाव होतेच. आता उतरल्यावर आपल्या बरोबर आलेले तीन पाश्चात्य सह प्रवासी म्हणजेच पाश्चात्य शिष्य यांची उतरल्यावर राहण्याची सोय करायची हाच विचार त्यांच्या डोक्यात होता.

कोलंबो बंदरात जहाज थांबले आणि एक नाव घेऊन स्व्मिजिना उतरवायला गुरु बंधु निरंजनानंद,आणि काही प्रतिष्ठित नागरिक आले. विवेकानंद, सेव्हियर पाती पत्नी, आणि गुडविन यांना त्या नावेतून किनार्‍यापर्यंत आणले. प्रचंड जमलेल्या जन समुदायाच्या साक्षीने पी कुमारस्वामी यांनी भला मोठा पुष्पहार घालून स्वामीजींचे स्वागत केले आणि सजवलेल्या घोडा गाडीत चौघांना बसवून त्यांची स्व्गता प्रीत्यर्थ मिरवणूक सुरू झाली, हे सर्व अनपेक्षित होतं,प्रचंड जल्लोषात स्वामी विवेकानंद यांचे पहिले स्वागत भारतात करण्यात आले

रस्त्यावरून जाताना नयनरम्य स्वागत सोहळा अनुभवत होते ,स्वामीजी, आणि विशेषत त्यांचे पाश्चात्य शिष्य. सुशोभित भव्य कमानी, स्वागत करणारे भव्य फलक, रस्त्याच्या दुतर्फा लावलेल्या पताका, घरांवर केलेली  सजावट,प्रकांड, मंडप, व्यासपीठ, मस्तकावर होणारी पुष्पवृष्टी, मंगल वाद्यांचे स्वर, तामिळ व संस्कृत मध्ये म्हटले जाणारे मंत्र, नागरिकांनी लिहिलेले मानपत्र अहाहा केवढा तो आनंदी सोहळा होता.हा सोहळा उत्स्फूर्तपणे ,प्रेमापोटी होत होता. त्यात उच्च पदस्थापाऊण सर्व सामान्य लोकांपर्यंत सर्व जन सहभागी झाले होते. एखाद्या धनाढ्याचा प्रायोजित मॅनेज केलेला स्वागत सोहळा नव्हता, तो निष्कांचन असलेल्या एका सन्याशाच्या स्वागताचा सोहळा होता. या संस्कृतीमधून विवेकानंद यांना भारतीय आत्म्याचा एक सुंदर आविष्कार दिसला होता. यात ते आपल्या महान संस्कृतीचे वैशिष्ठ्य अनुभवत होते आणि ते जतन केले पाहिजे असे त्यांना वाटत होते. इथेच सुरू झाली होती त्यांची गौरवयात्रा.

ही तर सुरुवात होती भारतातल्या स्वागताची. छत्री, अबदागिरी, पताका, निशाणे, वाद्ये, मंत्र पठण, या सर्व पारंपारिक प्रकारांचा समावेश या स्वागतात केला गेला होता. जणू भगवान शिवाचा अवतार म्हणूनच विवेकानंद यांची पुजा केली होती. हा सर्व आश्चर्यकारक स्वागत सोहळा स्वत: गुड्विन यांनी पत्राने बुल यांना कळवला होता आणि म्हटले होते की, स्वामी विवेकानंद यांच्या बरोबर सेव्हीयर पतिपत्नी आणि मी, आम्हा तिघांच्याही वाट्याला हे जिव्हाळा असलेले स्वागत/सन्मान आले.

त्यानंतर श्रीलंकेतले प्राचीन मोठे शहर  अनुराधापुरम, जाफना इथे भेट दिली. २००० लोकांपुढे त्यांचे व्याख्यान झाले. सार्वजनिक सत्कार, मानपत्र,३ किलोमीटर लांब रस्त्यावर केळीचे खांब दुतर्फा लावून सुशोभित केलेले. शेकडो लोकांची मशाली हातात घेऊन विवेकानंदांना आणण्यासाठी निघलेली मिरवणूक, त्यात पंधरा हजार लोकांचा सहभाग,आणि आसपासच्या लहान मोठ्या गावातून विवेकानंदांना पहाण्यासाठी अमाप उत्साहात आलेले लोक. त्यात गौरवपर झालेली भाषणे, विवेकानंद यांचे व्याख्यान आणि लोकाग्रहास्तव झालेले सेव्हीयर यांचे भाषण. हे सगळं कशाच द्योतक होतं? हा तर स्वामी विवेकानंद यांच्या बद्दलचा व्यक्त झालेला आदरभाव होता. त्यांच्या कामाची पावती होती. आता सुरू होणार होता पुढचा प्रवास … 

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #189 ☆ कथा कहानी – एतबार ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कहानी ‘एतबार’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 189 ☆

☆ कथा – कहानी ☆ एतबार

वीरेन्द्र जी ऊँचे प्रशासनिक पद से रिटायर हुए। वे रोब-दाब वाले अफसर के रूप में विख्यात रहे। चाल-ढाल और बोली में हमेशा कड़क रहे। उनके ऑफिस के आसपास कभी किसी को ऊँची आवाज़ में बोलने की हिम्मत नहीं हुई। रिटायरमेंट के बाद भी उनका स्वभाव वैसा ही बना रहा। घर के लोग उनसे उलझने से बचते रहते हैं।

वीरेन्द्र जी हमेशा चुस्त-दुरुस्त रहना पसन्द करते हैं। सबेरे स्मार्ट वस्त्रों और जूतों में पत्नी के साथ सैर को निकल जाते हैं। घूम कर आराम से घर लौटते हैं। कहीं अच्छा लगता है तो बैठ जाते हैं। उनका नित्य का क्रम बँधा हुआ है। उसमें व्यतिक्रम उन्हें पसन्द नहीं।

अपने जीवन और अपनी ज़रूरतों के बारे में वीरेन्द्र जी सख़्त हैं। अपने कपड़ों, खाने- पीने  और दूसरी ज़रूरतों में फेरबदल उन्हें पसन्द नहीं। वे उन पिताओं में से नहीं हैं जो अपने परिवार की ज़रूरतों के लिए अपनी ज़रूरतों को होम कर देते हैं। इस मामले में वे ज़्यादा भावुक नहीं होते।

वीरेन्द्र जी के साथ उनका छोटा बेटा और बहू रहते हैं। बड़ा बेटा ऑस्ट्रेलिया में और बेटी बैंगलोर में अपने पति के साथ है। छोटा बेटा और उसकी पत्नी शहर में ही जॉब करते हैं। वीरेन्द्र जी ने बंगला बड़ा बनाया है, इसलिए जगह की कमी नहीं है।

वीरेन्द्र जी का दृढ़ विश्वास है कि दुनिया में पैसे से ज़्यादा भरोसेमन्द कोई चीज़ नहीं है। उन्हें किसी मनुष्य में भरोसा नहीं है, अपनी सन्तानों पर भी नहीं। उनकी सोच है कि आदमी के लिए अन्ततः पैसा ही काम आता है, इसलिए भावुकता में उसे बाँटकर खाली हाथ नहीं हो जाना चाहिए। मित्रों के बीच में वे जब भी बैठते हैं तब भी यही दुहराते हैं कि पैसे से बड़ा दोस्त कोई नहीं होता, इसलिए उसे हमेशा सँभाल कर रखना चाहिए। वे अपने पैसे का हिसाब-किताब, अपने एटीएम कार्ड, अपनी मियादी जमा की रसीदें अपने पास ही रखते हैं। अपनी संपत्ति के बारे में खुद ही निर्णय लेते हैं। बेटे-बहू को कभी ज़रूरत से ज़्यादा जानकारी नहीं देते। पैसे निकालने, जमा करने का काम खुद ही करते हैं। उनके स्वभाव को जानते हुए बेटा-बहू भी उनसे जानकारी लेने की कोशिश नहीं करते।

वे अक्सर एक बड़े उद्योगपति का किस्सा सुनाते हैं जिसने भावुकता में अपनी सारी संपत्ति अपने बेटे के नाम कर दी थी और जो फिर अपना घर छोड़कर किराये के मकान में रहने को मजबूर हुआ था।

बैंक और एटीएम वीरेन्द्र जी के घर के पास ही हैं। कई बार पत्नी के साथ टहलते हुए चले जाते हैं। बेटे और बहू से पैसा नहीं निकलवाते। अपने पैसे के बारे में भरसक गोपनीयता बनाये रखने की कोशिश करते हैं।

वीरेन्द्र जी किसी का एहसान लेना पसन्द नहीं करते। उनकी सोच है कि दुनिया में बिना स्वार्थ के कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता। उनके विचार से निःस्वार्थ सेवा जैसी कोई चीज़ नहीं होती। कोई उनके लिए कुछ करता है तो वह तुरन्त उसका मूल्य चुकाने की कोशिश करते हैं। एक बार उनके ऑफिस का चपरासी महेश उनके घर अपने गाँव से लायी मटर दे गया था। वीरेन्द्र जी ने तुरन्त मटर का मूल्य महेश के हाथों में ज़बरदस्ती खोंस दिया था। उनके इस आचरण से महेश का मुँह छोटा हो गया था। अपनी श्रद्धा का मूल्यांकन उसे दुखी कर गया था, लेकिन वीरेन्द्र जी ने उसे उचित समझा था।

वीरेन्द्र जी घूमने-घामने के शौकीन हैं। देश के ज़्यादातर महत्वपूर्ण स्थानों को देख चुके हैं। पत्नी के साथ सिंगापुर और जापान भी हो आये हैं। उनका सोचना है कि जब तक हाथ-पाँव चलते हैं, दुनिया का लुत्फ़ ले लेना चाहिए। साल में पत्नी के साथ कहीं न कहीं का चक्कर लगा आते हैं।

वे मुहल्ले के ‘लाफ्टर क्लब’ के भी सदस्य बन गये हैं। पार्क में दस-पंद्रह बुज़ुर्ग इकट्ठे होकर पहले झूठी और फिर एक दूसरे की हँसी देख कर सच्ची हँसी हँस लेते हैं। आसपास की इमारतों की महिलाएँ इनकी झूठी-सच्ची हँसी देखकर आनन्दित हो लेती हैं।

ऐसे ही वीरेन्द्र जी के रिटायरमेंट के तीन चार साल गुज़र गए। स्वास्थ्य के मामले में वह हमेशा ‘फिट’ रहे थे और इस बात का उन्हें गर्व भी रहा था। नौकरी के आख़िरी दिनों में कुछ ‘ब्लड प्रेशर’ की शिकायत ज़रूर हुई थी। तब से नियमित रूप से ‘ब्लड प्रेशर’ की दवा लेते थे।

एक दिन वीरेन्द्र जी पत्नी के साथ बैंक गये थे। काम करके सीढ़ी से उतरने लगे कि अचानक लगा दुनिया घूम रही है। रेलिंग पकड़कर अपने को सँभाला, फिर वहीं सीढ़ी पर बैठ गये। पत्नी घबरायी। फोन करके बेटे को बुलाया। वह कार लेकर आया और दोनों को घर ले गया। वीरेन्द्र जी को पलंग पर लिटा दिया। थोड़ी देर में तबियत कुछ सँभली तो पास ही के अस्पताल ले गया। डॉक्टर ने जाँच की, फिर बोला, ‘भर्ती करा दीजिए।चौबीस घंटे ऑब्ज़र्वेशन में रखना पड़ेगा। अभी ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है। आराम ज़रूरी है।’

वीरेन्द्र जी अस्पताल में भर्ती हो गये। पहली बार अस्पताल की ज़िन्दगी का अनुभव हुआ। वहाँ के कर्मचारियों और डॉक्टरों को तटस्थ और मशीनी ढंग से काम करते देखा। देखा कि कैसे यहाँ आकर जीवन और मृत्यु के बीच का फर्क धूमिल हो जाता है। वीरेन्द्र जी को वहाँ चौबीस घंटे में बहुत कुछ सीखने-समझने को मिला।

चौबीस घंटे में वीरेन्द्र जी के अनगिनत ‘टेस्ट’ हो गये। कई विशेषज्ञ उनकी जाँच पड़ताल कर गये। दूसरे दिन शाम को अस्पताल से उनकी छुट्टी हो गई। डॉक्टर ने कहा, ‘ब्लड प्रेशर में फ्लक्चुएशन होता है। अभी कोई खास वजह समझ में नहीं आयी। दवाएँ लिख दी हैं। एक हफ्ते बाद फिर बताइए।’

दो दिन में ही करीब आठ हज़ार का बिल बन गया। वीरेन्द्र जी ने बेटे को अपना एटीएम कार्ड दिया,कहा, ‘निकाल कर जमा कर देना।’

बेटा बोला, ‘मैंने जमा कर दिया है। अभी आप इसे रखिए।’ वीरेन्द्र जी ने सकुचते हुए कार्ड रख लिया।

घर आकर वीरेन्द्र जी ने फिर कार्ड बेटे की तरफ बढ़ाया। बेटे ने कहा, ‘आप थोड़ा ठीक हो जाइए, फिर देख लेंगे।’

ऑस्ट्रेलिया से बड़े बेटे का फोन आया। कहा, ‘पैसे की दिक्कत हो तो बताएँ। भेज दूँगा।’ बेटी के फोन हर चार छः घंटे में आते रहे, कभी कैफियत लेने के लिए तो कभी हिदायत देने के लिए।

तीन चार दिन के आराम के बाद वीरेन्द्र जी ने बाहर निकलने की सोची। सबेरे पत्नी को लेकर घूमने निकले, लेकिन धीरे धीरे, अपने को टटोलते हुए चले। मन में कहीं डर बैठ गया था, आत्मविश्वास दरक गया था।

लौटे तो पलंग पर लेटे बड़ी देर तक सोचते रहे। आदमी और परिवार के बारे में उनकी मान्यताएँ कमज़ोर पड़ रही थीं। थोड़ी देर बाद बेटे को बुलाया, बोले, ‘शाम को मेरे पास बैठना। अपने बैंक एकाउंट और फिक्स्ड डिपाज़िट्स वगैरः के बारे में तुम्हें जानकारी दे दूँगा। तबियत का कोई भरोसा नहीं है, पता नहीं कब फिर से बिगड़ जाए।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares