हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #179 ☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 179 ☆

☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद 

‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।

हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है,  उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।

‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।

हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?

वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।

सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।

‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।

इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।

‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।

हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।

सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #177 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 177 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … ☆

कस्तूरी

कस्तूरी कुंडल बसे, ढूँढे मृग चहुँ ओर।

भटक भटक के खोजता, आता वापस छोर।।

खेत

बीजारोपण कर रहा, खेतों खेत किसान।

खुश होकर वह झूमता,फसल देखता धान।।

दृष्टि

देख रहे हैं वो हमें, दृष्टि है इसी ओर।

समझ रहे हैं हम उसे, बंधी प्यार की डोर।।

कबूतर

संदेशा कबूतर से, भेजा अपना प्यार ।

आएगा अब एक दिन, प्यार का इजहार।।

आम

झूम झूमकर गिर रहे, मीठे मीठे आम

भिन्न भिन्न हैं जातियाँ, लगड़ा प्रिय बदाम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #164 ☆ “संतोष के दोहे… कर्म” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे … कर्म ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 164 ☆

☆ “संतोष के दोहे … कर्म ” ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कर्मों पर होता सदा,कर्ता का अधिकार

कर्म कभी छिपते नहीं,करते वो झंकार

कर्मों से किस्मत बने,कर्म जीवनाधार

कभी न पीछा छोड़ते,फल के वो हकदार

जैसी करनी कर चले,भरनी वैसी होय

कर्मों की किताब कभी,बांच सके ना कोय

सबको मिलता यहीं पर,पाप पुण्य परिणाम

जो जिसने जैसे किये,बुरे भले सब काम

तय करते हैं कर्म को,स्व आचार- विचार

कर्मों से सुख-दुख मिलें,तय होते व्यबहार

पाप- पुण्य की नियति से,करें सभी हम कर्म

सदाचरण करते चलें,यही हमारा धर्म

अंत काम आता नहीं,करो कमाई लाख

साथ चले नेकी सदा,तन हो जाता राख

गया वक्त आता नहीं,समझें यह श्रीमान

करें समय पर काम हम,रखें समय का मान

कर्म करें ऐसे सदा,जिसमें हो “संतोष”

कोई कभी न दे सके,जिसकी खातिर दोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #171 ☆ दिलाची सलामी…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 171 – विजय साहित्य ?

☆ डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर – दिलाची सलामी…!✒ ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

बसा सावलीला, जिवा शांतवाया

शिवारात माझ्या, रूजे बापमाया .

परी बापमाया, कशी आकळेना ?

दिठीला दिठीची, मिठी सोडवेना.

घरे चंद्रमौळी, तुझ्या काळजाची

तिथे माय माझी, तुला साथ द्याची

मनाच्या शिवारी ,सुगी आसवांची

तिथे सांधली तू, मने माणसांची.

जरी दुःख  आले, कुणा गांजवाया

सुखे बाप धावे , तया घालवाया

किती भांडलो ते, क्षणी आठवेना

परी याद त्याची, झणी सांगवेना.

कुणा भोवलेली , कुणी भोगलेली

सदा ती गरीबी, शिरी खोवलेली .

कधी ऊत नाही, कधी मात नाही

शिळ्या भाकरीची,  कधी लाज नाही.

कधी साहिली ना , कुणाची गुलामी

झुके नित्य माथा, सदा रामनामी .

सणाला सुगीला , तुझा देह राबे

तरी सावकारी, असे पाश मागे .

जरी वाहिली रे , नदी आसवांची

तिथे नाव येई , तुझ्या आठवांची

गरीबीतही तू , दिले सौख्य नामी

तुला बापराजा , दिलाची सलामी.

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २३ – ऋचा ७ ते १५ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २ – ऋचा ७ ते १५  ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २३ (अप्‌सूक्त)

ऋषी – मेधातिथि कण्व

देवता : ७-९ इंद्रमरुत्; १०-१२ विश्वेदेव; १३-१५ पूषन्;

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील तेविसाव्या  सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी अनेक देवतांना आवाहन केलेली असली तरी हे  मुख्यतः जलदेवतेला उद्देशून असल्याने हे अप् सूक्त सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. यातील सात आणि नऊ या  ऋचा इंद्राचे आणि मरुताचे, दहा ते बारा  ऋचा विश्वेदेवाचे आणि तेरा ते पंधरा  या  ऋचा पूषन् देवतेचे आवाहन करतात. या सदरामध्ये आपण विविध देवतांना केलेल्या आवाहनानुसार  गीत ऋग्वेद पाहूयात. आज मी आपल्यासाठी इंद्र, मरुत् विश्वेदेव  आणि पूषन्  या देवतांना उद्देशून रचलेल्या सात ते पंधरा या  ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे. 

मराठी भावानुवाद :: 

म॒रुत्व॑न्तं हवामह॒ इंद्र॒मा सोम॑पीतये स॒जूर्ग॒णेन॑ तृम्पतु

सवे घेउनी मरुद्देवता यावे सोमपाना

गणांनी तुमच्या अंकित केले आहे ना त्यांना 

त्यांचाही सन्मान करावा ही अमुची मनीषा

आवाहन तुम्हासी करितो इंद्राणीच्या ईशा ||७|| 

इंद्र॑ज्येष्ठा॒ मरु॑द्‍गणा॒ देवा॑स॒ः पूष॑रातयः विश्वे॒ मम॑ श्रुता॒ हव॑॑म्

वंदनीय हे मरुद्देव हो सुरेंद्र तुमचा नेता

तुमच्या स्नेहवृंदी पूष मानाची देवता

तुम्हा सकलांना पाचारण यावे यज्ञाला 

प्रार्थनेस प्रतिसाद देऊनी धन्य करा आम्हाला ||८||

ह॒त वृ॒त्रं सु॑दानव॒ इंद्रे॑ण॒ सह॑सा यु॒जा मा नः॑ दु॒ःशंस॑ ईशत

अभद्रभाषी वृत्रासुर तो आहे अतिक्रूर

त्याच्या क्रौर्याचा अमुच्या वर पडू नये भार

उदार देवांनो इंद्राचे सहाय्य घेवोनी 

निर्दाळावी विघ्ने त्यासी पराक्रमे वधुनी ||९||

विश्वा॑न्दे॒वान्ह॑वामहे म॒रुत॒ः सोम॑पीतये उ॒ग्रा हि पृश्नि॑मातरः १०

पृश्नीपुत्र अति भयंकर आम्हास भिवविती

मरुद्देवांनो आम्हा राखी त्यांना निर्दाळुनी

येउनिया अमुच्या यज्ञाला सोम करा प्राशन

सुखरुपतेचे आम्हासाठी द्यावे वरदान ||१०||

जय॑तामिव तन्य॒तुर्म॒रुता॑मेति धृष्णु॒या यच्छुभं॑ या॒थना॑ नरः ११

विजयी वीरासम गर्जत ये मरूत जोशाने

व्योमासही व्यापून टाकितो गगनभेदी स्वराने

कल्याणास्तव अमुच्या जेथे तुम्ही असणे उचित

देवांनो आगमन करावे तेथे तुम्ही खचित ||११||

ह॒स्का॒राद्वि॒द्युत॒स्पर्यतो॑ जा॒ता अ॑वन्तु नः म॒रुतः॑ मृळयन्तु नः १२

कडकडाडते भीषण भेरी सौदामिनीची गगनी

त्यातूनिया अवतीर्ण जाहले मरुद्देव बलवानी

चंडप्रतापी महाधुरंधर पवनराज देवा

कृपादृष्टी ठेवून अम्हावरी सुखात आम्हा ठेवा ||१२||

पू॑षञ्चि॒त्रब॑र्हिष॒माघृ॑णे ध॒रुणं॑ दि॒वः आजा॑ न॒ष्टं यथा॑ प॒शुम् १३

पिसांनी मोराच्या नटवीले बालक गगनाचे

हरविले जणू पाडस  गोठ्यातील कपिलेचे

तेजःपुंज पूषा त्यासी आणी शोधुनिया

समर्थ तुम्ही  त्यासी अपुल्या सवे घेउनी या ||१३||

पू॒षा राजा॑न॒माघृ॑णि॒रप॑गूळ्हं॒ गुहा॑ हि॒तम् अवि॑न्दच्चि॒त्रब॑र्हिषम् १४

रंगीबेरंगी मयुराच्या पुच्छांनी नटलेला 

पळवुनी त्यासी गुंफेमध्ये लपवूनिया ठेविला

अदृश्य जाहल्या अमुच्या राजा शोधाया गेल्या

तेजोमय पूषास अहा तो सहजी सापडला ||१४||

उ॒तो मह्य॒मिन्दु॑भि॒ः षड्यु॒क्ताँ अ॑नु॒सेषि॑धत् गोभि॒र्यवं॒ च॑र्कृषत् १५

आवाहन त्या सहा ऋतूंना भक्तीभावे करतो

कृषीवल जैसा वृषभा जुंपुन धान्य गृही आणितो

सोमपान करुनी अमुच्या वर पूषा तुष्ट व्हावे

शृंखलेसम सहा ऋतूंच्या सवे घेउनी यावे ||१५||

(या ऋचांचा व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक देखील मी शेवटी देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.) 

https://youtu.be/UddnnAJxNRY

Attachments area

Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 23 Rucha 7 to15

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ जीवनपथ… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ जीवन पथ… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

“.. ये ये असा भांबावलास का? “

“..आणि या वळणावरून पुढे चालता चालता थांबलास का? “

“..हाच आपला मार्ग बरोबर असेल ना ? ही शंका का आली बरं तुला?”

“..इतका मजल दरमजल करीत प्रवास करून मध्य गाठलास आणि आता या वाटेवरून पुढची वाटचाल करण्यास घुटमळतोस का ?.”

“…निर्णय तर त्यावेळी तूझा तूच घेतला होतास! याच वाटेवरून जाण्याचा आपलं इप्सित साध्य इथेच मिळणार असा आत्मविश्वासही त्यावेळी तुझ्या मनात होता की!”

“..ते तुझं साध्य गाठायला किती अंतर चालावे लागेल, त्यासाठी किती काळ ही यातायात करावी लागेल याचं काळ काम नि वेगाचं गणित तूच मनाशी सोडवलं होतसं की! उत्तर तर तुला त्यावेळीच कळलं होतं .”

.”. वाटचाल करत करत का रे दमलास!, थकलास! इथवर येईपर्यंत चालून चालून पाय दमले..आता पुढे चालत जाण्याचं त्राण नाही उरले..”

“..घे मग घटकाभर विश्रांती.. होशील पुन्हा ताजातवाना, निघशील परत नव्या दमाने. काही घाई नाही बराच आहे अवधी .”

“.ही काय कासव सश्याची स्पर्धा थोडीच आहे? अरे इथं कुणी हारत नाही किंवा कुणी जिंकत नाही. कारण हा आहे जीवन प्रवास आदी कडून अंता कडे निघालेला.. “

“..पण पण कुणालाही न चुकलेला. जो जो इथे आला त्याला त्याला याच वाटेवरून जावं लागलंच.. हा प्रवास मात्र ज्याला त्याला एकटयालाच करावा लागतो.. “

.”.साथ सोबत मिळते ना घडीची पण निश्चित नसते तडीची. “

“..तू पाहिलेस की कितीतरी जणांचे चालत गेलेल्यांचे पावलांचे ते ठसे , त्यांच्याच पावलावर पाऊल ठेवूनच तू ही चालत निघालास .काही पावलंं तुझ्या बरोबरीने चालली त्यात काही भरभर पुढे निघून गेली तर काही मागे मागेच रेंगाळली.. “

“..पण तू ठरवलं होतसं की आपण चालायचं अथक नि अविरत त्या टप्यापर्यंत..आणि हे ही तू जाणून होतास या वाटेने जाताना चालणे हाच एकमेव पर्याय आहे इथं दुसरं वाहन नाही मुळी. “

.”.आशा निराशेच्या दिवस रात्री दाखवत असतात मैलाचा टप्पा

..सुखाच्या सावलीचे मृगजळ दुःखाच्या उन्हात कायम चमचमते दिसते.. “

“..आल़ं हातात म्हणत म्हणत उर किती धपापून किती घेतेय याचं भान नसतयं.. “

“..दुतर्फा घनदाट वृक्षलता लांबवर पसरत गेलेल्या त्या लपवून ठेवतात संकटानां दबा धरुन बसवतात.. “

“..खाच खळगे प्रतिकुलतेचे नि समस्यांचे दगडधोंडे वाटेवर जागोजागी पसरलेले असतात तुझ्याशी सामना करण्यासाठी डोकं उंचावून..,”

“..कुठे उंच तर कुठे सखल, कुठे वळण तर कुठे सरळ, कुठे चढण तर कुठे उतार.. यावर चालूनच व्हायचं तुला पैलपार.. ही आहे तुझी जीवन वाट .. ”  

 आणि आणि माझी…

“.. मी आहे हा असाच ना आदी ना अंताचा माझा मलाच ठावठिकाणा नाही.. “

.”. कशा कशाचंच मला सोयरसुतक नाही… आणि कशाला ठेवू म्हणतो ते तरी.. “

“किती एक आले नि गेले किती एक अजूनही चालत राहिलेत.. आणि उद्याही कितीतरी येणार असणार आहेत… हीच ती एकमेव वाट आहे ना सगळ्यांची.. “

“.. आणि आणि माझा जन्मच त्यासाठी आहे तो सगळयांचा भार पेलून धरण्यासाठी.. “

“कोवळया उन्हाचे किरणाचे कवडसे गुदगुल्या करतात माझ्या अंगावर… दवबिंदूचे तुषार नाचतात देहावर.. ओले ओले अंग होते नव्हाळीचे न्हाणे जसे..चिडलेला भास्कर चिमटे काढतो तापलेल्या उन्हाने… दंगेखोर वारा फुफाटयाची माती उधळून लावतो भंडाऱ्यासारखी.. मग रवी हळूहळू शांत होत केशर गुलाबाच्या म्लान वदनाने मला निरोप देतो.. अंधाराचा जाजम रात्र टाकत येते… चांदण्याच्या खड्यांना चमकवित चंदेरी रूपेरी शितल अस्तर पसरवते..अंधारात बागुलबुवा झाडाझुडपांच्या आडोशाला दडतो… मी मी असाच पहुडलेला असतो.. दिवस असो वा रात्र मला काहीच फरक पडलेला नसतो… कारण मला तर कुठेच जायचं वा यायचं नसतं..” 

“..माझं कामं प्रवाश्यांच्या पदपथाचं असतं. .”

“.. मी आहे हा असाच ना आदी ना अंताचा अक्षय वाटेचा…” 

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 115 ☆ लघुकथा – मक्खी – सा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा मक्खी – सा । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 115 ☆

☆ लघुकथा – मक्खी – सा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

उसने गिलास में दूध लाकर रखा ही था कि कहीं से एक मक्खी भिनभिनाती हुई आई और उसमें गिर पड़ी । उसने मक्खी को उंगली और अंगूठे से बड़ी सावधानी से पकड़ा और निकालकर दूर फेंक दिया । फर्श पर पड़ी मक्खी हँस पड़ी और बोली – ‘ कहावत बनी तो मुझ पर है लेकिन लागू तुम इंसानों पर होती है । मैं तो कभी- कभी गलती से तुम्हारे दूध में गिर जाती हूँ पर तुम तो काम निकल जाने पर जब जिसे चाहो दूध की मक्खी – सा निकाल बाहर करते हो। ‘

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 145 ☆ जीवन परिक्रमा पथ… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जीवन परिक्रमा पथ…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 145 ☆

☆ जीवन परिक्रमा पथ

बला या बलाएँ जो टाले नहीं टल रहीं हैं। बिना दिमाग के जब कोई कार्य किए जाते हैं तो उनके परिणाम न केवल करने वाले को वरन उनसे जुड़े लोगों को भी परेशान कर देते हैं। हैरानी की बात तो तब होती है जब बातचीत  के मुद्दे ढूंढने के चक्कर में हम गलतियों पर गलती करते जाते हैं। कहते हैं समय का पहिया गतिमान रहता है, जो इसके साथ कदमताल मिलाते हुए स्वयं को विकसित करता जाता है वो अपना दबदबा बना लेता है। जो भी कार्य करें उसमें आपकी पहचान सबसे अलग तभी होगी जब उसमें शतप्रतिशत परिश्रम लगाया जाएगा। जैसी करनी वैसी भरनी के अनेकों उदाहरण जगत में मिलते हैं किंतु हम सब इन बातों से बेखबर अपने पूर्वाग्रह को ही प्राथमिकता देते हैं। सही गलत को एक ही तराजू में रखने की गलती करने वालों को भगवान कभी माफ नहीं करते। सच के साथ स्वयं की शक्ति अपने आप जुड़ने लगती है जिससे राह और राही उसके साथ खड़े नजर आते हैं।

जीवन पथ पर चलते हुए हमें केंद्र बिंदु की ओर निहारने के साथ ही ये भी ध्यान रखना होगा कि जिस बिन्दु से हमने चलना प्रारंभ किया है, एक निर्धारित समय बाद पुनः यहीं आना होगा। बस हम कुछ कर सकते हैं तो वो यही होगा कि स्वयं को पहले की तुलना में श्रेष्ठ बना लें। हर दिन जब नया सीखते चलेंगे तो आने वाले पलों को सुखद होने से कोई नहीं रोक पायेगा।

दिमागी उथल- पुथल से कुछ नहीं होगा, कार्यों को शुरू कीजिए और तब तक करते रहें जब तक मंजिल आपके कदमों में न आ जाए। लक्ष्य को साधना कोई साधारण कार्य नहीं होता है। जो तय करें उसे पूर्णता तक पहुँचाना ही सच्चे साधक का कार्य होता है।

पटाखे की लड़ी को फूटते हुए देखकर एक बात समझ में आती है कि एक साथ जुड़े हुए लोग एक जैसे परिणाम भोगते है। इसीलिए तो कहा गया है कि संगत सोच समझ के करें, आप जिनके संपर्क में रहेंगे वैसे बनते  चले जायेंगे।

आइए सकारात्मक विचारों के पोषक बनें, सर्वे भवन्तु सुखिनः की ओर अग्रसर होकर अच्छे लोगों का सानिध्य प्राप्त करें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 208 ☆ व्यंग्य – चूं चूं का मुरब्बा… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – चूं चूं का मुरब्बा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 208 ☆  

? व्यंग्य – चूं चूं का मुरब्बा ?

वे सारे लोग झूठे हैं जो सोचते हैं की चूं चूं का मुरब्बा वास्तविकता न होकर, सिर्फ एक मुहावरा है। अपनी उम्र सीनियर सिटीजन वाली हो चुकी है, पर वयस्क होते ही वोटिंग राइट्स के साथ उठा सवाल कि चूं चूं का मुरब्बा वाले मुहावरे का अर्थ, आखिर क्या होता है ? राज का राज ही रहा। बस यही लगा कि चूं चूं का मुरब्बा किसी बेहद भद्दे, बेमेल मिश्रण को कहते हैं . मसलन  कश्मीरी दम आलू में कोई कच्चा कद्दू मिला दे, या  रबड़ी-मलाई में प्याज-लहसुन का तड़का लगा दिया जाए, तो जो कुछ बनाता हो शायद वैसा होता होगा चूं चूं का मुरब्बा। शादी हुई तो जीवन का सारा भार रसोई शास्त्र ही नही हरफन मौला मैने तो पहले ही बता दिया था, या मैं तो जानती थी कि यही होगा जैसे जुमले जब तब उछालने में निपुण पत्नी से इस रहस्यमय रेसिपी के संदर्भ में पूछा। पत्नी जी ने भी मुस्कराते हुए पूरी व्यंजन विधि ही बता दी। उसने कहा कि सबसे पहले चूंचूं को धोकर एक सार टुकड़ो में काट ले,नमक लगाकर चांदनी रात में दो रात तक सूखा ले। चीनी की चाशनी एक तार की तैयार कर चांदनी में सूखे चूंचूं डाल कर ऊपर से जीरा पाउडर डालें। फिर अगली आठ रातों को पुनः आठ आठ घंटे चांदनी रात में रखे।

आठवें दिन चूंचूं का मुरब्बा खाने के लिए तैयार हो जाता है। रेसिपी मिल जाने के बाद से मेरी समस्या बदल गई अब मैं चूं चूं कहा से लाऊं, देश विदेश, भाषा विभाषा, धर्म जातियों, शास्त्रों उपशास्त्रों के अध्ययन, नौकरी की अफसरों के आदेशों, मातहतों  की फाइलों को पढ़ा समझा पर चूं चूं को समझ ही नही पाया।

थोड़े बहुत बाल सफेद भी हो गए हैं, मिली-जुली सरकारें देखी, चौदह के, उन्नीस के परिवर्तन देखे, अब पक्ष विपक्ष की चौबीस की तैयारी देख कर मन में संशय उभरता है कि जिस प्रकार उसूल की घरेलू गौरय्या सियासत के जंगल में गुम हो रही है। कहीं कभी इतिहास में इसी तरह  सत्ता का स्वाद चखने के लिए राजाओं, बादशाहों की लड़ाइयों में उन शौकीन सियासतदानों ने कही चूं चूं के मुरब्बे का इतना इस्तेमाल तो नहीं कर डाला कि चूं चूं की प्रजाति ही डायनासोर सी विलुप्त हो गई है। अस्तु अपनी खोज जारी है। आपको चूं चूं मिले तो जरूर बताइए, मेरे चूं चूं के मुरब्बे वाले यक्ष प्रश्न को अनुत्तर रहने से बचाने में मदद कीजिए।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘गोलू -भोलू और जंगल का रहस्य‘ – डॉ. शशि गोयल ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है डॉ. शशि गोयल जी  के बाल कहानी संग्रह “गोलू -भोलू और जंगल का रहस्य” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘गोलू -भोलू और जंगल का रहस्य‘ – डॉ. शशि गोयल ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’’  ☆

उपन्यासगोलूभोलू और जंगल का रहस्य 

उपन्यासकार डॉ. शशि गोयल 

प्रकाशक जीएस पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर, एफ7, गली नंबर 1, पंचशील गार्डन एक्सटेंशन, नवीन शाहदरा, दिल्ली110032 मोबाइल नंबर 99717 33123

पृष्ठ संख्या52 

मूल्य₹195

समीक्षकओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश

☆ समीक्षा- रहस्य से भरपूर उपन्यास है यह ☆

बच्चों के उपन्यास में रहस्य-रोमांच हो तो पढ़ने का मजा दुगुना हो जाता है। उसके साथ रोचक संवाद हो तो उपन्यास की पठनीयता में वृद्धि हो जाती है।

बाल उपन्यास में चंचल बालपात्र हो तो वह बच्चों को बहुत ज्यादा अच्छा लगता है। उसकी चंचलता और चपलता उपन्यास के आनंद का मजा बढ़ा देती है।

इस कला में उपन्यासकार डॉ. शशि गोयल को महारत हासिल है। इनका नवीनतम उपन्यास गोलू-भोलू और जंगल का रहस्य, इस कसौटी पर खरा उतरता है। उपन्यास के शीर्षक के अनुसार उपन्यास में जंगल का रहस्य और रोमांच भरा पड़ा है।

गोलू एक चंचल और चपल बाल पात्र है। वह शहर से गांव अपनी नानी के यहां आता है। यहां वह अपने साथी भोलू के साथ जंगल, नदी, गुफा, पहाड़ आदि की सैर करता है।

सैर-सपाटा के दौरान वह संदिग्ध गतिविधियों को पकड़ लेता है। उसी से दो-चार होता है। परिस्थितियां ऐसी निर्मित होती है कि वह उन सभी का रहस्योद्घाटन करता चला जाता है।

मगर अंत में जाकर वह एक घटना में उलझ जाता है। तब वह और उसके पिताजी एक नई तरकीब अपनाते हैं। इससे गोलू-भोलू के साथ अन्य पात्रों पर आई मुसीबत टल जाती है। इस तरह पूरा उपन्यास रहस्य रोमांच के साथ आगे बढ़ता है।

उपन्यास की भाषा सरल व सीधी है। इसी के साथ ठेठ ग्रामीण भाषा के उपयोग से उपन्यास में रोचकता का समावेश होता है। इसकी यह भाषा उपन्यास की रोचकता में वृद्धि करती है। पाठक पृष्ठ दर पृष्ठ उपन्यास को पढ़ता चला जाता है।

बाल सुलभ जिज्ञासा का असर पूरे उपन्यास में है। इसी जिज्ञासा की वजह से उपन्यास के पात्र निरंतर जोखिम उठाते हुए आगे बढ़ते हैं। फलस्वरुप उसके रहस्य को उजागर करते हुए एक नई मुसीबत का सामना करते हैं।

इस तरह उपन्यास के साथ-साथ मुख्य कथा के साथ उपन्यास उत्तरोत्तर आगे बढ़ता है। अंततः उसकी रोचकता का अंत उपन्यास के अंत के साथ हो जाता है।

उपन्यास का परिवेश ग्रामीण नदी के किनारे फैले हुए जंगल का है। इसी परिवेश में कुछ ऐसी परिस्थितियां निर्मित होती है उपन्यास के पात्रों के सामने नई-नई चुनौतियां आती जाती है।

चुनौतियों का सामना करने में मुक पशु-पक्षी का प्रयोग बखूबी किया गया है। पृष्ठ संख्या के हिसाब से दाम कुछ ज्यादा है। इस पर विचार किया जाना चाहिए। वैसे उपन्यास की साज-सज्जा व पृष्ठ सज्जा के साथ त्रुटि रहित छपाई ने उपन्यास की गुणवत्ता में श्री वृद्धि की है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-04-2023

मित्तल मोबाइल के पास, रतनगढ़,  जिला- नीमच (मध्य प्रदेश), पिनकोड-458226 

मोबाइल नंबर 7024047675, 8827985775

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares