(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “ढलते सूरज में दिखती है…”)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “ऐसा भी होता है...”।)
☆ लघुकथा # 180 ☆ “ऐसा भी होता है…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
नर्मदा जी के किनारे एक श्मशान में जल रहीं हैं कुछ चिताएं। राजू ने बताया कि उनमें से बीच वाली चिता में कपाल क्रिया जो सज्जन कर रहे हैं वे फारेस्ट डिपार्टमेंट के बड़े अधिकारी हैं, इसीलिए चिता चंदन की लकड़ियों से सजाई गयी है,और उसके बाजू में जो चिता सजाई जा रही है, वह गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले अति गरीब की है।
उनके लोगों का कहना है कि जितनी लकड़ियां तौलकर आटो से आनीं थीं, उसमें से बहुत सी लकड़ियां आटो वाला चुरा ले गया। किन्तु, ऐसे समय कुछ कहा नहीं जा सकता, न शिकायत की जा सकती है, क्योंकि, आजकल लोग बात बात में दम दे देते हैं, अलसेट दे देते हैं और काम नहीं होने देते।
गरीब मर गया तो आखिरी समय भी उसके साथ गेम हो गया। गरीब के रिश्तेदारों ने बताया कि जलाने के लिए ये जो लकड़ियां ख़रीदीं गईं थीं, उसके लिए पैसे उधार लिए गए थे। इसके बाद भी गरीब का दाहसंस्कार करने के लिए तत्पर बेटे को इस बात से खुशी है कि पिताजी ने जरूर कोई पुण्य कार्य किए होंगे, तभी इतने अमीर की चिता के बाजू में स्थान मिला, और बाजू की चिता से जलती हुई चंदन की लकड़ी का धुंआ उनकी चिता को पवित्र करेगा और वैसा ही हुआ। चिता को अग्नि दी गई और हवा की दिशा बदल गई। चंदन की लकड़ी से उठता हुआ धुआं गरीब की चिता में समा गया। श्रद्धांजलि सभा में कहा गया उसने जीवन भर गरीबी से संघर्ष किया पर वो पुण्यात्मा था, तभी तो ऐसा चमत्कार हुआ।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी होली पर्व पर विशेष कविता “# खंडहर… #”)
☆ विचार–पुष्प – भाग 61 – स्वामी विवेकानंदांचं राष्ट्र-ध्यान – लेखांक दोन ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆
‘स्वामी विवेकानंद’ यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका ‘विचार–पुष्प’.
स्वामीजींनी दक्षिणेश्वरच्या मंदिरातील कालीमातेचं/जगन्मातेचं दर्शन घेऊन परिव्राजक म्हणून प्रवास सुरू केला तो आता कन्याकुमारी मंदिरात दर्शनाने संपणार होता.
उत्तरेकडील बर्फाच्छादित हिमालयापासून सुरू झालेली स्वामीजींची प्रदीर्घ यात्रा आता भारताच्या दक्षिण टोकास संपली होती. तामिळनाडू मध्ये जिथे अरबी समुद्र, हिंद महासागर, आणि बंगालची खाडी यांचा संगम होतो तिथे माता कन्याकुमारीचे प्राचीन मंदिर आहे. तिचे पौराणिक संदर्भ पण आहेत.
या मंदिरात स्वामीजी गेले आणि साष्टांग नमस्कार करून, कन्यारूपातील जगन्मातेचं दर्शन घेऊन बाहेर आले. तशी समोर लांबवर नजर गेली, दीड फर्लांग अंतरावर दोन प्रचंड शिलाखंड दिसले.यावरच माता कन्याकुमारीने /पार्वतीने स्वत: इथे तपस्या केली होती. या शिला खंडावर तिचे पदचिन्ह आज ही आहेत म्हणून त्याला ‘श्रीपाद शिला’ म्हणून ओळखले जाते. मनशांती साठी व चिंतनासाठी आपल्याच भूमीवरच्या या शिलाखंडावर जायची त्यांना मनोमन इच्छा झाली. तिथे गेलो तर खर्या अर्थाने मातृभूमीचे दक्षिण टोक आपण गाठले असा अर्थ होईल. म्हणून कसही करून त्या खडकांवर आपण जावं असं वाटून, ते किनार्यावर आले. समोर उंच उंच फेसाळत्या लाटा होत्या.त्याची जराही भीती वाटली नाही कारण, मनात तर याहीपेक्षा मोठे वादळ उठलेले होते. समोरच होड्या होत्या. काही कोळी पण उभे होते. स्वामीजींनी त्यांची चौकशी केली. त्या नावेतून खडकापर्यंत पोहोचविण्यास नावाडी तयार होते, फक्त पैसे द्यावे लागणार होते. नावाड्यांनी त्याचे ३ पैसे सांगितले. स्वामीजी तर निष्कांचन होते.तीन काय, एक पैसा सुद्धा त्यांच्या जवळ नव्हता. पण साहस तर होतं. झालं,क्षणाचाही विलंब न करता, त्यांनी त्या उंच लाटांमध्ये उडी घेतली आणि पोहत पोहत जाऊन ते खडक गाठले. समुद्राला रोजचे सरावलेले असतांनाही नावाडी हे बघून स्तब्धच झाले. लाटा उसळणार्या तर होत्याच पण तिथे शार्क माशांपासून पण धोका होता हे त्यांना माहिती होतं. हे पाहून दोन तीन नावाडी स्वामीजींच्या पाठोपाठ गेले. ते सुखरूप पोहोचले हे बघून, त्यांना काही हवे का विचारले. आम्ही आणून देऊ असे सांगीतल्यावर थोडे दूध आणि काही शहाळी पुरेशी आहेत असे स्वामीजींनी सांगितले.
राष्ट्र चिंतन पर्व – २५, २६ २७ डिसेंबर
स्वामी विवेकानंदांनी या आधी आध्यात्मिक साधना म्हणून अनेक वेळा एकांतात ,अरण्यात वगैरे ध्यान केलं होतं. पण आता चे ध्यानचे रूपच वेगळे होते. अरण्य नाही,झाडं झुडुपं नाही, गुहा नाही ,उघड्या खाडकावर आकाशाचे चं छत आणि आजूबाजूला प्रचंड आणि चोवीस तास खळाळणार्या समुद्राच्या लाटा,दिवसा सूर्यची प्रखर किरणे, जोरात येणार्या वार्याचे झोत असा पारंपरिक ध्यान धारणेचा वेगळाच एकांतवास तिथे होता.२५ डिसेंबर १८९२ रोजी स्वामी ध्यानास बसले. स्वामीजींनी या शिलाखंडावर तीन दिवस, तीन रात्र अखंड ध्यान केलं. लाटांच्या अखंड गंभीर नादाबरोबर स्वामीजींचे गाढ चिंतन सुरू झाले. कलकत्त्यातून बाहेर पडल्यापासुनचे सर्व दिवस, त्यात आलेले अनुभव, सगळं डोळ्यासमोर उभं राहिलं होतं. जगन्मातेचं ध्यान आणि भारत मातेचं चिंतन तीन दिवसात झालं. चौथ्या दिवशी सकाळी तरुण नावाड्यांनी जाऊन होडीतून त्यांना पुन्हा किनार्यावर आणलं. जे शोधायला स्वामीजी आले होते ते त्यांना इथे मिळालं. भारताचा गौरवशाली इतिहास, भयानक वर्तमानकाळ आणि आणि आधी पेक्षाही अधिक स्वर्णिम भविष्यकाळ याचा चित्रपटच जणू त्यांच्या डोळ्यासमोर उभा राहिला.सिंहावलोकन करण्याचा तो क्षण होता. भारताच्या श्रेष्ठ संस्कृतीतले वास्तव तसाच त्यातलं सुप्त सामर्थ्य त्यांना या क्षणी जाणवलं होतं. त्याच्या मर्यादा ही त्यांना जाणवल्या होत्या.
प्राचीन इतिहास असलेला हा विशाल देश, इतिहासाचे केव्हढे चढउतार, सार्या जगाला हेवा वाटेल असे प्राचीन काळातील द्रष्ट्या ऋषीमुनींनी दिलेले आध्यात्मिक धन. पण तरीही आज भारत कसा आहे? त्याची अस्मिताच हरवलेली दिसत आहे. सगळ्या मानव जातीने स्वीकारावीत अशी शाश्वत मूल्यं पूर्वजांकडून लाभली आहेत तरीही त्यातल्या तत्वांचा त्याला विसर पडला आहे. अभिमान वाटावा असा भूतकाळाचा वारसा आहे पण वर्तमानात मात्र घोर दुर्दशा आहे. यातून समाजाचं तेज पुनः कसं प्रकाशात आणता येईल? अशा प्रश्नांची उत्तरे त्यांना शोधायची होती. उपाय शोधायचे होते. एखाद्या शिल्पकाराने उत्तम मूर्ती घडविताना त्याचा सर्वांगीण विचार करावा तसा स्वामीजी भारताचा विचार यावेळी करत होते.
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य ‘नेताजी का स्मृति-लोप’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 184 ☆
☆ व्यंग्य ☆ नेताजी का स्मृति-लोप ☆
नेताजी अब सत्तर के हुए। उम्र बढ़ने के साथ नेताजी को डर लगता है कि कहीं चुनाव में टिकट से वंचित न कर दिये जाएँ। उनका कहना है कि नेता को आखिरी साँस तक जनता की सेवा का मौका मिलना चाहिए। अन्त में तिरंगे में लिपट कर न गये तो जीने का क्या मतलब?
नेताजी पिछले पंद्रह सालों में पाँच पार्टियाँ बदल चुके हैं। अब छठवीं में हैं। लोग उन्हें मौसम- विशेषज्ञ कहते हैं। वे हवा सूँघते रहते हैं। जैसे ही किसी दूसरी पार्टी के पावर में आने की संभावना दिखती है, वे बेचैनी से कसमसाने लगते हैं। कदम खुद-ब-खुद उस पार्टी की तरफ बढ़ने लगते हैं। फिर अपनी पार्टी में हज़ार खामियाँ दिखने लगती हैं।
नेता जी का कहना है कि पार्टी के सिद्धान्तों, उद्देश्यों से उन्हें कोई मतलब नहीं है। बस, जनता की सेवा का भरपूर मौका मिलना चाहिए। जिस पार्टी में जनता की सेवा का मौका न मिले उसे अविलंब छोड़ देना चाहिए। ‘तजिए ताहि कोटि बैरी सम, यद्यपि परम सनेही’। लेकिन उनसे ‘जनता की सेवा’ का अर्थ पूछने की हिम्मत किसी की नहीं होती क्योंकि ज़ाहिराना वे अपनी और अपने परिवार की ही सेवा करने के लिए बदनाम हैं।
फिलहाल नेताजी परेशानी में पड़ गये हैं। उनकी स्मरण-शक्ति कमज़ोर हो गयी है। भूल जाते हैं कि वे कितनी पार्टियों में और कब से कब तक रहे। एक डायरी में उन्होंने यह सारी जानकारी लिख रखी थी, लेकिन वे उस डायरी को रखने की जगह भी भूल गये हैं। पार्टी-परिवर्तन का इतिहास याद करने की कोशिश करते हैं तो सब गड्डमड्ड हो जाता है। नेताजी आतंकित हैं। कहीं उनकी वर्तमान पार्टी के हाई कमांड को उनकी हालत का पता चल गया तो क्या होगा? फिर कोई ऊँची कुर्सी या मलाईदार पद नहीं मिलेगा। आगे बेटों- बेटियों को पॉलिटिक्स में जमाने की कोशिश कर रहे हैं। बेटों को चालाकी, मिथ्या भाषण, पाखंड जैसे राजनीतिक गुण सिखा रहे हैं। लेकिन अगर उनकी अपनी स्थिति ही कमज़ोर हो गयी तो सन्तान को कौन पूछेगा?
हालत यह है कि कभी घर से निकलते हैं तो किसी पहले छोड़ी हुई पार्टी के दफ्तर में पहुँच जाते हैं और वहाँ बैठकर लोगों से प्रेमपूर्ण बातचीत और उस पार्टी की तारीफ करने लगते हैं। पार्टी के लोग उनका मुँह देखते रह जाते हैं। उन्हें लगने लगता है कि नेताजी शायद पुरानी पार्टी में वापस आना चाहते हैं। उनके बेटों को पता चलता है तो वे उनको वहाँ से उठा लाते हैं।
बेटे सलाह देते हैं कि उन्हें किसी मनोचिकित्सक को दिखाया जाए, लेकिन नेताजी हाथ उठा देते हैं। कहते हैं, ‘पार्टी हाई कमांड को यह बात मालूम हो गयी तो तुरन्त मुझे कचरेदान में डाल देंगे। मनोचिकित्सक के पास गया तो रिपोर्टर और कैमरेवाले सूँघते हुए पहुँच जाएँगे। न बाबा, मैं किसी डॉक्टर के पास नहीं जाऊँगा। पॉलिटिक्स में मनोचिकित्सक के पास जाने का मतलब खुदकुशी करना है।’
लाचार, बेटों ने उन्हें घर में ही रहने के लिए कह दिया है। उन पर चौबीस घंटे निगरानी रहती है। रिपोर्टरों और फोटोग्राफरों से मिलने की मनाही है। बाहर जाएँ तो किसी बेटे के साथ ही जाएँ। बेटे खुद ही परेशान हैं क्योंकि पिताजी निर्बल हो गये तो पॉलिटिक्स में उनका कैरियर कैसे बनेगा?
Anonymous Litterateur of Social Media# 131 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 131)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 180☆ शिवोऽहम्… (5)
आत्मषटकम् पर मनन-चिंतन की प्रक्रिया में आज पाँचवें श्लोक पर विचार करेंगे। अपने परिचय के क्रम में अगला आयाम आदिगुरु शंकराचार्य कुछ यूँ रखते हैं,
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म:
न बंधुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यं
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।।
इसका शाब्दिक अर्थ है कि न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है। न मेरा कोई पिता है, न कोई माता है, न ही मेरा जन्म हुआ है। न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु है और न ही कोई शिष्य। मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ।
मृत्यु के संदर्भ में देखें तो शंकराचार्य जी महाराज के कथन से स्पष्ट है कि देह छूटना आशंका नहीं होना चाहिए। यों भी यात्रा में पड़ाव आशंका नहीं हो सकता। यात्रा तो परमात्मा के अंश की है, यात्रा आत्मा की है। यात्रा के सनातन और यात्री के शाश्वत होने का प्रसंग आए और योगेश्वर उवाच स्मृति में न आए, यह संभव ही नहीं। भगवान गीतोपदेश में कहते हैं,
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
आत्मा का किसी भी काल में न जन्म होता है और न ही मृत्यु। यह पूर्व न होकर, पुनः न रहनेवाला भी नहीं है। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।
मैं मृत्यु नहीं हूँ, अत: स्वाभाविक है कि जन्म भी नहीं हूँ। जो कभी जन्मा ही नहीं, वह मरेगा कैसे? जो कभी मरा ही नहीं, वह जन्मेगा कैसे?..ओशो की समाधि पर लिखा है, ‘नेवर बॉर्न, नेवर डाइड, ऑनली विज़िटेड दिस प्लानेट अर्थ बिटविन….’ उन्होंने न कभी जन्म लिया, न उनकी कभी मृत्यु हुई। वे केवल फलां तिथि से फलां तिथि तक सौरग्रह धरती पर रहे।’
विचार करें तो बस यही अवस्था न्यूनाधिक हर जीवात्मा की है। स्पष्ट है कि केवल जन्म और मृत्यु तक सीमित रखकर जीवन नहीं देखा जा सकता।
पिता न होना अर्थात किसीके जन्म का कारक न बनना और माता न होना अर्थात किसीको जन्म देने का कारण न होना। जन्म से मृत्यु तक जीवात्मा द्वारा देह धारण करने का कारण और कारक परमात्मा ही हैं। प्राप्त देह, यात्रा की निमित्त मात्र है।
न मार्ग का दर्शन, न मार्ग का अनुसरण.., न गुरु होना, न शिष्य होना। बंधु, मित्र न होना, रक्त का या परिचय का सम्बंध न होना। जगत के सम्बंधों तक सीमित नहीं है अस्तित्व। माता, पिता, गुरु, शिष्य, बंधु, मित्र इहलोक के नश्वर सम्बंध हैं जबकि जीवात्मा ईश्वर का आंशिक अवतरण है।
जातिभेद का उल्लेख करते हुए आदिगुरु स्पष्ट करते हैं कि मैं न कुलविशेष तक सीमित हूँ, न ही वंशविशेष हूँ। ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।’ …जाति का एक अर्थ उत्पत्ति भी है। जीवात्मा उत्पत्ति और विनाश से परे है।
जीवात्मा अपरिमेय संभावना है जिसे देह और मर्त्यलोक की आशंका तक सीमित कर हम अपने अस्तित्व को भूल रहे हैं। अपनी एक रचना स्मरण आ रही है,
संभावना क्षीण थी, आशंका घोर,
बायीं ओर से उठाकर, आशंका के सारे शून्य
धर दिये संभावना के दाहिनी ओर..,
गणना की संभावना खो गई,
संभावना अपरिमेय हो गई..!
मनुष्य अपने अस्तित्व की अपरिमेय संभावनाओं को पढ़ने लगे तो कह उठेगा,..‘मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ,…शिवोऽहम्।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।
💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित गीत“~ ओ! मेरी रचना संतानों आओ… ~”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 130 ☆
☆ ~ गीत ~ ओ! मेरी रचना संतानों आओ …~ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆