(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है। देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल / पुस्तक मेले / साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)
☆ माधव कौशिक साहित्य अकादमी अध्यक्ष ☆
यह हमारे लिये बड़े गौरव व खुशी की बात है कि माधव कौशिक देश की साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बने । वे मूलतः हरियाणा की छोटी काशी कहे जाने वाले भिवानी से संबंध रखते हैं और काफी समय से चंडीगढ़ ही रहते हैं । एक सशक्त साहित्यकार और हरियाणा साहित्य अकादमी से अनेक बार पुरस्कृत । चंडीगढ़ साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी हैं । पहले वे काफी वर्षों से साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे । अब वे विधिवत साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बन गये । हमारी ओर से बधाई ।
कुरूक्षेत्र में ओमप्रकाश ग्रेवाल को याद किया : कुरूक्षेत्र के कैलाश नगर स्थित डॉ.ओम प्रकाश ग्रेवाल अध्ययन संस्थान द्वारा एक ऐतिहासिक महत्व का अविस्मरणीय व्याख्यान करवाया गया जिसका विषय था – ‘ देश विभाजन : तब और अब’ व्याख्यान देने के लिए विख्यात विद्वान, देश और दुनिया की अनेक सर्वोत्तम उच्च शिक्षा संस्थाओं में रहे वर्तमान में अमेरिका की ओहायो यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एमेरिटस डॉ. अमृतजीत सिंह विशेष रुप से कुरुक्षेत्र आमंत्रित थे । अमृतजीत सिंह कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र और डॉ. ग्रेवाल के विद्यार्थी रहे हैं । उन्होंने डॉ ग्रेवाल के साथ अपनी बहुत सी स्मृतियों को साझा किया। व्याख्यान शुरू करते हुए उन्होंने बताया कि सन् 1947 में देश की आजादी के साथ विभाजन की त्रासदी भी घटित हुई। इस समय हुए दंगे-फसादों में दस लाख से ऊपर निरपराध लोग मारे गए और एक करोड़ से ऊपर विस्थापित हुए । उस समय के दर्दनाक वृत्तांत बहुत हैं जिनमें हिंसा और नफरत है लेकिन उतने ही किस्से मोहब्बत, इन्सानियत, एक-दूसरे की हिफाज़त करने के भी हैं ।
डॉ सिंह ने कहा कि विभाजन दिल और दिमाग में जब तक खत्म नहीं होता तब तक यह निरंतर चलता रहेगा । उन्होंने कहा विभाजन 1984 में भी हुआ था 1994 में भी हुआ था 2002 में भी हुआ था और दिलों में तो यह अब भी जारी है। भीष्म साहनी और पाकिस्तानी लेखक इंतजार हुसैन के साहित्य का उदाहरण देकर उन्होंने विभाजन को खत्म करने के लिए कुछ सूत्र दिए । हमें नए सिरे से बेहतर भविष्य बनाने के लिए काम करना पड़ेगा उन्होंने बांग्लादेश का उदाहरण देते हुए कहा कि वह देश आर्थिक व्यवस्था में हमसे बेहतर काम कर रहा है क्योंकि उसने विभाजन की राजनीति को छोड़ दिया है ।
बहस में सुरेन्द्र पाल सिंह ने लखविंदर पाल सिंह ग्रेवाल, प्रिंसिपल सहेमराज शर्मा, ओम सिंह अशफ़ाक, डॉ.टी.आर.कुण्डू, डॉ.दिनेश दधीचि, डॉ. रामेश्वर दास,दीपक वोहरा, विकास शर्मा,शशि प्रकाश,सुशील, डॉ. रविन्द्र गासो,मुरथल यूनिवर्सिटी से जसमिन्द्र,राहुल मलिक आदि ने गंभीर प्रश्न खड़े किए ।
इंडिया नेटबुक्स सम्मान : नोएडा में इंडिया नेटबुक्स के संचालक डाॅ संजीव कुमार ने पिछले रविवार लेखकों को सम्मानित प्रदान किये । सर्वोच्च सम्मान वरिष्ठ लेखिका चित्रा मुद्गल व प्रताप सहगल को प्रदान किया गया । इनके अतिरिक्त देश भर से पचपन लेखकों /संपादकों को सम्मानित किया गया जिसमें जनसत्ता के संपादक मुकेश भारद्वाज उल्लेखनीय हैं । किसी भी प्रकाशन संस्थान द्वारा लेखकों को सम्मानित करना एक अच्छी परंपरा है जिसे संजीव कुमार निभा रहे हैं । इनके साथ डाॅ प्रेम जनमेजय भी एक सलाहकार की तरह जुटे हैं । पंजाब , चंडीगढ़ से लेकर छत्तीसगढ़, राजस्थान तक से लेखक इसमें भाग लेने आये । भव्य समारोह के लिए डाॅ संजीव कुमार को बधाई । पर सम्मान के लिए इतनी लम्बी सूची थोड़ी कम की जानी चाहिए जिससे इनकी गरिमा बनी रह सके ।
हिसार मे रंग आंगन नाट्योत्सव : हिसार में पिछले नौ वर्ष से रंगकर्मी मनीष जोशी अभिनय रंगमंच की ओर से रंग आंगन नाट्योत्सव का आयोजन करते हैं । इस फिर भी दस से सत्रह मार्च तक यह नाट्योत्सव आयोजित किया गया । इसमें मुम्बई से प्रसिद्ध एक्टर राजेंद्र गुप्ता और हिमानी शिवपुरी अपने नाटक -जीना इसी का नाम है के साथ हिसार आये । तुलसी सभागार में इसका प्रभावशाली मंचन हुआ । दोनों कलाकार बाद में बाल भवन में लोगों से खूब सहजता से मिले और नाटक भी देखा । इस नाट्योत्सव में असम , दिल्ली , पंजाब व हरियाणा से अनेक नाट्य दल अपनी नयी प्रस्तुतियां मंचित करने आये । इसमें एक दिन बच्चों के लिये कठपुतली शो भी रखा जाता है और प्रसिद्ध कत्थक नृत्यांगना राखी जोशी भी अपनी छात्राओं को साथ एक शो देती हैं । इस नाट्योत्सव का अब हर साल हिसारवासियों को बेसब्री से इंतजार रहता है ।
दिल्ली में नट सम्राट : दिल्ली की नाट्य संस्था नट सम्राट के संस्थापक व रंगकर्मी श्याम कुमार ने नट सम्राट नाट्योत्सव का आयोजन किया । इसमें एक दर्जन साहित्यकारों व रंगकर्मियों को नट सम्राट सम्मान प्रदान किये गये जिनमें क्रिटिक अवाॅर्ड मुझे भी मिला । ये नाट्य संस्थायें नाटक की मशाल को जलाये हुए हैं
इसके लिये इनके जज्बे को सलाम ।
चित्रा मुद्गल और शशि पुरवार को सम्मान : मुम्बई निवासी सशक्त रचनाकार शशि पुरवार को महाराष्ट्र साहित्य अकादमी की ओर से नभदेव सम्मान दिये जाने की घोषणा हुई है । इसी अकादमी ने चित्रा मुद्गल को सर्वोच्च सम्मान देने की घोषणा भी की है ।
साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी
(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “अक्सर ही चराग़ों ने जलाया है …”।)
ग़ज़ल # 67 – “अक्सर ही चराग़ों ने जलाया है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। जिन्दगी अभी बाकी है ।।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 59 ☆
☆ मुक्तक ☆ ।। जिन्दगी अभी बाकी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक गावव ग़ज़ल – “बने रिश्तों को हरदम प्रेम जल से सींचते रहिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #123 ☆ गजल – “बने रिश्तों को हरदम प्रेम जल से सींचते रहिये…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
☆ अस्तित्व आणि अधिकारासाठी दिलेला लढा… ☆ सुश्री सुनीला वैशंपायन☆
8 मार्च आंतरराष्ट्रीय महिला दिन . स्त्रीचे अस्तित्व आणि अधिकार यासाठी दिलेल्या लढ्याचे स्मरण म्हणून जगभर साजरा केला जाणारा दिवस. Clara Zenth या जर्मन स्त्रीच्या पुढाकाराने हा जगभर पसरला आणि यशस्वी झाला..याची सुरुवात १९१० मध्ये झाली.
असं म्हणतात भरपूर वेळ घेऊन ईश्वराने निर्माण केलेली एक नितांत सुंदर, भावपूर्ण, प्रेमळ, प्रसंगी कणखर अशी कलाकृती म्हणजे स्त्री. “जिच्या हाती पाळण्याची दोरी, ती या जगाते उध्दारी “, “क्षणाची पत्नी अनंत काळाची माता ”, “ देवी, राक्षसांचा, दुर्जनांचा संहार करणारी “ वगैरे भारदस्त विधानं जरी तिच्याबद्दल केली गेली असली, तरी समाजात तिला सहसा कायमच दुय्यम स्थान मिळालेले आपण पाहतो.
एक निर्बल भोगवस्तू म्हणून तिच्यावर अधिकार गाजवण्यासाठी झालेल्या लढाया आणि त्यात तिने केलेले आत्मदहन, जोहार हे जसे सर्वश्रुत आहे, तसेच एकीकडे हेही सर्वश्रुत आहे की इतिहासात अनेक शूर स्त्रिया होऊन गेल्या. स्वातंत्र्यलढ्यात अनेक स्त्रियांचे योगदान आहे. आणि आता स्त्रियांच्याच प्रयत्नांनी स्त्रियांना स्वातंत्र्य आणि समानता मिळत आहे हेही महत्वाचे आहे. अशा सगळ्याच स्त्रियांची आठवण म्हणून हा महिला दिन.
फक्त अतिशय समजूतदारपणा, प्रेमळपणा, सहनशीलता हे सहज दिसणारे गुणविशेषच नाहीत, तर बुद्धी, कल्पकता, चातुर्य, साहस ,जिद्द, हेही गुणविशेष पुरुषांइतकेच तिच्यामध्येही आहेत हे स्त्रीने आता वेळोवेळी आणि अनेक क्षेत्रात सिद्ध केले आहे. मी तर म्हणेन की ती multi taskerआहे, आणि हा विशेष गुण पुरुषांमध्ये बराचसा अभावानेच आढळतो हेही आता उघड सत्य ठरले आहे. म्हणूनच जगाला आवर्जून स्त्रियांची जाहीर दखल घ्यावीशी वाटते. कारण समाजात स्त्रीचे अस्तित्व पुरुषांइतकेच महत्त्वाचे आहे हे सत्य आता विवाद्य राहिलेले नाही. स्त्रीच्या अस्तित्वासाठी आणि अधिकारासाठी सुरु झालेल्या लढ्याचं पहिलं पाऊल आता जणू एक मैलाचा दगड म्हणून इतिहासात कायमचं नोंदलं गेलं आहे.
मुळातच स्त्री ही पुरुषापेक्षा शक्तीने कमी असते हा निसर्ग नियम आहे. पण काही स्त्रिया यावरही मात करतांना आता वरचेवर दिसून येते. थोडक्यात काय, तर लिंगभेद, रिप्रॉडक्टिव्ह राईट, व्हायलेन्स अब्युज या विरुद्ध तिला द्यावी लागणारी लढाई आता खूपच मिळमिळीत झाली आहे असे म्हटल्यास ती अतिशयोक्ती ठरणार नाही.
विविध संशोधन क्षेत्रे, राजकारण ,सायन्स, मेडिसिन,अर्थ ,खेळ, सैन्यदल, यामध्ये तर ती आता सर्रास आहेच. शिवाय वेगवेगळ्या इंडस्ट्रीजमध्येही तिचा दमदार सहभाग आहे. पोलीसदल, रिक्षा किंवा चारचाकी वाहनचालक, शिक्षणक्षेत्रात लक्षवेधी वाटचाल अशा विविध प्रांतात, आणि अध्यात्मासारख्या सहजसाध्य नसलेल्या प्रांतातही ती यशस्वीपणे मिळवत असलेले ज्ञान…..सगळंच अतिशय कौतुकास्पद. खरंतर आता असे एकही महत्वपूर्ण क्षेत्र उरलेले नाही, जिथे स्त्रीने आपले कर्तृत्व सिद्ध केलेले नाही. अगदी अवकाशातही भरारी घेण्यात, त्यासाठीच्या अतिशय गुंतागुंतीच्या महत्वपूर्ण संशोधनात पुरुषांच्या बरोबरीने तिचा सहभाग आहे…. स्त्री आता खरोखरच ‘ स्वयंसिद्धा ‘ ठरलेली आहे. सिंगल मदर म्हणून एकटीने मुलांचे उत्तम संगोपन करण्यात देखील ती यशस्वी झालेली आहे – होते आहे.
इथे एक गोष्ट आवर्जून सांगायला हवी. शहरवासीयांसाठी अनेक मार्ग खुले असतात. पण विपरीत परिस्थितीतून, आडगावातून पुढे आलेल्या अशाही स्त्रिया आहेत, ज्या “पद्मश्री” पुरस्काराच्या मानकरी आहेत. अशा स्त्रियांबद्दल मला विशेष आदर वाटतो. असे पुरस्कार मिळवणाऱ्यांची संख्या मोठी आहे. त्यातील काही जणींचा उल्लेख करायचा तर —
१) मध्यप्रदेशातील काटक्या गोळा करणारी दगडफोड करणारी दुधीयाबाई– एक चित्रकार– पद्मश्री मानकरी
२) कलकत्ता येथील प्रीती कोना–कांथा वर्क
३) छत्तीसगडची कलाकार उषा बारले– नाच
४) झाबुवा ,मध्य प्रदेश, मधील दाम्पत्य शांती आणि रमेश पवार— आदिवासी गुडिया
५) हिमोफेलियावर संशोधन करणाऱ्या डॉक्टर नलिनी पार्थसारथी
६) गणित प्रेमी सुजाता— अनेक पुरस्कार आणि पद्मश्री.
अर्थात या सगळ्याच्या जोडीने एक वेदनादायक सत्य अजूनही काही ठिकाणी आपले नकोसे अस्तित्व दाखवून देत असते. ठराविक पद्धतीनेच आयुष्य व्यक्तीत केले पाहिजे हा विचार अडाणी अशिक्षित वर्गातच फक्त नसतो, तर तो शिक्षित उच्चभ्रू समाजात देखील दिसतो हेही असेच एक सत्य. छत्तीसगडच्या आदिवासी समाजात जन्मलेली एक लहानशी मुलगी… तिला नाचाची अत्यंत आवड… पण नाच म्हणजे समाजात मान खाली घालायला लावणारी कला… म्हणून बापाने त्या मुलीला विहिरीत फेकून मारण्याचा प्रयत्न केला आणि कोणीही त्याला प्रतिकार केला नाही. पण ही मुलगी केवळ स्वतःच्या मनोबलावर जिद्दीने त्या परिस्थितीतून आपला मार्ग शोधते आणि स्वतःला सिद्ध करते हे आवर्जून लक्षात घेण्यासारखे. अशा अनेक स्त्रिया. अगदी सुधा मूर्ती यांच्यासारख्या प्रचंड बुद्धिवान स्त्रीला देखील जेंडर डिस्क्रिमिनेशनला तोंड द्यावं लागलं. पण त्यांनी खंबीरपणे आणि चिकाटीने सगळ्या अडथळ्यांना यशस्वीरीत्या पार केले आणि आपली योग्यता सिद्ध करून दाखवली. आज ‘ सुधा मूर्ती ‘ हे नाव कुणाला माहित नाही ? अशी वेगवेगळ्या क्षेत्रात उत्तम कर्तबगारी दाखवणाऱ्या किती जणींची नावं घ्यावीत … ज्या सगळ्या पद्म पुरस्कारांच्या मानकरी आहेत …. सर्वांच्या मनात आदराचे स्थान मिळवलेल्या आहेत .
अर्थात जसे यशस्वी पुरुषामागे स्त्री असते म्हणतात, तसेच यशस्वी स्त्रीच्या मागेही पुरुष असतो हे तर खरेच. पण ही गोष्टही स्त्री जास्त दिलखुलासपणे मान्य करते हेही तितकेच खरे.
८ मार्च प्रमाणेच १३ फेब्रुवारी हा दिवसही श्रीमती सरोजिनी नायडूंच्या स्मरणार्थ ‘ नॅशनल वूमन्स डे ‘ म्हणून साजरा केला जातो. देशबांधणीत हातभार लावलेल्या स्त्रियांचा हा गौरव दिन असतो. कदाचित याची माहिती फारशी सर्वश्रुत नसेल म्हणून इथे आवर्जून या गोष्टीचा उल्लेख करायलाच हवा.
या सगळ्या ज्ञात-अज्ञात स्त्रियांच्या वेगवेगळ्या प्रकारच्या लढ्याला… कार्याला आणि… त्यांनी मिळवलेल्या गौरवास्पद यशाला माझं मनःपूर्वक अभिवादन…
संग्राहिका : सुश्री सुनीला वैशंपायन
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈
☆ नाती वांझ होताना… कवयित्री मनिषा पाटील ☆ परिचय – सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆
कविता संग्रह –नाती वांझ होताना
कवयित्री—मनीषा पाटील- हरोलीकर
प्रकाशक–संस्कृती प्रकाशन. पुणे
पृष्ठ संख्या–९५
किंमत–१५० रू
‘अस्वस्थ नात्यांचा आरसाःनाती वांझ होताना’
“नाती वांझ होताना” हा मनीषा पाटील-हरोलीकर यांचा कविता संग्रह हाती आला.कविता संग्रहाच्या शीर्षकाने मनाला आधीच गोठवून टाकले.किती समर्पक नाव!!!खरं तर मानवी जीवन समृध्द करण्याचा महामार्ग म्हणजे नात्यांची गुंफण.नात्यातला ओलावा जगायला शिकवतो.पण आज मात्र याच नात्यांचा ओलावा आटत जाताना दिसत आहे. सर्वत्र नात्यांत वांझोटेपण येताना दिसत आहे.कोरडेपणाचे एक वादळ सर्वत्र घोंगावत आहे.म्हणूनच कवयित्री मनीषा या अस्वस्थ होत आहेत.ग्रामीण भागातील बाई आज ही मोकळेपणाने वागू शकत नाही.बोलू शकत नाही .तिची नेहमी घुसमट होते.हे सारे कवयित्रीने जवळून अनुभवले आहे.बदलत जाणारे ग्रामीण जीवन ही अस्वस्थ करणारे आहे.हे सगळे भाव कवयित्रीने कवितेतून व्यक्त केले आहेत.नाती वांझ होताना या कविता संग्रहातील प्रत्येक कविता म्हणजे एक शब्द शिल्प आहे.शब्द लेणं आहे.पुन्हा पुन्हा कविता वाचली की नवा आशय सापडतो.नवा भाव सापडतो.प्रत्येक कविता बाईच्या मनाचा एक एक भावपदर उलगडून दाखवते.प्रत्येक कविता बाईच्या मनाचा आरसा आहे,असे मला वाटते.बाईचं सोसणं,घडणं, असणं,दिसणं, सारं या कवितेतून व्यक्त होतं.सगळ्याच कविता मनात विचाराचं वादळ उठवून जातात.आजच्या वर्तमानाला चेहरा नाही.कोणता मार्ग सापडत नाही तेव्हा कवयित्री म्हणते,
कोणतेच प्रहर नसलेले
हे कसले वर्तमान
जगतेय मी
बाईचं विश्व घर असते.घर तिचा श्वास असतो. आज घडीला तिच्या श्वासावर कुऱ्हाड घातली जात आहे. तिचं जगणंच हिरावून घेतलं जातं आहे. तेव्हा ‘मी बंद केलेय ‘या कवितेत कणखरपणे कवयित्री म्हणते,
माझ्या वाळवंटात वारा बनून ही येऊ नकोस मी बंद केलेय आता नात्यांचे वृक्षारोपण खोट्या सहानुभूती ची तिला आता गरज नाही.
किती संकटे आली, तरी बाई हिंमत सोडत नाही. तेवढी ती चिकट,चिवट असते.पण सहनशीलतेला ही मर्यादा असते.सहनशीलतेचा कडेलोट होतो तेव्हा बाई विहीर जवळ करते.त्या विहीरीची कणव कवयित्रीला येते.तिला विहीर शापित आई वाटते. गावातल्या किती लेकी -बाळींची दुःखे तिने पाहिली. त्यांना पदरात घेता घेता या आईचा पदर शापित झाला.ही भावना ‘शापित आईपण ‘या कवितेत त्यांनी मांडली
ज्यांच्यासाठी भूमी
दुभंगलीच नाही
अशा किती सीतांना
घेतले असेल सामावून
या विहिरींनी
आणि थंडावली असेल
तडफड
त्यांच्या रोजच्या मरणाची
आज ही विधवा बाईला समाजात मान नाही.प्रत्येक वेळी शरीरानेच सती कशाला जायला पाहिजे?बाईच्या जगण्याचा अधिकारच नवऱ्या मागे काढून घेतला जातो. तिचे जगणे उध्वस्त होऊन जाते. ‘आज ही बाई सती जातेच की’ या कवितेत कवयित्री समाजाचा एक विद्रुप चेहरा समोर आणतात.
पांढऱ्या कपाळाच्या बाईला
कुठे असतो अधिकार
मनासारखे जगण्याचा
देहावर इंद्रधनू सजविण्याचा
आज गाव आपला चेहरा बदलत आहे.नात्यात निबरपणा वाढला आहे.कोणाचे सोयरसुतक कोणाला नाही. हा आशय ‘काय झालंय माझ्या गावाला?’ या कवितेत मांडला आहे.
कुणी पेटता ठेवलाय
ज्याच्या त्याच्या मनात
हा द्वेषाचा अंगार
एकाच बांधावरच्या बोरी- बाभळी
फाडत सुटल्यात
प्रत्येक फांदीचं पानन् पान
त्याच कवितेत कवयित्री म्हणते,
कोरड्या विहिरीसारखा
विद्रुप झालाय गावाचा चेहरा
मलाही, सांभाळावेत ऋतू, बायका टाळतात बायकांना,शोधायला हवे,बायका प्रत्येक कविता मनात ठसणारी, विचार मांडणारी आहे.
‘हवाय नवा जन्म’ मधून नवी आशा,स्वप्न,नवी उमेद व्यक्त केली आहे.तिला वनवास संपवून फुलपाखरू व्हायचंय.तिला आपल्या वाटणीचा सूर्यप्रकाश हवा आहे.ही आशा कवितेतून मांडली आहे.
कवितेतून कवयित्री संवाद साधते आपलं मन मोकळं करते.कवयित्रीचे अनुभव विश्व संपन्न आहे.निरीक्षण उत्तम आहे हे कवितेतून आलेल्या प्रतिमा आणि प्रतिभेतून कळते. मनिषाच्या कविता मला खूप आवडतात.ती माझी मैत्रीण आहे.तिचा कवितासंग्रह अतिशय देखणा झाला आहे.या पुढे ही तिच्या हातून उत्तम साहित्य सेवा घडावी.तिला अनेक शुभेच्छा.
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुक़ून की तलाश। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 174 ☆
☆ सुक़ून की तलाश ☆
‘चौराहे पर खड़ी ज़िंदगी/ नज़रें दौड़ाती है / कोई बोर्ड दिख जाए /जिस पर लिखा हो /सुक़ून… किलोमीटर।’ इंसान आजीवन दौड़ता रहता है ज़िंदगी में… सुक़ून की तलाश में, इधर-उधर भटकता रहता है और एक दिन खाली हाथ इस जहान से रुख़्सत हो जाता है। वास्तव में मानव की सोच ही ग़लत है और सोच ही जीने की दिशा निर्धारित करती है। ग़लत सोच, ग़लत राह, परिणाम-शून्य अर्थात् कभी न खत्म होने वाला सफ़र है, जिसकी मंज़िल नहीं है। वास्तव में मानव की दशा उस हिरण के समान है, जो कस्तूरी की गंध पाने के निमित्त, वन-वन की खाक़ छानता रहता है, जबकि कस्तूरी उसकी नाभि में स्थित होती है। उसी प्रकार बाबरा मनुष्य सृष्टि-नियंता को पाने के लिए पूरे संसार में चक्कर लगाता रहता है, जबकि वह उसके अंतर्मन में बसता है…और माया के कारण वह मन के भीतर नहीं झांकता। सो! वह आजीवन हैरान-परेशान रहता है और लख-चौरासी अर्थात् आवागमन के चक्कर से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। कबीरजी का दोहा ‘कस्तूरी कुंडली बसे/ मृग ढूंढे बन मांहि/ ऐसे घट-घट राम हैं/ दुनिया देखे नांही’ –सांसारिक मानव पर ख़रा उतरता है। अक्सर हम किसी वस्तु को संभाल कर रख देने के पश्चात् भूल जाते हैं कि वह कहां रखी है और उसकी तलाश इधर-उधर करते रहते हैं, जबकि वह हमारे आसपास ही रखी होती है। इसी प्रकार मानव भी सुक़ून की तलाश में भटकता रहता है, जबकि वह तो उसके भीतर निवास करता है। जब हमारा मन व चित्त एकाग्र हो जाता है; उस स्थिति में परमात्मा से हमारा तादात्म्य हो जाता है और हमें असीम शक्ति व शांति का अनुभव होता है। सारे दु:ख, चिंताएं व तनाव मिट जाते हैं और हम अलौकिक आनंद में विचरण करने लगते हैं… जहां ‘मैं और तुम’ का भाव शेष नहीं रहता और सुख-दु:ख समान प्रतीत होने लगते हैं। हम स्व-पर के बंधनों से भी मुक्त हो जाते हैं। यही है आत्मानंद अथवा हृदय का सुक़ून; जहां सभी नकारात्मक भावों का शमन हो जाता है और क्रोध, ईर्ष्या आदि नकारात्मक भाव जाने कहां लुप्त जाते हैं।
हां ! इसके लिए आवश्यकता है…आत्मकेंद्रिता, आत्मचिंतन व आत्मावलोकन की…अर्थात् सृष्टि में जो कुछ हो रहा है, उसे निरपेक्ष भाव से देखने की। परंतु जब हम अपने अंतर्मन में झांकते हैं, तो हमें अच्छे-बुरे व शुभ-अशुभ का ज्ञान होता है और हम दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति पाने का भरसक प्रयास करते हैं। उस स्थिति में न हम दु:ख से विचलित होते हैं; न ही सुख की स्थिति में फूले समाते हैं; अपितु राग-द्वेष से भी कोसों दूर रहते हैं। यह है अनहद नाद की स्थिति…जब हमारे कानों में केवल ‘ओंम’ अथवा ‘तू ही तू’ का अलौकिक स्वर सुनाई पड़ता है अर्थात् ब्रह्म ही सर्वस्व है… वह सत्य है, शिव है, सुंदर है और सबसे बड़ा हितैषी है। उस स्थिति में हम निष्काम कर्म करते हैं…निरपेक्ष भाव से जीते हैं और दु:ख, चिंता व अवसाद से मुक्त रहते हैं। यही है हृदय की मुक्तावस्था… जब हृदय में उठती भाव-लहरियां शांत हो जाती हैं… मन और चित्त स्थिर हो जाता है …उस स्थिति में हमें सुक़ून की तलाश में बाहर घूमना नहीं पड़ता। उस मनोदशा को प्राप्त करने के लिए हमें किसी भी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि आप स्वयं ही अपने सबसे बड़े संसाधन हैं। इसके लिए आपको केवल यह जानने की दरक़ार रहती है कि आप एकाग्रता से अपनी ज़िंदगी बसर कर रहे हैं या व्यर्थ की बातों अर्थात् समस्याओं में उलझे रहते हैं। सो! आपको अपनी क्षमता व योग्यताओं को बढ़ाने के निमित्त अधिकाधिक समय स्वाध्याय व चिंतन-मनन में लगाना होगा और अपना चित्त ब्रह्म के ध्यान में एकाग्र करना होगा। यही है…आत्मोन्नति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग। यदि आप शांत भाव से अपने चित्त को एकाग्र नहीं कर सकते, तो आपको अपनी वृत्तियों को बदलना होगा और यदि आप एकाग्र-चित्त होकर, शांत भाव से परिस्थितियों को बदलने का सामर्थ्य भी नहीं जुटा पाते, तो उस स्थिति में आपके लिए मन:स्थिति को बदलना ही श्रेयस्कर होगा। यदि आप दुनिया के लोगों की सोच नहीं बदल सकते, तो आपके लिए अपनी सोच को बदल लेना ही उचित, सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम होगा। राह में बिखरे कांटों को चुनने की अपेक्षा जूता पहन लेना आसान व सुविधाजनक होता है। जब आप यह समझ लेते हैं, तो विषम परिस्थितियों में भी आपकी सोच सकारात्मक हो जाती है, जो आपको पथ-विचलित नहीं होने देती। सो! जीवन से नकारात्मकता को निकाल बाहर फेंकने के पश्चात् पूरा संसार सत्यम् शिवम्, सुंदरम् से आप्लावित दिखाई पड़ता है।
सो! सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहिए, क्योंकि बुरी संगति के लोगों के साथ रहने से बेहतर है… एकांत में रहना। ज्ञानी, संतजन व सकारात्मक सोच के लोगों के लिए एकांत स्वर्ग तथा मूर्खों के लिए क़ैद-खाना है। अज्ञानी व मूर्ख लोग आत्मकेंद्रित व कूपमंडूक होते हैं तथा अपनी दुनिया में रहना पसंद करते हैं। ऐसे अहंनिष्ठ लोग पद-प्रतिष्ठा देखकर, ‘हैलो-हाय’ करने व संबंध स्थापित करने में विश्वास रखते हैं। इसलिए हमें ऐसे लोगों को कोटिश: शत्रुओं सम त्याग देना चाहिए…तुलसीदास जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है।
मानव अपने अंतर्मन में असंख्य अद्भुत, विलक्षण शक्तियां समेटे है। परमात्मा ने हमें देखने, सुनने, सूंघने, हंसने, प्रेम करने व महसूसने आदि की शक्तियां प्रदान की हैं। इसलिए मानव को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति स्वीकारा गया है। सो! हमें इनका उपभोग नहीं, उपयोग करना चाहिए… सदुपयोग अथवा नि:स्वार्थ भाव से उनका प्रयोग करना चाहिए। यह हमें परिग्रह अर्थात् संग्रह-दोष से मुक्त रखता है, क्योंकि हमारे शब्द व मधुर वाणी हमें पल भर में सबका प्रिय बना सकती है और शत्रु भी। इसलिए सोच-समझकर मधुर व कर्णप्रिय शब्दों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि शब्द हमारे व्यक्तित्व का आईना होते हैं। सो! हमें दूसरों के दु:ख की अनुभूति कर उनके प्रति करुणा-भाव प्रदर्शित करना चाहिए। समय सबसे अनमोल धन है; उससे बढ़कर तोहफ़ा दुनिया में हो ही नहीं सकता… जो आप किसी को दे सकते हैं। धन-संपदा देने से अच्छा है कि आप उस के दु:ख को अनुभव कर उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करें तथा प्राणी-मात्र के प्रति स्नेह-सौहार्द भाव बनाए रखें।
स्वयं को पढ़ना दुनिया का सबसे कठिन कार्य है… प्रयास अवश्य कीजिए। यह शांत मन से ही संभव है। ख़ामोशियां बहुत कुछ कहती हैं। कान लगाकर सुनिए, क्योंकि भाषाओं का अनुवाद तो हो सकता है, भावनाओं का नहीं…हमें इन्हें समझना, सहेजना व संभालना होता है। मौन हमारी सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम भाषा है, जिसका लाभ दोनों पक्षों को होता है। यदि हमें स्वयं को समझना है, तो हमें ख़ामोशियों को पढ़ना व सीखना होगा। शब्द ख़ामोशी की भाषा का अनुवाद तो कर ही नहीं सकते। सो! आपको खामोशी के कारणों की तह तक जाना होगा। वैसे भी मानव को यही सीख दी जाती है कि ‘जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों, तभी मुंह खोलना चाहिए।’ मानव की ख़ामोशी अथवा एकांत में ही हमारे शास्त्रों की रचना हुई है। इसीलिए कहा जाता है कि अंतर्मुखी व्यक्ति जब बोलता है, तो उसका प्रभाव लंबे समय तक रहता है… क्योंकि उसकी वाणी सार्थक होती है। परंतु जो व्यक्ति अधिक बोलता है, व्यर्थ की हांकता है तथा आत्म-प्रशंसा करता है… उसकी वाणी अथवा वचनों की ओर कोई ध्यान नहीं देता…उसकी न घर में अहमियत होती है, न ही बाहर के लोग उसकी ओर तवज्जो देते हैं। इसलिए अवसरानुकूल, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने की दरक़ार होती है, क्योंकि जब आप सोच-समझ कर बोलेंगे, तो आपके शब्दों का अर्थ व सार्थकता अवश्य होगी। लोग आपकी महत्ता को स्वीकारेंगे, सराहना करेंगे और आपको चौराहे पर खड़े होकर सुक़ून की तलाश …कि• मी• के बोर्ड की तलाश नहीं करनी पड़ेगी, बल्कि आप स्वयं तो सुक़ून से रहेंगे ही; आपके सानिध्य में रहने वालों को भी सुक़ून की प्राप्ति होगी।
वैसे भी क़ुदरत ने तो हमें केवल आनंद ही आनंद दिया है; दु:ख तो हमारे मस्तिष्क की उपज है। हम जीवन-मूल्यों का तिरस्कार कर प्रकृति से खिलवाड़ व उसका अतिरिक्त दोहन कर, स्वार्थांध होकर दु:खों को अपना जीवन-साथी बना लेते हैं और अपशब्दों व कटु वाणी द्वारा उन्हें अपना शत्रु बना लेते हैं। हम जिस सुख व शांति की तलाश संसार में करते हैं, वह तो हमारे अंतर्मन में व्याप्त है। हम मरुस्थल में मृग- तृष्णाओं के पीछे दौड़ते-दौड़ते हिरण की भांति अपने प्राण तक गंवा देते हैं और अंत में हमारी स्थिति ‘माया मिली न राम’ जैसी हो जाती है। हम दूसरों के अस्तित्व को नकारते हुए संसार में उपहास का पात्र बन जाते हैं; जिसका दुष्प्रभाव दूसरों पर ही नहीं, हम पर ही पड़ता है। सो! संस्कृति को संस्कारों की जननी स्वीकार, जीवन- मूल्यों को अनमोल जानकर जीवन में धारण कीजिए, क्योंकि लोग तो दूसरों की उन्नति करते देख उनकी टांग खींच, नीचा दिखाने में ही विश्वास रखते हैं। उनकी अपनी ज़िंदगी में तो सुक़ून होता ही नहीं और वे दूसरों को भी सुक़ून से नहीं जीने देते हैं। अंत में, मैं महात्मा बुद्ध का उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी। एक बार उनसे किसी ने प्रश्न किया ‘खुशी चाहिए।’ उनका उत्तर था पहले ‘मैं’ का त्याग करो, क्योंकि इसमें ‘अहं’ है। फिर ‘चाहना’ अर्थात् ‘चाहता हूं’ को हटा दो, यह ‘डिज़ायर’ है, इच्छा है। उसके पश्चात् शेष बचती है, ‘खुशी’…वह तुम्हें मिल जाएगी। अहं का त्याग व इच्छाओं पर अंकुश लगाकर ही मानव खुशी को प्राप्त कर सकता है, जो क्षणिक सुख ही प्रदान नहीं करती, बल्कि शाश्वत सुखों की जननी है।’ हां! एक अन्य तथ्य की ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी कि ‘इच्छा से परिवर्तन नहीं होता; निर्णय से कुछ होता है तथा निश्चय से सब कुछ बदल जाता है और मानव अपनी मनचाही मंज़िल अथवा मुक़ाम पर पहुंच जाता है।’ इसलिए दृढ़-निश्चय व आत्मविश्वास को संजोकर रखिए; अहं का त्याग कर मन पर अंकुश लगाइए; सबके प्रति स्नेह व सौहार्द रखिए तथा मौन के महत्व को समझते हुए, समय व स्थान का ध्यान रखते हुए अवसरानुकूल सार्थक वाणी बोलिए अर्थात् आप तभी बोलिए, जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों…क्योंकि यही है–सुक़ून पाने का सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम मार्ग, जिसकी तलाश में मानव युग-युगांतर से भटक रहा है।