☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २२ – ऋचा ५ ते ८ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २२ ऋचा ५ – ८
ऋषी – मेधातिथि कण्व : देवता सवितृ
आज मी आपल्यासाठी मेधातिथि कण्व या ऋषींनी सवितृ देवतेला उद्देशून रचलेल्या ऋग्वेदाच्या पहिल्या मंडळातील बाविसाव्या सूक्तातील पाच ते आठ या ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे.
☆ बाबू समझो ईशारे, हारन पुकारे पम पम… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆
… साठच्या दशकातील मुंबईचा हा ट्राम चा फोटो मला फेसबुकवर दिसला… मन भुतकाळात गेले… कितीतरी बालपणीच्या आठवणी त्या ट्रामशी निगडीत होत्या त्या एकेक मनचक्षूसमोर उभ्या राहत गेल्या…. मला आठवतंय ते किंग्ज सर्कल, आताचा माहेश्वरी उद्यान,ते काळा घोडा, आताचं जहांगीर आर्ट गॅलरीचा परिसर इतका तिचा प्रवासाचा पल्ला असे… हमरस्ताच्या मधोमध लोखंडी पट्ट्याच्या , रेल्वे लाईन सारख्या खाचा पडलेल्या मार्गिका होती. त्यात आठ चाकांची ट्राम खडखड करत येजा करत असे… ट्राम टर्मिनस (T.T.) म्हणून परेल टी. टी., दादर टी. टी. राणीबाग. टी. टी. सायन टी. टी. आणी फ्लोरा फाउंटन टी. टी. अशी मुख्य ठिकाणी ट्रामचा मोठा पसारा असे…ट्राम स्टेशनस होते… अधे मधे प्रत्येक नाका, चौकात, थिएटर जवळ, मार्केट जवळ स्टेशन असत…माळा असलेली, आणि नसलेली स्वरुपात ह्या ट्राम फिरत असत… दोन्ही टोकाकडे उतर दक्षिण चालक उभ्यानेच दोन्ही हातांने हॅंडल फिरवित असे.. बहुधा एक लिवरचा आणि दुसरा ब्रेकचा अशी ती हॅंडलची रचना असावी… शिवाय पायात एक नाॅब असे.. हॅन्ड गियर काम करत असे… चालक एकच आणि वाहक दोन असत… आताची लोकल आणि ट्राम जवळपास सारखी फक्त ट्राम ला डबे नव्हते… अगदी संथगतीने ट्राम धावत असे… चालत्या ट्राम मधून बऱ्याच वेळेला हवे तिथे धीराचे लोक चढ उतरतं करत असतं…मोठमोठाल्या खिडक्या, दारं, संपूर्ण लाकडाच्या बनावटीची अशी हि ट्राम एका लय पकडून धावत असे.. पाच पैसे तिकीट असताना मी प्रवास त्यातून केलेला मला चांगलाच आठवतो…रविवार सुट्टीच्या दिवशी तर दोन तास फेरफटका त्यातून केल्या शिवाय दिवस मावळत नसे.. खूप गंमतीशीर अनुभव येत असे.. हळूहळू मुंबईची वस्ती वाढू लागली आणि वाहतूकही वाढली.. रस्तावर गर्दी वाढत गेली.. रस्ते दुतर्फा वाढविण्यासाठी ट्रामची जागा बळकावली गेली आणि आणि सन 1966/67च्या आसपास ट्रामची घरघर बंद झाली…
आजही जुन्या हिंदी सिनेमात मुंबई दर्शन दिसताना ती धावणारी ट्रामची छबी पाहिली कि आठवणींची जिंगल बेल मनात कुठेतरी वाजत असते…
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सवाल पर बवाल…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 140 ☆
☆ सवाल पर बवाल… ☆
डूबती नैया पर सवारी करने का फल यही होता है कि आपको अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए कोई सही तर्क ही नहीं मिलता और आप कुतर्कों के सहारे जुबानी जंग जीतने की कोशिश करने लग जाते हैं। किंतु आजकल तो हर बात रिकॉर्डेड होती जा रही, जरा सी चूक होने पर आपका अगला- पिछला सब कारनामा सामने हाजिर हो जाता है। अब तो अपनी बात पर अड़िग रहें या शब्दों की वापसी की घोषणा करते हुए कह दें कि मेरा ये मतलब नहीं था, मीडिया ने तोड़-मरोड़ कर मेरी बात को प्रस्तुत किया है।
इन्हीं चर्चाओं के बीच बहुत से प्रश्न और खड़े हो जाते हैं जिनका स्पष्टीकरण किसी के पास नहीं होता क्योंकि यहाँ भी अक्ष पर घूमने का सिद्धांत कार्य कर रहा होता है जो आज यहाँ है वो कल कहाँ होगा ये वो भी नहीं जानता है बस चलते रहो का अनुसरण करते हुए स्वयं को लाभान्वित करना मुख्य लक्ष्य होता है।
कहते हैं जो कार्य करेगा उस पर सवाल होगा, सो सवालों से न बचते हुए उसे हल करने की ओर चलें। वैसे भी आप किसी भी विचारधारा के हों आपको अनुयायी मिल ही जाते हैं। किसी भी मुद्दे को पकड़ कर उस पर पाँच साल तो क्या पूरा जीवन गुजारा जा सकता है, बस उसके इर्द- गिर्द मायाजाल रचते रहिए, समस्याओं को हल करने की ओर यदि आप लगे तो निश्चित है कि कुचक्र का शिकार होंगे अतः ऐसा कार्य करें जो आपको व्यस्त तो रखे साथ ही रोज नए सवालों को भी पैदा करता रहे, जब सवाल होंगे तो वबाल होगा और दिन – रात की तरह आजीवन मनुष्य गतिशील रहकर विचारों का मंथन करते हुए अपने को उपयोगी बनाए रखेगा।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – अनंत तक भाग देते रहिए शेष बच ही जायेगा …।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 200 ☆
आलेख – अनंत तक भाग देते रहिए शेष बच ही जायेगा …π –
विश्व पाई दिवस के अवसर पर, जर्सी साइंस म्यूजियम के रास्ते पर फुटपाथ में लगा यह π की वैल्यू वाला प्रतीक 14 मार्च को पूरी दुनिया विश्व पाई दिवस मनाती है। पाई डे की खोज सबसे पहले विलियम जोंस ने की थी।
विश्व पाई दिवस हर साल 14 मार्च को गणितीय स्थिरांक पाई को पहचानने के लिए मनाया जाता है। पाई का अनुमानित मान 3.14 है। पाई डे 2023 की थीम इस बार Mathematics for Everyone है, जिसका प्रस्ताव फिलीपींस के ट्रेस मार्टियर्स सिटी नेशनल हाई स्कूल से मार्को जर्को रोटायरो ने दिया था।
जब तारीख को महीने/दिन के प्रारूप (3/14) में लिखा जाता है ( अमेरिकन स्टाइल यही है) तो यह पाई मान के पहले तीन अंकों – 3.14 से मेल खाता है।
हर वर्ष 14 मार्च 1:59:26 बजे विश्व पाई दिवस मनाया जाता है। क्योंकि इस वक्त दिन और समय का मान 3.1415926 होता है। और इस तरह 14 मार्च को पाई का मान सात अंकों तक शुद्ध पाया जाता है। अर्थात 3.1415926.
पाई एक ग्रीक लेटर है, जिसका प्रयोग मैथमेटिकल कॉन्स्टैंट के तौर पर होता है।
पाई के मूल्य की गणना सबसे पहले गणितज्ञ, आर्कमिडीज ऑफ सिरैक्यूज ने की थी। इसे बाद में वैज्ञानिक समुदाय ने स्वीकार किया जब लियोनहार्ड यूलर ने 1737 में पाई के प्रतीक का इस्तेमाल किया। 14 मार्च का दिन इसलिए भी खास है, क्योंकि इस दिन ही महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन का जन्म हुआ था।
फिजिसिस्ट लैरी शॉ ने 1988 में इस दिन को मान्यता दी थी। यूनाइटेड स्टेट्स हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स ने 14 मार्च को पाई दिवस के रूप में मनाना शुरू किया और इसी तरह यूनेस्को ने भी पाई दिवस को ‘अंतर्राष्ट्रीय गणित दिवस’ के रूप में मनाना शुरू किया।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री सुकीर्ति भटनागर जी के बाल उपन्यास “धरोहर” की पुस्तक समीक्षा।)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ बाल उपन्यास ‘धरोहर‘– सुश्री सुकीर्ति भटनागर ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
☆ समीक्षा- धरोहर के महत्व को रेखांकित करता उपन्यास ☆
उपन्यास का लेखन सबसे सरलतम विधा है। मगर उसके कथानक की बनावट और उपकथाओं का सृजन अपेक्षाकृत कठिन कार्य है। यदि इसका सृजन सरलता, सहजता व प्रवाह के साथ कर लिया जाए तो उपन्यास की रचना पूरी हो जाती है। तभी उपन्यास की गल्प रचना मुकम्मल और उत्कृष्ठ होती है।
उपन्यासकार को उपन्यास के कथानक में लिखने यानी विचार व्यक्त करने की संपूर्ण आजादी मिली होती है। वह अपने भावों, अपने विचारों और मनोरथ को अपनी मर्जी से उपन्यास की कथावस्तु में पिरो सकता है। उसका जो मन्तव्य हो उससे उपन्यास में डाल सकता है। इसी मन्तव्य से उपन्यास की सार्थकता सिद्ध होती है।
यदि बड़ों के लिए उपन्यास लिखा जाए तो उसमें संपूर्ण लेखकीय आजादी से कार्य किया जा सकता है। मगर यदि उपन्यास लेखन बालकों के लिए किया जाना है तो वह सबसे दुरुह यानी कठिन कार्य होता है। बच्चों के लिए लिखने में लेखक को बच्चा बनना पड़ता है। तब बच्चों के लिए लेखन किया जा सकता है।
बच्चों के लिखे लिए लिखे जाने वाले गल्फ के लिए उसकी कथा बहुत स्पष्ट होनी चाहिए। वह बच्चों को स्पष्ट रुप में समझ में आ जाए। उसमें कोई कहानी हो। वह उसे अपनी-सी लगे। तभी बच्चा उपन्यास पढ़ने को लालयित होता है।
बच्चों के उपन्यास का आरंभ रोचक कथावस्तु के साथ होना चाहिए। उसे पढ़ते ही बच्चे में उत्सुकता जागृत हो जाए। वह आरंभ पढ़ते ही पूरा उपन्यास पढ़ने को लालयित हो। उस भाग के आरंभ के साथ एक जिज्ञासा का आरंभ और अंत में समाधान हो जाए। दूसरे भाग में दूसरी जिज्ञासा का आरंभ हो जाए। यह सिलसिला हरेक भाग में चले, तभी उपन्यास सार्थक होता है।
उपन्यास की भाषा शैली सरस, सहज हो। उसमें रस की प्रधानता हो। वाक्य छोटे-छोटे हो। इस दृष्टि से प्रस्तुत उपन्यास धरोहर की समीक्षा करते हैं। जिसको लिखा है प्रसिद्ध उपन्यासकार सुकीर्ति भटनागर जी ने। उपन्यास को इस कसौटी पर करते हैं तब हम देखते हैं कि धरोहर उपन्यास की अपनी एक स्पष्ट कथावस्तु है। यह आरंभ से ही इसकी कथा में उत्सुकता जगाए रखती है।
उपन्यास का कथानक स्पष्ट है। एक गांव में कुछ अनिष्ट और अनैतिक रूप से घटित घटना होती है। जिसका समाधान धरोहर उपन्यास का बालपात्र अपने हिसाब व तरीके से करता है। इसी कथानक पर पूरे उपन्यास की कथावस्तु को बुना गया है।
उपन्यास के बाल पात्र अपनी समझ के अनुरूप समस्या का निरूपण करते हैं। उसी समस्या के द्वारा इसके सहायक पात्र उस समस्या का समाधान तक पहुँचते हैं। इस बीच अनेक उतार-चढ़ाव व समस्याएं आती हैं। उनका समाधान भी होता चला जाता हैं।
मसलन- उपन्यास की हरेक भाग में एक समस्या आती है। उसका समाधान अंत में हो जाता है। तत्पश्चात दूसरे भाग में दूसरी समस्या उत्पन्न होती है। उसका समाधान के साथ एक अन्य नई समस्या उत्पन्न हो जाती है।
इस तरह पूरा उपन्यास सरल, सहज व प्रवाहमई गति से जिज्ञासा जगाते हो आगे बढ़ता है।
उपन्यास की भाषा सरल व सहज है। कहीं-कहीं मुहावरेदार भाषा का प्रयोग किया गया है। जहां आवश्यक हुआ है वर्णन के साथ-साथ उपयुक्त संवाद का प्रयोग किया गया है।
कुल मिलाकर देश की धरोहर की अनमौलता और उसकी उपयुक्तता को सहेजने के रूप में लिखा गया उपन्यास पाठकीय दृष्टि से बेहतर बन पड़ा है। 114 पृष्ठ के उपन्यास का मूल्य ₹250 बालकों के हिसाब से ज्यादा है।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है होली पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता –“दूर जड़ों से हो कर…”।)
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण ग़ज़ल – “फ़ागुन में रंग…”।