(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। कोशिश करो कि जिंदगी पहेली नहीं कि सहेली बन जाये।।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 57 ☆
☆ मुक्तक ☆ ।। कोशिश करो कि जिंदगी पहेली नहीं कि सहेली बन जाये ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆
☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २१ (इंद्राग्नि सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २१ (इंद्राग्नि सूक्त )
ऋषी – मेधातिथि काण्व : देवता – इंद्र, अग्नि
ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील एकविसाव्या सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी इंद्रदेवतेला आणि अग्निदेवतेला आवाहने केलेली आहेत. त्यामुळे हे सूक्त इंद्राग्नि सूक्त म्हणून ज्ञात आहे.
(हे सूक्त व्हिडीओ गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे.. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे. त्यामुळे आपल्याला गीत ऋग्वेदातील नवनवीन गीते आणि इतरही कथा, कविता व गीते प्रसारित केल्या केल्या समजू शकतील. चॅनलला सबस्क्राईब करणे निःशुल्क आहे.)
☆ महा-सम्राट… श्री विश्वास पाटील ☆ परिचय – सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆
पुस्तकाचे नाव – महा-सम्राट
लेखक -विश्वास पाटील
खंड पहिला – झंझावात (छत्रपती शिवरायांच्या जीवनावरील कादंबरी माला)
प्रकाशक – मेहता पब्लिशिंग हाऊस प्रा.लि., १९४१, सदाशिव पेठ, माडीवाले काॅलनी. पुणे ४११०३०
प्रकाशन काल -१ आॅगस्ट २०२२
किंमत – रू.५७५/-
या पुस्तकाचा पहिला भाग आपल्याला शहाजी महाराजांच्या काळातील बऱ्याच गोष्टी सांगून जातो शहाजीराजे मंदिर निजामशाही, आदिलशाही या दोन्ही ठिकाणी कामगिरी गाजवलेले एक मातब्बर सरदार म्हणून माहीत होते. परंतु या पुस्तकात सुरुवातीलाच त्यांनी लढलेल्या अनेक लढाया, गाजवलेले शौर्य आणि त्यांची मनातून असणारी स्वातंत्र्याची ओढ याविषयी अगदी परिपूर्ण माहिती मिळते. शिवराय आपल्या पिताजींबरोबर बंगळूर येथे फक्त सहा वर्षापर्यंत होते. त्यानंतर राजमाता जिजाऊ सह ते पुनवडी म्हणजेच पुणे येथे आले. आणि खरा स्वराज्याचा इतिहास सुरू झाला. पण त्यासाठी त्यांच्या आधीच्या काळात शहाजीराजे किती झगडले हे या पुस्तकात वाचायला मिळते. पुरंदर, जावळी, प्रबळगड, पेमगिरी अशा विविध ठिकाणी त्यांनी युध्दे खेळली.तसेच जे राजकारण केले ते या पुस्तकातून कळते. गुलामगिरी विरुद्ध पहिला एल्गार त्यांनी केला. शिवरायांना स्फूर्ती देणारे हे त्यांचे पिताजी! परक्यांची चाकरी करताना त्यांच्या मनात केवढी मोठी खंत होती हे वाचताना जाणवते.
जिजाऊंच्या माहेरच्या माणसांची त्यांना वैर घ्यावे लागले पण ज्या मुस्लिम राज्यांची त्यांनी सरदारकी पत्करली होती त्यासाठी कर्तव्य म्हणून त्यांनीही युद्ध केली.
शहाजीराजांना घोड्यांची चांगली पारख होती सारंगखेड्याच्या घोड्यांचा बाजार भरत असेल तेथे “दिल पाक” नावाचा अश्व शहाजीराजांनी खरेदी केला होता.
आदिलशाही, निजामशाही आणि मुगल शाही या तीनही मुसलमानी शाह्यांना तोंड देत 30-40 वर्षे शहाजीराजांनी कार्य केले होते. शिवबांना लहानपणीच स्वराज्याचे बाळकडू जिजामातेकडून कसे मिळाले त्याचेही वर्णन या कादंबरीत खूप छोट्या छोट्या प्रसंगातून दिसून येते.
या पुस्तकाचा शेवटचा भाग राजगड ही स्वराज्याची पहिली राजधानी कशी घडली. तसेच शिवरायांनी छोटे-मोठे किल्ले घेत घेत स्वराज्याची पायाभरणी कशी केली हे सांगतो. अफजल खान महाराजांच्या भेटीसाठी येण्याच्या प्रसंगाचे वर्णन या पुस्तकात शेवटच्या भागात आहे शिवरायांचे वैशिष्ट्य हे की त्यांनी चांगले विचार स्वराज्य स्थापनेसाठी दिले. अफजलखानाच्या वधा नंतर ‘देहाचे शत्रुत्व संपले’ या विचाराने त्याची कबर प्रतापगडाच्या पायथ्याशी बांधण्यासाठी वेगळी जागा शिवरायांनी दिली.
शिवरायांच्या जीवनावरील कादंबरी मालेतील या पहिल्याच झंजावातात आपल्याला शिवरायांचा इतिहास पुन्हा एकदा नव्याने वाचण्याचा आनंद मिळतो!
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 172☆
☆ आत्मनियंत्रण–सबसे कारग़र☆
‘जो अपने वश में नहीं, वह किसी का भी गुलाम बन सकता है’ मनु का यह कथन आत्मावलोकन करने का संदेश देता है, क्योंकि जब तक हम अपने अंतर्मन में नहीं झाँकेगे; अपनी बुराइयों व ग़लतियों से अवगत नहीं हो पाएंगे। उस स्थिति में सुधार की गुंजाइश कहाँ रह जाएगी? यदि हम सदैव दूसरों के नियंत्रण में रहेंगे, तो हमारी इच्छाओं, आकांक्षाओं व तमन्नाओं की कोई अहमियत नहीं रहेगी और हम गुलामी में भी प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। वास्तव में स्वतंत्रता में जीवंतता होती है, पराश्रिता नहीं रहती और जो व्यक्ति स्व-नियंत्रण अर्थात् आत्मानंद में लीन रहता है, वही सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ होता है। इसलिए पक्षी पिंजरे में कभी भी आनंदित नहीं रहता; सदैव परेशान रहता है, क्योंकि आवश्यकता है–अहमियत व अस्तित्व के स्वीकार्यता भाव की। सो! जो व्यक्ति अपनी परवाह नहीं करता; ग़लत का विरोध नहीं करता तथा हर विषम परिस्थिति में भी संतोष व आनंद में रहता है; वह जीवन में कभी भी उन्नति नहीं कर सकता।
‘बहुत कमियां निकालते हैं हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाक़ात ज़रा आईने से भी कर लें।’ जी हाँ! आईना कभी झूठ नहीं बोलता; सत्य से साक्षात्कार कराता है। इसलिए मानव को आईने से रूबरू होने की सलाह दी जाती है। वैसे दूसरों में कमियां निकालना तो बहुत आसान है, परंतु ख़ुद को सहेजना-सँवारना अत्यंत कठिन है। संसार में सबसे कठिन कार्य है अपनी कमियों को स्वीकारना। इसलिए कहा जाता है ‘ढूंढो तो सुकून ख़ुद में है/ दूसरों से तो बस उलझनें मिलती हैं।’ इसलिए मानव को ख़ुद से मुलाक़ात करने व ख़ुद को तलाशने की सीख दी जाती है। यह ध्यान अर्थात् आत्म-मुग्धता की स्थिति होती है, जिसमें दूसरों से संबंध- सरोकारों का स्थान नहीं रहता। यह हृदय की मुक्तावस्था कहलाती है, जहां इंसान आत्मकेंद्रित रहता है। वह इस तथ्य से अवगत नहीं रहता कि उसके आसपास हो क्या रहा है? यह आत्मसंतोष की स्थिति होती है, जहां स्व-पर व राग-द्वेष का स्थान नहीं रहता।
ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ना दूसरों से ग़िला कीजिए।’ शायद इसीलिए कहा जाता है कि बुराई को प्रारंभ में जड़ से मिटा देना चाहिए, वरना ये कुकुरमुत्तों की भांति अपने पाँव पसार लेती हैं। सो! उलझनों को शांति से सुलझाना कारग़र है, अन्यथा वे दरारें दीवारों का आकार ग्रहण कर लेती हैं। शायद इसीलिए यह सीख दी जाती है कि मतभेद रखें, मनभेद नहीं और मन-आँगन में दीवारें मत पनपने दें।
मानव को अपेक्षा व उपेक्षा के व्यूह से बाहर निकलना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियाँ मानव के लिए घातक हैं। यदि हम किसी से उम्मीद करते हैं और वह पूरी नहीं होती, तो हमें दु:ख होता है। इसके विपरीत यदि कोई हमारी उपेक्षा करता है और हमारे प्रति लापरवाही का भाव जताता है, तो वह स्थिति भी हमारे लिए असहनीय हो जाती है। सामान्य रूप में मानव को उम्मीद का दामन थामे रखना चाहिए, क्योंकि वह हमें मंज़िल तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होती है। परंतु मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं; ख़ुद से रखनी चाहिए, क्योंकि उसमें निराशा की गुंजाइश नहीं होती। विपत्ति के समय मानव को इधर-उधर नहीं झाँकना चाहिए, बल्कि अपना सहारा स्वयं बनना चाहिए– यही सफलता की कुंजी है तथा अपनी मंज़िल तक पहुंचने का बेहतर विकल्प।
‘ज़िंदगी कहाँ रुलाती है, रुलाते तो वे लोग हैं, जिन्हें हम अपनी ज़िंदगी समझ लेते हैं’ से तात्पर्य है कि मानव को मोह-माया के बंधनों से सदैव मुक्त रहना चाहिए। जितना हम दूसरों के क़रीब होंगे, उनसे अलग होना उतना ही दुष्कर व कष्टकारी होगा। इसलिए ही कहा जाता है कि हमें सबसे अधिक अपने ही कष्ट देते व रुलाते हैं। मेरे गीत की यह पंक्तियाँ भी इसी भाव को दर्शाती हैं। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा।’ इस संसार में इंसान अकेला आया है और उसे अकेले ही जाना है और ‘यह किराए का मकान है/ कौन कब तक यहाँ ठहर पाएगा।’
ज़िंदगी समझ में आ गई तो अकेले में मेला/ समझ नहीं आई तो मेले में भी अकेला अर्थात् यही है ध्यानावस्था में रहने का सलीका। ऐसा व्यक्ति हर पल प्रभु सिमरन में मग्न रहता है, क्योंकि अंतकाल में यही साथ जाता है। ग़लती को वह इंसान सुधार लेता है, जो उसे स्वीकार लेता है। परंतु मानव का अहं सदैव उसके आड़े आता है, जो उसका सबसे बड़ा शत्रु है। अपेक्षाएं जहां खत्म होती हैं: सुक़ून वहाँ से शुरू होता है। इसलिए रिश्ते चंदन की तरह होने चाहिए/ टुकड़े चाहे हज़ार हो जाएं/ सुगंध ना जाए, क्योंकि जो भावनाओं को समझ कर भी आपको तकलीफ़ देता है; कभी आपका अपना हो ही नहीं सकता। वैसे तो आजकल यही है दस्तूर- ए-दुनिया। अपने ही अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं, क्योंकि रिश्तों में अपनत्व भाव तो रहा ही नहीं। वे तो पलभर में ऐसे टूट जाते हैं, जैसे भुना हुआ पापड़। सो! अजनबीपन का एहसास सदा बना रहता है। इसलिए पीठ हमेशा मज़बूत रखनी चाहिए, क्योंकि शाबाशी व धोखा दोनों पीछे से मिलते हैं। बात जब रिश्तों की हो, तो सिर झुका कर जीओ। परंतु जब उसूलों की हो, तो सिर उठाकर जीओ, क्योंकि अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है। लेकिन नम्रता भी कम शक्तिशाली नहीं है, साधारण इंसान को फरिश्ता बना देती है।
दो चीज़ें देखने में छोटी नज़र आती हैं–एक दूर से, दूसरा गुरूर से। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलते हैं, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर उम्र निकल जाती है। सो! मानव को समय का सदुपयोग करना चाहिए, क्योंकि गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता। काश! लोग समझ पाते रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। सो! श्रेष्ठ वही कहलाता है, जिसमें दृढ़ता हो, पर ज़िद्द नहीं; दया हो, पर कमज़ोरी नहीं; ज्ञान हो, अहंकार नहीं। इसके साथ ही मानव को इच्छाएं, सपने, उम्मीदें व नाखून समय-समय पर काटने की सलाह दी गई है, क्योंकि यह सब मानव को पथ-विचलित ही नहीं करते, बल्कि उस मुक़ाम पर पहुंचा देते हैं, जहाँ से लौटना संभव नहीं होता। परंतु यह सब आत्म-नियंत्रण द्वारा संभव है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे…”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना “तुम समझो न समझो ये तुम जानो…”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 157 ☆
☆ “ तुम समझो न समझो ये तुम जानो…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆
.. अग थांब चारूलते! तो मनोहारी भ्रमर ते कुमुदाचे कुसुम खुडताना उडून गेला पण माझं लक्ष विचलित करून गेला. त्याकडे पाहता पाहता नकळत माझं पाऊल बाभळीच्या कंटकावर की गं पडले… आणि तो कंटक पायी रूतला.. एक हस्त तुझ्या स्कंधावरी ठेवून पायीचा रूतलेला कंटक चिमटीने काढू पाहतेय.. पण तो कसला निघतोय! अगदी खोलवर रुतून बसलाय.. वेदनेने मी हैराण झाले आहे बघ… चित्त थाऱ्यावर राहिना… आणि मला पुढे पाऊल टाकणे होईना.. गडे वासंतिका, तू तर मला मदत करतेस का?..फुलं पत्री खुडून जाहली आणि आश्रमी परतण्याच्या मार्गिकेवर हा शुल टोचल्याने विलंब होणारसे दिसतेय… तात पूजाविधी करण्यासाठी खोळंबले असतील..
.. गडे चारुलते! अगं तरंगिनीच्या पायी शुल रुतूनी बसला.. तो जोवरी बाहेर निघून जात नाही तोवरी तिच्या जिवास चैन पडणार कशी?.. अगं तो भ्रमर असा रोजचं तिचं लक्ष भुलवत असतो.. आणि आज बरोबर त्यानं डावं साधला बघ… हा साधा सुधा भ्रमर नव्हे बरं. हा आहे मदन भ्रमर . तो तरंगिनीच्या रूपावरी लुब्ध झालाय आणि आपल्या तरंगिनीच्या हृदयात तोच रुतलाय समजलीस… हा पायी रूतलेला शुल पायीचा नाही तर हृदयातील आहे… यास तू अथवा मी कसा बाहेर काढणार? त्याकरिता तो ऋषी कुमार, भ्रमरच यायला हवा तेव्हा कुठे शुल आणि त्याची वेदना शमेल बरं… आता वेळीच तरंगिनीच्या तातानां हि गोष्ट कानी घालायला हवी…आश्रम प्रथेनुसार त्या ऋषी कुमारास गृहस्थाश्रम स्वीकारायला सांगणे आले नाही तर तरंगिनीचे हरण झालेच म्हणून समजा.
गडे तंरगिनी! हा तुला रूतलेला मदन शुल आहे बरं तू कितीही आढेवेढे घेतलेस तरी आम्हा संख्यांच्या लक्षात आलयं बरं.. तो तुझ्या हृदय मंदिरी रुतून बसलेला तो ऋषी कुमार रुपी भ्रमराने तुला मोहविले आहे आणि तुझे चित्त हरण केलयं… हि हृदय वेदना आता थोडे दिवस सहन करण्याशिवाय गत्यंतर नाही.. पाणिग्रहण नंतरच हा दाह शांत होईल.. तो पर्यंत ज्याचा त्यालाच हा दाह सहन करावा लागतो..
.. चला तुम्हाला चेष्टा सुचतेय नि मला जीव रडकुंडीला आलाय… अश्या चेष्टेने मी तुमच्याशी अबोला धरेन बरं..
हो हो तर आताच बरं आमच्याशी अबोला धरशील नाहीतर काय.. त्या भ्रमराची देखील चेष्टा आम्ही करु म्हणून तूला भीती वाटली असणारं… आता काय आम्ही सख्खा परक्या आणि तो परका ऋषी कुमार सखा झालायं ना.. मग आमच्याशी बोलणचं बंद होणार…
.. चला पुरे करा कि गं ती थट्टा..आश्रमाकडे निघायचं पाहताय की बसताय इथंच . ..
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘अब अहिल्या को राम नहीं मिलते’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 112 ☆
☆ लघुकथा – अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
पुलिस की रेड पड़ी थी। इस बार वह पकड़ी गई। थाने में महिला पुलिस फटकार लगा रही थी – ‘ शर्म नहीं आती तुम्हें शरीर बेचते हुए? औरत के नाम पर कलंक हो तुम। ‘ सिर नीचा किए सब सुन रही थी वह। सुन – सुनकर पत्थर- सी हो गई है। पहली बार नहीं पड़ी थी यह लताड़, ना जाने कितनी बार लोगों ने उसे उसकी औकात बताई है। वह जानती है कि दिन में उसकी औकात बतानेवाले रात में उसके दरवाजे पर खड़े होते हैं पर —।
महिला पुलिस की बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था। उसे अपनी बात कहने का हक है ही कहाँ? यह अधिकार तो समाज के तथाकथित सभ्य समाज को ही है। उसे तो गालियां ही सुनने को मिलती हैं। वह एक कोने में सिर नीचे किए चुपचाप बैठी रही। बचपन में माँ गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या की कहानी सुनाती थी। एक दिन जब ऋषि कहीं बाहर गए हुए थे तब इंद्र गौतम ऋषि का रूप धरकर उनकी कुटिया में पहुँच गए। अहिल्या इंद्र को अपना पति ही समझती रही। गौतम ऋषि के वापस आने पर सच्चाई पता चली। उन्होंने गुस्से में अहिल्या को शिला हो जाने का शाप दे दिया। पर अहिल्या का क्या दोष था इसमें? वह आज फिर सोच रही थी, दंड तो इंद्र को मिलना चाहिए?
उसने जिस पति को जीवन साथी माना था, उसी ने इस दलदल में ढ़केल दिया। जितना बाहर निकलने की कोशिश करती, उतना धँसती जाती। अब जीवन भर इस शाप को ढ़ोने को मजबूर है। सुना है अहिल्या को राम के चरणों के स्पर्श से मुक्ति मिल गई थी। हमें मुक्ति क्यों नहीं मिलती? उसने सिर उठाकर चारों तरफ देखा। इंद्र तो बहुत मिल जाते हैं जीती-जागती स्त्री को बुत बनाने को, पर कहीं कोई राम क्यों नहीं मिलता?