हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #118 ☆ हाथ की मानव जीवन में उपयोगिता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 118 ☆

☆ ‌हाथ की मानव जीवन में उपयोगिता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

हिंदी भाषा में एक कहावत है, जो मानव जीवन में हाथ की महत्ता दर्शाती है ।

हाथ कंगन को आरसी क्या

पढ़ें लिखे को फारसी क्या।

सूरदास जी का यह कथन भीहाथ की महत्ता समझाता है जिसके पीछे विवशता, खीझ, तथा चुनौती का भाव स्पष्ट दिखाई देता है।

कर तो छुड़ाए जात हो, निर्बल जानि कै मोहि।

जौ हिरदय से जाहु तुम, तौ मर्द बखानौ तोहि।।

वैसे तो जीव जब योनियों में पलता है, तो उसका आकार प्रकार योनि गत जीवन व्यवहार वंशानुगत गुणों के आधार पर तय होता है और शारीरिक संरचना की बनावट अनुवांशिक गुणों के आधार पर तय होती है। जीव जगत के अनेक भेद तथा वर्गीकरण है। पौराणिक मान्यता के अनुसार चौरासी लाख योनियां है, जिसमें जलचर, थलचर, नभचर, कीट पतंगों तथा जड़ चेतन आदि है। सब की शारीरिक बनावट अलग-अलग है

रूप रंग का भी भेद है। हर योनि के जीव की आवश्यकता के अनुसार शारीरिक अंगों का विकास हुआ। इसी क्रम में मानव शरीर में हाथ का विकास हुआ, जिसे भाषा साहित्य के अनुसार हस्त, भुजा, पाणि, बाहु, कर आदि समानार्थी शब्दों से संबोधित करते हैं। चक्र हाथ में धारण करने के कारण भगवान विष्णु का नाम चक्रधर तथा चक्रपाणि पड़ा, तथा हमारे ‌षोडश संस्कारों में एक प्रमुख संस्कार पाणिग्रहण संस्कार भी है जिससे हमारे जीवन की दशा और दिशा तय होती है। आशीर्वाद की मुद्रा में उठे हुए हाथ जहां व्यक्ति के भीतर अभयदान के साथ प्रसन्नता प्रदान करता है वहीं दण्ड देने के लिए सबल के उठे हाथ आश्रित के हृदय में सुरक्षा का भरोसा दिलाते हैं।

हमारी पौराणिक मान्यता के अनुसार हाथ की बनावट तथा उसकी प्रकृति के बारे में हस्त रेखाएं बहुत कुछ कहती हैं। पौराणिक मान्यताओं अनुसार—–

कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती ।

करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम ॥

अर्थात् हाथ के अगले भाग में लक्ष्मी, मध्य में विद्या की देवी सरस्वती तथा कर के मूल में सृष्टि सृजन कर्ता ब्रह्मा का निवास होता है इस लिए प्रभात वेला में उठने के पश्चात अपना हाथ देखने से इंसान मुख दोष दर्शन से बच जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हाथ में ही सूर्य चंद्रमा बुध गुरु शुक्र शनि राहु केतु आदि नवग्रहों के स्थान निर्धारित है, जिसके उन्नत अथवा दबे हुए स्थान देख कर व्यक्ति जीवन के भूत भविष्य वर्तमान के घटनाक्रम की भविष्यवाणी की जाती है तथा नवग्रहों की शांति के लिए सबेरे उठ कर हमारे शास्त्रों में नवग्रह वंदना करने का विधान है, ताकि हमारा दिन मंगलमय हो।

ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानु: शशि भूमि सुतो बुधश्च।

गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतव सर्वे ग्रहा शांति करा भवंतु॥

हाथ जहां हमारे दैनिक जीवन की नित्य क्रिया संपादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं वहीं हाथ लोकोपकार करते हुए ,सबलों से निर्बलों की रक्षा करते हुए उद्धारक की भूमिका भी निभाते हैं, अपराधी को दंडित भी करते हैं। उसमें ही हस्त रेखा का सार छुपा बैठा है।

व्यक्ति के हाथ के मणिबंध से लेकर उंगली के पोरों तथा नाखूनों की बनावट व रेखाएं देखकर इंसान के जीवन व्यवहार की भविष्यवाणी एक कुशल हस्तरेखा विशेषज्ञ कर सकता है। हाथों का महत्व मानव जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तभी किसी विद्वान का मत है कि हाथों की शोभा दान देने से है कंगन पहनने से नहीं।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ कविता स्मरण… – बा. भ. बोरकर ☆ सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– कविता स्मरण… – बा. भ. बोरकर – ? ☆ सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆

बा. भ. बोरकर 

बोला कुणाकुणा हवे

फुलपाखरांचे थवे

जादूगार श्रावणाच्या

कर्णकुंडलीचे दिवे

निळे जांभळे तांबडे

जर्द पिवळे हिरवे

काळे पांढरे राखेरी

भुरे पोपटी पारवे

कोणी उन्हेरी चंदेरी

कोणी अंजिरी शेंदरी

मोरपिसापरी कोणी

वर्ख ल्यालेले भर्जरी

कुणी मख्मली मल्मली

कुणी वर्गंडी वायली

किनखापी मुलायम

कुणी शीतल सायली

कुणा अंगी वेलबुट्टी

चित्रचातुरी गोमटी

इंद्रधनूचेही वर्ण

होती पाहून हिंपुटी

वर्णलाघवाचे थवे

जाती घेत हेलकावे

कधी थांबून पुसती

फुलापानांची आसवे

कधी पिकलेल्या साळी

कधी साळकांची तळी

कधी लालगुंज रस्ता

जाती लंघून मंडळी

त्यांच्या लावण्याने दुणा

येथे श्रावणाचा हर्ष

अशा मोसमी गोव्यात

खरेच या एकवर्ष

पण धरायचा त्यांना

फक्त करावा बहाणा

सुखे बघत रहावा

सप्तरंगांचा तराणा

संग्राहिका: सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #178 – 64 – “हम मुहब्बत के फ़साने को यूं न रुस्वा करें…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “हम मुहब्बत के फ़साने को यूं न रुस्वा करें…”)

? ग़ज़ल # 64 – “हम मुहब्बत के फ़साने को यूं न रुस्वा करें…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

क्या पता था मुहब्बत  का  यह अंजाम होगा,

सूजी पलकों पर यह आख़िरी सलाम होगा। 

महकती फ़िज़ा कल तलक रोशनी पुरनूर थी,

बंद लिफ़ाफ़ा तुम्हारी जुदाई का पैग़ाम होगा।

हम मुहब्बत के फ़साने को यूं न रुस्वा करें,

सोचते क्यों नहीं इश्क़ हमारा बदनाम होगा।

अब कोर्ट के दर से फ़लाँ वल्द फ़लाँ गूंजेगा,

शर्तिया हमारा नाम अब नहीं गुमनाम होगा।

वो साथ उठते-बैठते खाते-पीते गुनगुनाते थे,

अब बैंक खातों का खुलासा सरे आम होगा।

दिन तो गुज़रेगा टूटे प्यालों को समेटने में,

शाम घिरते सूखे उदास होंठों पर जाम होगा।

भटकी ज़िंदगी बियाबान झाड़ी में उलझ गई,

आतिश आशिक़ी पर सितम हर बाम होगा। 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 56 ☆।।मत हारो मन को, कि हार के बाद मिलती जीत है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।। मत हारो मन को, कि हार के बाद मिलती जीत  है।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 56 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।। मत हारो मन को, कि हार के बाद मिलती जीत  है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

सदियों से ही चल, रही यही   रीत है।

हार के बाद ही, मिलती     जीत है।।

गर नहीं छोड़ी प्रीत, जोशो   जनून से।

सफलता बन जाती, हमारी   मीत है।।

[2]

परिश्रमऔर व्यवहार, यही दो  मंत्र हैं।

बुद्धिऔर विवेक, जीत के दो   तंत्र  हैं।।

सहयोग और सरोकार को बनाना मित्र।

साहस और उत्साह,जीत के दो यंत्र हैं।।

[3]

बनना सफल तो ,कर्मशीलता साथ रखो।

सबसे मिला कर हाथों में, तुम हाथ रखो।।

मंजिल खुद चलकर,पास तुम्हें बुलाती है।

बस निरंतर अभ्यास, का सूत्र याद रखो।।

[4]

व्यवहार लोकप्रियता, सिक्के के दो पक्ष हैं।

सफल  होते  वो  सब, जो बोलने में दक्ष हैं।।

जो अनूठा  कार्य  करते, वो स्थान बना लेते।

जीत का हार पहनते, जो रखते कुछ लक्ष्य हैं।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 119 ☆ कविता  – “प्रार्थना…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “दिखते जो है बड़े उन्हें वैसा न जानिये…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #120 ☆  कविता  – “प्रार्थना…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

भगवान तुम्हारी माया को जग समझ सके आसान नहीं ।

तुम करुणा के आगार अमित जिसका जग को अनुमान नहीं ।।

जग में माया का मायापति तुमने ऐसा विस्तार किया

कण कण में आकर्षण भर कर सबको सुन्दर संसार दिया।

पर नयन बावरे देख सकें इसका उनको तो भान नहीं ।। 1 ।।

दुनियाँ ने की उन्नति बहुत पर सच अब भी अज्ञानी है

विज्ञानी ने कीं खोज कई, पर तज न सका नादानी है।

उस पार तुम्हारी इच्छा के जा सकता है विज्ञान नहीं ॥ 2 ॥

लेकर एक सीमित आयु यहाँ प्राणी जग में क्यों आते हैं ?

रहते, हँसते, गाते, रोते फिर छोड़ चले क्यों जाते हैं?

अब भी रहस्य है उलझा सा, हो पाया अनुसंधान नहीं ॥। 3 ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 141 – शुक्रतारा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 141 – शुक्रतारा ☆

खुणावतो   शुक्रतारा

साद घाली मंद  वारा।

श्यामरंगी रंगलेला

हा निशेचा रंग न्यारा ।

तेज भारे उमलणारा

तारकांचा हा फुलोरा

रातराणीच्या फुलांनी

व्यापलेला गंध सारा।

रजनीकांता साद घाली

मुग्ध धुंद ही निशा रे।

भाव वेड्या या फुलांना

वेड लावी ही दिशा रे।

कल्पनेचे पंख न्यारे

मन मयूरा लाभले रे।

दंग झाले विश्व सारे

नृत्य छंदी व्यापले रे ।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ आर्ट अफेअर – डाॅ.मिलिंद विनोद ☆ परिचय – सौ. प्रभा हर्षे ☆

सौ. प्रभा हर्षे

 

☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ 

☆  आर्ट अफेअर – डाॅ.मिलिंद विनोद ☆ परिचय – सौ. प्रभा हर्षे ☆ 

पुस्तक   – “आर्ट अफेअर”

(कथासंग्रह/स्फुट लेखन संग्रह)

लेखक    – डॉ मिलिंद विनोद

प्रकाशक – नवचैतन्य प्रकाशन, मुंबई.

डॉ. मिलिंद विनोद यांचा ‘आर्ट अफेअर’ हा कथासंग्रह वाचण्याआधी त्यांचा परिचय व श्री लक्ष्मीकांत देशमुख यांनी लिहिलेली प्रस्तावना वाचली. उत्साहात मी पण पुस्तक वाचले आणि खूप आनंद झाला.

आनंद अशासाठी की डॉ. विनोद हे C.A.; C PA; P.HD; या पदव्या प्राप्त केलेले  प्रथितयश अर्थतज्ञ असूनही, अत्यंत सोप्या साध्या भाषेत त्यांनी सर्व लेखन केले आहे. कुठेही लटांबर वाक्ये नाहीत, बोजड शब्दरचना नाही, तरीही मूद्देसूद लेखन, आर्थिक विषयांवर असलेली पकड, रुक्ष माहितीही रंजकपणे सांगण्याची हातोटी, ही वैशिष्ट्ये कथांमध्ये तर दिसतातच, पण स्फुट लेखनात जास्त दिसतात. काही गोष्टींना दुबई / गल्फ कंट्रीची पार्श्वभूमी लाभली आहे. श्री विनोद यांच्या दुबईच्या वास्तव्याशी  जोडलेल्या कथा या संग्रहात आहेत, उदाहरणार्थ अँब्सेंट, Emirates अर्थात emi@rates या कथा.

ह्यातील ‘ अँब्सेंट ‘ ही कथा फार वेगळी आहे आणि मनाला चटका लावून जाते.  परिक्षेच्या हॉलमध्ये एका मुलाचे आईवडील येतात.  ते का बरं आले असावेत असा विचार करत असेपर्यंतच ते एका टेबलापाशी उभे रहातात.  त्या विद्यार्थ्याचे आय-कार्ड, हॉल टिकेट व एक गुलाबाचे फूल त्या जागेवर ठेवतात. एक मिनिट शांतता पाळून ते तिथून निघता निघता सांगतात, की दोन दिवसापूर्वी अपघातात निधन पावलेल्या विद्यार्थ्यांचे ते पालक आहेत. सर्व मुले आणि परिक्षक चित्रासारखे स्तब्ध होतात. हा मुलगा फक्त परिक्षेला अँब्सेंट नाही, तर आता तो त्यांच्या आयुष्यातूनच अँब्सेंट झाला आहे ह्या विचाराने लेखक खिन्न होतो.   १८-१९ वर्षाच्या मुलाचा मृत्यु सहन करणे कोणत्याही आईवडिलांना फार कठीण ! ही भावना आपल्यापर्यंत ही जशीच्या तशी पोहोचते.

अशीच ‘ Emirates ‘ ही रमेशच्या आयुष्याची  गोष्ट वाचण्यासारखी आहे. १२-१५ वर्षे  दुबईत राहिल्यानंतर

१९९८ च्या आर्थिक संकटात रमेशची नोकरी जाते. एक वर्ष तो तेथे कुटुंबाला घेऊन कसेबसे काढतो.  पण नाईलाजास्तव त्याला बायको व मुलांना मुंबईला पाठवावे  लागते. दोन वर्षानंतर तो सुट्टी घेऊन येतो तेव्हाची बदललेली बायकामुले पाहून तो खंतावून जातो. आर्थिक बदलांबरोबर नीतीमत्तेतीलही बदल तो परिस्थितीप्राप्त म्हणून मान्य करतो. ही खूप कठीण गोष्ट बाजूला सारून तो आयुष्य सावरण्यासाठीची धडपड परत करू लागतो…..  श्री. विनोदांच्या भाषेचे वैशिष्ट्य असे की जणू काही  घटनास्थळी आपणही प्रत्यक्ष हजर आहोत की काय असे वाटायला लागते. रमेशची सुखदुःखं आपलीच आहेत ही भावना बेचैन करते.

कथासंग्रहात  एकूण ८ कथा व ११ स्फुट लेख आहेत. 

सगळ्याच कथांचे विषयही  वेचक व वेधक आहेत. या सर्व मधमाश्याच्या पोळ्याची राणी आहे ‘आर्ट अफेअर’ ही कथा. एखाद्या वेगवान इंग्रजी थ्रिलरप्रमाणे कथा पुढे सरकत रहाते. खिस्तीजच्या ऑक्शनमध्ये एकाच कॅनव्हासवर मागे/पुढे काढलेले भगवान कृष्ण आणि गौतम बुद्ध  यांचे अतिशय वेगळ्या शैलीत काढलेले चित्र  विकावयास येते. अतर्क्य किमतीला हे पेंटिंग विकले जाणार, एवढ्यात सेलर ऐनवेळी चित्र ऑक्शन मधून विथड्रॉ  करतो. आणि एक जगप्रसिध्द चित्रकार उभ्या करत असलेल्या इन्स्टिट्यूटला, एका खाजगी कार्यक्रमात, भेट म्हणून देतो. हे सगळे का आणि कशासाठी हे प्रत्यक्ष गोष्टीतच वाचण्यासारखे आहे. माणसाच्या आयुष्याचा गुंता  लेखक सोडवत असताना वाचकही त्यात गुंततच जातो, आणि हीच त्या गोष्टीची जादू.

मिलिंद विनोद यांना माणसाच्या स्वभावाचा अभ्यास करायला आवडते. माणसाच्या वागण्याचे/कृतींचे ते निरीक्षण करतात, त्याचा विचार करतात, पर्यायांचाही विचार करतात, व त्यातून त्या पात्रांची  कथाबीजाला पोषक अशी वर्तनशैली बनते . मग कथा आश्चर्यकारकपणे पुढे सरकते व शेवटी वाचकाला चकित करून सोडते.  ‘Flagship of the group’ अशा या कथेचं नाव संग्रहाला दिले यातच सर्व काही आले. 

आर्ट अफेअरच्या बरीच जवळ जाणारी अजून एक रहस्यकथा म्हणजे ‘ फोटोप्लॉटर’ . लग्नाचा अल्बम वेळेवर येत नाही म्हणून फोटोग्राफरची शोधाशोध सुरू होते आणि त्यातून एक हाय टेक फायनान्शियल स्कॅमचा गुंता हातात येतो. पुढची गोष्ट लेखकाच्या शब्दातच वाचण्यात मजा आहे.

डॉ. विनोद यांचे स्फुट लेखनही स्वतंत्र विचारांचे आहे. देश सोडून जायचे असल्याने इतक्या वर्षांच्या सवयीच्या असलेल्या आयकिया स्टोअरच्या आठवणी, विमानतळावरील करोनाचा धमाका, द्वयर्थी इंग्रजी न समजल्यामुळे काहीही सांगणारी महिला, हिंदी गाण्यांवरचे प्रेम, अशा वेगवेगळ्या विषयांवर त्यांनी स्फुट लेखन केले आहे. ‘ अंकुर ‘ हा लेख अगदी तरल व भावस्पर्शी आहे. एक छोटे झाड जागा बदलताना हलले  जाते. लहान मुलासारखे तेही घाबरते. पण मायेचा स्पर्श, ऊब मिळाल्यावर त्याला छोटा अंकुर फुटतो…  सर्वच कल्पनारम्य आहे. दहा एक वाक्यात अतिशय संवेदनशील असा हा लेख आहे. असाच अजून एक लेख म्हणजे ‘ व्यथा बाबांची’ . सर्व आधुनिक बाबा ही अति बिझी माणसं !  मनात इच्छा असूनही त्यांना मुलांजवळ रहाता येत नाही. आता ते आजोबा झालेत तरी त्यांची मुले दूर आहेत, आणि त्यांच्या छोट्या नातवंडात ते आपलं मूल शोधताहेत. परिस्थिती कोणीही बदलू शकत नाही. आपल्या आठवणी मागे ठेवून मुले दूर जातात. त्या आठवणींच्या सोबत आयुष्य काढणे म्हणजे मनावर मोठा दगड ठेवणे, हे सर्व बाबाला करावे लागते. अपरिहार्य अशा ताटातुटीचे वर्णन वाचताना डोळ्यात पाणी आल्याशिवाय रहात नाही.

वेगळ्या विषयावरील कथा आणि दर्जेदार स्फुट लेखन ह्यामुळे हा कथासंग्रह वाचकांच्या पसंतीस नक्कीच उतरेल याबद्दल मला अजिबात शंका नाही. डॉ. मिलिंद विनोद यांच्या पुढच्या लेखनास माझ्या हार्दिक शुभेच्छा !

परिचय : सुश्री प्रभा हर्षे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #171 ☆ सब्र और ग़ुरूर ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सब्र और ग़ुरूर । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 171 ☆

☆ सब्र और ग़ुरूर

‘ज़िंदगी दो दिन की है। एक दिन आपके हक़ में और एक दिन आप के खिलाफ़ होती है। जिस दिन आपके हक़ में हो, ग़ुरूर मत करना और जिस दिन खिलाफ़ हो, थोड़ा-सा सब्र ज़रूर करना।’ सब दिन होत समान अर्थात् समय निरंतर चलता रहता है; परिवर्तनशील है; पल-पल रंग बदलता है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति सुख में कभी फूलता नहीं; अपनी मर्यादा व सीमाओं का उल्लंघन नहीं करता तथा अभिमान रूपी शत्रु को अपने निकट नहीं फटकने देता,क्योंकि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। वह दीमक की तरह बड़ी से बड़ी इमारत की जड़ों को खोखला कर देता है। उसी प्रकार अहंनिष्ठ मानव का विनाश अवश्यंभावी होता है। वह दुनिया की नज़रों में थोड़े समय के लिए तो अपना दबदबा क़ायम कर सकता है, परंतु एक अंतराल के पश्चात् वह अपनी मौत स्वयं मर जाता है। लोग उसके निकट जाने से भी गुरेज़ करने लगते हैं। इसलिए मानव को इस तथ्य को सदैव अपने ज़हन में रखना चाहिए कि ‘सुख के सब साथी दु:ख में न कोय।’ सो! मानव को सुख में अपनी औक़ात को सदैव स्मरण रखना चाहिए, क्योंकि सुख सदैव रहने वाला नहीं। वह तो बिजली की कौंध की मानिंद अपनी चकाचौंध प्रदर्शित कर चल देता है

इंसान का सर्वश्रेष्ठ साथी उसका ज़मीर होता है; जो अच्छी बातों पर शाबाशी देता है और बुरी बातों पर अंतर्मन को झकझोरता है। किसी ने सत्य ही कहा है कि ‘हाँ! बीत जाती है सदियाँ/ यह समझने में/ कि हासिल करना क्या है/ जबकि मालूम यह भी नहीं/ इतना जो मिला है/ उसका करना क्या है?’ यही है हमारे जीवन का कटु यथार्थ। हम यह नहीं जान पाते कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है; हम संसार में आए क्यों हैं और हमारे जीवन का प्रयोजन क्या है? इसलिए कहा जाता है कि अच्छे दिनों में आप दूसरों की उपेक्षा मत करें; सबसे अच्छा व्यवहार करें तथा इस बात पर ध्यान केंद्रित करें कि सीढ़ियां चढ़ते हुए बीच राह चलते लोगों की उपेक्षा न करें, क्योंकि लौटते समय वे सब आपको दोबारा अवश्य मिलेंगे। सो! अच्छे दिनों में ग़ुरूर अथवा अहं से दूर रहने का संदेश दिया गया है।

जब समय विपरीत दिशा में चल रहा हो तो मानव को थोड़ा-सा सब्र अथवा संतोष अवश्य रखना चाहिए, क्योंकि सुख वह आत्म-धन है; जो हमारी सकारात्मक सोच को दर्शाता है। इसलिए दु:ख को कभी अपना साथी मत समझिए, क्योंकि सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। एक के जाने के पश्चात्  ही दूसरा दस्तक देता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘जो सुख में साथ दें, रिश्ते होते हैं/ जो दु:ख में साथ दें, फरिश्ते होते हैं।’ विषम परिस्थितियों में कोई कितना ही क्यों न बोले; स्वयं को शांत रखें, क्योंकि धूप कितनी तेज़ हो; समुद्र को नहीं सुखा सकती। सो! अपने मन में मलिनता कभी भी न आने दें; समय जैसा भी है–अच्छा या बुरा गुज़र जाएगा।

विनोबा भावे के अनुसार ‘जब तक मन नहीं जीता जाता और राग-द्वेष शांत नहीं होते; तब तक मनुष्य इंद्रियों का गुलाम बना रहता है।’ सो! मानव को स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना होगा। इसके लिए वाशिंगटन उत्तम सुझाव देते हैं कि ‘अपने कर्त्तव्य में लगे रहना और चुप रहना बदनामी का सबसे अच्छा जवाब है।’ हमें लोगों की बातों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए,क्योंकि लोगों का काम तो दूसरों के मार्ग में कांटे बिछा कर पथ-विचलित करना है। यदि आप कुछ समय के लिए ख़ुद को नियंत्रित कर मौन का दामन थाम लेते हैं और तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देते, तो उसका परिणाम घातक नहीं होता। क्रोध तो दूध के उफ़ान की भांति आता है; जो पल भर में शांत हो जाता है। सो! मौन रह कर अपने कार्य को सदैव निष्ठा से करें और व्यस्त रहें– यही सबसे कारग़र उपाय है। इस प्रकार आप निंदा व बदनामी से बच सकते हैं। वैसे भी बोलना एक सज़ा है। इसलिए मानव को यथा-समय,यथा-स्थान उचित बात कहनी चाहिए ताकि हमारी प्रतिष्ठा व मान-सम्मान सुरक्षित रह सके। सच्ची बात यदि मर्यादा में रहकर व मधुर भाषा में बोल कर कही जाए, तो सम्मान दिलाती है; वरना कलह का कारण बन जाती है। ग़लत बोलने से मौन रहना श्रेयस्कर है और यही समय की मांग है। दूसरे शब्दों में वाणी पर नियंत्रण व मर्यादापूर्वक वाणी का प्रयोग मानव को सम्मान दिलाता है तथा इसके विपरीत आचरण निरादर का कारण बनता है।

कबीरदास के मतानुसार ‘सबद सहारे बोलि/ सबद के हाथ न पाँव/ एक सबद करि औषधि/ एक सबद करि घाव’ अर्थात् वाणी से निकला एक कठोर शब्द भी घाव करके महाभारत करा सकता है तथा वाणी की मर्यादा में रहकर बड़े-बड़े युद्धों पर नियंत्रण किया जा सकता है। आगे चलकर वे कहते हैं कि ‘जिभ्या जिन बस में करी/ तिन बस किये जहान/ नहीं तो औगुन उपजै/ कहें सब संत सुजान।’ इस प्रकार मानव अपने अच्छे स्वभावानुसार बुरे समय को टाल सकता है। दूसरी ओर ‘जे आवहिं संतोष धन,सब धन धूरि समान।’ रहीम जी का यह दोहा भी मानव को आत्म-संतुष्ट रहने की सीख देता है। मानव को किसी से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए,बल्कि जो मिला है अर्थात् प्रभु प्रदत्त कांटों को भी पुष्प-सम मस्तक से लगाना चाहिए और प्रसाद समझ कर ग्रहण करना चाहिए।

भगवद्गीता का यह संदेश अत्यंत सार्थक है कि ‘जो हुआ है, जो हो रहा है और जो होगा निश्चित अच्छा ही होगा।’ इसमें मानव कुछ नहीं कर सकता। इसलिए उसे नतमस्तक हो स्वीकारना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि ‘होता वही है जो मंज़ूरे ख़ुदा होता है।’ सो! उस परम सत्ता की रज़ा को स्वीकारने के अतिरिक्त मानव के पास कोई विकल्प नहीं होता है।

मीठी बातों से मानव को सर्वत्र सुख प्राप्त होता है और कठोर वचन का त्याग वशीकरण मंत्र है। तुलसी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। मानव को अपनी प्रशंसा सुन कर कभी गर्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह आपकी उन्नति के मार्ग में बाधक है। इसलिए कठोर वचनों का त्याग वह  वशीकरण मंत्र है; जिसके द्वारा आप दूसरों के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। सो! जीवन में मानव को कभी अहम् नहीं करना चाहिए तथा जो मिला है; उसी में संतोष कर अधिक की कामना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह मार्ग हमें पतन की ओर ले जाता है। दूसरे शब्दों में वह हमारे हृदय में राग-द्वेष के भाव को जन्म देता है और हम दूसरों को सुख-सुविधाओं से संपन्न देख उनसे ईर्ष्या करने लग जाते हैं तथा उन्हें नीचा दिखाने के अवसर तलाशने में लिप्त हो जाते हैं। इतना ही नहीं, हम अपने भाग्य को ही नहीं, प्रभु को भी  कोसने लगते हैं कि उसने हमारे साथ वह अन्याय अर्थात् अनर्थ क्यों किया है? दोनों स्थितियों में इंसान ऊपर उठ जाता है। उसे मनोवांछित फल प्राप्त होता है और वह जीते जी आनंद से रहता है। ग़मों व दु:खों की गर्म हवा का झोंका भी उसका स्पर्श नहीं कर पाता।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #170 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 170 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… ☆

रोटी

बच्चे मेरे चार है, दो रोटी है पास।

हिस्से उनके कर दिए, और बची है प्यास।।

गुलाब

खुशबू हमको घेरती, घेर रहे है ख्वाब।

महक रहा है बस यहाँ, प्यारा लाल गुलाब।।

मुँडेर

हमको तो आने लगी, काँव काँव आवाज।

बोले काग मुँडेर पर, पाती आती आज।।

पाती

पाती तो आई नहीं, बीत गई है शाम।

मन में हमने लिख दिया, तेरा विजयी नाम।।

पलाश

खिलते फूल पलाश के, बढ़ी बाग की शान।

देख उसे खिलने लगी, कलियों की मुस्कान।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #156 ☆ “हमें जो भाता है…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना  हमें जो भाता है। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 156 ☆

☆ हमें जो भाता है ☆ श्री संतोष नेमा ☆

तुम्हें  मुस्कराने  से  कौन  रोकता  है

तुम्हे दिल  लगाने से कौन  रोकता है

क्या होती है मोहब्बत तुम्हें पता नहीं

तुम्हे  आजमाने  से  कौन  रोकता  है

बात दिल की छिपाया न करो

डर हो तो दिल लगाया न करो

मुहब्बत कुछ चीज ही ऐसी है

इसे  यूँ  ही तुम गंवाया न करो

आईना देख कर संवरने लगे हैं

दिल  में  वो  मेरे  उतरने  लगे हैं

राज छुपते नहीं कभी छुपाने से

अब तो नजरों से बिखरने लगे हैं

प्यार कभी  ठुकराना  मत

बाधा  से    घबड़ाना   मत

बहकावे में कभी किसी के

तुम  जरा  भी   आना   मत

जो दिल में आता है  लिख देते हैं

हमें  जो   भाता  है   लिख  देते हैं

माँ  शारदे  देतीं    हैं   जब   प्रेरणा

कलम दिल चलाता है लिख देते हैं

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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