हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 127 ☆ बहुत जरूरी: मोह माया ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बहुत जरूरी: मोह माया । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 127 ☆

☆ बहुत जरूरी: मोह माया ☆ 

एक पद का भार तो सम्हाले नहीं सम्हलता  और आप हैं कि सारा भार मेरे ऊपर सौंप कर जा रहे हैं ।

अरे भई आपको मुखिया बनाना है पूरी संस्था का , वैसे भी सबको जोड़ कर रखने में आपको महारत हासिल है । बस इतना समझ लीजिए कि चुपचाप रहते हुए कूटनीति को अपनाइए ।इधर की ईंट उधर करते रहिए लोगों का जमावड़ा न हो पाए ।ज्यादा तामझाम की जरूरत नहीं है कमजोर कड़ी को तोड़कर मानसिक दबाब बनाइए । जब कार्य की अधिकता सामने वाला देखेगा तो घबराकर भाग जाएगा । बस फिर क्या आपका खोटा सिक्का भी चलने लगेगा । भीड़ तंत्र को प्रोत्साहित करिए ,संख्या का महत्व हर काल में रहेगा ।अब संघ परिकल्पना को साकार करते हुए आपको कई संस्थाओं का मुखिया बनना होगा ।

सब कुछ बन जाऊँ पर क्या करूँ मोह माया से बचना चाहता हूँ ।

मोह माया का साथ बहुत जरूरी है क्योंकि बिना माया काया व्यर्थ है । काया मोह लाती ही है ।

कुछ भी करो पर करते रहो ,आखिर मोटिवेशनल स्पीकर यही कहते हैं कि निरंतरता बनी रहनी चाहिए । आजकल तो रील वीडियो का जमाना है जो करना- कराना है इसी माध्यम से हो ताकि डिजिटल इम्प्रेशन भी बढ़े । जब लोग उपलब्धि के बारे में पूछते हैं तो बताने के लिए खास नहीं होता है ,अब तो हर हालत में विजेता का ताज पहनना है भले ही वो मेरे द्वारा प्रायोजित क्यों न हो ।

वाह, आप तो दिनों दिन होशियार होते जा रहें हैं, अब लगता है मुखिया बनकर ही मानेंगे ।

हाँ, अब थोड़ा- थोड़ा समझ में आ रहा है कि कुर्सी बहुत कीमती चीज है इसे पकड़ कर रखना है नहीं तो अनैतिक लोग नैतिकता का दावा ठोककर इसे हथिया लेंगे ।

बहुत खूब ऐसी ही विचारधारा बनाए रखिए ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 137 ☆ बाल कविता – सूरज जी नारंगी जैसे…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 137 ☆

☆ बाल कविता – सूरज जी नारंगी जैसे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

सूरज जी बच्चे – से बनकर

प्राची में  निकले हैं गोल।

नारंगी – से दिखें एकदम

जाने कितना इनका मोल।।

 

कोहरे की चादर में लिपटे

धीरे – धीरे ऊपर आए।

तुलसी अदरक चाय मिली तब

थोड़ा कोहरे से बच पाए।।

 

ज्यों – ज्यों बढ़ते ऊपर को तब

किरणें स्वर्णिम खूब बिखेरीं

शरद धूप तन उर्जित करती

सबके ही अनुकूल उजेरी।।

 

वर्षा गई उड़न छू गरमी

शरद ऋतु है मुस्काई।

छोटे दिन भी प्रीत लिख रहे

बहती शीतल पुरवाई।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #138 ☆ ज्ञानयोग..! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 138 ☆ ज्ञानयोग..! ☆ श्री सुजित कदम ☆

संतश्रेष्ठ मांदियाळी

नाम  माउलीचे घेऊ

ज्ञानदेव कृष्णरूप

काळजाच्या पार नेऊ…! १

 

संत निवृत्ती सोपान

मुक्ता बहिण धाकली

वंशवेल अध्यात्माची

भावंडात सामावली…! २

 

ग्रंथ भावार्थ दीपिका

तमा अखिल विश्वाची

संत कवी ज्ञानेश्वर

तेज शलाका ज्ञानाची..! ३

 

ग्रंथ अमृतानुभव

विशुद्धसे तत्वज्ञान

जीव ब्रम्ह ऐक्य साधी

माऊलींचे भाषा ज्ञान…! ४

 

मराठीचा अभिमान

कर्म कांड दूर नेली

ज्ञानेश्वरी सालंकृत

मोगऱ्याची शब्द वेली…! ५

 

नऊ सहस्त्र ओव्यांचा

कर्म ज्ञान भक्ती योग

दिला निवृत्ती नाथाने

अनुग्रह ज्ञानयोग…! ६

 

चांगदेव पासष्टीत

ज्ञाना करी उपदेश

पत्र पासष्ठ ओव्यांचे

अहंकार नामशेष…! ७

 

सांप्रदायी प्रवर्तक

योगी तत्वज्ञ माऊली

ग्रंथ अमृतानुभव

गीता साराची साऊली…! ८

 

भागवत धर्म तत्वे

अद्वैताचे तत्वज्ञान

आलें प्राकृत भाषेत

वेदांताचे  दैवी ज्ञान…! ९

 

चंद्रभागे वाळवंटी

अध्यात्मिक लोकशाही

पाया रचिला धर्माचा

सांप्रदायी राजेशाही…! १०

 

माऊलींची तीर्थ यात्रा

हरीपाठ बोधामृत

देणे पसाय दानाचे

अभंगांचे सारामृत…! ११

 

इंद्रायणी तीरावर

संपविला अवतार

संत ज्ञानेश्वर नाम

हरिरुप शब्दाकार…! १२

 

संजिवन समाधीचे

झाले चिरंजीव रूप

घोष माऊली माऊली

पांडुरंग निजरूप…! ,१३

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ रंगांची उधळण! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ?  रंगांची उधळण! ? ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक 

☆ 

सांजवेळी नभांगणी

होई रंगांची उधळण,

पाहून मज प्रश्न पडे

रंग त्यात भरी कोण ?

बघून स्वर्गीय नजारा

गुंग होऊन जाई मती,

नाना रंगांची वेशभूषा

वाटे मग ल्याली धरती !

पाहून न्यारी रंगसंगती

मन मोहरून जाई,

कुठला त्याचा कुंचला,

कुठली असेल शाई ?

अदृश्य अशा त्या हाती

असावा अनोखा कुंचला,

आपण फक्त हात जोडावे

त्या वरच्या रंगाऱ्याला !

फोटोग्राफर –  अस्मादिक

© प्रमोद वामन वर्तक

२५-११-२०२२

स्थळ – बेडॉक रिझरवायर, सिंगापूर.

मो – 9892561086, (सिंगापूर)+6594708959

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #159 – मन दर्पण में… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता  “मन दर्पण में…”। )

☆  तन्मय साहित्य  #159 ☆

☆ मन दर्पण में…

फूल, शूल, तरु-लता, पर्ण

इस मन के उपवन में

प्रिय-अप्रिय पल पाल रखे

कितने अंतर्मन में।

 

बन्द करी आँखें तो,

रंगबिरंगे स्वप्न दिखे

तब अन्तस्‌ अवचेतन ने

कुछ मधुरिम छंद लिखे,

उलझे रहे स्वकल्पित

गन्धों के अपनेपन में।

प्रिय-अप्रिय पल —-

 

हुआ उजाला दिन भर

हम सूरज के साथ चले

किया हिसाब सांझ को

तो, घाटे में हाथ मले,

देख चांदनी बहके फिर

बिलमाये नर्तन में।

प्रिय-अप्रिय पल —-

 

कभी विषैली हवा हमें

कुंठित कर जाती है

कभी जिंदगी सुरभित

फूलों सी मुस्काती है,

पल-पल बदले चित्र-विचित्र

दिखे मन दर्पण में।

प्रिय-अप्रिय पल —-

 

वही वही, फिर-फिर

जीवन भर करना पड़ता है

वह मेरा अबूझ जो है,

सब कैसे सहता है, 

आतुर भी आनंदित भी

अभिनव परिवर्तन में।

प्रिय अप्रिय पल पाल रखे

कितने अंतर्मन में।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 49 ☆ बुन्देली गीत – नाचो मोर… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण बुन्देली गीत “नाचो मोर…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 49 ✒️

? बुन्देली गीत – नाचो मोर…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

अंधियारौ छाओ चहुँओर ।

बन में खुस हो नाचो मोर॥॥

 

रंग-बिरंगे, पंखा जिनमें,

टकीं तरैयाँ भीतर उनमें,

‘लरकन बच्चन को चितचोर।

बन में………… ॥

 

करिया-करिया बदरा आये,

मोरन नें पंखा फैलाये,

मींऊँ-मींऊँ कौ हो रऔ सोर।

बन में………… ॥

 

मोर-मोरनी बन में नाचत,

जबईं ढोल बदरा के बाजत,

हौन लगी सतरंगी भोर।

बन में………… ॥

 

मुकुट-कान्ह के पंख विराजै,

भौत हमाये मन कौं साजै,

कलगी माथे धरी सिरमोर।

बन में………… ॥

 

साँची-साँची आज तैं बोल,

का लै है पंखन कौ मोल,

जंगल बनौ कय “सलमा” ठौर।

बन में………… ॥

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 59 – पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ।)   

☆ आलेख  # 59 – पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ…  ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

स्वयं को पढ़ना सबसे कठिन कार्य है, इसलिए कबीर कह गये कि

“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। 

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”

ज्ञान अगर पुस्तकों से मिलता तो गौतम बुद्ध ,एल्बर्ट आईंस्टीन और आचार्य रजनीश को किसी विश्वविद्यालय से मिलता, पेड़ के नीचे नहीं. प्रतिभा पुस्तकों से अगर मिलने लगती तो क्रिकेट साहित्य पढ़कर सचिन तेंदुलकर, संगीत शास्र पढ़कर लता मंगेशकर और शतरंज की पुस्तकें पढ़कर आनंद विश्वनाथन हजारों या लाखों की संख्या में आते रहते. ये बात अलग है कि सिर्फ वृक्ष के नीचे बैठने से ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता. मूलतः चिंतन, मनन और रिसर्च की प्रवृत्ति के साथ साथ वस्तु, व्यक्ति या घटनाओं का ऑब्जरवेशन महत्वपूर्ण है.

Creativity is important rather than copy and paste.

शायद इसलिए भी रचनाकार वही करिश्मा बार बार नहीं दोहरा पाते क्योंकि वे नया रचने का जोखिम लेने से बचना चाहते हैं. तो जो हिट हुआ है, उसकी सीरीज़ बनाते रहते हैं और पैसे कमाते रहते हैं पर ये तो वणिकता है, रचनात्मकता नहीं.

पुस्तकें जानकारियों का संग्रह होती हैं जैसे कि आज के युग में गूगल. पर अविष्कार की ताकत न गूगल में है न ही पोथियों में. वे तो एक बार ही सजीव थीं जब लिखी गईं पर फिर तो जड़ हो गईं और उनसे ज्यादा जड़ता तो उनमें है जो आँख बंद कर वही पढ़े जा रहे हैं, वही रटे जा रहे हैं और वही बोले जा रहे हैं. उससे आगे सोचना बंद कर वही पर्याप्त है ऐसी धारणा बना चुके हैं. ऐसे जड़ लोगों से बेहतर तो वायरस हैं जो अपने आपको निरंतर अपडेट करते रहते हैं. ओमिक्रान, कोरोना का अपडेट है. मनुष्य जब तक वेक्सीन बनाकर, टेस्ट करने के बाद पूर्ण वेक्सीनेशन तक पहुंचेगा, उससे पहले ही ये अपना अगला वरस  वर्जन लेकर मार्केट में आ जाते हैं. तुम डाल डाल हम पात पात. हमारे पास तो कहावतें भी पीढ़ियों पुरानी हैं.

सनातन का प्रयोग तो धर्म नामक शब्द के साथ ज्यादा प्रचलित है जिसका भावार्थ यही है कि जो सदा नूतन हो, नदी के समान प्रवाहित होता रहे न कि कुंये के समान जड़ रहे.  कुयें की इसी जड़ता से शब्द बना है “कूपमंडूकता ” गहरा पर चारों तरफ से घिरा हुआ. याने बंधन, प्रोटोकॉल, सीमा को ही अंतिम क्षमता मान लेने की मानसिकता. इसलिये ही कुएं की नहीं नदियों की पूजा होती है, उन्हें माता का सम्मान दिया जाता है, पवित्रता का पर्याय माना जाता है,  स्थिरता नहीं बल्कि प्रवाह, निरंतरता, नूतनता ही सम्मान पाते है. क्योंकि ये सीमाओं के बंधनों से मुक्त हैं. संपूर्ण अंतरिक्ष गतिशील है और समय भी.ये गतिशीलता ही जीवन है और जीवन का सत्य भी. Move on बहुत नयी तो नहीं पर बहुत पुरानी कहावत भी नहीं है.

सुप्रभात, आपके जीवन में नूतनता से भरा दिवस शुभ हो.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 159 ☆ नातं ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 159 ?

☆ नातं ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

“अकारणच जवळीक दाखवली!”

असे वाटून जाते,

आजकाल!

 

निष्कारणच Attitude दाखवत,

निघून गेलेली ती…..

रिक्षात बसल्यावर ,

कसा करेल इतक्या प्रेमाने आपल्याला हात??

हे लक्षात यायला हवं होतं !

पण प्रतिक्षिप्त क्रियेसारखा….

उंचावला जातो हात…

पण तिचं पुढचं वाक्य ऐकून जाणवतं,

अरे, ती इतर कुणाशी बोलतेय,

 आपल्या पाठीमागे असलेल्या !

 

किती फसवी असतात ना,

ही नाती??

काल परवाच सांगितले,

गूज मनीचे,

पाश असतात कुठले, कुठले !

शेअर केल्या काही गोष्टी,

की , शांत होते मन!

आणि गळामिठी घातलीच जाते,

त्या “हमराज” मैत्रीणीला !

 

 पण नाती रहात नाहीत

आता इतकी निखळ,

पूर्वीही व्हायच्याच कुरबुरी…भांडणं

रूसवेफुगवे!

…..पण आजकाल दर्प येतात,

अहंकाराचे!

याच प्रांगणात खेळ सुरू झाले होते…

पण “जो जिता वही सिकंदर”

म्हणत पहात रहायची लढाई,

बेगुमान!

या युद्धात सहभागी व्हायचेच

नसतेच खरेतर!

पण युद्ध अटळ मैत्रीतही !

जो तो समजत असतो,

 स्वतःला रथी महारथी ! ….नसतानाही !

आपण सांगून टाकतो

आपले अर्धवट ज्ञान…

म्हणूनच आपला होतोच,

अभिमन्यू!

मैत्रीच्या नात्यातही !

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 115 – गीत – क्षण को क्यों बचा लिया ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत –क्षण को क्यों बचा लिया।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 115 – गीत – क्षण को क्यों बचा लिया ✍

अर्पित अगर किया है जीवन

तो क्षण को क्यों बचा लिया।

 

क्षण का ही विस्तार समय है

प्रेम नहीं कुछ केवल लय हैं

विलय अगर कर दिया स्वयं का

तो मन को क्यों बचा लिया?

 

मन का मधुबन ही तो सच है

तन का क्या वह मात्र कवच है

सौंप दिया है मन मधुबन

तो तन को ही क्यों बचा लिया।

 

अर्पित अगर किया है जीवन

क्षण को क्यों बचा लिया।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 117 – “रिस रही है धूप…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “रिस रही है धूप।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 117 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “रिस रही है धूप” || ☆

खास जरदोजी

चिकन के

हम बँधे हैं फूल

चोटी में रिबन के

 

जहाँ अम्बर व

वनस्पति में हँसी है

जो समयकी

शिराओं में जा बसी है

 

हृदय में उल्लास

की उठती तरंगें

बिम्ब हैं लटके गगन

हम पीत दिन के

 

रिस रही है धूप

चुपचाप छप्पर से

हो रही है भीड़

वापस इस शहर से

 

बिखरती जूड़े से

व्यव्हल रोशनी

केश फैले ज्यों दिखे

हों नव किरन के

 

ताँम्बियाँ संध्या

बदल कर नई साड़ी

खींचने में लगी

दिन की बड़ी गाड़ी

 

औरअस्ताचल

पहुँच कर खोजती

कुन्तलों में छोर

खोंसी गई पिनके

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

17-11-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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