मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १८ (ब्रह्मणस्पति सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १८ (ब्रह्मणस्पति सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १८ (ब्रह्मणस्पति सूक्त)

ऋषी – मेधातिथि कण्व : देवता – आप्री देवतासमूह 

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील अठराव्या सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी ब्रह्मणस्पति, इंद्र, सोम, दक्षिणा व सदसस्पति अशा विविध देवतांना  आवाहन केलेले आहे. तरीही  हे सूक्त ब्रह्मणस्पति सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. 

मराठी भावानुवाद : 

सो॒मानं॒ स्वर॑णं कृणु॒हि ब्र॑ह्मणस्पते । क॒क्षीव॑न्तं॒ य औ॑शि॒जः ॥ १ ॥

उशिजसूत कुक्षीवानाने सोम तुला अर्पिला

प्रसन्न होई ब्रह्मणस्पते स्वीकारूनी हवीला

कल्याणास्तव त्यांच्या देई आशीर्वच भक्तां

कुक्षीवानासम त्यांना रे देई तेजस्वीता ||१||

यो रे॒वान्यो अ॑मीव॒हा व॑सु॒वित्पु॑ष्टि॒वर्ध॑नः । सः नः॑ सिषक्तु॒ यस्तु॒रः ॥ २ ॥

स्वामी असशी संपत्तीचा व्याधींचा हर्ता

साऱ्या जगताचा तू असशी समर्थ पालनकर्ता

द्रव्य अमाप तुझिया जवळी भक्तांचा तू त्राता

अमुच्या वरती ब्रह्मणस्पते ठेवी आशिषहस्ता ||२||

मा नः॒ शंसो॒ अर॑रुषो धू॒र्तिः प्रण॒ङ्‍ मर्त्य॑स्य । रक्षा॑ णो ब्रह्मणस्पते ॥ ३ ॥

कुटिलांची किती दुष्कृत्ये अन् क्षोभक दुर्वचने 

बाधा करण्या आम्हाला ती सदैव दुश्वचने

कवच तुझे दे ब्रह्मणस्पते अभेद्य आम्हाला 

तू असशी रे समर्थ अमुचे संरक्षण करण्याला ||३||

स घा॑ वी॒रो न रि॑ष्यति॒ यमिंद्रो॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑ । सोमो॑ हि॒नोति॒ मर्त्य॑म् ॥ ४ ॥

ब्रह्मणस्पती, शचीपती अन् सोम श्रेष्ठ असती

समस्त मनुजा राखायाला सदैव सिद्ध असती

ज्यांच्या वरती कृपा तिघांची ते तर भाग्यवंत

अविनाशी ते कधी तयांच्या भाग्या नाही अंत ||४||

त्वं तं ब्र॑ह्मणस्पते॒ सोम॒ इंद्र॑श्च॒ मर्त्य॑म् । दक्षि॑णा पा॒त्वंह॑सः ॥ ५ ॥

रक्ष रक्ष हे ब्रह्मणस्पते इंद्र सोम दक्षिणा

मनुष्य प्राणी मोहांभवती घाली प्रदक्षिणा

कळत असो व नकळत घडती पापे हातूनी 

संरक्षण आम्हासी देउनिया न्यावे तारूनी ||५||

सद॑स॒स्पति॒मद्‍भु॑तं प्रि॒यमिंद्र॑स्य॒ काम्य॑म् । स॒निं मे॒धाम॑यासिषम् ॥ ६ ॥

प्रज्ञारूपी सदसस्पतीची मैत्री इंद्राशी 

अद्भुत आहे शौर्य तयाचे भिववी शत्रूसी

काय वर्णु औदार्य तयाचे प्रसन्न भक्तांशी

भाग्य लाभले सन्निध झालो आहे त्याच्यापाशी ||६||

यस्मा॑दृ॒ते न सिध्य॑ति य॒ज्ञो वि॑प॒श्चित॑श्च॒न । स धी॒नां योग॑मिन्वति ॥ ७ ॥

आम्हा लाभे बुद्धीमत्ता तयाची कृपा ही

आपुलकीने बहु प्रीतीने आम्हा तो पाही

सिद्ध कराया यज्ञायागा ज्ञानिहि समर्थ नाही

असेल त्याचे सहाय्य तर हे सहजी साध्य होई ||७||

आदृ॑ध्नोति ह॒विष्कृ॑तिं॒ प्राञ्चं॑ कृणोत्यध्व॒रम् । होत्रा॑ दे॒वेषु॑ गच्छति ॥ ८ ॥

अर्पण केल्या हविसी देई पूर्ण सफलता तो

यज्ञकार्यीच्या न्यूनालाही सांभाळुनिया घेतो 

अर्पण करुनीया  देवांसी हविर्भाग अमुचा

त्याच्या पायी होत सिद्धता यज्ञाला अमुच्या ||८||

नरा॒शंसं॑ सु॒धृष्ट॑म॒मप॑श्यं स॒प्रथ॑स्तमम् । दि॒वो न सद्म॑मखसम् ॥ ९ ॥

नराशंस हा अती पराक्रमी दिगंत त्याची कीर्ति

द्यूलोकच जणू तेजस्वी किती भव्य तयाची कांती

दर्शन त्याचे मजला घडले धन्य जाहलो मनी

प्रसन्न होउन कृपा करावी हीच प्रार्थना ध्यानी ||९||

(हे सूक्त व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे. )

https://youtu.be/TDVCUNhPGKM

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Rugved :: Mandal :: 1 :: 18 |||| ऋग्वेद :: मंडल १ :: सुक्त १८

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ गरज सरो… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ गरज सरो… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

मोडलेली गलबतं

“अगं माझं जरा ऐकतेस का?अशी सारखी सारखी मान वेळावून त्या दूर निघालेल्या गलबतांकडे कशासाठी पाहतेस?

आणि सारखे सारखे ऊसासे टाकतेस! त्यानं काही फरक पडणार आहे असं वाटतं तुला! वेडी आहेस झालं;अगं आता आपण मोडकळीस आलेलो शीडं फाटलेली गलबतं आहोत मालकाच्या दृष्टीने… म्हणून तर तुला नि मला या धक्काच्या कडेला नुसते उभे केलं आहे.. सागराच्या भरतीला लाटांच्या तडाख्यात आपण पाण्यात आडवे पडून हळूहळू हळूहळू पाणी आत शिरल्यावर आपण जड होऊन तळाशी खोल खोल बुडून जाणार आहोत.. आता आपली गरज संपलीय त्याच्या दृष्टीने… जो पर्यंत आपला सांगडा मजबूत दणकट होता तोपर्यंत त्यानं व्यापारउदीम करिता आपल्याला वापरुन घेतले आणि आज उपयोग नसल्यावर, नुसत्या सांगाडयाची देखभालीचा फुकटचा खर्च कोण करील… शिडाचं गलबत भंगारात चवलीच्या किंमतीला सुदधा कोणी घेत नाही..मग तिथं कोण कुणासाठी नि कशासाठी जिवाचा निरर्थक आटापिटा करेल… तरी बरं सागर अजूनही शांत बसून राहिला आहे… भरतीच्या लाटा किती भयानक असतात पण त्या देखील शांत होऊन पहुडल्या आहेत… कुणी नाही निदान सागराला तरी आपली दयामाया दाखवता आली आहे…”काही काळ असाच गेला पुन्हा सगळयांचं रूटीन सुरू. झाले… दोन्ही गलबतांच्या कृष्ण छाया त्यांच्याच पायदळी उतरल्या… 

.. अन अचानक लाटांवर लाटा धक्क्यावर येऊन आदळू लागल्या… महा प्रचंड लाटांच्या तडाख्यात शिडाची गलबत धक्क्यावर जोर जोरात आपटू लागली… आता शीडचं काय पण तो सगळा गलबताचा सांगडा छिन्नविछिन्न होउन गेला.. त्याचा एकेक अवषेश तुटून दूर दूर फेकला गेला काही जमिनीवर तर काही पाण्यात आता गलबताला खरी मुक्ती मिळाली… अन मालकाच्या चेहऱ्यावर हसू फुलले. चला इतके दिवस दोन निरूपयोगी गलबतांनी अडवलेली धक्कयाची जागा आता रिकामी झाली… गलबतावरील ते भगवे निशाण मात्र पाण्यावर दिमाखात डोलताना दिसत होते… 

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470.

ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 135 ☆ आमंत्रण के बहाने ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आमंत्रण के बहाने। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 135 ☆

☆ आमंत्रण के बहाने 

मान- मनुहार के बीच रिश्तों को निभाने की परम्परा आजकल डिजिटल होती जा रही है, ये तो अच्छी बात है, किन्तु बोलते समय मन में क्या है, ये साफ पता चल जाता है। बुलाने की औपचारिकता भी निभानी है और सामने वाला आए भी न।

आप कल के कार्यक्रम में आ रहे हैं न?

सामने वाले ने कहा, देखिए कुछ घरेलू कार्य है, यदि समय पर पूरा हो गया तो अवश्य आएंगे।

बस फोन कट गया, अब दोनों अपने- अपने मन का करने के लिए स्वतंत्र हैं।

इसी तरह एक और बुलावा आता है आप सपरिवार आइयेगा।

चलो भाई एक साथ कई कार्य निपटाने हैं, बहुत दिनों से उनके यहाँ गए नहीं थे सो मिलना भी हो जाएगा। किन्तु यहाँ की स्थिति उससे भी उलट निकली, मेजबान को इतनी जल्दी थी कि जल्दी से अपने घर में आयोजित की गयी पार्टी को निपटाकर खुद दूसरे के घर मेहमान के रूप में पहुँच गए। अब आपका मेहमान यदि वर्किंग डे होने के कारण देर से पहुँचता है तो वो क्या करे ?आप तो बुलाने के लिए इतने उत्साहित थे कि मेजबानी का क्या धर्म होता है ये भी भूल गए।

ये सब तो नए युग के चलन का हिस्सा है क्योंकि अब क्या कहेंगे लोग सबसे बड़ा रोग इस वाक्य को हमने केवल मोटिवेशनल थीम तक ही लागू नहीं किया है, इसे अपनी सुविधानुसार हम जब चाहें इस्तेमाल करने लगे हैं। क्या ये सब आधुनिक होने की निशानी है या केवल आमंत्रित करने की औपचारिकता है ?

इन स्थितियों का सामना आजकल हर जगह देखने को मिल रहा है, संस्कार और नैतिकता को ताक में रखकर बस स्वयं पर केंद्रित होना अच्छी बात है,cकिन्तु सामान्य से शिष्टाचार को भी यदि निभाना न आए तो गूगल से ही सही मेजबान बनने से पहले सीखें अवश्य है।

इस सबमें मेहमानों को भी अपने धर्म का पालन करना अवश्य आना चाहिए, बिगड़ी बात को बनाने हेतु मुस्कुराते रहें, सकारात्मक होकर हर अवसर का आनन्द उठाएँ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 196 ☆ व्यंग्य  – चले गए अंग्रेज पर — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य  – चले गए अंग्रेज पर —) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 196 ☆  

? व्यंग्य  – चले गए अंग्रेज पर —?

(प्रत्येक लेखक की प्रथम रचना लेखक के लिए अविस्मरणीय होती है। हमें आपकी प्रथम रचना साझा करने में अत्यंत प्रसन्नता होगी। आज हम व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी की प्रथम व्यंग्य रचना आपसे साझा कर रहे हैं।)    

लार्ड मैकाले का भयंकर कहकहा, सुनकर मेरा सपना ‘टूटा नींद, खुली तो देखा कि जिसे मैंने लार्ड मैकाले का कहकहा समझा था वह शिक्षित बेरोजगार ‘गोपाल जो नौकरी न मिलने से पागल हो गया है, की भयानक हंसी है।

इलेक्ट्रीसिट बोर्ड की कृपा से पंखा बंद हो गया है। और स्वास्थ्य विभाग की कृपा से मच्छर मच्छरदानी में हैं। छिडकाव के लिए आया डी. डी. टी. कहां गया अधिकारियों की जेबों में और फाइलों में “मस्तिष्क ज्वर, पर पूर्ण नियंत्रण हो चुका क्योंकि हजारों रुपये खर्च हो गये।

उफ! मैं तो सिहर उठता हूं रात का यह स्वप्न सोचकर, मैं शायद किसी डाक्टर की शिकायत लेकर सिविल सर्जन से मिलने अस्पताल गया था, वहां शायद हैजा विरोधी अभियान चल रहा था। मुझे जबदस्ती टीका लगा दिया जाता है मिलावट का परिणाम हो या ‘आरक्षित सीट’ से बने डाक्टर साहब की कृपा पर मैं बेहोश होकर गिर पड़ता हूँ,  इधर “पिछड़े वर्ग” के “स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी वर्ग के ये डाक्टर साहब मुझे मृत घोषित कर देते हैं। जब मुझे सफेद चादर से लपेट दिया जाता है, तो मैं चिल्लाना चाहता हूँ की मैं जिंदा हूँ, पर मैं मृत होने का नाटक ही करना अच्छा समझता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूं कि यह सरकारी अस्पताल है यहां जो निर्णय एक बार हो जाते है। वो इतनी आसानी से बदलते नहीं।

तो साहब मैं यमपुरी पहुंच जाता हूँ, वहां पहुंचते ही किसी फट्टा छाप सिनेमा टाकीज के गेट कीपर की तरह के दादा दरबान मुझे भीतर घुसने से रोकते हैं “अभी तो तुम्हारी मौत का आर्डर ही नहीं निकला।” पर मुझे तो यम लोक की सैर करनी थी, रोब गालिब करते हुए मैने कहा क्या एम. बी. बी. एस. डाक्टर से भी ज्यादा होशियार हो? देखो सरकारी अस्पताल के रजिस्टर में मैं मर चुका था। इसका उपयुक्त प्रभाव पड़ा और मैं यमपुरी में प्रवेश पा गया। सहमा सा मैं आग बढ़ा ही था कि सामने से एक अफसर किस्म का अंग्रेज भूत, मुंह में सिंगार थामें आता दिखा। मैंने अपने एडवांस होने का परिचय दिया- हाय। उसने गर्म जोशी, से कर-मर्दन किया, ग्लेड टू मीट यू, माई सेल्फ लार्ड मैकाले। मैंने उसे ऊपर से नीचे तक  देखा, पर तब तक वह मुझे सामने वाले कैफेटोरिया में ‘टी’ आफर कर चुका था और बरबस मैं उसके साथ टेबल की ओर बढ़ा। चाय ‘सिप’ करते हुए उन्होंने कहा कि वह बहुत दिनों से किसी इण्डियन की तलाश में है और वह जानना चाहते हैं, कि क्या वहां उनकी बाबू बनाने वाली शिक्षा प्रणाली ही चल रही है,  क्या अभी भी उसी तरह शिक्षा के नाम पर बस डिग्री धारी ही पैदा हो रहे हैं?

फिर उन्होंने पूछा कि क्या भारतीय अब भी मुस्कराकर अंग्रेजी बोलने में अपना गौरव समझते हैं? बात-बात पर सॉरी कहे बिना सोसाइटी आदमी को अर्वाचीन आदम को समझती है।  मुझे इन सवालों के सच्चे सकारात्मर उत्तर देने में बड़ी घुटन महसूस हो रही थी, इसलिये मैंने कहा – “पर मैकाले साहब अब आप भी सुन लीजिये कि हम आपकी इस अंग्रेजीयत के और ज्यादा गुलाम नही रहेंगे। हमारे नेता अफसर जल्दी से जल्दी हिंदी लाने का प्रयास कर रहे हैं।”

मैं कुछ और कहता इससे पहले ही मैकाले फिर बोल उठा – “क्यों भूलता है कि तुम अंग्रेजियत की गुलामी नहीं छोड़ सकता। हमने जो अंग्रेजी नाम रखा, बिल्डिंग,  कालेज, रोड का वो तक तो तुम नही बदल सके आज तक, इंडिया गेट से, गेट वे आफ इंडिया तक।”

(रचना तिथि : 21/9/ 1980, जन्म तिथि : 28/7/59)

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 146 ☆ वेदवाणी माँ सरस्वती… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’… ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 146 ☆

वेदवाणी माँ सरस्वती… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

वेदवाणी माँ सभी का

आप ही जीवन सँवारो।

ज्ञान का आलोक देकर

तमस से सबको उबारो।।

 

दूर हो अज्ञान सब ही

आप संशय को मिटा दो।

जगत की करके भलाई

हर तमिस्रा को हटा दो।

 

तेज से परिपूर्ण कर दो

दुर्गणों से आप तारो।

ज्ञान का आलोक देकर

तमस से सबको उबारो।।

 

आप ही सद्बुद्धि देना

विश्व का कल्याण करना।

मन , हृदय में प्रेम भरकर

नव सुरों की तान भरना।

 

पाप, कष्टों से बचाकर

आप जीवन को सँवारो।

ज्ञान का आलोक देकर

तमस से सबको उबारो।।

 

दुःख सारे दूर कर दो।

कीर्तियों से आप भर दो।

मूर्खता, आलस्य, जड़ता

आदि सब अज्ञान हर दो।

 

आप हो ऐश्वर्यशाली

हर बुराई आप मारो।

ज्ञान का आलोक देकर

तमस से सबको उबारो।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #147 ☆ संत सावता माळी… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 147 ☆ संत सावता माळी… ☆ श्री सुजित कदम ☆

अरणचे दैवू माळी

पंढरीचे वारकरी

संत सावता जन्मले

कुटुंबात शेतकरी…! १

 

वृत्ती सज्जन  धार्मिक

शुद्ध चारित्र्य सचोटी

नाम सावता शोभले

सांप्रदायी ठैव मोठी…! २

 

पिढीजात शेतकरी

फुलवला शेतमळा

ऐसी माळियाची जात

हरी भक्ती कळवळा….! ३

 

भक्ती आणि संसाराचा

साधुनीया ताळमेळ

बागायती शेतमळा

शेतीसाठी दिला वेळ…! ४

 

मोट नाडा बैलजोडी

सावत्याची ही पंढरी

मोक्ष मुक्ती नको म्हणे

नांदे विठ्ठल अंतरी…! ५

 

जप जाप्य कर्मकांड

हवा कशाला देखावा

पिकवोनी शेतमळा

त्यात विठ्ठल शोधावा… ! ६

 

अनासक्त वृत्तीतून

साधियला परमार्थ

कांदा मुळा भाजी संगे

दिला सात्विक भावार्थ…! ७

 

अंधश्रद्धा दांभिकता

घणाघाती केले वार

नामसंकीर्तन करा

पहा विठ्ठल साकार…! ८

 

नीतिमत्ता, सहिष्णुता

निर्भयता सदाचार

ईश्वरास आळविले

सावत्याने शब्दाकार…! ९

 

कर्मयोग सावत्याचा

निष्ठा जीवन अभंग

नवरस परीपुर्ण

रससिद्ध काव्य रंग…! १०

 

शांत वत्सल करुण

दास्य भक्ती अभंगात

राखी सावत्याचा मळा

नाचे विठ्ठल मळ्यात…! ११

 

देई सावत्या संदेश

वाचे आळवावा हरी

केली नाही कधी वारी

आला विठू शेतावरी…! १२

 

वैकुंठीचा देव त्यांनी

मेळवीला संकीर्तनी

माळी सावत्याचे घरी

विठू ‌रंगला‌ कीर्तनी….! १३

 

संतवाणी सावत्याची

जनलोकी प्रासादिक

हरिभक्ती वानवळा

झाला अभंग ‌पौष्टिक …! १४

 

कर्म कर्तव्याची जाण

हीच खरी ईशसेवा

शेतमळा राखणीने

दिला हरी भक्ती ठेवा…! १५

 

आषाढीच्या वारीतून

संत जाती पंढरीला

पांडुरंग करी वारी

येई अरणी भेटीला…! १६

 

नवे शब्द रुपकांनी

शब्द मोती अभंगात

निजरूपे विठ्ठलाची

सावत्याच्या अंतरात..! १७

 

आषाढीची चतुर्दशी

घेई सावत्या निरोप

समाधिस्थ होता क्षणी

अभंगांचे फुले रोप…! १८

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – कविता स्मरण… – कवी बा. भ. बोरकर ☆ प्रस्तुती – सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆

सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

 

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– कविता स्मरण… – कवी बा. भ. बोरकर? ☆ प्रस्तुती – सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

स्मरते कधी भरली नदी

अन गर्द झाडी काठची

पावसाळी चांदणे

अन साऊली घनदाटशी

हिरवे दिवेसे काजवे

मरवा हवेचा तीक्ष्णसा

दूर कोण्या पाखरांचा सूर जख्मी क्षीणसा

तो धुराने फासलेला, झोपड्यांचा पुंजका

गोठलेले ते धुके – छे! कोंडलेला हुंदका…..

 

कवी – बा. भ. बोरकर

प्रस्तुती – सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

संपर्क – इंदिरा अपार्टमेंट बी-१३, हिराबाग काॅनर्र, रिसाला रोड, खणभाग, जि.सांगली, पिन-४१६  ४१६

मो.९६५७४९०८९२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #168 – तन्मय के दोहे – अपनी निजता खो रहा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं तन्मय के दोहे – “अपनी निजता खो रहा…”)

☆  तन्मय साहित्य  #168 ☆

☆ तन्मय के दोहे – अपनी निजता खो रहा… 

चौपालें  चौपट  हुई,   ठंडे  पड़े  अलाव।

लुप्त हुई पगडंडियाँ, बढ़े सड़क के भाव।।

पहनावे  के  संग में,  लगे बदलने  लोग।

खेती-बाड़ी छोड़ कर, जोड़-तोड़ उद्योग।।

खेत खले बिकने लगे, नव फैशन की चाल।

घुसे  शहर के सेठिये,  शातिर चतुर दलाल।।

अब ना कोयल की कुहुक, ना कौवों की काँव।

नहीं  रही  अमराइयाँ, बड़ – पीपल  की  छाँव।।

रोजगार  की खोज  में, चले  शहर की ओर।

चकाचौंध से दिग्भ्रमित,भटके युवक किशोर।।

अपनी निजता खो रहा, ग्राम्य-प्रेम पहचान।

सूख  रहा  रस  प्रीत का, रिश्तों का  उद्यान।।

प्रेमपगा सम्मान सुख, अनुशासित परिवार।

छूट गया वह गाँव-घर,  जहाँ  प्रेम  रसधार।।

हँसी ठिठौली दिल्लगी,  किस्से गल्प तमाम।

राम – राम  भुले सभी,  अभिवादन के नाम।।

काँकरीट सीमेंट सँग, दिल भी हुए कठोर।

मीठे वचनों  की जगह,  तू-तू  मैं-मैं  शोर।।

पनघट अब सूने हुए, बड़-पीपल की छाँव।

मिटे  नीम  जंगल कटे,  बदल गए हैं गाँव।।

बूढ़ा   बरगद   ले  रहा,  अंतिम  साँसें   आज।

फिर होगा नव-अंकुरण, प्रमुदित मन के साज।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 54 ☆ ग़ज़ल – मेरा साया जुदा हो गया… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण ग़ज़ल “मेरा साया जुदा हो गया…”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 54 ✒️

?  ग़ज़ल – उन्वान – मेरा साया जुदा हो गया…  ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

?

आज वह बेवफ़ा हो गया ।

मेरा साया जुदा हो गया ।।

?

प्यार की जिसने खाई  क़सम ।

वो आज मुझसे ख़फ़ा हो गया ।।

?

सामने रखा जब आईना ।

 ज़िन्दा रहना सज़ा हो गया ।।

?

आंधियों में भी जलते रहे ।

इन चिराग़ों को क्या हो गया।।

?

मैंने जुगनू को सूरज कहा ।

 वोह तभी से ख़फ़ा हो गया ।।

?

मौत से हो गया सामना ।

फ़र्ज़ सलमा अदा हो गया ।।

?

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 168 ☆ माझे जीवन आधार ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 168 ?

☆ माझे जीवन आधार ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आई आणखी वडील

शैशवी जीवनाधार

लाभणे प्रौढत्वातही

भाग्यच अपरंपार!

वडील होते पाटील

 दरारा गावात फार

आईही वाघीण माझी

शब्दा तिच्या अति धार !

शुभ्र वस्त्रातील तात

आठवती  वारंवार,

पुष्कराज,पाचू हाती

अंगठ्या सोन्याच्या चार

आई चांदणी शुक्राची

सोन्यात साजिरी दिसे

चंदेरी डाळिंबी साडी

  झंपर हिरवे असे !

ऐश्वर्याचा काळ गोठे

अवचित एकाएकी

शब्दच नाही वर्णाया

नसे मुळी फुशारकी !

शापित कुणी गंधर्व

आणि अस्वस्थ आत्मा ती

” हंसोका जोडा” बिछडे

काळ रडे का एकांती!

 असा नियतीचा डाव

जगणे झाले अंगार

 सदैव होते ते दोघे

माझे जीवन आधार!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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