हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -9 – परदेश में स्वदेश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 9 – परदेश में स्वदेश  ☆ श्री राकेश कुमार ☆

खरीदारी अब आवश्यकता के स्थान पर आनंद (मज़ा) प्राप्त करने का साधन होती जा रही हैं। यात्रा के वातानुकूलित साधन, सजे हुए बाज़ार, जेब में रखे हुएं नाना प्रकार के उधार कार्ड, शायद ये ही वर्तमान है।

हम को बचपन से ही एक बात बताई गई थी कि “जितनी चादर हो उतने पैर पसारने चाहिए” शायद अब ये शिक्षा समय के साथ दफ़न हो चुकी है।

घर के उपयोग की स्वदेशी वस्तुएं किराना इत्यादि का सामान परदेश में भी उपलब्ध करवाने  के लिए पचास वर्ष पूर्व अमेरिका में पटेल परिवारों ने गुजरात से आकर यहां के विभिन्न शहरों में अपनी दुकानें स्थापित कर दी हैं। स्वदेशी समान में भारत निर्मित बिस्कुट (पारले-जी, गुड डे) नमकीन, क्या कुछ नहीं विक्रय करते हैं, पटेल की दुकानों पर, सब्जी, मसाले, पूजा सामग्री इत्यादि की उपलब्धता देश के स्वाद और जीवन शैली को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहीं हैं।

वहां गर्म समोसे “पंजाबी समोसे” के नाम से उपलब्ध थे। हमे मुम्बई की याद आ गई, वहां भी बड़े आकार के समोसे को पंजाबी समोसे के नाम से विक्रय किया जाता है। उत्तर और मध्य भारत में भी सिर्फ समोसा नाम ही चलता हैं। पूर्वी भाग में अवश्य सिंघाड़े के नाम से सेवन किया जाता हैं। यहां पर गुड और अदरक के बेकरी में निर्मित बिस्कुट भी मिल रहे थे। देश में भी दूरबीन से ढूंढने से भी नहीं मिलते हैं। हजारों मील दूर पूरे देश की विभिन्न वस्तुएं उपलब्ध करवाने के लिए पटेल बंधुओं की लगन और मेहनत को सलाम।

इन के अलावा भी “इंडियन स्पाइस स्टोर” के नाम से अधिकतर दक्षिण भारतीय भी  देश की परंपराएं और स्वाद को बरकरार रखने में सहयोग कर रहे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्री ललिता पञ्चरत्नम् स्तोत्रम् – (मूळ रचना : आदी शंकराचार्य) — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्री ललिता पञ्चरत्नम् स्तोत्रम् – (मूळ रचना : आदी शंकराचार्य) — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

प्रातः स्मरामि ललितावदनारविन्दं

विम्बाधरं पृथुलमौक्तिकशोभिनासम् ।

आकर्णदीर्घनयनं मणिकुण्डलाढ्यं

मन्दस्मितं मृगमदोज्ज्वलभालदेशम् ॥१॥

 

प्रातर्भजामि ललिताभुजकल्पवल्लीं

रक्ताङ्गुलीयलसदङ्गुलिपल्लवाढ्याम् ।

माणिक्यहेमवलयाङ्गदशोभमानां

पुण्ड्रेक्षुचापकुसुमेषुसृणिदधानाम् ॥२॥

 

प्रातर्नमामि ललिताचरणारविन्दं

भक्तेष्टदाननिरतं भवसिन्धुपोतम् ।

पद्मासनादिसुरनायकपूजनीयं

पद्माङ्कुशध्वजसुदर्शनलाञ्छनाढ्यम् ॥३॥

 

प्रातः स्तुवे परशिवां ललितां भवानीं

त्रय्यन्तवेद्यविभवां करुणानवद्याम् ।

विश्वस्य सृष्टिविलयस्थितिहेतुभूतां

विद्येश्वरीं निगमवाङ्मनसातिदूराम् ॥४॥

 

प्रातर्वदामि ललिते तव पुण्यनाम

कामेश्वरीति कमलेति महेश्वरीति ।

श्रीशाम्भवीति जगतां जननी परेति

वाग्देवतेति वचसा त्रिपुरेश्वरीति ॥५॥

 

यः श्लोकपञ्चकमिदं ललिताम्बिकायाः

सौभाग्यदं सुललितं पठति प्रभाते ।

तस्मै ददाति ललिता झटति प्रसन्ना

विद्यां श्रियं विमलसौख्यमनन्तकीर्तिम् ॥६॥

||इति श्री आदि शंकराचार्य विरचित ललिता पञ्चरत्न स्तोत्र संपूर्णम् ||

 

ललिता पञ्चरत्न स्तोत्र— मराठी भावानुवाद — डॉ. निशिकांत श्रोत्री

स्मरीतो प्रभाते पद्मवदनी ललीता 

बिंबस्वरूप अधरोष्ठ नथ मौक्तिका 

आकर्णनेत्र विशाल रत्नखचित बाळी 

हास्य मंद विलसे कस्तुरीगंध भाळी ||१||

 

भजीतो प्रभाते कल्पवल्ली ललीता

पल्लवस्वरूप अंगुली शोभिते ती रत्ना

माणिकहेम कंकण शोभा दे बाहुंना

इक्षुचाप पद्मांकुश पुष्पशर हाती  ||२||

 

नमीतो प्रभाते कमलपाद ललीता

भवसिंधुहारिणी भक्तकामाक्षीपूर्ता

पद्मासनी सूरनायक पूजिताती

पद्म ध्वज सुदर्शनांकुश जिया हाती ||३||

 

स्तवीतो प्रभाते पावन ललिता भवानी

वैभवी करुणा विमला वेदांत ज्ञानी

विश्वस्थितीसृष्टी असे विलयाकारिणी 

निगमवैखरीपरा श्रीविद्येश्वरीणी ||४||

 

वदीतो प्रभाते ललिते तव पुण्यनाम

कामेश्वरी कमला महेश्वरी असती नाम

श्रीशाम्भावी जगद्जननी तू सर्वापरेति

त्रिपुरेश्वरी असशी वाचा वाणीदेवी ||५||

 

पठीतो प्रभाते जो ललितापञ्चकाते

सौभाग्य प्राप्त झणी त्या हो भाग्यवंते

त्यासी प्रसन्न होय माता क्षणार्धे ललीता

विद्या श्री विमलसौख्य हो कीर्तीस प्राप्ता ||६||

||इति श्री आदि शंकराचार्य विरचित निशिकांत भावानुवादित ललिता पञ्चरत्न स्तोत्र संपूर्ण||

मूळ संस्कृत रचना :: आदी शंकराचार्य

भावानुवाद : डॉ. निशिकांत श्रोत्री 

९८९०११७७५४

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 112 – गीत – हे राम ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – हे राम।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 112 – गीत – हे राम ✍

राम राम  जय जय राम

राम राम  जय सीता राम

दशरथ नंदन

दनुज निकंदन

टेर लगाते चातक वंशी

लेकर तेरा नाम

हे राम । हे राम हे राम।

पंकज लोचन

हे दुख मोचन

रोम रोम में रचा हुआ है

एक तुम्हारा नाम।

हे राम । हे राम हे राम।

हे रघुनंदन

अलख निरंजन

तुम ही हो सुखधाम

हे राम हे राम

जय राम जय राम।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 114 – “काजल लगी आँख में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –काजल लगी आँख में।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 114 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “काजल लगी आँख में” || ☆

नीचे को, छज्जे से कोई

झाँका करता है ।

मेरे प्रतिमानों को अक्सर

आँका करता है ॥

 

उधर जहाँ पत्तों के

मनहर झूमर हैं लटके ।

जिनसे छनकर धूप

चकत्ते दिखते हैं हटके ।

 

उन्हें धरा के आँचल पर

चुपचाप हवाओं से ।

लहरा कर दिन के गौरव

में टाँका करता है ।

 

मधुछन्दा दोपहर दिखा

कर  बुन्दे कानों के

काजल लगी आँख में

भरकर, बिम्ब मकानों के

 

ज्योंकि बजाज बैठ गद्दी पर

दिन भर की विक्री

का आदर करता ,जैसे वह

माँ का करता  है

 

साथ खडा है पेड़ मगन

जैसे कि चरवाहा

अपने में हो मस्त गा रहा

मीठा मनचाहा

 

और पोटली में लाये

उस चना चबैने को

पूरा तन्मय होकर के

ज्यों फाँका करता है

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

18-10-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 161 ☆ “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय लघुकथा – “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे”)  

☆ लघुकथा # 161 ☆ “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

 – लोग उनको उच्च क्वालिटी का मंत्री बताते हैं।

-उनके एक खास भक्त ने कालेज की जमीन में कब्जा करके बाउंड्री वॉल बनाना चालू किया तो कालेज के प्रिंसिपल ने आपत्ति जताई।

– भक्त ने प्राचार्य को ट्रांसफर की धमकी दे दी।

– प्रिंसिपल की उचक्के मंत्री के दरबार में पेशी हुई।

– मंत्री ने ऐंठकर कहा- तुमने हमारे अंधमूक प्रिय भक्त के काम में बाधा पहुंचाने की कोशिश की ?

– प्राचार्य ने डरते हुए जबाब दिया -सर वो तो कालेज की जमीन है।

– भक्त ने डांटते हुए कहा-   कालेज तो सरकारी है, मंत्री जी की सरकार है और जमीन तुम्हारे बाप की नहीं है, तो आपत्ति करने वाले तुम कौन होते हो ?

– मंत्री ने पूछा -कहां जाना चाहते हो,या सस्पेंड होकर घर बैठना चाहते हो?

– पीए को बुलाया गया और प्राचार्य का नाम नोट कर राजधानी मंत्रालय के सबसे बड़े अधिकारी को फोन लगाकर तुरंत कार्यवाही करने के आदेश मंत्री ने दे दिए।

– प्रिंसिपल हाथ जोड़े बड़बड़ाता रहा, फिर गार्ड ने घसीटते हुए बंगले के बाहर कर दिया।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 104 ☆ # एक दीप… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# एक दीप…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 104 ☆

☆ # एक दीप… # ☆ 

इस दीपावली में दीप जलाइए

जग को आलोकित कीजिये  

 

एक दीप

अंधकार रूपी

तम, द्वेष, ईर्ष्या, नफरत और

हिंसा

को दूर करने के लिए

 

एक दीप

पर्यावरण के

बढ़ते विनाश को

रोकने के लिए

 

एक दीप

शहर में फैली हुई गंदगी

को दूर कर

तन और मन की

सफाई के लिए

 

एक दीप

उस महामानव के लिए

जिसने तुम्हें

जीने की राह दिखाई

 

एक दीप

उस गुरु के लिए

जिसने तुम्हें ज्ञान दिया

 

एक दीप

अपने माता पिता के लिए

जिन्होंने अपना सर्वस्व

तुम पर न्योछावर किया

श्रेष्ठ इंसान, सुपुत्र

बनाने के लिए

 

एक दीप

उन तमाम लोगों के लिए

जिन्होंने तुम्हें

जीवन के किसी ना किसी

मोड़ पर

कभी ना कभी

प्रभावित किया हो

 

एक दीप

उन निर्धन, असहाय

शोषित, पीड़ित, वंचित

समाज के लिए

 

एक दीप

उस झोपड़ी के द्वार पर

जहां से तुम ने कभी

अपने जीवन की

शुरुआत की थी /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 104 ☆ माझ्या आईचे गुणवर्णन… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 104 ? 

☆ माझ्या आईचे गुणवर्णन..… ☆

माझ्या आईचे गुणवर्णन

मी कसे ते करावे

शब्दात कसे तोलावे.. ०१

माझ्या आईचे गुणवर्णन

शब्दातीत आहे आई

बहुगुणी प्रेमळ माई..०२

माझ्या आईचे गुणवर्णन

असह्य वेदना तिला झाल्या

न मी पहिल्या, न अनुभवल्या..०३

माझ्या आईचे गुणवर्णन

आई प्रेमाचा निर्झर

आई सौख्याचा सागर..०४

माझ्या आईचे गुणवर्णन

कोणते कोणते दाखले द्यावे 

ऋणातून कैसे मुक्त व्हावे..०५

माझ्या आईचे गुणवर्णन

पवित्र तुळस अंगणातली

मंदिरात समई तेवली..०६

माझ्या आईचे गुणवर्णन

मजला न करवे आता

देवा नंतर, तीच खरी माता ..०७

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प, भाग -४१  परिव्राजक १९.  कन्याकुमारी ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प, भाग -४१  परिव्राजक १९.  कन्याकुमारी डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

स्वामीजी धारवाड, बंगलोर करत करत म्हैसूरला आले. म्हैसूर संस्थांचे दिवाण सर के. शेषाद्री अय्यर यांच्याकडे स्वामीजी राहिले होते. त्यांनी म्हैसूर संस्थानचे महाराज चामराजेंद्र वडियार यांचा परिचय करून दिल्यानंतर त्यांनी स्वामीजींना संस्थानचे खास अतिथि म्हणून राजवाड्यावर ठेऊन घेतले. एव्हढी सत्ता आणि वैभव असलेल्या या तरुण महाराजांना धर्म व तत्वज्ञान याविषयी आस्था होती. म्हैसूर हे भारतातील सर्वात मोठ्या संस्थांनांपैकी एक होते. इथे अनेक विषयांवर स्वामीजी बरोबर चर्चा आणि संवाद घडून येत.

महाराजांशी स्वामीजींचे चांगले निकटचे संबंध निर्माण झाले होते. त्यांनी एकदा स्वामीजींना विचारलं स्वामीजी मी आपल्यासाठी काय करावं ? त्यावर तासभर झालेल्या चर्चेत स्वामीजी म्हणाले, “भारताचा अध्यात्म विचार पाश्चात्य देशात पोहोचला पाहिजे आणि भारताने पाश्चात्यांकडून त्यांचे विज्ञान घेतले पाहिजे. आपल्या समजतील सर्वात खालच्या थरापर्यंत शिक्षण पोहोचले पाहिजे आणि धर्माची खरी तत्वे सामान्य माणसाला समजून सांगितली पाहिजेत. शिकागोला जाण्याचा विचार ही त्यांनी बोलून दाखवला होता, यावर महाराजांनी आवश्यक ती सर्व मदत तत्काळ करण्याची तयारी दाखवली होती पण, स्वामीजींनी प्रत्येक वेळेसारखा इथेही नकार दिलेला दिसतो. तरीही महाराजांनी स्वामीजींनी त्यांच्या आवडीची भेटवस्तू आमच्या कडून घ्यावी याचा खूप आग्रह केला आणि बाजारात कारकूनाबरोबर एक हजार रुपये देऊन स्वामीजींबरोबर पाठविले. त्यामुळे स्वामीजी त्यांच्या कौतुकासाठी सर्व बाजार फिरले आणि त्यांना बरं वाटावं म्हणून एक सर्वात उत्तम सिगारेट घेतली. ती एक रुपयाची होती. ती तिथेच ओढून संपवली. असे हे निरिच्छ वृत्तीचे स्वामीजी राजेरजवाड्यात पाहुणचार घेत ठिकठिकाणी राहिले होते पण, तेंव्हाही त्यांच्या डोळ्यासमोर खेडोपाड्यातली दरिद्री जनता आणि राज्यकर्त्याकडून दीन दुबळ्या प्रजेचे काहीतरी कल्याण होईल एव्हढाच विचार असायचा. क्वचित एखादाच राजा हे करू शकतो असा त्यांचा अनुभव होता. त्यातलेच हे म्हैसूरचे महाराज होते.

त्यांना स्वामीजींनी शिकागोहून पाठवलेल्या पत्रात म्हटले आहे “हे उदार महाराजा, मानवाचे जीवन फार अल्पकालीन आहे आणि या जगात हव्याशा वाटणार्‍या सुखाच्या गोष्टी केवळ क्षणभंगुर आहेत. पण जे इतरांसाठी जगतात तेच खर्‍या अर्थाने जगतात. भारतातील तुमच्यासारखा एखादा सत्ताधीश जर मनात आणेल, तर तो या देशाला आपल्या पायावर उभे करण्यासाठी महान कार्य करू शकेल. त्याचे नाव पुढच्या पिढ्यांत पोहोचेल आणि जनता अशा राजाबद्दल पूज्यभाव धरण करेल”. यावरून स्वामीजीं स्वत:साठी काहीही मागत नसत. महाराजांनी स्वामीजींची पाद्यपूजा कराची इच्छा व्यक्त केली तर त्यांनी स्पष्ट नकार दिला. शेवटी त्यांनी स्वामीजींचा आवाज एखादी आठवण म्हणून ध्वनीमुद्रित करून द्यावा अशी कल्पक मागणी केली. त्याला होकार दिला आणि त्या वेळच्या फोनोग्रामच्या तबकडीवर चार पाच मिनिटांचे बोलणे रेकॉर्ड करून घेतले. बर्‍याच वर्षांनंतर तो पुसट झाला. मग महाराजांचा निरोप घेऊन स्वामीजी केरळ प्रदेशात गेले.

त्रिचुर, कोडंगल्लूर,एर्नाकुलम, कोचीन इथे फिरले. केरळ, मलबार या भागातल्या जुनाट चालीरीती आणि ख्रिस्त धर्मी मिशनर्‍यांचा तिथे चाललेला धर्मप्रचार या गोष्टी स्वामीजींच्या लक्षात आल्या होत्या. त्यामुळे त्यांना वाटलं की हिंदू धर्माच्या दृष्टीने ही गोष्ट चांगली नाही. स्वामीजींना उत्तर भारतापेक्षा दक्षिण भारतात आलेले अनुभव वेगळे होते. त्यांच्या लक्षात आले की, दक्षिणेत पाद्री लोक खालच्या वर्गातील लाखो हिंदूंना ख्रिस्त धर्मात घेत आहेत. जवळ जवळ एक चतुर्थांश लोक ख्रिस्त धर्मात गेले आहेत.

(असा स्पष्ट उल्लेख स्वामीजींच्या चरित्र ग्रंथात आहे).

कोचीनहून स्वामीजी त्रिवेंद्रमला आले. एर्नाकुलम पासून त्रिवेंद्रम सव्वा दोनशे किलोमीटर अंतरावर, बैलगाडी आणि पायी प्रवास करताना केरळचं निसर्ग वैभव त्यांना साथ करत होतं. आंबा, फणस, नारळ यांची घनदाट झाडी, लहान मोठ्या खाड्या, पक्षांचे मधुर आवाज असा रमणीय रस्ता स्वामीजी चालत होते.

त्रिवेंद्रमला स्वामीजी सुंदरराम यांच्याकडे राहत असताना घरातील लहान, मोठे, नोकर, चाकर यांच्याशी पण मनमोकळे बोलत असत. एकदा, सुंदरराम यांचा चौदा वर्षांचा मुलगा रामस्वामी याला स्वामीजी म्हणाले, “तू अगदी तरुण आहेस,लहान आहेस. माझी फार इच्छा आहे की तू कधीतरी उपनिषदं, ब्रह्मसूत्रे, भगवद्गीता यांचा निष्ठापूर्वक अभ्यास कर. या तिन्हीना मिळून प्रस्थानत्रयी म्हणतात. त्याच बरोबर इतिहास पुराणाचा पण अभ्यास कर. या तोलामोलाचे ग्रंथ तुला सार्‍या जगात दुसरीकडे कुठेही मिळणार नाहीत. कोणतीही गोष्ट कशामुळे निर्माण झाली, तिचं पर्यवसान कशात होणार, ती का अस्तित्वात आली आणि तिची दिशा कोणती? हे जाणून घेण्याची जिज्ञासा केवळ मानवप्राण्यातच असू शकते तिचा पूर्ण उपयोग करून घे”.

कन्याकुमारी भारत वर्षाच्या दक्षिणेचे शेवटचे टोक. त्रिवेंद्रम हून नव्वद किलोमीटर. डिसेंबरला त्रिवेंद्रमहून स्वामीजी निघाले आणि कन्याकुमारीला पोहोचले. संपूर्ण वंदेमातरम  या गीतातलं मातृभूमीचं वर्णन स्वामीजींनी ऐन तारुण्यात ऐकलं होतं. याच वर्णनाचा भारत देश स्वामीजींनी पूर्वेकडून पश्चिमेकडे आणि उत्तरेकडून दक्षिणेकडे हजारो किलोमीटर प्रवास करून पालथा घातला होता. डोळ्यात साठवून ठेवला होता. अशी ही स्वदेशाची आगळीवेगळी यात्रा  करायला त्यांना अडीच वर्ष लागली होती. कन्याकुमारीच्या आपल्या मातृभूमीच्या दक्षिण टोकावरच्या खळाळत्या लाटांच्या हिंदुमहासागराला ते भेटणार होते आणि या अथांग सागराला वंदन करून आपल्या विराट भ्रमणाची पूर्तता करणार होते.

स्वामीजींनी दक्षिणेश्वरच्या मंदिरातील कालीमातेचं/जगन्मातेचं दर्शन घेऊन परिव्राजक म्हणून प्रवास सुरू केला तो आता कन्याकुमारी मंदिराच्या दर्शनाने संपणार होता.

या मंदिरात स्वामीजी गेले आणि कन्यारूपातील जगन्मातेचं दर्शन घेऊन बाहेर आले. तशी समोर लांबवर नजर गेली, दीड फर्लांग अंतरावर दोन प्रचंड शिलाखंड दिसले. आपल्याच भूमीवरच्या या शिलाखंडावर जायची त्यांना मनोमन इच्छा झाली. तिथे गेलो तर खर्‍या अर्थाने मातृभूमीचे दक्षिण टोक आपण गाठले असा अर्थ होईल. म्हणून कसही करून त्या खडकांवर आपण जाव असं वाटून ते किनार्‍यावर आले. जवळच होड्या होत्या. काही कोळी पण उभे होते. स्वामीजींनी चौकशी केली. त्या नावेतून खडकापर्यंत पोहोचविण्यास नावाडी तयार होते, फक्त पैसे द्यावे लागणार होते. स्वामीजी तर निष्कांचन होते. एक पैसा सुद्धा जवळ नव्हता. झळ त्यांनी त्या उंच लाटांमध्ये उडी घेतली पोहत पोहत जाऊन ते खडक गाठले. समुद्राला रोजचे सरावलेले असतांनाही नावाडी स्तब्धच झाले. लाटा उसळणार्‍या तर होत्याच पण तिथे शार्क माशांपासून पण धोका होता हे त्यांना माहिती होतं. हे पाहून दोन तीन नावाडी पाठोपाठ गेले. सुखरूप पोहोचले हे बघून, त्यांना काही हवे का विचारले. आम्ही आणून देऊ असे सांगीतल्यावर थोडे दूध आणि काही शहाळी पुरेशी आहेत असे स्वामीजींनी सांगितले. स्वामीजी या शिलाखंडावर तीन दिवस, तीन रात्र राहिले.ते दिवस होते 25,26,27 डिसेंबर 1892

लाटांच्या अखंड गंभीर नादाबरोबर स्वामीजींचे चिंतन सुरू झाले. कलकत्त्यातून बाहेर पडल्यापासुनचे सर्व दिवस, त्यात आलेले अनुभव, सगळं डोळ्यासमोर उभं राहिलं होतं. जगन्मातेचं ध्यान आणि भारत मातेचं चिंतन तीन दिवसात झालं.

प्रश्नचिन्ह – प्राचीन इतिहास असलेला हा विशाल देश, इतिहासाचे केव्हढे चढउतार, सार्‍या जगाला हेवा वाटेल असे प्राचीन काळातील द्रष्ट्या ऋषीमुनींनी दिलेले आध्यात्मिक धन. पण तरीही आज भारत कसा आहे? त्याची अस्मिताच हरवलेली दिसत आहे. सगळ्या मानव जातीने स्वीकारावीत अशी शाश्वत मूल्यं पूर्वजांकडून लाभली आहेत तरीही त्यातल्या तत्वांचा त्याला विसर पडला आहे. अभिमान वाटावा असं भूतकाळाचा वारसा आहे पण वर्तमानात मात्र घोर दुर्दशा आहे. यातून समाजाचं तेज पुनः कसं प्रकाशात आणता येईल?  अशा प्रश्नांची उत्तरे त्यांना शोधायची होती. उपाय शोधायचे होते.

आपल्या समाजातील अज्ञान आणि दारिद्र्य दूर कसे होईल आणि भारताचे पुनरुत्थान कसे होईल?त्याच्या आत्म्याला जाग कशी येणार? याच प्रश्नावर जास्त वेळ चिंतन करत होते.

प्राचीन ऋषीमुनींनी दिलेले उदात्त आध्यात्मिक विचार आणि जीवनाची श्रेष्ठ मूल्ये खालच्या थरातील माणसांपर्यंत पोहोचवण्याची गरज आहे असे त्यांना तीव्रतेने वाटत होते. सामान्य माणसाच्या सेवेसाठी आणी उन्नतीसाठी आपण प्रयत्न करायचा असा स्वामीजींचा निर्णय झाला. हे करण्यासाठी पाच दहा माणसं आणि पैसा हवाच. पण या दरिद्री देशात पैसे कुठून मिळणार? त्यांना आलेल्या अनुभवा नुसार धनवान मंडळी उदार नव्हती. आता अमेरिकेत सर्वधर्म परिषद भरते आहे. तिथे जाऊन त्यांना भारताच्या आध्यात्मिक संस्कृतीचा परिचय करून द्यावा आणि तिकडून पैसा गोळा करून आणून इथे आपल्या कामाची ऊभारणी करावी. आता उरलेले आयुष्य भारतातल्या दीन दलितांच्या सेवेसाठी घालवायचे असा संकल्प स्वामीजींनी केला आणि शिलाखंडावरून  ते परतले. तीन दिवस तीन रात्रीच्या चिंतनातून प्रश्नाचं उत्तर स्वामीजींना मिळालं होतं.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 35 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 35 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

 ५३.

अगणित रंगाच्या रत्नांनी कौशल्यानं घडलेलं,

नक्षत्रांनी जडवलेलं हे कंगन सुरेख आहे.

 

पण भगवान विष्णूंच्या गरुडाच्या आरक्त सूर्यप्रकाशात पूर्णपणे तळपणाऱ्या पंखांच्या

विजेच्या आकाराची ही तू दिलेली तलवार

अधिक सुंदर आहे.

 

मृत्यूचा अखेरचा घाव बसल्यानंतरच्या दु:खाची

अखेरची धडपड व्हावी तशी ती चमचम करते.

एकाच भीषण आघातानं जाणीव होतानाच्या

शुध्द ज्वालेप्रमाणं ती तळपत राहते.

 

तू दिलेलं कंगन सुरेख आहे.

त्यावरील नक्षत्रासारखे मोती छान आहेत.

पण तू दिलेली तलवार हे स्वामी, किती सुंदर बनवली आहे!

ती पाहताना तिचा विचार मनात आला तरी भीती वाटते.

 

५४.

तुझ्याकडं मी काहीच मागितलं नाही की

माझं नावही तुला सांगितलं नाही.

तू परतून गेलास तेव्हा मी स्तब्ध राहिलो.

झाडांच्या सावल्या

वेड्यावाकड्या पसरलेल्या होत्या.

आपल्या तांबड्या घागरी काठोकाठ भरून

बायका गावाकडे परतत असताना

त्या मला पालवीत होत्या.

“घराकडे चल. सकाळ संपून दुपार होत आलीय.”

पण. . .

एकटाच विहिरीच्या आसपास भटकत राहिलो.

धूसर चिंतनात मी हरवून गेलो.

 

तू माझ्याकडे येत असताना

तुझ्या पावलांचा आवाज मला ऐकू आला नाही.

दु:खभरल्या नजरेनं माझ्याकडे पाहून

दमलेल्या आवाजात म्हणालास,

“अरे! मी तहानलेला प्रवासी आहे.”

मी माझ्या दिवास्वप्नातून जागा झालो आणि

तुझ्या जुळलेल्या ओंजळीत पाण्याची धार धरली.

 

माझ्या माथ्यावरची पानं सळसळली.

दूरच्या काळोखात कोकीळ गाऊ लागला.

रस्त्यावरच्या वळणावरून ‘बाबला’ फुलांचा वास

दरवळला.

तू माझं नाव विचारलंस तेव्हा

शरमेनं मी उगी राहिलो.

माझं नाव लक्षात ठेवण्यासारखं

मी तुझ्यासाठी काय केलंय?

तुझ्या तहानवेळी मी तुला पाणी देऊ शकलो

याची जाण मी मनात जपून ठेवीन आणि

तिची गोडी माझ्या ऱ्हदयात फुलत ठेवीन.

 

सकाळ संपली, पक्षी उंच स्वरात गाताहेत.

निंबाच्या झाडावरची पानं सळसळताहेत आणि

मी विचार करतो आहे…

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #166 ☆ व्यंग्य – वैज्ञानिक सोच का हश्र ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक मज़ेदार व्यंग्य ‘वैज्ञानिक सोच का हश्र’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 166 ☆

☆ व्यंग्य – वैज्ञानिक सोच का हश्र

 नन्दलाल को हम ‘लाइव वायर’ कहते हैं। हमेशा उत्तेजना की स्थिति में रहता है। अपने विश्वासों और निष्कर्षों के खिलाफ कोई बात सुनना उसे मंज़ूर नहीं। कहीं भी सड़क के किनारे उसे किसी के साथ बहस में उलझा देखा जा सकता है। घर के लोगों का कहना है कि पता नहीं चलता कि वह कब सोता है और कब बिस्तर छोड़ देता है।
दरअसल नन्दलाल स्कूल में मजूमदार सर का चेला रहा है। मजूमदार सर विज्ञान के शिक्षक थे। क्लास में जितना किताबी ज्ञान देते थे उतना ही अंधविश्वासों और ढकोसलों की बखिया उधेड़ते थे। जादूगरों और ओझाओं-गुनियों की ट्रिक्स की क्लास में पोल खोलते रहते थे। बर्तन से लगातार भभूत या पानी गिराना, मुँह से कई गोले निकालना, खरगोश या कबूतर प्रकट करना, आदमी को डिब्बे में बंद कर डिब्बे को बीच से काट देना— सब की असलियत मजूमदार सर क्लास में बताते थे और छात्रों को अंधविश्वासों से बचने की नसीहत देते थे। ग़रज़ यह कि मजूमदार सर पक्के विज्ञान के मार्गदर्शक थे।

नन्दलाल के सिर पर उन्हीं का जादू चढ़ गया था। अब वह जहाँ भी अंधविश्वास या ढकोसला देखता, उसकी पोल-पट्टी खोलने में लग जाता। कई बाबाओं की भूमि में समाधि लेने की योजना में उसके कारण पलीता लग गया। कई बाबाओं की महिलाओं को पुत्रवती बनाने की योजना उसके कारण विफल हो गयी। बड़े आयोजनों में भी वह प्रवचनकर्ताओं से सवाल- जवाब करने लगता और कई बार भक्तों के सामने गुरूजी का पानी उतर जाता। कोई और उपाय न होने पर ऐसे गुरुओं ने नन्दलाल पर ‘नास्तिक’ का ठप्पा लगा दिया था। सड़क पर मजमा लगाने वाले जादूगर नन्दलाल को पहचानने और उसके मुहल्ले से बचने लगे थे।

नन्दलाल को ताज़ी सूचना पास के गाँव में एक हँसिया वाले बाबा की मिली थी जो हँसिया से ऑपरेशन करके लोगों के रोग ठीक करते थे। सूचना मिलते ही नन्दलाल का चैन हराम हो गया। दूसरे दिन वह अपने जैसे दो दोस्तों के साथ बाबाजी के अड्डे पर पहुँच गया। बाबाजी एक पुराने मन्दिर में विराजे थे। चार पाँच चेले श्वेत वस्त्रों में उनके आसपास तैनात थे। मन्दिर के सामने करीब आधा किलोमीटर लंबी लाइन लगी थी जिसमें कई संभ्रांत, पढ़े-लिखे लगने वाले लोग भी दिखते थे। मन्दिर के सामने एक बड़ा सा पात्र रखा था जिस पर ‘दान-पात्र’ लिखा था।

नन्दलाल ने मन्दिर के सामने पहुँच कर देखा, अन्दर बाबाजी हाथ में हँसिया थामे एक लेटे हुए आदमी के पेट पर कुछ क्रिया कर रहे थे। उन्होंने हँसिये की नोक उसके पेट पर थोड़ी देर तक टिकायी और फिर लाल रंग से भीगे रुई के टुकड़े को हाथ उठाकर भीड़ को दिखाया। भीड़ ने प्रसन्न होकर जयजयकार की।उसके बाद बाबाजी ने मरीज़ के पेट के ऊपर अपनी हथेली घुमायी, और फिर उसे उठने का इशारा किया। मरीज़ उठकर बाबाजी को प्रणाम कर मन्दिर में ही कहीं अंतर्ध्यान हो गया।

आदतन नन्दलाल की बेचैनी बढ़ने लगी। मन्दिर में घुसकर वह बाबाजी के पास पहुँचने की कोशिश करने लगा। चेलों ने उसे ढकेला, बोले, ‘नीचे चलो। यहाँ कहाँ चढ़े आते हो?’

नन्दलाल बोला, ‘मुझे ऊपर आने दो। बाबाजी का ऑपरेशन देखना है।’

चेले बोले, ‘ऑपरेशन कोई नहीं देख सकता। जब तुम्हारी बारी आये तब आना। नीचे लाइन में लगो।’

नन्दलाल भीड़ की तरफ मुँह करके सीढ़ियों पर खड़ा होकर ऊँचे स्वर में बोलने लगा, ‘भाइयो, यह सब प्रपंच है। हँसिया से कोई ऑपरेशन नहीं हो सकता। घाव हो जाएगा तो सेप्टिक या टेटनस हो जाएगा। जान खतरे में पड़ जाएगी। घर जाकर डॉक्टर को दिखाइए।’

बाबाजी ने हाथ रोक कर रहस्यपूर्ण नज़रों से चेलों की तरफ देखा। चेले इशारा समझ गये। चिल्लाये, ‘अरे यह कोई नास्तिक, अधर्मी आ गया है। बाबाजी के इलाज पर शक करता है। मारो इसे।’

वे लाठी उठाकर नन्दलाल की तरफ लपके। लाइन में से भी ‘भगाओ, हटाओ इसे’ की आवाज़ें आयीं।

एक चेला चिल्लाया, ‘अरे यह पुराना पापी है। जब गणेश जी ने दूध पिया था तब इसी ने कई मन्दिरों में जाकर बिलोरन की थी। आज इसे नहीं छोड़ना है।’

चेलों को अपनी तरफ लपकते देख नन्दलाल जान बचाकर भागे। नन्दलाल के साथी  भी दौड़ लगाकर अपनी मोटरसाइकिलों तक पहुँचे। मदद की उम्मीद में इधर-उधर देखा तो दो पुलिसवाले दूर पेड़ के नीचे आराम करते दिखे।

नन्दलाल और उसके साथियों के मोटरसाइकिल स्टार्ट करते-करते बाबा जी के चेले लाठियाँ लहराते उन तक आ पहुँचे। चलते-चलते भी तीनों की पीठ पर दो-तीन लाठियाँ पड़ गयीं। पीछे से चेले चिल्लाये, ‘अब लौट कर मत आना बच्चू, नहीं तो अपने पाँवों पर चल कर नहीं जा पाओगे।’

शाम को मुहल्ले के थाने से नन्दलाल का बुलावा आ गया। दरोगा जी उसे जानते थे। कोमल स्वर में बोले, ‘मेरे पास शिकायत आयी है कि तुम हँसिया वाले बाबा के कार्यक्रम में बखेड़ा करने पहुँच गये थे। हम जानते हैं कि तुम्हारा सोच सही है, लेकिन ज़माने का वातावरण देख कर चलो। बड़े-बड़े लोग इन बाबाओं के पीछे बैठे हैं। ज़्यादा समाज सुधार के चक्कर में रहोगे तो किसी दिन जेल में ठूँस दिए जाओगे। फिर ज़मानत भी नहीं मिलेगी। ज़िन्दगी खराब हो जाएगी। इसीलिए थोड़ा सोच-समझ कर काम करो।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print