हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 1 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 1 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

दोहा :  

श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।

बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।

बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।

अर्थ :- श्री गुरु के चरण कमल की पराग रूपी धूल से अपने मन रूपी दर्पण को निर्मल करके रघुवर की विमल यश गाथा का वृतांत कह रहा हूँ, जो चार प्रकार के फल देने वाला है।

बुद्धिहीन मैं, हनुमान जी का सुमिरन कर रहा हूँ। हनुमान जी से प्रार्थना है कि वे मुझे बल बुद्धि एवं विद्या प्रदान कर मेरे सारे क्लेश एवं विकारों का हरण करें।

भावार्थ :- मेरा मन एक मैले दर्पण की तरह है। इसके ऊपर माया मोह, मत्सर, लोभ, विषय वासना आदि की मैल लगी हुई है। यह साधारण साबुन और पानी से साफ होने वाली नहीं है। इसको साफ करने के लिए मैंने अपने गुरुदेव के चरण कमलों के पराग रूपी कणों को लिया है और उससे मैंने अब अपने मन को साफ कर लिया है।

अपने मन को साफ करने के उपरांत अब मैं भगवान शंकर और गुरुदेव की कृपा से रघुवर के सुयश का वर्णन करूंगा जो चारों प्रकार के फल अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष को देने वाली है।

संदेश – यह दोहा यही संदेश देता है कि जब आप हनुमान चालीसा का पाठ करने बैठें तो पहले अपने  गुरुदेव को स्मरण कर मन को पूरी तरह से पवित्र कर लें। अपने इष्ट का स्मरण करें और मन को साफ रखें। भगवान श्री राम की महिमा का वर्णन करने पर आपको शुभ फल की प्राप्ति होगी, इसलिए खुद को राम भक्त हनुमान जी को समर्पित करते हुए उनकी कृपा से बल, बुद्धि और विद्या पाएं और अपने जीवन के हर कष्ट से मुक्ति पा लें।

दोहे को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ:-

दोहा क्र.-1

श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।

बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।

हनुमान चालीसा के इस दोहे के पाठ से गुरु कृपा प्राप्त होती है।

दोहा क्र.- 2

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।

बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।

हनुमान चालीसा के इस दोहे के बार-बार पाठ से बुद्धि और विद्या की प्राप्ति होती है।

विवेचना:-

इस दोहे की सबसे पहली पंक्ति में महाकवि तुलसीदास जी ने सबसे पहले अपने गुरुवर की वंदना की है। तुलसीदास जी की इस कृति के अतिरिक्त उनकी किसी भी अन्य कृति के आरंभ में गुरु वंदना का उल्लेख नहीं मिलता है। उदाहरण स्वरूप रामचरितमानस के प्रारंभ में कवि ने सबसे पहले वाणी की देवी सरस्वती और गणेश जी की वंदना की है। उसके उपरांत शिव और पार्वती की वंदना की है। कवितावली दोहावली आदि अन्य ग्रंथों में भी सबसे पहले गुरु की वंदना नहीं है। प्रायः अन्य कवियों ने भी अपने ग्रंथों में सर्वप्रथम गणेश जी की वंदना की है। गुरु की सबसे पहले वंदना यह भी दर्शाती है कि हनुमान चालीसा लिखते समय तुलसीदास जी पर सबसे ज्यादा प्रभाव उनके गुरु का था। यह छात्र जीवन में ही संभव है। प्रथम पंक्ति से ही हम हनुमान चालीसा लिखने के समय के बारे में अनुमान लगा सकते हैं। इस पंक्ति से यह स्पष्ट है कि गोस्वामी जी ने यह रचना अपने छात्र जीवन अर्थात किशोरावस्था में की थी।

तुलसीदास जी लिखते हैं रघुवर के विमल यश के गायन से हमें चार फलों की प्राप्ति होगी। यह चार फल कौन से हैं उन्होंने यह नहीं बताया है। ऐसा मानना है कि सृष्टि के निर्माण में संख्या चार का बहुत योगदान है। आप ध्यान दें भगवान विष्णु की चार भुजाएं हैं, ब्रह्मा जी भी चतुर्भुज है। उनके चार मुख हैं जिससे चार वेदों की उत्पत्ति हुई है। विश्व के सभी प्राणियों को 4 वर्ग अंडज, जरायुज, स्वेदज एवं उद्भिज्ज में बांटा गया है। प्राणियों की जीवन की चार अवस्थाएं हैं जिन्हें जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय कहा जाता है। काल अर्थात समय को भी चार भागों में बांटा गया है, सतयुग, त्रेता, युग द्वापर युग और कलियुग। हमारे चार धाम है बद्रीनाथ, रामेश्वरम, द्वारका धाम और जगन्नाथ। उत्तराखंड में भी चार ही धाम कहे जाते हैं यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ। कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने चतुर्भुज रूप धारण कर भक्तों को चार तत्व धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे सनातन धर्म में चार का बड़ा महत्व है।

गुरुवाणी में भी इसी प्रकार का कुछ लिखा हुआ है।

चारि पदारथ लै जगि जनमिया सिव सकती घरि वासु धरे।

(गुरूवाणी-1/1013)

जिस समय एक बच्चा माता के उदर में आता है तो उसे चार पदार्थों का ज्ञान होता है किन्तु जन्म के पश्चात् वह ज्ञान भूल जाता है। पूर्ण सद्गुरु की कृपा से उसे पुनः ज्ञान की प्राप्ति होती है।

चार पदार्थों का वर्णन हमें कई स्थानों पर मिलता है परंतु वे चार पदार्थ कौन-से हैं इससे हम अनभिज्ञ हैं।

चार पदार्थों के बारे में कहा गया है-

संसार में जब जन्म लिया तो चारों पदार्थों को साथ लेकर आए तो विचार करना है कि क्या धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को साथ लाए हैं? वे कौन से चार पदार्थ हैं जिन्हें लेकर संसार में जन्म लिया है। और यदि धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष को ही हम चार पदार्थ मान लें तो इसका भाव है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हमारे साथ ही आए हैं। लेकिन फिर इनकी प्राप्ति के लिए क्यों कहा है कि-

सतिगुरु कै वसि चारि पदारथ। तीनि समाए एक क्रितारथ।

(गुरूवाणी-1/1345).

चारों पदार्थ सतगुरु के वश में हैं। जब यदि हम चारों पदार्थ साथ लेकर आए हैं तो वे सतगुरु के पास कैसे हैं? यही जानना है कि वे चारों पदार्थ वास्तव में कौन से हैं जिन्हें मीरा ने कहा-

गली तो चारों बंद हुई, मैं हरि से मिलु कैसे जाय।

गलियाँ तो चारों ही बंद पड़ी हैं, मैं प्रभु से कैसे मिलूँ?

वास्तव में, ये तो- अभिव्यक्तिकराणि योगे – पूर्ण योग (ब्रह्मज्ञान) के सूचक और लक्षण हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि वहाँ प्रभु प्रकट हुए और उन्होंने ब्रह्मा जी को ‘चतुष्पदी भागवत’ का ज्ञान प्रदान किया।

बौद्ध धर्म में महात्मा गौतम बुद्ध ने जिन्हें ‘चार आर्य सत्य’ कहा है एवं महावीर ने जिन्हें ‘चार घाट’ कहा है, इस प्रकार ये कौन-सी चार उपलब्धियाँ हैं जिनकी चर्चा संत, महापुरुषों, ऋषि, गुरु, अवतारों ने अपनी वाणी में की है।

सभी धार्मिक ग्रंथ भी चार पदार्थों की महिमा गाते है। इन मुक्ति प्रदान करने वाले चारों पदार्थों को भक्त गुरु कृपा से ही प्राप्त कर पाते हैं, इसलिए हमें ज़रूरत है ऐसे सतगुरु की जो हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान कर चार पदार्थों का बोध करवा दें।

एक :-

क्या पहला पदार्थ ब्रह्म ज्ञान का प्रकाश है, दूसरा अनहद नाद है, तीसरा ईश्वर का नाम और और चौथा ब्रह्म ज्ञान का अमृत है। आइए इस पर भी विचार कर लेते हैं।

हम जो दीपक मंदिरों में प्रज्वलित करते है, वह इसी अर्थात ब्रह्म ज्ञान के प्रकाश की अभिव्यक्ति है। जिसे कोई बिना आँख वाला व्यक्ति भी देख सकता है।

 गुरु वाणी में कहा गया है :-

कासट महि जिउ है बैसंतरु मथि संजमि काढि कढीजै।

राम नामु है जोति सबाई ततु गुरमति काढि लईजै।।

(गुरवाणी-1/1323)

जिस प्रकार लकड़ी में आग छिपी हुई है जो युक्ति के द्वारा प्रकट होती है। ठीक उसी प्रकार सभी जीवों में प्रभु के नाम की ज्योति समाई हुई है। जरूरत है गुरु के द्वारा उस युक्ति को जानने की, जिससे हम परम् ज्योति (Divine Light) का दर्शन कर सकें।

गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है-

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्मतस: परमुच्यते।

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।।

अर्थात् परमात्मा जो कि ज्योतियों की भी परम् ज्योति है जिसे अंधकार से परे कहा जाता है। वह परम ज्ञान (Divine Knowledge) के द्वारा ही जानने योग्य है। यह ज्ञान केवल गुरु ही प्रदान कर सकता है।

दो :-

क्या दूसरा फल या पदार्थ अनहद नाद है। हम मंदिरों में घंटियाँ बजाते है, वह इसी अनहद नाद की अभिव्यक्ति है। जिसे कोई बधिर भी सुन सकता है। जब अनहद नाद सुषुम्ना में प्रवेश कर ऊपर की ओर उठता है, तो इस प्रक्रिया में अनहद नाद का प्रकटीकरण होता है। इससे पहले साधक इस नाद को सुन या प्राप्त नहीं कर सकता। जिसे बजाया नहीं जाता, जो स्वतः अपने आप ही बजता है। लेकिन उस संगीत की प्राप्ति गुरु के द्वारा ही सम्भव है। उसके लिए गुरु वाणी में कहा गया है-

निरभउ कै घरि बजावहि तुर। अनहद बजहि सदा भरपूर।

(गुरूवाणी-971)

उस प्रभु के घर में अर्थात् इस मानव शरीर में वह संगीत बज रहा है जो अनहद है। जिसकी कोई सीमा नहीं है, वही अनहद है।

ऋग्वेद में इस नाद के बारे में कहा गया है कि-

ऋतस्य श्लोको बधिराततर्द कर्णा बुधानः शुचमान आयोः।।

(ऋ.-4/23/8)

सत्य को जगाने वाली देदीप्यमान ध्वनि बधिर को भी सुनाई देती है। इसी प्रकार जैसे हम शिव के हाथों में डमरू देखते हैं, बिष्णु के हाथ में शंख और सरस्वती के हाथ में वीणा है। यह सब कुछ अनहद नाद के लिए ही है।

तीन:-

तीसरा पदार्थ है ईश्वर का नाम और उसका जाप करना। शास्त्रों में कहा गया है- जब एक शिशु माँ के गर्भ में होता है तो वह ईश्वर नाम का जाप करता है। फिर क्या है नाम-सुमिरन? जिससे मन वश में आए। कबीर जी कहते हैं –

सुमिरन सूरत लगाई के मुख से कछु न बोल।।

बाहर के पट देइ के अन्तर के पट खोल।।

सुमिरन ऐसा कीजिये कि शरीर के बाहरी पट या द्वार बंद कर मन के द्वार खुल जाएँ।

कबीर दास जी कहते है-

सतगुरु ऐसा कीजिए पड़े निशाने चोट।

सुमिरन ऐसा कीजिए जीभ हिले न होठ।।

सुमिरन वही करना है जिसे करने के लिए न जुबान हिलानी पड़े न ही होंठ।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।

भए नाम जपि जीव बिसोका।

 (रा.च.मा.-1/27/1)

चारों युगों में, तीनों लोकों में और तीनों कालों में केवल ईश नाम का सुमिरन करने से ही जीव शोक से रहित हो जाता है।

जब पूर्ण सतगुरु मिलते हैं तो उस अव्यक्त अक्षर को बता देते हैं जो मनुष्य के ह्रदय में पहले से ही रमा हुआ है।

चार:-

क्या चौथा पदार्थ या फल अमृत है। सभी शास्त्रों में अमृत की चर्चा की गई है। यह अमृत कहां है। क्या यह चरणामृत में है। परंतु चरणामृत को हम अमृत कैसे कह सकते हैं। चरणामृत तो हमारे अधरों पर लगने के उपरांत अपवित्र हो जाता है। अमृत को तो सदैव पवित्र रहना चाहिए। शिवलिंग पर कलश से बूँद-बूँद जल निरंतर बरसता रहता है। यह एक गूढ़ आध्यात्मिक मर्म को समेटे हुए है। हमारे सूक्ष्म जगत में सिर के ऊपरी भाग याने शिरोभाग में एक स्थल है, जिसे सहस्त्रार चक्र, ब्रह्मरंध्र या सहस्त्रदल कमल कहते हैं।

गगन मंडल अमृत का कुआ तहाँ ब्रह्मा का वासा।

सगुरा होवे भर भर पीवे निगुरा मरत प्यासा।।

गगन में उल्टा कुँआ है, जहाँ वह परमात्मा स्वयं विराजमान है। अब यदि हम आकाश में खोजने लग जाएँ तो सारी जिंदगी यह कुआं नहीं मिलेगा। क्योंकि यहाँ सांसारिक कुएँ की नहीं बल्कि उस ‘कुएँ’ की बात की गई है जो शरीर के अंदर ही है।

उपनिषद् में इस स्थल की स्पष्ट व्याख्या की गई है-

अब्जपत्रमधः पुष्पमुर्ध्वनालमधोमुखम्।

अर्थात् ऊपर की ओर नाल वाला तथा अधोभाग (नीचे) की ओर मुख किए पुष्पित एक कमल ब्रह्मरंध्र में स्थित है।

एक अन्य सरस वाणी में संत दरिया ने गाया- ‘बुन्द अखंडा सो ब्रह्मंडा’ – हमारे सिर में व्याप्त अन्तर्गगन या ब्रह्माण्ड से निरंतर, अखण्ड रूप में अमृत की बूँदे टपकती रहती हैं।

पर इस अमृत की अनुभूति केवल ब्रह्मज्ञान की दीक्षा और उसकी साधना के द्वारा ही की जा सकती है। अमृत का यह रसमय पान ही जीवात्मा की जन्म-जन्मांतर की प्यास बुझाता है।

इस प्रकार इन चार फल का अर्थ  अत्यंत गूढ़ है जो कि बगैर गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान के प्राप्त नहीं हो सकता है।

अंत में यह कहना उचित होगा कि आपको सबसे पहले गुरु का महत्व समझना है फिर गुरुवर की ही आज्ञा से उनके ही आशीर्वाद से आपको आगे बढ़ना है और ताकि हनुमान जी का स्मरण करने से आपको बल, बुद्धि और विद्या प्रदान करेंगे और सभी कष्टों को दूर करेंगे।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 137 – हरवलेले माणूसपण ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 137 – हरवलेले माणूसपण ☆

समृध्दीने नटलेल घर पाहून हरवले देहभान ।

शोधून सापडेना कुठेही हरवलेले माणूसपण ।।धृ।।

 

कुत्र्या पासून सावध राहा भलीमोठी पाटी।

भारतीय स्वागताची आस ठरली खोटी।

शहानिशा करून सारी आत घेई वॉचमन ।।१।।

 

झगमगाट पाहून सारा पडले मोठे कोडे ।

सोडायचे कुठे राव हे तुटलेले जोडे ।

ओशाळल्या मनाने कोपऱ्यात ठेऊन ।।२।।

 

सोफा टीव्ही एसी सारा चकचकीतच मामला।

पाण्यासाठी जीव मात्र वाट पाहून दमला ।

नोकराने आणले पाणी भागली शेवटी तहान ।।३।।

 

भव्य प्रासादातील तीन जीव पाहून ।

श्रीमंतीच्या कोंदणाने गेलो पुरता हेलावून ।

चहावरच निघालो अखेर रामराम ठोकून।।४।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #167 ☆ शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा  ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 167 ☆

☆ शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा 

‘शिकायतें कम, शुक्रिया ज़्यादा कर देते हैं वह काम/ हो जाता है जिससे इंसान का जग में नाम/ और ज़िंदगी हो जाती आसान।’ जी हां! यही सत्य है जीवन का– शिकायत स्वयं से हो या दूसरों से; दोनों का परिणाम विनाशकारी होता है। यदि आप दूसरों से शिकायत करते हैं, तो उनका नाराज़ होना लाज़िमी है और यदि शिकायत आपको ख़ुद से है, तो उसके अनापेक्षित प्रतिक्रिया व परिणाम कल्पनातीत घातक हैं। अक्सर ऐसा व्यक्ति तुरंत प्रतिक्रिया देकर अपने मन की भड़ास निकाल लेता है, जिससे आपके हृदय को ठेस ही नहीं लगती; आत्मसम्मान भी आहत होता है। कई बार अकारण राई का पहाड़ बन जाता है। तलवारें तक खिंच जाती हैं और दोनों एक-दूसरे की जान तक लेने को उतारू हो जाते हैं। यदि हम विपरीत स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो आपको शिकायत स्वयं रहती है और आप अकारण स्वयं को ही दोषी समझना प्रारंभ कर देते हैं उस कर्म या अपराध के लिए, जो आपने सायास या अनायास किया ही नहीं होता। परंतु आप वह सब सोचते रहते हैं और उसी उधेड़बुन में मग्न रहते हैं।

परंतु जिस व्यक्ति को शिक़ायतें कम होती हैं से तात्पर्य है कि वह आत्मकेंद्रित व आत्मसंतोषी प्राणी है तथा अपने इतर किसी के बारे में सोचता ही नहीं; आत्मलीन रहता है। ऐसा व्यक्ति हर बात का श्रेय दूसरों को देता है तथा विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँधता है। सो! उसके सब कार्य संपन्न हो जाते हैं और जग में उसके नाम का ही डंका बजता है। सब लोग उसके पीछे भी उसकी तारीफ़ करते हैं। वास्तव में प्रशंसा वही होती है, जो मानव की अनुपस्थिति में भी की जाए और वह सब आपके मित्र, स्नेही, सुहृद व दोस्त ही कर सकते हैं, क्योंकि वे आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं। ऐसे लोग बहुत कठिनाई से मिलते हैं और उन्हें तलाशना पड़ता है। इतना ही नहीं, उन्हें सहेजना पड़ता है तथा उन पर ख़ुद से बढ़कर विश्वास करना पड़ता है, क्योंकि दोस्ती में शक़, संदेह, संशय व शंका का स्थान नहीं होता।

‘हालात सिखाते हैं बातें सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह ही होता है’ गुलज़ार का यह कथन संतुलित मानव की वैयक्तिक विशेषताओं पर प्रकाश डालता है कि परिस्थितियाँ ही मन:स्थितियों को निर्मित करती हैं। हालात ही मानव को सुनना व सहना सिखाते हैं, परंतु ऐसा विपरीत परिस्थितियों में होता है। यदि समय अनुकूल है, तो दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं, अन्यथा अपने भी अकारण पराए बनकर दुश्मनी निभाते हैं। अक्सर अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, क्योंकि वे उनके हर रहस्य से अवगत होते हैं और उनके क्रियाकलापों से परिचित होते हैं।

इसलिए हमें दूसरों से नहीं, अपनों से भयभीत रहना चाहिए। अपने ही, अपनों को सबसे अधिक हानि पहुंचाते हैं, क्योंकि दूसरों से आपसे कुछ भी लेना-देना नहीं होता। सो! मानव को शिकायतें नहीं, शुक्रिया अदा करना चाहिए। ऐसे लोग विनम्र व संवेदनशील होते हैं। वे स्व-पर से ऊपर होते हैं; सबको समान दृष्टि से देखते हैं और उनके सब कार्य स्वत: संपन्न हो जाते हैं, क्योंकि सबकी डोर सृष्टि-नियंता के हाथ में होती है। हम सब तो उसके हाथों की कठपुतलियाँ हैं। ‘वही करता है, वही कराता है/ मूर्ख इंसान तो व्यर्थ ही स्वयं पर इतराता है।’ उस सृष्टि-नियंता की करुणा-कृपा के बिना तो पत्ता तक भी नहीं हिल सकता। सो! मानव को उसकी सत्ता के सम्मुख सदैव नतमस्तक होना पड़ता है, क्योंकि शिकायत करने व दूसरों पर दोषारोपण करने का कोई लाभ व औचित्य नहीं होता; वह निष्प्रयोजन होता है।

‘मोहे तो एक भरोसो राम’ और ‘क्यों देर लगा दी कान्हा, कब से राह निहारूँ’ अर्थात् जो व्यक्ति उस परम सत्ता में विश्वास कर निष्काम कर्म करता है, उसके सब कार्य स्वत: संपन्न हो जाते हैं। आस्था, विश्वास व निष्ठा मानव का सर्वोत्कृष्ट गुण है। ‘तुलसी साथी विपद के, विद्या, विनय, विवेक’ अर्थात् जो व्यक्ति विपत्ति में विवेक से काम करता है; संतुलन बनाए रखता है; विनम्रता को धारण किए रखता है; निर्णय लेने से पहले उसके पक्ष-विपक्ष, उपयोगिता-अनुपयोगिता व लाभ-हानि के बारे में सोच-विचार करता है, उसे कभी भी पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता। दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति अपने अहम् का त्याग कर देता है, वही व्यक्ति संसार में श्रद्धेय व पूजनीय हो जाता है व संसार में उसका नाम हो जाता है। सो! मानव को अहम् अर्थात् मैं, मैं और सिर्फ़ मैं के व्यूह से बाहर निकलना अपेक्षित है, क्योंकि व्यक्ति का अहम् ही सभी दु:खों का मूल कारण है। सुख की स्थिति में वह उसे सबसे अलग-थलग और कर देता है और दु:ख में कोई भी उसके निकट नहीं आना चाहता। इसलिए यह दोनों स्थितियाँ बहुत भयावह व घातक हैं।

चाणक्य के मतानुसार ‘ईश्वर चित्र में नहीं, चरित्र में बसता है। इसलिए अपनी आत्मा को मंदिर बनाओ।’ युधिष्ठर जीवन में काम, क्रोध व लोभ छोड़ने पर बल देते हुए कहते हैं कि ‘अहंकार का त्याग कर देने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने से  शोक रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान और लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है।’ परंतु यदि हम आसन्न तूफ़ानों के प्रति सचेत रहते हैं, तो हम शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। सो! मानव को अपना व्यवहार सागर की भांति नहीं रखना चाहिए, क्योंकि सागर में भले ही अथाह जल का भंडार होता है, परंतु उसका खारा जल किसी के काम नहीं आता। उसका व्यक्तित्व व व्यवहार नदी के शीतल जल की भांति होना चाहिए, जो दूसरों के काम आता है तथा नदी में अहम् नहीं होता; वह निरंतर बहती रहती है और अंत में सागर में विलीन हो जाती है। मानव को अहंनिष्ठ नहीं होना चाहिए, ताकि वह विषम परिस्थितियों का सामना कर सके और सबके साथ मिलजुल कर रह सके।

‘आओ! मिल जाएं हम सुगंध और सुमन की तरह,’ मेरे गीत की पंक्तियाँ इस भाव को अभिव्यक्त करती हैं कि मानव का व्यवहार भी कोमल, विनम्र, मधुर व हर दिल अज़ीज़ होना चाहिए। वह जब तक वहाँ रहे, लोग उससे प्रेम करें और उसके जाने के पश्चात् उसका स्मरण करें। आप ऐसा क़िरदार प्रस्तुत करें कि आपके जाने के पश्चात् भी मंच पर तालियाँ बजती रहें अर्थात् आप जहाँ भी हैं–अपनी महक से सारे वातावरण को सुवासित करते रहें। सो! जीवन में विवाद नहीं; संवाद में विश्वास रखिए– सब आपके प्रिय बने रहेंगे। मानव को जीवन में सामंजस्यता की राह को अपनाना चाहिए; समन्वय रखना चाहिए। ज्ञान व क्रिया में समन्वय होने पर ही इच्छाओं की पूर्ति संभव है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा। जहां स्नेह, त्याग व समर्पण ‘होता है, वहां समभाव अर्थात् रामायण होती है और जहां इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, संघर्ष व महाभारत होता है।

मानव के लिए बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है, ताकि जीवन में आत्मसंतोष बना रहे, क्योंकि उससे जीवन में आत्म-नियंत्रण होगा। फलत: आत्म-संतोष स्वत: आ जाएगा और जीवन में न संघर्ष न होगा; न ही ऊहापोह की स्थिति होगी। मानव अपेक्षा और उपेक्षा के न रहने पर स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठ जाएगा। यही है जीने की सही राह व सर्वोत्तम कला। सो! मानव को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए; सुख-दु:ख में सम रहना चाहिए क्योंकि इनका चोली दामन का साथ है। मानव को हर परिस्थिति में सम रहना चाहिए। समय सदैव एक-सा नहीं रहता। प्रकृति भी पल-पल रंग बदलती है। जो इस संसार में आया है; उसका अंत अवश्यंभावी है। इंसान आया भी अकेला है और उसे अकेले ही जाना है। इसलिए ग़िले-शिक़वे व शिकायतों का अंबार लगाने से बेहतर है– जो मिला है मालिक का शुक्रिया अदा कीजिए तथा जीवन में सब के प्रति आभार व्यक्त कीजिए; ज़िंदगी खुशी से कटेगी, अन्यथा आप जीवन-भर दु:खी रहेंगे। कोई आपके सान्निध्य में रहना भी पसंद नहीं करेगा। इसलिए ‘जीओ और जीने दो’ के सिद्धांत का अनुसरण कीजिए, ज़िंदगी उत्सव बन जाएगी।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #166 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 166 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

कानों में मिसरी घुले,नन्हें की किलकार।

महक उठी घर अंगना,सांसों से फुलवार।।

आने से तेरे हुए ,सभी स्वप्न साकार।

मन आनंदित हो उठा,छाने लगी बहार।।

तुझको मैं तो देखकर,होने लगी निहाल।

बिन तेरे कुछ भी नहीं,रहती थी बेहाल।।

पाकर तुझको मिल गई,एक नई मुस्कान।

आने से तेरे मिली, इक माँ की पहचान।।

 तेरे अधरों पर बनी रहे, निश्छल  सी मुस्कान।

उच्च शिखर पर मिल रहे, नित नूतन सोपान।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #152 ☆ “विश्वास पर दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “विश्वास पर दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 152 ☆

विश्वास पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आपस में मत तोड़िये, आप किसी की आस

मुश्किल से जग में बने, आपस में विश्वास

होते एक समान ही, प्रेम और विश्वास

जबरन ये होते नहीं, करिए लाख प्रयास

जीवन में गर चाहिए, सर्वांगीण विकास

दृढ़ इच्छा मन में रखें, खुद पर कर विश्वास

संकल्पों की शक्ति से, पूरे होते काम

मुश्किल लगें न काज भी, होता जग में नाम

कहते सभी प्रबुद्ध जन, फलदायक विश्वास

बिरले ही तोड़ें इसे, रख स्वार्थ की आस

गुण ग्राहक मिलते सदा, अवगुण का क्या मोल

कोयल भाती सभी को, कर्कश कागा बोल

सोच समझ कर कीजिये, कलियुग में विश्वास

टूटा गर इक बार भी, कभी न आता पास

खड़े सत्य के साथ जो, ईश्वर उनके साथ

मुश्किल भी होती सरल, ऊँचा होता माथ

एक भरोसा राम पर, रखते हम “संतोष”

जिनसे ही जीवन चले, जो सच्चे धन-कोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #159 ☆ ईश वंदन…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 159 – विजय साहित्य ?

☆ ईश वंदन…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

(वसंत पंचमी.. देवी शारदा जन्मोत्सव निमित्ताने काव्य रचना…)

विनम्र भावे, माझे वंदन

आशिष द्यावा गौरी नंदन………||धृ.||

 

विद्या दायिनी, देवी शारदा,

रहा पाठिशी, सदा सर्वदा

कला गुणांचे, भाळी चंदन……||१||

 

अभिजात ते,विणा वादन

मती गतीचे, तूं मानांकन

जन्मदिनी या, जागे स्पंदन……||२||

 

शब्द फुलांची, ओंजळ हाती

नव निर्मिती, जुळवी नाती

काव्य कलेचे,व्हावे मंथन……||३||

 

ऋतू वसंती, सजे पंचमी

अक्षर लेणे, तुझ्या संगमी

प्रतिभा शक्ती, होई गुंजन…..||४||

 

माघ पंचमी, मिळो चेतना

कृपा प्रसादी, तुझी प्रेरणा

वाणी, वैखरी, हे संकीर्तन……||५||

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

२६/१/२०२३

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १६ (इंद्र सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १६ (इंद्र सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १६ (इंद्र सूक्त )

ऋषी – मेधातिथि कण्व: देवता – इंद्र 

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील सोळाव्या  सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी इंद्रदेवतेला आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे सूक्त इंद्रसूक्त म्हणून ज्ञात आहे. 

मराठी भावानुवाद : 

आ त्वा॑ वहन्तु॒ हर॑यो॒ वृष॑णं॒ सोम॑पीतये । इंद्र॑ त्वा॒ सूर॑चक्षसः ॥ १ ॥

पर्जन्याची तूच देवता वृष्टी तू करीशी 

सोमरसाला तुला अर्पितो स्विकारुनिया घेशी

करीत दर्शन सूर्याचे यावे या यज्ञासी

हरिद्वर्ण तव अश्व रथातून घेउनी यावे तुजसी ||१||

इ॒मा धा॒ना घृ॑त॒स्नुवो॒ हरी॑ इ॒होप॑ वक्षतः । इंद्रं॑ सु॒खत॑मे॒ रथे॑ ॥ २ ॥

ज्या इंद्राचे हिरवे वारू घेऊन येत तयांना

हविर्भाग हे सिद्ध ठेविले प्रसन्न करण्या त्यांना 

घृतात ओथंबुनिया धानी तुम्हास्तवे सज्ज

स्वीकारुनिया झणी तयांना राख अमुची लाज ||२||

इंद्रं॑ प्रा॒तर्ह॑वामह॒ इंद्रं॑ प्रय॒त्यध्व॒रे । इंद्रं॒ सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥ ३ ॥

प्रभात समयी मंजुळ गातो इंद्रस्तोत्र आम्ही

यज्ञाचा आरंभ होतसे यावे झडकरी तुम्ही

आवाहन हे आर्त होऊनी सुरेन्द्रास करितो

सोमरसाच्या सेवनासि देवेद्रा पाचारितो ||३||

उप॑ नः सु॒तमा ग॑हि॒ हरि॑भिरिंद्र के॒शिभिः॑ । सु॒ते हि त्वा॒ हवा॑महे ॥ ४ ॥

सोमरसाला सिद्ध करोनी पाचारण तुम्हा 

आगमनाची तुमच्या आहे आर्त प्रतिक्षा आम्हा  

रथयानाला अश्व जोडूनी रथावरी आरुढ व्हा

होऊनिया साक्षात प्राशुनी घ्या या सोमरसाला ||४||

सेमं न॒ स्तोम॒मा ग॒ह्युपे॒दं सव॑नं सु॒तम् । गौ॒रो न तृ॑षि॒तः पि॑ब ॥ ५ ॥

भक्तीभावाने आळवितो तुम्हास ही प्रार्थना

ऐकुनिया तिज अपुली मानुन आम्हा धन्य करा ना

यज्ञी येउन सोमरसाला घावे  स्वीकारुनी

मृगासारखे तृषार्त होउनि घ्यावे त्या प्राशुनी ||५||

इ॒मे सोमा॑स॒ इन्द॑वः सु॒तासः॒ अधि॑ ब॒र्हिषि॑ । ताँ इ॑न्द्र॒ सह॑से पिब ॥ ६ ॥

सोमरसाचा मान राखण्या दर्भ इथे मांडिले 

सोमरसाने भरुनी कलशा दर्भावर ठेविले

काये तुमच्या आगमनाचे होत फार क्लेश 

परिहारार्थ त्याच श्रमांच्या प्राशी सोमरस ||६|| 

अ॒यं ते॒ स्तोमो॑ अग्रि॒यो हृ॑दि॒स्पृग॑स्तु॒ शंत॑मः । अथा॒ सोमं॑ सु॒तं पि॑ब ॥ ७ ॥

अती मधुर ही स्तवने गातो तुमच्या आवाहना

अंतर्यामी भावुक होवो तुमच्या अंतःकरणा

प्रसन्न व्हावे अशा स्तुतीने देई या दाना

सोमरसाला प्राशुन घेण्या यावे या यज्ञा ||७||

विश्व॒मित्सव॑नं सु॒तमिंद्रो॒ मदा॑य गच्छति । वृ॒त्र॒हा सोम॑पीतये ॥ ८ ॥

सोमरसाचे प्राशन करण्या साऱ्या यज्ञात

रिपुसंहारी इंद्र जातसे मोठ्या मोदात

सोमरसाची अवीट गोडी देवेन्द्रा आहे

यज्ञामध्ये भक्तगणांच्या कल्याणा पाहे ||८||

सेमं नः॒ काम॒मा पृ॑ण॒ गोभि॒रश्वैः॑ शतक्रतो । स्तवा॑म त्वा स्वा॒ध्यः ॥ ९ ॥

समर्थ हे इंद्रा आम्हाला देई रे वैभव

धेनु अश्व अन् धनास देण्या आम्हासी तू पाव 

अमुच्या साऱ्या आकाक्षांना स्वरूप मूर्त दे

तुझ्याच स्तवनासाठी बुद्धी जागृत राहू दे ||९||  

(हे सूक्त व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.) 

https://youtu.be/KjGbB_bQX7k

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Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 16 :: ऋग्वेद मंडळ १ सूक्त १६

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 133 ☆ भाषा का विज्ञान ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना भाषा का विज्ञान। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 132 ☆

☆ भाषा का विज्ञान 

मन की बात को समझने हेतु नयनों को पढ़ना जरूरी होता है। दिमाग में क्या चल रहा है, इसे माइंडरीडर आसानी से बता देते हैं। मौन जब मुखरित होता है तो अनकहा भी सुनाई देने लगता है। जरा सोचिए सुनने- सुनाने से क्या होगा? आपको समाधान की ओर जाना चाहिए। हम आसानी से दूसरों के मन को समझ लेते हैं, किंतु कहीं वो कुछ माँगने न लगे इसलिए जान बूझ कर अनजान बनने का नाटक करते हैं।

अब सोचिए कि क्या जरूरत है सब के विचारों को पढ़ने की? हम स्वयं को समझे बिना सब को ज्ञान बाँटने चल देते हैं। देखा- अनदेखा सब कुछ नजर अंदाज करते हुए व्यर्थ का गाल बजाने लगते हैं। हर तर्क विज्ञान की कसौटी पर कसा जा सकता है बस प्रयोगशाला कैसी होगी इसका ध्यान जरूर रखना चाहिए।

मन के भावों को शब्दों से व्यक्त करना उतना आसान नहीं होता जितना हाव- भाव को देखकर समझना सरल होता है। हर चेहरा मुस्कराए इसके लिए एक ही उपाय लागू नहीं किया जा सकता है। जैसे हर मर्ज की दवा  अलग- अलग होती है, वैसे ही मनोभाव आवश्यकता अनुसार बदलते रहते हैं। जिसको जिस तरीके से समझ में आए वैसा समझाने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।

धर्म की कसौटी पर खुद को परखना बहुत सरल होता है, क्योंकि जब से समझ शुरू होती है, हम कोई न कोई विचारधारा के साथ जुड़ते चले जाते हैं। श्रद्धा और विश्वास के सहारे अपने सभी कार्यों को प्रार्थना द्वारा आसानी से पूर्ण करते जाते हैं। बस यहीं से हमारी आस्था धार्मिक विचारों के प्रति सुदृढ़ होती जाती है। क्या फर्क पड़ता है कि हम किस तरह से स्वयं को विकसित कर पाते हैं? जो भी हमें मानसिक सुकून दे उस भाषा को पढ़ना, समझना आना ये भी तो एक कला है। सच्चाई के साथ जुड़कर सर्वमंगल का भाव रखते हुए कार्यों को करते कराते रहें एक न एक दिन सत्य सब को समझ में आएगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 144 ☆ बाल-कविता  – डालों पर फल चाँदी -चाँदी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 144 ☆

☆ बाल-कविता  – डालों पर फल चाँदी – चाँदी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆ \

अतिशय मौसम प्यारा – प्यारा।

बिल्ली मौसी चली सैर पर

बच्चों का सँग लिए पिटारा।।

 

पेड़ों पर चाँदी है लिपटी

डालों के फल चाँदी – चाँदी।

देख चकित हैं बच्चे सारे

अद्भुत लगता आज नजारा।।

 

घर हैं चाँदी , घर हैं चंदा

चारों ओर बर्फ के बदरा।

हाथ में ले – ले खेलें होली

गिरा मौसमी देखो पारा।।

 

गिरि – पर्वत सब ढके बर्फ से

सन्नाटा हर ओर है पसरा।

मूल निवासी कैद घरों में

पानी जमा नलों में सारा।।

 

बिल्ली जैसे निरे सैलानी

धूम मचाने शिमला आए।

हुई दिक्कतें निरी वहाँ पर

लौट के बुद्धू घर को आए।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #132 – लघुकथा – “चोर !” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “चोर !”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 132 ☆

☆ लघुकथा – “चोर !” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

नए शिक्षक ने शाला प्रांगण में मोटरसाइकिल घुसाईं, तभी साथ चल रहे पुराने शिक्षक ने बाथरूम के ऊपर बैठे लड़के की ओर इशारा किया, “सरजी! यह रोज ही शाला भवन पर चढ़ जाता है।”

“आप उसे उतारते नहीं है?”

“इसे कुछ बोलो तो हमारे माथे आता है, यह शासकीय बिल्डिंग है आपकी नहीं।” कहते हुए वे बाथरूम के पास पहुंच गए।

“क्यों भाई, ऊपर चढ़ने का अभ्यास कर रहे हो?” नए शिक्षक ने मोटरसाइकिल रोकते हुए लड़के से कहा। जिसे सुनकर वह अचकचा गया,”क्या!” वह धीरे से इतना ही बोल पाया।

“यही कि दूसरों के भवन पर चढ़ने-उतरने का अभ्यास कर रहे हो। अच्छा है यह भविष्य में बहुत काम आएगा।”

यह सुन कर एकटक देखता रहा।

“बढ़िया है। अभ्यास करते रहो। कमाना-खाने नहीं जाना पड़ेगा।”

“क्या कहा सरजी?” वह सीधा बैठते हुए बोला।

“यही कि रात-बिरात दूसरों के घर में घुसने के लिए यह अभ्यास काम आएगा।”

यह सुनते ही लड़का नीचे उतर गया। सीधा मैदान के बाहर जाते हुए बोला, “सॉरी सर!”

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-10-2021 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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