हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #166 ☆ अपेक्षा व उपेक्षा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अपेक्षा व उपेक्षा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 166 ☆

☆ अपेक्षा व उपेक्षा ☆

‘अत्यधिक अपेक्षा मानव के जीवन को वास्तविक लक्ष्य से भ्रमित कर मानसिक रूप से दरिद्र बना देती है।’ महात्मा बुद्ध मन में पलने वाली अत्यधिक अपेक्षा की कामना को इच्छा की परिभाषा देते हैं। विलियम शेक्सपीयर के मतानुसार ‘अधिकतर लोगों के दु:ख एवं मानसिक अवसाद का कारण दूसरों से अत्यधिक अपेक्षा करना है। यह पारस्परिक रिश्तों में दरार पैदा कर देती है।’ वास्तव में हमारे दु:ख व मानसिक तनाव हमारी ग़लत अपेक्षाओं के परिणाम होते हैं। सो! दूसरों से अपेक्षा करना हमारे दु:खों का मूल कारण होता है, जब हम दूसरों की सोच को अपने अनुसार बदलना चाहते हैं। यदि वे उससे सहमत नहीं होते, तो हम तनाव में आ जाते हैं और हमारा मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है; जो हमारे विघटन का मूल कारण बनता है। इससे पारिवारिक संबंधों में खटास आ जाती है और हमारे जीवन से शांति व आनंद सदा के लिए नदारद हो जाते हैं। सो! मानव को अपेक्षा दूसरों से नहीं; ख़ुद से रखनी चाहिए।

अपेक्षा व उपेक्षा एक सिक्के के दो पहलू हैं। यह दोनों हमें अवसाद के गहरे सागर में भटकने को छोड़ देते हैं और मानव उसमें डूबता-उतराता व हिचकोले खाता रहता है। उपेक्षा अर्थात् प्रतिपक्ष की भावनाओं की अवहेलना करना; उसकी ओर तवज्जो व अपेक्षित ध्यान न देना दिलों में दरार पैदा करने के लिए काफी है। यह सभी दु:खों का कारण है। अहंनिष्ठ मानव को अपने सम्मुख सब हेय नज़र आते हैं और  इसीलिए पूरा समाज विखंडित हो जाता है।

मनुष्य इच्छाओं, अपेक्षाओं व कामनाओं का दास है तथा इनके इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है। अक्सर हम दूसरों से अधिक अपेक्षा व उम्मीद रखकर अपने मन की शांति व सुक़ून उनके आधीन कर देते हैं। अपेक्षा भिक्षाटन का दूसरा रूप है। हम उसके लिए कुछ करने के बदले में प्रतिदान की अपेक्षा रखते हैं और बदले में अपेक्षित उपहार न मिलने पर उसके चक्रव्यूह में फंस कर रह जाते हैं। वास्तव में यह एक सौदा है, जो हम भगवान से करने में भी संकोच नहीं करते। यदि मेरा अमुक कार्य सम्पन्न हो गया, तो मैं प्रसाद चढ़ाऊंगा या तीर्थ-यात्रा कर उनके दर्शन करने जाऊंगा। उस स्थिति में हम भूल जाते हैं कि वह सृष्टि-नियंता सबका पालनहार है; उसे हमसे किसी वस्तु की दरक़ार नहीं। हम पारिवारिक संबंधों से अपेक्षा कर उनकी बलि चढ़ा देते हैं, जिसका प्रमाण हम अलगाव अथवा तलाक़ों की बढ़ती संख्या को देखकर लगा सकते हैं। पति-पत्नी की एक-दूसरे से अपेक्षाओं की पूर्ति ना होने के कारण उनमें अजनबीपन का एहसास इस क़दर हावी हो जाता है कि वे एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करते और तलाक़ ले लेते हैं। परिणामत: बच्चों को एकांत की त्रासदी को झेलना पड़ता है। सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हुए अपने-अपने हिस्से का दर्द महसूसते हैं, जो धीरे-धीरे लाइलाज हो जाता है। इसका मूल कारण अपेक्षा के साथ-साथ हमारा अहं है, जो हमें झुकने नहीं देता। एक अंतराल के पश्चात् हमारी मानसिक शांति समाप्त हो जाती है और हम अवसाद के शिकार हो जाते हैं।

मानव को अपेक्षा अथवा उम्मीद ख़ुद से करनी चाहिए, दूसरों से नहीं। यदि हम उम्मीद ख़ुद से रखते हैं, तो हम निरंतर प्रयासरत रहते हैं और स्वयं को लक्ष्य की पूर्ति हेतू झोंक देते हैं। हम असफलता प्राप्त होने पर भी निराश नहीं होते, बल्कि उसे सफलता की सीढ़ी स्वीकारते हैं। विवेकशील पुरुष अपेक्षा की उपेक्षा करके अपना जीवन जीता है। अपेक्षाओं का गुलाम होकर दूसरों से उम्मीद ना रखकर आत्मविश्वास से अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहता है। वास्तव में आत्मविश्वास आत्मनिर्भरता का सोपान है।

क्षमा से बढ़ कर और किसी बात में पाप को पुण्य बनाने की शक्ति नहीं है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् क्षमा सबसे बड़ा धन है, जो पाप को पुण्य में परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। क्षमा अपेक्षा और उपेक्षा दोनों से बहुत ऊपर होती है। यह जीने का सर्वोत्तम अंदाज़ है। हमारे संतजन व सद्ग्रंथ इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कहते हैं। जब हम अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण कर लेंगे, तो हमें किसी से अपेक्षा भी नहीं रहेगी और ना ही नकारात्मकता का हमारे जीवन में कोई स्थान होगा। नकारात्मकता का भाव हमारे मन में निराशा व दु:ख का सबब जगाता है और सकारात्मक दृष्टिकोण हमारे जीवन को सुख-शांति व आनंद से आप्लावित करता है। सो! हमें इन दोनों मन:स्थितियों से ऊपर उठना होगा, क्योंकि हम अपना सारा जीवन लगा कर भी आशाओं का पेट नहीं भर सकते। इसलिए हमें अपने दृष्टिकोण व नज़रिए को बदलना होगा; चिंतन-मनन ही नहीं, मंथन करना होगा। वर्तमान स्थिति पर विभिन्न आयामों से दृष्टिपात करना होगा, ताकि हम अपनी संकीर्ण मनोवृत्तियों से ऊपर उठ सकें तथा अपेक्षा उपेक्षा के जंजाल से मुक्ति प्राप्त कर सकें। हर परिस्थिति में प्रसन्न रहें तथा निराशा को अपने हृदय मंदिर में प्रवेश ने पाने दें तथा प्रभु कृपा की प्रतीक्षा नहीं, समीक्षा करें, क्योंकि परमात्मा हमें वह देता है, जो हमारे लिए हितकर होता है। सो! हमें उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देनी चाहिए और सदा उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। हमें हर घटना को एक नई सीख के रूप में लेना चाहिए, तभी हम मुक्तावस्था में रहते हुए जीते जी मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे। इस स्थिति में हम केवल अपने ही नहीं, दूसरों के जीवन को भी सुख-शांति व अलौकिक आनंद से भर सकेंगे। ‘संत पुरुष दूसरों को दु:खों से बचाने के लिए दु:ख सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दु:ख में डालने का हर उपक्रम करते हैं।’ बाल्मीकि जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। सो! अपेक्षा व उपेक्षा का त्याग कर जीवन जीएं। आपके जीवन में दु:ख भूले से भी दस्तक नहीं देगा। आपका मन सदा प्रभु नाम की मस्ती में खोया रहेगा–मैं और तुम का भेद समाप्त हो जाएगा और जीवन उत्सव बन जाएगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #165 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 165 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

बीत गया पतझड़ अभी, छाने लगा बसंत।

अच्छे दिन अब आ गए, हुआ शीत का अंत।।

पौधे भी अब कर रहे, कलियों की ही आस।

देखो दस्तक दे रहा, खड़ा हुआ मधुमास।।

पीले खिलते फूल, सरसों पर छाने लगे।

है मौसम अनुकूल, रवि के दिन आने लगे।

सरसों पर छाने लगे, खिलते पीले फूल।

दिन रवि के आने लगे, है मौसम अनुकूल।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #152 ☆ ““युद्ध पर आधारित कुछ दोहे…” …” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “युद्ध पर आधारित कुछ दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 152 ☆

युद्ध पर आधारित कुछ दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

इस जग में सब चाहते,अपनी ऊँची नाक

रूस अमिरिका डरा कर,जमा रहे हैं धाक

चीन बढ़ाने में लगा, अपना साम्राज्य

ऊँच-नीच सब त्यागकर, करता सबको बाध्य

नौ महीने गुजर गए, अहम हुआ न शांत

रसिया का मन हो गया, अब तो खूब अशांत

ढेर तबाही के लगे, लोग हुये बेहाल

चले गए परदेश में, कह कर आया काल

रुकी उन्नति देश की, काम हुए अवरुद्ध

हिंसा,घृणा व क्रोध वश, छेड़ दिया है युद्ध

युद्ध बढ़ाता डर सदा, बन करके हैवान

पीड़ित होते आमजन, हमलावर शैतान

करें अमन की बात जो, वही बेचते शस्त्र

नव विध्वंसक बना कर, जमा करें नव अस्त्र

निर्धन को धमका रहा, कबसे पूँजीवाद

जमीं खनिज सब हड़प कर, करता खूब विवाद

दादा बनना चाहते, रूस अमरिका चीन

आज अहम की ये सभी, बजा रहे हैं बीन

महायुद्ध के शोर में, बचपन है खामोश

दिखें सशंकित आमजन, पनपे बस आक्रोश

कलियुग के इस युद्ध का, कोई नीति न धर्म

चाहें केवल जीत ही, उन्हें न कोई शर्म

रसिया केवल चाहता, दास बने यूक्रेन

उसकी मर्जी से चले, खोकर अपना चैन

नभ मंडल से बमों की, खूब करें बौछार

मानवता भी सिसकती, कैसा अत्याचार

तानाशाही बढ़ रही, केवल देखें स्वार्थ

जहाँ क्रूर शासक वहाँ, कहाँ रहे परमार्थ

करें वार्ता बैठकर, अंतस रहता रोष

चलें अमन की राह पर, कहता यह “संतोष”

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १५ (ऋतु सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १५ (ऋतु सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १५ ( ऋतु सूक्त )

ऋषी – मेधातिथि कण्व : देवता – १- इंद्र; २- इंद्र; ३- त्वष्ट्ट; ४- अग्नि; ५- इंद्र; ६- मित्रावरुण; ७-१० द्रविणोदस् अग्निः; ११- अश्विनीकुमार; १२- अग्नि

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील पंधराव्या सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी इंद्र, त्वष्ट्ट, मित्र, वरुण, द्रविनोदस् अग्नि, अश्विनीकुमार आणि अग्नि या ऋतुकारक देवतांना आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे सूक्त ऋतुसूक्त म्हणून ज्ञात आहे. 

मराठी भावानुवाद : 

इंद्र॒ सोमं॒ पिब॑ ऋ॒तुना त्वा॑ विश॒न्त्विन्द॑वः । म॒त्स॒रास॒स्तदो॑कसः ॥ १ ॥

ऋतुंसवे देवेंद्रा येउन सोमरसा प्राशुन घ्या  

तुमच्या उदरा सोमरसाने भरा तृप्त व्हावया 

प्राशन होता सोमरसाला बहू मोद लाभेल 

तुमच्या उदरी सोमरसही कृतार्थ तो होईल ||१||

मरु॑तः॒ पिब॑त ऋ॒तुना॑ पो॒त्राद्य॒ज्ञं पु॑नीतन । यू॒यं हि ष्ठा सु॑दानवः ॥ २ ॥

मरुत देवते सवे घेउनी ऋतू देवतांना 

सोमरसाला अर्पण करितो भक्तीने सर्वांना

पात्रातुनिया पान करावे मधूर सोमरसाचे

दानशूर तुम्ही दाना द्यावे यज्ञा साफल्याचे ||२||

अ॒भि य॒ज्ञं गृ॑णीहि नो॒ ग्नावो॒ नेष्टः॒ पिब॑ ऋ॒तुना॑ । त्वं हि र॑त्न॒धा असि॑ ॥ ३ ॥

यावे उभयता नेष्ट्र देवते अमुच्या यज्ञाला

धन्य करावे आम्हा अमुच्या प्रशंसून यज्ञाला

तुमचा  खजिना अमूल्य रत्ने वाहे ओसंडोनी

ऋतुसमवेत सोमरसाचे घ्यावे पान करोनी ||३||

 

अग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह सा॒दया॒ योनि॑षु त्रि॒षु । परि॑ भूष॒ पिब॑ ऋ॒तुना॑ ॥ ४ ॥

देवांना घेउनिया अग्निदेवा यागा यावे

तीन आसनांवरी तयांना विराजीतहि करावे

अलंकार त्यांवरी चढवुनी मोहक सजवावे

सर्व ऋतूंच्या संगे अनला सोमपाना करावे ||४||

ब्राह्म॑णादिंद्र॒ राध॑सः॒ पिबा॒ सोम॑मृ॒तूँरनु॑ । तवेद्धि स॒ख्यमस्तृ॑तम् ॥ ५ ॥

सोमपान करुनीया सारे ऋतू तुष्ट होता

प्राशन करि रे या कलशातुनी सोमरसा तू आता

हे देवेंद्रा तुझी कृपा तर शाश्वत अविनाशी  

प्रसन्न व्हावे आर्जव अर्पण तुमच्या पायाशी ||५||

यु॒वं दक्षं॑ धृतव्रत॒ मित्रा॑वरुण दू॒ळभं॑ । ऋ॒तुना॑ य॒ज्ञमा॑शाथे ॥ ६ ॥

सर्व तयारी यज्ञाची या झाली रे सिद्धता 

विघ्न आणण्या यासी कोणी समर्थ नाही आता 

सृष्टीपालक मित्रा वरुणा ऋतू घेउनी या

इथे मांडिल्या यज्ञाला स्वीकारायाला या ||६||

द्र॒वि॒णो॒दा द्रवि॑णसो॒ ग्राव॑हस्तासो अध्व॒रे । य॒ज्ञेषु॑ दे॒वमी॑ळते ॥ ७ ॥

हे द्रविणोदस अग्निदेवा आर्त ऋत्विज 

सोमरसाच्या निर्मीतीस्तव ग्रावा घेउनी सज्ज

यागयज्ञे तुम्हा आळवित भक्तीभावाने

वैभवाभिलाषा मनी धरुनी  अर्पीती अर्चने ||७||

द्र॒वि॒णो॒दा द॑दातु नो॒ वसू॑नि॒ यानि॑ श्रृण्वि॒रे । दे॒वेषु॒ ता व॑नामहे ॥ ८ ॥

दिगंत आहे महती थोर अशा वैभवाची

द्रविणोदस आम्हा होऊ द्यावी प्राप्ती त्याची

समस्त देवांना आळविले वैभवप्राप्तीस्तव

वैभव देण्या आम्हाला तू येई सत्वर धाव ||८||

द्र॒वि॒णो॒दाः पि॑पीषति जु॒होत॒ प्र च॑ तिष्ठत । ने॒ष्ट्रादृ॒तुभि॑रिष्यत ॥ ९ ॥

द्रविणोदाला सोमरसाचे प्राशन करण्याला 

आंस लागली पूर्ण कराया होऊ सिद्ध चला

नेष्ट्रा नि ऋतु यांचे झाले अजुनी हवी करा

द्रविणोदाग्नीच्या तुष्टीस्तव सोमा सज्ज करा ||९||

यत्त्वा॑ तु॒रीय॑मृ॒तुभि॒र्द्रवि॑णोदो॒ यजा॑महे । अध॑ स्मा नः द॒दिर्भ॑व ॥ १० ॥

हे द्रविणोदा हवी अर्पिण्या तुम्ही हो चवथे

सर्व ऋतूंच्या सवे तुम्हाला हविर्भाग अर्पिले

स्वीकारुनिया घेइ तयासी कृपावंत होउनी 

प्रसाद देई आम्हा आता तू प्रसन्न होवोनी ||१०||

अश्वि॑ना॒ पिब॑तं॒ मधु॒ दीद्य॑ग्नी शुचिव्रता । ऋ॒तुना॑ यज्ञवाहसा ॥ ११ ॥

दिव्य कांतिच्या पुण्यव्रता हे अश्विनी देवा

यज्ञसिद्धीचा पवित्र पावन वर आम्हा द्यावा

सवे घेउनीया ऋतुदेवा यागास्तव यावे

सोमरसाचे प्राशन करुनी आम्हा धन्य करावे ||११||

गार्ह॑पत्येन सन्त्य ऋ॒तुना॑ यज्ञ॒नीर॑सि । दे॒वान्दे॑वय॒ते य॑ज ॥ १२ ॥

गार्ह्यपत्य हे अग्नीदेवा अमुचा गृहस्वामी तू 

सर्व ऋतुंच्या बरोबरीने अध्वर्यू  होशी तू  

मान देऊनी आर्जवासि या पाचारण हो करा 

हविर्भागासह यज्ञाला देवांना अर्पण करा ||१२||

(हे सूक्त व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)

https://youtu.be/WWfSmTvHD3w

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Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 22 Rucha 15 – 21

Rugved Mandal 1 Sukta 22 Rucha 15 – 21

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ कागदी होडी… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ कागदी होडी ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

बालपणातला पाण्यात  कागदाची होडी करून सोडणे हा खेळ खेळण्यातला आनंद काही औरच असतो नाही…पूर्वापार हा खेळ चालत आलेला आहे… अरे पाण्यात जाऊ नका भिजायला होईल, सर्दी पडसं होईल असा काळजीपोटी घरच्यांच्या रागवण्याला अक्षतांच्या वाटाण्या लावून हा खेळ खेळण्याची मजा लुटणे हा तर बालकांचा नाद खुळा असतो. बालकांचं कशाला तुम्हा आम्हा मोठ्या माणसांना देखील अजूनही त्यात गंमतच वाटत असतेच की… पाण्याच्या प्रवाहात आपली कागदी बोट अलगदपणे सोडताना किती काळजी घेत असतो, कधी ती पटकन वाहत वाहत पुढे पुढे जाते तर कधी सुरुवातीलाच पाण्यात  आडवी होते भिजते मग काही केल्या ती सरळ होतच नाही ती तशीच पुढे पुढे वाहत जाते.. मन जरा खट्टू होतं..पण चेहऱ्यावर उमलणारा तो आनंद मात्र शब्दातीत असतो… कधी एकट्याने तर कधी मित्र मैत्रिणींच्या सोबत हा खेळ खेळायला जास्त मजा येते… माझी पहिली तुझी दुसरी, त्याची मागेच राहिली तर अजून कुणाची वाटेत अडकली.. नकळतपणे स्पर्धेचं स्वरूप येते.. वेळंचं भान हरपून   खेळात मग्न झालेले मन सगळं विसरायला लावतं.. शाळेची वेळ आणि हा खेळ एकमेकांशी घटट नातं असलेला असतो… अभ्यास नको पण खेळ मात्र हवा अशी  मुलं मुली अगदी बिनधास्तपणे हा खेळ खेळण्यासाठी मागेपुढे पाहत नाही… मग कुणी आई ताई दादा बाबा तिथं येऊन पाठीत धपाटे घालून ओढून नेतात. तेव्हा मात्र मान वेळावून सारखं सारखं पुढे पुढे जाणाऱ्या त्या होडी कडे मन आणि लक्ष खिळलेले असतं.. विरस मनाला होडीचा क्षणैक आनंद पुढे बसणारा  मार नुसता झेलत राहतो.. 

.. खरंतर या खेळातच आपल्या जीवनाचं सारं दडलंय असावं असं मला वाटतं.. प्रवाहात आपली जीवननौका अशीच जात असते… आपण काळजी कितीही घेतली तरी वाटेतल्या प्रवाहात अनेक अडथळे, भोवरे यांना पार करून आपल्याला आपल्या इप्सिताचा किनारा गाठायचा असतो ते ही आनंदाने… हेच तर तो खेळ सुचवत असतो… पण अजाण वयात निखळ आनंदा पुढे हे कळणार कसे… आणि मोठे होते तेव्हा हा आनंदाला विसरणे कधीही शक्य होणार नसते… बालपणीचा काळ सुखाचा आठवतो घडी घडी… पाण्यासंगे पुढे चालली माझीच ती होडी होडी… 

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470.

ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 110 ☆ लघुकथा – कँगुरिया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक लघुकथा ‘कँगुरिया’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 110 ☆

☆ लघुकथा – कँगुरिया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

ए बहिनी!  का करत हो? 

कुछ नाहीं, आपन  कँगुरिया से बतियावत  रहे।

का!  कउन कंगुरिया? इ कउन है? 

‘नाहीं समझीं का ‘? सुनीता हँसते हुए बोली।

अरे! हमार कानी उंगरिया, छोटी उंगरिया — 

अईसे बोल ना, हमका लगा तुम्हार कऊनों पड़ोसिन बा (दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं)।

कानी उंगरिया से कऊनों बतियावत है का?

अब का बताई  छुटकी! कंगुरिया जो कमाल किहेस  है, बड़े-बड़े नाहीं  कर सकत। उसकी हँसी रुक ही नहीं रही थी।

अईसा का भवा? बतउबो कि नाहीं?  हँसत रहबो खाली पीली, हम रखत हैं फोन – छुटकी नाराज होकर बोली।

अरे! तुम्हरे जीजा संगे हम बाजार गए रहे मोटरसाईकिलवा से। आंधर रहा, गाड़ी गड़्ढवा  में चली गइस अऊर हम गिर गए। बाकी तो कुछ नाहीं भवा, हमरे सीधे हाथ की कानी उंगरिया की हड्डी टूट गइस। अब घर का सब काम रुक गवा( हँसते हुए बताती जाती है)। घर मा सब लोग रहे तुम्हार जीजा, दोनों बेटेवा, सासु–ससुरा।  हमार उंगरिया मा प्लास्तर, अब घर का काम कइसे होई?  घरे में रहे तो सब, कमवा कऊन करे?  एही बरे रोटी बनावे खातिर  एक कामवाली,  कपड़ा तो मसीन से धोय लेत हैं पर  झाड़ू – पोंछा और बासन  सबके लिए नौकरानी लगाई गई।

देख ना! हमार ननकी  कंगुरिया का कमाल किहेस!

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 132 ☆ सबको साथ लेकर चलना ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सबको साथ लेकर चलना। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 132 ☆

☆ सबको साथ लेकर चलना ☆ 

फूलों के साथ खुशबू, रंग, शेड्स व काँटे रहते हैं। सबका अपना- अपना महत्व होता है। क्या आपने महसूस किया कि जीवन भी इसी तरह होता है जिसमें सभी को शामिल करते हुए चलना पड़ता है। इस सबमें समझौते का विशेष योगदान होता है। जो अपने आपको निखारने में लगा हुआ हो उसे केवल सुख  की चाहत नहीं होनी चाहिए, दुख तो सुख के साथ आएगा ही। हम सबमें संतुष्टि का अभाव होता है, जिसके चलते सफलता और शीर्ष  दोनों चाहिए। प्रतिद्वंद्वी हो लेकिन कमजोर। ताकतवर से दूरी बनकर चलते हुए कहीं न कहीं हम स्वयं को निरीह करते चले जाते हैं। इस तरह कब हम दौड़ से बाहर हो गए पता ही नहीं चलता।

हाँ एक बात जरूर है, मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति दबाब नहीं सह पाते, दूसरों की तारीफ व उपलब्धियों से आहत होकर अपना रास्ता बदल देते हैं। जहाँ के लिए निकले हैं वहाँ तो पहुँचिए। कमजोर मन की यही निशानी है कि वो दूसरों द्वारा संचालित होता है। यदि आप उच्च पद पर विराजित हैं तो सहना आना चाहिए। आग सी तपिश, धूप की तेजी यदि नहीं होगी तो कोई भी आसानी से उल्लू बनाकर चलता बनेगा।

चलने से याद आया जो रास्ते पर चलेगा वो अवश्य ही कुछ न कुछ बनेगा क्योंकि धूल में बहुत ताकत है। धरती मैया का आशीर्वाद समझ कर इसे स्वीकार कीजिए और आगे बढ़ते रहिए। जब सोच सही होगी तो साथी मिलने लगेंगे। आसानी से जो कुछ मिलता है उसमें भले ही चमक दमक हो किन्तु लोगों को उसमें कोई जुड़ाव नहीं दिखता है। जब मन ये तय कर लेता है कि प्रतिदिन इतनी दूरी तो तय करनी ही है, तो असम्भव कुछ नहीं रह जाता। सारा दिमाग का खेल है। किसी को परास्त करना हो तो उसके दिमाग व मनोभावों से खेलिए, यदि उसमें लक्ष्य के प्रति लगन का भाव नहीं होगा तो वो आपसे दूरी बना लेगा। हम जब तक आरामदायक स्थिति से दूर नहीं होंगे तब तक आशानुरूप परिणाम नहीं मिलेंगे।

तरक्की पाने हेतु लोग अपना गाँव, शहर, प्रदेश व देश तक छोड़ देते हैं। बाहर रहकर पहचान बनाना कोई आसान कार्य नहीं होता है। जिसमें जो गुण होता है वो उसे तराश कर आगे बढ़ने लगता है।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि समय का उपयोग करते हुए स्वयं के साथ- साथ सबको सजाते- सँवारते रहें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 190 ☆ आलेख – जोशी मठ की पुकार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – जोशी मठ की पुकार।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 190 ☆  

? आलेख  – जोशी मठ की पुकार ?

जोशी मठ की जियोग्राफी बता रही है कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन , जल जंगल जमीन को अपनी बपौती समझने की इंसानी फितरत पर नियंत्रण की जरूरत है । हिमालय के पहाड़ों की उम्र, प्रकृति के माप दंड पर कम है । इन क्षेत्रों में अभी जमीन के कोंसालिडेशन, पहाड़ों के कटाव, जमीन के भीतर जल प्रवाह के चलते भू क्षरण की घटनाएं होती रहेंगी ।

जोशीमठ जैसे हिमालय की तराई के क्षेत्रों में पक्के कंक्रीट के जंगल उगाना मानवीय भूल है, इस गलती का खामियाजा बड़ा हो सकता है । यदि ऐसे क्षेत्रों में किंचित नगरीय विकास किया जाना है तो उसे कृत्रिमता की जगह नैसर्गिक स्वरूप से किया जाना चाहिए । अमेरिका में बहुमंजिला भवन भी पाइन तथा इस तरह के हल्के वुड वर्क से बनाए जाते हैं । ऐसी वैश्विक तकनीक अपनाई जा सकती हैं जिससे परस्तिथी जन्य नैसर्गिक सामंजस्य के साथ विकास हो , न कि प्रकृति का दोहन किया जाए। हमे अगली पीढ़ियों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हुए विरासत बढ़ानी चाहिये । आधुनिकता के नाम पर वर्तमान में जोशीमठ जैसे इलाकों में धरती से की जा रही छेड़छाड़ हेतु हमारी कल की पीढ़ी हमें कभी क्षमा नहीं करेगी ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 143 ☆ गीत – चन्दनवन वीरान हो गए… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 143 ☆

☆ गीत – चन्दनवन वीरान हो गए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

नीरवता ऐसी है फैली

          चन्दनवन वीरान हो गए।

जो उपयोगी था उर-मन से

          लुटे-पिटे सामान हो गए।।

 

झाड़ उगे, अँधियारा फैला

       सूनी हैं दीवारें सब

अर्पण और समर्पणता की

       खोई कहाँ बहारें अब

कौन किसी के साथ गया है

       किसको कहाँ पुकारें कब

      

गठरी खोई श्वांसों की सच

     सब ही अंतर्ध्यान हो गए।।

 

कितने सपने, कितने अपने

          खोई है तरुणाई भी

भोग-विलासों के आडम्बर

         लगते गहरी खाई – सी

बचपन के सब गुड्डी- गुड्डन

         छूटे धेला पाई भी

 

वक्त, वक्त के साथ गया है

         मरकर सभी महान हो गए।।

 

अर्थतन्त्र के चौके, छक्के

        गिल्ली से उड़ गए चौबारे

साथ और संघातों के भी

         आग उगलते हैं अंगारे

प्यार-प्रीति भी राख हो गई

         दिन में भी कब रहे उजारे

 

जोड़ा कोई काम न आया

       सारे ही शमशान हो गए।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #144 ☆ संत गोरोबा कुंभार… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 144 ☆ संत गोरोबा कुंभार… ☆ श्री सुजित कदम ☆

चमत्कार चैतन्याचे

संत गोरोबा साधक

तेर गावी जन्मा आली

संत विभुती प्रेरक..!..१

 

संत जीवन दर्शन

विठू भक्ती आविष्कार

प्रतिकुल परिस्थिती

संत गोरोबा साकार…! २

 

भक्ती परायण संत

पांडुरंग शब्द श्वास

देह घट आकारला

विठू दर्शनाचा ध्यास..! ३

 

तुझें रूप चित्ती राहो

वेदवाणी गोरोबांची

भक्ती श्रध्दा समर्पण

गोडी देह प्रपंचाची…! ४

 

व्यवसाय कुंभाराचा

नित्य कर्मी झाले लीन

बाळ रांगते जाहले

माती चिखलात दीन…! ५

 

तुडविले लेकराला

विठ्ठलाच्या चिंतनात

तोडियले दोन्ही हात

प्रायश्चित्त संसारात…! ६

 

संत गोरोबा तल्लीन

 संकीर्तनी पारावर

थोटे हात उंचावले

झाला विठूचा गजर…! ७

 

कृपावंत विठ्ठलाने

दिला पुत्र दोन्ही कर

भक्त लाडका गोरोबा

संतश्रेष्ठ नरवर…! ८

 

मानवांच्या कल्याणाचा

ध्यास घेतला अंतरी.

स्वार्थी लोभी वासनांध

असू नये वारकरी…! ९

 

देह प्रपंचाचा ध्यास

उपदेश कार्यातून

संत सात्विक गोरोबा

वर्णियेला शब्दातून…! १०

 

परब्रम्ह लौकिकाचे

संत रूप निराकार

आधी कर्म मग धर्म

काका गोरोबा कुंभार..! ११

 

संत साहित्य प्रवाही

अनमोल योगदान

अभंगांचे सारामृत

अलौकिक वरदान…! १२

 

चैत्र कृष्ण त्रयोदशी

तेरढोकी समाधीस्त

पांडुरंग पांडुरंग

नामजपी आहे व्यस्त..! १३

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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