(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे…दीपक ”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है “सन्तोष के नीति दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
या सूक्ताचा शशांक दिवेकर यांनी गायलेला आणि सुप्रिया कुलकर्णी यांनी चित्रांकन केलेला व्हिडिओ यूट्युबवर उपलब्ध आहे. त्यासाठी लिंक देत आहे. रसिकांनी त्याचा आस्वाद घ्यावा.
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘ठूंठ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 102 ☆
☆ लघुकथा – ठूंठ — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
वह घना छायादार वृक्ष था हरे -भरे पत्तों से भरा हुआ। न जाने कितने पक्षियों का बसेरा, कितनों का आसरा। आने जानेवालों को छाया देता,शीतलता बिखेरता। उसकी छांव में कुछ घड़ी विश्राम करके ही कोई आगे जाना चाहता,उसकी माया ही कुछ ऐसी थी। ऐसा लगता कि वह अपनी डालियों में सबको समा लेना चाहता है निहायत प्यार और अपनेपन से। धीरे-धीरे वह सूखने लगा? उसकी पत्तियां पीली पड़ने लगी,बेजान सी। लंबी – लंबी बाँहों जैसी डालियाँ सिकुड़ने लगीं। अपने आप में सिमटता जा रहा हो जैसे। क्या हो गया उसे? वह खुद ही नहीं समझ पा रहा था। रीता -रीता सा लगता, कहाँ चले गए सब? अब वह अपनों की नेह भरी नमी और अपनेपन की गरमाहट के लिए तरसने लगा। गाहे-बगाहे पशु – पक्षी आते। पशु उसकी सूखी खुरदरी छाल से पीठ रगड़ते और चले जाते। पक्षी सूखी डालों पर थोड़ी देर बैठते और कुछ न मिलने पर फुर्र से उड़ जाते। वह मन ही मन कलपता कितना प्यार लुटाया मैंने सब पर, अपनी बांहों में समेटे रहा, दुलराता रहा पक्षियों को अपनी पत्तियों से। सूनी आँखों से देख रहा था वह दिनों का फेर। कोई आवाज नहीं थी, न पत्तियों की सरसराहट और न पक्षियों का कलरव। न छांव तले आराम करते पथिक और न इर्द गिर्द खेलते बच्चों की टोलियां, सिर्फ सन्नाटा, नीरवता पसरी है चारों ओर। काश! कोई उसकी शून्य में निहारती आँखों की भाषा पढ़ ले, आँसुओं का नमक चख ले। पर सब लग्गी से पानी पिला रहे थे। वह दिन पर दिन सूखता जा रहा था अपने भीतर और बाहर के सन्नाटे से। आसपासवालों के लिए तो शायद वह जिंदा था नहीं। सूखी लकड़ियों में जान कब तक टिकती ? हरा-भरा वृक्ष धीरे – धीरे ठूंठ बन रह गया |
एक अल्जाइमर पीड़ित माँ धीरे – धीरे मिट्टी में बदल गई।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जमीन से जुड़ाव”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 122 ☆
☆ जमीन से जुड़ाव ☆
प्रचार – प्रसार माध्यमों का उपयोग करते हुए रील / शार्ट वीडियो के माध्यम से अपनी बात कहना बहुत कारगर होता है। बात प्रभावी हो इसके लिए सुगम संगीत की धुन या कोई लोकप्रिय गीत की कुछ पंक्तियों को जोड़कर सबके मन की बात 60 सेकेंड में कह देना एक कला ही तो है। ज्यादा समय कोई देना नहीं चाहता। कम में अधिक की चाहत ने क्रिकेट को ट्वेंटी- ट्वेंटी का फॉर्मेट व सोशल मीडिया में रील को जन्म दिया है। एक बार रील देखना शुरू करो तो पूरा दिन कैसे बीत जाएगा पता ही नहीं चलता।
समय को पूँजी की तरह उपयोग करना चाहिए , जैसे ही इससे सम्बंधित वीडियो देखा तो झट से मन आत्ममंथन करने लगा। अब ऊँची उड़ान भरते हुए दिन भर जो सीखा था उसे झटपट डायरी में लिख डाला और रात्रि 11 बजे एक मोटिवेशनल पेज बनाकर दिन भर की जानकारी को जोड़कर एक सुंदर पोस्टर, पोस्ट कर दिया। अब तो लाइक और कमेंट की चाहत में पूरा दिन चला गया। तब समझ में आया कि अभाषी मित्र झाँसे में आसानी से नहीं आयेंगे। बस दिमाग ने तय किया कि अब तो बूस्ट पोस्ट करना है। कुछ भी हो 10 K से ऊपर लाइक होना चाहिए आखिर इतने वर्षों का तजुर्बा हार तो नहीं सकता था।बस देखते ही देखते प्रभु कृपा हो गयी अब तो उम्मीद से अधिक फालोअर होने लगे थे जिससे सेलिब्रिटी वाली फीलिंग आ रही थी। एक पोस्ट ने क्या से क्या कर दिया था। जहाँ भी निकलो लोग पहचान रहे थे। आभासी मित्रों को भी आभास होने लगा कि समय रहते इनसे दोस्ती बढ़ाई जाए अन्यथा आगे चलकर ये तो तो पहचानेंगे भी नहीं।
ऐसा क्यों होता है कि सारा समय व्यर्थ करने के बाद हम जागते हैं। दरसल किसी भी समय जागें पर जागना जरूर चाहिए। जो लोग कुछ करने के लिए निकल पड़ते हैं उनके साथ काफिला जुड़ता जाता है। यात्राओं का लाभ ये होता है कि इससे जमीनी तथ्यों की जानकारी के साथ ही लोगों से जुड़ाव भी बढ़ता है। जगह – जगह का पानी,भोजन, बोली, वातावरण व पहनावा ये सब अवचेतन मन को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति की सोच बदलती है वो धैर्यवान होकर केवल अधिकारों की नहीं कर्तव्यों की बातें भी करने लगता है। उसे समाज से जुड़कर उसका हिस्सा बनने में ज्यादा आनंद आने लगता है। पाने और खोने का डर अब उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। धरती में इतनी ताकत है कि जिसने इसे माँ समझ कर उससे जुड़ने की कोशिश की उसे आकाश से भी अधिक मिलने लगा।
अपने को जमीन से जोड़िए फिर देखिए कैसे खुला आसमान आपके स्वागत में पलकें बिछा देता है।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “ई पत्रिका उपयोगी है पर मनपसंद नहीं”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 123 ☆
☆ आलेख – ई-पत्रिका उपयोगी है पर मनपसंद नहीं☆
ललित ने मोबाइल निकाला। चंपक देखी। उसमें कहानी थी। मोटरसाइकिल ली। बाजार निकल गया। चंपक खरीदी। वही पढ़ने लगा। उसका कहना है, “पत्रिका का छपा रुप भाता और सुहाता है। इसे हाथ में लेकर पढ़ने में जो मजा है वह ई पत्रिका में नहीं है।”
पवित्रा को ले। वह कहती है, ” ई-पत्रिका पढ़ना मजबूरी है। पत्रिका बाजार में ना मिले तो क्या करें? मगर ई-पत्रिका में एक कहानी से ज्यादा नहीं पढ़ पाती हूं। आंखें दुखने लगती है।”
यह बात सच है। छपे हुए अक्षरों में मनमोहक जादू होता है। रचनाकार उसे लेकर निहारता है। आगे पीछे देखता है। छपा हुआ नाम व रचनाएं उसे अच्छी लगती है। उसे वह सहेज कर रखता है।”
छपी रचना को कहीं भी पढ़ सकते हैं। इसके लिए किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती है। बिजली हो या ना हो कोई फर्क नहीं पड़ता है। कम प्रकाश में भी इसे पढ़ा जा सकता है।
मोबाइल में यह सुविधा नहीं होती है। रचना को पढ़ने के लिए कई साधनों की आवश्यकता होती है। रचना ऑनलाइन हो तो नेट, मोबाइल और सही ऑनलाइन एड्रेस की जरूरत पड़ती है। यदि चश्मा लगता है तो पढ़ते-पढ़ते आंखें दुखने लगती है।
जहां नेटवर्क की समस्या हो वहां, आप ई-पत्रिका नहीं पढ़ सकते हैं। कारण स्पष्ट है। बिना नेटवर्क के आप ई-पत्रिका मोबाइल पर प्राप्त नहीं कर सकते हैं। उसे डाउनलोड कर के ही पढ़ा जा सकता है।
दूसरा, ऑनलाइन पत्रिका सदा महंगी पड़ती है। हर बार ऑनलाइन से उसे खोलना पड़ता है। इसमें डाटा खर्च होता है। यदि मोबाइल में डाउनलोड कर लिया जाए तो मोबाइल की मेमोरी भर जाती है। वह हैंग होने लगता है।
तीसरा, मोबाइल में अक्षर बहुत छोटे दिखाई देते हैं। इसे पढ़ने के लिए झूम करना पड़ता है। साथ ही अंगुलियों को स्क्रीन के पेज से इधर-उधर खिसकाना पड़ता है। इससे अंगुलियों के साथ-साथ आंखों को ज्यादा मशक्कत करनी पड़ती है।
ऑफलाइन यानी छपी पत्रिका में सुविधा ही सुविधा है। इसे जहां चाहे वहां ले जा सकते हैं। जब चाहे तब पढ़ सकते हैं। किसी दूसरे को दे सकते हैं। वह जैसा चाहे लेकर पढ़ सकता है। बस, एक बार खर्च करना पड़ता है। उसे सदा के लिए सहेज कर रख सकते हैं।
छपी पत्रिका का सबसे बड़ा फायदा यह है कि आप चाहे जितने पृष्ठ एक बार में पढ़ सकते हैं। आपकी आंख पर ज्यादा असर नहीं पड़ता है। आप एक ही बैठक में बीसियोँ पृष्ठों को पढ़ सकते हैं। आंखों में पानी आना, आंखें दर्द, होना सिर भारी होना आदि अनेक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता है।
इसका आशय यह नहीं है कि ई-पत्रिका उपयोगी नहीं होती है। संसार की कोई भी चीज ऐसी नहीं है जो उपयोगी ना हो। हर एक चीज की उपयोगिता होती है। यह हमारा नजरिया है कि हमें हम उस चीज को किस नजर से देखते हैं।
ऑनलाइन पत्रिका से हम काम की चीजें ढूंढ सकते हैं। ई-संस्करण देखकर आप आफ संस्करण मंगवा सकते हैं। इससे आपको उपयोगी चीजें आसानी से मिल सकती है। ई-पत्रिका में एकाध रचनाएं काम की हो सकती है तो आप उसे आसानी से पढ़ सकते हैं। घर पर सहेजने वाली चीजों को मंगवा सकते हैं।
यदि आप रचनाकार हैं तो ऑनलाइन पत्रिका आपके लिए बहुत उपयोगी हो सकती है। आप इन में रचनाएं प्रकाशित करवा कर निरंतर प्रोत्साहन पा सकते हैं। अपनी रचनाओं को डिजिटल रूप में सुरक्षित रख सकते हैं। तब जहां चाहे वहां से कॉपी पेस्ट करके इसका उपयोग कर सकते हैं।
अधिकांश रचनाकार यही करते हैं। वे अपनी रचनाएं मेल, व्हाट्सएप, टेलीग्राम,फेसबुक आईडी पर सुरक्षित रखते हैं। जब जहां जैसी जरूरत होती है तब वहां वैसी और उसी रूप में कॉपी करके पेस्ट कर देते हैं। यह उनके लिए सबसे ज्यादा उपयोगी सौदा होता है। मगर हर एक रचनाकार छपी सामग्री को ज्यादा तवज्जो देता है। उस में छपे हुए अक्षर उसे ज्यादा भातें हैं और लुभाते हैं।
इस लेखक का भी यही हाल है। वह ई-पत्रिका को बहुत उपयोगी मानता है, मगर यह उसकी मनपसंद नहीं है। उसके लिए आज भी छपी सामग्री सबसे ज्यादा मनपसंद व चहेती चीज है। यह लेखक छपी सामग्री को एक बैठक में ज्यादा से ज्यादा पढ़ लेता है। मगर वह मोबाइल में एक-दो पृष्ठ पढ़कर आंखों की वजह से उसे पढ़ना छोड़ देता है।
समय कभी, कैसा भी रहे, समय के साथ साधन बदल जाए, मगर छपी सामग्री का महत्व सदा रहा है और रहेगा। यह इस लेखक का मानना है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है। यही वजह है कि इस रचनाकार के लिए ई-पत्रिका उपयोगी तो है मगर मनपसंद नहीं हैं।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है “तन्मय के दोहे…”)