मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ महर्षी वाल्मिकी… श्री विश्वास देशपांडे ☆ परिचय – सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ महर्षी वाल्मिकी… श्री विश्वास देशपांडे ☆ परिचय – सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆ 

निखळ वाचनाचा आनंद घ्या…

महर्षी वाल्मिकी….

लेखक : विश्वास देशपांडे. 

प्रकाशक : सोहम क्रिएशन अँड पब्लिकेशन, पुणे. 

अचानक “महर्षी वाल्मिकी“ हे विश्वास देशपांडे लिखित पुस्तक हातात पडले. एखादे पुस्तक पाहताक्षणीच आवडून जाते आणि मनाची पकड घेते. तसंच या पुस्तकाच्या बाबतीत झाले.

आकर्षक मुखपृष्ठ, छोटेखानी पण वेगळेपण नावापासूनच जपणारे, व आत्तापर्यंत माहिती नसलेले आगळे वेगळे पुस्तक. पुस्तकाची रचना अतिशय उत्कृष्ट व उत्सुकता वाढवणारी आहे. सुरुवातीच्या पानावर लेखक परिचय व त्यांची साहित्य संपदा या विषयी माहिती आहे. त्या नंतर पुस्तकाविषयी लेखकांचे मनोगत पुस्तकाची थोडक्यात माहिती देणारे व उत्सुकता वाढवणारे आहे. त्यात भर घालणारी श्री.प्रमोद कुलकर्णी यांची सुंदर प्रस्तावना! मनोगत व प्रस्तावना वाचून कधी ते पुस्तक वाचते आहे असे होऊन गेले.

श्री विश्वास विष्णु देशपांडे

विशेष म्हणजे दहा लेख असून अनुक्रमणिका नाही. त्यामुळे एकच गोष्ट वाचत आहोत असे वाटते आणि सलग वाचन केल्याशिवाय राहवत नाही. पुस्तक वाचताना त्या घटना डोळ्यासमोर उभ्या राहतात. निसर्ग, ऋषींचा आश्रम, शिष्यगण, नदी, पक्षी, या सर्वांचा आपण एक भाग आहोत असे वाटते.

क्रौंच पक्ष्याच्या हत्येमुळे पूर्वाश्रमीच्या आठवणींच्या रूपात त्यांचा जीवनपट उलगडत जातो. जी गोष्ट शालेय जीवनात ७/८ ओळीत संपत होती तीच गोष्ट पुढच्या तीन लेखात अतिशय बारकाव्यासहित वाचायला मिळते.

वाटमारी करणाऱ्या रत्नाकरचा पश्चाताप, व रामनामाच्या तपश्चर्येमुळे झालेला अनाकलनीय बदल –  म्हणजे वाल्मिकी ऋषींमध्ये झालेले रूपांतर फारच रंजक व वेगळ्याच उंचीवर घेऊन जाते. रामनाम, मनापासून झालेला पश्चाताप व स्वतः मध्ये बदल घडवण्याची प्रामाणिक इच्छा काय करू शकते याचे उत्तम उदाहरण म्हणजे वाल्मिकी ऋषी.

मला असे माहिती होते की नारद मुनींच्या सांगण्यानुसार वाल्मिकींनी तप सुरु केले. पण तेही सत्य समजले व नारदांकडून पुढील कार्याची प्रेरणा मिळाली हेही समजले. देवर्षी व ब्रह्मदेव यांच्या भेटीचा वृत्तांत अतिशय रोचक व अध्यात्मिक उंचीवर घेऊन जातो. विशेषतः मनुष्य आपल्या कर्माने भाग्यरेषा बदलू शकतो– हे मनुष्याच्या हातात आहे–  हे विशेष महत्वाचे वाटले.

त्यांनी रामकथा कशी लिहिली? याचे उत्तर मिळाले. खरोखरच दिव्य शक्तींच्या आशीर्वादाशिवाय हे शक्य नाही. रामकथा त्यांच्या डोळ्यासमोर कशी साकारली हेही समजले.—- वाल्मिकी ऋषींनी रामायण काव्यात समाजाला उपयोगी व चिरंतन तत्वे रंजक रीतीने मांडली आहेत. हजारो वर्षांपूर्वी लिहिलेले आदर्श आजही उपयुक्त आहेत. मानवी भावभावना अतिशय उत्तम रीतीने साकारल्या आहेत. त्यातून आदर्श राजा, समाज याची चिरकाल टिकणारी शिकवण मिळते.

हे पुस्तक खूप अभ्यासपूर्वक आपल्या समोर आले ( माझ्या माहिती प्रमाणे हे एकमेव असावे ), आणि बरीच माहिती मिळाली. गैरसमज दूर झाले. वाल्मिकी खरंच महान होते. इतके चिरकालीन टिकणारे महाकाव्य लिहून ठेवले, मात्र स्वतःची माहिती कुठेच ठेवली नाही. 

आपल्यापर्यंत महर्षी वाल्मिकी यांचा जीवनपट आपल्या लिखाणातून पोहोचवणाऱ्या देशपांडे सरांचे मनापासून आभार ! कितीही आभार मानले तरी कमीच आहेत.

परिचय – विभावरी कुलकर्णी

सांगवी, पुणे

मोबाईल नंबर – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 75 – गीत – ज्ञान का दीपक जलाकर… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण एवं विचारणीय सजल “चलो अब मौन हो जायें…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 75 – गीत – ज्ञान का दीपक जलाकर…

ज्ञान का दीपक जलाकर,

तिमिर से हम मुक्ति पाएँ।

गीत हम सद्भावना के,

आइए मिल गुनगुनाएँ ।

 

सृजन के प्रहरी बने सब,

प्रगति की हम धुन सजाएँ।

देश में उत्साह भरकर,

नव सृजन का जश्न गाएँ।

 

सूर्य जैसा दमक सके न,

पछताना न इस बात पर।

जग मगाना सीख लेना,

लघु-दीपकों से रात-भर ।

 

खुश रहे इस देश में सब,

दर्द कोई छू न जाए।

द्वार में दीपक रखें मिल,

रूठने कोई न पाए।

 

बेबसों के अश्रु पौछें,

साथ में उनके खड़े हों।

लड़खड़ाते चल रहे जो,

दें सहारा तब बड़े हों ।

 

यदि भटक जाए पथिक तो,

मार्ग-दर्शक बन दिखाएँ।

हो सके तो मंजिलों तक,

राह निष्कंटक बनाएँ।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 05 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग एक ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का प्रथम भाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 05 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग एक ?

(दिसंबर 2017)

पंजाबी संस्कृति  से मेरा परिचय विवाहोपरांत ही हुआ। इस क्षेत्र की  भाषा , खान-पान , तीज -त्योहार आदि से मेरा नज़दीक से  साक्षात्कार हुआ। इससे पूर्व बाँग्ला संस्कृति,साहित्य और भाषा के बीज हमारे माता-पिता द्वारा  हृदय की बड़ी गहराई में बो दिए गए थे।

ससुराल में सभी से भरपूर स्नेह मिला साथ ही ससुर जी जिन्हें हम सब बावजी (बाबूजी शब्द का अपभ्रंश) कहते थे,पंजाब की जानकारी और नानक साहब के जीवन की लघु कथाओं से मुझे परिचित करवाते रहे।

धीरे – धीरे गुरुद्वारे के वातावरण को देख मेरे मन में विश्वास और आस्था घर करती गई ।साथ ही विभिन्न गुरुद्वारों के दर्शन की इच्छा मन में पनपती रही। यह  स्वर्णिम अवसर भी अपने जीवन में मुझे समय – समय पर मिलता रहा।

अपने इस संस्मरण में विभिन्न गुरुद्वारों की यात्रा का विवरण उपस्थित कर रही हूँ।

हम कुछ सहेलियाँ  रान ऑफ कच्छ फेस्टिवल  देखने के लिए रवाना हुए। कच्छ के कई दर्शनीय स्थल जैसे विजय विलास महल, मांडवी, कालोडुंगर, सफेद रेगिस्तान, प्राग महल  और कुछ छोटे- गाँव देखने के बाद तथा फेस्टिवल के चार दिन तक भरपूर  आनंद लेने के बाद हम भुज पहुँचे। दूसरे दिन सुबह हम सब लखपत  के लिए रवाना हुए।

लखपत भुज से 134 कि. मी के अंतर पर है।यह कच्छ का अंतिम छोर है।

आज लखपत में  एकांत है। दूर तक एक लंबी चौड़ी दीवार फैली है जो किसी समय किला का हिस्सा थी। भीषण भूंकप के कारण सब कुछ नष्ट हो गया। किले की दीवार भी दरारों से पटी पड़ी है।वहाँ से जब हवा गुज़रती है तो डरावनी आवाज़ आती है इसलिए इस गाँव को उजड़ा भूतिया गाँव कहा जाता है।

जिस लखपत में एक समय 10,000 लोग रहते थे , बारंबार भूकंप के बाद धीरे -धीरे आबादी घटती गई और आज यहाँ गिनकर शायद सौ लोग रहते हैं।

आज यहाँ संपूर्ण वीरानगी है। गुरुनानक के समय इसे बस्ता बंदर कहा जाता था क्योंकि यह व्यापार का एक बड़ा बंदरगाह था। खूब व्यस्त जगह हुआ करती थी ।समुद्री मार्ग से कई देशों से माल आता था और फिर ऊँटों की सहायता से गुजरात , सौराष्ट्र तथा कच्छ तक व्यापारी माल ले जाते थे। व्यापारी  वर्ग बड़ी संख्या में यहाँ रहा करते थे। बंदरगाह में हलचल रहती थी। काफी लोग यहाँ व्यापार करके धनी लखपति  बन गए थे इसीलिए बस्ता बंदर आगे चलकर लखपत  के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

यहाँ आकर भारत की सीमा समाप्त होती है। इसके बाद आपको विशाल अरब सागर दिखाई देगा। किले की दीवार पर चढ़कर अगर आप समुद्र की ओर देखें तो यहाँ चलती साँए -साँए करती हुई हवा और किले की दीवारों से टकराती -लौटती लहरें संपूर्ण एकांतवास की कथा सुनाती हैं। आज यहाँ शायद ही कोई  पर्यटक आता है। आज यहाँ कुछ नहीं है पर फिर भी सिक्ख समुदाय के लिए यह एक पुण्य भूमि है।

सन 1506 -1513 और  1519-1521 –  यह उस समय की बात है जब नानक साहब विश्व भ्रमण करने और अपने सिद्धांतों से संसार को परिचित करवाने निकले थे।

 उनकी इस यात्रा को उदासी कहा जाता है। जिसका अर्थ है संपूर्ण रूप से संन्यास ग्रहण करना। यद्यपि नानक साहब का परिवार था,संतानें थीं  पर वे भीतर ही भीतर समाज में एक अलग प्रकार से जागरूकता लाना चाहते थे। उस समय हमारा समाज न केवल मुगलों को झेल रहा था,बल्कि लोगों का  धर्म परिवर्तन भी बड़ी संख्या में  किया जा रहा था। शूद्र जाति के साथ छुआछूत के तहत समाज में उथल -पुथल भी मची हुई थी।

नानक साहब अपने जीवन के बीस वर्ष  पैदल ही चलकर यात्रा करते रहे। उनके साथ उनके कुछ शिष्य भी थे।

लखपत वही स्थान है जहाँ से गुरु नानक अपनी दूसरी और चौथी उदासी यात्रा  के दौरान यहाँ पर कुछ दिन रहे थे फिर यहीं से वे मक्का के लिए रवाना हुए थे। उन दिनों मक्का में आज की तरह इतनी सुरक्षा की तीव्रता नहीं थी।

आज यहाँ एक सुंदर साफ़ -सुथरा सफेद रंग से पुता हुआ गुरुद्वारा है।साथ में छोटा सा बगीचा भी है। गुरुद्वारे में दो छोटे कमरे हैं। एक कमरे में ,कमरे के बीचोबीच  ग्रंथसाहब चौकी पर है। इस कमरे के द्वार की ऊँचाई  बहुत कम है। झुककर ही कमरे में प्रवेश कर सकते हैं।संभवतः यात्रियों को स्मरण दिलाने के लिए कि ईश्वर के दरबार में सिर झुकाकर ही प्रवेश करना है।

हम सभी सखियों ने सिर ढाँककर कमरे में प्रवेश कर ग्रंथ साहिब को नमन किया।इसी कमरे से बाहर निकलने पर बाईं ओर और एक छोटा कमरा है जहाँ नानक साहब की पादुका और पालकी रखी गई  है। सोलह सौ शताब्दी की पूजनीय वस्तुओं के दर्शन से हम सभी भावविभोर हो उठीं। कमरे के बाहर एक छोटा सा लकड़ी के नक्काशीदार खंभों का बरामदा है, हम सब थोड़ी देर वहीं पर बैठे।मन को बहुत सुकून का अहसास हुआ।

मुझे एक अलग प्रकार का रोमांच प्रतीत हुआ। मैं अपने इस पंजाबी सिक्ख मिड्डा  परिवार की प्रथम सदस्य थी  जिसे नानक साहब की पादुका का और उनकी यात्रा का साधन  पालकी के दर्शन करने का सुअवसर मिला।

हम महिलाओं को देखकर वहाँ के पाठी सामने आए, सतश्रीकाल कहकर हमारा अभिवादन किया और कहा कि हम लंगर में शामिल हों।

स्वच्छ परिसर , सब तरफ लाल टाट के बने गलीचे लगे हुए थे।एक सिक्ख पाठी, एक सहायक और एक मुसलमान स्त्री ये ही गुरुद्वारे की सेवा में रहते हैं। हमने धुली  हुई थाली ,चम्मच उठा ली और हमें बहुत स्नेह और आतिथ्य के साथ दाल रोटी और सब्जी का प्रसाद मिला। हमने भोजन के बाद बर्तन नल के  बहते पानी से माँजकर रखे। हर गुरुद्वारे का यही नियम है।

आज यह स्थान स्थानीय सिक्ख समुदाय तथा गुरुद्वारा श्री गुरु नानक सिंह सभा गाँधीधाम की देखरेख में है। भीषण भूंकप के बाद भी इस गुरुद्वारे को सुरक्षित रखे जाने की वजह से  सन 2004 में UNESCO Asia-Pacific Award भी इस स्थान को मिला है।।

नानक साहब सिमरन, अरदास और समुदाय में बैठकर भोजन अर्थात लंगर इनका महत्त्व समझा गए हैं। जाति, धर्म ,वर्ण आदि में किसी प्रकार का कोई  भेद न रखते हुए सबको अपना समझ सबके साथ भोजन करने की शिक्षा दे गए थे।

नानक जी ने करतारपुर गाँव में प्रथम गुरुद्वारे की स्थापना की थी। अपने जीवन के अठारह वर्ष वे यहीं रहे। सत्तर वर्षीय की अयु में उन्होंने इसी गाँव में देह त्याग दी।

एक ओंकार, शबद अर्थात ग्रंथसाहब में लिखी गुरुवाणी ही उनकी सबसे बड़ी देन है। किसी पंडित या पूजा की आवश्यकता नहीं।हर व्यक्ति अपनी तरह से ईश्वर का स्मरण कर सकता है, ईश्वर एक है। उसकी स्तुति में गीत गा सकता है।समाज में कारसेवा और सबके साथ बाँटकर साँझे चूल्हे पर भोजन पकाकर मिलकर खाना ताकि कोई भूखा न सोए यही आज तक चलती आई नानक साहब की सीख है।

 करतारपुर जाना तो एक सपना ही रहेगा पर लखपत की यात्रा अविस्मरणीय है।

 क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 135 – “बातें कम स्कैम ज्यादा” – श्री नीरज बधवार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री नीरज बधवार जी के उपन्यास “बातें कम स्कैम ज्यादा” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 135 ☆

☆ “बातें कम स्कैम ज्यादा” – श्री नीरज बधवार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

बातें कम स्कैम ज्यादा

व्यंग्यकार… नीरज बधवार

प्रकाशक… प्रभात प्रकाशन,नई दिल्ली

पृष्ठ… १४८ मूल्य २५० रु

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

☆ गोलगप्पे खाने जैसा मजा :  बातें कम स्कैम ज्यादा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

बड़े कैनवास के युवा व्यंग्यकार नीरज उलटबासी के फन में माहिर मिले. किताब पर बैक कवर पर अपने परिचय को ही बड़े रोचक अंदाज में अपराधिक रिकार्ड के रूप में लिखने वाले नीरज की यह दूसरी किताब है. वे अपने वन लाइनर्स के जरिये सोशल मीडीया पर धाक जमाये हुये हैं. वे टाइम्स आफ इण्डिया समूह में क्रियेटिव एडीटर के रूप में कार्य कर रहे हैं.  वे सचमुच क्रियेटिव हैं. सीमित शब्दों में विलोम कटाक्ष से प्रारंभ उनके व्यंग्य अमिधा में एक गहरे संदेश के साथ पूरे होते हैं. रचनायें पाठक को अंत तक बांधे रखती हैं. “मजेदार सफर” शीर्षक से प्राक्कथन में अपनी बात वे अतिरंजित इंटरेस्टिंग व्यंजना में प्रारंभ करते हैं ” २०१४ में मेरा पहला व्यंग्य संग्रह  “हम सब फेक हैं” आया तो मुझे डर था कि कहीं किताब इतनी न बिकने लगे कि छापने के कागज के लिये अमेजन के जंगल काटने पड़ें, किंतु अपने लेखन की गंभीरता वे स्पष्ट कर ही देते हैं  ” यदि विषय हल्का फुल्का है तो कोई बड़ा संदेश देने की परवाह नहीं करते किन्तु यदि विषय गंभीर है तो हास्य की अपेक्षा व्यंग्य प्रधान हो जाता है, पर यह ख्याल रखते हैं कि रचना विट से अछूती न रहे. उन्हीं के शब्दों मे ” व्यंग्य पहाड़ों की धार्मिक यात्रा की तरह है जो घूमने का आनंद तो देती ही है साथ ही यह गर्व भी दे जाती है कि यात्रा का एक पवित्र मकसद है. “

संग्रह में ४०  आस पास से रोजमर्रा के उठाये गये विषयों का गंभीरता से पर फुल आफ फन निर्वाह करने में नीरज सफल रहे हैं. पहला ही व्यंग्य है “जब मैं चीप गेस्ट बना” यहां चीफ को चीप लिखकर, गुदगुदाने की कोशिश की गई है, बच्चों को संबोधित करते हुये संदेश भी दे दिया कि ” प्यारे बच्चों जिंदगी में कभी पैसों के पीछे मत भागना ” पर शायद शब्द सीमा ने लेख पर अचानक ब्रेक लगा दिया और वे मोमेंटो लेकर लौट आये तथा दरवाजे के पास रखे फ्रिज के उपर उसे रख दिया. यह सहज आब्जर्वेशन नीरज के लेखन की एक खासियत है.

“घूमने फिरने का टारगेट”  भी एक सरल भोगे हुये यथार्थ का शब्द चित्रण है, कम समय में ज्यादा से ज्यादा घूम लेने में अक्सर हम टूरिस्ट प्लेसेज में वास्तविक आनंद नहीं ले पाते, जिसका हश्र यह होता है कि पहाड़ की यात्रा से लौटने पर कोई कह देता है कि बड़े थके हुये लग रहे हैं कुछ दिन पहाड़ो पर घूम क्यों नहीं आते. बुफे में ज्यादा कैसे खायें ? भी एक और भिन्न तरह से लिखा गया फनी व्यंग्य है. इसमें उप शीर्षक देकर पाइंट वाइज वर्णन किया गया है. सामान्य तौर पर व्यंग्य के उसूल यह होते हैं कि किसी व्यक्ति विशेष, या उत्पाद का नाम सीधे न लिया जाये, इशारों इशारों में पाठक को कथ्य समझा दिया जाये किन्तु जब नीरज की तरह साफगोई से लिखा जाये तो शायद यह बैरियर खुद बखुद हट जाता है, नीरज बुफे पचाने के लिये झंडू पंचारिष्ट का उल्लेख करने में नहीं हिचकते. “फेसबुक की दुनियां ” भी इसी तरह बिंदु रूप लिखा गया मजेदार व्यंग्य है, जिसमें नीरज ने फेसबुक के वर्चुएल व्यवहार को समझा और उस पर फब्तियां कसी हैं.

दोस्तों के बीच सहज बातचीत से अपनी सूक्ष्म दृष्टि से वे हास्य व्यंग्य तलाश लेते हैं,और उसे आकर्षक तरीके से लिपिबद्ध करके प्रस्तुत करते हैं, इसलिये पढ़ने वाले को उनके लेख उसकी अपनी जिंदगी का हिस्सा लगता है, जिसे उसने स्वयं कभी नोटिस नहीं किया होता. यह नीरज की लोकप्रियता का एक और कारण है. फेसबुक पर जिस तरह से रवांडा, मोजांबिक, कांगो, नाइजीरिया से  फेक आई डी से लड़कियों की फोटो वाली फ्रेंड रिक्वेस्ट आती हैं उस पर वे लिखते हैं ” रिक्शेवाले को दस बीस रुपये ज्यादा देने का लालच देने के बाद भी कोई वहां जाने को तैयार नही हुआ…. जिस तरह गजल में  अतिरेक का विरोधाभास शेर को वाह वाही दिलाता है, कुछ उसी तरह नीरज अपनी व्यंग्य शैली में अचानक चमत्कारिक शब्दजाल बुनते हैं और पराकाष्ठा की कल्पना कर पाठक को हंसाते हैं. बीच बीच में वे तीखी सचाई भी लिख देते हैं मसलन ” प्रकाशक बड़े कवियों तक से पुस्तक छापने के पैसे लेते हैं ” ।

शीर्षक व्यंग्य “बातें कम स्कैम ज्यादा” में एक बार फिर वे नामजद टांट करते हैं, ” बड़े हुये तो सिर्फ एक ही आदमी देखा जो कम बोलता था.. वो थे डा मनमोहन सिंह. इसी लेख में वे मोदी जी से पूछते हैं सर मेक इन इंडिया में आपका क्या योगदान है, आप क्या बना रहे हैं ?  नीरज,  मोदी जी से जबाब में कहलवाते हैं “बातें”.

वे निरा सच लिखते हैं ” कुल मिला कर बोलने को लेकर घाल मेल ऐसा है कि सोनिया जी क्या बोलती हैं कोई नहीं जानता. राहुल गांधी क्या बोल जायें वे खुद नहीं जानते. और मोदी साहब कब तक बोलते रहेंगे ये खुदा भी नही जानता. नीरज अपने व्यंग्य शिल्प में शब्दों से भी जगलरी करते हैं, कुछ उसी तरह जैसे सरकस में कोई निपुण कलाकार दो हाथों से कई कई गेंदें एक साथ हवा में उछालकर दर्शको को सम्मोहित कर लेता है. सपनों का घर और सपनों में घर,  स्क्रिप्ट का सलमान को खुला खत, आहत भावनाओ का कम्फर्ट जोन, इक तुम्हारा रिजल्ट इक मेरा, सदके जावां नैतिकता, चरित्रहीनता का जश्न, अगर आज रावण जिंदा होता,  हमदर्दी का सर्टिफिकेट आदि कुछ शीर्षकों का उल्लेख कर रहा हूं, व्यंग्य लेखों के अंदर का मसाला पढ़ने के लिये हाईली रिकमेंड करता हूं, आपको सचमुच आनंद आ जायेगा.

 सड़क पर लोकतंत्र छोटी पर गंभीर रचना है…. सड़क यह शिकायत भी दूर करती है कि इस मुल्क में सभी को भ्रष्टाचार करने के समान अवसर नहीं मिलते “…

 “लोकतंत्र चलाने वाले नेताओ ने आम आदमी को सड़क पर ला दिया है, वह भी इसलिये कि लोग लोकतंत्र का सही मजा ले सकें”.

बहरहाल आप तुरंत इस किताब का आर्डर दे सकते हैं, पैसा वसूल हो जायेगा यह मेरी गारंटी है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 31 – देश-परदेश – ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 31 ☆ देश-परदेश – पड़ोस का बनिया ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे यहां तो प्राय प्रत्येक गली,नुक्कड़ या मोहल्ले में दैनिक जीवन में उपयोग की जाने वाली सामग्री उपलब्ध हो जाती हैं। कोविड काल में भी इन्होंने जनता के भोजन में कोई कमी नही आने दी थी। पुराने समय में तो इस प्रकार की दुकानें घर में ही होती थी और भोर से देर रात्रि तक सुविधा मिलती रहती थी।वो बात अलग है, की इनका विक्रय मूल्य बाज़ार से अधिक रहता हैं। उधारी की अतिरिक्त सुविधा भी बहुतायत में मिल जाती हैं।हमारी हिंदी फिल्मों के ग्रामीण  पटकथा में अभिनेता “जीवन” ने अनेक   रोल में बनिया बन कर अपनी कला का लोहा मनवाया था।

यहां विदेश में तो विशाल शोरूम के माध्यम से ही दैनिक सामग्री उपलब्ध करवाई जाती है, जिनमें वॉल मार्ट, कोस्को, अमेजान जैसे खिलाड़ी अपनी सेवाएं प्रदान करने में अग्रणी हैं।

वर्तमान निवास से दो मील की दूरी पर एक छोटे से स्टोर में जाना हुआ, तो वहां गुजरात के विश्व  पूज्यनीय संत “स्वामी नारायण” जी के चित्र को देखकर आश्चर्य भी हुआ और अच्छा भी लगा।जानकारी मिली की स्टोर एक गुजराती श्री पिंटू जी विगत अठारह वर्ष से चला रहे हैं। नाम कुछ पश्चिम देश का लगा तो पूछ लिया तो वो हंसते हुए बोले मेरा गुजराती नाम पियुषभाई हैं,अमरीकी लोगों के लिए पिंटू सुविधाजनक और यहां का ही लगता है। इसलिए सभी अब इस नाम से ही जानते हैं।बात भी सही है,नाम में क्या रखा है,काम होना चाइए।

सुबह छः बजे से रात्रि दस बजे तक वो अपनी पत्नी के साथ अपना स्टोर चलते हैं।                                                                     

यहां पर दूध, सिगरेट,शराब, लॉटरी टिकट इत्यादि विक्रय किए जाते हैं।                                

अमेरिका जैसे विकसित और पढ़ें लिखे देश में हमारे देश के गुजराती भाई अनेक दशकों से कई प्रकार के व्यवसाय सफलता पूर्वक चला रहे हैं।कुछ परिवारों की तो तीसरी/ चौथी पीढ़ी यहां के व्यापार जगत में अपनी पैंठ बना चुकी हैं।

हमारे देश के सिंधी भाई भी पूरे गल्फ में छाए हुए हैं। सिख बंधु भी इंगलैंड और कनाडा जैसे देशों की आबादी को हिस्सा बन चुके हैं। दक्षिण पूर्व सिंगापुर, मलेशिया आदि में तमिल भाई अग्रणी हैं।

आई टी सेवा में तो पूरे देश के लोग विश्व में भारत की शान हैं,परंतु बहुतायत आंध्र प्रदेश से आते हैं।

पिंटू जी ने भारतीय संस्कृति का परिचय देते हुए हमें चाय/कॉफी का प्रस्ताव दिया। हमने भी उनकी मेज़बानी स्वीकार किया और अमेरिका देश के बारे में ढेर सारी जानकारी प्राप्त कर ली।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #185 ☆ रेशमाची शाल… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 185 ?

☆ रेशमाची शाल…  ☆

अक्षरांनाही वळाले लागते

आशयासाठी झुरावे लागते

 

कागदावर हक्क शाई सांगता

हृदय त्यावर पांघरावे लागते

 

पीठ थापुन होत नाही भाकरी

दुःख कांडावे दळावे लागते

 

लाकडाची, धातुची कसली असो

लेखणीलाही झिजावे लागते

 

प्राक्तनाला येत नाही टाळता

वेळ येता गरळ प्यावे लागते

 

वादळाला माज सत्तेचा किती

सज्जनांना भिरभिरावे लागते

 

मानसा तू प्रगत होता या इथे

पाखरांना दूर जावे लागते

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 136 – सुमित्र के दोहे… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  – सुमित्र के दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 136 – सुमित्र के दोहे…  ✍

फूल अधर पर खिल गये, लिया तुम्हारा नाम।

 मन मीरा -सा हो गया, आंख हुई घनश्याम ।।

शब्दों के संबंध का ,ज्ञात किसे इतिहास ।

तृष्णा कैसे  मृग बनी, कैसे  दृग आकाश।।

 गिरकर उनकी नजर से, हमको आया चेत।

 डूब गए मझदार में ,अपनी नाव समेत।।

 ह्रदय विकल है तो रहे, इसमें किसका दोष।

 भिखमंगो के वास्ते ,क्या राजा क्या कोष ।।

देखा है जब जब तुम्हें ,दिखा नया ही रूप ।

कभी धधकती चांदनी ,कभी महकती धूप ।।

पैर रखा है द्वार पर ,पल्ला थामे पीठ ।

कोलाहल का कोर्स है, मन का विद्यापीठ ।।

मानव मन यदि खुद सके ,मिले बहुत अवशेष।

 दरस परस छवि भंगिमा, रहती सदा अशेष।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 135 – “आँखों की कोरों से…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  आँखों की कोरों से)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 135 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

आँखों की कोरों से… ☆

मौसम ने बदल दिये

मायने आषाढ़ के

ओट में खड़े कहते

पेड़ कुछ पहाड़ के

 

आँखों की कोरों से

चुई एक बूँद जहाँ

गहरे तक सीमायें

थमी रहीं वहाँ वहाँ

 

ज्यों कि राज महिषी फिर

देख देख स्वर्ण रेख

सच सम्हाल पाती क्या लिये हुये एक टेक

 

सहलाया करती है

दूब को झरोखे से

ऐसे ही दकन के

या पश्चिमी निमाड़ के

 

शंकित हिरनी जैसे

दूर हो गई दल से

काँपने लगी काया

काम के हिमाचल से

 

गंध पास आती है

कान में बताती है

लगता है साजन तक

पहुँच गई पाती है

 

सोचती खड़ी सहसा

सोनीपत पानीपत

अपने हाथों से फिर

देखती उघाड़ के

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-02-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 184 ☆ पृथ्वी दिवस पर कविता  – “धरती से पहचान…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है पृथ्वी दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता  – धरती से पहचान”।)

☆ कविता  # 184 ☆ पृथ्वी दिवस पर कविता  – “धरती से पहचान…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

सबसे बड़ी होती है आग,

और सबसे बड़ा होता है पानी,

 

तुम आग पानी से बच गए,

तो पृथ्वी काम की चीज़ है,

 

धरती से पहचान कर लोगे,

तो हवा भी मिल सकती है,

 

धरती के आंचल से लिपट लोगे,

रोशनी में पहचान बन सकती है,

 

तुम चाहो तो धरती की गोद में,

पांव फैलाकर सो भी सकते हो,

 

धरती को नाखूनों से खोदकर,

अमूल्य रत्नों भी पा सकते हो,

 

या धरती में खड़े होकर,

अथाह समुद्र नाप भी सकते हो,

 

तुम मन भर जी भी सकते हो,

धरती पकडे यूं मर भी सकते हो,

 

कोई फर्क नहीं पड़ता,

यदि जीवन खतम होने लगे,

 

असली बात तो ये है कि,

धरती पर जीवन प्रवाह चलता रहे,

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 126 ☆ # झूठे वादे… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# झूठे वादे… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 126 ☆

☆ # झूठे वादे… # ☆ 

अब कौन यह हिम्मत करेगा

की सच बोले

सच के लिए

अपना मुंह खोले

सच बोलने वाले

ना जाने अंधेरे में

कहां खो जाते हैं  

फिर वो दुबारा

कहीं नजर नहीं आते हैं

महफ़िलो में

पार्टियों में

नयी नयी शैलियों में

कभी कभी अनाम रैलियों में

इन्हें परोसा जाता है

आम आदमी

जो सहज है, सरल है

जीवन भर

इसे समझ

नही पाता है

वो इसी मदहोशी में

मस्त रहता है

कभी व्यवस्था के खिलाफ

कुछ नहीं कहता है

वक्त धीरे धीरे 

आगे बढता है

सूरज भी धीरे धीरे 

ऊपर चढ़ता है

इस आग और तपिश

की जलन में

हाथगाड़ी,

फुटपाथों पर

नंगे बदन में

अपनी जिंदगी

हार जाता है

वो चांद की ठंडक या

चांद को कभी

नही पाता है

उसके लिए

पूर्णमासी भी

अमावस बन जाती है

उसके जीवन में

फिर कभी

रोशनी लौट कर नहीं

आती है

पसीने से तरबतर

वो थका-हारा

चांद को ताकते ताकते

ना जाने कब

सो जाता है

भूख और गरीबी में

झूठे वादों के सिवा

वो जीवन मे

कुछ नही पाता है/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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