(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे – मकर सक्रांति /लोहड़ी”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – “रिश्तों में अब हो गईं तल्खियाँ…”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 151 ☆
☆ एक पूर्णिका – “रिश्तों में अब हो गईं तल्खियाँ…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆
☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त सूक्त १४ (विश्वेदेव सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १४ (विश्वेदेव सूक्त)
ऋषी – मेधातिथि कण्व : देवता – विश्वेदेव
ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील चौदाव्या सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी विश्वेदेवाला आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे सूक्त विश्वेदेव सूक्त म्हणून ज्ञात आहे.
मराठी भावानुवाद : –
☆
ऐभि॑रग्ने॒ दुवो॒ गिरो॒ विश्वे॑भिः॒ सोम॑पीतये । दे॒वेभि॑र्याहि॒ यक्षि॑ च ॥ १ ॥
सिद्ध करुनिया सोमरसा ठेविले अग्निदेवा
यज्ञवेदिवर सवे घेउनी यावे समस्त देवा
सोमरसासह स्वीकारुनिया अमुच्या स्तोत्रांना
सफल करोनी अमुच्या यागा सार्थ करा अर्चना ||१||
☆
आ त्वा॒ कण्वा॑ अहूषत गृ॒णन्ति॑ विप्र ते॒ धियः॑ । दे॒वेभि॑रग्न॒ आ ग॑हि ॥ २ ॥
अमुच्या यज्ञा प्रसन्न होउन सिद्ध करी संपन्न ||११||
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यु॒क्ष्वा ह्यरु॑षी॒ रथे॑ ह॒रितो॑ देव रो॒हितः॑ । ताभि॑र्दे॒वाँ इ॒हा व॑ह ॥ १२ ॥
अग्नीदेवा सिद्ध करूनी रथा अश्व जोड
प्रसन्न करुनी देवतांसी रे करी त्यात आरूढ
आतुर आम्ही त्यांच्यासाठी येथे तिष्ठत
झणि घेउनि ये सर्व देवतांना या यज्ञात ||१२||
☆
(हे सूक्त व्हिडीओ गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)
…. काय मंडळी हसताय ना? हसलेच पाहिजे. तुमच्या टेन्शन वरची मात्रा, ईनोदाचे चारवार हास्याचा चौकार. चमत्कृतीचा ईनोद नि शाब्दिक कसरतीवर शारीरिक चमत्कारिक अंगविक्षेप अश्या अनेक क्लुप्त्या दाखवून हसायला लावणारे अनेक टि. व्ही. कार्यक्रम सतत चौवीस तास डोळ्याना सुखवत मुखाला हसवत असतात… दुसऱ्याच्या व्यंगावर (वर्मावर टिप्पणी करून) केलेला विनोदाला हसणे हा मनुष्याचा नैसर्गिक स्वभावच असतो नाही का? रस्त्यावरुन चालणारा अचानक पाय घसरुन पडला तर सगळया पहिले हासतो ते आपण… फजिती, विचका झाल्याचा विकृत आनंदच तो असतो आपल्या हास्यातून बाहेर पडतो.. पण ते का खरे निखळ हसणे असते..पू्र्वी सर्कस येत असत त्यात विविध जोकर उलट्या सुलट्या उड्या आणि कसरती द्वारे प्रेक्षकांना हसवत असत… मेरा नाम जोकर सिनेमा पाहिलेला तुम्हाला आठवत असेलच.. जो माणूस आतून खरोखर दुःखात बुडालेला असतो तोच चेहऱ्यावर आपलं दुख लपवून दुसऱ्याला जास्त हसवत असतो हे ही आपल्याला ठाऊक आहेच की… पण खरी गोष्ट अशी आहे की तो आपल्याला हसवत नसून तो आपल्या आतल्या दु:खावरच हसण्याचा उपाय करत असतो.. हसण्यासाठी जन्म आपुला हे वाक्य जो सतत जपत राहतो त्याच्या पुढे सगळी संकटे दु:ख चार हात लांबच राहू पाहतात. साहित्यिक हलके फुलके नर्म विनोद सगळ्या वाचकांना हसवत असतात, व्यंग चित्र, अभिनयातून साधलेले विनोद, ही सारी उदाहरणे निखळ हास्य निर्माण करतात.. ती अक्षर कलाकृती अक्षय आनंदाचं हास्य फुलवित असते. म्हणून आजही भाईंची सगळी पुस्तकं तेच हास्य देत असतात.. धीरगंभीर प्रवृत्तीच्या लोकांना विनोदाचं वावडे असल्याने ते तर कधीच हासत नाहीत नि दुसऱ्यालाही हसवत नाहीत.. पण काही काही वेळा तीच माणसं हसण्याचा विषय होउन बसतात… मग हिच माणसं टवाळा आवडे विनोद म्हणून हाकाटी पिटत बसतात…दैनंदिन जीवनातील कंटाळवाणे, नीरस धबगडयात मनोरंजनासाठी चार हास्याचे कण मिळावेत म्हणून तर सिनेमा,नाटक, टि. व्ही. वरील कार्यक्रम पाहिले जातात..तसं पाहिलं तर विनोदाला कुठलाच विषय वर्ज्य नाही..आदी नाही अंतही नाही… पण ताळतंत्र सुटलेला विनोद हास्य निर्माण करत नाही तर त्या विनोदाची कीव करायला लावतो… हसणं हा जन्मजात गुण मानवाला मिळालेला असून तो आबालवृद्धा़ना तितकाच हवाहवासा असतो..स्त्रियांवर तर विनोदाला कळस गाठला जातो.तसा नवरोजीही यातून सुटलेला नसतो बरं… थोडक्यात काय विनोदाला जळी स्थळी काष्ठी पाषाणी सर्व स्पर्शी असल्याने ते ज्याला लुभावते तोच त्यातून हासू निर्माण करतो… स्वता हसतो नि दुसऱ्याला हसवतो..
… आताच्या काळात तो जूना शब्द प्रयोग ‘हसावे कि रडावे’ आता कुचकामी ठरला आहे.. आता फक्त हसतच राहावे असे वाटते…हल्लीचे राजकारण त्यात अग्रेसर आहे.. त्यामुळे सर्कस, सिनेमा, नाटक बंद पडली आहेत… एकापेक्षा एक धुरंधर विदूषक आपली विनामूल्य मनोरंजनातून हसवत असतात.. मेडिया त्याचं विस्ताराने प्रसिद्धी करण करत असतो, पेपर तर पहिल्या पानापासून ते शेवटच्या पाना पर्यंत विनोदाची विविधता पेरूनच असतो..
… एव्हढी सगळी साधने तुम्हा आम्हाला सतत हसत राहा म्हणून कानीकपाळी ओरडून सांगत असताना आपण हसयाचं नाही?…टिआरपी वाढण्यासाठी तरी आपल्याला हसायला हवं ना?… मग
…. काय मंडळी हसताय ना? हसलेच पाहिजे. तुमच्या टेन्शन वरची मात्रा, ईनोदाचे चारवार हास्याचा चौकार…
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “गीत – संगीत में बसी दुनिया”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 131 ☆
☆ गीत – संगीत में बसी दुनिया ☆
भाषा के महत्व को सभी पहचानते हैं। जब हम किसी ऐसे प्रदेश में हों जो अहिन्दी भाषी हो तो वहाँ अपनी बात चेहरे के भावों से या धुन के द्वारा बतानी होती है। आज भी हम बड़े शान से अंग्रेजी बोलते हुए स्वयं को इंटरनेशनल घोषित करना नहीं भूलते हैं। सोचिए जब कोई अन्य भाषा वाला हिंदी प्रदेशों में आता है तो उसे कैसे संवाद का हिस्सा बनाया जाए। इस सम्बंध में एक वाकया याद आ रहा है, उच्चवर्गीय पार्टी में सभी प्रदेशो से लोग आमंत्रित थे। सब तो भारतीय होने के नाते हिंदी को समझ रहे थे किंतु दक्षिण भारतीय लोग थोड़ा कम घुल मिल पा रहे थे, भाषा की समस्या उनसे जुड़ने में बाधक हो रही थी। इस बात को आर्केस्ट्रा वालों ने बहुत जल्दी भाँप लिया , बस फिर क्या था उन्होंने दक्षिण भारतीय फिल्मों का हिट संगीत बजाना शुरू कर दिया। अब तो वो परिवार भी मुस्कुराने लगा, चेहरे पर संतृप्ति का भाव देखते ही उनको बुलाया गया कि वे इस गीत को स्वर दें, देखते ही देखते पूरी पार्टी थिरक उठी अब तो वहाँ ऐसा कोई नहीं बचा जो झूम न रहा हो।
इस सबसे एक बात तो तय है कि वास्तव में गीत- संगीत अपनी लय से हमें जोड़े रखता है। अर्थ समझ में भले न आये किन्तु ताल से ताल मिलाते हुए कदम थिरकने ही लगते हैं। पूरे विश्व को भारतीय फिल्में जोड़ रहीं हैं अपनी सम्प्रेषण क्षमता के कारण। हमें अपने कथ्यों पर भी नजर रखनी चाहिए क्योंकि पूरी दुनिया हमें उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है।
अन्ततः यही कहा जा सकता है कि सकारात्मकता से सब कुछ सम्भव है बस जुड़े रहिए कुछ सीखने के लिए। मन को पढ़ने की कला जिसको आ गयी उसे सफल होने से कोई नहीं रोक सकता है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – व्यंग्य लेखन में बदलते व्यवहार)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 188 ☆
व्यंग्य – व्यंग्य लेखन में बदलते व्यवहार
व्यंग्यकार भी आखिरकार समाज का ही हिस्सा होता है, वह रोबोट की तरह नियमो में बंधा आदर्श लेखन मात्र नही कर सकता। वह पूर्वाग्रहों से मुक्त कैसे हो? स्त्री, विद्रूप शरीर, अपनी आदतों के चलते जातियां विशेष जैसे सरदार जी या सिंधी, कंजूसी के चलते महाराष्ट्रीयन आदि पर व्यंग्य किए जाते थे, किंतु समय ने परिवर्तन किए हैं, इन इंगित लोगों में भी और व्यंग्यकार की मानसिकता पर भी, अब इन पर हास्य कम हो रहे हैं, होने भी नहीं चाहिए। अब अष्टाव्रक को देख सभा मखौल उड़ाने की जगह संवेदना के भाव रखने लगी है, जो सर्वथा सही है।
किंतु आतंक के लिए पाकिस्तान या सामान की कम गुणवत्ता के लिए चीन जैसे नए समीकरण नई विसंगतियां उठ खड़ी हुई हैं। इन पर चोट करने से शायद व्यंग्यकार को आनंद मिलता है। तो वह इन जैसे विषयों पर स्वान्तः सुख के साथ साथ पाठको के लिए लिख रहा है।
इसे हम सामाजिक समरसता के विरुद्ध कह जरूर सकते हैं किंतु व्यंग्यकार का काम ही उन मुद्दों को कुरेदना है जो आम आदमी को चोट करते हैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा –“पहल”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 131 ☆
☆ लघुकथा – “पहल” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
दोनों शिक्षिका रोज देर से शाला आती थी. उन्हें बार-बार आगाह किया मगर कोई सुधार नहीं हुआ. एक बार इसी बात को लेकर शाला निरीक्षक ने प्रधान शिक्षिका को फटकार दिया. तब उसने सोचा लिया कि दोनों शिक्षिका की देर से आने की आदत सुधार कर रहेगी.
” ऐसा कब तक चलेगा?” प्रधान शिक्षिका ने अपने शिक्षक पति से कहा,” आज के बाद इनके उपस्थिति रजिस्टर में सही समय अंकित करवाइएगा.”
” अरे! रहने दो. उनके पति नेतागिरी करते हैं.”
” नहींनहीं, यह नहीं चलेगा. वे रोज देर से आती हैं और उपस्थिति रजिस्टर में एक ही समय लिखती हैं. क्या वे उसी समय शाला आती हैं?”
” अरे! जाने भी दो.”
” क्या जाने भी दो ?” प्रधान शिक्षिका ने कहा,” आप उनको नोटिस बनाते हो या मैं बनाऊं?”
” ऐसी बात नहीं है.”
” फिर क्या बात है स्पष्ट बताओ?”
” पहले तुम तो समय पर आया करो, ताकि मैं भी समय पर शाला आ पाऊं,” शिक्षक पति ने कहा,” तभी हमारे नोटिस का कुछ महत्व होगा, अन्यथा…” कह कर शिक्षक पति चुप हो गया.
वाचाल प्रधान शिक्षिका ने इसके आगे कुछ कहना ठीक नहीं समझा.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)