संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “ईश्वर से वरदान मिला है…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा – दिवाली के दिये।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 45 – लघुकथा – दिवाली के दिये
“माँ हम दीवाली नहीं मनाएँगे क्या? देखो सबके घर में दीये जल रहे हैं। ” गंगा के आठ साल के बेटे ने अपनी माँ से पूछा।
“दीवाली तो अमीरों का उत्सव है बेटा। हम गरीब हैं न हम उत्सव नहीं मना पाते। दीये जलाने के लिए दीये भी तो चाहिए होते हैं न!” गंगा ने अपने इकलौते बेटे को समझाते हुए कहा।
यह दीये की ज़रूरत वाली बात बाल मन में कहीं बस गई।
गंगा विधवा थी। मजदूरी करके जो दिहाड़ी कमाती थी उसी से उन दोनों का पेट पलता था। रास्ते के किनारे गली के भीतर पतरे की झोंपड़ी थी जो उनका घर था। कई अनेक उन जैसे गरीब श्रमिक वहाँ रहते थे। पर उन लोगों की अवस्था गंगा से अच्छी थी क्योंकि वहाँ चार हाथ काम करते थे। यहाँ गंगा अकेली पड़ गई थी। ध्याढ़ी पुरुष मजदूरों को प्रतिदिन 500 रुपये मिलते हैं और स्त्रियों को 350 रुपये दिए जाते हैं। गंगा अकेली थी तो पति वाला हिस्सा उसकी तकदीर में न था। उसे अपने 350 रुपये में ही गुज़ारा करना पड़ता था।
दो वक्त की रोटी वह जुटा लेती थी। एक दो जोड़े कपड़े साल में खरीद लेती थी पर इससे अधिक उसके लिए कुछ और करना संभव न था।
कंस्ट्रक्शन कंपनी वालों ने चार दिन की छुट्टी कर दी थी। अर्थात रोज़ की दिहाड़ी बंद हो रही थी। पर साहब ने दीवाली से पहले हर मज़दूर को एक जोड़े वस्त्र और हज़ार रुपये दिए थे।
गंगा को साड़ी मिली थी। वह अपने बेटे को लेकर बाज़ार गई और उसके लिए शर्ट पैंट खरीदे गए। हाथ में पैसे थे तो उस दिन ठेले पर पाव-भाजी और गुलाब जामुन खाया।
गंगा का बेटा राजू खुश था पर झोंपड़ी में दीये न जलाए जाने का उसे दुख था। वह दूर खड़े होकर लोलुप दृष्टि से बंगले में रहनेवाले बच्चों को आतिशबाज़ी करते हुए देखता। आँखों में उत्साह और जिज्ञासा तैरती रहती, नज़रें आकाश की ओर उठी रहती और रंगीन रोशनी कई छटाओं को बिखेरते हुए देखकर उसका चेहरा चमक उठता।
दीवाली खत्म हो गई। गंगा काम पर गई तो एक प्लास्टिक की थैली लेकर राजू मोहल्ले -मोहल्ले घूमने लगा। जहाँ भी उसे बुझे हुए, फेंके गए मिट्टी के दीये मिले उसने उन्हें इकट्ठे कर लिए।
माँ के लौटने से पहले वह घर लौट आया। हैंड पंप के नीचे ठंडी में बैठकर दीयों को साफ़ किया। उन्हें घर के सामने सूखने के लिए बिछा दिया और माँ की प्रतीक्षा करने लगा।
माँ के लौटने पर बड़ी खुशी से उसने माँ को सारे दीये दिखाए और कहा -माँ अगले साल हम दीवाली में दीये जलाएँगे। देख मैंने कितने दीये इकट्ठे कर लिए।
गंगा अपने लाडले को सीने से लगाकर फ़फ़क उठी। आज उसे अपनी गरीबी और वैधव्य पर पहली बार तीव्र दर्द महसूस हुआ।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – “मृत्यु का भय…” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 335 ☆
आलेख – मृत्यु का भय… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
भगवान गरुड़ उड़ान भरते हुये पाटिलपुत्र में एक विष्णु मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे उन्होने देखा कि मंदिर की मुंडेर पर बैठा एक कबूतर कांप रहा था। गरुड़ जी को दया भाव जागृत हुआ, उन्होंने कबूतर से इसका कारण पूछ लिया। कबूतर ने बताया कि एक ज्योतिषाचार्य ने उसे बताया है कि कल प्रातःकाल उसकी मौत हो जाएगी। इसलिये अपनी आसन्न मृत्यु को सोचकर डर रहा हूं।
गरुड़ जी को कबूतर पर दया आ गई और उन्होंने कबूतर को यमदूतों से छिपा देने का निर्णय लिया। गरुड़ जी ने कबूतर को मलयगंध पर्वत की एक सुरक्षित गुफा में जाकर छिपा दिया, और उसे कहा कि अब तुम निश्चिंत रहो यहां यम दूत पहुंच ही नहीं सकते।
फिर गरुड़राज उड़कर यमलोक जा पहुंचे और हंसकर यमराज को बताया कि वे किस प्रकार कबूतर को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा चुके हैं। यमराज ने मुस्कराते हुये कबूतर का लेखा-जोखा मंगवाया। व्यवस्था थी कि पाटिलपुत्र के विष्णु मंदिर में रहने वाले कबूतर की मृत्यु अमुक तिथि को मलयगंध पर्वत की गुफा में सर्प द्वारा भक्षण किये जाने से होगी। गरुड़ जी विस्मित रह गए और तुरंत लौट कर पर्वत पर जा पहुंचे, उन्होने देखा कि एक सांप कबूतर को निगल रहा है। गरुड़ जी यह सोचकर बहुत दुखी हुये कि मैं रक्षा करने के उद्देश्य से इसे यहां लाया था, लेकिन अब मेरे ही कारण इसकी जान चली गई।
कलियुग में उस कबूतर ने अतीक अहमद नामक माफिया बनकर धरती पर जन्म लिया, वह अपने कुकर्मो की सजा भोगता साबरमती जेल में बन्द था। उसे नैनी जेल ले जाया जा रहा था। अतीक को जेल से जेल शिफ्ट करने वाली, माफिया विकास यादव के एनकाउंटर की कथा याद आ रही थी। वह डर से सारी राह कांप रहा था। जब वह सकुशल नैनी जेल की बैरक में पहुंच गया तो उसने भयग्रस्त होते हुये भी किंचित मुस्कराते हुये अपने आकाओ की ताकत पर भरोसा कर चैन की सांस ली।
तभी पास ही कहीं लाउड स्पीकर पर भागवत की कथा चल रही थी। कथा वाचक बता रहे थे कि जब गरुड़ जी द्वारा कबूतर को मलय पर्वत पर छिपा देने और वहां उसकी मृत्यु की घटना की जानकारी भगवान विष्णु को हुई तो भगवान ने गरुड़ जी को समझाया कि जन्म की तरह सबका मरण भी सुनिश्चित है। नियत समय, स्थान और नियत कारक से मरने से कोई बचता नहीं।
पता नहीं कि माफिया डान यह सुन सका या नहीं कि कथा सार में यह भी बताया गया कि मृत्यु तो टाली नहीं जा सकती इसलिये समय रहते जीवन का सदुपयोग कर लेना चाहिये।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर आधारित विचारणीय लघुकथा “संगम में समागम”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 217 ☆
🌻🙏 संगम में समागम 🙏🌻 🌧️जलसंरक्षण🌧️
प्रयागराज कुंभ का महापर्व, आस्था की डुबकी, श्रद्धा की चुनरी, पुलिस प्रशासन की जिम्मेदारी, सरकार की चुनौती, अमृत स्नान की मारामारी, सोशल मीडिया की उन्नति, साधु-संतों की डेरी, लुटपाट की होशियारी, हजारों नाकेबंदी, फिर भी मन को भाते पूरी कचौरी 😊 मन बड़ा ही प्रसन्नता से भरा है।
गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम 144 वर्षों का सुयोग, बड़ी कठिनाई से आज साक्षी संगम में स्नान करने पहुंचीं। गदगद ह्रदय से वह डुबकियाँ लगाकर माँ गंगा को साड़ी, चुनरी, पुष्प अर्पित करके, 🙏 हाथ जोड़ यही प्रार्थना करते दिखी– ‘हे गंगा मैया जब किसी अबोध, अबला नारी को अपने लाज, स्वाभिमान को बचाने की बात आए, बस आप लहरों की तरह उसके साथ लिपटी रहियेगा। क्योंकि अब किसी द्रौपदी की तरह चीर हरण में गिरधारी नहीं आयेंगे। इस धरा पर आप साक्षात सर्व शक्ति मान, निर्मल मातृशक्तियों की पहचान है। आज के बदलते परिवेश में मेरी ये आस्था, लाजकी चुनरी आपके श्री चरणों में।’
आसपास कुंभ स्नान करते लोगों ने यह बात सुनी, नतमस्तक होकर साक्षी के शब्दों को “हर हर गंगे” के साथ स्वीकृति देते दिखाई दिए।
साक्षी की चुनरी साड़ी लहराते हुए माँ गंगा संगम में समागम होते देखती रही। मानों लहरे हिलोर लेती कह रही हो——
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 119 ☆ देश-परदेश – बाप तो बाप ही होता है ☆ श्री राकेश कुमार ☆
कुछ दिन पूर्व एक पिता ने पुत्र के अपहरण की शिकायत पुणे पुलिस को की थी। पिता राजनीति पेशे से है, तुरंत कार्यवाही हुई और पता चला पुत्र को एक चार्टर्ड प्लेन से अगवा कर बैंकॉक ले जाया जा रहा है।
सरकार के सभी घोड़े छोड़ दिए गए पुत्र की लोकेशन पोर्ट ब्लेयर के आस पास थी। सरकारी प्रभाव के उपयोग से पायलट ने वायुयान को वापस मोड़ कर पुणे में सुरक्षित वापसी कर दी थी। जहां यात्रियों के स्वागत के लिए पुलिस तैनात थी।
वायुयान में दो व्यक्ति और भी पुत्र के साथ यात्री थे। बताया जाता है, मात्र अठत्तर लाख रुपए से एक तरफा पुणे से बैंकॉक के लिए भुगतान हुआ था। वापिस यात्रा के समय यात्रियों के सामने लगा हुआ स्क्रीन बंद कर दिया गया था, ताकि उनको पता ना लगे कि उनके विमान की क्या लोकेशन है। लौट के बुद्धू घर को आए।
अब ऐसा बताया गया कि राजनेता पुत्र किसी व्यापार के सिलसिले में बैंकॉक की यात्रा पर थे। पिता को बिना बताए ही उन्होंने विमान की बुकिंग की थी।बाप तो बाप ही होता है, आसमान से धरती पर लाकर पटक दिया। आसमान के उड़ते पक्षी को जमीन की धूल चटवा कर रख दी एक बाप ने। ये भी हो सकता है, वो बैंकॉक बौद्ध धर्म के ज्ञान के लिए गए हों। जितने मुंह उतनी बातें, बैंकॉक यात्रा के बारे में तो लोग किसी के लिए भी कुछ भी कह देते हैं।
ये सब जानकार हमें भी अपने बाप की याद आ गई, वर्ष सत्तर में “चेतना” फिल्म देखने के लिए स्कूल की नवमी कक्षा से भाग कर गए थे। इंटरवल में पिता जी ने हॉल से रंगे हाथ पकड़ कर हमारे शरीर का रंग नीला कर दिया था। उनको हमारी लोकेशन की जानकारी उनके किसी सूत्र ने दे दी थी।
उस दिन जो चेतना जाग्रत हुई थी, आज भी जब पिक्चर देखने जाते है, तो हॉल के अंदर हुई हमारी पिटाई से जहन सिहर उठ जाता है। समय बदल गया लेकिन बाप नहीं बदले।
ताई आणि संध्या दोघीही कला शाखेत पदवीधर झाल्या. दोघींनी वेगवेगळ्या विषयात पदव्युत्तर शिक्षणही घेतले. संध्याला मुंबई विद्यापीठाची फेलोशिपही मिळाली. माझ्या आठवणीनुसार ताईने एम. ए. ला सोशिऑलॉजी हा विषय घेतला होता आणि त्यानंतर तिला सचिवालयात चांगली हुद्देवाली नोकरी मिळाली. त्याचवेळी उपवर कन्या ही सुद्धा जोड पदवी दोघींना प्राप्त झाली होती. परिणामी आमच्या जातीतल्याच काही इच्छुक आणि एलिजिबल बॅचलर्सच्या कुटुंबीयांकडून दोघींसाठी सतत विचारणा होऊ लागली. काय असेल ते असो पण ताई मात्र याबाबतीत फारशी उत्सुक वाटत नव्हती. काही विचारलं तर उडवाउडवीची उत्तर द्यायची शिवाय आमचं कुटुंब हे व्यक्ती स्वातंत्र्य जपणारं असल्यामुळे आमचे आई पप्पा याबाबतीत तसे शांतच होते. मात्र संध्याचे वडील ज्यांना आम्ही बंधू म्हणायचो ते मात्र “संध्याचे लग्न” याबाबतीत फारच टोकाचे बेचैन आणि अस्वस्थ होते. “ यावर्षी संध्याचं लग्न जमलंच पाहिजे. ” या विचारांनी त्यांना पुरेपूर घेरलं होतं. संध्याचं लग्न जमण्याबाबत काहीच नकारात्मक नव्हतं. सुंदर, सुसंस्कारित, सुविचारी, सुशिक्षित आणखी अनेक “सु” तिच्या व्यक्तिमत्त्वाभोवती दिमाखदारपणे जुळले होते. प्रश्न होता तो तिच्याकडून होणाऱ्या योग्य निवडीचाच. अशातच कोल्हापूरच्या नामवंत “मुळे” परिवारातर्फे संध्या आणि अरुणा या दोघींसाठी लग्नाचा प्रस्ताव आला. घरंदाज कुटुंबातील, अमेरिकेहून केमिकल इंजिनिअरिंगची पदवी घेतलेला, भरगच्च अकॅडॅमिक्स असलेला, कलकत्ता स्थित, “युनियन कार्बाइड” मध्ये उच्च पदावर मोठ्या पगाराची नोकरी असणाऱ्या “अविनाश मुळे” या योग्य वराची लग्नासाठी विचारणा करणारा प्रस्ताव आल्यामुळे सारेच अतिशय आनंदित झाले.
रितसर कांदेपोहे कार्यक्रम भाईंकडेच (आजोबांकडे) संपन्न झाला. मुलगा, मुलाकडची माणसं मनमोकळी आणि तोलामोलाची होती. विवाह जमवताना “तोलामोलाचं असणं” हे खरोखरच फार महत्त्वाचं असावं आणि अर्थात ते तसं त्यावेळी होतं हे विशेष.
आतल्या खोलीत बंधूंनी पप्पांना सांगितलं की, ” मुलाच्या उंचीचा विचार केला तर या मुलासाठी संध्याच योग्य ठरते नाही का जना?”
पप्पा काय समजायचं ते समजलेच होते. शिवाय त्यांना मूळातच अशा रेसमध्ये भाग घ्यायचा नव्हता. ते दिलखुलासपणे बंधूंना म्हणाले, ” अगदी बरोबर आहे, आपण संध्यासाठीच या मुलाचा विचार करूया आणि तसेही अरुला एवढ्यात लग्न करायचेही नाहीय. ”
बघण्याचा कार्यक्रम अतिशय सुंदर, आनंदात, खेळीमेळीच्या वातावरणात पार पडला. न बोलताच होकारात्मक संकेत मिळालेही होते. तरीही पत्रिका जमवण्याचा विषय निघाला. वराच्या माननीय आईने दोघींच्याही पत्रिका मागितल्या आणि या “पत्रिकेमधील कोणती जुळेल त्यावर आपण पुढची बोलणी करूया. ” असं त्या म्हणाल्या.
बंधूंचा चेहरा जरा उतरलाच असावा. पपांनी त्यांच्या खांद्यावर हात ठेवला. न बोलताच स्पर्शातूनच सांगितले, “काळजी करू नका. होईल सगळं तुमच्या मनासारखं. ”
मी त्यावेळी प्रतिक्रिया देणे हा कदाचित उद्धटपणा ठरलाच असेल पण तरीही मी म्हणालेच, ” इतकी वर्षं अमेरिकेत राहणारा मुलगाही पत्रिकेत कसा काय बांधला जाऊ शकतो किंवा आईच्या विरोधात जाण्याचं टाळत असेल का ? निर्णय क्षमतेत जरा कमीच वाटतोय मला. ” परंतु “अविनाश मुळे” हा मुलगा सर्वांनाच खूप आवडला. माझ्या त्यावेळच्या शंकेचंही निरसन कालांतराने झालंच. बाबासाहेब.. ज्यांना आम्ही संध्याच्या लग्नानंतर हे संबोधन दिले.. ते अतिशय उच्च प्रकारचं व्यक्तीमत्त्व होतं. त्यांचं आदरणीय स्थान माझ्या मनात कायमस्वरुपी आहे.
संध्याच्या चेहऱ्यावरचे त्यावेळचे अस्फुट, संदिग्ध भावही तिची पसंतीच सांगत होते. त्या काही दिवसांपुरता तरी “या सम हाच” हेच वातावरण आमच्या समस्त परिवारात होते. त्याच दरम्यान ताईने संध्याजवळ हळूच म्हटलेलं मी ऐकलंही, “तुझीच पत्रिका जुळूदे बाई! म्हणजे प्रश्नच मिटला. ”
पत्रिका संध्याचीच जुळली आणि घरात सगळा आनंदी आनंद झाला. लग्न कसं करायचं, कुठे करायचं, कपडे दागिने, खरेदी, जेवणाचा मेनु, पाहुण्यांचे स्वागत.. उत्साहाला उधाण आले होते. दरम्यान अविनाश दोन-तीन वेळा येऊन संध्याला वैयक्तिकपणे भेटलेही. एकंदर सूर आणि गुण दोन्ही छान जुळले. ताई मात्र प्रचंड आनंदात होती. नकारातही दडलेला हा तिचा खुला आनंद मला मात्र जरा विचार करायला लावणारा वाटला पण सध्या तो विषय नको. “संध्याचं लग्न” हाच आघाडीचा प्रमुख विषय नाही का?
अवर्णनीय असा संध्याच्या लग्नाचा सोहळा होता तो! सनईच्या मंगल सुरांसोबत संध्या मनोभावे गौरीहर पूजत होती. बाहेर दोन्ही वर्हाडी मंडळीत गप्पागोष्टी, खानपान मजेत चालू होतं भेटीगाठी घडत होत्या, जुन्या आठवणींना उजाळा मिळत होता, नव्याने काही नात्यांचं पुनर्मिलन होत होतं. करवल्या मिरवत होत्या. पैठण्या शालू नेसलेल्या, पारंपरिक दागिने घालून महिला ठुमकत होत्या. नवी वस्त्रं, नवी नाती, नवे हितसंबंध, नव्या भावना. याचवेळी पप्पा हळूच गौरीहर पुजणाऱ्या सौभाग्यकांक्षिणी संध्याजवळ प्रेमाने गेले. संध्या आमची सहावी बहीणच. “मावस” हे नुसतं नावाला. लेक चालली सासुरा या भावनेने पप्पांना दाटून आलं होतं. डोळे पाणावले होते. संध्याने पप्पांकडे साश्रू नयनाने पाहिले. तिच्या नजरेत, ” काय पप्पा?” हा प्रश्न होता.
“ बाबी! या डबीत एक ताईत आहे लग्नानंतर तू तो सतत जवळ ठेव, नाहीतर गळ्यात घाल. तुझ्या सौभाग्याचं हा ताईत सदैव रक्षण करेल. ”
त्या क्षणी संध्याच्या मनातला गोंधळ पप्पांना जाणवत होता. “ पप्पा तुम्ही हे सांगताय? हा प्रश्न तिच्या ओठावर आलाही असणार. पप्पा एव्हढंच म्हणाले, ” बाबी! नंतर बोलु. तुझ्या वैवाहिक जीवनासाठी या बापाचे खूप आशीर्वाद तुझ्या पाठीशी आहेत. ”
संध्याचा पपांवर निस्सीम विश्वास होता.
तर्काच्या पलिकडच्या असतात काही गोष्टी खरं म्हणजे! पप्पांचा ज्योतिष शास्त्रावरचा सखोल अभ्यास होता. ते स्वतःही जन्मपत्रिका मांडत. आमच्या, आमच्या मुलांच्या ही पत्रिका त्यांनीच अचूक मांडल्यात पण तरीही भविष्य सांगण्यावर आणि मानण्यावर त्यांचा कधीच भर नव्हता. एकाच वेळी ते “ज्योतिष” या शास्त्राला मानत असले तरी ते त्यावर विसंबून राहण्याबाबत फार विरोधात होते. पत्रिका जुळवून लग्न जमवणे, कुंडलीतले ग्रहयोग, त्यावरून ठोकताळ्याचं चांगलं -वाईट भविष्य अथवा चांगल्यासाठीची व्रत वैकल्यं, वाईट टळावं म्हणून शांती वगैरे संकल्पनांवर त्यांचा अजिबात विश्वास नव्हता. Rule your stars.. असेच ते कुणालाही सांगायचे. मग अशा व्यक्तीकडून संध्याबाबतच्या या छोट्याशा घटनेचं कसं समर्थन करायचं? काय अर्थ लावायचा?
त्याचं असं झालं.. डोंबिवलीच्या एका ज्योतिषांकडे( मला आता त्यांचं नाव आठवत नाही) “अविनाश मुळे” यांच्या पत्रिकेशी जुळतात का हे तपासण्यासाठी संध्या आणि अरुणाच्या पत्रिका आल्या होत्या. त्यांनी काही निर्णय देण्याआधीच बंधू त्यांना भेटले होते. गंमत अशी की हे डोंबिवलीचे सद् गृहस्थ आणि पप्पा बऱ्याच वेळा एकाच लोकल ट्रेनने व्ही. टी. पर्यंतचा आणि व्ही. टी. पासून चा (आताचे शिवाजी छत्रपती टर्मीनस) प्रवास करत. दोघांची चांगलीच मैत्री होती. त्या दिवशी पप्पांना गाडीत चढताना पाहून या सद्गृहस्थांनी पप्पांना जोरात हाक मारली, “ढगेसाहेब! या इकडे, इथे बसा. ” त्यांनी शेजारच्या सहप्रवाशाला चक्क उठवले आणि तिथे पप्पांना बसायला सांगितले.
“हं! बोला महाशय काय हुकूम?” पपांनी पुढचा संवाद सुरू केला.
“ अहो! हुकूम कसला? एक गुपित सांगायचंय. बरे झाले तुम्ही भेटलात. ”
मग त्यांनी विषयालाच हात घातला. “अविनाश मुळे” यांच्या पत्रिकेशी कुठलीच पत्रिका नाही जुळत हो! अरुणाची सहा गुण आणि संध्याची केवळ पाच गुण. पण श्रीयुत निर्गुडेंमुळे(बंधु) थोडा नाईलाज झाला. गृहस्थ फारच नाराज झाले होते. ”काहीतरी कराच” म्हणाले.
“ काय पंडितजी तुम्ही सुद्धा ? तुमच्याकडून ही अपेक्षा नव्हती. बरं मग पुढे काय आता. ?”
“निर्गुड्यांना मी काहीच सांगितलेले नाही. हे बघा. पत्रिकेत मृत्यूयोग आहे. लग्न झाल्यावर आठ वर्षानंतर काहीतरी भयानक घडणार आहे पण ही पनवती, हे गंडांतर जर टळले तर मात्र उभयतांचा पुढच्या आयुष्याचा प्रवास अत्यंत आनंददायी आहे हे निश्चित. ”
“ म्हणजे सत्यवान सावित्रीची कलियुगातील कथा असेच म्हणूया का आपण?”
पप्पांना गंभीर प्रसंगी विनोद कसे सुचत?
“ ढगे साहेब हसण्यावारी नेऊ नका. माझं ऐका. मी एक ताईत तुम्हाला देतो. तेवढा कन्या जेव्हा गौरीहर पुजायला बसेल ना तेव्हा तिच्या हाती सुपूर्द करा किंवा तिच्या गळ्यात तुम्ही स्वत: घाला. उद्या आपण याच संध्याकाळच्या सहा पाचच्या लोकलमध्ये नक्की भेटू. ?”
पप्पांनी फक्त त्या सद् गृहस्थांच म्हणणं ऐकलं आणि एका महत्त्वाच्या माध्यमाची भूमिका पार पाडली होती. त्यात त्यांची अंधश्रद्धा मुळीच नव्हती. होतं ते संध्यावरचं लेकी सारखं प्रेम आणि केवळ तिच्या सुखाचाच विचार. त्यात ते गुंतलेले नसले तरी कुठेतरी सतत एका अधांतरी भविष्याचा वेध मात्र ते घेत असावेत. बौद्धिक तर्काच्या रेषेपलिकडे जेव्हा काही घडतं ना तेव्हा त्यावर वाद आणि चर्चा करण्यापेक्षा त्या घटनांकडे तटस्थपणे पहावे नाही तर त्या जशाच्या तशा स्वीकाराव्यात हेच योग्य. फार तर “आयुष्यात आलेला असा एक अतिंद्रिय अनुभव “या सदरात समाविष्ट करावे.
संध्याचे लग्न झाले. बंगालच्या भूमीत एक महाराष्ट्रीयन संसार आनंदाने बहरू लागला. दिवस, महिने, वर्षं उलटत होती. आणि ते पनवतीचं आठवं वर्षं उगवलं. खरं म्हणजे पपांशिवाय कुणाच्याच मनात कसलीच भीती नव्हती. कारण सारेच अनभिज्ञ होते. पण आठव्या वर्षीच आमच्या परिवाराला प्रचंड दडपण देणारे ते घडलेच. बाबासाहेबांना अपघात झाला होता. संध्याचाच भाईंना फोन आला होता. तशी ती धीर गंभीर होती पण एकटी आणि घाबरलेली होती. ताबडतोब कलकत्त्याला जाण्याची तयारी झाली. प्रत्यक्ष भेटीनंतर बराच तणाव हलका णझाला. कारण
श्री. अविनाश मुळे हे केवळ योगायोगाने किंवा दैवी चमत्काराने किंवा पूर्व नियोजित अथवा पूर्व संचितामुळेच एका भयानक प्राणघातक अपघातातून सही सलामत वाचले. जणू काही त्यांचा पुनर्जन्मच झाला. आता तुम्ही काही म्हणा.
“ काळ आला होता पण वेळ आली नव्हती. ”
अथवा
“आयुष्याची दोरी बळकट किंवा देव तारी त्याला कोण मारी.
पण यानंतरची पप्पांची प्रतिक्रिया फक्त मला आठवते. ओंजळभर प्राजक्ताची फुले त्यांनी देव्हाऱ्यातल्या कृष्णाच्या मूर्तीवर भक्तीभावाने वाहिली आणि ते म्हणाले,
हे जगन्नाथा! कर्ताकरविता तुज नमो।
अजूनही माझ्या मनात एक प्रश्न आहे. डोंबीवलीच्या त्या होरापंडितांनी त्यावेळीचं गुपित बंधुंनाच का सांगितलं नाही आणि पपांनाच का सांगितलं? या मागचं गुपित काय असेल?
जाउदे! काही प्रश्नांची उत्तरं न मिळण्यातच आयुष्याची जडणघडण असते हेच खरं!
☆ मंत्रजागर… लेखिका: श्रीमती रश्मी साठे ☆ प्रस्तुती – श्रीमती स्वाती मंत्री ☆
शिव्या दिल्यातर समोरचा क्रोधित होतो हे उदाहरण शिक्षित वा अशिक्षित सर्वांना पटण्यासारखे आहे.
मंत्र प्रभावा विषयी हा लेख वाचून एक नवीन सकारात्मक दृष्टिकोन मिळेल.
केळीचे लोंगर बागेत दिसायला लागल्यावर वानरांनी बागेत येऊन धुडगूस घालायला सुरुवात केली. केळी, पपई ….. एकही फळ हाताशी लागेना. आमच्या जमिनीत वडाच्या झाडाखाली अक्कलकोट स्वामींचे मंदिर बांधलेय. देवळात वीज आल्यावर एक दिवस जपयंत्र आणलं. सूर्यास्ताला जपयंत्रावर गायत्री मंत्राचा जप सुरू करायचा, तो चांगलं उजाडल्यावर बंद करायचा. आठ पंधरा दिवसातच एक गोष्ट अनुभवाला आली. जपयंत्र जरी रात्री सुरू असलं तरी दिवसभर बागेत होणारा वानरांचा धुडगूस आपोआप बंद झाला. वानर बागेच्या कुंपणापर्यंत यायचे. पण बागेत यायचे नाहीत. नुकसान करायचे नाहीत. रात्रीच्या वेळी मात्र तोच कळप तळ्याकाठच्या त्याच झाडावर वस्तीला असायचा. आज घराभोवती पाच फळबागा उभ्या राहिल्या असून वानरांमुळे होणारं नुकसान पूर्णपणे थांबलं. गायत्री मंत्र आणि वानर यांचा नेमका काय संबंध – हे मात्र अनाकलनीय आहे. आज अनेक शेतकरी हा अनुभव प्रत्यक्ष घेत आहेत.
‘रानगोष्टी’ या डॉ. राजा दांडेकर यांच्या पुस्तकातील हा उतारा. गायत्री मंत्राचा उत्तम महिमा सांगणारा. आजच त्याची आठवण होण्याचे कारण काय? कारण कोकणातील एक फेसबुक मित्र श्री. अविनाश काळे यांची पोस्ट. ‘कोकणचे दुःख कोणी दूर करेल ?’ ह्या मथळ्याच्या पोस्टचा मथितार्थ असा की कोकणातील शेतकऱ्यांचे लाखो रुपयांचे नुकसान माकडे आणि वानरे यांच्यामुळे होत आहे. त्यांचा बंदोबस्त न झाल्यास कोकणातील शेतकऱ्यांवर आत्महत्या करण्याची वेळ ओढवणार आहे. हिमाचल प्रदेशमध्ये वानर आणि माकड यांना उपद्रवी पशू जाहीर करून मारायला सुरुवात केली. महाराष्ट्रातसुद्धा असे करण्याची गरज आहे.
हे वाचताना गायत्री मंत्राचा प्रभाव आठवला. वानरे, माकडे यांना जीवानिशी मारण्यापेक्षा शेतकरी मित्रांनी हा साधा, निरुपद्रवी उपाय करून पहायला काय हरकत आहे ?
एखाद्या मंत्राचा प्रभाव मान्य करणे ही श्रद्धा की अंधश्रद्धा ? हा वाद जुनाच आहे. अशीही शक्यता आहे की एखादी विज्ञानाधिष्ठित गोष्ट देवाधर्माच्या नावे सांगितली की लोकांना पटते, ते ऐकतात. हे लक्षात आल्याने आपल्या पूर्वजांनी काही गोष्टी हुशारीने लोकांच्या गळी उतरवल्या असतील. आपल्याला त्यामागचे विज्ञान माहीत नसल्याने आपण त्याला अंधश्रद्धेचे लेबल लावून मोकळे होतो !
भारतीय मानसिकतेला मंत्राचा प्रभाव, त्यामुळे होणारे चमत्कार हा मुद्दा नवीन नाही. मूल अक्षरओळख शिकण्याच्या आधीपासून घरच्यांकडून रामायण, महाभारतातील गोष्टी ऐकू लागते. अक्षरे ओळखता येऊ लागली की पौराणिक कथा वाचू लागते. (आताच्या नवीन पिढीत बहुधा हे होत नसावं.) बालवयातच ‘कुमारी माता’ कुंतीची कथा सामोरी येते. कुंतीने मनापासून दुर्वास ऋषींची सेवा केल्याने त्यांनी संतुष्ट होऊन अपत्यप्राप्तीसाठी देवांना वश करण्याचा मंत्र तिला दिला. तिने कुतूहलापोटी मंत्रजप करून सूर्याला आवाहन केले. सूर्य प्रगट होताच भयभीत होऊन त्याला परत जाण्यास सांगितले. मात्र ‘मंत्र व्यर्थ होऊ शकत नाही’ असे सूर्य म्हणाला आणि सूर्यपुत्र कर्णाचा जन्म झाला.
भयकथा, गूढकथा यातही अघोरी विद्यांमध्ये विशिष्ट मंत्रांचे सामर्थ्य किती अचाट आहे, हे वाचायला मिळते. ‘वशीकरण मंत्र साक्षात मनुष्यरुपात प्रगट झाला’ वगैरे वाचताना मला भयंकर कुतूहल वाटत असे. जर खरेच असे काही प्रत्यक्षात घडत असेल तर ते आपल्याला निदान एकदा तरी बघायला मिळावे, असेही वाटून जाई.
विशिष्ट शब्द विशिष्ट पद्धतीने उच्चारणे म्हणजे मंत्र. या मंत्रोच्चारणाचा विधायक वापर आपण आपल्या दैनंदिन आयुष्यात करू शकलो तर आपले कितीतरी प्रॉब्लेम्स सुटतील ! खरंच मंत्रात शक्ती असते का ? अलीकडेच व्हाॅट्सॲपवर एक पोस्ट वाचायला मिळाली. त्यात या प्रश्नाचे उत्तर देण्याचा प्रयत्न केला होता. पोस्टचा मथितार्थ असा की एखाद्या माणसाने आपल्याला उद्देशून अपशब्द उच्चारले, शिव्या दिल्या तर आपल्याला संताप येतो. म्हणजेच त्या शब्दांमध्ये ताकद आहे. त्यामुळे निगेटिव्ह एनर्जी तयार होते. ह्याउलट कुणी आपले कौतुक केले, प्रेमाने बोलले तर आपल्याला प्रसन्न, आनंदी वाटतं. म्हणजेच पॉझिटिव्ह ऊर्जा निर्माण होते अगदी ह्याच प्रकारे मंत्रातील शब्दांतदेखील ऊर्जा, सामर्थ्य असते. हे मंत्र आपल्या ऋषीमुनींनी, जे वैज्ञानिक होते, संशोधनातून सिद्ध केले आहेत.
सचिन तेंडुलकर, राहुल द्रविड,विश्वविख्यात नेमबाज अंजली भागवत यांच्यासारखे अनेक खेळाडू ज्यांच्याकडे सल्ला घेण्यासाठी जात होते ते क्रीडामानसशास्त्रज्ञ व माजी इंटेलिजन्स ऑफिसर भीष्मराज बाम यांनी हा मुद्दा अगदी सोप्या भाषेत समजावून सांगितला आहे. ते म्हणतात,’ मंत्र म्हणजे काही शब्दांच्या किंवा वाक्यांच्या आधारे प्रगट होणारा एखादा प्रभावी विचार असतो. काही वेळा एखादा शब्द किंवा ओंकारासारखे अक्षर मंत्रजपासाठी वापरले जाते. तर कधी कधी काही ओळींचाही मंत्र असू शकतो. मंत्रजप हा एकाग्रतेसाठी अत्यंत प्रभावी उपाय आहे. आपल्या विचारांवर आपला ताबा नसेल तर विचार भरकटतातच. पण त्यासोबत आपलीसुद्धा अत्यंत त्रासदायक अशी फरफट होते. विचारांवर प्रभावी नियंत्रण ठेवण्यासाठी मंत्र उपयुक्त ! मंत्रातले शब्द ज्या अर्थाने वापरले असतील त्यावर तुमची पक्की श्रद्धा असायला हवी. म्हणून तर मंत्र हा तुमची ज्या गुरुवर श्रद्धा असेल त्याच्याकडून मिळवायचा असतो. किंवा तो मंत्र तुमच्या स्वतःच्या अनुभवातून सिद्ध झालेला हवा. मग आपोआप तुमची त्याच्यावर श्रद्धा बसते.’
प्रभावी स्वसंवाद ( स्वतःसाठी सूचना) लिहून काढून त्याचा मंत्रासारखा वापर करण्याबाबतही बाम सरांनी लिहिले आहे. Winning Habits या त्यांच्या मूळ इंग्लिश पुस्तकाचा ‘विजयाचे मानसशास्त्र’ या नावाने वंदना अत्रे यांच्या सहाय्याने मराठी अनुवाद केला आहे.
दैनंदिन जीवनात मारुती स्तोत्र, रामरक्षा (किंवा आपले आवडते स्तोत्र / मंत्र) म्हटले की प्रसन्न वाटतं, नकारात्मक विचार पळून जातात हा अनुभव तर सर्वांनीच घेतला असेल. ‘अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमंत्रस्य’ अशीच रामरक्षेची सुरुवात आहे. बुधकौशिक ऋषींना स्वप्नात रामरक्षा स्फुरली. कुरवपूर (कर्नाटक) येथे श्री वासुदेवानंद सरस्वती (टेंबे स्वामी) यांना ‘दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा’ या अठरा अक्षरी प्रभावी मंत्राचा साक्षात्कार झाला.
अखंड नामस्मरण, मंत्रजप यामुळे आपल्या दैनंदिन जीवनात सकारात्मकता येत असेल, फायदा होत असेल तर ‘श्रद्धा – अंधश्रद्धा’ चा काथ्याकूट कशाला ? नियमितपणे, श्रद्धेने मंत्र जपावा हे उत्तम.
लेखिका: श्रीमती रश्मी साठे
प्रस्तुती: श्रीमती स्वाती मंत्री
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – आईएएस का साहित्य में योगदान क्यों नहीं मानते…☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
– क्या आप कमलेश भारतीय हैं?
मैं हरियाणा सचिवालय की वीआईपी लिफ्ट के सामने खड़ा था और एक सभ्य, सभ्रांत सी महिला मुझसे यह सवाल कर रही थीं ! मैं श्रीमती धीरा खंडेलवाल का ‘शुभ तारिका’ के लिए इंटरव्यू लेने जा रहा था और मैने कभी उनको देखा न था । हां, मेरे पास उनका काव्य संग्रह जरूर था, जिसे मैं साथ लिए हुए था । शायद वही कवर सामने था, जिस पर धीरा खंडेलवाल की फोटो और परिचय था ।
– क्या, आप धीरा खंडेलवाल का इंटरव्यू करने जा रहे हो ?
– जी, पर आपको कैसे पता?
– अजी, मैं ही तो धीरा खंडेलवाल हूँ । आपके पास यह काव्य संग्रह इसका प्रमाण है ! देखिए तो मेरी फोटो !
यह थी हमारी पहली मुलाकात ! असल में मैं हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना और मैंने ही “शुभ तारिका’ की संपादिका श्रीमती उर्मि कृष्ण को यह सुझाव दिया था कि पत्रिका में ‘छोटी सी मुलाकात’ के रूप में हर माह एक इंटरव्यू दिया जाये और मैं यह काम खुशी से करने को तैयार हूँ क्योंकि आपका सदैव उलाहना रहा कि मैंने शुभ तारिका को कभी सहयोग नहीं दिया, पर आप मेरी विवशता नहीं जानती थीं कि हमारे ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के कांट्रेक्ट में यह शर्त है कि आप बिना अनुमति बाहर कुछ प्रकाशित नहीं करवा सकते ! अब मैं ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के नियम से स्वतंत्र हो चुका हूँ, अब आप बताइये कि क्या लिखना है, मुझे ! श्रीमती उर्मि ने कहा कि जो आप चाहें, वही शुरू कर लीजिए!.
यह बात बताता चलूँ कि जिन दिनों मैंने लिखना शुरू किया, उन दिनों ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में एक छोटा सा विज्ञापन दिखाई दिया- कहानी लेखन महाविद्यालय का, जिसमें यह कहा गया था कि लेखन का कोर्स कर घर बैठे ही धन और यश कमाइए ! अरे ! ऐसे कैसे? मैंने उस पते पर चिट्ठी लिख दी, मुझे इसके निदेशक डाॅ महाराज कृष्ण जैन का खत दो चार दिनों में ही मिल गया ! खैर ! मैंने कोई कोर्स तो वहां से नहीं किया लेकिन एक परिचय हो गया, जो आजीवन चला ! इसके लिए मैंने बहुत कुछ लिख लिख कर भेजा ! एक दो चीज़ें याद हैं कि मैंने एक परिचर्चा दी थी- क्या महसूस करती हैं लेखकों की पत्नियां ! इसके बाद मेरा व्यंग्य आलेख – क्यों नहीं आते लेखक अच्छे अच्छे ! यही नहीं इसके पचास साल के प्रकाशन के दौरान पांच लघुकथा विशेषांक आये और शायद मैं ही इकलौता लेखक हूँ जिसकी लघुकथा इसके हर विशेषांक में है ! जब दैनिक ट्रिब्यून ज्वाइन कर लिया तब नियमानुसार मैंने बाहर लिखना बंद कर दिया । फिर मुझसे भाभी उर्मि सहयोग मांगें पहले जैसा और मैं चुप रह जाऊं ! इस तरह सन् 1990 से सन् 2011 आ गया और मैं जैसे ही इस कांट्रेक्ट से मुक्त हुआ तब मैंने कहा- भाभी जी, अब बताइये कि क्या सहयोग दूं?
फिर यह छोटी सी मुलाकात स्तम्भ शुरू करने की सोची और पहला इंटरव्यू डाॅ कृष्ण कुमार खंडेलवाल का करने का इरादा बनाया लेकिन अपनी व्यस्तताओं के चलते उनके पास समय नहीं था, तब मै़ने ही सुझाव दिया, कि फिर धीरा खंडेलवाल का इंटरव्यू करवा दीजिये, मेंने भी ठान रखा है कि आपसे ही यह इंटरव्यू का सिलसिला शुरू करूंगा ! इसके लिए खंडेलवाल खुशी खुशी मान गये और उनका एक काव्य संग्रह दराज से देते कहा कि आप थोड़ा इसे देख लीजिए और उसी दिन तीन बजे इंटरव्यू का समय भी तय कर दिया !
इस तरह हमारी पहली मुलाकात हरियाणा सचिवालय की लिफ्ट के सामने हुई ! फिर वे मुझे अपने ऑफिस ले गयीं और चाय की चुस्कियों के बीच ‘छोटी सी मुलाकात’ का श्रीगणेश हो गया! ।
धीरा खंडेलवाल का स्वभाव बहुत सरल और सामने वाले को बहुत मान सम्मान देने वाला है ! कहीं भी बड़ी अधिकारी होने का कोई आभास तक नहीं होने देती थीं ! फिर तो उनसे कभी सचिवालय में तो कभी सरकारी बंगले पर मुलाकातों का सिलसिला तीन साल तक चलता रहा ! वे उन दिनों एक नया काव्य प्रयोग भी कर रही थीं – त्रिवेणी लिखने का ! वाट्सएप पर सुबह सवेरे धीरा खंडेलवाल की त्रिवेणी आ जाती ! मैंने एक बात महसूस की कि आईएएस अधिकारियों को साहित्यकार न मान कर लेखन को उनका शुगल मानने की भूल करते हैं दूसरे लेखक और ऐसी प्रतिक्रियायें भी मुझे सुनने को मिलतीं रहीं ! फिर चाहे वे धीरा हों या डाॅ खंडेलवाल हों या, फिर रमेंद्र जाखू और या, फिर शिवरमण गौड़ हों ! यह मैं समझता हूँ कि इनके साथ न्याय नहीं है । धीरा लगातार लिखतीं आ रही हैं और सन् 2022 में तो इनके दो काव्य संग्रह एक साथ आये और तब तो मैं उपाध्यक्ष की अवधि पूरी होने पर हिसार वापस आ चुका था कि इन्होंने बड़े ही सम्मान से बुलाया और हरियाणा निवास में एक, कमरा भी बुक करवा दिया क्योंकि जनवरी के महीने धुंध बहुत छा जाती है और ग्यारह बजे चंडीगढ़ पहुंचना बहुत मुश्किल था ।
इस तरह इनके एकसाथ दो काव्य स़ग्रहों के विमोचन-समारोह में शामिल होने व अनेक आईएएस मित्रों से फिर से मुलाकात का अवसर बना दिया ! यह भी कहता हूँ कि खंडेलवाल दम्पति साहित्य के प्रति बहुत ही गहरी भावना से जुड़े हूए हैं और अपनी पुस्तकों का विमोचन ऐसे भव्य स्तर पर करते हैं कि दूसरे लेखक सोचते हैं कि काश ! हमारी कृति का भी ऐसा विमोचन हो कभी ! खैर ! इनकी बातों और स्नेह को जितना याद करूं कम रहेगा !
हां, जब मैं हरियाणा निवास से चेक आउट करने लगा तो जो राशि मेरी बताई मैंने अदा की और हिसार आ गया! दो चार दिन बाद धीरा जी का फोन आ गया, वे नाराज़ हो रही थीं कि मैंने तो आपको एक भाई की तरह बुलाया था और आपने पैसे चुका दिये ! मैंने जवाब दिया कि मैंने भी तो अपनी बहन का मान ही रखा था कि वे यह न समझें कि भाई ऐसा है कि छोटा सा बिल नहीं चुका सका !
अब उसी दिन शाम को हमारे घर कोई सज्जन आये कि मुझे धीरा मैम ने भेजा है कि यह लिफाफा दे दूं। लिफाफे में मेरे हरियाणा निवास ठहरने की राशि थी !
अब आगे की कथा अगली कड़ी में ! खंडेलवाल दम्पति की कथा अनंता!
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा।)
यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१३ ☆ श्री सुरेश पटवा
छोटे गोपुरम के बाद का प्रांगण शिव मंदिर के मुख्य मंडप की ओर जाता है, जिसमें मूल वर्गाकार मंडप और कृष्णदेवराय द्वारा निर्मित दो जुड़े हुए वर्गों और सोलह खंभों से बना एक आयताकार विस्तार शामिल है। मंदिर की सभी संरचनाओं में सबसे अलंकृत, केंद्रीय स्तंभ वाला हॉल इस यहीं है। इसी प्रकार मंदिर के आंतरिक प्रांगण तक पहुंच प्रदान करने वाला प्रवेश द्वार टॉवर भी है। स्तंभित हॉल के बगल में स्थापित एक पत्थर की पट्टिका पर शिलालेख मंदिर में उनके योगदान की व्याख्या करते हैं। जिसमें दर्ज है कि कृष्ण देवराय ने 1510 ई. में अपने राज्यारोहण के उपलक्ष्य में इस हॉल का निर्माण करवाया था। उन्होंने पूर्वी गोपुरम का भी निर्माण कराया। मंदिर के हॉलों का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिए किया जाता था। कुछ ऐसे स्थान थे जिनमें संगीत, नृत्य, नाटक आदि के विशेष कार्यक्रमों को देखने के लिए देवताओं की तस्वीरें रखी जाती थीं। अन्य का उपयोग देवताओं के विवाह का जश्न मनाने के लिए किया जाता था।
विरुपाक्ष में छत की पेंटिंग देखी जो चौदहवीं और सोलहवीं शताब्दी की हैं। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में प्रमुख नवीकरण और परिवर्धन हुए, जिसमें उत्तरी और पूर्वी गोपुरम के कुछ टूटे हुए टावरों को पुनर्स्थापित किया गया। मंडप के ऊपर खुले हॉल की छत को चित्रित किया गया है, जो शिव-पार्वती विवाह को दर्शाता है। एक अन्य खंड राम-सीता की कथा को बताता है। तीसरे खंड में प्रेम देवता कामदेव द्वारा शिव पर तीर चलाने की कथा को दर्शाया गया है, और चौथे खंड में अद्वैत हिंदू विद्वान विद्यारण्य को एक जुलूस में ले जाते हुए दिखाया गया है। जॉर्ज मिशेल और अन्य विद्वानों के अनुसार, विवरण और रंगों से पता चलता है कि छत की सभी पेंटिंग 19वीं सदी के नवीनीकरण की हैं, और मूल पेंटिंग के विषय अज्ञात हैं। मंडप के स्तंभों में बड़े आकार के उकेरी आकृतियाँ हैं, एक पौराणिक जानवर जो घोड़े, शेर और अन्य जानवरों की विशेषताओं को समेटे है और उस पर एक सशस्त्र योद्धा सवार है – जो कि विजयनगर की एक विशिष्ट पहचान को दर्शाता है।
मंदिर के गर्भगृह में पीतल से उभरा एक मुखी शिव लिंग है। विरुपाक्ष मंदिर में मुख्य गर्भगृह के उत्तर में पार्वती-पम्पा और भुवनेश्वरी के दो पहलुओं के लिए छोटे मंदिर भी हैं। भुवनेश्वरी मंदिर चालुक्य वास्तुकला का है और इसमें पत्थर के बजाय ग्रेनाइट का उपयोग किया गया है। परिसर में एक उत्तरी गोपुर है, जो पूर्वी गोपुर से छोटा है, जो मनमाथा टैंक की ओर खुलता है और रामायण से संबंधित पत्थर की नक्काशी के साथ नदी के लिए एक मार्ग है। इस टैंक के पश्चिम में शक्तिवाद और वैष्णववाद परंपराओं के मंदिर हैं, जैसे क्रमशः दुर्गा और विष्णु के मंदिर। कुछ मंदिरों को 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश भारत के अधिकारी एफ.डब्ल्यू. रॉबिन्सन के आदेश के तहत सफेद कर दिया गया था, जिन्होंने विरुपाक्ष मंदिर परिसर को पुनर्स्थापित करने की मांग की थी। तब से ऐतिहासिक स्मारकों के इस समूह की सफेदी एक परंपरा के रूप में जारी है।
स्थानीय परंपरा के अनुसार, विरुपाक्ष एकमात्र मंदिर है जो 1565 में हम्पी के विनाश के बाद भी हिंदुओं का जमावड़ा स्थल बना रहा और तीर्थयात्रियों का आना-जाना लगा रहा। यह मंदिर बड़ी भीड़ को आकर्षित करता है; विरुपाक्ष और पम्पा के विवाह को चिह्नित करने के लिए रथ जुलूस के साथ एक वार्षिक उत्सव वसंत ऋतु में आयोजित किया जाता है, जैसा कि महा शिवरात्रि का पवित्र त्योहार है।
वर्तमान में, मुख्य मंदिर में एक गर्भगृह, तीन पूर्व कक्ष, एक स्तंभ वाला हॉल और एक खुला स्तंभ वाला हॉल है। इसे बारीक नक्काशी वाले खंभों से सजाया गया है। मंदिर के चारों ओर एक स्तंभयुक्त मठ, प्रवेश द्वार, आंगन, छोटे मंदिर और अन्य संरचनाएं हैं। दक्षिण वास्तुकला के इनके खम्भ और छत को देखते हुए हमने गर्भ गृह में पहुँच शिव लिंग के दर्शन किए।
गर्भ ग्रह से बाहर निकलने हेतु नौ-स्तरीय पूर्वी प्रवेश द्वार तरफ़ प्रवेश किया, जो सबसे बड़ा है, अच्छी तरह से आनुपातिक है और इसमें कुछ पुरानी संरचनाएं शामिल हैं। इसमें एक ईंट की अधिरचना और एक पत्थर का आधार है। यह कई उप-मंदिरों वाले बाहरी प्रांगण तक पहुंच प्रदान करता है। छोटा पूर्वी प्रवेश द्वार अपने असंख्य छोटे मंदिरों के साथ आंतरिक प्रांगण की ओर जाता है। तुंगभद्रा नदी का एक संकीर्ण चैनल मंदिर की छत के साथ बहता है और फिर मंदिर-रसोईघर तक उतरता है और बाहरी प्रांगण से होकर बाहर निकलता है।