(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “हे मां मातृभूमि तुझे नमन”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 162 – साहित्य निकुंज ☆
☆ आजाद हिन्द फ़ौज ध्वजारोहण दिवस विशेष – हे मां मातृभूमि तुझे नमन ☆
(30 दिसंबर, 1943 को पहली बार नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने पोर्ट ब्लेयर के रॉस द्वीप में आजाद हिंद फौज का झंडा फहराया था। अब इस स्थान को सुभाष दीप कहा जाता है।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है “संतोष के दोहे ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 149 ☆
☆ संतोष के दोहे – अहसास पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆
☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १२ (अग्नि सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १२ ( अग्नि सूक्त )
ऋषी – मेधातिथि कण्व : देवता – अग्नि
ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील बाराव्या सूक्तात मधुछन्दस वैश्वामित्र या ऋषींनी अग्निदेवतेला आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे सूक्त अग्निसूक्त म्हणून ज्ञात आहे.
हे सूक्त व्हिडीओ गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील, हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा ‘मान जाओ ना माँ !’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 108 ☆
☆ लघुकथा – मान जाओ ना माँ ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
मम्माँ किसी से मिलवाना है तुम्हें।
अच्छा, तो घर बुला ले उसे, पर कौन है?
मेरा एक बहुत अच्छा दोस्त है।
मुझसे भी अच्छा? सरोज ने हँसते हुए पूछा।
इस दुनिया में सबसे पहले तुम ही तो मेरी दोस्त बनी। तुम्हारे जैसा तो कोई हो ही नहीं सकता मम्माँ, यह कहते हुए विनी माँ के गले लिपट गई।
अरे ! दोस्त है तो फिर पूछने की क्या बात है इसमें, आज शाम को ही बुला ले। हम सब साथ में ही चाय पियेंगे।
सरोज ने शाम को चाय – नाश्ता तैयार कर लिया था और बड़ी बेसब्री से विनी और उसके दोस्त का इंतजार कर रही थी। हजारों प्रश्न मन में उमड़ रहे थे। पता नहीं किससे मिलवाना चाहती है? इससे पहले तो कभी ऐसे नहीं बोली। लगता है इसे कोई पसंद आ गया है। खैर, ख्याली पुलाव बनाने से क्या फायदा, थोड़ी देर में सब सामने आ ही जाएगा, उसने खुद को समझाया।
तभी दरवाजे की आहट सुनाई दी। सामने देखा विनी किसी अधेड़ उम्र के व्यक्ति के साथ चली आ रही थी।
मम्माँ ! आप हमारे कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं – विनी ने कहा।
नमस्कार, बैठिए – सरोज ने विनम्रता से हाथ जोड़ दिए। विनी बड़े उत्साह से प्रोफेसर साहब को अपनी पुरानी फोटो दिखा रही थी। काफी देर तक तीनों बैठे बातें करते रहे। आप लोगों के साथ बात करते हुए समय का पता ही नहीं चला, प्रोफेसर साहब ने घड़ी देखते हुए कहा – अब मुझे चलना चाहिए।
सर ! फिर आइएगा विनी बोली।
हाँ जरूर आऊँगा, कहकर वह चले गए।
सरोज के मन में उथल -पुथल मची हुई थी। उनके जाते ही विनी से बोली – तूने प्रोफेसर साहब की उम्र देखी है? अपना दोस्त कह रही है उन्हें? कहीं कोई गलती न कर बैठना विनी – सरोज ने चिंतित स्वर में कहा।
विनी मुस्कुराते हुए बोली – पहले बताओ तुम्हें कैसे लगे प्रोफेसर साहब?
बातों से तो भले आदमी लग रहे थे पर –
तुम्हारे लिए रिश्ता लेकर आई हूँ प्रोफेसर साहब का, बहुत अच्छे इंसान हैं। मैंने उनसे बात कर ली है। सारा जीवन तुमने मेरी देखरेख में गुजार दिया। अब अपनी दोस्त को इस घर में अकेला छोड़कर मैं तो शादी नहीं कर सकती। मान जाओ ना माँ !
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है सुश्री दामिनी खरेजी द्वारा लिखित काव्य संग्रह “अर्घ…” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 127 ☆
☆ “अर्घ, कविता संग्रह” – सुश्री दामिनी खरे ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆
पुस्तक चर्चा
अर्घ, कविता संग्रह
दामिनी खरे
आवरण.. यामिनी खरे
प्रकाशक … कृषक जगत, भोपाल
काव्य रचनाओ को गहराई से समझने के लिये वांछित होता है कि रचनाकार के व्यक्तित्व, उसके परिवेश, व कृतित्व का किंचित ज्ञान पाठक को भी हो, जिससे परिवेश के अनुकूल लिखित कविताओं को पाठक उसी पृष्ठभूमि से हृदयंगम कर आनन्द की वही अनुभूति कर सके, जिससे प्रेरित होकर लेखक के मन में रचना का प्रादुर्भाव हुआ होता है. शायद इसीलिये किताब के पिछले आवरण पर रचनाकार का परिचय प्रकाशित किया जाता है. प्रस्तुत कृति अर्घ का आवरण चित्र प्रसिद्ध अव्यवसायिक महिला चित्रकार यामिनी खरे ने बनाया है, छोटे छोटे चित्रों से बना कोलाज ठीक वैसे ही हमारी संस्कृति के विभिन्न आयाम मुखरित करता है जैसे शब्द चित्र किताब की कविताओं से अभिव्यक्त होते हैं । आत्मकथ्य में कवियत्री ने लिखा है की उनके रचनात्मक व्यक्तित्व पर उनके पिता की छाप है, मैंने स्व वासुदेव प्रसाद खरे जी की देवयानी सहित कुछ रचनाएँ सूक्ष्म दृष्टि से पढ़ी हैं, मैं कह सकता हूँ की दामिनी जी की लेखनी में पिता की प्रति छाया शैली, छंद विधान, शब्द सागर में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। भारतीय सामाजिक परिवेश में अनेक महिलाएं विलक्षण व्यक्तित्व रखती हैं किन्तु विवाह के उपरांत परिवार, बच्चो तथा पति के साथ कदमताल करते हुए उनका निजी व्यक्तित्व शनैः शनैः कहीं खो जाता है, दामिनी जी जैसी बिरली महिलाये ही अपने भीतर उस क्षमता को दीर्घ काल तक सुशुप्त रहते हुए भी प्राणवान बनाये रख पाती हैं।
उन्होंने लिखा ही है
“करके अपना ही पिंड दान, बन दीप शिखा जलती जाती “, बेटियां शीर्षक से लिखी गई यह कविता उनका भोगा हुआ यथार्थ है। उनके सुपुत्र ने लैंडमार्क के बहाने उनकी लेखन प्रतिभा को पुनः जागृत करने में भूमिका निभाई, और लेखिका संघ के व्हाट्स अप ग्रुप ने वह धरातल दिया जहां बचपन से अब तक के उनके संवेदनशील मन ने जो मानस चित्र बना रखे थे वे शब्दों का रूप लेकर कागज पर उभर सके। पिता के काव्य संस्कारो को पति का साथ मिला और यह किताब हिंदी जगत को मिल सकी । छोटी छोटी सधी हुई, गंभीर, उद्देश्यपूर्ण,समय समय पर लिखी गईं और डायरी में संग्रहित रचनाओं के पुस्तकाकार प्रकाशन से साहित्य के प्रति अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर लेखिका ने उस प्रसव पीड़ा से मुक्ति पाने की कोशिश की है जिसकी छटपटाहट उनमें कविताओं के लेखन काल से रही होगी.कविताओ में शाश्वत तथ्य मुखरित हुए हैं। यथा..
“ सुख दुःख में गोते लगाना है जीवन, हर पल ख़ुशी से बिताना है जीवन “
संग्रह में कुल ६१ कविताये हैं, प्रकृति, नारी, राष्ट्र, लोकचेतना, समाज जैसे विषयों पर कलम उठाई गई है। मैं लेखिका की कलम की उसी यात्रा में अपने आप को सहगामी पाता हूं, जिसमें कथित पाठक हीनता की विडम्बना के बाद भी प्रायः रचनाकार समर्पण भाव से लिख रहे हैं,स्व प्रकाशित कर, एक दूसरे को पढ़ रहे हैं. नीलाम्बर पर इंद्रधनुषी रंगो से एक सुखद स्वप्न रच रहे हैं. लेखिका चिर आशान्वित हैं, वे मां को इंगित करते हुए लिखती हैं ” धैर्य धरा सा तुमसे सीखा, सीखा कर्म किये जाओ, फल देना ईश्वर के हाथो, तुम केवल चलते जाओ “
बादलों को लक्ष्य कर वे लिखती हैं “कनक कलश से छलक रहे ये वन उपवन को महकाते, नहीं जानते लेना ये बस देना ही देना जाने “
“ जीवन है इक भूल भुलैया, रह ढूँढना रे मन, नई राह पर चलते चलते धैर्य न खोना रे मन “ इन कसी हुई पंक्तियों की विवेचना प्रत्येक पाठक के स्वयं के अनुभव संसार के अनुरूप व्यापक होंगी ही.
धूप का टुकड़ा शीर्षक से एक रचना का अंश है.. ” सुनो संगीत जीवन का, नहीं मालूम क्या हो कल, मुझे भाता है संग इनका, तुम्हें भी रास आएगा” जीवन विमर्श के ये शब्द चित्र बनाते हुये दामिनी जी किसी परिपक्व वरिष्ठ कवि की तरह उनकी लेखनी पर शासन कर रही दिखाई देती है.
अर्घ, पुस्तक की शीर्षक रचना में वे लिखती हैं…
भावना के अर्घ देकर चल मना
लौ प्रकम्पित कर रहा मन अर्चना
पंछियों सी अब गगन में उड़ चली
फलक पर नित नवल करती सर्जना
भारत माता शीर्षक से वे लिख रही हैं ” लेते हैं हम शपथ विश्व मे उन्नत मां का भाल करे, सेवा का प्रण लेकर हम सब सदा स्वार्थ का त्याग करें ” काश कि यही भाव हर भारतीय के मन में बसें तो दामिनी जी की लेखनी सफल हो जावे.
उनका ज्ञान व चिंतन परिपक्व है. एक रचना अंश उधृत है ” नैन कह जाते अकथ कहानी, मुखर ह्रदय की वाणी, शीतल सरिता के स्वर, नैन झरे झर झर “
छंद, शब्द सामर्थ्य, बिम्ब योजना हर दृष्टि से कवितायेँ पठनीय तथा मनन, चिंतन योग्य सन्देश समाहित किये हुए है। अपनी ” मौन स्वर “कविता में वे लिखती हैं ” जिंदगी के इस सफर में त्याग ही अनुगामिनी है,मौन स्वर तू रागिनी है “
प्रत्येक रचना के भाव पक्ष की प्रबलता के चलते आप को इस कृति पढ़ने की सलाह देते हुये मैं आश्वस्त हूं.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता “जो नहीं कुछ भी…”। )