हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #148 ☆ संतोष के दोहे – शराब पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 148 ☆

☆ संतोष के दोहे  – शराब पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

नव पीढ़ी इस नशे में,डूब रही है आज

ज्यों ज्यों बन्दिश लग रहीं, त्यों त्यों बढ़ती चाह

नशा कहे मुझसे बड़ा, यहाँ न कोई शाह

 

पाबंदी के बाद भी, बिकती बहुत शराब

शासन बौना सा लगे, सूझे नहीं जवाब

 

कुछ सरकारें चाहतीं, बिकती रहे शराब

मिले अर्थ मन-भावना, पूर्ण करे जो ख्वाब

 

कानूनों में ढील दे, खूब दे रहे छूट

गाँव-गाँव ठेके खुले, पियो घूँट पर घूँट

 

आदिवासियों को मिला, पीने का अधिकार

पीकर बेचें वे सभी, कहती यह सरकार

 

कच्ची विष मय सुरा को, पीकर मरते लोग

उनको फाँसी दीजिए, जो लगवाते भोग

 

सरकारों को चाहिए, सिर्फ न देखें अर्थ

जनता रहे सुसंस्कृत, जीवन न हो व्यर्थ

 

धर्म ग्रंथ कहते सभी, पियें न कभी शराब

साख गिराता आपनी, पैसा करे खराब

 

तन करती यह खोखला, विघटित हों परिवार

बीमारी आ घेरती, बढ़ते बहुत विकार

 

सुरा कभी मत पीजिए, ये है जहर समान

करवाती झगड़े यही, गिरे मान सम्मान

 

जीवन भक्षक है सुरा, इससे रहिए दूर

क्षीर्ण करे बल,बुद्धि को, तन पर रहे न नूर

 

दारू में दुर्गुण बहुत, कहते चतुर सुजान

पशुवत हो जाते मनुज, करे प्रभावित ज्ञान

 

नव पीढ़ी इस नशे में, डूब रही है आज

उबर सकें इससे सभी, कुछ तो करे समाज

 

बढ़ता फैशन नशे का, आज सभी लाचार

गम में कोई पी रहा, कोई बस त्योहार

 

सबके अपने कायदे, पीने को मजबूर

कवि-शायर भी डालते, पावक घी भरपूर

 

नशा राम का कीजिये, लेकर उनका नाम

जीवन में “संतोष” तब, बनते बिगड़े काम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #154 ☆ त्रिगुणात्मक अवतार… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 154 – विजय साहित्य ?

☆ त्रिगुणात्मक अवतार… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

ब्रम्हा विष्णू आणि शिवाचा, त्रिगुणात्मक अवतार

दिगंबरा दिगंबरा हा, मंत्रघोष तारणहार.. ..||धृ.||

 

गळ्यात रुद्राक्षाच्या माळा, अंगावर भस्माच्या रेषा

गोमाता नी श्वान सभोती, दत्त हा दिगंबर वेषा

शंक,चक्र त्रिशूळ हाती,स्वामी चराचरी साकार….||१.||

 

नवनाथांचा कर्ता धर्ता, गिरनार पर्वत वासी

महान योगी दत्तात्रेया, येशी संकट तारायासी

औदुंबर वृक्ष निवासी, कर अवधूता संचार…..||२.||

 

आद्य ग्रंथी लीळाचरित्री,उपास्य दैवत ज्ञाता तू

अत्री आणि अनुसूयेचा, जगत् पालक त्राता तू

चार वेद नी भैरवाचा,होई सदैव साक्षात्कार…||३.||

 

औदुंबर नी माहुर क्षेत्री, किंवा त्या नरसोबा वाडी

पिठापूर, गाणगापूरी, संकीर्तनी भरे चावडी

जात पात ना ठावें काही,धावे करण्याला उद्धार…||४.||

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त ११ (इंद्र सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त ११ (इंद्र सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त ११ ( इंद्र सूक्त )

ऋषी – मधुछंदस् वैश्वामित्र : देवता – इंद्र 

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील अकराव्या सूक्तात मधुछन्दस वैश्वामित्र या ऋषींनी इंद्रदेवतेला आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे सूक्त इंद्रसूक्त म्हणून ज्ञात आहे. 

— मराठी भावानुवाद —

इन्द्रं॒ विश्वा॑ अवीवृधन्त्समु॒द्रव्य॑चसं॒ गिरः॑ । र॒थीत॑मं र॒थीनां॒ वाजा॑नां॒ सत्प॑तिं॒ पति॑म् ॥ १ ॥

सागरासिया व्यापुनी टाकी इंद्र यशोवान

स्तुतिस्तोत्रांनी यशोदुंदुभी होई वृद्धीमान 

राजांचाही राजा इंद्र बलशाली अधिपती

महारथीहुनि अतिरथी म्हणती रणाधिपती ||१||

स॒ख्ये त॑ इन्द्र वा॒जिनो॒ मा भे॑म शवसस्पते । त्वाम॒भि प्र णो॑नुमो॒ जेता॑र॒मप॑राजितम् ॥ २ ॥

हे इंद्रा तू चंडप्रतापि अमुचे रक्षण करीशी

तव सामर्थ्यावर विसंबता आम्हा भीती कैशी

पराभूत तुज कोण करु शके विजयी तू जगज्जेता

तव चरणांवर नमस्कार शत तुम्हीच अमुचे त्राता ||२||

पू॒र्वीरिन्द्र॑स्य रा॒तयो॒ न वि द॑स्यन्त्यू॒तयः॑ । यदी॒ वाज॑स्य॒ गोम॑तः स्तो॒तृभ्यो॒ मंह॑ते म॒घम् ॥ ३ ॥

अमाप गोधन धनसंपत्ती देवेन्द्रा जवळी

भक्तांसाठी दान द्यावया मुक्तहस्त उधळी 

विशाल दातृत्व इंद्राचे अथांग जणु सागर 

अमुचे रक्षण सुरेंद्र करतो पराक्रमी अतिशूर     ||३||

पु॒रां भि॒न्दुर्युवा॑ क॒विरमि॑तौजा अजायत । इन्द्रो॒ विश्व॑स्य॒ कर्म॑णो ध॒र्ता व॒ज्री पु॑रुष्टु॒तः ॥ ४॥

इंद्रराज दिग्विजयी ध्वंस रिपुपुरे करतो

अक्षय यौवन बुद्धी अलौकिक अवतारुन येतो

वज्रधारी हा चंडवीर हा कर्मांचा आधार

स्तोत्र अर्पुनी स्तवने गाती याचे भक्त अपार ||४|| 

त्वं व॒लस्य॒ गोम॒तोऽ॑पावरद्रिवो॒ बिल॑म् । त्वां दे॒वा अबि॑भ्युषस्तु॒ज्यमा॑नास आविषुः ॥ ५ ॥

बलासुराने बळे पळविले समस्त गोधन

मुक्त तयांना केलेसि तू कोटा विध्वंसुन

देवगणांना पीडा होता तव आश्रय मागती 

तव शौर्याने सुखी होउनी क्लेशमुक्त होती ||५||

तवा॒हं शू॑र रा॒तिभिः॒ प्रत्या॑यं॒ सिन्धु॑मा॒वद॑न् । उपा॑तिष्ठन्त गिर्वणो वि॒दुष्टे॒ तस्य॑ का॒रवः॑ ॥ ६ ॥

तू तर सागर असशि कृपेचा औदार्याचा धनी

तव चरणांशी भाट पातले तव शौर्या पाहुनी

पराक्रमी देवेंद्रा  तुझिया दातृत्वे भारुनी 

स्तोत्रांना तुज अर्पण करतो स्तवनासी गाउनी ||६||

मा॒याभि॑रिन्द्र मा॒यिनं॒ त्वं शुष्ण॒मवा॑तिरः । वि॒दुष्टे॒ तस्य॒ मेधि॑रा॒स्तेषां॒ श्रवां॒स्युत्ति॑र ॥ ७ ॥

महारथी शुष्णालाही तू पराजीत केले

तव शौर्याला प्रज्ञावंत विद्वाने देखिले

पंडित सारे तुला अर्पिती स्तुतीपूर्ण भजने

मान राखी रे त्या  स्तवनांचा स्वीकारुन कवने ||७||

इन्द्र॒मीशा॑न॒मोज॑सा॒भि स्तोमा॑ अनूषत । स॒हस्रं॒ यस्य॑ रा॒तय॑ उ॒त वा॒ सन्ति॒ भूय॑सीः ॥ ८ ॥

वसुंधरेवर देवेंद्राचे सहस्र उपकार

सहस्र कैसे अनंत असती कर्मे बहु थोर

बहुत अर्पुनीया स्तोत्रांना सुरेन्द्रास पूजिले

आराधनेस इंद्राच्या संपन्न आम्ही केले  ||८||

हे सूक्त व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. सदर गीताचे संगीत संकलन आणि गायन श्री. शशांक दिवेकर यांनी केलेले आहे आणि त्यातील रेखाटने सौ. सुप्रिया कुलकर्णी यांनी रेखाटली आहेत. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे. 

https://youtu.be/bHeCJVpV8qE

© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 129 ☆ जान – पहचान ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “साध्य और साधन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 129 ☆

☆ जान – पहचान ☆ 

कितनी बार कहा, मुझे आनन्द नहीं खुशी चाहिए। बस इसी खुशी के मोह में अधिकांश लोग घर में रहकर,आरामदायक स्थिति में ख्याली पुलाव पकाते रह जाते हैं। जब अपनी गलती अहसास होता है तो बोरिया बिस्तर समेट कर चल देते हैं। घर को त्यागना अर्थात आराम को छोड़ना; परिक्रमा का मार्ग जहाँ अहंकार का त्याग कर प्रकृति प्रदत्त दिव्य शक्तियों से जोड़ता है वहीं पैदल चलना आपको साहसी बनाने के साथ- साथ श्रेष्ठ चिंतक भी बनाता है। राह में जो मिले उसे स्वीकार करते हुए आगे बढ़ना, जगह- जगह का भोजन, पानी, लोग, संस्कृति सबको आत्मसात करते हुए लक्ष्य तक पहुँचने में जो समय लगता है, उसे व्यर्थ नहीं कहा जा सकता है। जब आप सीखने की चाहत को लेकर आगे बढ़ते हैं तो मंजिल पर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं रहती। हर पल को जीना अपने आप में स्वयं को पहचानने जैसा होने लगता है। जिसने खुद को जाना उसने सारे जगत को जान लिया।

कहते हैं, आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ते हुए  विनम्रता से सब कुछ पाया जा सकता है। सत्संग, रंग, संग, कुसंग, प्रसंग, अंग, प्रत्यंग, जंग, भंग, उमंग, तरंग, बेढंग ये सब केवल तुकांत नहीं है, जीवन की शैली है, जिसे समझने हेतु पथ पर चलना ही पड़ता है।

जिसने सहजता के साथ आगे बढ़ने को अपना लिया वो देर- सवेर सही शिखर पर विराजित अवश्य होगा। स्वयं को समझने का सबसे बड़ा लाभ ये होता है कि जीतने हारने के बीच का फर्क मिट जाता है बस व्यक्ति समाज कल्याण में ही सर्वस्व लुटा देने की चाहत रखता है। सबको जोड़ते हुए आगे बढ़ते रहें, टीमवर्क का रिजल्ट आशानुरूप से भी अधिक होता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 182 ☆ कविता – महानगर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  कवितामहानगर।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 182 ☆  

? कवितामहानगर ?

बड़ा

और बड़ा

होता जा रहा है

शहर , सारी सीमाएं तोड़ते हुए

नगर , निगम,पालिका , महानगर से भी बड़ा

इतना बड़ा कि छोटे बड़े  करीब के गांव , कस्बे

सब लीलता जा रहा है महानगर ।

ऊंचाई में बढ़ता जा रहा है

आकाश भेदता ।

सड़कों के ऊपर सड़के

जमीन के नीचे दौड़ती

मेट्रो

भीतर ही भीतर मेट्रो स्टेशन

भागती भीड़

दौड़ती दुनिया

विशाल और भव्य ग्लोइंग साइन बोर्ड

पर

 

कानों में हेडफोन

मन में तूफान

अपने आप में सिमटते जा रहे लोग

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 139 ☆ बाल गीत – हवा – हवा कहती है बोल… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 139 ☆

☆ बाल गीत – हवा – हवा कहती है बोल… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

हवा – हवा कहती है बोल।

मानव रे! तू विष मत घोल।।

 

मैं तो जीवन बाँट रही हूँ

तू करता क्यों मनमानी।

सहज, सरल जीवन है अच्छा

तान के सो मच्छरदानी।

 

विद्युत बनती कितने श्रम से

सदा जान ले इसका मोल।।

 

बढ़ा प्रदूषण आसमान में

कृषक पराली जला रहा है।

वाहन , मिल धूआँ हैं उगलें

बम – पटाखा हिला रहा है।।

 

सुविधाभोगी बनकर मानव

प्रकृति में तू विष मत घोल।।

 

पौधे रोप धरा, गमलों में

साँसों का कुछ मोल चुका ले।

व्यर्थं न जाए जीवन यूँ ही

तन – मन को कुछ हरा बना ले।।

 

अपने हित से देश बड़ा है

खूब बजा ले डमडम ढोल।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #140 ☆ भक्त शिरोमणी… संत नामदेव ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 140 ☆ भक्त शिरोमणी… संत नामदेव ☆ श्री सुजित कदम ☆

भक्त शिरोमणी संत

रेळेकर आडनाव

नामवेद नामविस्तार

सांप्रदायी‌ सेवाभाव…! १

 

वारकरी संप्रदायी

जन्मा आले नामदेव

दामाशेठ गोणाईला

प्राप्त झाली पुत्र ठेव….! २

 

गाव नरसी बामणी

जन्मा आले नामदेव

दामाशेठ गोणाईला

प्राप्त झाली पुत्र ठेव….! ३

 

सदाचारी हरिभक्त

शिंपी कुल  नामांकित

हरि भजनाचे वेड

नामदेव मानांकित…! ४

 

जिल्हा हिंगोली आजचा

नामदेव जन्म भुमी

कार्तिकाची एकादशी

सांप्रदायी कर्म भुमी…! ५

 

भागवत धर्मातील

आद्य प्रचारक संत

भाषा भेद करी दूर

नामदेव नामवंत…! ६

 

बालपण पंढरीत

लागे विठ्ठलाचा लळा

जेवी घातला विठ्ठल

फुलवला भक्ती मळा…! ७

 

घास घेरे पाडुंरंगा

निरागस भक्ती भाव

अडिचशे अभंगात

दंग झाले रंक राव….! ८

 

दैवी कीर्तन कलेने

डोलतसे पांडुरंग

भावनिक एकात्मता

सारे विश्व झाले दंग…! ९

 

दैवी कवित्व संतत्व

चिरंतन ज्ञानदीप

रंगे कीर्तनाचे रंगी

नामदेव ध्येय दीप…! १०

 

औंढा नागनाथ क्षेत्री

नागराजा आळवणी

भक्ती सामर्थ्य अद्भुत

फिरे देवालय झणी…! ११

 

महाराष्ट्र पंजाबात

बाबा नामदेव वारी

गुरूमुखी लिपीतून

नामदेव साक्षात्कारी…!१२

 

नामदेवाचे कीर्तन

वेड लावी पांडुरंगा

भक्ती शक्तीचा गोडवा

भाव  अभंगाच्या संगा . . . ! १३

 

विठ्ठलाची सेवा भक्ती

हेची जाहले संस्कार

निरूपण अध्यात्माचे

मनी जाहले साकार. .  . ! १४

 

ज्ञाना, निवृत्ती ,सोपान

समकालीन विभूती

गुरू विसोबा खेचर

नामयाची ज्ञानस्फूर्ती . .  ! १५

 

गौळण नी भारूडाचा

आहे अजूनही ठसा

जनाबाई ने घेतला

एकनाथी वाणवसा.. .  ! १६

 

देशप्रेम  आणि भक्ती

रूजविली नामयाने

भागवती धर्म शिखा

उंचावली संकीर्तने. . . ! १७

 

ग्रंथ साहिब ग्रंथात

नामदेव साकारला

हरियाणा, पंजाबात

प्रबोधनी आकारला. .  ! १८

 

संत कार्य भारतात

नामदेव सेवाव्रती

हिंदी मराठी पंजाबी

शौरसेनी भाषेप्रती…! १९

 

संत नामदेव गाथा

बहुश्रुत अभ्यासक

शीखांसाठी मुखबानी

भक्ती भाव संग्राहक…! २०

 

जेऊ घातला विठ्ठल

पायरीची विट झाला

भक्ती मार्ग  उपासक

भजनात दंग झाला . . . ! २१

 

पायरीच्या दगडाचा

महाद्वारी मिळे मान

आषाढाची त्रयोदशी

नामदेव त्यागी प्राण…! २२

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेच्या उत्सव ☆ प्रार्थना धरणी आईची… ☆ सौ. जयश्री पाटील ☆

सौ. जयश्री पाटील

? कवितेच्या उत्सव ?

☆ प्रार्थना धरणी आईची… ☆ सौ. जयश्री पाटील ☆

ऋणी ..धरणी आईचा

काळया सुंदर मातीचा

तूच ……जगत जननी

मुखी घास भाकरीचा. १.

 

तुझ्या कुशीत जन्मलो

ताठ जगलो ..वाढलो

तूच ..श्वास जीवनाचा

तुझ्या ..वरती पोसलो. २.

 

घाव …निमूट सोसते

भले बुरे ते ….झेलते

माया .‌‌..तरीही करते

सर्वांसाठी ….बहरते. ३.

 

देते भरभरु ….सारे

ठायी नसे  भेदभाव

किती गुण तुझे गावे

उपकारा नसे ..ठाव. ४.

 

टिळा लावतो मस्तकी

नित …चरण स्पर्शितो

अशी फुलावी फळावी

हीच ..प्रार्थना अर्पितो. ५.

 

नाते हे …..युगायुगांचे

तुझ्या कुशीत विश्रांती

तुझ्या सोबत …अखेर

आयुष्याची चीर शांती. ६.

 

© सौ. जयश्री पाटील

विजयनगर.सांगली.

मो.नं.:-8275592044

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – विचारात अशा, का गुंतली – ☆ डॉ. स्वाती पाटील ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – विचारात अशा, का गुंतली  ? ☆ डॉ. स्वाती पाटील 

हिरवाई अंगी ।नेसून षोडशा।

विचारात अशा। का गुंतली ।।

 

असतील काही । प्रश्नांचे काहूर।

विचार करीते। सोडवाया॥।

 

दिसे शिकलेली। नार ही गोमटी।

कोणाकडे दीठी। लागलीसे ।।

 

स्वप्न रंजनात। असेल झुलत ।

प्रीत झोपाळ्यात। मनातल्या ॥।

 

की साजन गेला। पर मुलखाला ।

आठवून त्याला । वाट पाहे।।

 

डोळ्यात उदासी । झाली असे कृश।

भेटण्या जीवासी ।आतुरली ।।

 

© डॉ.स्वाती पाटील

सांगली

मो.  9503628150

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #161 – चिड़िया चुग गई खेत… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता  “चिड़िया चुग गई खेत…”। )

☆  तन्मय साहित्य  #161 ☆

☆ चिड़िया चुग गई खेत…

रहे देखते स्वप्न सुनहरे

चिड़िया चुग गई खेत

बँधी हुई मुट्ठी से फिसली

उम्मीदों की रेत।

 

पूर्ण चंद्र रुपहली चाँदनी

गर्वित निशा, मगन

भूल गए मद में करना

दिनकर का अभिनंदन,

पथ में यह वैषम्य बने बाधक

जब हो अतिरेक

बँधी हुई मुट्ठी से फिसली….।

 

मस्तिष्कीय मचानों से

जब शब्द रहे हैं तोल

संवेदनिक भावनाओं का

रहा कहाँ अब मोल,

अंतर्मन है निपट मलिन

परिधान किंतु है श्वेत

बँधी हुई मुट्ठी से….।

 

लगे हुए मेले फरेब के

प्रतिभाएँ हैं मौन

झूठ बिक रहा बाजारों में

सत्य खरीदे कौन,

एक अकेला रंग सत्य का

झूठ के रंग अनेक

बँधी हुई मुट्ठी से फिसली

उम्मीदों की रेत।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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