(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर बाल गीत – “कहाँ गई नन्ही गौरैया…”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 161 ☆
☆ बाल गीत – “कहाँ गई नन्ही गौरैया…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆
☆ नाचून गेल्या चिमण्या…! ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆
सकाळी अंगणातल्या चिवचिवाटानं जाग आली.चिमण्यांचा थवा अंगणात गलका करत होता.चटचट चटचट किड्या मुंग्या वेचण्यात सगळ्या गुंग होत्या.आईनं शेणानं सारवलेल्या अंगणाला नुकताच लखलखीतपणा आला होता.त्या शेणातल्या किडया अळ्या आणि धान्य वेचण्यात रममाण झालेल्या चिमण्या माझी चाहूल लागताच भुरकन उडून लिंबांच्या झाडावर बसल्या आणि अंदाज घेऊन काही क्षणात पुन्हा सारवलेल्या अंगणभर पसरल्या.चिमणा चिमणीचे ते चिवचिव करत,चटचट अन्न वेचत आणि टूणटूण उड्या मारत अंगणभर हुंदडणं डोळ्यात साठवत मी बाजूला बसून पहात होतो.काही अगदी माझ्या जवळ येऊन मला निरखून पहात होत्या.मीही कुतुहलानं त्यांच्या डोळ्यात एकटक पहात त्यांचं निरागसपण टिपून घेत होतो.आपल्याच तालात नाचणाऱ्या चिमण्यांनी अंगण सजून गेलं होतं.मध्येच शेळ्यामेंढ्यांचं ओरडणं,गाईगुरांचं हंबरणं आणि कावळ्यांचं कारकारनं ऐकत..एकटक त्या अंगणाचं जीवंतपण अनुभवत होतो.बाजूला आईनं पाणी भरून ठेवलेली दगडी काटवटीत चिमण्यांची अंघोळीसाठीची धडपड आणि उडणारं पाणी कोवळया उन्हात अंगणाला सोनेरी झालर लावून जात होतं. तिथंच टपून बसलेली मनी आणि चिमण्यांचं हुंदडणं पहात दोन्ही पायावर तोंड ठेवून शांतपणे पहुडलेला काल्या होता. मध्येच अंड्याला आलेल्या करडया कोंबडीचं देवळीत उडी मारण्यासाठी चाललेली धडपड आणि फांदीवर लक्ष ठेवून टपलेले कावळे सारे काही माझ्या बनपुरीच्या घराच्या अंगणाची शोभा वाढवत होते.नुकत्याच चार पाच दिवसापूर्वी जन्मलेल्या शेळ्यांच्या करड्यांनी अंगणभर उड्या मारत चालवलेला धिंगाणा आणि सारवलेल्या अंगणात बारीक बारीक पडलेल्या लेंड्याचा अंगणभर सडा पसरलेला होता.अंगणातल्या चूलीवर काळ्याकुट्ट अंगानं डिचकीत पाणी तापत होतं.दुसऱ्या बाजूला काट्याकुट्यात भक्ष शोधणारी पंडी मांजरीन तिच्याच तालात होती.पाणी तापवत डोळं चोळत,फुकणीनं फुकत शेकत गप्पा हाणित बसलेली पोरं.असं गावाकडचं घरदार भरलं की अंगणात नाचणाऱ्या चिमण्यांनी रोजच्या सकाळचं अंगण असं उजळून निघतं…..
आज चिमण्यांचं चिवचिवनं क्वचितच ऐकायला मिळतं.लहानपणी माळवदी घराच्या किलचानात चिमण्या घरटं करायच्या.घरटं बनवताना त्यांची चाललेली धांदल सारं घर उघडया डोळ्यानं बघायचं.कधी कधी घरात पसरलेला कचरा, त्यातच पडलेलं एखादं फुटलेलं अंडं आणि कधीतरी उघडया अंगाचं पडलेलं चिमणीचं पिल्लू पाहून मन हळहळायचं. चिमण्यांचं सुख आणि दुःख अनुभवत बालपण कधी सरलं समजलच नाही.चिमण्यांनी मात्र घरात आणि मनात केलेलं घरपण हटता हटलं नाही.
आज मात्र अंगणात नाचणाऱ्या चिमण्यांनी मनाचं अंगण पुन्हा हरखून गेलं…..अशा अंगणभर पसरलेल्या चिमण्या पुन्हा पुन्हा मनात नाचत रहाव्यात..आणि घराचं अंगण पुन्हा सजीव होत रहावं..!
(आज अंगण हरवलेली घरं आणि चिमण्यांचं ओसाडपण मनाची घालमेल वाढवत राहते अगदी माझ्या आणि तुमच्याही.)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘जिएं तो जिएं कैसे ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 114 ☆
☆ लघुकथा – जिएं तो जिएं कैसे ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
कॉलबेल बजी। मैंने दरवाजा खोला, सामने एक वृद्धा खड़ी थीं। मैंने उनसे घर के अंदर आने का आग्रह किया तो बोलीं – ‘पहले बताओ मेरी कहानी पढ़ोगी तुम? ‘
अरे, आप अंदर तो आइए, बहुत धूप है बाहर – मैंने हँसकर कहा।
‘मुझे बचपन से ही लिखना पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ ना कुछ लिखती रहती हूँ पर परिवार में मेरे लिखे को कोई पढ़ता ही नहीं। पिता ने मेरी शादी बहुत जल्दी कर दी थी। सास की डाँट खा- खाकर जवान हुई। फिर पति ने रौब जमाना शुरू कर दिया। बुढ़ापा आया तो बेटा तैयार बैठा है हुकुम चलाने को। पति चल बसे तो मैंने बेटे के साथ जाने से मना कर दिया। सब सोचते होंगे बुढ़िया सठिया गई है कि बुढ़ापे में लड़के के पास नहीं रहती। पर क्या करती, जीवन कभी अपने मन से जी ही नहीं सकी।‘
वह धीरे – धीरे चलती हुई अपने आप ही बोलती जा रही थीं।
मैंने कहा – ‘आराम से बैठकर पानी पी लीजिए, फिर बात करेंगे।‘ गर्मी के कारण उनका गोरा चेहरा लाल पड़ गया था और साँस भी फूल रही थी। वह सोफे पर पालथी मारकर बैठ गईं और साड़ी के पल्लू से पसीना पोंछने लगीं। पानी पीकर गहरी साँस लेकर बोलीं – ‘अब तो सुनोगी मेरी बात?’
हाँ, बताइए।
‘एक कहानी लिखी है बेटी ’ उन्होंने बड़ी विनम्रता से कागज मेरे सामने रख दिया। मैं उनकी भरी आँखों और भर्राई आवाज को महसूस कर रही थी। अपने ढ़ंग से जिंदगी ना जी पाने की कसक उनके चेहरे पर साफ दिख रही थी।
‘ मैं पचहत्तर साल की हूँ, बूढ़ी हो गई हूँ पर क्या बूढ़े आदमी की कोई इच्छाएं नहीं होतीं? उसे बस मौत का इंतजार करना चाहिए? और किसी लायक नहीं रह जाता वह? घर में सब मेरा मजाक बनाते हैं, कहते हैं- चुपचाप राम – नाम जपो, कविता – कहानी छोड़ो।‘
कंप्यूटरवाले की दुकान पर गई थी कि मुझे कंप्यूटर सिखा दो। वह बोला – ‘माताजी, अपनी उम्र देखो।‘ जब उम्र थी तो परिवारवालों ने कुछ करने नहीं दिया। अब करना चाहती हूँ तो उम्र को आड़े ले आते हैं !
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – रामचरित मानस के मनोरम प्रसंग …।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 203 ☆
आलेख – रामचरित मानस के मनोरम प्रसंग…–
हम, आस्था और आत्मा से राम से जुडे हुये हैं। ऐसे राम का चरित प्रत्येक दृष्टिकोण से हमारे लिये केवल मनोरम ही तो हो सकता है। मधुर ही तो हो सकता है। अधरं मधुरमं वदनम् मधुरमं,मधुराधि पते रखिलमं मधुरमं -कृष्ण स्तुति में रचित ये पंक्तियां इष्ट के प्रति भक्त के भावों की सही अनुभूति है, सच्ची अभिव्यक्ति है। जब श्रद्वा और विश्वास प्राथमिक हों तो शेष सब कुछ गौंण हो जाता है। मात्र मनोहारी अनुभूति ही रह जाती है। मां प्रसव की असीम पीडा सहकर बच्चे को जन्म देती है, पर वह उसे उतना ही प्यार करती है,मां बच्चे को उसके प्रत्येक रूप में पसंद ही करती है। सच्चे भक्तों के लिये मानस का प्रत्येक प्रसंग ऐसे ही आत्मीय भाव का मनोरम प्रसंग है। किन्तु कुछ विशेष प्रसंग भाषा,वर्णन, भाव, प्रभावोत्पादकता,की दृष्टि से बिरले हैं। इन्हें पढ,सुन, हृदयंगम कर मन भावुक हो जाता है।श्रद्वा, भक्ति, प्रेम, से हृदय आप्लावित हो जाता है। हम भाव विभोर हो जाते हैं। अलौलिक आत्मिक सुख का अहसास होता है।
राम चरित मानस के ऐसे मनोरम प्रसंगों को समाहित करने का बिंदु रूप प्रयास करें तो वंदना, शिव विवाह, राम प्रागट्य, अहिल्या उद्वार, पुष्प वाटिकाप्रसंग, धनुष भंग, राम राज्याभिषेक की तैयारी, वनवास के कठिन समय में भी केवट प्रसंग, चित्रकूट में भरत मिलाप, शबरी पर राम कृपा, वर्षा व शरद ऋतु वर्णन,रामराज्य के प्रसंग विलक्षण हैं जो पाठक, श्रोता, भक्त के मन में विविध भावों का संचार करते हैं। स्फुरण के स्तर तक हृदय के अलग अलग हिस्से को अलग आनंदानुभुति प्रदान करते हैं। रोमांचित करते हैं। ये सारे ही प्रसंग मर्म स्पर्शी हैं, मनोरम हैं।
मनोरम वंदना
जो सुमिरत सिधि होई गण नायक करि बर बदन
करउ अनुगृह सोई, बुद्वि रासि सुभ गुन सदन
मूक होहि बाचाल, पंगु चढिई गिरि बर गहन
जासु कृपासु दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन
प्रभु की ऐसी अद्भुत कृपा की आकांक्षा किसे नहीं होती . ऐसी मनोरम वंदना अंयत्र दुर्लभ है। संपूर्ण वंदना प्रसंग भक्त को श्रद्वा भाव से रूला देती है।
शिव विवाह
शिव विवाह के प्रसंग में गोस्वामी जी ने पारलौकिक विचित्र बारात के लौककीकरण का ऐसा दृश्य रचा है कि हम हास परिहास, श्रद्वा भक्ति के संमिश्रित मनो भावों के अतिरेक का सुख अनुभव करते हैं।
गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं
भोजन करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहिं
जेवंत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूं न परै कह्यो
अचवांई दीन्हें पान गवनें बास जहं जाको रह्यो।
राम जन्म नहीं हुआ, उनका प्रागट्य हुआ है ……
भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी
लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा निज आमुद भुजचारी
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभा सिंधु खरारी
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा
कीजै सिसु लीला अति प्रिय सीला यह सुख परम अनूपा
सचमुच यह सुख अनूपा ही है। फिर तो ठुमक चलत राम चंद्र,बाजत पैजनियां…., और गुरू गृह पढन गये रघुराई…., प्रभु राम के बाल रूप का वर्णन हर दोहे,हर चैपाई, हर अर्धाली, हर शब्द में मनोहारी है।
अहिल्या उद्वार के प्रसंग में वर्णन है …
परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तप पुंज सही
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नही आवई बचन कही
अतिसय बड भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जल धार बही
मन मस्तिष्क के हर अवयव पर प्रभु कृपा का प्रसाद पाने की आकांक्षा हो तो इस प्रसंग से जुडकर इसमें डूबकर इसका आस्वादन करें, जब शिला पर प्रभु कृपा कर सकते हैं तो हम तो इंसान हैं। बस प्रभु कृपा की सच्ची प्रार्थना के साथ इंसान बनने के यत्न करें, और इस प्रसंग के मनोहारी प्रभाव देखें ।
पुष्प वाटिका प्रसंग….
श्री राम शलाका प्रश्नावली के उत्तर देने के लिये स्वयं गोस्वामी जी ने इसी प्रसंग से दो सकारात्मक भावार्थों वाली चौपाईयों का चयन कर इस प्रसंग का महत्व प्रतिपादित कर दिया है।
सुनु प्रिय सत्य असीस हमारी पूजहिं मन कामना तुम्हारी
एवं
सुफल मनोरथ होंहि तुम्हारे राम लखन सुनि भए सुखारे
जिस प्रसंग में स्वयं भगवती सीता आम लडकी की तरह अपने मन वांछित वर प्राप्ति की कामना के साथ गिरिजा मां से प्रार्थना करें उस प्रसंग की आध्यत्मिकता पर तो ज्ञानी जन बडे बडे प्रवचन करते हैं। इसी क्रम में धनुष भंग प्रकरण भी अति मनोहारी प्रसंग है।
राम राज्याभिषेक की तैयारी
लौकिक जगत में हम सबकी कामना सुखी परिवार की ही तो होती है समूची मानस में मात्र तीन छोटे छोटे काल खण्ड ही ऐसे हैं जब राम परिवार बिना किसी कठिनाई के सुखी रह सका है।
पहला समय श्री राम के बालपन का है। दूसरा प्रसंग यही समय है जब चारों पुत्र,पुत्रवधुयें, तीनों माताओं और राजा जनक के साथ संपूर्ण भरा पूरा परिवार अयोध्या में है, राम राज्याभिषेक की तैयारी हो रही है। तीसरा कालखण्ड राम राज्य का वह स्वल्प समय है जब भगवती सीता के साथ राजा राम राज काज चला रहे हैं।
राम राज्याभिषेक की तैयारी का प्रसंग अयोध्या काण्ड का प्रवेश है। इसी प्रसंग से राम जन्म के मूल उद्देश्य की पूर्ति हेतु भूमिका बनती है।
लौकिक दृष्टि से हमें राम वन गमन से ज्यादा पीडादायक और क्या लग सकता है पर जीवन, संघर्ष का ही दूसरा नाम है। पल भर में, होने वाला राजा वनवासी बन सकता है, वह भी कोई और नहीं स्वयं परमात्मा ! इससे अधिक शिक्षा और किस प्रसंग से मिल सकती है ? यह गहन मनन चिंतन व अवगाहन का मनोहारी प्रसंग है।
केवट प्रसंग…
मांगी नाव न केवट आना कहई तुम्हार मरमु मैं जाना
जिस अनादि अनंत परमात्मा का मरमु न कोई जान सका है न जान सकता है, जो सबका दाता है, जो सबको पार लगाता है, वही सरयू पार करने के लिये एक केवट के सम्मुख याचक की मुद्रा में है! और बाल सुलभ भाव से केवट पूरे विश्वास से कह रहा है – प्रभु तुम्हार मरमु मैं जाना। और तो और वह प्रभु राम की कृपा का पात्र भी बन जाता है। सचमुच प्रभु बाल सुलभ प्रेम के ही तो भूखे हैं। रोना आ जाता है ना .. कैसा मनोरम प्रसंग है।
इसी प्रसंग में नदी के पार आ जाने पर भगवान राम केवट को उतराई स्वरूप कुछ देना चाहते हैं किन्तु वनवास ग्रहण कर चुके श्रीराम के पास क्या होता यहीं भाव, भाषा की दृष्टि से तुलसी मनोरम दृश्य रचना करते हैं। मां सीता राम के मनोभावों को देखकर ही पढ लेती हैं,और –
‘‘ पिय हिय की सिय जान निहारी, मनि मुदरी मन मुदित उतारी ’’।
भारतीय संस्कृति में पति पत्नी के एकात्म का यह श्रेष्ठ उदाहरण है।
चित्रकूट में भरत मिलाप….
आपके मन के सारे कलुष भाव स्वतः ही अश्रु जल बनकर बह जायेंगे, आप अंतरंग भाव से भरत के त्याग की चित्रमय कल्पना कीजीये, राम को मनाने चित्रकूट की भरत की यात्रा, आज भी चित्रकूट की धरती व कामद गिरि पर्वत भरत मिलाप के साक्षी हैं। इसी चित्रकूट में –
चित्रकूट के घाट में भई संतन की भीर,
तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर
यह तीर्थ म.प्र. में ही है, एक बार अवश्य जाइये और इस प्रसंग को साकार भाव में जी लेने का यत्न कीजीये। राम मय हो जाइये,श्रद्वा की मंदाकिनी में डुबकी लगाइये।
बरबस लिये उठाई उर, लाए कृपानिधान
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।
भरत से मनोभाव उत्पन्न कीजीये,राम आपको भी गले लगा लेंगें।
शबरी पर कृपा…
नवधा भक्ति की शिक्षा स्वयं श्री राम ने शबरी को दी है। संत समागम, राम कथा में प्रेम, अभिमान रहित रहकर गुरू सेवा, कपट छोडकर परमात्मा का गुणगान, राम नाम का जाप, ईश्वर में ढृड आस्था, सत्चरित्रता, सारी सृष्टि को राम मय देखना, संतोषं परमं सुखं, और नवमीं भक्ति है सरलता। स्वयं श्री राम ने कहा है कि इनमें से काई एक भी गुण भक्ति यदि किसी भक्त में है तो – ‘‘सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे।’’ जरूरत है तो बस शबरी जैसी अगाध श्रद्वा और निश्छल प्रेम की। राम के आगमन पर शबरी की दशा यूं थी –
प्रेम मगन मुख बचन न आवा पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा
ऋतु वर्णन के प्रसंग …
गोस्वामी तुलसी दास का साहित्यिक पक्ष वर्षा,शरद ऋतुओं के वर्णन और इस माध्यम से प्रकृति से पाठक का साक्षात्कार करवाने में, मनोहारी प्रसंग किष्किन्धा काण्ड में मिलता है।
छुद्र नदी भर चलि तोराई जस थोरेहु धनु खल इतिराई
प्रकृति वर्णन करते हुये गोस्वामी जी भक्ति की चर्चा नहीं भूलते -….
बिनु घन निर्मल सोह अकासा हरिजन इव परिहरि सब आसा
रामराज्य
सुन्दर काण्ड तो संपूर्णता में सुन्दर है ही। रावण वध, विभीषण का अभिषेक, पुष्पक पर अयोध्या प्रस्थान आदि विविध मनोरम प्रसंगों से होते हुये हम उत्तर काण्ड के दोहे क्रमांक 10 के बाद से दोहे क्रमांक 15 तक के मनोरम प्रसंग की कुछ चर्चा करते है। जो प्रभु राम के जीवन का सुखकर अंश है। जहां भगवती सीता,भक्त हनुमान, समस्त भाइयों, माताओं, अपने वन के साथियों, एवं समस्त गुरू जनों अयोध्या के मंत्री गणों के साथ हमारे आराध्य राजा राम के रूप में आसीन हैं। राम पंचायतन यहीं मिलता है। ओरछा के सुप्रसिद्व मंदिर में आज भी प्रभु राजा राम अपने दरबार सहित इसी रूप में विराजमान है।
राज्य संभालने के उपरांत ‘ जाचक सकल अजाचक कीन्हें ’ राजा राम हर याचना करने वाले को इतना देते हैं कि उसे अयाचक बनाकर ही छोडते हैं, अब यह हम पर है कि हम राजा राम से क्या कितना और कैसे, किसके लिये मांगते हैं ।ओरछा के मंदिर में श्री राम, आज भी राजा के स्वरूप में विराजे हुये हैं , जहां उन्हें बाकायदा आज भी सलामी दी जाती है ।
पर सच्चे अर्थो में तो वे हम सब के हृदय में विराजमान हैं पर हमें अपने सत्कर्मों से अपने ही हृदय में बिराजे राजा राम के दरबार में पहुंचने की पात्रता तो हासिल करनी ही होगी, तभी तो हम याचक बन सकते हैं।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उठा पटक के मुद्दे…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 142 ☆
☆ उठा पटक के मुद्दे… ☆
बे सिर पैर की बातों में समय नष्ट नहीं करना चाहिए, ये तो बड़े- बूढ़ों द्वारा बचपन से ही सिखाया जाता रहा है। पर क्या किया जाए आजकल एकल परिवारों का चलन आम बात हो चुकी है। और खास बात ये है कि माता- पिता अब स्वयं कुछ न बता कर गूगल से सीखने और समझने के लिए बच्चों को शिशुकाल से ही छोड़ने लगे हैं। पहले बच्चा मनोरंजन हेतु फनी चित्र देखता फिर अपने आयु के स्तर से आगे बढ़कर जानकारी एकत्रित करता है। शनिवार की शाम को आउटिंग के नाम पर होटलों में बीतती है, रविवार मनोरंजन करते हुए कैसे गुजरता है पता नहीं चलता। बस ऐसा ही सालों तक होता जाता है और तकनीकी से समृद्ध पीढ़ी आगे आकर अपने विचारों को बिना समझे सबके सामने रखती जाती है। अरे भई नैतिक व सामाजिक नियमों से ये संसार चल रहा है। हम लोग रोबोट नहीं हैं कि भावनाओं को शून्य करते हुए अनर्गल बातचीत करते रहें।
बातन हाथी पाइए, बातन हाथी पाँव- कितना सटीक मुहावरा है। बच्चे को सबसे पहले बोलने की कला अवश्य सिखानी चाहिए। पढ़ने- लिखने के साथ यदि वैदिक ज्ञान भी हो जाए तो संस्कार की पूँजी अपने आप हमारे विचारों से झलकने लगती है। भारतीय परिवेश में रहने के लिए, वो भी सामाजिक मुद्दों पर अपने को श्रेष्ठ साबित करने हेतु आपको जमीनी स्तर पर जीना सीखना होगा। पाश्चात्य मानसिकता के साथ शासन करना तो ठीक वैसे ही होता है, जैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 200 वर्षों तक हमें गुलामी में जकड़े रखा। अब लोग सचेत हो चुके हैं वो केवल राष्ट्रवादी विचारों के पोषक व संवाहक बन अंतर्राष्ट्रीय जगत में अपना परचम पहराने की क्षमता रखते हैं।
अन्ततः यही कहा जा सकता है कि यथार्थ के धरातल पर प्रयोग करते रहिए। जल, जंगल, जमीन, जनजीवन, जनचेतना, जनांदोलनों के जरिए हमें वैचारिक दृष्टिकोण को सबके सामने रखना सीखना होगा।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता –“लय साधो… ”।)
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नवरात्र पर्व पर आपकी एक कविता – “कुष्मांडा देवी”।
साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 61
नवरात्र पर्व विशेष – कविता – कुष्मांडा देवी-… डॉ. सलमा जमाल
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी का हार्दिक स्वागत है। आज से आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “बेबस पड़े हैं…”।)
जीवन परिचय
जन्म : 09 मई 1951 ई0। नरसिंहपुर मध्यप्रदेश।
शिक्षा : हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर
प्रकाशित कृतियाँ : (1) ‘मन का साकेत’ गीत नवगीत संग्रह 2012 (2) ‘परिन्दे संवेदना के’ गीत नवगीत संग्रह 2015 (3) “शब्द वर्तमान” नवगीत संग्रह 2018 (4) ”रेत हुआ दिन” नवगीत संग्रह 2020 (5)”बीच बहस में” समकालीन कविताएँ 2021 (6) महाकौशल प्रान्तर की 100 प्रतिनिधि रचनाएँ संपादन ‘श्यामनारायण मिश्र’ समवेत संकलन (7) समकालीन गीतकोश-संपादन- नचिकेता (8)नवगीत का मानवतावाद-संपादन-राधेश्याम बंधु
अन्य प्रकाशन : देश के स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में गीत, नवगीत, अनुगीत कविताओं का सतत् प्रकाशन।
सम्मान: (1) कला मंदिर भोपाल पवैया पुरस्कार (2) कादंबरी संस्था जबलपुर से सम्मानित
संप्रति : स्नातक शिक्षक केंद्रीय विद्यालय संगठन से सेवा निवृत, स्वतंत्र लेखन।
जय प्रकाश के नवगीत # 01 ☆ बेबस पड़े हैं… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆