(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता “माँ के बुने हुए स्वेटर से…”। )
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “जंगल में दंगल …“।)
☆ व्यंग्य # 60 – जंगल में दंगल – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
एक बार जंगल से भटक कर शेर जो नरभक्षी होने को ही नॉन वेज़ेटेरियन होना मानता था, समीपस्थ नगर के एम्यूज़मेंट पार्क में पहुंच गया. उसे बहुत आश्चर्य हुआ जब वहां ईवनिंग वॉक के नाम पर घर से भागे उन्मुक्त मानवों ने उसका संज्ञान ही नहीं लिया. कारण सब अपने अपने मोबाईल में व्यस्त थे. नज़रे झुकाये पर मुस्कुराते जीव देखकर शेर सोच में पड़ गया. ऐसा क्या है इनके हाथों में जो उसके वज़ूद से बेखबर हैं ये लोग. शेर की इच्छा तो थी कि एक बार दहाड़कर इन मगन मनुओं को हकीकत से रूबरू करवा दे पर अपने जंगल के डेंटल सर्जन की हिदायत से मन मसोस कर खामोश होना पड़ा. दरअसल शिकार के काम आने वाली दंतपंक्ति की हाल ही में शार्पनिंग करवाई थी तो ज्यादा मुंह खोलना मना था. चुपचाप जंगल लौटकर शेर ने अपने दूत कौए को शहर भेजा, यह पता लगाने के लिये कि इन मनुष्यों के हाथ में ऐसा कौन सा यंत्र है जिससे ये दीन दुनिया से बेखबर हो गये हैं. संदेशवाहक वही सच्ची खबर लाता है जिसमें खुद नज़रअंदाज हो जाने का गुण हो तो कौए ने पार्क में बैठकर चुपचाप पता कर ही लिया और फिर जंगल के राज़ा जान गये कि ये वाट्सएप ग्रुप ही इस फसाद की जड़ है.
जंगलदूत अपने साथ सिर्फ खबर ही नहीं वाट्सएप का वायरस भी लेकर आ गया जो शेर को भी संक्रमित कर बैठा. अब शेर को भी लगने लगा कि उसकी इमेज़ सुधारने के लिये हिंसकता की नहीं बल्कि आपसी संवाद की जरूरत है. तो जंगल के राज़ा ने अपने दूत के माध्यम से जंगल के सारे जानवरों का वाट्स एप ग्रुप बनाने का संदेश दिया. शक्तिशाली का संदेश भी आदेश से कम नहीं होता पर बिल्ली मौसी ने अपने रिश्ते का फायदा उठाते हुये पूछ ही लिया कि इसमें हमें क्या फायदा.
दूत तो दूत ही होता है तो कह दिया कि राजा ने अपने लंच टाइम के बाद बैठक बुलाई है तो सभी जानवर निडर होकर आयें. जिनकी नियति शिकार होने का उद्देश्य हो उन्हें चुनने की आजादी दिखावे के लिये पांच साल में सिर्फ एक बार ही मिलती है. तो सब राजा के गुफा रूपी दरबार में आए.
शेर ने जंगलवासियों की तरक्की और जमाने के साथ चलने के नाम पर जंगल के वाट्सएप ग्रुप बनाये जाने की घोषणा इस तरह की कि-
“हर शिकार को अपने शिकारी से सवाल करने का मौका दिया जा रहा है”.
सारे जानवरों को जंगल के नये कानून के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी जा रही है. इस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर निरीहता ने कुछ कहने की आज़ादी पायी और जंगल में भी वाट्सएप ग्रुप बन गया, बनना ही था, विरोध कौन और कोई क्यों करता, सब एक दूसरे के कंधे पर अपेक्षा का शाल डालकर चुप रहे और हुआ वही जो शेर की मरजी थी. अब ग्रुप के नाम पर बात आई तो लोमड़ सिंह ने “सिंह गर्जना ” नाम सुझाया पर शेर राजा अपनी प्रजा की भावभंगिमा से समझ गये कि हर बार अपनी चलाने से बेहतर जनता को झुनझुना पकड़ाने की ट्रिक शासन की स्थिरता में मददगार होती है, तो उन्होंने जंगल के प्रति अपनी अटूट निष्ठा की घोषणा के साथ ग्रुप का नाम “जंगल की आवाज़” रखने का सुझाव दिया.जंगल के सारे शिकार और शिकारी रूपी जानवरों ने इस सुझाव को राजा की उदारता मानते हुये सहर्ष स्वीकार किया.
चूंकि राजा इस मलाईविहीन पद से विरक्त थे तो राजा की इच्छा का सम्मान करते हुये लोमड़ सिंह अपने आप ग्रुप के एडमिन बन गये.
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 30 – भाग 3 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
✈️ कलासंपन्न ओडिशा ✈️
महानदीच्या तीरावर वसलेलं ‘कटक’ हे शहर पूर्वी ओडिशाच्या राजधानीचं शहर होतं. तेराव्या शतकात बांधलेला इथला बाराबतीचा किल्ला मराठ्यांनी मोगलांकडून जिंकून घेतला होता. इसवी सन १८०३ पर्यंत हा किल्ला मराठ्यांच्या ताब्यात होता. आता हा किल्ला बराचसा उध्वस्त झाला आहे. मात्र त्याचं पूर्वीचं प्रवेशद्वार अजून शाबूत आहे. हे अवशेष चांगल्या रीतीने जपले आहेत. किल्ल्याजवळ बांधलेलं भव्य बाराबती स्टेडिअम कसोटी क्रिकेट सामन्यांसाठी प्रसिद्ध आहे.
कोणार्क येथील सूर्यमंदिर म्हणजे उडिया शिल्पकाव्याची अक्षयधारा आहे. भुवनेश्वरहून ६२ किलोमीटर अंतरावर असलेलं हे सूर्यमंदिर कलिंग शिल्पकलेचा उत्कृष्ट नमुना आहे. कोणार्क मंदिर दीर्घ काळ रेतीत बुडालेलं होतं. १८९३ मध्ये ते प्रथम उकरून काढण्यात आलं. पुरातत्त्व विभागाने त्यावरील वाळूचं आवरण दूर करण्याचं काम हाती घेतलं. आज या भग्न मंदिराचे गाभारा व बरेचसे भाग उध्वस्त अवस्थेत आहेत. कोणार्क समुद्रकाठी असल्याने हवामानाचाही बराच परिणाम होऊन मंदिराची खूप झीज झालेली दिसून येते. शिवाय मोंगल आक्रमणामध्ये मंदिराची खूप तोडफोड झाली.
१२०००हून अधिक कारागिरांनी १६ वर्ष अथक परिश्रम करून हे मंदिर उभं केलं होतं. त्यासाठी अमाप खर्च झाला. हे मंदिर रथाच्या रूपात आहे. दोन्ही बाजूंना दहा- दहा फूट उंचीची १२ मोठी चाकं आहेत. या चाकांवर आणि देवळावर अप्रतिम कोरीव काम आहे. सात दिमाखदार अश्व, सारथी आणि सूर्यदेव असे भव्य मंदिर होते. मंदिराच्या शिल्लक असलेल्या भग्न अवशेषांवरून पूर्वीच्या देखण्या संपूर्ण मंदिराची कल्पना करावी लागते.
या दगडी रथाच्या वरील भागात मृदुंग, वीणा, बासरी वाजविणाऱ्या पूर्णाकृती सूरसुंदरींची शिल्पे कोरली आहेत. त्याखाली सूर्यदेवांच्या स्वागताला सज्ज असलेले राजा, राणी, दरबारी यांची शिल्पे आहेत. योध्दे, कमनीय स्त्रिया व बालके यांची उत्कृष्ट शिल्पे आहेत. त्याखालील पट्टयावर सिंह, हत्ती, विविध पक्षी, फुले कोरली आहेत. रथावर काम शिल्पे, मिथुन शिल्पे कोरलेली आहेत. त्यातील स्त्री-पुरुषांच्या चेहऱ्यावरील भाव लक्षणीय आहेत. आकाशस्थ सूर्यदेवांच्या अधिपत्याखाली पृथ्वीवरील जीवनचक्र अविरत चालू असते. त्यातील सातत्य टिकविण्यासाठी आदिम नैसर्गिक प्रेरणेनुसार सर्व जीवसृष्टीचे वर्तन असते असे इथे अतिशय कलात्मकतेने शिल्पबद्ध केलेले आहे.
भारतीय पुरातत्त्व खात्याची निर्मिती ही ब्रिटिशांची भारताला फार मोठी देणगी आहे. ब्रिटिश संशोधकांनी भारतीय संशोधकांना बरोबर घेऊन अतिशय चिकाटीने अजिंठा, खजुराहो, मोहनजोदारो, कर्नाटकातील शिल्पस्थानं यांचा शोध घेऊन त्यांचे संरक्षण व दस्तावेजीकरण केले. कोणार्क येथील काळाच्या उदरात गडप झालेले, वाळूखाली गाडले गेलेले सूर्यमंदिर स्वच्छ करून त्याचे पुनर्निर्माण केले. त्यामुळे ही सर्व शिल्परत्ने जगापुढे येऊन भारतीय समृद्ध संस्कृतीची जगाला ओळख झाली. आज हजारो वर्षे उन्हा- पावसात उभ्या असलेल्या, अज्ञात शिल्पकारांच्या अप्रतिम कारागिरीला प्राणपणाने जपणे हे आपले कर्तव्य आहे. दरवर्षी १ डिसेंबर ते ५ डिसेंबर दरम्यान कोणार्कला नृत्यमहोत्सव आयोजित केला जातो. त्यात प्रसिद्ध नर्तक हजेरी लावतात .
कोणार्कहून ३५ किलोमीटरवर ‘पुरी’ आहे. सागर किनाऱ्याने जाणारा हा रस्ता रमणीय आहे. आदि शंकराचार्यांनी आपल्या भारतभ्रमणाअंतर्गत भारताच्या चारी दिशांना जे मठ स्थापिले त्यातील एक म्हणजे पुरी. जगन्नाथ, बलभद्र आणि सुभद्रा या बहिण भावंडांचं हे मंदिर जगन्नाथ (श्रीकृष्ण ) मंदिर म्हणून प्रसिद्ध आहे. बाराव्या शतकात बांधण्यात आलेलं हे मंदिर अतिशय सुंदर आणि कलात्मक आहे. १९२फूट उंच असलेलं हे मंदिर इसवी सन अकराशे मध्ये अनंत वर्मन राजाने हे मंदिर बांधण्यास सुरुवात केली. त्याचा मुलगा अनंत भीमदेव याच्या काळात ते पूर्ण झालं.
आषाढ शुद्ध द्वितीयेपासून त्रयोदशीपर्यंत साजरी होणारी ‘पुरी’ येथील रथयात्रा जगप्रसिद्ध आहे. साधारण ३५ फूट रुंद व ४५ फूट उंच असलेले तीन भव्य लाकडी रथ पारंपारिक पद्धतीने अतिशय सुंदर तऱ्हेने सजविले जातात. जगन्नाथ, सुभद्रा आणि बलभद्र यांच्या रथांना वाहून नेण्यासाठी प्रचंड जनसागर उसळलेला असतो. हे लाकडी रथ दरवर्षी नवीन बनविले जातात. त्यासाठी वापरायचं लाकूड, त्यांची उंची, रुंदी, कारागीर सारे काही अनेक वर्षांच्या ठराविक परंपरेनुसारच होते. हिंदूंच्या या पवित्र क्षेत्राचा उल्लेख ‘श्री क्षेत्र’ किंवा ‘पुरुषोत्तम क्षेत्र’ म्हणून ब्रह्मपुराणात आढळतो. चैतन्य महाप्रभूंचं वास्तव्य या क्षेत्रात बराच काळ होतं.
महाराजा रणजीत सिंह यांनी या मंदिराला भरपूर सुवर्णदान केलं. त्यांनी आपल्या मृत्युपत्रात ‘कोहिनूर’ हिराही या मंदिरासाठी लिहून ठेवला होता पण त्याआधीच ब्रिटिशांनी पंजाबवर आपला अंमल बसविला व आपला कोहिनूर हिरा इंग्लंडला नेला .
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे… ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – कुछ कम एप्पल खाओ भाई आदम और ईव !)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 180 ☆
व्यंग्य – कुछ कम एप्पल खाओ भाई आदम और ईव !
उसने आदम को बनाया, उसके साथ के लिए सुन्दर सी ईव को बनाया। एप्पल का पेड़ लगाया और उसकी रक्षा का काम आदम को सौंप दिया। आदम को ताकीद भी कर दी कि इस वृक्ष के फल तुम मत खाना। दरअसल उसने एप्पल के फल गुरुत्वाकर्षण की खोज के लिए लगाए थे। और इसलिए भी कि बाद के समय में कटे हुए एप्पल को ब्रांड बनाते हुए मंहगा मोबाईल लांच किया जा सके। और शायद इसलिए कि चिकित्सा जगत को किंचित समझने वाले कथित साहित्यकार “एन एप्पल ए डे कीप्स द डाक्टर अवे “ टाइप की कहावतें गढ़ सकें, जो दूसरों को नसीहतें देने के काम आएं। किन्तु नोटोरियस ईव मनोहारी एप्पल खाने से खुद को रोक न सकी, इतना ही नहीं उसने आदम को भी एप्पल का स्वाद चखा दिया।
तब से अब तक हर ईव के सम्मुख हर आदम बेबस एप्पल खाये जा रहा है। कुछ सुसम्पन्न आदम एप्पल के साल दर साल बदलते मॉडल के आई फोन, नए नए स्लिम लेपटॉप, और कम्प्यूटर अपनी अपनी ईव को रिझाने के लिए ख़रीदे जा रहे हैं। बाकी के आदम और ईव मजे में चमकीली चिप्पी चिपके हुए विदेशी आयातित एप्पल खरीदकर खाये जा रहे हैं। जो रियल एप्पल नहीं खा पा रहे वे नीली फिल्मों से कल्पना के प्रतिबंधित वर्चुएल एप्पल खाये जा रहे हैं। बच्चे को जन्म देने के तमाम दर्द भुगतते हुए भी ईव आबादी बढ़ाने में आदम का साथ दिये जा रही हैं। मजे लेकर एप्पल खाये जाने के आदम और ईव के इस प्रकरण से उसकी बनाई दुनियां की आबादी इस रफ्तार से बढ़ रही है कि हम आठ अरब हो चुके हैं। कम से कम आबादी के मामले में जल्दी ही हम चीन से आगे निकलने वाले हैं।
इसके बावजूद कि कोरोना जैसी महामारियां हुईं, भुखमरी, चक्रवाती तूफान, भयावह भूकंप, बाढ़, आगजनी जैसी विपदाएं होती ही रही। आदम और ईव कथित ईगोइस्ट आदमी की नस्ल में बदल दंगे फसाद, कत्लेआम, आतंकवादी हत्याएं करने से रुक नहीं रहे। रही सही कसर पूरी करने के लिए कई कई ‘आफ़ताब’ ढेरों ‘श्रद्धाओं’ के टुकड़े टुकड़े, बोटी बोटी कर रहे हैं, फिर भी आदम और ईव का कुनबा दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ा जा रहा है। अनवरत बढ़ा जा रहा है। यूँ मुझे आठ अरब होने से कोई प्रॉब्लम नहीं है, जब सरकारों को कोई प्रॉब्लम नहीं है, यूनाइटेड नेशंस को कोई समस्या नहीं है तो मुझे समस्या होनी भी नहीं चाहिए। वैसे भी जिन किन्हीं संजय गांधियो को इस बढ़ती आबादी से दिक्कत महसूस हुई उन्हें जनता ने नापसंद किया है। फिर भी हिम्मत का काम हो रहा है जनसंख्या कानून की गुप चुप चर्चा की सुगबुहाअट तो जब तब सुन पड़ रही है। अपनी तो दुआ है खूब आबादी बढ़े, क्योंकि आबादी वोट बैंक होती है और वोट से ही नेता बनते हैं, राजनीति चलती है। मुझे दुःख केवल इस बात का है की कोई नया कोलम्बस क्यों पैदा नहीं हो रहा जो एक दो और अमेरिका खोज निकाले। हो सके तो महासागर ही पांच की जगह कम से कम सात ही हो जाएँ, हम तो कब से गए जा रहे हैं “सात समुन्दर पार से, गुड़ियों के बाजार से “ पर समुन्दर पांच के पांच ही हैं। महाद्वीप भी बस सात के सात हैं।
हम जंगलो को काट काट कर नए नए महानगर जरूर बसाये जा रहे हैं पर उनका आसमान महज़ एक ही है। सूरज बस एक ही है। आठ अरब थके हारे आदम जात को सुनहरे सपनों वाली चैन की नींद में सुलाने, लोरी सुनाने के प्रतीक दूर के चंदामामा भी सिर्फ एक ही हैं। मुश्किल है कि इंसानो में बिलकुल एका नहीं है। मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना, अब आठ अरब भिन्न भिन्न दृष्टिकोण होंगे तो आखिर कैसे मैनेज होगी दुनियां। इसलिए हे आदम और ईव कृपया एप्पल खाना कम करो। धरती पर आबादी का बोझा कम करो ।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी लघुकथा “🎈गुब्बारे की कीमत 🎈”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 143 ☆
लघु कथा 🎈गुब्बारे की कीमत 🎈
एक गुब्बारे वाला बरसों से बगीचे में गुब्बारे बेचकर अपनी जिंदगी की गाड़ी चला रहा था। एक साइकिल पर रंग-बिरंगे गुब्बारे सजाए वह बगीचे में इधर से उधर घूमता रहता था। सभी बच्चे उसका इंतजार करते थे। जिसके पास पैसे होते थे, वे गुब्बारा ले लेते।
अभी कुछ दिनों से एक मासूम सी पांच वर्ष की बच्ची वहां खेलने आया करती थी। अपने टूटे-फूटे खिलौने लिए एक जगह बैठकर खेलती रहती थी। गुब्बारे देख उसका भी मन होता था। बार-बार वहां आती और देख कर चली जाती थी।
आज बड़ी हिम्मत करके आई और बोली… बाबा मुझे भी एक गुब्बारा दे दो पैसे मैं कल लाकर दूंगी। उसकी मासूमियत देखकर गुब्बारे वाले ने उसको एक गुब्बारा दे दिया और बड़े कड़े शब्दों में कहा… कल पैसे जरुर ले आना।
आज शाम को गुब्बारे वाला फिर बगीचे में आया। सभी बच्चों ने खेलकूद के बाद कुछ खाया। गुब्बारा खरीदा और अपने – अपने घर की ओर चले गए। पर वह बच्ची दिखाई नहीं दी।
गुब्बारे वाले ने एक बच्ची को धीरे से बुलाकर पूछा… तुम्हारे साथ जो कल एक बच्ची आई थी वह नहीं आई।
बच्ची ने कहा… अब कभी नहीं आएगी उसकी मां ने उसे गुब्बारा के लिए सजा दिया है।
सामने से देखा दोनों हाथ जले आंसुओं की धार, बाल बिखरे, वह एक महिला के साथ चली आ रही थी। आते ही वह महिला बोली… यह तुम्हारे पैसे अब कभी इसे गुब्बारा नहीं देना।
यह कह कर वह पीछे पलट कर चली गई।
बच्ची से पूछने पर पता चला उसकी अपनी मां मर गई है। यह सौतेली मां है। पिताजी तो हर समय बाहर रहते हैं और मां हमेशा कहती हैं इसकी मां तो मर गई, इसे छोड़ गई मेरे सिर पर, देखना किसी दिन नाक कटवायेगी।
थोड़ी देर बाद गुब्बारे वाला अपने सारे गुब्बारे स्वयं फोड़ चुका था और भारी मन से घर की ओर चल पड़ा।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – परदेश की अगली कड़ी “झीलें”।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 12 – झीलें ☆ श्री राकेश कुमार ☆
मुम्बई निवास के समय “बल्लार्ड पियर” के नाम का क्षेत्र सुना/देखा था। अमेरिका के शिकागो शहर में भी एक स्थान है, “नेवी पियर” गूगल से जब पियर का अनुवाद ढूंढा तो उसने पहले तो नाशपाती नामक फल बता दिया, हमें लगा जुलाई माह (सावन) के आस पास ही इस फल का मौसम रहता है। गूगल भी हमारे समान मौसम को मानता होगा, हम तो जीवन में मौसम को ही सबसे अधिक महत्व देते हैं।
नेवी पियर क्षेत्र यहां की सबसे बड़ी “मिशेगन झील” के एक तट को बांध कर बनाए गया था। झील इतनी बड़ी है, तो नेवी (नौसेना) भी इसका उपयोग करती रही होगी। अब ये एक दर्शनीय भ्रमण स्थल है, जहां हमेशा भीड़ रहती है। आसपास के क्षेत्र में उत्तर भारत के मेरठ शहर में प्रतिवर्ष भरने वाले “नौचंदी मेले” जैसा नज़ारा रहता हैं। खाने पीने की सैकड़ों दुकानें, बच्चे और बड़ो के विद्युत संचालित झूले, सार्वजनिक संगीत के माहौल में झूमते हुए युवा, मनोरंजन के नाम पर सब कुछ है।
मिशीगन झील एक “शिकागो नदी” से भी जुड़ी हुई है। झील में एकल नाव से दो सौ लोगों के बैठने वाले जहाज तक घूमने के लिए उपलब्ध हैं। पैसा फेक और तमाशा देख वाली कहावत यहां भी चरितार्थ होती है।
यहां के युवा “पानी के खेल” (वाटर स्पर्ट्स) को भी बहुत शौक से खेलते हुए प्रकृति द्वारा उपलब्ध साधन का सही उपयोग करते हैं।
यहां के अमीर अपनी बड़ी वाली कार को नाव की छत पर रखकर आनंद लेने आते हैं। बड़े अमीर बड़ी नाव (Y वाला याट) को कार के साथ खींच कर लाते हैं। पुरानी कहावत है “जितना गुड डालेंगे उतना ही मीठा हलवा होगा। सावन आरंभ हो चुका है, तो कुछ मीठा हलवा हो जाए।