हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #159 ☆ परखिए नहीं – समझिए ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख परखिए नहीं–समझिए । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 159 ☆

☆ परखिए नहीं–समझिए ☆

जीवन में हमेशा एक-दूसरे को समझने का प्रयत्न करें; परखने का नहीं। संबंध चाहे पति-पत्नी का हो; भाई-भाई का हो; मां-बेटे का हो या दोस्ती का… सब विश्वास पर आधारित हैं, जो आजकल नदारद है। परंंतु हर व्यक्ति को उसी की तलाश है। इसलिए ‘ऐसे संबंध जिनमें शब्द कम और समझ ज्यादा हो; तक़रार कम, प्यार ज़्यादा हो; आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो–की दरक़ार हर इंसान को है। वास्तव में जहां प्यार और विश्वास है, वही संबंध सार्थक है, शाश्वत है। समस्त प्राणी जगत् का आधार प्रेम है, जो करुणा का जनक है और एक-दूसरे के प्रति स्नेह, सौहार्द, सहानुभूति व त्याग का भाव ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ का प्रेरक है। वास्तव में जहां भावनाओं का सम्मान है, वहां मौन भी शक्तिशाली होता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘खामोशियां भी बोलती हैं और अधिक प्रभावशाली होती हैं।’

यदि भरोसा हो, तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक-एक शब्द के अनेक अर्थ निकलने लगते हैं। इस स्थिति में मानव अपना आपा खो बैठता है। वह सब सीमाओं को लाँघ जाता है और मर्यादा के अतिक्रमण करने से अक्सर अर्थ का अनर्थ हो जाता है, जो हमारी नकारात्मक सोच को परिलक्षित करता है, क्योंकि ‘जैसी सोच, वैसा कार्य व्यवहार।’ शायद! इसलिए कहा जाता है कि कई बार हाथी निकल जाता है, पूँछ रह जाती है।

संवाद जीवन-रेखा है और विवाद रिश्तों में अवरोध उत्पन्न करता है, जो वर्षों पुराने संबंधों को पल-भर में मगर की भांति लील जाता है। इतना ही नहीं, वह दीमक की भांति संबंधों की मज़बूत चूलों को हिला कर रख देता है और वे लोग, जिनकी दोस्ती के चर्चे जहान में होते हैं; वे भी एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। उनके अंतर्मन में वह विष-बेल पनप जाती है, जो सुरसा के मुख की मानिंद बढ़ती चली जाती है। इसलिए छोटी-छोटी बातों को बड़ा न किया करें, उससे ज़िंदगी छोटी हो जाती है…बहुत सार्थक संदेश है। परंंतु यह तभी संभव है, जब मानव क्रोध के वक्त रुक जाए और ग़लती के वक्त झुक जाए। ऐसा करने पर ही मानव जीवन में सरलता व असीम आनंद को प्राप्त कर सकता है। सो! मानव को ‘पहले तोलो, फिर बोलो’  अर्थात् सोच-समझ कर बोलने का संदेश दिया गया है। दूसरे शब्दों में तुरंत प्रतिक्रिया देने से मानव मन में दूरियां इस क़दर बढ़ जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है और जीवन-साथी– जो दो जिस्म, एक जान होते हैं; नदी के दो किनारों की भांति हो जाते हैं, जिनका मिलन जीवन-भर संभव नहीं होता। इसलिए बेहतर है कि आप परखिए नहीं, समझिए अर्थात् एक-दूसरे की परीक्षा मत लीजिए और न ही संदेह की दृष्टि से देखिए, क्योंकि संशय, संदेह व शक़ मानव के अजात-शत्रु हैं। वे विश्वास को अपने आसपास भी मंडराने नहीं देते। सो! जहां विश्वास नहीं; सुख, शांति व आनंद कैसे रह सकते हैं? परमात्मा भाग्य नहीं लिखता; जीवन के हर कदम पर हमारी सोच, विचार व कर्म हमारा भाग्य लिखते हैं। इसलिए अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखिए। संसार में जो भी अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर लीजिए और शेष को नकार दीजिए। परंतु किसी की आलोचना मत कीजिए, आपका जीवन सार्थक हो जाएगा। वे सब आपको मित्र सामान लगेंगे और चहुंओर ‘सबका मंगल होय’ की ध्वनि सुनाई पड़ेगी। जब मानव में यह भावना घर कर लेती है, तो उसके हृदय में व्याप्त स्व-पर व राग-द्वेष की भावनाएं मुंह छुपा लेती हैं अर्थात् सदैव के लिए लुप्त हो जाती हैं और दसों दिशाओं में दिव्य आनंद का साम्राज्य हो जाता है।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। वह हमें किसी के सम्मुख झुकने अर्थात् घुटने नहीं टेकने देता, क्योंकि वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है और दूसरों को नीचा दिखा कर ही सुक़ून पाता है। सुख व्यक्ति के अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की। इसलिए दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन ही सार्थक व सफल होता है। इसलिए मानव को सुख में अहं को निकट नहीं आने देना चाहिए और दु:ख में धैर्य नहीं खोना चाहिए। दोनों परिस्थितियों में सम रहने वाला मानव ही जीवन में अलौकिक आनंद प्राप्त कर सकता है। सो! जीवन में सामंजस्य तभी पदार्पण कर सकेगा; जब कर्म करने से पहले हमें उसका ज्ञान होगा; तभी हमारी इच्छाएं पूर्ण हो सकेंगी। परंतु जब तक ज्ञान व कर्म का समन्वय नहीं होगा, हमारे जीवन की भटकन समाप्त नहीं होगी और हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी। इच्छाएं अनंत है और साधन सीमित। इसलिए हमारे लिए यह निर्णय लेना आवश्यक है कि पहले किस इच्छा की पूर्ति, किस ढंग से की जानी कारग़र है? जब हम सोच-समझकर कार्य करते हैं, तो हमें निराशा का सामना नहीं करना पड़ता; जीवन में संतुलन व समन्वय बना रहता है।

संतोष सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम धन है। इसलिए हमें जो भी मिला है, उसमें संतोष करना आवश्यक है। दूसरों की थाली में तो सदा घी अधिक दिखाई देता है। उसे देखकर हमें अपने भाग्य को कोसना नहीं चाहिए, क्योंकि मानव को समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी, कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। संतोष अनमोल पूंजी है और मानव की धरोहर है। ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान,’ रहीम जी की यह पंक्ति इस तथ्य की ओर इंगित करती है कि संतोष के जीवन में पदार्पण करते ही सभी इच्छाओं का शमन स्वतः हो जाता है। उसे सब धन धूलि के समान लगते हैं और मानव आत्मकेंद्रित हो जाता है। उस स्थिति में वह आत्मावलोकन करता है तथा दैवीय व अलौकिक आनंद में डूबा रहता है; उसके हृदय की भटकन व उद्वेलन शांत हो जाता है। वह माया-मोह के बंधनों में लिप्त नहीं होता तथा निंदा-स्तुति से बहुत ऊपर उठ जाता है। यह आत्मा-परमात्मा के तादात्म्य की स्थिति है, जिसमें मानव को सम्पूर्ण विश्व तथा प्रकृति के कण-कण में परमात्म-सत्ता का आभास होता है। वैसे आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत है। संसार में सब कुछ मिथ्या है, परंतु वह माया के कारण सत्य भासता है। इसलिए हमें तुच्छ स्वार्थों का त्याग कर सुक़ून व अलौकिक आनन्द प्राप्त करने का अनवरत प्रयास करना चाहिए। इसके लिए आवश्यकता है उदार व विशाल दृष्टिकोण की, क्योंकि संकीर्णता हमारे अंतर्मन में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों को पोषित करती है। संसार में जो अच्छा है, उसे सहेजना बेहतर है और जो बुरा है, उसका त्याग करना बेहतर है। इस प्रकार आप बुराइयों से ऊपर उठ सकते हैं। उस स्थिति में संसार आपको सुखों का सागर प्रतीत होगा; प्रकृति आपको ऊर्जस्वित करेगी और चहुंओर अनहद नाद का स्वर सुनाई पड़ेगा।

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जीवन में दूसरों की परीक्षा मत लीजिए, क्योंकि परखने से आपको दोष अधिक दिखाई पड़ेंगे। इसलिए केवल अच्छाई को देखिए ;आपके चारों ओर आनंद की वर्षा होने लगेगी। सो! दूसरों की भावनाओं को समझने और उनकी बेरुखी का कारण जानने का प्रयास कीजिए। जितना आप उन्हें समझेंगे, आपकी दोष-दर्शन की प्रवृत्ति का अंत हो जाएगा। इंसान ग़लतियों का पुतला है और कोई भी इंसान पूर्ण नहीं है। फूल व कांटे सदैव साथ-साथ रहते हैं, उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। सृष्टि में जो भी घटित होता है–मात्र किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं; सबके मंगल के लिए कारग़र व उपयोगी सिद्ध होता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

29.8.22

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #159 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से \प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 159 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

गघरी ली है हाथ में,थककर बैठी छाँव।

गहरी सोच में डूबती,पिया नहीं है गाँव।।

🌴

राह प्रिय की देख रही,गुमसुम बैठी सोच।

कब आओगे सजन तुम,दिल में आई मोच।।

🤔

मिलने प्रिय को आ गई,घर में नहीं है ठाँव।

कब आओगे प्रिये तुम,थमते नहीं है पाँव।।

🌹

पानी भरकर बैठती,चेहरा है उदास।

दिल में उसके हो रही,बस प्रिय की है आस।।

💐

चिंता मन में हो रही,आ जाओ प्रिय पास।

दिल से दिल की दूरियां,जगती मन में खास।।

🌹

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #145 ☆ गरीबी पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “गरीबी पर दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 145 ☆

☆ गरीबी पर दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

होती धन की हीनता, बनते तभी गरीब

समझ सकें क्या दीनता, जब सुख होत करीब

 

धन-दौलत से आँकते, यहाँ गरीबी लोग

दोष सभी दें ईश को, कहें भाग्य का योग

 

कोसें अक्सर समय को, करें न कोई कर्म

भाग्य भरोसे न रहें, निभा कर्म का धर्म

 

अटल इरादे गर रखो, बनो नहीं मजबूर

कर्मों की कर साधना, करो गरीबी दूर

 

धन-दौलत से खुशी का, नहीं कोई संबंध

निर्धन रहता चैन से, उस पर क्या प्रतिबंध

 

जाने कितनी योजना, चला रहीं सरकार

पर गरीबी मिटी नहीं, सब बेबस लाचार

 

महनत कर कर थक गए, संवरा नहीं नसीब

जाने क्या है भाग्य में, सोचे यही गरीब

 

रोज चुनौती मिल रहीं, हो कैसे निर्वाह

मंहगाई के दौर में, निर्धन रहा कराह

 

दीनबन्धु सुध लीजिए, है गरीब लाचार

उनको भी संतोष हो, ऐसा कर उपचार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #151 ☆ धुंद झाले मन माझे…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 151 – विजय साहित्य ?

☆ धुंद झाले मन माझे…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

धुंद झाले मन माझे

शब्द रंगी रंगताना

आठवांचा मोतीहार

काळजात गुंफताना…….॥१॥

 

धुंद झाले मन माझे

तुझें मन ‌वाचताना

प्रेमप्रिती राग लोभ

अंतरंगी नाचताना……..॥२॥

 

धुंद झाले मन माझे

हात हातात घेताना

भेट हळव्या क्षणांची

प्रेम पाखरू होताना……..॥३॥

 

धुंद झाले मन माझे

तुझ्या मनी नांदताना

सुख दुःख समाधान

अंतरात रांगताना……….॥४॥

 

धुंद झाले मन माझे

तुला माझी म्हणताना

भावरंग अंगकांती

काव्यरंगी माळताना……॥५॥

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद– (ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त ६  (इंद्र सूक्त)) — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद– (ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त ६ (इंद्र सूक्त)) — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋषी – मधुछंदस् वैश्वामित्र : देवता – इंद्र : छंद – गायत्री

मराठी भावानुवाद : डॉ. निशिकांत श्रोत्री

ऋषी – मधुछंदस् वैश्वामित्र : देवता – १ ते ३ इंद्र; ४ ते ६, ८, ९ मरुत्; ५ ते ७ इंद्रमरुत्; १० – इंद्र 

—मधुछन्दस वैश्वामित्र ऋषींनी पहिल्या मंडळातील सहाव्या सूक्तात इंद्र आणि मरुत् या देवतांना आवाहन केलेले आहे. तरीही हे सूक्त इंद्रसूक्त म्हणूनच ज्ञात आहे. याच्या गीतरूप भावानुवादाच्या नंतर दिलेल्या लिंकवर क्लिक केले म्हणजे हे गीत ऐकायलाही मिळेल आणि त्याचा व्हिडीओ देखील पाहता येईल. 

मराठी भावानुवाद : डॉ. निशिकांत श्रोत्री. 

यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑ । रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि ॥ १ ॥

व्योमामध्ये चमचमताती असंख्य नक्षत्रे

सज्ज जाहली या देवाच्या प्रस्थानास्तव खरे

इंद्राचे हे तेज किती हो उज्ज्वल प्रकाशते

सामर्थ्याने साऱ्या विश्वे संचारा करिते ||१||

यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑ । शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ॥ २ ॥

अती देखणे तांबटवर्णी अश्व सज्ज झाले

रथासी जुंपून सेवक त्यांना घेउनिया आले

पाहुनिया वारूंना लोभस अभिलाषा जागली

आरुढ होता इंद्र रथावरी तेजा येत झळाळी ||२||

के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्या अपे॒शसे॑ । समु॒षद्‍भि॑रजायथाः ॥ ३ ॥

जयासि ना आकार तयाला साकारा आणिले

जाड्य अचेतन तयामध्ये तू चैतन्या भरले 

साक्ष होऊनी उषेसवे तू  प्राणा साकारले

जन्म घेउनिया अवनीवर अवतारुनी आले ||३||  

आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे । दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म् ॥ ४ ॥

यज्ञाकरिता सर्वा परिचित असे नाम धारिले

पुनःपुन्हा जन्माला येण्या गर्भवास पावले

जननानंतर मरण अशा या सृष्टिक्रमा राखिले

कितीकदा या अवनीवरती जन्म घेउनी आले ||४|| 

वी॒ळु चि॑दारुज॒त्‍नुभि॒र्गुहा॑ चिदिन्द्र॒ वह्नि॑भिः । अवि॑न्द उ॒स्रिया॒ अनु॑ ॥ ५ ॥

बलशाली तू सुराधीपती योगसिद्ध राजा

सहज भेदिशी अशनी योगे अभेद्य ऐशा नगा

योगाच्या सामर्थ्याने तू  गुंफा फोडुनीया 

प्रभारूपी धेनूंना आणिसी शोधूनी तू लीलया ||५||

    

दे॒व॒यन्तो॒ यथा॑ म॒तिमच्छा॑ वि॒दद्व॑सुं॒ गिरः॑ । म॒हाम॑नूषत श्रु॒तम् ॥ ६ ॥

वैभवदायी देवेंद्राला कितिक स्तोत्र अर्पिली

समाधान देवाला अपुल्या देण्यास्तव गायिली

किती महत्तम सुरेंद्र तैसा यशोवंत फार

जगता साऱ्या विश्रुत आहे शचीपती तो थोर ||६||   

इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से सञ्जग्मा॒नो अबि॑भ्युषा । म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा ॥ ७ ॥

देवेंद्राला भय ना ठावे शूर वीर तेजस्वी

तयासवे तव संचाराची शोभा ही आगळी

उभय देवतांचे हे तेज प्रदीप्त हो होते

मुदित पाहूनी दोघांना ही समाधान दाटते ||७||

अ॒न॒व॒द्यैर॒भिद्यु॑भिर्म॒खः सह॑स्वदर्चति । ग॒णैरिन्द्र॑स्य॒ काम्यैः॑ ॥ ८ ॥

इंद्राचे अनुचर ही असती सकलांना प्रीय

दहीदिशांना  तेज फाकते त्यांचे  तेजोमय

अवगुण त्यांच्या ठायी नाही सर्वगुणांनी युक्त

त्यांच्या पूजेसाठी घोष  करीत त्याचे भक्त ||८||

अतः॑ परिज्म॒न्ना ग॑हि दि॒वो वा॑ रोच॒नादधि॑ । सम॑स्मिन्नृञ्जते॒ गिरः॑ ॥ ९ ॥

भक्त तुझा मी दास तुझा मी स्तोत्र तुझी अळवितो

तुझ्या स्तुतीने अपुली वैखरी अलंकृत करितो

सर्वव्यापी हे देवा करता विलंब का आता 

द्युलोकीहून सत्वर यावे दर्शन द्यावे आता ||९||

इ॒तो वा॑ सा॒तिमीम॑हे दि॒वो वा॒ पार्थि॑वा॒दधि॑ । इन्द्रं॑ म॒हो वा॒ रज॑सः ॥ १० ॥

व्योमातुन वा पार्थिवातुन सत्वर ही यावे 

दिव्यलोकही वा त्यजुनी आता साक्ष इथे व्हावे  

इंद्राचा सहवास अर्पितो अभिष्ट आनंद

अभिलाषा ना अन्य ठेविली दर्शन हा मोद ||१०||

भावानुवाद : डॉ. निशिकांत श्रोत्री 

९८९०११७७५४

[email protected]

https://youtu.be/_J2mwG5SfHg

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 106 ☆ कविता – रिश्ते ये खून के ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता  ‘रिश्ते ये खून के’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 106 ☆

☆ कविता – रिश्ते ये खून के — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

नहीं मालूम था

कि रिश्ते ये खून के ,

समय के साथ

पानी हो जाते हैं ,

बेमानी हो जाते हैं ।

नहीं मालूम था कि

रिश्ते ये प्यार भरे

 भाव भरे , स्नेह तरे

संजोया जिन्हें हर पल

आँखों के संग – संग

वह दे जाएंगे खालीपन

रिश्तों में दे खारापन |

नहीं मालूम था कि

रिश्तों की किरचें

बिखर जाएंगी

 चारों ओर

संभलने और संभालने

की कोशिशें

छोड़ जाएंगी निशान !

 रिश्ते ये खून के ?  

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 126 ☆ सम्मान को सम्मानित करना ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सम्मान को सम्मानित करना। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 126 ☆

☆ सम्मान को सम्मानित करना ☆ 

आज इसको कल उसको अपना गुरु बनाते हुए सम्मान बटोरते जाना ये भी एक कला है। जिस तरह हर कला की साधना,आराधना होती है वैसे ही इसकी भी कुछ साधकों द्वारा निरंतर साधना की जा रही है। एक हाथ लेना और दूसरे हाथ देना ये सब कुछ जायज है, बस नियत सच्ची होनी चाहिए। एक कार्यक्रम के दौरान दो इसी तरह के साधक आपस में बात कर रहे थे कि यहाँ से अब बहुत मिल चुका चलो अपना बसेरा कहीं और बनाते हैं। पहले ने कहा कहीं और जाने की जगह हम खुद ही अपना समूह बना कर संस्था के अध्यक्ष व सचिव बन जाते हैं। बस विज्ञापन निकालने की देर है, लोग खुद ही संपर्क करेंगे। जो संरक्षक बनना चाहेगा उसका स्वागत करेंगे।

दूसरे ने कहा सही बात है, संरक्षक ही कार्यक्रम को प्रायोजित करेंगे आखिर उनको हम पूरे समय मंचासीन रखेंगे। उन्हीं की फोटो पेपर में छपेगी।

पहले ने कहा अरे हाँ सबसे जरूरी तो मीडिया ही है, कोई आपकी पहचान का हो तो बताएँ, उसको प्रचार सचिव बनाकर सारे कार्य करवाने हैं।

ऐसा होना  कोई नयी बात नहीं है ये तो जोड़- तोड़ है जो आगे बढ़ने हेतु करनी ही पड़ती है। आखिर ये भी एक गुण है, हमें खुद को तराशते हुए जुटे रहना चाहिए, रास्ता जितना नेक होगा परिणाम उतना सुखद होगा।

हर वस्तु  चाहे  वो सजीव हो या निर्जीव उसकी अपनी एक विशिष्टता होती है,  और यही  उसका गुण कहलाता  है  जैसे मछली में तैरने का गुण होता है तथा वो जल के बिना नहीं रह सकती, इसी तरह मेढक जल थल दोनों में रह सकता है। पंछी आसमान की सैर करते हैं  तो बंदर एक डाल से दूसरी डाल तक छलाँग मार सकता है।

कुछ निर्जीव जैसे कोयला काला होता है  तो वहीं मिट्टी अपनी उत्त्पति के अनुसार कहीं काली,लाल, रेतीली,आदि रूपों में मिलती है।

इन सबमें बुद्धिमान प्राणी की बात करें तो  वो निश्चित रूप से मानव ही है जो निरन्तर गुणों की खोज में भटक रहा है, ये गुण कस्तूरी की तरह उसके भीतर ही समाहित है बस आवश्यकता है  हीरे की तरह उसे तराशने की।

जो लोग उचित समय पर श्रेष्ठ गुरु का सानिध्य पा जाते हैं वे जल्दी ही अपने गुणों को पहचान सफलता को प्राप्त कर लेते हैं। वहीं कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिनका गुरु वक्त होता हैं, किसी ने सच ही कहा है वक्त से बड़ा कोई गुरु नहीं हो सकता।

ये सब तो केवल व्याख्या है वास्तविकता  जिसके पास विद्या रूपी धन होता है उसमें सरलता व विनम्रता का गुण अपने आप ही विकसित हो जाता है। सम्मान के पीछे भागने की जगह यदि हम स्वयं को उपयोगी बनाकर समय के साथ- साथ बढ़ते रहें तो सम्मान भी सम्मानित होगा। तब चेहरे पर तालियों की गड़गड़ाहट से जो भाव आएगा वो अविस्मरणीय होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #127 – पुरस्कृत बाल कथा – “चाबी वाला भूत” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा  “चाबी वाला भूत।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 127 ☆

☆ पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा – चाबी वाला भूत ☆ 

बेक्टो सुबह जल्दी उठा। आज फिर उसे ताले में चाबी लगी मिलीं। उसे आश्चर्य हुआ। ताले में चाबी कहां से आती है ?

वह सुबह चार बजे से पढ़ रहा था। घर में कोई व्यक्ति नहीं आया था। कोई व्यक्ति बाहर नहीं गया था। वह अपना ध्यान इसी ओर लगाए हुए था। गत दिनों से उस के घर में अजीब घटना हो रही थी।  कोई आहट नहीं होती। लाईट नहीं जलती। चुपचाप चाबी चैनलगेट के ताले पर लग जाती।

‘‘ हो न हो, यह चाबी वाला भूत है,’’ बेक्टो के दिमाग में यह ख्याल आया। वह डर गया। उस ने यह बात अपने दोस्त जैक्सन को बताई। तब जैक्सन ने कहा, ‘‘ यार ! भूतवूत कुछ नहीं होते है। यह सब मन का वहम है,’’ 

बेक्टो कुछ नहीं बोला तो जैक्सन ने कहा, ‘‘ तू यूं ही डर रहा होगा। ’’

‘‘ नहीं यार ! मैं सच कह रहा हूं। मैं रोज चार बजे पढ़ने उठता हूं। ’’

‘‘ फिर !’’

‘‘ जब मैं 5 बजे बाहर निकलता हूं तो मुझे चैनलगेट के ताले में चाबी लगी हुई मिलती है। ’’

‘‘ यह नहीं हो सकता है,’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘ भूत को तालेचाबी से क्या मतलब है ?’’

‘‘ कुछ भी हो। यह चाबी वाला भूत हो सकता है।’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ यदि तुझे यकीन नहीं होता है तो तू मेरे घर पर सो कर देख है। मैं ने बड़ वाला और पीपल वाले भूत की कहानी सुनी है। ’’

जैक्सन को बेक्टो की बात का यकीन नहीं हो रहा था। वह उस की बात मान गया। दूसरे दिन से घर आने लगा। वह बेक्टो के घर पढ़ता। वही पर सो जाता। फिर दोनो सुबह चार बजे उठ जाते। दोनों अलग अलग पढ़ने बैठ जाते। इस दौरान वे ताला अच्छी तरह बंद कर देते।

आज भी उन्होंने ताला अच्छी तरह बंद कर लिया। ताले को दो बार खींच कर देखा था। ताला लगा कि नहीं ? फिर उस ने चाबी अपने पास रख ली।

ठीक चार बजे दोनों उठे। कमरे से बाहर निकले। चेनलगेट के ताले पर ताला लगा हुआ था।  

दोनों पढ़ने बैठ गए। फिर पाचं बजे उठ कर चेनलगेट के पास गए। वहां पर ताले में चाबी लगी हुई थी।

‘‘ देख !’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ मैं कहता था कि यहां पर चाबी वाला भूत रहता है। वह रोज चैनल का ताला चाबी से खोल देता है, ’’ यह कहते हुए बेक्टो कमरे के अंदर आया। उस ने वहां रखी। चाबी दिखाई।  

‘‘ देख ! अपनी चाबी यह रखी है,’’ बेक्टो ने कहा तो जैक्सन बोला, ‘‘ चाहे जो हो। मैं भूतवूत को नहीं मानता। ’’

‘‘ फिर, यहां चाबी कहां से आई ?’’ बेक्टो ने पूछा तो जैक्सन कोई जवाब नहीं दे सकता।

दोपहर को वह बेक्टो को घर आया। उस वक्त बेक्टो के दादाजी दालान में बैठे हुए थे।  

जैक्सन ने उन को देखा। वे एक खूंटी को एकटक देख रहे थे। उन की आंखों से आंसू झर रहे थे।  

‘‘ यार बेक्टो ! ’’ जैक्सन ने यह देख कर बेक्टो से पूछा, ‘‘ तेरे दादाजी ये क्या कर रहे है ?’’ उसे कुछ समझ में नहीं आया था। इसलिए उस ने बेक्टो से पूछा।

‘‘ मुझे नहीं मालूम है, ’’ बेक्टो ने जवाब दिया, ‘‘ कभी कभी मेरे दादाजी आलती पालती मार कर बैठ जाते हैं।  अपने हाथ से आंख, मुंह और नाक बंद कर लेते हैं। फिर जोरजोर से सीटी बजाते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं ? मुझे पता नहीं है ?’’

‘‘ वाकई !’’

‘‘ हां यार। समझ में नहीं आता है कि इस उम्र में वे ऐसा क्यों करते हैं। ’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ कभीकभी बैठ जाते हैं। फिर अपना पेट पिचकाते हैं। फुलाते है। फिर पिचकाते हैं। फिर फूलाते हैं। ऐसा कई बार करते हैं। ’’

‘‘ अच्छा !’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘ तुम ने कभी अपने दादाजी से इस बारे में बात की है ?। ’’

‘‘ नहीं यार, ’’ बेक्टो ने अपने मोटे शरीर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘ दादाजी से बात करूं तो वे कहते हैं कि मेरे साथ घूमने चलो तो मैं बताता हूं। मगर, वे जब घूमने जाते हैं तो तीन चार किलोमीटर चले जाते हैं। इसलिए मैं उन से ज्यादा बात नहीं करता हूं। ’’ 

यह सुनते ही जैक्सन ने बेक्टा के दादाजी की आरे देखा। वह एक अखबार पढ़ रहे थे।

‘‘ तेरे दादाजी तो बिना चश्मे के अखबार पढ़ते हैं ?’’

‘‘ हां। उन्हें चश्मा नहीं लगता है। ’’ बेक्टो ने कहा।

जैक्सन को कुछ काम याद आ गया था। वह घर चला गया। फिर रात को वापस बेक्टो के घर आया। दोनों साथ पढ़े और सो गए। सुबह चार बजे उठ कर जैक्सन न कहा, ‘‘ आज चाहे जो हो जाए। मैं चाबी वाले भूल को पकड़ कर रहूंगा। तू भी तैयार हो जा। हम दोनों मिल कर उसे पकड़ेंगे ?’’

‘‘ नहीं भाई ! मुझे भूत से डर लगता है, ’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ तू अकेला ही उसे पकड़ना। ’’

जैक्सन ने उसे बहुत समझाया, ‘‘ भूतवूत कुछ नहीं होते हैं। यह हमारा वहम है। इन से डरना नहीं चाहिए। ’’ मगर, बेक्टो नहीं माना। उस ने स्पष्ट मना कर दिया, ‘‘ भूत से मुझे डर लगता है। मैं पहले उसे नहीं पकडूंगा। ’’

‘‘ ठीक है। मैं पकडूंगा। ’’ जैक्सन बोला तो बेक्टो ने कहा, ‘‘ तू आगे रहना, जैसे ही तू पहले पकड़ लेगा। वैसे ही मैं मदद करने आ जाऊंगा,’’

दोनों तैयार बैठे थे। उन का ध्यान पढ़ाई में कम ओर भूत पकड़ने में ज्यादा था।

जैक्सन बड़े ध्यान से चेनलगेट की ओर कान लगाए हुए बैठा था। बेक्टो के डर लग रहा था। इसलिए उस ने दरवाजा बंद कर लिया था।  

ठीक पांच बजे थे। अचानक धीरे से चेनलगेट की आवाज हुई। यदि उसे ध्यान से नहीं सुनते, तो वह भी नहीं आती।

‘‘ चल ! भूत आ गया ,’’ कहते हुए जैक्सन उठा। तुरंत दरवाजा खोल कर चेनलगेट की ओर भागा।

चेनलगेट के पास एक साया था। वह सफेद सफेद नजर आ रहा था। जैक्सन फूर्ति से दौड़ा। चेनलगेट के पास पहुंचा। उस ने उस साए को जोर से पकड़ लिया। फिर चिल्लाया, ‘‘ अरे ! भूत पकड़ लिया। ’’

‘‘ चाबी वाला भूत !’’ कहते हुए बेक्टो ने भी उस साए को जम कर जकड़ लिया।  

चिल्लाहट सुन कर उस के मम्मी पापा जाग गए। वे तुरंत बाहर आ गए।

‘‘ अरे ! क्या हुआ ? सवेरेसवेरे क्यों चिल्ला रहे हो ?’’ कहते हुए पापाजी ने आ कर बरामदे की लाईट जला दी।

‘‘ पापाजी ! चाबी वाला भूत !’’ बेक्टो साये को पकड़े हुए चिल्लाया।

‘‘ कहां ?’’

‘‘ ये रहा ?’’

तभी उस भूत ने कहा, ‘‘ भाई ! मुझे क्यों पकड़ा है ? मैं ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ? ’’ उस चाबी वाले भूत ने पलट कर पूछा।

‘‘ दादाजी आप !’’ उस भूत का चेहरा देख कर बेक्टो के मुंह से निकल गया, ‘‘ हम तो समझे थे कि यहां रोज कोई चाबी वाला भूत आता है,’’ कह कर बेक्टो ने सारी बात बता दी।  

यह सुन कर सभी हंसने लगे। फिर पापाजी ने कहा, ‘‘ बेटा ! तेरे दादाजी को रोज घूमने की आदत है। किसी की नींद खराब न हो इसलिए चुपचाप उठते हैं। धीरे से चेनलगेट खोलते हैं। फिर अकेले घूमने निकल जाते हैं। ’’

‘‘ क्या ?’’

‘‘ हां !’’ पापाजी ने कहा, ‘‘ चूंकि तेरे दादाजी टीवी नहीं देखते हैं। मोबाइल नहीं चलाते हैं। इसलिए इन की आंखें बहुत अच्छी है। ये व्यायाम करते हैं। इसलिए अँधेरे में भी इन्हें दिखाई दे जाता है। इसलिए चेनलगेट का ताला खोलने के लिए इन्हें लाइट की जरूरत नहीं पड़ती है। । ’’

यह सुन कर बेक्टो शरमिंदा हो गया,। वह अपने दादाजी से बोला, ‘‘ दादाजी ! मुझे माफ करना। मैं समझा था कि कोई चाबी वाला भूत है जो यहां रोज ताला खोल कर रख देता है। ’’

‘‘ यानी चाबी वाला जिंदा भूत मैं ही हूं, ’’ कहते हुए दादाजी हंसने लगे।

बेक्टो के सामने भूत का राज खुल चुका था। तब से उस ने भूत से डरना छोड़ दिया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 136 ☆ बाल गीत – हवा – हवा कहती है बोल… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 136 ☆

☆ बाल गीत – हवा – हवा कहती है बोल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

हवा – हवा कहती है बोल।

मानव रे! तू विष मत घोल।।

 

मैं तो जीवन बाँट रही हूँ

तू करता क्यों मनमानी।

सहज, सरल जीवन है अच्छा

तान के सो मच्छरदानी।

 

विद्युत बनती कितने श्रम से

सदा जान ले इसका मोल।।

 

बढ़ा प्रदूषण आसमान में

कृषक पराली जला रहा है।

वाहन , मिल धूआँ हैं उगलें

बम – पटाखा हिला रहा है।।

 

सुविधाभोगी बनकर मानव

प्रकृति में तू विष मत घोल।।

 

पौधे रोप धरा, गमलों में

साँसों का कुछ मोल चुका ले।

व्यर्थं न जाए जीवन यूँ ही

तन – मन को कुछ हरा बना ले।।

 

अपने हित से देश बड़ा है

खूब बजा ले डमडम ढोल।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #136 ☆ संत निवृत्ती नाथ… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 136 ☆ संत निवृत्ती नाथ… ☆ श्री सुजित कदम ☆

दिली गहिनीनाथांनी

दिक्षा निवृत्ती नाथांस

बंधू थोरले ज्ञानाचे

गुरू लाभले सर्वांस…! १

 

धन अध्यात्मिक सारे

दिले निवृत्ती नाथांनी

दिला आदेश ज्ञानाला

लिही गीता दृष्टांतांनी…! २

 

जगामध्ये गांजलेले

सुखी केले हीन दीन

संत निवृत्तीनाथांची

सिद्धयोगी  कर्मवीण…! ३

 

ज्ञाना सोपान मुक्ताई

केला सांभाळ स्नेहाने

आधाराची कृपाछाया

दिली निवृत्ती नाथाने…! ४

 

कृष्ण तत्व गीता सार

अभंगांचे मुळ रूप

कार्य निवृत्ती नाथांचे

परब्रम्ह निजरूप…! ५

 

ग्रंथ निवृत्ती ‌साराने

गीता टीकेस उत्तर

ग्रंथ निवृत्ती देवी हा

अद्वैताचे मन्वंतर…! ६

 

योगमय अद्वैताची

गाथा कृष्ण‌भक्तीपर

तीन चारशे अभंग

हरीपाठ सुखकर…! ७

 

हस्त लिखितांची ठेव

आहे कैवल्याचे लेणे

संत निवृत्तीनाथांचे

आहे आशीर्वादी देणे….! ८

 

वारकरी संप्रदाय

असे समता संदेश

वसा विश्व कल्याणाचा

देई निवृत्ती निर्देश…! ९

 

ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी

शोकाकुल परीवार

नाथ निवृत्त जाहले

संजीवन निरंकार…! १०

 

ब्रम्हगिरी पर्वताच्या

पायथ्याशी अंतर्धान

नाथ समाधी मंदिर

वैष्णवांचे श्रद्धास्थान…! ११

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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