(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है “संतोष के दोहे – शिक्षक”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘अदालत में हिंदी’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 100 ☆
☆ लघुकथा – अदालत में हिंदी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
अदालत में आवाज लगाई गई – हिंदी को बुलाया जाए। हिंदी बड़ी सी बिंदी लगाए भारतीय संस्कृति में लिपटी फरियादी के रूप में कटघरे में आ खड़ी हुई।
मुझे अपना केस खुद ही लड़ना है जज साहब ! – उसने कहा।
अच्छा, आपको वकील नहीं चाहिए ?
नहीं, जज साहब ! जब मेरी आवाज बन भारत विदेशियों से जीत गया तो मैं अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ सकती ?
ठीक है, बोलिए, क्या कहना चाहती हैं आप ?
जब देश स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था तब मैंने कमान संभाली थी। देशभक्ति की ना जाने कितनी कविताएं मेरे शब्दों में लिखी गईं। जब मैं कवि के शब्दों में कहती थी – जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह ह्रदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं, तब इसे सुनकर नौजवान देश के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर देते थे। मैं सबकी प्रिय थी, कोई नहीं कहता था कि तुम मेरी नहीं हो। लेकिन अब मेरे अपने देश के माता – पिता अपने बच्चों को मुझसे दूर रखते हैं, देश के नौजवान मुझसे मुँह चुराते हैं। इतना ही नहीं महाविद्यालयों में तो युवा मुझे पढ़ने से कतराते हैं। मेरे मुँह पर तमाचा- सा लगता है जब वे कहते हैं कि क्या करें तुम्हें पढ़कर ? हमें नौकरी चाहिए, दिलवाओगी तुम ? जीने के लिए रोटी चाहिए, हिंदी नहीं ! मैं उन्हें दुलारती हूँ, पुराने दिन याद दिलाती हूँ, कहती हूँ अच्छे दिन आएंगे परंतु वे मेरे वजूद को नकारकर अपना भविष्य संवारने चल देते हैं। जज साहब! मैं अपने ही देश में पराई हो गई। इस अपमान से मेरी बहन बोलियों ने अपनी जमीन पर ही दम तोड़ दिया। मुझे न्याय चाहिए जज साहब! – हिंदी हाथ जोड़कर उदास स्वर में बोली।
अदालत में सन्नाटा छा गया। न्यायधीश महोदय खुद भी दाएं- बाएं झांकने लगे। उन्होंने आदेश दिया – गवाह पेश किया जाए।
हिंदी सकपका गई, गवाह कहाँ से लाए ? पूरा देश ही तो गवाह है, यही तो हो रहा है हमारे देश में – उसने विनम्रता से कहा।
नहीं, यहाँ आकर कटघरे में खड़े होकर आपके पक्ष में बात कहनेवाला होना चाहिए – जज साहब बोले।
हिंदी ने बहुत आशा से अदालत के कक्ष में नजर दौड़ाई, बड़े – बड़े नेता, मंत्री, संस्थाचालक वहाँ बैठे थे, सब अपनी – अपनी रोटियां सेंकने की फिक्र में थे। किसी ने उसकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “मन का मनका फेर”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 116 ☆
☆ मन का मनका फेर ☆
हेरा- फेरी के चक्कर में केवल दोषी ही मानसिक कष्ट नहीं उठाता वरन उससे जुड़े लोग भी शक के घेरे में आ जाते हैं। शिकायतकर्ता अपने को सौ प्रतिशत सही मानता है जबकि आरोपी मामला शांत करवाने हेतु हर समझौते के लिए तैयार हो जाता है। ऐसे में सबसे बड़ी भूमिका संवाद की होती है। यदि विवाद को शांत करना है तो क्षमा याचना के साथ की गयी प्रार्थना को स्वीकार करना चाहिए। अनावश्यक बात का बतंगड़ सबका चैन छीनता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। जहाँ उसके अच्छे कार्यों से सभी सुखी होते हैं तो वहीं दूसरी ओर जाने- अनजाने किए गए गलत कार्यों की आँच से जुड़े हुए लोगों का झुलसना स्वाभाविक है।
करे कोई भरे कोई ये मुहावरा कई अर्थों में प्रयोग होता है। कहते हैं कर्म का प्रभाव अवश्यम्भावी होता है। कार्य तो करें किन्तु इतनी जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए कि परिणाम क्या होगा इसकी चिंता करने का अवसर ही न मिले। सबको साथ लेकर चलने की कला जिसको आ गयी उसे सब कुछ आ जाता है। जाना आना तो प्रकृति का नियम है। सब कुछ पूर्व निर्धारित होता है। किसी का होना या न होना कोई मायने नहीं रखता बस योजना सही होनी चाहिए। यदि सही तरीके से निर्धारण हो तो प्रक्रिया सुचारू रूप से चलती रहती है। वास्तव में टीम लीडर ऐसा होना चाहिए जो हमेशा बैकअप प्लान तैयार करके रखता हो। बस शुरुआत करिए यदि आप चलने लगेंगे तो लोग स्वयं आपके साथ खड़े होकर हिप- हिप हुरै करनें में सहयोग देंगे।
पूरी व्यवस्था यदि चार चरणों में हो तो कोई भी आकर खाली स्थान को भर देगा और किसी को समझ भी नहीं आएगा कि क्या उठा- पटक हो गयी। प्रातः स्मरणीय वंदना के साथ विचार शक्ति को सशक्त करिए और जुट जाइए दैनिक कार्यों के संपादन में। लगभग पचहत्तर प्रतिशत कार्य पूरा करने के बाद इंतजार करिए कि कोई न कोई बचा हुआ पच्चीस प्रतिशत पूरा करने के लिए आएगा क्योंकि आखिरी दौर में अपने आप भीड़ इकट्ठी हो जाती है।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय लघुकथा –“सेवा”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 118 ☆
☆ लघुकथा – सेवा ☆
दो घंटे आराम करने के बाद डॉक्टर साहिबा को याद आया, ” चलो ! उस प्रसूता को देख लेते हैं जिसे आपरेशन द्वारा बच्चा पैदा होगा, हमने उसे कहा था,” कहते हुए नर्स के साथ प्रसव वार्ड की ओर चल दी. वहां जा कर देखा तो प्रसूता के पास में बच्चा किलकारी मार कर रो रहा था तथा दुखी परिवार हर्ष से उल्लासित दिखाई दे रहा था.
” अरे ! यह क्या हुआ ? इस का बच्चा तो पेट में उलझा हुआ था ?”
इस पर प्रसूता की सास ने हाथ जोड़ कर कहा, ” भला हो उस मैडमजी का जो दर्द से तड़फती बहु से बोली— यदि तू हिम्मत कर के मेरा साथ दे तो मैं यह प्रसव करा सकती हूँ.”
”फिर ?”
”मेरी बहु बहुत हिम्मत वाली थी. इस ने हामी भर दी. और घंटे भर की मेहनत के बाद में प्रसव हो गया. भगवान ! उस का भला करें.”
” क्या ?” डॉक्टर साहिबा का यकीन नहीं हुआ, ” उस ने इतनी उलझी हुई प्रसव करा दी. मगर, वह नर्स कौन थी ?”
सास को उस का नाम पता मालुम नहीं था. बहु से पूछा,” बहुरिया ! वह कौन थी ? जिसे तू 1000 रूपए दे रही थी. मगर, उस ने लेने से इनकार कर दिया था.”
” हां मांजी ! कह रही थी सरकार तनख्वाह देती है इस सरला को मुफ्त का पैसा नहीं चाहिए.”
यह सुनते ही डॉक्टर साहिबा का दिमाग चकरा गया था. सरला की ड्यूटी दो घंटे पहले ही समाप्त हो गई थी. फिर वह यहाँ मुफ्त में यह प्रसव करने के लिए अतिरिक्त दो घंटे रुकी थी.
”इस की समाज सेवा ने मेरी रात की डयूटी का मजा ही किरकिरा कर दिया. बेवकूफ कहीं की,” धीरे से साथ आई नर्स को कहते हुए डॉक्टर साहिबा झुंझलाते हुए अगले वार्ड में चल दी.
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा “बुजुर्गों की गप्प गोष्ठी…”।)
☆ तन्मय साहित्य # 149 ☆
☆ लघुकथा – बुजुर्गों की गप्प गोष्ठी…☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
सायंकालीन दिनचर्या में टहलते हुए किसी पार्क के कोने या किसी पुलिया पर समय काटते बुजुर्गों के समूह में अजीब चर्चाओं का दौर चलता रहता है।
आज चर्चा शुरू करते हुए रूपचंद ने पूछा – “रामदीन! यह बताओ इन भगवानों के बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं?”
“विचार क्या! ये सब इंसानी दिमागों की उपज है। ढूँढो तो इन भगवानों में भी कई खोट मिल जाएंगे। अब राम जी को ही ले लो, कहने को मर्यादा पुरुषोत्तम और एक धोबी के कहने से अग्नि में पवित्र हुई गर्भवती सीता जी को अकेली जंगल में छुड़वा दिया।”
“सच कहते हो रामदीन! बृजमोहन जी बीच में ही बोल पड़े, सोलह कलाओं के स्वामी पूर्णावतार कृष्ण जी ने क्या कम गुल खिलाये थे! सुना है सोलह हजार रानियों के बीच में केवल सत्यभामा और रुक्मणी जी की पूछ-परख बाकी सब बाँदियों की तरह थी। वैसे तत्वदर्शी मनीषी इन बातों की अलग तरह से भी आध्यात्मिक व्याख्या करते हैं।”
“अरे ब्रजमोहन! दूर क्यों जाते हो ईश्वर के बारहवें अवतार भगवान बुद्ध तो अपनी सोई हुई पत्नी और वृद्ध माता-पिता को बीच मँझधार में छोड़ कर अपने मोक्ष के लिए रातों रात घर से पलायन कर गए थे, रघुनंदन ने कहा, जबकि विदेही राजा जनक की भांति अपने राजधर्म का पालन करते हुए भी वे बुद्धत्व को प्राप्त कर सकते थे।”
“हाँ भाई रघुनंदन, वैसे बुद्ध को भी छोड़ दें तो अभी-अभी के हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में कहते हैं कि, वृद्धावस्था में भी अपनी कामवासना पर काबू कर पाए हैं कि नहीं यह जाँचने के लिए विचित्र-विचित्र प्रयोग करने लगे थे। बाकी उनके यौवनकाल की घटना तो जानते ही हैं हम सब रूपचंद ने कहा।”
“गांधी जी ने तो फिर भी देश के लिए बहुत कुछ किया था रूपचंद भाई!”
बीच में ही भवानी प्रसाद बोल उठे – “किंतु आज तो सभी नेता अपनी तिजोरी भरने और देश का पैसा विदेशी बैंकों में जमा करने में लगे हैं। देश प्रेम के मुखौटे लगाए ये लोग अंदर कुछ और बाहर कुछ हैं। अब अपने क्षेत्र से ही जीते हुए नेता जी को ले लो साल में दो बार शिर्डी, वैष्णो देवी और आसपास के मंदिरों की शाही यात्राएं कर सदा मजमें लगा कर अपने को चर्चाओं में बनाये रखते हैं। उनका असली रूप क्या है सब लोग उनके आशिक मिज़ाजी कुकर्मों से परिचित ही हैं।”
“भवानी प्रसाद! कुकर्मों की बात तुम नहीं ही करो तो अच्छा है। करम तो तुम्हारे भी ठीक नहीं थे, देवीसिंह ने हँसते हुए कहा – रंगीन मिजाजी के तुम्हारे किस्से हम आज तक भी भूले नहीं हैं, याद है न तुम्हें?”
“और तुम कौन से दूध के धुले हो यार! मुँह न खुलवाओ मेरा नहीं तो तुम्हारी भी पूरी पोथी बाँच सकता हूँ यहाँ।”
“पोथियाँ तो यहाँ सबकी सब की बनी है, बस बाँचने भर की देर है, रूपचन्द ने कहा।”
बात भगवान से शुरू होकर अपने तक आ गई, लगने लगा कि इसके बाद अब सब लपेटे में आने वाले हैं।
रामदीन ने आज की गोष्ठी का समापन करते हुए कहा “साथियों! रात के आठ बजने वाले हैं, यदि अब भी हम लोग घर नहीं पहुँचे और घर का चूल्हा चौका एक बार बंद हो गया तो फिर कुछ अलग सी पोथी श्रवण के साथ कल दोपहर तक ही खाना नसीब हो पाएगा हमें, इसलिए आज की यह चर्चा गोष्ठी कल तक के लिए स्थगित की जाती है। सब कुछ ठीक रहा तो कल फिर मिलेंगे।”
आखिर खाली मन रोज-रोज बातें करें भी तो क्या कभी राजनीति, कभी मँहगाई, कभी पेंशन, तो कभी अड़ोस-पड़ोस की, बस इसी प्रकार कुछ नए नए विषय लेकर उनके तार मिलाते दिल बहलाते हल्की-फुल्की छींटाकशी करते फिर पूरे समय के लिए चुप्पियों की शरण में चले जाते हैं- अपनत्व से वंचित ये बुजुर्ग लोग।