मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #153 ☆ माझी किंमत… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 153 ?

☆ माझी किंमत…

वस्तुसारखी माझी किंमत ठरते कळले होते

वेश्या म्हणुनी या देहाला रोज डिवचले होते

 

रूप वसंता तुझे घेउनी आले होते वादळ

वेलीवरच्या फुलास त्याने सरळ फसवले होते

 

अंगावरती घाण टाकली ज्याने होती माझ्या

हात पाहिले त्याचे तेव्हा तेही मळले होते

 

नव्हती तेव्हा रंग पंचमी रंगाला तो आला

अंगावरती नको नको ते रंग उधळले होते

 

कोठडीत मी अन् सूर्याचे स्वप्न पाहिले रात्री

सभोवताली फक्त काजवे माझ्या जमले होते

 

नव्हे शृंखला ते तर पैंजण हाती नाही बेडी

फासावरती केवळ माझे स्वप्नच चढले होते

 

या देहाचा ठेका नाही कुणी घेतला येथे

काल भेटले त्यांना तर मी आज वगळले होते

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग 5 ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆

सौ. अमृता देशपांडे

? विविधा ?

☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग – 5 ☆ सौ. अमृता देशपांडे  

मुलींच्या शाळेत ‘ सारेगमप ‘ स्पर्धा होती. नमिताची  व ईशाची 30 मुलींमधून निवड झाली. इतर मुलीही होत्या. आठवडाभर प्रॅक्टीस आणि रविवारी स्पर्धा असे दोन महिने चाललं होतं.  शेवटी फक्त दोनच स्पर्धक राहिले.  नमिता आणि ईशा. दोघीही अतिशय तयारी करून आल्या होत्या. अंतिम टप्पा गाठला.  दोघींचीही चार चार गाणी झाली आणि निकालाचा क्षण आला.  मंचावर दोन स्पर्धक – दोघी मैत्रिणी होत्या. उत्सुकता, बावरलेपण, धडधडणारी छाती, दोघींही आतुरतेने वाट पाहत होत्या. एकमेकींचे हात घट्ट पकडून उभ्या होत्या. निकाल घोषित झाला.  नमिता जिंकली होती.  दोघीही एकमेकींना घट्ट मिठी मारून रडायला लागल्या. किती समजावले तरी थांबेनात. शेवटी मुख्याध्यापिका मंचावर गेल्या.  त्यांनी दोघींना सावरले. त्यांनी नमिताला विचारले, “नमिता,  तू का रडते आहेस? तू Winner आहेस ना?” नमिता रडतच बोलली, ” मॅडम,  ईशा जिंकली नाही म्हणून मला वाईट वाटलं ” तर ईशा म्हणाली, ” नमिता Winner झाली म्हणून मला खूप आनंद झालाय, इतका कि मला रडू आलं ” .

अश्रू चं इतकं निरागस, सुंदर रूप दुसरं कुठलं असू शकेल?

नमिता, ईशा एकमेकींसाठी रडल्या. आपल्या यशापेक्षा जिवलग मैत्रिणीचं अपयश मनाला लागणं, आणि मैत्रिणी च्या यशात आपलं अपयश विसरून जाणं,  हा मैत्रीचा आणि यश अपयश या दोन्ही ला योग्य प्रकारे सामोरे जाण्याचा धडा दोघींनी घालून दिला.

जर त्या भावना आवरून रडल्या नसत्या तर मैत्रीची,  प्रेमाची जागा असूया, ईर्ष्या  , हेवा यांनी घेतली असती. किती धोकादायक होतं ते! म्हणून त्या रडल्या ते योग्यच होतं ना!

(क्रमशः… प्रत्येक मंगळवारी)

© सौ. अमृता देशपांडे 

पर्वरी – गोवा

9822176170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 103 – खोज रही है तुम्हें निगाहें… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

 

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके खोज रही है तुम्हें निगाहें।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 103 – खोज रही है तुम्हें निगाहें✍

व्याकुल मन है, आकुल बाँहें खोज रही है तुम्हें निगाहें।

 

 नव बसंत उतरा है भू पर सौरव से भर उठी दिशाएँ

तरुओं ने नव पल्लव पाए गर्भवती हो गई लताएँ

वातावरण रसीला हो तो मन में उभरे चाहें।

 

सरिता की कल कल की धारा भी मौन निमंत्रण देती है

और नशीली हवा चहक कर सम्मोहित कर देती है

मधुर मदिर आमंत्रण की ही सभी देखते राहें।

 

मेरे नयन प्रतीक्षा कुल है मनमोहन ने रास रचा है

रास निमज्जित अर्पित है जो जितना भी शेष बचा है

 

वृंदावन की सुधियों को अब पूजें और निबाहें

व्याकुल मन है खोज रही है तुम्हें निगाहें।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 105 – “ऊपर से उड़-उड़ जाती है…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “ऊपर से उड़-उड़ जाती है…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 105 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “ऊपर से उड़-उड़ जाती है”|| ☆

पहुँचा नहीं बाढ़ से

राहत को कोई अमला

छत पर खड़ी उदास

जोहती वाट रही कमला

 

गायें भूखी बँधी थान पर

जायें कहाँ जायें

भीगे, वस्त्र, बिछावन,

लत्तर गहरी विपदायें

 

आटा भीग गया डिब्बे का

“करता कुछ” कह कर

भिनसारे ही निकल

गया था बेचारा रमला

 

बच्चा चिल्लाता छप्पर से

भूख लगी मैया

मैया कहती हमको रोटी

पहुँचाओ भैया

 

है खराब मौसम ,डरता

है बाकी जीव -जगत

नहीं सहा जाता पानी

का यह भारी हमला

 

ऊपर से उड़-उड़ जाती है

बड़ी चील गाड़ी

रमला खड़ा दूर टीले पर

खुजलाता दाढ़ी

 

कभी बचाओ, कभी

भूख का, शोर सुनाई दे

लगता जैसे कक्षा में

कोई बोले इमला

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

27-08-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 30 ☆ नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!! ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!”।) 

☆ शेष कुशल # 30☆

☆ व्यंग्य – “नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!” – शांतिलाल जैन ☆ 

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

हार में गुंथे एक फूल ने दूसरे से कहा – ‘मैं मर जाना चाहता हूँ.’

दूसरे ने कहा – ‘चौबीस-छत्तीस घंटे की ही तो लाईफ और बची है, कल तक सूख-साख जाओगे, फिर तो मिट्टी में मिलना तय है.’

‘चौबीस घंटे एक लंबा वक्त है दोस्त, मैं चौबीस सेकण्ड्स भी जीना नहीं चाहता. विधाता ने हम फूलों में जान तो डाल दी मगर हाराकीरी कर पाने के साधन नहीं दिए वरना अभी तक तुम मेरी मिट्टी देख रहे होते. मादक खूशबू, खूबसूरत पंखुड़ियाँ, ये चटख रंग एक झटके में सब के सब बदरंग हो गए हैं. अब मैं और जीना नहीं चाहता.’

‘कुछ देर पहले तक तो ठीक-ठाक थे अचानक ऐसा क्या हो गया है ?’

‘देख नहीं रहे! सम्मान करने के परपज से जिस गले में हमें डाला गया है वो नृशंस हत्या और बलात्कार कांड के सजायाफ़्ता मुजरिम का गला है. वह उस गुलबदन को मसल देने का अपराधी है जिसके गर्भ में एक पाँच माह की कली पनप रही थी. उसी की टहनी से फूटी नन्ही नाजुक सी ट्यूलिप को पत्थर पर पटक पटककर जिन्होने कुचल दिया उनकी सज़ा माफ कर दी गई है. गला इनका है और दम मेरा घुट रहा है. जो शख्स कैक्टस का हार पहनाए जाने की पात्रता नहीं रखते उसके गले को गुलों-गुलाबों से सजाया गया है !!, उफ़्फ़…. घिन आने लगी है दोस्त अब और जीने का मन नहीं है.”

फिर उसने हार में से कुछ तिरछा होकर आसमान की ओर देखा और कहा – ‘आगे से अंटार्कटिका में उगा देना प्रभु मगर आर्यावर्त में नहीं. मैं टहनियों में उगे कांटो के बीच रह लूँगा मगर नए दौर के आकाओं के निमित्त निर्मित मालाओं, गुलदस्तों में तो बिलकुल नहीं भगवान. कभी हम देवताओं के हाथों बरसाए जाने के काम आते रहे, आज अपराधियों के संरक्षकों के हाथों बरसाए जा रहे हैं. हमारी प्रजाति में जूही, चम्पा, चमेली किसी रेपिस्ट के रिहा होने पर तिलक नहीं लगातीं, आरती नहीं उतारतीं. आर्यावर्त में जुर्म, सजा, इंसाफ अपराध की प्रकृति देखकर नहीं, अपराधी का संप्रदाय और रिश्ते देखकर तय होने लगे हैं. हम आवाज़ नहीं कर पाते मगर समझते सब हैं. आर्यावर्त में बगीचे के माली फूलों को उनका धरम देखकर सींचते हैं. विधर्मी फूल सहम उठते हैं, कब कौन मसल दिया जाएगा कौन कह सकता है. कभी संगीन अपराधों पर सन्नाटा पसर जाया करता था अब ढ़ोल-ताशे बजते हैं. बजते रहें, इल्तिजा बस इतनी सी है प्रभु सहरा के रेगिस्तान में उग लें, साईबेरिया की बर्फ में उग लें, सागर की गहराईयों उग लें – आर्यावर्त में नहीं मालिक.’

‘मैं समझ सकता हूँ दोस्त, अब दद्दा माखनलाल चतुर्वेदी भी नहीं रहे कि तुम्हारी निराशा को स्वर दें सकें.’

‘पता है मुझे. कोई बात नहीं अगर वनमाली उस पथ पर न फेंक पाए जिस पर शीश चढ़ाने वीर अनेक जा रहें हों, कम से कम बलात्कारियों के पथ पर तो न डालें. सुरबाला के गहनों में गूँथ दें, चलेगा. प्रेमी-माला में बिंध दें – इट्स ऑलराईट. सम्राटों के शव पर अपने को सहन कर लूँगा. देवों के सिर पर चढ़ा दे तब भी कोई बात नहीं, हत्यारों बलात्कारियों के गर्दन-गले की शोभा तो न बनाएँ मुझे.’  उसने फिर साथी फूल से मुखातिब होकर कहा – ‘ये मिठाई, ये अबीर गुलाल और ये आतिशबाज़ी! इन्हे मामूली स्वागत समारोह की तरह मत देखना दोस्त – ये आनेवाले कल के आर्यावर्त का ट्रैलर है. फूलों की आनेवाली जनरेशन को इससे कठिन समय देखना बाकी है.’

‘डोंट वरी, हमें बहुत नहीं सहना पड़ेगा. जमाना आर्टिफ़िशियल फ्लावर का है. न उनमें जान होगी न तुम्हारी तरह जान देने की जिद. और लीडरान ? वे तो आर्टिफ़िशियल रहेंगे ही, अन्तश्चेतना से शून्य.’

सजा-माफ बलात्कार वीर समूह माला पहने-पहने तस्वीर खिंचवा रहा है. तस्वीर कल सुबह अखबार के कवर पेज पर नुमायाँ होगी. नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 152 ☆ “बांध और बाढ़ का खेल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक मजेदार व्यंग्य  – “बांध और बाढ़ का खेल”)  

☆ व्यंग्य # 152 ☆ “बांध और बाढ़ का खेल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

एक अभियंता की दया से बांध बनाने का ठेका मिल गया, बांध बियाबान जंगल के बीच पिछड़े आदिवासी इलाके में बनना था, बीबी गर्व से फूली नहीं समा रही थी कहने लगी – अर्थ वर्क भ्रष्टाचार के रास्ते खोलता है और अमीर बनाने के खूब मौके देता है कमा लो जितना चाहो…। दो बड़े पहाड़ों को एक बड़ी मेंड़ बनाकर जोड़ने का काम था ताकि बहती नदी के पानी को रोका जा सके। इधर शहर में साहब का बंगला बनाने का नक्शा भी पास हो गया था। “बांध के साथ शहर में इंजीनियर साहब का बंगला भी बनता रहेगा” साहब के इसी इशारे में काम दिया गया था। सीमेंट, गिट्टी, लोहा शहर से खरीदा जाता बांध के लिए। पर पहली खेप बंगले बनने वाली जमीन पर उतार दी जाती। फिर बांध के नाम का बिल तुरंत पास हो जाता। 

बांध का काम चलता रहा और साहब का बंगला तैयार…। उधर साहब कभी कभी बांध के पास बनी कुटिया में शराब, शबाब और कबाब में डूबे रहते और शहर के बंगले के बेडरूम में उनकी मेडम फिनिशिंग का काम कराती रहती। बरसात आयी खूब पानी गिरा, लीपापोती के चक्कर में साहब ने बांध बह जाने की रिपोर्ट ऊपर भेज दी। साहब का बंगला रहने के लिए तैयार और साहब ने पैसे देकर ट्रांसफर करा लिया। 

अब जो नया साब आया उसे बड़े टाइप के बांधों में घोटाला करने का अच्छा अनुभव था… नाम  सलूजा साब। एक दिन शराब के नशे में सलूजा जी ने बड़े बांधों में घपले के किस्से सुनाए – बांध  बनने से बहुत से गांव डूब जाते हैं, बड़ी आबादी विस्थापित होती है, सोना-चांदी उगलतीं फसलें तबाह होतीं हैं गरीब बेसहारा हो जाते हैं और बांध बनाने वाले अधिकारी और ठेकेदारों की चांदी हो जाती है, बंगले और मंहगी गाड़ियों में ईजाफा हो जाता है। 

अभी एक खबर सुनी, ये भी आदिवासी जिले के 305 करोड़ लागत के बांध के घपले की खबर थी। खबर सुनकर बड़बड़ाना स्वाभाविक है कि हम लगातार बांधों का निर्माण तो करते जा रहे हैं लेकिन भ्रष्टाचार में लिप्त होकर बांध प्रबंधन का सलीका नहीं सीख पाए हैं। यदि बांध से बाढ़ को रोका जा सकता है तो पूरा देश बाढ़ की चपेट में आकर क्यों बर्बाद हो रहा है। बांध बनते जा रहे हैं और बाढ़ से तबाही भी बढ़ती जा रही है। बाढ़ देखने के हवाई दौरे भी बढ़ रहे हैं। बांध और बाढ़ की चर्चा पर करोड़ों रुपये फूंके जा रहे हैं, और बांध बाढ़ से दोस्ती करके हाहाकार मचवाये हुए हैं। नेता लोग बांध घूम कर बाढ़ का मजा लेते हैं और बाढ़ में गरीब लोग मरते हैं। बिहार में 47 साल से बन रहा 380 करोड़ रुपये का बांध उदघाटन होने के एक दिन पहले ही बह गया था।  बांध भी मुख्यमंत्रियों से डरता है। आरोप लगे कि बांध को दलित चूहों ने कुतर दिया इसलिए बांध बह गया। गंगा मैया सागर से मिलने उतावली है और उसे बांध में बांध दोगे तो क्या अच्छी बात है गंगा मैया नाराज नहीं होगी क्या? उदघाटन के पहले मुख्यमंत्री को गंगा मैया में नहा-धोकर पाप कटवा लेना चाहिए था, तो हो सकता है कि बिहार का बांध बच जाता। 

दूरदराज और जंगल के बीच बने छोटे छोटे  बांध आंकड़ों में चोरी हो जाते हैं अक्सर। असली क्या है कि हमारा देश कृषि प्रधान देश है न, इसलिए बांध और बाढ़ की जरूरत पड़ती होगी देश पूरी तरह खेती पर आश्रित है और इन्द्र महराज पानी देने में पालिटिक्स कर देते हैं तो सिंचाई के लिए बांध और नहरों की जरूरत पड़ती है। बांध बनाने के पहले विरोध होता है फिर बांध बनते समय विरोध होता है और बांध बन जाने के बाद विरोध होता है क्योंकि विरोध करना हमारी संस्कृति है। 

सबको मालूम है कि जब बड़े बांध बनते हैं तो हजारों गांव खेती की जमीन पशु, पक्षी, पेड़, पौधे सब डूब जाते हैं विस्थापितों के पुनर्वास में लाखों करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार के मामले सामने आते हैं फर्जी भू-रजिस्टरी का कारोबार पकड़ में आता है।

गंगू बांध और बाढ़ की दोस्ती से परेशान है, बिहार वाले नेपाल के बाधों से परेशान हैं और किसान हर तरफ से परेशान है। दुख इस बात का है कि इस बार आदिवासी क्षेत्र के इस 305 करोड़ रुपए लागत के  बांध के फूटने की खबर ने हजारों किसानों को रक्षाबंधन और आजादी का अमृत महोत्सव चैन से नहीं मनाने दिया।  

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 95 ☆ # पानी… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# पानी… #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 95 ☆

☆ # पानी… # ☆ 

जिंदगी के खेल निराले हैं

यह समझ मे नही आने वाले हैं

कहीं बूंद बूंद को लोग तरसते हैं

कहीं तबाही लाने वाले हैं

 

मेघों पर दीवानगी छाई है

घनघोर घटाएं संग लाई है

बरस रहा है पानी ही पानी

पृथ्वी पर बाढ़ सी आई है

 

तूफान सब कुछ रौंद रहा है

आसमान दामिनी बनकर

कौंध रहा है

बह गये है गांव के गांव

इन्सान डर के मारे

मौन रहा है

 

कहीं पर आशियाने

लुट गए हैं

कहीं पर लाचारी में जीने

पीछे छूट गये है

ना शरीर पर वस्त्र

ना सर पर छत

ईश्वर जैसे उनसे

रूठ गये है

 

यह मेघों की कैसी

दीवानगी है

धरती पर फैली त्रासदी है

बाढ़ प्रलय बन गई है

मानव के हाथ

बस बेचारगी है

 

कहीं वर्षा नहीं तो अकाल है

कहीं खूब वर्षा तो काल है

जग में पानी ही तो जीवन है

कहीं बिना पानी हाल-बेहाल है /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588\

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 95 ☆ माझी कविता… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 95  ? 

☆ माझी कविता… ☆

कविता माझी, खूप वेगळी

तिची रूपे, खूप आगळी…

 

मुक्तछंद छंदमुक्त,

छंदबद्ध चारोळी

आर्या,ओव्या,

अभंग त्या ओळी…

 

कधी होते,

कविता भावुक

कधी तिचा भाव,

मऊ साजूक…

 

प्रेमात ती,

कोमल बनते

रागात ती,

क्रोध आणते…

 

भावदर्शक,

कविता होते

हसत हसत,

रडायला लावते…

 

कविता मला,

जवळ घेते

माझ्यातील शब्द,

तीच बोलते…

 

तिची उपासना, सतत करणार

तिच्याच करता, श्वास घेणार…

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग ३२ – परिव्राजक १० – लोकसंपर्क ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग ३२ – परिव्राजक १० – लोकसंपर्क  ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

स्वामीजींच्या लोक संपर्कात सुशिक्षित लोक जास्त असायचे पण त्याचा बरोबर ग्रामीण भागातले लोक सुद्धा असायचे. सुशिक्षित लोकांबरोबर त्यांचा सतत विविध संवाद,चर्चा होत असत. सुशिक्षित तरुणांकडून त्यांना ही अपेक्षा होती की, ‘त्यांनी आपल्या देशाचा इतिहास समजून घेतला पाहिजे. एव्हढंच नाही तर भारतीयांनीच भारताचा इतिहास लिहिला पाहिजे. नाहीतर परकीय लोक आपल्या देशाचा इतिहास लिहितात. त्यांना आपली संस्कृती आणि परंपरा यांची काहीही माहिती नसताना तो लिहीत असतात. त्यामुळे त्यांना भारताच्या इतिहासातले बारकावे समजत नाहीत. अशांनी इतिहास लिहिला आणि तो आपण वाचला तर आपली दिशाभूल होते असे त्यांना वाटायचे’.

स्वामीजी राजस्थान सारख्या ऐतिहासिक पार्श्वभूमी असलेल्या प्रदेशात आले होते, त्यामुळे त्यांना साहजिकच ही तुलना करता आली असणार. आज तर आपल्या राजकीय परिस्थितीमुळे आपल्या इतिहासकडेही राजकीय द्वेषातूनच पाहिलं जातय. ही परिस्थिति इतकी वाईट आहे ही राजकीय स्वार्थापोटी देशाचा इतिहास, देशाभिमान यांचं महत्व राहिलेलं दिसत नाही. त्याकाळात ही गुहेत राहणार्‍या आध्यात्मिक स्वामीजींनी सामाजिक भान सुद्धा जपलं होतं. त्यांचा मोलाचा सल्ला,उपदेश अशा समाजात जिथं अनुभव येईल, जिथं गरज आहे तिथं तो देत असत.

भारत कृषि प्रधान देश आहे त्यामुळे जास्त संख्या ग्रामीण भागात राहणारी आहे. पण ग्रामीण भागातले खेडूत जास्त शिकले की शहराकडे धाव घेतात. खर तर देशाच्या अर्थव्यवस्थेचा कणा असलेल्या शेतीकडे हा वर्ग नोकरीला भुलून पाठ फिरवतो. हे स्वामीजींच्या त्या काळात सुद्धा लक्षात आलं होतं. उलट शहरातल्या सुशिक्षित लोकांनी खेड्यात जाऊन तिथल्या शेतकर्‍यांशी संवाद साधला पाहिजे. उलटा प्रवास झाला पाहिजे. म्हणजे दोन्ही वर्गात आपुलकीचे नाते निर्माण होईल असे स्वामीजींचे मत होते. त्यानुसार ते सहवासात आलेल्या लोकांना मार्गदर्शन करत असत.

आज कोरोना साथीच्या परिस्थितून पुन्हा एकदा हीच गोष्ट सिद्ध झाली आहे. इतके कामगार आणि मजूर, कारागीर असेच खेड्याकडून शहराकडे नोकरीच्या आमिषानेच स्थलांतरित झाले आहेत. त्याचा अशा संकटाच्या वेळी केव्हढा परिणाम व्यवस्थेवर आणि त्यांच्याही जीवनावर पडलेला दिसतोय. आता तर शहराकडून खेड्यात जाऊन तिथली अर्थव्यवस्था भक्कम करण्याची वेळ आली आहे.

स्वामीजींनी अशा खेडूत लोकांबरोबर तरुण लोकांना पण दिशा देण्याचा प्रयत्न केला होता. त्यांनी तरुणांना संस्कृत भाषेचा अभ्यास करण्यासाठी प्रवृत्त केले होते. त्याचे काही प्राथमिक धडेही त्यांनी तरुणांना दिले कारण, संस्कृत शिकलं तरच भारताची परंपरा खर्‍या अर्थाने समजू शकेल असं त्यांना वाटत होतं. शिवाय पाश्चात्य देशात जे जे काही नवे ज्ञान असेल, नवे विचार असतील, त्याचाही परिचय भारतीयांनी करून घेतला पाहिजे. सर्व अभ्यासला शिस्त हवी, माहितीमध्ये रेखीवपणा हवा,नेमकेपणा  हवा. कोणत्याही विषयाच्या ज्ञांनाच्या बाबतीत परिपूर्णतेची आस हवी या गोष्टींवर स्वामीजींचा भर होता. हे गुण आपण भारतीयांनी पाश्चात्यांकडून घेतले पाहिजेत असे त्यांना वाटे.

त्यांचे नुसते तात्विक गोष्टींकडे च लक्ष होते असे नाही .इतके लोक भेटायला येत, त्यांना कोणाला कशाची गरज आहे या व्यावहारिक गोष्टींकडेही त्यांचे लक्ष असे. अलवर मुक्कामात एका गरीब ब्राम्हणाला आपल्या मुलाची मौंज करण्याची इच्छा होती पण त्याची तेव्हढी आर्थिक परिस्थिति नव्हती. तेंव्हा स्वामीजींनी लोकांना विनंती केली की सर्वांनी वर्गणी गोळा करून, त्या मुलाची मौंज करावी. सर्वांनी संमती दिली. पण पुढे स्वामीजी जेंव्हा अबुला गेले तेंव्हा त्यांनी तिथल्या अनुयायला पत्र लिहून विचारले की, सांगितलेल्या सर्व गोष्टी चालू आहेत ना आणि त्या ब्राम्हणाच्या मुलाची मौंज झाली का हे ही विचारले.

अशा प्रकारे स्वामीजींनी पुढच्या प्रवासाला गेल्यावर आधीच्या मुक्कामातल्या लोकांशी पत्र संवाद चालू केला. संपर्क ठेवला आणि उपदेश पण करत राहिले. परिव्राजक म्हणून फिरताना ते कुठेही गुंतून पडत नव्हते पण  पत्र लिहिणे, संबंधित लोकांचे पत्ते लक्षात ठेवणे, जपून ठेवणे या नव्या व पूरक गोष्टी अनुभावातून त्यांनी स्वीकारल्या होत्या आणि यातूनच मग स्वामीजींनी आपल्या वराहनगरच्या मठातील गुरुबंधूंना संपर्कात राहण्यासाठी पत्र लिहिणे सुरू केले.

अलवरचा निरोप घ्यावा असं त्यांना वाटलं, सात आठवडे झाले होते इथे येऊन. त्यात अनेकांनी अनुयायित्व पत्करल होतं. खूप हितचिंतक जमवले होते. प्रवास पुढे सरकत होता तसे त्यांच्या अडचणी कमी होत होत्या. मोठ्या संख्येने लोक ओळखू लागले होते. पुढे पुढे तर, पुढच्या मुक्कामाला कोणीतरी परिचय पत्र द्यायचे ते बर्‍याच वेळा आधीच्या मुक्कामातील प्रभावित झालेली व्यक्तीच असायची. सहज ही सोय व्हायची, पण त्यांनी स्वत: कधी अशा सोयीसाठी प्रयत्न केला नव्हता.

अलवर सोडून स्वामीजी आता जयपूरला पोहोचले. यावेळी अलवरचे त्यांचे खूप हितचिंतक लोक त्यांना सोडायला त्यांच्या बरोबर पन्नास साठ किलोमीटर पर्यन्त आले होते. यावरून स्वामीजींच्या सहवासाचा परिणाम कसा होत होता याची कल्पना येते.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 26 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 26 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

३७.

प्रवास संपत आला असं वाटलं होतं,

माझ्या शक्तीची मर्यादा गाठली असं वाटलं होतं,

माझ्या समोरचा मार्ग संपलाय असं वाटलं होतं,

शिदोरी संपलीय आणि शांत विजनवासात आसरा घ्यावा असं वाटलं होतं. . . .

 

आता वाटतंय तुझ्या माझ्यावरील मर्जीला

अजून शेवट नाही.

जुने- पुराणे शब्द तोंडातून

बाहेर पडायचे थांबतात,

तेव्हा  ऱ्हदयातून नवी धून निघते,

जुने मार्ग नजरेआड होतात,

तेव्हा आश्चर्ययुक्त  नवा प्रदेश दिसू लागतो.

 

३८.

‘तू मला हवास, तू मला हवास. . . . . ‘

असंच सतत माझं काळीज

चिरंतनपणे घोकीत राहो.

तुझं अस्तित्व विसरायला लावणाऱ्या

सर्व वासना मिथ्या, पोकळ आहेत

 

रात्रीच्या अंधारात

प्रकाशाची विनवणी दडलेली असते.

तसाच तू हवास, फक्त तू हवास. . .

ही हाक माझ्या अजाणपणाच्या

गर्भात दडलेली असावी

 

सर्व शक्तिनिशी वादळ शांततेला धडक देतं

तेव्हा त्याला शांततेची ओढ असते.

तसेच माझी बंडखोरी तुझ्या प्रेमाशी टक्कर घेते,

तेव्हा सुध्दा ‘ तू हवास’ फक्त ‘तू हवास’ अशी

साद ती घालते.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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