हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #120 – बाल कथा – “सूरज की कहानी” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक बाल कथा – “सूरज की कहानी ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 120 ☆

☆ बाल कथा – सूरज की कहानी ☆ 

सूरज उस के पास आ रहा था. राहुल ने सपना देखा.

“मैं बहुत थक चुका हूं. क्या तुम्हारे पास बैठ कर बतिया सकता हूं?” उस ने पूछा.

“हां क्यों नहीं सूरजदादा,” कह कर राहुल ने पूछा, “मगर आप आए कितनी दूर से हैं ?”

सूरज ने राहुल के पास बैठते हुए बताया, “मैं इस धरती 9 करोड़ 30 लाख मील दूर से आया हूं,” यह कह कर उस ने पूछा, “क्या तुम्हें मेरा आना अच्छा नहीं लगा?” 

“नहीं नहीं, ऐसी बात नहीं है. सरदी में आप अच्छे लगते हो, मगर गरमी में बुरे. ऐसा क्यों?”

“क्योंकि मैं सरदी में कर्क रेखा से हो कर गुजरता हूं. इसलिए मैं कम समय तक चमकता हूं. तिरछा होने से मेरा प्रकाश धरती पर कम समय तक के लिए पड़ता है. इस कारण ठंड में तुम्हें मेरी गरमी चुभती नहीं है.”

“मतलब, आप गरमी में धरती के पास आ जाते हैं?” 

“नहीं, मैं सदा एक ही दूरी पर रहता हूं. मगर गरमी में मेरे मकर रेखा पर आने से मेरा प्रकाश सीधा पड़ता है. मैं ज्यादा समय तक धरती के जिस भाग पर चमकता हूं, वहां का मौसम बदल जाता है, यानी गरमी आ जाती है?” 

“यानी कि आप आकाश के अकेले ही राजा हैं?”

तब सूरज बोला, “नहीं राहुल, आकाश में मेरे जैसे अरबों खरबों सूरज हैं. इन के अतिरिक्त 1,000 करोड़ से अधिक सूरज लुकेछिपे भी हैं.” 

“लेकिन सूरजदादा, वे हमें दिखाई क्यों नहीं देते?”

“क्योंकि वे धरती से करोड़ों अरबों किलोमीटर दूर होते हैं, ” सूरज ने आकाश की ओर इशारा करते हुए बताया, “वे जो तारे देख रहे हो न, वे सब बड़ेबड़े सूरज ही हैं.” 

“अच्छा.”

“हां, मगर जानते हो, हम में प्रकाश कहां से आता है?” सूरज ने प्रश्न किया.

“नहीं तो?” राहुल ने गरदन हिला कर कहा तो सूरज बोला, “हम में 85 प्रतिशत हाइड्रोजन गैस होती है. यह गैस अत्यंत ज्वलनशील होती है. यह निरंतर जलती रहती है. इस कारण हम प्रकाशमान प्रतीत होते हैं.”

“मतलब यह है कि जब यह हाइड्रोजन गैस समाप्त हो जाएगी, तब आप खत्म हो जाएंगे?”

“हां” मगर यह गैस 50 करोड़ वर्ष तक जलती रहेगी, क्योंकि हमारी आयु 50 करोड़ वर्ष मानी गई है.”  

“अच्छा, पर यह बताइए कि आप कितनी हाइड्रोजन जलाते हो?” राहुल ने पूछा.

“मैं प्रति सेकंड 60 करोड़ टन हाइड्रोजन गैस जलाता हूं.” सूरज ने यह कहते हुए पूछा. “क्या तुम्हें मालूम है, मेरा आकार कितना बड़ा है.”

“नहीं, आप ही बताइए न.”

“मुझ में 10 लाख पृथ्वियां समा सकती हैं. मैं इतना बड़ा हूं.”

“मगर, आप काम क्या करते हैं?”

“अरे राहुल, तुम्हें इतना भी नहीं मालूम. मेरी उपस्थिति में ही पेड़पौधे भोजन बनाते हैं. जिस की क्रिया के फलस्वरूप आक्सीजन बनती है, जिस से आप लोग सांस के जरिए ग्रहण कर जिंदा रहते हैं. यदि मैं ठंडा हो जाऊं तो धरती बर्फ में बदल जाए. पेड़पौधे, जीवजंतु सब नष्ट हो जाएं. “यानी आप बहुत उपयोगी हो?”

“हां,” सूरज ने कहा. फिर उठ कर चलते हुए बोला, “अच्छा बेटा, मैं चलता हूं. सुबह के 6 बजने वाले हैं.”

तब तक राहुल की नींद खुल चुकी थी. वह बहुत खुश था, क्योंकि उस ने सपने में बहुत अच्छी जानकारी प्राप्त की थी.

उस ने अपने सपने के बारे में अपने मातापिता को बताया तो वे बोले, “चलो, तुम्हें कुछ नई जानकारी तो मिली.”

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 129 ☆ प्रेरणाप्रद दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 129 ☆

प्रेरणाप्रद दोहे  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

जीवन क्या देखो सखे

छिपा आज में राज।

जीवन वह ही धन्य है

करता शुभ शुभ काज।।

 

आज बहुत छोटा , बड़ा

यही सत्य आनन्द।

गरिमा का सौंदर्य यह

ये ही परमानन्द।।

 

आज बने अस्तित्व निज

यह ही प्राण समान।

इस पर ही बनते रहे

सुंदर कई मकान।।

 

बीता कल इक स्वप्न है

कल आए वह काल।

मात्र कल्पना सदृश यह

टूटेंगे सुर – ताल।।

 

जिओ आज भरपूर तुम

मन हो मालामाल।

कल बन जाए स्वर्ण – सा

कमल खिलें नित ताल।।

 

कर लो स्वागत आज का

लाए यही सुभोर।

जो जाने इस राज को

मन में नाचें मोर।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #128 – नवं घर…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 128 – नवं घर…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

जेव्हा शब्द..

समुद्राच्या लाटांसारखे

वागू लागतात..

तेव्हा तू समजून जातेस

शब्दांचा मनाशी चाललेला

पाठशिवणीचा खेळ..!

पण मी मात्र..,

शब्दांची वाट पहात

बसून राहतो

तासनतास

कारण….

मला खात्री आहे

शब्द दमल्यावर

ह्या को-या कागदावर

मुक्कामाला नक्की येतील..!

कारण शब्दांनाही हवं असतं

को-या कागदावरचं हक्काचं

असं ..नवं घर..!

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#151 ☆ तन्मय दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  “तन्मय दोहे…”)

☆  तन्मय साहित्य # 151 ☆

☆ तन्मय दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

तृष्णाओं के जाल में, उलझे हैं दिन-रैन।

सुख पाने की चाह में,  और-और बेचैन।।

जीवन  से  गायब  हुआ,  शब्द  एक  संतोष।

यश,पद,धन के लोभ में, खाली मन का कोष।।

दर्पण में दिखने लगे, भीतर के अभिलेख।

शांतचित्त एकाग्र हो,  पढकर उनको देख।।

नव-संस्कृति के दौर में, शिष्टाचार उदास।

रंग- ढंग बदले सभी, बदले सभी लिबास।।

व्यर्थ प्रदर्शन चल रहे, भीड़ भरे बाजार।

बदन उघाड़े विचरते, अधुनातन परिवार।।

है प्रवेश बाजार का, घर में अब  निर्बाध।

विज्ञापन भ्रम जाल में, बढ़े ठगी-अपराध।।

कभी हँसे, रोयें कभी, जीवन हुआ कुनैन।

भागदौड़ की जिंदगी, पलभर मिले न चैन।।

भूल रहे निज बोलियाँ, भूले निज पहचान।

नव विकास की दौड़ में, भटक गया इंसान।।

नव-विकास की दौड़ में,  मची हुई है होड़।

धर्म-कर्म जो हैं नियत, सब को पीछे छोड़।।

हो जाने पर गलतियाँ, या अनुचित संवाद।

तनिक ग्लानि होती नहीं, होता नहीं विषाद।।

प्रगतिवाद के दौर  में, संस्कृति का उपहास।

निजता पर भी आँच है, भस्मासुरी विकास।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 40 ☆ कविता – श्मशान बस्ती… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता श्मशान बस्ती ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 40 ✒️

? कविता – श्मशान बस्ती… — डॉ. सलमा जमाल ?

(स्वतंत्र कविता)

मेरे एक मित्र

हैं सचरित्र ,

मिले राह में

कहने लगे

बात ही बात में,

“कष्ट करो घर का पता

बताने का

ताकि हो दर्शन

ग़रीब खाने का ” ।।

 

हम अचकचाए

उनसे मिलने पर

पछताए,

कहा-

” हम हैं लाचार ,

मत करो हम पर

अत्याचार ,

हमारी है ऐसी बस्ती

जहां निवास करती हैं

एक से एक हस्ती ।

 

हैं ऐसी महान,

संध्या समय बस्ती

लगती है श्मशान ,

प्रत्येक चेहरे पर

स्वार्थ की फ़टकार

बरसती है ,

होंठों पर आने को

मुस्कान तरसती है ,

वहां का प्रत्येक व्यक्ति

आपको प्रेत लगेगा ।

झाड़-फूंक से भी इलाज

उसका ना हो सकेगा ,

सब कुछ महंगा है ,

सिर्फ़ नीचता सस्ती है ।

 

मित्र बोले –

“बस करो,

या इलाही

यह कौन सी बस्ती है ” ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 50 – Representing People – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 50 – Representing People – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.

समूहों का प्रतिनिधित्व करना याने पहले उनका विश्वास अर्जित करना ही होता है. उनकी भावनाओं और समस्याओं को समझना भी पड़ता है. समस्या का समाधान भले ही देर से हो या न हो पर भावनाओं के प्रति संवेदनशील होना वांछित होता है. प्रजातांत्रिक प्रणाली में प्रतिनिधि चुने तो जाते हैं पर चुने जाने के बाद निश्चिंतता, परत दर परत विश्वास को क्षीण भी करती जाती है. अलगाव, संवादहीनता, संपर्कहीनता,और असंवेदनशीलता वे शब्द और प्रवृत्तियां हैं जो विश्वास को अविश्वास में परिणित करते हैं.

गांधीजी और जयप्रकाश नारायण अपने स्वराज्य प्राप्ति और इमरजेंसी हटने और जनता की सरकार के लक्ष्य की प्राप्ति के बाद पटल से दूर हुये तो आंदोलनों से सृजित जनजन का उत्साह, समर्पण और त्याग की भावनाओं का जो ज्वार था, वो धीरे धीरे शांत होता गया. ये हर जनप्रतिनिधि की सबसे बड़ी क्षति होती है.

इस देश से भ्रष्टाचार हटे, चाहते सभी थे पर हट जायेगा ये उम्मीद शायद किसी को नहीं थी. भ्रष्टाचारी दंडित हों ताकि इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगे,इसके लिये लोकपाल की अवधारणा लेकर अन्ना हज़ारे अपने साथियों के साथ आगे आये पर आमरण अनशन करना और फिर उसे तोड़ने के लिये मनाने में ही पूरा खेला चलता रहा. जनआकांक्षाओं को आकार देता आंदोलन, जनआंदोलन तो बना पर हासिल कुछ कर नहीं पाया. भ्रष्टाचार पर अंकुश न लगना था न लगा और ये उस जनप्रतिनिधित्व की असफलता थी जिसने भावनाओं को उभारा और फिर साथियों सहित पटल से गायब हो गये.

जनआकांक्षाओं को लेकर किये गये आंदोलनों से जब जनप्रतिनिधि या नेतृत्व ओझल हो जाते हैं तो एक शून्य सा बन जाता है. इन जागृत भावनाओं को encash करने के लिये जो दोयम दर्जे के, डुप्लीकेट और स्वार्थी नेता, गद्दी पर विराजते हैं, इनकी पहचान लच्छेदार भाषा, चापलूसों का घेरा, विलासितापूर्ण जीवनशैली, घमंड और असभ्रांत भाषा शैली होती है. ये लोगों के दिलों में उम्मीद जगाते हैं और फिर बाद में डर प्रत्यारोपित करते हैं. अपनी जनप्रतिनिधित्व की अयोग्यताओं को दौंदने की कला से छुपाने की योग्यता से छुपाने में सिद्ध हस्त होते हैं. फरियादी की न केवल फरियाद गलत बल्कि वो भी गलत है, नेताजी का अपमान करने के लिये आया है, ये उनके आसपास इकट्ठे चापलूस बड़ी दबंगई से समझा देते हैं. अयोग्यता का एहसास, स्थायी रुप से आंतरिक भय में परिणित हो जाता है और वन टू वन संवाद की जगह दरबार और दरबारी प्रणाली का आश्रय लिया जाता है. लोकतंत्र और प्रजातंत्र की जगह दरबार तंत्र विकसित होता है. धीरे धीरे इस दरबार तंत्र के मायाजाल में ,समूह के ये नकली नुमाइंदे भ्रमित होकर उलझ जाते हैं और जब इनका दौर निकल जाता है तो इनके हिस्से में उपेक्षा, अपमान, उलाहने और धृष्टता ही आती है.जो इन्होंने बोया है, वही काटते हैं. भय तो पहले से ही होता है, इसके अतिरिक्त शंका, कुशंका, जनसमूह से संवादहीनता, तथाकथित धर्मगुरुओं की शरण स्थायी प्रतिफल है जो इनके साथी बनते हैं.

ये शायद अंत नहीं है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 151 ☆ दोन अश्रू… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 151 ?

☆ दोन अश्रू… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

पहाटे मोबाईल वाजला…..

  “अरूणा मुखर्जी”

     नाव वाचलं….

आणि काळजात धस्स !

नव्वदी ओलांडलेल्या ,

मावशींचं काही बरंवाईट??

 

क्वचितच कधीतरी

               फोन करणा-या

                या मावसबहिणीनं                                                                                                   –                    

               सांगितलं, 

“अगं दादा चा अॅक्सिडेंट झाला”

            पुन्हा..

                  कधी??

 इतकं च बोलले मी….

 

पुढचं वाक्य होतं–

                  “आणि त्यात तो गेला…

                 सव्वा महिन्यापूर्वी…

तुला कळवायचं राहून गेलं!”

 

            ”  अं…

             अहो, दोन महिन्यांपूर्वी

              येऊन गेले माझ्या कडे

                      अचानकच !”

 

             “हो,असं ब-याचजणांना

                       भेटून गेला तो-

               कोण कोण सांगत होते”

 

” विना हेल्मेट बाईक वरून

             जात  असताना ,

                उडवलं कोणीतरी…

               डोक्याला मार लागला. “

              ……

मला दादांची शेवटची भेट

      आठवत राहिली……

एका मोठ्या अपघातातून

 बरे होऊन ते

माझ्या घरी आले होते!

“मी आता

व्यवस्थित बरा झालो,

वाॅकर, काठी शिवाय

 चालू शकतो!

जिना ही चढू शकतो!”

 

जिना चढून, उत्साहाने पाहिली त्यांनी,

टेरेस वरची बाग !

 

खाद्यपदार्थांची 

आणि चहाची तारीफ करत,

    मनसोक्त गप्पा…

हास्य विनोद…

 

प्राध्यापक….

   जवळचा नातेवाईक…

      मावसभाऊ….

    कोण गेलं??

 

वयाच्या शहात्तराव्या वर्षी

विना हेल्मेट बाईक वरून

   जाताना अपघाती मृत्यू…..

     इतकीच नोंद,

  संपलं  एक  अस्तित्व!

   नाती दूर जातात..

नाहीशी होतात…

     “सारे घडीचे प्रवासी!”

 

हीच तर जगरहाटी!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 52 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  द्वारा आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को श्री मनोज जी की भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं।

✍ मनोज साहित्य # 52 – मनोज के दोहे….  

1 अंजन

आँखों में अंजन लगा, माँ ने किया दुलार।

कोई नजर न लग सके, किया मातु उपचार।।

 

2 आनन

आनन-फानन चल दिए, पूँछ न पाए हाल।

सीमा पर वापस गए, चूमा माँ का भाल।।

 

आनन(चेहरा)

आनन पढ़ना यदि सभी, लेते मिलकर सीख।

दश-आनन को द्वार से, कभी न मिलती भीख।।

 

गज-आनन की वंदना, करती बुद्धि विकास ।

दुख की हटती पोटली, बिखरे ज्ञान उजास ।।

 

3 आमंत्रण

आमंत्रण है आपको, खुला हुआ है द्वार।

प्रेम पत्रिका है प्रिये, करता हूँ मनुहार।।

 

4 आँचल

माँ का आँचल है सुखद, मिले सदा ही छाँव।

कष्टों से जब भी घिरा, मिली गोद में ठाँव।।

 

5 अलकें

घुँघराली अलकें लटक, चूमें अधर कपोल।

कान्हा खड़े निहारते, झूल रहीं हिंडोल।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -4 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 4 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

प्रातः भ्रमण

हमारे देश में उत्तम स्वास्थ्य के लिए प्रातः काल के भ्रमण को सर्वोत्तम बताया जाता हैं। इसी मान्यता का पालन करने के लिए हम भी दशकों से प्रयास रत हैं। पूर्ण रूप से अभी तक सफलता प्राप्त नहीं हुई हैं। इसी क्रम में विदेश में कोशिश जारी हैं।

घड़ी के हिसाब से भोर की बेला में तैयार होकर जब घर से बाहर प्रस्थान किया तो देखा सूर्य देवता तो कब से अपनी रोशनी से धरती को ओतप्रोत कर चुके हैं। घड़ी को दुबारा चेक किया तो भी लगा की अलसुबह सूर्य के प्रकाश का तेज तो दोपहर जैसा प्रतीत हो रहा था। हवा ठंडी और सुहानी थी, इसलिए मेज़बान की सलाह से पतली जैकेट जिसको अंग्रेजी मे विंड चीटर का नाम दिया गया, पहनकर चल पड़े, सड़कें नापने के लिए। हमें लगा यहां के लोग तो बहुत धनवान हैं, इसलिए  देर रात्रि तक जाग कर सुबह देरी से उठते होंगे, परंतु ये तो हमारा भ्रम निकला। सड़क पर बहुत सारे युवा, वृद्ध प्रातः भ्रमण कर रहें थे। कुछ ने हमारा अभिवादन भी किया। अच्छा लगा कि यहां भी संस्कारी लोग रहते हैं। हमारे देश में तो अनजान व्यक्ति को तो अब लोग अच्छी दृष्टि से देखते भी नहीं हैं, अभिवादन तो इतिहास की बात हो गई हैं। हम लोग तो अपने पूर्वजों के संस्कारों को तिलांजलि दे चुके हैं।

सड़कें इतनी साफ और स्वच्छ थी, हमें लगा, हमारे चलने से कहीं गंदी ना हो जाएं। कहीं पर भी कोई कागज़, गुटके के खाली पैकेट भी नहीं दिखाई दे रहे थे। विदेश की सफाई और स्वच्छता के बारे में सुना और पढ़ा था, आज अपनी आँखों से देखा तब जाकर विश्वास हुआ की इतनी स्वच्छता भी हमारे ब्रह्मांड पर हो सकती हैं।

यहां के अधिकतर नागरिक सैर के समय अपने श्वान को साथ लेकर चल रहे थे, अगले भाग में श्वान चर्चा करेंगे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 139 – नव दूर्गा की आराधना ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी नवरात्रि पर्व पर आधारित एक भक्ति गीत  “नव दूर्गा की आराधना”।) 

श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 139 ☆

☆ भक्ति गीत 🌿 🔥 नव दूर्गा की आराधना 🔥

 कर नव दुर्गा आराधना, भाव भक्ति के साथ।

सकल मनोरथ पूर्ण हो, बने बिगड़ी बात।

🕉️

आज भवानी चल पड़ी, होके शेर सवार।

भक्तों का करती कल्याण, दुष्टों का संहार।

🕉️

श्वेत वस्त्र हैं धारणी, कमल पुष्प लिए हाथ।

बटुक भैरव चल पड़े, माँ भवानी के साथ।

🕉️

शक्ति का है रुप निराला, भक्ति से भवपार।

श्रद्धा से सुमिरन करें, भर देती माँ भंडार।

🕉️

ऊँचे पर्वत वासिनी, कहीं गुफा में निवास।

आन पडे जो शरण में, पूरण करती आस । 

🕉️

कालचक्र इनकी गति, आगम निगम बखान।

होते दिन अरु रात हैं, सब पर कृपा महान।

🕉️

लाल ध्वजा लहरा रहीं, ओढ़े चुनरियां लाल।

अस्त्र शस्त्र लिए हाथ में, अर्ध चन्द्रमा भाल।

🕉️

कहीं होती शक्ति पूजा, कहीं गरबे की रात।

ढोल मंजीरे बज उठे, कहीं बाँटे प्रसाद।

🕉️

कर सोलह श्रृंगार माँ, बैठी आसन बीच।

सबका मन मोह रही, मधुर मुस्कान खींच।

🕉️

बोए जवारे भाव से, माँ भवानी से प्रार्थना।

सुख शांति वैभव लक्ष्मी, पूरी हो आराधना।

🕉️

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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