.. अग थांब चारूलते! तो मनोहारी भ्रमर ते कुमुदाचे कुसुम खुडताना उडून गेला पण माझं लक्ष विचलित करून गेला. त्याकडे पाहता पाहता नकळत माझं पाऊल बाभळीच्या कंटकावर की गं पडले… आणि तो कंटक पायी रूतला.. एक हस्त तुझ्या स्कंधावरी ठेवून पायीचा रूतलेला कंटक चिमटीने काढू पाहतेय.. पण तो कसला निघतोय! अगदी खोलवर रुतून बसलाय.. वेदनेने मी हैराण झाले आहे बघ… चित्त थाऱ्यावर राहिना… आणि मला पुढे पाऊल टाकणे होईना.. गडे वासंतिका, तू तर मला मदत करतेस का?..फुलं पत्री खुडून जाहली आणि आश्रमी परतण्याच्या मार्गिकेवर हा शुल टोचल्याने विलंब होणारसे दिसतेय… तात पूजाविधी करण्यासाठी खोळंबले असतील..
.. गडे चारुलते! अगं तरंगिनीच्या पायी शुल रुतूनी बसला.. तो जोवरी बाहेर निघून जात नाही तोवरी तिच्या जिवास चैन पडणार कशी?.. अगं तो भ्रमर असा रोजचं तिचं लक्ष भुलवत असतो.. आणि आज बरोबर त्यानं डावं साधला बघ… हा साधा सुधा भ्रमर नव्हे बरं. हा आहे मदन भ्रमर . तो तरंगिनीच्या रूपावरी लुब्ध झालाय आणि आपल्या तरंगिनीच्या हृदयात तोच रुतलाय समजलीस… हा पायी रूतलेला शुल पायीचा नाही तर हृदयातील आहे… यास तू अथवा मी कसा बाहेर काढणार? त्याकरिता तो ऋषी कुमार, भ्रमरच यायला हवा तेव्हा कुठे शुल आणि त्याची वेदना शमेल बरं… आता वेळीच तरंगिनीच्या तातानां हि गोष्ट कानी घालायला हवी…आश्रम प्रथेनुसार त्या ऋषी कुमारास गृहस्थाश्रम स्वीकारायला सांगणे आले नाही तर तरंगिनीचे हरण झालेच म्हणून समजा.
गडे तंरगिनी! हा तुला रूतलेला मदन शुल आहे बरं तू कितीही आढेवेढे घेतलेस तरी आम्हा संख्यांच्या लक्षात आलयं बरं.. तो तुझ्या हृदय मंदिरी रुतून बसलेला तो ऋषी कुमार रुपी भ्रमराने तुला मोहविले आहे आणि तुझे चित्त हरण केलयं… हि हृदय वेदना आता थोडे दिवस सहन करण्याशिवाय गत्यंतर नाही.. पाणिग्रहण नंतरच हा दाह शांत होईल.. तो पर्यंत ज्याचा त्यालाच हा दाह सहन करावा लागतो..
.. चला तुम्हाला चेष्टा सुचतेय नि मला जीव रडकुंडीला आलाय… अश्या चेष्टेने मी तुमच्याशी अबोला धरेन बरं..
हो हो तर आताच बरं आमच्याशी अबोला धरशील नाहीतर काय.. त्या भ्रमराची देखील चेष्टा आम्ही करु म्हणून तूला भीती वाटली असणारं… आता काय आम्ही सख्खा परक्या आणि तो परका ऋषी कुमार सखा झालायं ना.. मग आमच्याशी बोलणचं बंद होणार…
.. चला पुरे करा कि गं ती थट्टा..आश्रमाकडे निघायचं पाहताय की बसताय इथंच . ..
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘अब अहिल्या को राम नहीं मिलते’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 112 ☆
☆ लघुकथा – अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
पुलिस की रेड पड़ी थी। इस बार वह पकड़ी गई। थाने में महिला पुलिस फटकार लगा रही थी – ‘ शर्म नहीं आती तुम्हें शरीर बेचते हुए? औरत के नाम पर कलंक हो तुम। ‘ सिर नीचा किए सब सुन रही थी वह। सुन – सुनकर पत्थर- सी हो गई है। पहली बार नहीं पड़ी थी यह लताड़, ना जाने कितनी बार लोगों ने उसे उसकी औकात बताई है। वह जानती है कि दिन में उसकी औकात बतानेवाले रात में उसके दरवाजे पर खड़े होते हैं पर —।
महिला पुलिस की बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था। उसे अपनी बात कहने का हक है ही कहाँ? यह अधिकार तो समाज के तथाकथित सभ्य समाज को ही है। उसे तो गालियां ही सुनने को मिलती हैं। वह एक कोने में सिर नीचे किए चुपचाप बैठी रही। बचपन में माँ गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या की कहानी सुनाती थी। एक दिन जब ऋषि कहीं बाहर गए हुए थे तब इंद्र गौतम ऋषि का रूप धरकर उनकी कुटिया में पहुँच गए। अहिल्या इंद्र को अपना पति ही समझती रही। गौतम ऋषि के वापस आने पर सच्चाई पता चली। उन्होंने गुस्से में अहिल्या को शिला हो जाने का शाप दे दिया। पर अहिल्या का क्या दोष था इसमें? वह आज फिर सोच रही थी, दंड तो इंद्र को मिलना चाहिए?
उसने जिस पति को जीवन साथी माना था, उसी ने इस दलदल में ढ़केल दिया। जितना बाहर निकलने की कोशिश करती, उतना धँसती जाती। अब जीवन भर इस शाप को ढ़ोने को मजबूर है। सुना है अहिल्या को राम के चरणों के स्पर्श से मुक्ति मिल गई थी। हमें मुक्ति क्यों नहीं मिलती? उसने सिर उठाकर चारों तरफ देखा। इंद्र तो बहुत मिल जाते हैं जीती-जागती स्त्री को बुत बनाने को, पर कहीं कोई राम क्यों नहीं मिलता?
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सेवा भाव के बहाने…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 138 ☆
☆ सेवा भाव के बहाने… ☆
सेवक राम जी चारों ओर अपने कार्यों का ढिंढोरा पीट रहे थे। हर रविवार अखबारो में फ्रंट पेज पर उनकी उपस्थिति लगभग तय रहती है। समाज सेवा का उनका बरसों पुराना अनुभव रहा है। ये बात अलग है कि लोगों ने उनको देर से पहचाना।
अपनी तारीफ करने के चक्कर में अनजाने ही वो कुछ ऐसा भी बोल देते हैं कि अपने बिछाए जाल में खुद फंसने लगते। किन्तु उनके सूत्र उन्हें पहले ही आगाह कर देते हैं सो वे बच जाते और बिचौलिए पकड़ जाते। उनकी एक खूबी और है कि वो भावनाओं को पहचान कर रिश्ते बनाने में माहिर हैं, सबसे रिश्ते जोड़ते हुए काम पड़ने पर उनका इस्तेमाल करना और फिर दूध में पड़ी मख्खी की तरह फेक देना। एक – एक करके विश्वसनीय व्यक्तियों को दूर करने के बाद स्वघोषित महाराज बनने का सुकून उनके चेहरे पर साफ देखा जा सकता है। ये बात अलग है कि दूसरों को धोखा देने के लिए चेहरा उतारने की नाकाम कोशिश लगातार की जा रही है। उनके बारे में लोगों ने जो भी भविष्यवाणी की है वो सब सामने आती जा रहीं हैं किंतु वे तो सेवक हैं सो अपने नाम के अनुरूप सेवा देना आखिरी दम तक जारी रखेंगे। अन्ततः यही मुक्तक याद आ रहा है-
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है श्री अमृतलाल मदान जी की पुस्तक “आधा पुल को पूरा करते बच्चे ” की पुस्तक समीक्षा।)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘आधा पुल को पूरा करते बच्चे’– श्री अमृतलाल मदान ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
बच्चों का उपन्यास बच्चों के लिए हो तो सार्थकता बढ़ जाती है। बच्चा क्या चाहता है? यह आपको पता हो तो बच्चे के उपन्यास की कहानी में प्रवाह बढ़ जाता है। क्योंकि आप स्वयं बच्चा बनकर अपने उपन्यास लिखने को उत्सुक हो जाते हैं।
बच्चों के लिखे उपन्यास की अपनी कुछ विशेषताएं होती है। उसमें आरंभ से उत्सुकता का समावेश हो जाता है। वाक्य छोटे-छोटे होते हैं। उसकी भाषा शैली सरल व रोचक होती है। हर एक भाग में कथा व उसका प्रवाह बना रहता है।
समीक्ष्य उपन्यास आधा पुल को इसी कसौटी पर कस कर देखते हैं। तब हमें पता चलता है कि उपन्यास- आधा फुल का कथानक बहुत रोचक है। इसका पात्र- मोनी अपनी व्यथा से परेशान है। वह चाहता है कि मम्मी-पापा में सुलह हो जाए। इसी कथानक पर पूरी कथा चलती है।
इसी में एक उपपात्र भी है। मोनी की सहायता करता है। उसी के बीच कथा का पूरा कथानाक मुकम्मल होता है। उसी पात्र के द्वारा मुख्य पात्र अपने उपन्यास के प्रवाह को अंत तक बनाए रखता है।
उपन्यास की भाषा सरल, सहज व रोचक है। उपन्यास की कथा कभी अतीत को छूते हुए निकलती है। कभी वर्तमान में आ जाती है। कभी भविष्य के सपने बुनने लगती है। इसी के द्वारा वह अपने रिश्ते के अधुरे पुल को पूरा करने का स्वप्न देखता है।
शैली के रूप में संवाद का उत्कृष्ट उपयोग किया गया है। पूरा उपन्यास संवादशैली में लिखा है। आवश्यकता अनुसार वर्णन भी किया गया है। 25 भाग में बंटे इस उपन्यास का अंत भी रोचक है।
उपन्यास के उपन्यासकार अमृतलाल मदान की संपूर्ण उपन्यास पर पकड़ बनी रहती है। कहीं-कहीं पात्र स्वयं चलने लगते हैं। साजसज्जा की दृष्टि से मुखपृष्ठ आकर्षक है। त्रुटि रहित छपाई और पठनीयता की दृष्टि से उपन्यास बढ़िया बन पड़ा है। पृष्ठ संख्या के हिसाब से मूल्य वाजिब हैं।
कोरोनाकाल में रचित उपन्यास का बाल साहित्य के क्षेत्र में हार्दिक स्वागत किया जाएगा। इसी आशा के साथ उपन्यासकार को हार्दिक बधाई।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – किताबों के मेले।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 198 ☆
व्यंग्य – किताबों के मेले –
कलमकार जी अपने गांव से दिल्ली आये हुये थे किताबो के मेले में. दिल्ली का प्रगति मैदान मेलो के लिये नियत स्थल है, तारीखें तय होती हैं एक मेला खत्म होता है, दूसरे की तैयारी शुरू हो जाती है. सरकार में इतने सारे मंत्रालय हैं, देश इतनी तरक्की कर रहा है, प्रदर्शन के लिये, मेले की जरूरत होती ही है. साल भर मेले चलते रहते हैं.
मेले क्या चलते रहते हैं,लोग आते जाते रहते हैं तो चाय वाले की, पकौड़े वाले की, फुग्गे वाले की आजीविका चलती रहती है. इन दिनो किताबो का मेला चल रहा है. चूंकि मेला किताबों का है, शायद इसलिये किताबें ज्यादा हैं आदमी कम. जो आदमी हैं भी वे लेखक या प्रकाशक, प्रबंधक ज्यादा हैं, पाठक कम.
लगता है कि पाठको को जुटाने के लिये पाठको का मेला लगाना पड़ेगा.
मेले में तरह तरह की किताबें हैं. झोला लटकाए बाल बढ़ाए, कुर्ता पहने कलमकार हैं।
कलमकार जी को सबसे पहले मिलीं रायल्टी देने वाली किताबें, ये ऐसी किताबें हैं, जिनके लिखे जाने से पहले ही उनकी खरीद तय होती है. इनके लेखक बड़े नाम वाले लोग होते हैं, कुछ के नाम उनके पद के चलते बड़े बन जाते हैं, कुछ विवादों और सुर्खियो में रहने के चलते अपना नाम बड़ा कर डालते हैं.
ये लोग आत्मकथा टाइप की पुस्तकें लिखते हैं. जिनमें वे अपने बड़े पद के बड़े राज खोलते हैं, खोलते क्या किताबों के पन्नो में हमेशा के रिफरेंस के लिये बंद कर डालते हैं.
इन किताबों का मूल्य कुछ भी हो, किताब बिकती है, लेखक के नाम के कांधे पर बिकती है. सरकारी खरीद में बिकती है. लेखक को रायल्टी देती है ऐसी किताब. प्रकाशक भी इस तरह की किताबें सजिल्द छापते हैं, भव्य विमोचन करवाते हैं, नामी पत्रिकायें इन किताबों की समीक्षा छापती हैं.
दूसरे तरह की किताबें होती हैं बच्चो की किताबें, अंग्रेजी की राइम्स से लेकर विज्ञान के प्रयोगो और इतिहास व एटलस की, कहानियों की, सुस्थापित साहित्य की, ये किताबें प्रकाशक के लिये बड़ी लाभदायक होती हैं. इन रंगीन, सचित्र किताबों को खरीदते समय पिता अपने बच्चो में संस्कार, ज्ञान, प्रतियोगिताओ में उत्तीर्ण होने के सपने देखता है. बच्चे बड़ी उत्सुकता से ये किताबें खरीदते हैं, पर कम ही बच्चे इन्हें पूरा पढ़ पाते हैं, और उनमें से भी बहुत कम इनमें लिखा समझ पाते हैं. जो जीवन में इन किताबो को उतार लेता है, ये किताबें उन्हें सचमुच महान बना देती हैं. कुछ बच्चे इन किताबों के स्टाल्स के पास लगी रंगीन नोटबुक, डायरी, स्टेशनरी, गिफ्ट आइटम्स की चकाचौंध में ही खो जाते हैं, वे इन किताबों तक पहुंच ही नही पाते,ऐसे बच्चे बड़े होकर व्यापारी तो बन ही जाते हैं.
कलमकार जी ज्यों ही धार्मिक किताबो के स्टाल के पास से निकले तो ये किताबें पूछ बैठी हैं उनके आस पास सीनियर सिटिजन्स ही क्यों नजर आते हैं ? वह तो भला हो रेसिपी बुक्स ट्रेवलाग, काफी टेबल बुक्स, गार्डनिंग,गृह सज्जा और सौंदर्य शास्त्र के साथ घरेलू नुस्खों की किताबों के स्टाल का जहां कुछ नव यौवनायें भी दिख गईं कलमकार जी को.
एक बड़ा सेक्शन देश भर से पधारे,अपने खर्चें पर किताबें छपवाने वाले झोला धारी कलमकार जी जैसे कवियों और लेखको के प्रकाशको का था, ये प्रकाशक लेखक को अगले एडीशन से रायल्टी देने वाले होते हैं. करेंट एडीशन के लिये इन प्रकाशको को सारा व्यय रचनाकार को ही देना होता है, जिसके एवज में वे लेखक की डायरी को किताब में तब्दील करके स्टाल पर लगा देते हैं. किताब का बढ़िया सा विमोचन समारोह संपन्न होता है, विमोचन के बाद भी जैसे ही घूमता हुआ कोई बड़ा लेखक स्टाल पर आता है, किताब का पुनः लोकार्पण करवा कर हर हाथ में मोबाईल होने का सच्चा लाभ लेते हुये लेखक के फेसबुक पेज के लिये फोटो ले ली जाती है. ऐसा रचनाकार आत्ममुग्ध किताबों के मेले का आनन्द लेता हुआ, कोने के टी स्टाल पर इष्ट मित्रो सहित चाय पकौड़ो के मजे लेता मिलता है.
मेले के बाहर मेट्रो स्टेशन तक फुटपाथ पर भी विदेशी अंग्रेजी उपन्यासों का मेला लगा होता है, पुस्तक मेले की तेज रोशनी से बाहर बैटरी की लाइट में बेस्ट सेलर बुक्स सस्ती कीमत पर यहां मिल जाती हैं. दुनियां में हर वस्तु का मूल्य मांग और सप्लाई के इकानामिक्स पर निर्भर होता है, किन्तु किताबें ही वह बौद्धिक संपदा है, जिनका मूल्य इस सिद्धांत का अपवाद है, किसी भी किताब का मूल्य कुछ भी हो सकता है. इसलिये अपने लेखक होने पर गर्व करते और कुछ नया लिख डालने का संकल्प लिये कलमकार जी लौट पड़े किताबों के मेले से.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 149 ☆
☆ बाल कविता – शक्ति खुद की जानो जी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण नवगीत –“दूर जड़ों से हो कर……”।)