हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 162 ☆ वासुदेव: सर्वम्- ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 162 ☆ वासुदेव: सर्वम्- ☆?

अपौरूषेय आदिग्रंथ ऋग्वेद का उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

( 10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें।

ऋग्वेद द्वारा प्रतिपादित सामूहिकता का मंत्र मानुषिकता एवं एकात्मता का प्रथम अधिकृत संस्करण है।

अथर्ववेद एकात्मता के इसी तत्व के मूलबिंदु तक जाता है-

॥ मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।

सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥2॥

(3.30.3)

अर्थात भाई, भाई से द्वेष न करे, बहन, बहन से द्वेष न करे, समान गति से एक-दूसरे का आदर- सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें। 

आधुनिक विज्ञान जब मनुष्य के क्रमिक विकास की बात करता है तो शनै:-शनै: एक से अनेक होने की प्रक्रिया और सिद्धांत प्रतिपादित करता है। उससे हजारों वर्ष पूर्व भारतीय दर्शन और ज्ञान के पुंज भारतीय महर्षि एकात्मता का विराट भारतीय दर्शन लेकर आ चुके थे। महोपनिषद का यह श्लोक सारे सिद्धांतों और सारी थिअरीज की तुलना में विराट की पराकाष्ठा है।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

( अध्याय 4, श्लोक 71)

अर्थात यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।

मनुष्य की सामाजिकता और सामासिकता का विराट दर्शन है भारतीय संस्कृति। ’ॐ सह नाववतु’ गुरु- शिष्य द्वारा एक साथ की जाती प्रार्थना में एकात्मता का जो आविर्भाव है वह विश्व की अन्य किसी भी सभ्यता में देखने को नहीं मिलेगा। कठोपनिषद में तत्सम्बंधी श्लोक देखिये-

॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

इस तरह की सदाशयी भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है। उदय और अस्त का परम अद्वैत दर्शन है श्रीमद्भागवत गीता। गीता में स्वयं योगेश्वर कहते हैं-

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्॥

(गीता 10।39)

अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥

(11/ 7)

अर्थात, हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख।

एकात्म भाव का विस्तृत विवेचन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥

(6।30)

अर्थात् जो सबमें मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।’

इस अदृश्य का यह सारगर्भित दृश्य समझिये इस उवाच से-

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥

अर्थात जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूँ।

संपृक्त श्रीमद्भागवत के इस अनहद नाद को सुनिए-

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।

पश्चादहं यदेतच्च योडवशिष्येत सोडस्म्यहम

 (2।9।32)

अर्थात सृष्टि के पूर्व भी मैं ही था, मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं था और सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह दिखायी दे रहा है, वह मैं ही हूँ। जो सत्, असत् और उससे परे है, वह सब मैं ही हूँ तथा सृष्टि के बाद भी मैं ही हूँ एवं इन सबका नाश हो जाने पर जो कुछ बाकी रहता है, वह भी मैं ही हूँ।  

सांगोपांग सार है, ‘वासुदेव: सर्वम्।’ चर हो या अचर, वासुदेव के सिवा जगत में दूसरा कोई नहीं है। अत: कहा गया, चराचर में एक ही आत्मा देख, एकात्म हो।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 114 ☆ बुन्देली नवगीत –  लछमी मैया! ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  बुन्देली नवगीत – लछमी मैया!…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 114 ☆ 

☆ बुन्देली नवगीत –  लछमी मैया! ☆

लछमी मैया!

माटी का कछु कर्ज चुकाओ

*

देस बँट रहो,

नेह घट रहो,

लील रई दीपक खों झालर

नेह-गेह तज देह बजारू

भई; कैत है प्रगतिसील हम।

हैप्पी दीवाली

अनहैप्पी बैस्ट विशेज से पिंड छुड़ाओ

*

मूँड़ मुड़ाए

ओले पड़ रए

मूरत लगे अवध में भारी

कहूँ दूर बनवास बिता रई

अबला निबल सिया-सत मारी

हाय! सियासत

अंधभक्त हौ-हौ कर रए रे

तनिक चुपाओ

*

नकली टँसुए

रोज बहाउत

नेता गगनबिहारी बन खें

डूब बाढ़ में जनगण मर रओ

नित बिदेस में घूमें तन खें

दारू बेच;

पिला; मत पीना कैती जो

बो नीति मिटाओ

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

 

१०-४-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #146 ☆ आलेख – प्रायश्चित ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 146 ☆

☆ ‌आलेख – प्रायश्चित ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

आप ने आलेखों की श्रृंखला में पश्चाताप शीर्षक से आलेख पढ़ा था, जिसकी विषयवस्तु थी  कि किस प्रकार  मानव यथार्थ का ज्ञान होने पर अपनी गलतियों पर पश्चाताप करता है, और पश्चाताप की अग्नि में जल कर व्यक्ति के सारे अवगुण नष्ट हो जाते हैं। 

उसकी अंतरात्मा की गई गलतियों के लिए उसे हर पल कोसती रहती है आदमी का सुख चैन छिन जाता है, और वह अपनी आत्मा के धिक्कार को सह नहीं पाता । और इंसान प्रायश्चित करने के रास्ते पर चल पड़ता है अपने कर्मों का आत्म निरीक्षण करता है। इस प्रकार पश्चाताप जहां जहां गलतियों की स्वीकारोक्ति है, वहीं प्रायश्चित स्वीकार्यता का परिमार्जन अर्थात् सुधार है। इंसानी सोच बदल जाती है दशा और दिशा बदल जाती है। उसकी समझ बढ़ जाती है। उसके बाद इंसान फिर से गलतियां ना करने का दृढ़ संकल्प लेता है, तथा अपनी पूर्ववर्ती गलतियों का प्रायश्चित करने पर उतर आता है, और प्रायश्चित पूर्ण करने के लिए हर सजा भुगतने के लिए मानसिक रूप से खुद को तैयार कर लेता है।

या प्रकारांतर से ये कह लें कि प्रायश्चित  गलतियों को सुधारने के  अवसर का नाम है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

दिनांक 23–10–22  समय-12-10-22

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ वचन देई मला… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण – सुश्री नीलिमा खरे ☆

सुश्री नीलिमा खरे

अल्प परिचय 

बॅंकेतून रिटायर झाल्यावर काही वर्षे एका खाजगी कंपनीत काम केले.

कामाच्या व्यस्ततेमुळे मागे पडलेली वाचनाची आवड परत सुरू केली. कविता लेखनाची सुरुवात झाली. कवितेचे रसग्रहण हा प्रांत ही आवडू लागला आहे.

? काव्यानंद ?

☆ वचन देई मला… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण – सुश्री नीलिमा खरे ☆

डॉक्टर निशिकांत श्रोत्री यांच्या निशिगंध या काव्यसंग्रहात कवीने प्रेम विषयक विविध भाव वेगवेगळ्या कवितांतून वाचकांसमोर उलगडले आहेत. उदात्त ,शाश्वत ,समर्पित प्रेम तर कधी विरहाग्नीत होरपळणारे तनमन ,प्रतारणेतून अनुभवाला येणारे दुःख ,कधी प्रेमाच्या अतूटपणाबद्दल असलेला गाढ विश्वास आणि त्या विश्वासातून एकमेकांकडे मागितलेले वचन अशा विविध प्रेमभावना अत्यंत तरल पणे व तितक्याच बारकाव्याने आणि समर्थपणे काव्य रसिकांसमोर प्रस्तुत केल्या आहेत. या संग्रहातील वचन देई मला ही कविता अशीच प्रेमात गुंतलेल्या, रमलेल्या, प्रेमावर विश्वास असलेल्या प्रियकराचे भावविश्व आपल्यासमोर साकारते.

साधारणतः प्रियकर प्रेयसीला विसरतो अशी मनोधारणा असते.या कवितेचे वैशिष्ट्य असे की येथे प्रेयसी विसरेल अशी शंका प्रियकराच्या मनात आहे.रुढ मनोभावनेला छेद देणारी ही कविता लक्षवेधी ठरते.

कवितेतील प्रेयसी जर  कवितेतील प्रियकराला विसरली तर त्याच्या स्मृतीत तिने एक तरी अश्रू ढाळावा एवढी माफक अपेक्षा करणारा प्रियकर कवीने काव्य रसिकांसमोर शब्दांतून उभा केला आहे .

☆ वचन देई मला… डॉ निशिकांत श्रोत्री ☆

 विसरलीस जर कधी जीवनी एक वचन तू देइ मला

कधी झाकलो स्मृतीत तुझिया अश्रू एक तू ढाळ भला ।।ध्रु।।

 

प्रीत तरल ना देहवासना ही आत्म्याची साद तुला

एकरूप मी तव  हृदयाशी क्षण न साहवे द्वैत मला

पवित्र असता प्रेम चिरंतन विसरणार मी कसे तुला

कधी झाकलो स्मृतीत तुझिया अश्रू एक तू ढाळ भला ।।१।।

 

जगायचे ते तुला आठवत मरणही यावे तुज साठी

कधी न सुटाव्या शाश्वत अपुल्या प्रेमाच्या रेशिमगाठी

मृत्यूनंतर येउ परतुनि प्रेमपूर्तीची आंस मला

कधी झाकलो स्मृतीत तुझिया अश्रू एक तू ढाळ भला ।।२।।

 डॉ निशिकांत श्रोत्री

निशिगंध – रसग्रहण

प्रेम विश्वात रममाण असणाऱ्या प्रियकराच्या मनात उगीच शंका येते आणि तो प्रेयसीला म्हणतो की जर कधी जीवनात तू मला विसरलीस तरी एक वचन मात्र तू मला दे .ती विसरणार नाही याची खात्री विसरलीस जर या शब्दातून व्यक्त होते. तसेच पुढे तो म्हणतो की तू विसरलीस आणि जर कधी मी तुझ्या स्मृतीत डोकावलो म्हणजे त्याचा आठव जरी तिच्या मनात आला तर एक अश्रू मात्र तू ढाळ. भला हा शब्द अश्रूशी  निगडीत करताना तिच्या मनात त्याच्याविषयी कुठलाही गैरभाव ,गैरसमज नसावा हे सूचित केले आहे. विरह किंवा वियोग जर का झाला तर तो केवळ परिस्थितीमुळे होईल त्याच्या वर्तनाने नाही असा विश्वास या कवितेतून आपल्यासमोर व्यक्त केला गेला आहे .विसरली तरी प्रेयसी कडून वचन मागणारा, कधी तरी तिच्या स्मृतीत डोकावण्याची ,झाकण्याची मनोमन खात्री बाळगणारा हा प्रियकर मनाला मोहवून जातो.

ध्रुवपदामध्ये विसरलीस जर कधी ,तरी एक वचन दे, हा विरोधाभास मनाला भावतो.तसेच अश्रूला भला हे अत्यंत वेगळे विशेषण वापरले आहे.प्रियकराच्या सात्विक प्रेमाची साक्ष पटवणारा हा समर्पक शब्द कवितेतील आशयाला पुष्टी देतो.

 पहिल्या कडव्यात तो म्हणतो माझी प्रीत ही तरल निष्कलंक आहे .त्या भावनेत देहवासना,कामवासना नाही. तर ही आत्म्याची आत्म्याला साद आहे .तो खात्रीपूर्वक म्हणतो की तो तिच्या हृदयाशी एकरूप झाला आहे. ही समरसता, हे तादात्म्य आहे ते मनोमन झालेले आहे. त्यात अंतर नाही. त्यातले बंधन अनाठायी नाही.त्यामुळे कुठलेही ,कसलेही द्वैत अगदी क्षणा पुरते ही त्याला सहन होणार नाही.त्यांच्यातले प्रेम हे पवित्र तसेच चिरंतन आहे याची ग्वाही त्याच्या मनाला आहे त्यामुळे तो तिला कधीच विसरणार नाही हे ही तो स्पष्ट करतो. आणि असे असूनही जर कधी ती विसरली तर तो तिच्याकडून एकच वचन मागतो त्याच्या स्मृतीप्रीत्यर्थ एक भला अश्रू तिने ढाळावा.

देह व आत्मा यांचा उल्लेख प्रीतिला आध्यात्मिक उंची देतो.द्वैत व अद्वैत यांचा सुस्पष्ट व सुसंस्कृत विचार प्रेमाचा अर्थपूर्ण आविष्कार घडवतो.जे पवित्र ते चिरंतन हा साक्षात्कार प्रीतीच्या भावनेला पटणारा. एकरूप व द्वैत या विरोधाभासातून प्रीतिचे खरे स्वरूप प्रकटते. तुला, मला, भला अशा यमक सिध्दीने कवितेला सुंदर गेयता लाभली आहे.त्यामुळे कवितेतील भावार्थ सहजपणे लक्षात येतो.कवितेशी वाचकांची समरसता प्रस्थापित होते.

दुसऱ्या कडव्यात  प्रेयसीच्या केवळ एका अश्रूची  माफक अपेक्षा ठेवणारा तो म्हणतो की जे जगायचं ते तिला आठवत जगायचं आणि जर मरण आलं तर तेही तिच्यासाठी यावं असं त्याला वाटतं. सर्वस्व ,आपले जीवन तिच्यावर ओवाळून टाकण्याची त्याची मानसिक तयारी आहे. त्याच वेळी शाश्वत असलेल्या प्रेमाच्या रेशीमगाठी कधी न सुटाव्यात अशी योग्य व रास्त अपेक्षा तो बाळगून आहे .त्यांच्या प्रेमावर त्याची अढळ श्रद्धा आहे. त्यामुळे त्याला खात्री आहे जर कधी मृत्यू आला तर परत येऊन म्हणजे जणू काही पुनर्जन्म घेऊन आपण या इहलोकी परतू .कारण त्याला या प्रेमपूर्तीची आस आहे.स्वतः चे प्रेयसी वरील पवित्र,शाश्वत,निरंतर प्रेम याची कल्पना,जाण तिला देता देता प्राक्तनी कदाचित येईल अशा विरहाचा विचार त्याला सर्वथैव बैचेन करतो. त्यामुळे व्यथित तो प्रेयसीच्या प्रेमाविषयी खात्री असूनही साशंकता व्यक्त करतो.पण ती व्यक्त करताना ही त्यात तिच्या शाश्वत प्रेमाचा अर्थपूर्ण उल्लेख करतो.एकमेकांच्या सान्निध्यात जगत असताना चिरंतन प्रेमभावनेची जाण असूनही शाश्वत मरणाचे भान त्याला आहे.मृत्युने वियोग घडला तरी पुनर्जन्मी पुन्हा भेट होईल असा आशावाद व्यक्त केला आहे.तुजसाठी, रेशिमगाठी हे यमक साधले आहे.रेशिमगाठी शब्द वापरून प्रीतिची मुलायमता अधोरेखित केली आहे.

 संपूर्ण कवितेत प्रीत भावनेला सुयोग्य पणे व्यक्त करताना समर्पक व सुलभ शब्द योजना कवीने केली आहे.त्यामुळे प्रीतिचा तरल, पवित्र शाश्वत भाव मनाला स्पर्शून जातो.भावनेचा खरेपणा व त्यातली आर्तता मनाला भिडते.साहित्यिक अलंकारांचा अट्टाहास न ठेवता भावनेचा प्रांजळ पणा जपण्याचे भान कवीने ठेवले आहे. कवीची साहित्यविषयक, भाषाविषयक व काव्य विषयक सजगता यातून प्रतीत होते.साधी पण भावुकतेत न्हालेली ही कविता सर्वांना आवडेल अशीच आहे.

© सुश्री नीलिमा खरे

३-१०-२०२२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #163 – 49 – “ख़्वाब में तेरे जागते हुए सोते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ख़्वाब में तेरे जागते हुए सोते हैं…”)

? ग़ज़ल # 49 – “ख़्वाब में तेरे जागते हुए सोते हैं …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मैंने तो सच कहा तुम्हें बहाने लगे,

इश्क़ है तुम्हें कहने में ज़माने लगे।

नज़दीक आओ ज़रा पी लें इन्हें,

वस्ल में  ये आँसू क्यों बहाने लगे।

ख़्वाब में तेरे जागते हुए सोते हैं,

सोने दो यार  क्यों जगाने लगे।

हम समझे थे  तुम्हें नातजुर्वेकार,

बातों में यार तुम बड़े सयाने लगे।

बेकार का झगड़ा है  ये वस्ल-जुदाई,

शुकूं मिला जाम पे जाम चढ़ाने लगे।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 40 ☆ मुक्तक ।। भाई बहन के अटूट बंधन का प्रतीक भाई दूज का पर्व ।।☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।भाई बहन के अटूट बंधन का प्रतीक भाई दूज का पर्व।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 40 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।भाई बहन के अटूट बंधन का प्रतीक भाई दूज का पर्व।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

।। 1।।
भाई बहन के प्रेम स्नेह, का प्रतीक है भाई दूज।

एक तिलक की ताकत का, का यकीन है भाई दूज।।

सदियों से यही विश्वास, चलता चला आया है।

इसी अटूट बंधन की एक, लकीर है भाई दूज।।

।। 2।।
बहुत अनमोल पवित्र रिश्ता, भाई बहन का होता है।

बहन के हर दुख सुख में, भाई बहुत ही रोता है।।

रक्षा बंधन या त्यौहार हो, यह भाई दूज का।

जो निभाता नहीं ये रिश्ता वो, अपना सब कुछ खोता है।।

।।3।।
निस्वार्थ निश्चल प्रेम का एक, उदाहरण है भाई दूज का दर्प।

अनमोल रिश्तों की लड़ी का, उदाहरण है भाई दूज का गर्व।।

भावना संवेदना का प्रतीक, यह एक टीका और तिलक।

भाई बहन के अमूल्य रिश्तों, काआइना है भाईदूज का पर्व।।

।।4।।
रोली चावल चंदन टीके का, थाल सजा कर लाई हूं।

अपने प्यारे भैया की मूरत, दिल में बसा कर लाई हूं।।

‘मेरे भैया रक्षा करना मेरी सारी, उम्र कि सौगंध तुमको देनी है।

एक तिलक में प्यार का सारा, संसार लगा कर लाई हूं।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 106 ☆ गजल – “समय…”☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक गजल – “समय…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #106 ☆  गजल – “समय…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

जग में सबको हँसाता है औ’ रूलाता है समय

सुख औ’ दुख को बताता है औ’ मिटाता है समय।

 

चितेरा एक है यही संसार के श्रृंगार का

नई खबरों का सतत संवाददाता है समय।

 

बदलती रहती है दुनियाँ समय के संयोग से

आशा की पैंगों पै सबकों नित झुलाता है समय।

 

भावनामय कामना को दिखाता नव रास्ता

साध्य से हर एक साधक को मिलाता है समय।

 

शक्तिशाली है बड़ा रचता नया इतिहास नित

किन्तु जाकर फिर कभी वापस न आता है समय।

 

सिखाता संसार को सब समय का आदर करें

सोने वालों को हमेशा छोड़ जाता है समय।

 

है अनादि अनन्त फिर भी है बहुत सीमित सदा

जो इसे है पूजते उनको बनाता है समय।

 

हर जगह श्रम करने वालों को है इसका वायदा

एक बार ’विदग्ध’ उसको यश दिलाता है समय।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 112 – ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ेगी ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #112 🌻  ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ेगी 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा बहुत ही महत्वाकांक्षी था और उसे महल बनाने की बड़ी महत्वाकांक्षा रहती थी उसने अनेक महलों का निर्माण करवाया!

रानी उनकी इस इच्छा से बड़ी व्यथित रहती थी की पता नहीं क्या करेंगे इतने महल बनवाकर!

एक दिन राजा नदी के उस पार एक महात्मा जी के आश्रम के पास से गुजर रहे थे तो वहाँ एक संत की समाधि थी और सैनिकों से राजा को सूचना मिली की संत के पास कोई अनमोल खजाना था और उसकी सूचना उन्होंने किसी को न दी पर अंतिम समय में उसकी जानकारी एक पत्थर पर खुदवाकर अपने साथ ज़मीन में गड़वा दिया और कहा की जिसे भी वह खजाना चाहिये उसे अपने स्वयं के हाथों से अकेले ही इस समाधि से चौरासी हाथ नीचे सूचना पड़ी है निकाल ले और अनमोल सूचना प्राप्त कर लें और ध्यान रखे कि उसे बिना कुछ खाये पीये खोदना है और बिना किसी की सहायता के खोदना है अन्यथा सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी !

राजा अगले दिन अकेले ही आया और अपने हाथों से खोदने लगा और बड़ी मेहनत के बाद उसे वह शिलालेख मिला और उन शब्दों को जब राजा ने पढ़ा तो उसके होश उड़ गये और सारी अकल ठिकाने आ गई!

उस पर लिखा था हे राहगीर संसार के सबसे भूखे प्राणी शायद तुम ही हो और आज मुझे तुम्हारी इस दशा पर बड़ी हँसी आ रही है तुम कितने भी महल बना लो पर तुम्हारा अंतिम महल यही है एक दिन तुम्हें इसी मिट्टी मे मिलना है!

सावधान राहगीर, जब तक तुम मिट्टी के ऊपर हो तब तक आगे की यात्रा के लिये तुम कुछ जतन कर लेना क्योंकि जब मिट्टी तुम्हारे ऊपर आयेगी तो फिर तुम कुछ भी न कर पाओगे यदि तुमने आगे की यात्रा के लिये कुछ जतन न किया तो अच्छी तरह से ध्यान रखना की जैसे ये चौरासी हाथ का कुआं तुमने अकेले खोदा है बस वैसे ही आगे की चौरासी लाख योनियों में तुम्हें अकेले ही भटकना है और हे राहगीर! ये कभी न भूलना कि “मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है बस तरीका अलग-अलग है।”

फिर राजा जैसे-तैसे कर के उस कुएँ से बाहर आया और अपने राजमहल गया पर उस शिलालेख के उन शब्दों ने उसे झकझोर कर रख दिया और सारे महल जनता को दे दिये और “अंतिम घर” की तैयारियों मे जुट गया!

हमें एक बात हमेशा याद रखना चाहिए कि इस मिट्टी ने जब रावण जैसे सत्ताधारियों को नहीं बख्शा तो फिर साधारण मानव क्या चीज है? इसलिये ये हमेशा याद रखना कि मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी में मिलना है क्योंकि ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ने वाली है!

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 126 – माय माझी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 126 – माय माझी ☆

माय माझी बाई। अनाथांची आई।

सर्वा सौख्यदाई। सर्वकाळ।

 

घरे चंद्रमौळी। शोभे मांदियाळी।

प्रेमाची रांगोळी। अंगणी या।

 

पूजते तुळस। मनी ना आळस।

घराचा कळस। माझी माय।

 

पै पाहुणचार। करीत अपार।

देतसे आधार। निराधारा।

 

संस्काराची खाण। कर्तव्याची जाण।

आम्हा जीवप्राण । माय माझी।

 

गेलीस सोडूनी। प्रेम वाढवूनी।

जीव वेडावूनी। माझी माय।

 

लागे मनी आस। जीव कासावीस।

सय सोबतीस। सर्वकाळ।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ दुसरं वादळ… श्री शरद पोंक्षे – परिचय सुश्री शेफाली वैद्य ☆ प्रस्तुती- सुश्री सुनीता डबीर ☆

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ दुसरं वादळ… श्री शरद पोंक्षे – परिचय – सुश्री शेफाली वैद्य ☆ प्रस्तुती- सुश्री सुनीता डबीर ☆

एखादा दुर्धर रोग अचानक उद्भवल्यानंतर, जीवनाची आता काही शाश्वती नाही हे दाहक सत्य अगदी एका क्षणात अंगावर आल्यानंतरची माणसांची प्रतिक्रिया ही त्या त्या व्यक्तीच्या मनःशक्तीवर अवलंबून असते. धक्का सगळ्यांनाच बसतो, पण काही माणसे त्या धक्क्यामुळे कोलमडून जातात तर काही व्यक्ती जिद्दीने जमिनीत पाय गाडून उभे राहतात आणि त्या रोगावर मात करून दाखवतात. प्रसिद्ध अभिनेते, सावरकर भक्त आणि विचारांनी प्रखर  हिंदुत्ववादी असलेले शरद माधव पोंक्षे शरद माधव पोंक्षे हे ह्यांपैकी दुसऱ्या गटात मोडणारे.

Hodgkins Lymphoma हा कर्करोगाचा एक प्रकार समजला जाणारा दुर्धर रोग शरद पोंक्षेंना झाला आणि एकाच दिवसात त्यांचं आणि त्यांच्या कुटुंबाचंही आयुष्य बदलून गेलं. एक वर्ष सर्व कामधंदा सोडुन पोंक्षेंना घरी बसावं लागलं, १२ किमो साईकल्स आणि त्यांचे शरीरावर होणारे भयानक दुष्परिणाम, वर्षभर काम बंद असल्यामुळे येणारी आर्थिक असुरक्षिता आणि त्यामुळे भेडसावणारी अनिश्चितता, कुटुंबाला सतावणारी भीती आणि जीवघेणी वेदना ह्या सर्वांवर मात करून शरद पोंक्षे यशस्वीपणे या वादळातून बाहेर पडले. त्या अनुभवाची गोष्ट म्हणजेच ‘दुसरे वादळ.’ साध्या, सोप्या, ‘बोलले तसे लिहिले’ ह्या भाषेत लिहिलेले पुस्तक मी काल एका बैठकीत वाचून संपवले आणि शरद पोंक्षे ह्यांच्याबद्दल असलेला माझा आदर अजूनच वाढला.

कर्करोग, किडनी विकार किंवा हृदयविकार ह्यासारख्या दुर्धर रोगांशी लढा दिलेल्या लोकांची आत्मकथने ह्यापूर्वीही मराठीत पुस्तकरूपाने आलेली आहेत. अभय बंग ह्यांचे ’माझा साक्षात्कारी हृदयरोग’, पद्मजा फाटक यांचे ‘हसरी किडनी’ ह्यांसारखी पुस्तके तर व्यावसायिक दृष्ट्याही यशस्वी झालेली आहेत, मग ह्या पुस्तकात नवीन काय आहे? ह्या पुस्तकात नवीन आहे ती शरद पोंक्षेंची रोगाकडे बघायची दृष्टी, आणि त्यांची सावरकर विचारांवर असलेली अपार डोळस श्रद्धा, ज्या श्रद्धेने त्यांना ह्या रोगाकडे झगडण्याचे बळ दिले.

ह्याबद्दल लिहिताना पोंक्षे म्हणतात, ‘मानसिक धैर्य सुदृढ कसं करायचं हा प्रश्न पडला. त्यावर एकच उपाय. सावरकर. विचार मनात येताक्षणी कपाट उघडलं आणि माझी जन्मठेप चौथ्यांदा वाचायला सुरवात केली. ११ वर्षे ७ बाय ११ च्या खोलीत कसे राहिले असतील तात्याराव? गळ्यात, पायात साखळदंड, अतिशय निकृष्ट दर्जाचं अन्न, तात्याराव कसे राहिला असाल तुम्ही? ते देशासाठी ११ वर्षे राहू शकतात, मला अकराच महिने काढायचे आहेत, तेही स्वतःसाठी! हा विचार मनात आला आणि सगळी मरगळ निघून गेली’.

पोंक्षेनी ह्या पुस्तकात अतिशय प्रांजळपणे आपल्याला आलेले अनुभव मांडलेले आहेत. त्यांना ज्या ज्या लोकांनी मदत केली, मग ते शिवसेनेचे आदेश बांदेकर असोत, उद्धव ठाकरे असोत किंवा आताचे महाराष्ट्राचे मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे असोत, त्या लोकांचा त्यांनी कृतज्ञतापूर्वक उल्लेख केलेला आहे. त्यांच्यासाठी म्हणून जे लोक कामासाठी थांबले त्यांचाही उल्लेख योग्य रीतीने पुस्तकात झालेला आहे. त्यांना काही डॉक्टरांचे आलेले वाईट अनुभवही पोंक्षेनी तितक्याच स्पष्टपणे लिहिलेले आहेत तसेच आयुर्वेद, होमियोपथी आदी उपचार पद्धतींचाही त्यांना चांगला फायदा कसा झाला हेही त्यांनी लिहिलेले आहे.

पुस्तक खरोखरच वाचनीय आहे. सर्व वयाच्या लोकांना सहजपणे वाचता यावे म्हणून अक्षरे जाणून बुजून मोठी ठेवलेली आहेत. एखाद्या दुर्धर रोगाशी लढणाऱ्या कुणालाही बळ देईल असेच हे पुस्तक आहे. नथुरामची व्यक्तिरेखा साकारताना पोंक्षेना सोसावा लागलेला विरोध हे शरद पोंक्षेंच्या आयुष्यातले पहिले वादळ आणि कर्करोगाशी दिलेला लढा हे दुसरे वादळ. मला विशेष आवडले ते हे की ह्या दोन्ही वादळांशी लढताना शरद पोंक्षेनी आपल्या तत्वांशी कसलीच तडजोड कुठेही केलेली नाही.

एक अभिनेते म्हणून शरद पोंक्षे मोठे आहेतच पण एक माणूस म्हणून ते किती जेन्यूईन आहेत हे ह्या पुस्तकाच्या पानापानातून जाणवतं. अभिनयासारख्या बेभरवश्याच्या क्षेत्रात वावरताना व्यावसायिक हितसंबंध जपायचे म्हणून माणसं क्वचितच रोखठोक, प्रांजळ व्यक्त होतात. पण शरद पोंक्षे ह्याला अपवाद आहेत. एका सच्च्या माणसाने लिहिलेले हे एक सच्चे पुस्तक आहे. अवघड परिस्थितीशी झगडावे कसे हे ह्या पुस्तकातून शिकण्यासारखे आहे. पार्थ बावस्करच्या शब्दामृत प्रकाशनाने हे पुस्तक प्रसिद्ध केले आहे. Parth Bawaskar – पार्थ बावस्कर

– श्री शरद पोंक्षे

परिचय – सुश्री शेफाली वैद्य

प्रस्तुती- सुश्री सुनीता डबीर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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