हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 97 ☆ पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा ‘पेट की दौड़ ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 97 ☆

☆ लघुकथा – पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कामवाली बाई अंजू ने फ्लैट में अंदर आते ही देखा कि कमरे में एक बड़ी – सी मशीन रखी है। ‘दीदी के घर में रोज नई- नई चीजें ऑनलाईन आवत रहत हैं।अब ई कइसी मशीन है?‘ – उसने मन में सोचा। तभी उसने देखा कि साहब आए और उस मशीन पर दौड़ने लगे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सड़क पर तो सुबह – सुबह दौड़ते देखा है लोगों को लेकिन बंद कमरे में मशीन पर? साहब से तो कुछ पूछ नहीं सकती। वह चुपचाप झाड़ू–पोंछा करती रही पर कभी – कभी उत्सुकतावश नजर बचाकर उस ओर देख भी लेती थी। साहब तो मशीन पर दौड़े ही जा रहे हैं ?  खैर छोड़ो, वह रसोई में जाकर बर्तन माँजने लगी। दीदी जी जल्दी – जल्दी साहब के लिए नाश्ता बना रही थीं। साहब उस मशीन पर दौड़ने के बाद नहाने चले गए। दीदी जी ने खाने की मेज पर साहब का खाना रख दिया। साहब ने खाना खाया और ऑफिस चले गए।

अरे! ई का? अब दीदी जी उस मशीन पर दौड़ने लगीं। अब तो उससे रहा ही नहीं गया। जल्दी से अपनी मालकिन दीदी के पास जाकर बोली – ए दीदी! ई मशीन पर काहे दौड़त हो? काहे मतलब? यह दौड़ने के लिए ही है, ट्रेडमिल कहते हैं इसको। देख ना मेरा पेट कितना निकल आया है। कितनी डायटिंग करती हूँ पर ना तो वजन कम होता है और ना यह पेट। इस मशीन  पर चलने से पेट कम हो जाएगा तो फिगर अच्छा लगेगा ना मेरा – दीदी हँसते हुए बोली।

पेट कम करे खातिर मशीन पर दौड़त हो? — वह आश्चर्य से बोली। ना जाने क्या सोच अचानक खिलखिला पड़ी। फिर अपने को थोड़ा संभालकर बोली – दीदी! एही पेट के खातिर हमार जिंदगी  एक घर से दूसरे घर, एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग काम करत – करत कट जात है। कइसा है ना! आप लोगन पेट घटाए के लिए मशीन पर दौड़त हो और हम गरीब पेट पाले के खातिर आप जइसन के घर रात-दिन दौड़त रह जात हैं।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 111 ☆ एक-एक जुड़ शक्ति बढ़ेगी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य “एक-एक जुड़ शक्ति बढ़ेगी”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 111 ☆

☆ एक-एक जुड़ शक्ति बढ़ेगी ☆ 

मैनेजमेंट के सिद्धांत देखने और सुनने में जितने सहज लगते हैं, उतने होते नहीं है। किसी को निकाल कर दूसरे को उसकी जगह दे देना जहाँ कुछ प्रश्न खड़े करता है तो वहीं लोगों में छुपी प्रतिभाओं को भी सामने लाता है। जब हम किसी के निर्देशन पर कार्य करते हैं तो ढाक के तीन पात की प्रक्रिया ही दिखाई देती है। इस सम्बंध में भगवान बुद्ध द्वारा अपने शिष्यों को सुनाई गयी ये कथा याद आती है कि नेक लोग बिखर जाएँ जिससे चारों ओर नेकी फैले जबकि दुष्ट  इसी जगह बस जाएँ जिससे कटुता चारो ओर न फैले।

वैसे भी शीर्ष मैनेजमेंट यही चाहता है कि ज्यादा बुद्धिमान दूर ही रहे ताकि कोल्हू के बैल की तरह कार्य होता रहे। खैर ये सब तो चलता रहेगा। आम सदस्य से यही अपेक्षा की जाती है कि- आओ तो वेलकम जाओ तो भीड़ कम। आना- जाना तो प्रकृति का कार्य है। मौसम की तरह रंग रूप बदलकर स्वयं को निखारते हुए स्किल पर कार्य करते रहना चाहिए। जो भी कार्य हो उसमें कोई दूसरा सानी न हो इतना अभ्यास होना चाहिए। इस सबके साथ ही एक प्रश्न और अनायास दिमाग में दस्तक देता है कि क्या कारण है जो लोग कामचोर  होते हैं उन्हें कोई क्यों नहीं हटाता?

इसका जबाव भी प्रश्नकर्ता खुद ही दे देता है कि सकारात्मक चिंतन करो, ज्यादा होशियारी मँहगी पड़ेगी। अपने काम से काम रखो। सही भी है आपको इज्जत और वेतन इसी लिए मिलता है कि कार्य पर फोकस हो न कि आने-जाने वालों पर। विस्तृत कार्यों की रूप रेखा का प्रबंधन करने हेतु सिद्धांतो का अनुसरण करना ही होगा। आप इतनी बड़ी लकीर खींचिए की लोग आपको रोल मॉडल मानकर चलें। कहते हैं एकता में बड़ी शक्ति होती है। लकड़ी के गठ्ठर को देखिए कैसे सिर पर सवारी करता हुआ एक से दूसरी जगह जाता है।

आइए एक- एक कदम बढ़ाते हुए एकजुटता के साथ चलें। साथ ही संकल्प लें कि दुनिया को श्रेष्ठ विचारों द्वारा अवश्य बदलेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 174 ☆ भरोसा उठ गया है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – भरोसा उठ गया है।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 174 ☆  

? कविता – भरोसा उठ गया है ?

है कपास

या है बिन पानी का टुकड़ा बादल का

टंका हुआ आसमान पर

सहेजे हुए सुई ।

 

सेल्फ एडिटिंग के इस जमाने में

विश्वसनीयता की खोज

रूई के ढेर में सुई की खोज सी बेमानी है ।

 

बिन धागे सुई का कोई काम नहीं

कतली बिना रूई बेमानी है

 

नोंक बिना सुई और

बदरी बिन पानी, बेमानी है

फरेबी है दुनियां , इंतिहा है

इंसा सरा सर बेपानी है ।

 

सफेदी झकाझक

आकर्षक है

और

स्याह आसमान

गुमनामी है।

 

भरोसा उठ गया है

गीत गजल कविता से

शब्द भरोसा न दे सके जो

तो हैं निरर्थक , बेनामी है

           

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 121 ☆ गीत – श्रम की देवी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 121 ☆

☆ गीत – श्रम की देवी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।

जीवन में संघर्ष बहुत हैं

जाती किस्मत हार।।

 

धूप ताप में पत्थर तोड़ो।

रिश्तों को ममता से जोड़ो।

जीवन भी है एक पहेली।

रोज हथौड़ी बने सहेली।

 

बच्चा देख रहा अपलक

लुटा रहा है प्यार।

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।।

 

पथ का बनना बहुत कठिन है।

झेली वर्षा , शीत , तपन है।

कितने श्रम से बनते पथ हैं।

तब जाकर के बढ़ते हम हैं।

 

ममता लटक रही कंधों पर

ईश्वर खेवनहार।

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।।

 

श्रम का मूल न पूरा मिलता।

आदिकाल से झेले जनता।

खुशी कहाँ है अज्ञानों में।

ढूँढें नकली सामानों में।

 

बच्चा रोए अगर कभी तो

माँ ही करे दुलार।

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।।

 

श्रम का मूल्य न समझे कोई

हार – हार निर्धनता रोई

कागज में सब चले ठीक है

नेताओं की नई सीख है

 

भूख प्यास में कभी – कभी तो

जीवन जाता हार।

श्रम की देवी तुम्हें नमन

करता हूँ बारंबार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #120 – कर्जमाफी… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 120 – कर्जमाफी… ☆

बाबा तू जाण्याआधी

एका चिठ्ठीत लिहून

ठेवलं होतंस

मी देवाघरी जातोय म्हणून.. .

पण

आम्हाला असं ..

वा-यावर सोडून

तो देव तरी तुला

त्याच्या घरात घेईल का…?

पण बाबा तू. . .

काळजी करू नकोस

त्या देवाने जरी तुला त्याच्या

घरात नाही घेतलं ना तरी

तू तुझ्या कष्टाने उभ्या केलेल्या

ह्या घरात तू

कधीही येऊ शकतोस

कारण .. . बाबा

आम्हाला कर्ज माफी नकोय

आम्हाला तू हवा हवा आहेस …!

आम्हाला तू हवा हवा आहेस …!

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ किमया – भाग-2 ☆ सुश्री सुनिता गद्रे ☆

सुश्री सुनिता गद्रे

? जीवनरंग ❤️

 ☆ किमया – भाग-2 ☆ सुश्री सुनिता गद्रे ☆ 

(मुलांचा जोरजोरात चाललेला वादविवाद ,अन् भांडण विभा ताईंच्या कानावर पडलं होतं….) आता पुढे-

मुलांनी शब्दांच्या फटाक्यांची मोठीच्या -मोठी लड पेटवून आपल्या अंगावर फेकलीय, असं त्यांना वाटलं. वृद्धाश्रम ,….लाईफस्टाईल….. हक्काची नोकर….ओल्ड स्टफ..

व्हाय ओन्ली मी ?….हे काय चाललं होतं सगळ्यांचं? कानात शिशाचा गरम रस ओतणारे शब्द!…. त्यांना दरदरून घाम फुटला. झोपेतून जाग्या त्या केव्हाच झाल्या होत्या. पण आता त्यांना खरी जाग आली. तोंडावर गोड गोड बोलणारी, फोनवरून त्यांची खूप काळजीनं विचारपूस करणारी, ती हीच का आपली अपत्यं? त्यांना प्रश्न पडला. त्यांचं खरं रूप समोर आलं होतं. मुखवटा बदलणारी माणसं!… खरंतर केतकी स्वभावानं अशी नाही, पण भावंडांच्या नादानं ती पण त्यांच्यासारखंच बोलू लागलीय. सगळ्यांना दूर राहणारी आई हवी आहे.पण त्यांच्या घरात नकोय. तिचा सहवास त्यांना नकोय.

हॉलमध्ये जाण्यापूर्वी तोंडावर पाण्याचे हबके मारून त्या फ्रेश झाल्या. खरंतर मगाशी जे सगळं कानावर पडत होतं, तेव्हा डोळ्यातून अश्रू यायला हवे होते. अपमानाचं दुःख अनावर व्हायला हवं होतं… पण त्यांना जाणवलं की आपल्या डोळ्यातलं पाणीच आटून गेलय. हसरा इमोजी चेहऱ्यावर चढवून त्या बाहेर आल्या.

“अगं सांभाळून,.   हातात काठी का नाही घेतलीस?.. अजून नीट बॅलन्सिंग होत नाहीये.” म्हणत केदार आधार द्यायला पुढे झाला.

‘आयुष्याचं बॅलन्सिंगच चुकलंय बेटा, आता मनाचा तोल सांभाळतच जगायचय’ त्यांच्या मनात आलं…. पण उघडपणे त्या म्हणाल्या,” किती भाग्यवान आहे मी. तुमच्यासारखी प्रेमळ, गुणी, मातृभक्त मुलं मला लाभलीत. छान गेले इथले दिवस. आजचा दिवस तर मी कधीच विसरणार नाही. खरंच आज मला कृतकृत्य झाल्यासारखं वाटतंय.”

दुसऱ्या दिवशी हॉस्पिटलमधून  परतताना त्यांनी निश्चयच केला, आता लवकरात लवकर खऱ्या अर्थाने स्वतःच्या पायावर उभं रहायचं.   कितीही जड वाटत असलं तरी नातीत गुंतलेलं आपलं मन… आणि आपलं सामान दोन्ही आवरायला त्यांनी सुरुवात केली.

“आई, फिजिओला कोणती वेळ देऊ?” केतकी प्रेमळपणे(?) विचारत होती. “नाही- नको, मी आता गावी परतावं म्हणतेय. आता औषधाचा मारा पण थांबलाय आणि हॉस्पिटलच्या चकरा पण”… त्यांनी दृढनिश्चयानं सांगून टाकलं.

“अगं एवढ्यात ? रहा नं अजून थोडे दिवस. तू गेलीस की आम्हा तिघांनाही अजिबात करमणार नाही. केतकीच्या नाटकी आग्रहाकडं त्यांनी लक्ष दिलं नाही.

गावी येऊन पोहोचल्या. त्यांना आठवलं ते जातानाचं एवढं मोठं सामान…. सगळ्यांच्या आवडीनिवडी लक्षात घेऊन केलेले तर तऱ्हेचे खाद्यपदार्थ… मसाले, लोणची, पापड..आणखी कायबाय… खूप काही… आणि त्याच्या दुप्पट आकाराचं उत्साह आणि  प्रेमानं भरलेलं मन…. पण आता मन पण रितं आणि हात पण!

ठरवल्याप्रमाणे स्टेशनवर सीमा घ्यायला आली होती. तसं पाहिलं तर ती समोरच्या केळकर वहिनींची सून  पण दोघीत अगदी सख्ख्या बहिणींगत घट्ट नातं! ड्राईव्ह करता करता सीमाची बडबड पण चालू होती,” बरं झालं ताई तू आलीस. आता दोन-तीन महिन्यात तुला आपली तब्येत घट्ट मुट्ट करायची आहे. अबोलीच्या लग्नाची सगळी महत्त्वाची जबाबदारी मी तिच्या लाडक्या विभा मावशीवर टाकणार आहे… बरं ,घर शेवंता कडून चकाचक करून घेतलंय. दोन महिन्यांसाठी डबेवाला पण ठरवून ठेवलाय. फिजिओची अपॉइंटमेंट घेऊन ठेवलीय.  आणखी काही लागलं तर मॅडम, सेवेला मी हजर आहेच.”

विभाताईंना खूप हसू आलं, “अगं, हो- हो, जरा दमानं घे.. आता इथेच राहणार आहे मी. आणि तू जवळ असताना मला गं कसली काळजी?”अगदी निश्चिंतपणे त्या म्हणाल्या. स्वतःच्या हक्काच्या घरात येऊन त्यांनी मोकळा श्वास घेतला. पुढचे काही दिवस त्यांच्या घरात खूप वर्दळ होती. मैत्रिणी, फॅमिली फ्रेंड्स.. सगळे आवर्जून आले .फोनवरूनच आपुलकीने विचारून त्यांना कशाची गरज आहे ते ते घेऊन आले. आपल्या फ्रॅक्चर झालेल्या पायाचं वर्णन, मुलांचं, नातवंडांचं तोंड भरून कौतुक करत…. त्या हसत हसत बोलत होत्या पण त्यांचं मन आतून खदखदत होतं.

क्रमशः…

© सुश्री सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ बालपणाची नाव कागदी… ☆ सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी ☆

सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ बालपणाची नाव कागदी… ☆ सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी ☆

पाऊसधारा ओलावत येती

विस्मरणातील  पायवाट ती 

डोळ्यांपुढती अलगद येती

बालपणाची नाव कागदी

नाव कागदी घडीघडीची

त्यात दडली स्वप्न मनीची

निरागसतेने ती नटलेली

बालपणीची नाव कागदी

घडी घडीतुन स्वप्ने फुलती

आनंदाला नाही गणती

प्रत्येकाच्या मनात वसती

बालपणीची नाव कागदी

मोठे होता विरुन जाती

दूर दूर ती वाहून नेती

भिजून पाण्यामध्ये बुडती

बालपणीची नाव कागदी

पाऊस पडता ओढ लागती

बालपणीची स्वप्ने पडती

पुन्हा नव्याने येते हाती

बालपणीची नाव कागदी

चित्र साभार: सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी

© सौ. पल्लवी ऋषिकेश कुलकर्णी 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#144 ☆ अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय अप्रतिम रचना “अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो…”)

☆  तन्मय साहित्य # 144 ☆

☆ अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो

शब्द अटपटे ये, समझो।

 

साँसों का विज्ञान अलग

टिका हुआ साँसों पर जग

प्रश्न  जिंदगी के बूझो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

पाना हैं मीठे फल तो

स्वच्छ रखें हम जल-थल को

आम-जाम आँगन में बो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

मन भारी जब हो जाए

पीड़ा सहन न हो पाए

बच्चों जैसा जी भर रो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

कितना खोटा और खरा

अपने भीतर झाँक जरा

क्यों देखे इसको-उसको

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

संसद के गलियारों में

अपने राजदुलारों में

खेल चल रहा है खो-खो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

गर अधिकार विशेष मिले

भूलें शिकवे और गिले

दूजों को उनका हक दो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..

 

बहुत जटिल जीवन अभिनय

मन में रखें न संशय-भय

अभिनव कला-मर्म सीखो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो..।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 42 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला  “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ व्यंग्य  # 42 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

सत्र याने सेशन जो पोस्ट का भी होता है और प्रशिक्षण कार्यक्रम का भी. इस बीच भी एक अल्पकालीन टी ब्रेक होता है जो भागार्थियों याने पार्टिसिपेंट्स को अगली क्लास के लिये ऊर्जावान बनाता है. होमोजीनियस बैच जल्दी घुल मिल जाते हैं क्योंकि उनका माईंडसेट, आयु वर्ग, अनुभव और लक्ष्य एक सा रहता है. भले ही ये लोग आगे भविष्य में पदों की अंतिम पायदान पर एक दूसरे से कट थ्रोट कंपटीशन करें पर इन सब का वर्तमान लगभग एक सा रहता है, सपने एक से रहते हैं प्लानिंग एक सी रहती है और रनिंग ट्रेक भी काफी आगे तक एक सा ही रहता है. यही बैच के साथ बहुत सी बातों का एक सा होना बाद में, कहीं आगे बढ़ जाने की संतुष्टि या पीछे रह जाने की कुंठा का जनक भी होता है. पर शुरुआत की घनिष्ठता का स्वाद ही अलग होता है जो स्कूल और कॉलेज के क्लासमेट जैसा ही अपनेपन लिए रहती है. एक ही बैच से प्रमोट हुये लोग बाद में भी विभिन्न प्रशिक्षण केंद्रों में टकराते रहते हैं पर यह टकराव ईगो का नहीं, सहज मित्रता का होता है. ये अंतरंगता, व्यक्ति से आगे बढ़कर परिवार को भी समेट लेती है जो विभिन्न पारिवारिक और सांस्कृतिक आयोजन में भी दृष्टिगोचर होती रहती है. इस सानिध्य और नज़दीकियों को उसी तरह सहज रूप से देखा जाना चाहिए जैसा विदेशों में, हमवतनों का साथ मिलने पर जनित घनिष्ठता में पाया जाता है.

दूसरे प्रशिक्षणार्थी विषम समूह के होते हैं जो विभिन्न तरह के असाइनमेंट संबंधित या कार्यक्रम संबंधित सत्र अटेंड करने आते हैं. इस बैच के आयुवर्ग की रेंज बड़ी होती है जो कभी कभी टीवी सीरियल्स के पात्रों के समान भी बन जाती है जहाँ अंकल और भतीजे एक साथ, एक ही क्लास में पढ़ते हैं. इनमें आयु, सेवाकाल, माइंडसेट, और प्रशिक्षण को सीरियसली लेने के मापदंड अलग अलग होते हैं. हर व्यक्ति अपने आपको वो दिखाने की कोशिश करता है जो अक्सर वो होता नहीं है और दूसरी तरफ पर्देदारी भी नज़र आती है. इनका मानसिक तौर पर एक होना, तराजू पर मेंढकों को तौलने के समान हो जाता है पर ये मेंढक भी मधुशाला में हिट आर्केस्ट्रा के वादक बन जाते हैं. इनकी महफिलों की तनातनी भी अगर हुई भी तो अगले दिन के लंच तक खत्म हो जाती है क्योंकि तलबगार तो सीमित ही रहते हैं जिनकी सहभागिता शाम को ज़रूरी बन जाती है. इनके पास खुद के किस्से भी इतने रहते हैं कि सभासदों को इनकी संगत की आदत पड़ जाती है. जब कोई एक, महफिलों में अपने बॉस की बधिया उधेड़ रहा होता है तो श्रोताओ को उसमें अपना बॉस नज़र आने लगता है और “ताल से ताल मिला” गाना चलने लगता है.

अब तो वाट्सएप का दौर है वरना प्रशिक्षण कार्यक्रमों में व्यक्ति कुछ पाये या न पाये, उसके पास जोक्स का स्टाक जरूर बढ़ जाता था. कुछ कौशल सुनाने वालों का भी रहता था कि इनकी चौपाल हमेशा खिलखिलाहटों से गुलज़ार रहती थीं. अपनी दिलकश स्टाइल में हर तरह के जोक्स सुनाने वाले ये कलाकार धीरे धीरे विशेष सम्मान के पात्र बन जाते थे और इनके साथ कभी कभी एक बार भी प्रशिक्षण पाने वाले हमेशा इनको याद रखते थे.

प्रारंभिक दो सत्र के बाद एक घंटे का लंच अवर होता था जो पूरे बैच को 1947 के समान दो भाग में विभाजित कर देता था. पर ये विभाजन धर्म के आधार पर नहीं बल्कि आहार के आधार पर होता था सामिष और निरामिष याने वेज़ और नॉन वेज़. पहले ये सुविधा रात्रिकालीन होती थी पर केंद्र में कुछ अनुशासन भंग की घटनाओं के कारण मध्याह्न में उपलब्ध कराई जाने लगी. पर यह बात ध्यान से हट गई कि नॉनवेज आहार के बाद नींद के झोंके अधिक तेज़ गति से आते हैं.

पोस्ट लंच सेशन सबसे खतरनाक सेशन होता है जब सुनाने वालोँ और सुनने वालों के बीच ज्ञान की देवी सरस्वती से ज्यादा निद्रा देवी प्रभावी होती हैं. ये सुनाने वालों के कौशल की भी परीक्षा होती है जब उन्हेँ सुनाने के साथ साथ जगाने वालों का दायित्व भी वहन करना पड़ता है. वैसे यह भी एक शोध का विषय हो सकता है कि सुनाने वालों को क्या नींद परेशान नहीं करती. जितनी अच्छी नींद का आना इस सत्र में पाया जाता है, रिटायरमेंट के बाद व्यक्ति बस वैसी ही नींद की चाहत करता है. जब आपकी यात्रा में लेटने की सुविधा न हो तब भी यही नींद कमबख्त, अपना रोद्र रूप दिखाती है. प्रशिक्षक की निष्ठुरता यहीं पर दिखाईवान होती है. “अरे सर, कौन सा इनको याद रहता है जो आप इनकी अर्धनिद्रा में सुनाने की कोशिश करते हैं”. इनको तो आगे जाकर सब भूल ही जाना है. प्रशिक्षु सब भूल जाता है पर ये पोस्ट लंच सेशन हमेशा उसकी यादों में जागते रहते हैं. कुछ महात्मा, फोटोसन ग्लास पहन कर भी क्लास अटैंड करके नींद का मजा लेना शुरु करते थे पर खर्राटे सब भेद खोल देते हैं. अनुभवी पढ़ाने वाले गर्दन के एंगल और शरीर के हिलने डुलने से भी समझ जाते हैं कि विद्यार्थी, ज्ञानार्जन की उपेक्षा कर निद्रावस्था की ओर बढ़ने वाला है तो वे उसे आगे बढ़ने से किसी न किसी तरह रोक ही लेते हैं.

प्रशिक्षण सत्र जारी रहेगा, अतःपढ़कर सोने से पहले लाईक और/या कमेंट्स करना ज़रूरी है.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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आई वाही शिवामूठ

आई बिल्वपत्र वाही

 गुंफूनिया गुलबक्षी

वेणी पार्वतीला देई

“बुधं त्वं बुद्धीजनको”

मंत्र जपू श्रावणात

बुद्धी दागिनाच मोठा

इथे तिथे त्रैलोक्यात

श्रावणात प्राजक्ताचा

सडा अंगणात पडे

शुभ्र केशरी रंगाचे

खूळ जीवाला गं जडे

माझ्या मनीचा श्रावण

आता दिसतच नाही

आईआजीच्या काळात

मन रेंगाळत राही

आला हिरवा श्रावण

वसुंधरा सुखावली

रिमझिम पावसात

तरंगिणी खळाळली

   बाळकृष्ण तो जन्माला

श्रावणात अष्टमीला

कृष्णपक्ष,काळी रात्र

सौदामिनी सोबतीला

माझ्या श्रावणसरींनो

येऊ नका रपारपा

हलकेच बरसून

माझ्या जाईजुई जपा

दहीहंडी फोडू आता

करू कृष्णाचा जागर

देवा यशोदेच्या कान्हा

भरो माझीही घागर

माझा श्रावण महिना

मला शाळेमधे नेतो

मेंदी भरल्या हातांनी

नवा धडा शिकवतो

आता श्रावणाचे गीत

कसे गाऊ सये बाई

माझ्या हातामध्ये आता

तुझा मऊ हात नाही

तनामनात श्रावण

असा भिनलेला आहे,

तुझ्या नसण्याचे दुःख

सखे सलतच राहे

      पुन्हा श्रावणात भेटू

असं आहे ठरलेलं

इंद्रधनुच्या रंगात

मन चिंब भिजलेलं

तुझा श्रावण असावा

हिर्वाकंच मोरपंखी

आणि अर्थ जगण्याचे

सोनसळी राजवर्खी

रिमझमतो पाऊस

क्षणी हळदुले उन्ह

लपंडावाच्या खेळात 

किती हर्षले हे मन

आता उद्याचा श्रावण

तुझ्या ओटीत घालते

सखे, सूनबाई माझ्या

जुना वसा तुला देते

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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