हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 123 – गीत – कहूँ योजना… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – कहूँ योजना।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 123 – गीत – कहूँ योजना…  ✍

नाम तुम्हारा क्या जानूँ मैं

मन कहता मैं कहूँ योजना।

 

गौरवर्ण छविछाया सुन्दर

अधरों पर मुस्कान मनोहर

हँसी कि जैसे निर्झरणी हो

मत प्रवाह की कमी थामना।

 

अंत: है इच्छा की गागर

आँखों में सपनों का सागर

मचल रहीं हैं लोल लहरियाँ

प्रकटित होती मनो कामना।

 

राधा रसका है आकर्षण

मनमोहन का पूर्ण समर्पण

सम्मोहन के गंधपाश में

कोई कैसे करे याचना।

 

अपलक देखा करें नयन, मन

मन रहता है उन्मन उन्मन

शब्दों के संवाद अधूरे

मन ही मन मैं करूँ चिन्तना।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दोहे # 124 – “॥ कुछ दोहे ॥” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है आपके  – “॥ कुछ दोहे ॥।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 123 ☆।। दोहे।। ☆

☆ ॥ कुछ दोहे ॥ ☆

ठिठक गया है चन्द्रमा, इस सुदर्शना झील ।

जिसे देखने के लिये,आया चल सौ मील ॥

 

इसके तट पर तो कहीं, मिला करेगा पुण्य ।

जिसको पाने के लिये, रोया है पर्जण्य ॥

 

पानी जो चुपचुप लगे, देख रहा फिलहाल ।

क्या बादल से पूछते हो मौसम का हाल ॥

 

जिनने देखा है नहीं, अद्भुत द्वन्द्व समास ।

आमंत्रित करके कहें, करलें और प्रयास ॥

 

लहँगा, चोली से सटा, सहलाता है पेट ।

मैं थोड़ा होता बड़ा, लेता नहीं समेट ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

27-11-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 172 ☆ “लोढ़ा वाली पदमश्री जुधैया बाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित आलेख  – “लोढ़ा वाली पदमश्री जुधैया बाई”)

☆ आलेख # 172 ☆ “लोढ़ा वाली पदमश्री जुधैया बाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

लुप्तप्राय बैगा जाति के उन्नयन और लोक संस्कृति से जुड़ी उमरिया जिले के पिछड़े गांव लोढ़ा निवासी श्रीमती जुधैया बाई बैगा को पदमश्री की बधाई ।

जुधैया बाई बैगा के गुरु प्रख्यात चित्रकार आशीष स्वामी समय समय पर चित्रों, कोलाज, पेन्टिंग, लोकनृत्य एवं रंगकर्म के माध्यम से बैगा संस्कृति को उकेरते रहे हैं।

प्रकृति – प्रेम भरा जीवन एवं वन्य – जीवों से प्रेम करने वाली बैगा जाति से उपजी कला को समझने के लिए बैगा जाति के मानस को समझकर रंग – कूची के संसार एवं रंगकर्म से जोड़ने की कला आशीष स्वामी ने उमरिया जिले के जनगण तस्वीरखाना से पाई थी। उनके मार्गदर्शन में लम्बे समय से बैगा संस्कृति पर काम कर रही 82 वर्षीय जुधैया बाई बैगा (लोढ़ा, उमरिया) को देश विदेश में आज ख्याति मिली है और आज उन्हें पद्मश्री मिल गई।

(पहली फोटो में नारी शक्ति सम्मान लेते हुए जुधैया बाई। दूसरी फोटो में उनके गुरु आशीष स्वामी। तीसरी फोटो में रंग और कूची के साथ जुधैया बाई।)

उल्लेखनीय है, उमरिया आरसेटी में डायरेक्टर के पद पर रहते हुए 2013 में श्रीमती जुधैया बाई बैगा और ख्यातिलब्ध चित्रकार आशीष स्वामी का  सम्मान करने का गौरव हम लोगों को मिला था। आशीष स्वामी को कोरोना लील गया पर चित्रकार आशीष स्वामी ने अपने जीते जी 2019  से लगातार जुधैया भाई को पद्मश्री मिले इसके लिए प्रयास किए थे। एवं कलेक्टर उमरिया के माध्यम से सरकार को रिकंमनडेशन भिजवाया था।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 114 ☆ # गणतंत्र… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# गणतंत्र…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 114 ☆

☆ # गणतंत्र… # ☆ 

यह भारत का गणतंत्र है

समता, सद्भाव का मंत्र है

बंधुत्व, एकता का तंत्र है

धर्मनिरपेक्षता का यंत्र है

 

हर व्यक्ति को अधिकार है

हर क्षेत्र में अपार है

देश में कहीं भी, कभी भी

रहने, बसने का आधार है

 

चाहे जो हो अभिलाषा

चाहे जो हो भाषा

चाहे जो हो प्रांत

पूर्ण हो सबकी आशा

 

सब धर्मों का हो सम्मान

हर व्यक्ति हो धर्म प्राण

अपनी अपनी जीवन पद्धति

अपने रीति रिवाजों से हो निर्वाण

 

अमीर गरीब का ना भेदभाव हो

जात पात की ना कोई छांव हो

सब मनुष्य एक समान है

प्रेम, बंधुत्व का एक भाव हो

 

मतदान का अधिकार अस्त्र है

सरकार चुनने का शस्त्र है

योग्य व्यक्ति का करें चुनाव

यही तो गणतंत्र है

 

हम सब भाग्यवान है

गणतंत्र हमारी शान है

सब को एक सूत्र में बांध के रक्खा

कितना महान हमारा संविधान है

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 115 ☆ सत्यपरिस्थिती… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 115 ? 

☆  सत्यपरिस्थिती

 अध्याय माझा संपेल

मी रुद्र भूमीत असेल 

घरी पेटतील चुली

सडा सारवण होईल 

 

 जेवायला बसतील सर्व

अश्रू डोळ्यांचे थांबतील 

माझ्याच घरातील सर्व

भोजनाचा स्वाद घेतील… 

 

 स्वाद घेत घेत भोजनाचा

आग्रह एकमेकांना होईल 

रुदन संपेल त्या क्षणाला

कामाला हात लागतील…

 

 हे जीवन क्षणभंगुर

इथे कुणाचे स्थिर ते काय 

आला त्याला जावे लागणार

यात आश्चर्य नाय…

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प, भाग –५४ – उत्तरार्ध – मत्सराचा अग्नी ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

विचार–पुष्प, भाग –५४ – उत्तरार्ध – मत्सराचा अग्नी डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प’.

हुश्श! स्वामी विवेकानंद यांना स्लेटन लायसियम लेक्चर ब्यूरो शी केलेला व्याख्यानांचा करार आता संपला होता. तरीही त्यांची व्याख्याने सतत होत होती आणि अनेकजण त्यांच्या विचारांकडे आकृष्ट होत होते. ही संख्या वाढतच होती. त्यामुळे यातून आपले खरे अंतरंगशिष्य त्यांना शोधायचे होते. तिथल्या सामाजिक कामाची पाहणी केल्यावर त्यांना आपल्या कामासाठी संघटना किंवा संस्था उभी करावी हे मनोमन पटले होतेच. असे त्यांनी एकदा मिसेस लायन यांना बोलून दाखवले होते. म्हणजेच त्यांच्या मनात अशी संघटना कोणाची करायची? त्याचे उद्दिष्ट्य काय असेल? कार्यपद्धती कशी असेल याचे विचारमंथन सुरू होते. त्यांच्या बोलण्यात, वागण्यात, शब्दात आणि मनात देशभक्तीच होती.त्यांचे ध्येय फार मोठे होते. त्यांना भारताचे पुनरुत्थान घडवायचे होते. हे घडवून आणण्यासाठी आत्म्याला जाग आणणे महत्वाचे होते,ती जाग आणण्यासाठी चे अध्यात्म ज्ञान आवश्यक आणि त्यांच्या दृष्टीने हे अध्यात्म ज्ञान फक्त भारतच सार्‍या जगाला देऊ शकत होता.म्हणून ही जाग सर्वांमध्ये निर्माण करणे हेच स्वामीजींचे ध्येय होते.

तिथे अमेरिकेत त्यांच्या व्याख्यानांशिवाय असे काही प्रसंगही घडत होते घटना घडत होत्या.

एकदा घडलेली घटना आहे. अमेरिकेत श्वेतवर्णीय आणि कृष्णवर्णीय यांच्या तुलनेत स्वामीजी कृष्णवर्णीय वाटत असत. एका गावात ते स्थानकावर उतरले आणि त्यावेळी काही समिति सदस्य त्यांना घ्यायला आले होते. हे तिथल्या एका निग्रोने पाहिले. त्याच्या दृष्टीने हा माणूस आपल्यापैकी एक कृष्णवर्णीयच होता.मग आपल्या पैकी एका बांधवाचा गौरवर्णीय लोक एव्हढा आदर करताहेत हे पाहून तो मोहरून गेला. तो खर तर एक हमाल होता. तो स्वामीजींजवळ येऊन म्हणाला, “मला तुमच्याशी हस्तांदोलन करण्याची ईच्छा आहे. मी भारतीय आहे असे काहीही न सांगता स्वामीजींनी त्याचा हात प्रेमभराने हातात घेतला आणि त्याला म्हणाले, “ धन्यवाद माझे बंधो, धन्यवाद! तो निग्रो खूप भारावून गेला होता.  स्वत:चे देशबांधव प्रेम आणि अखिल मानवजातीचे वाटणारे प्रेम एकाच ठिकाणी ? तर या उलट काही ठिकाणी स्वामीजींना निग्रो समजून केशकर्तनालयात बाहेर काढून अपमान केल्याचाही प्रसंग घडला.

अमेरिकेत आता स्वामीजींना न्यूयॉर्क मध्ये जाण्याचे आमंत्रण मिळाले होते. तत्वज्ञानाच्या अभ्यासात गोडी असणार्‍या काही जणांचा हा गट होता, त्यांनी बोलवले होते.त्यात डॉ.एगबर्ट ग्युएर्न्सि,मिसेस स्मिथ,मिस हेलन गौल्ड हे लोक  होते, ग्युएर्न्सि यांच्या कडे स्वामीजी राहायला होते. हेल आणि बॅगले यांच्या प्रमाणेच ग्युएर्न्सि पतिपत्नी यांचे स्वामीजींशी घरगुती संबंध तयार झाले.ग्युएर्न्सि व्यवसायाने डॉक्टर होते. लेखक, नियतकालिकाचे संपादक होते. ब्रुकलीन डेली टाईम्स आणि न्यू यॉर्क मेडिकल न्यूज टाईम्स याचे संस्थापक पण होते. वय एक्काहत्तर ,विवेकानंदां च्याच वयाचा त्यांचा तरुण मुलगा नुकताच स्वर्गवासी झालेला. त्या धक्क्यातून ते अद्याप सावरले नव्हतेच,मिस गौल्ड सुद्धा अफाट श्रीमंत होत्या त्यांच्याकडेही स्वामीजी राहण्यास गेले. अशा या न्यूयॉर्कच्या मुक्कामात त्यांचा अनेक मोठमोठ्या लोकांशी सबंध येत होता. बोलवले की जात व्याख्याने देत, भेटत, चर्चा करत. शिवाय तिथल्या महत्वाच्या ठिकाणांना त्यांनी भेटी दिल्या. सहा-सात दिवस भुररर्कन  निघून गेले, आता ते बोस्टनला आले होते. तिथे अठवडाभरात महाविद्यालयात विद्यार्थ्यांच्या समोर विचार व्यक्त केले, त्यावेळी मार्था ब्राऊन फिंके महाविद्यालयात शिकत होती. तिथे पहिल्यांदा विवेकानंद यांना तिने पहिले. विचार समजण्याचे वय नव्हते पण त्यांच्या व्यक्तिमत्वाचा मोठा प्रभाव आपल्यावर पडला असे तिने आठवणीत लिहून ठेवले आहे. एव्हढे श्रेष्ठ असूनही ते आम्हा विद्यार्थ्यात मिळून मिसळून वागले हे तिला विशेष वाटले होते. पुन्हा न्यूयॉर्क, परत बोस्टन व जवळपास फिरणे चालू होते.

प्रा राइट यांच्या निमंत्रणावरून स्वामीजी बोस्टनला पुन्हा आले होते. हार्वर्ड आणि बोस्टन इथे त्यांची व्याख्याने झाली होती. इथे बोस्टनला मिसेस ओली बुल यांची पहिली भेट झाली होती. ज्या पुढील कार्यात सहभागी झाल्या आहेत.तसेच इथे त्यांना कर्नल थॉमस वेंटवर्थ हिगिनसन्स जे सर्वधर्म परिषदेत पण भेटले होते ते भेटले. विमेन्स क्लब मध्ये मिसेस ज्युलिया वॉर्ड होवे यांनी स्वामीजींचे व्याख्यान ठेवले होते. त्याही भेटल्या. असे दौरे चालू होते स्वामीजी फार थकून गेले. नंतर हेल यांच्या कडे ते विश्रांतीसाठी थांबले.

इझाबेला मॅककिंडले हिने स्वामीजींना भारतातून आलेला सर्व पत्रव्यवहार पाठवला. यात होती भारतात झालेली वृत्तपत्रीय प्रसिद्धीची कात्रणे .काहींमध्ये अमेरिकेतला गौरव होता. ते ठीक होते , पण भारतात आपल्याबद्दल जो विरोधी प्रचार चालला होता त्याचीही कात्रणे त्यात होती.ती वाचून स्वामी विवेकानंद यांना फार फार वाईट वाटले. त्यांनी इझाबेलाला कळवले की, “माझ्याविषयी माझ्याच देशातील लोक काय म्हणतील याची मी फार फिकीर करीत नाही. पण एक गोष्ट मात्र आहे की, माझी आई वृद्ध आहे, सार्‍या आयुष्यभर तिने कष्ट उपसले आहेत.असे सारे असूनही जिच्या सार्‍या अशा ज्याच्यावर केन्द्रित झाल्या होत्या असा आपला मुलगा ईश्वराच्या आणि मानवाच्या सेवेसाठी देऊन टाकण्याचा भार तिने सहन केला. पण मजूमदार कलकत्त्यात सर्वत्र सांगत आहेत, त्याप्रमाणे दूर परदेशात कोठेतरी गेलेला हा आपला मुलगा तेथे पशुसारखे जीवन घालवत आहे ,अनीतिमान झाला आहे, हे जर का तिच्या कानावर गेलं,तर त्या धक्क्याने ती प्राण सोडेल, पण परमेश्वर दयाघन आहे. त्याच्या मुलांना कोणीही अपाय करू शकत नाही”. हे प्रतापचंद्र मजूमदार यांचे कलकत्त्यातले प्रताप वाचून स्वामीजी, आईच्या आठवणीने बेचैन झाले. खरे तर ते स्वत:  शांतपणे या सर्वांना अजूनही तोंड देत होते.

प्रतापचंद्र मजुमदार कलकत्त्यात आपल्याबद्दल एव्हढे भयानक सांगत आहेत . या वृत्तपत्राचे संपादक मजुमदारांचा चुलत भाऊ आहे.ज्याने याआधी आपले एव्हढे कौतुक केले ते आता?

याचा पहिला धक्का स्वामीजींना परिषदेच्या वेळी बसला होताच . ज्या प्रतापचंद्र मजुमदारांनी ब्राहमो समाजात उपासना संगीत गाणारा नरेंद्र पाहिला होता ,एव्हढ्या लांबच्या देशात त्यांना नरेंद्र पुन्हा भेटल्यानंतर आपल्याला जणू घरातले वडीलधारी भेटल्याचा आनंद नरेंदला झाला होता पण घडलं होतं उलटच . पहिल्यांदा पाहिल्यानंतर ते नरेंद्रशी अगत्याने बोलले होते.पण जेंव्हा सर्व माणसे प्रचंड संख्येने नरेंद्र भोवती गोळा होऊ लागली तसतसे मजुमदार यांना मत्सर वाटू लागला ,परिषदेतल्या मिशनर्‍यांजवळ त्यांनी स्वामीजींची निंदा करणं सुरू केलं. नरेंद्र हा तसा कोणीच नाही तो एक लुच्चा आणि ठक आहे येथे येऊन संन्यासी असल्याचे ढोंग करीत आहे. असे सांगून त्यांची माने कलुषित केली.त्यात ते यशस्वी झाले. या सगळ्यावर मात करून स्वामीजी पुढे निघून गेले होते.

विवेकानंद यांचे विचार, त्यांचे वक्तृत्व आणि व्यक्तिमत्व यामुळे तिथले सगळेजण भारले गेले होते तसे , मत्सराची दुसरी वाईट बाजुही त्याला होती. विरुद्ध प्रचार. आता मात्र विवेकानंद यांनी या वृत्तपत्रांकडे लक्षच द्यायचे नाही असे ठरवले होते.काहीही छापून आल तर ते मनावर घेत नसत. त्यातून आता भारतात सुद्धा हा अपप्रचार चालू आहे आणि हे सर्व प्रतापचंद्र करीत आहेत हे कळल्यापासून तर त्यांना खरे विश्वासच बसत नव्हता. प्रतापचंद्र या पातळीला जातील हे स्वप्नातही वाटले नाही. खेटरीचे राजेसाहेब आपल्या पाठीशी उभे आहेत म्हणून आपण निश्चिंत पाने इथे आलो. पण आता? आपण दूर्वर्तनी आहोत शिलभ्रष्ट आहोत असे प्रतापचंद्र सर्वत्र सांगत आहेत. हे ऐकून आपल्या आईला काय वाटेल? ही वेदना त्यांना सतावत होती.

मत्सर भावनेतून चक्क चारित्र्य हनन सुरू होते. सुरूवातीला फक्त विरोध मग विरोधाचे तीव्र स्वरूप, मग प्रचार आणि किर्ति जशीजशी वाढली तशी विरोधासाठी पद्धतशीर मोहिमच सुरू झाली होती.मग सुरू झाला छुपा खोटा प्रचार. विवेकानंद यांचे चारित्र्य शुद्ध नाही. ते तरुण सुंदर मुलींना फूस लावून आपल्या जाळ्यात ओढतात वगैरे सांगू लागले. यात मिशनरी, ब्राह्मसमाजी आणि थिओसोफिस्ट आघाडीवर होते. हे अमेरिकेत सुरू होते पण प्रतापचंद्र भारतात काही दिवसांनी परत आल्यावर भारतात सुद्धा ही मोहीम त्यांनी सुरू ठेवली होती. ब्राह्म समजाच्या मुखपत्रात विवेकानंद यांच्या विरोधात लेख येत असत. इतर नियतकालिकात सुद्धा असे लेख येत होते आणि हे सर्व लेख अमेरिकेत पाठवले जात, तिथेही ते प्रसिद्ध करत.अशा प्रकारे मत्सराचा अग्नि पेटला होता. 

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 46 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 46 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

८३.

हे माते! माझ्या दु:खाच्या अश्रूंनी

तुझ्या गळ्यात घालण्यासाठी

मी मोत्यांचा हार बनवेन.

तुझे चरण चांदण्यांच्या तेजाच्या पैंजणांनी सजवले आहेत. पण माझा हार तुझ्या वक्षस्थळावर रुळेल.

 

संपत्ती आणि कीर्ती तूच देतेस.

ती देणं न देणं तुझ्याच हाती आहे.

पण हे दु:ख केवळ माझ्या एकट्याचं आहे.

ते तुला अर्पण करायला मी आणतो

तेव्हा तुझ्या वैभवाचं वरदान तू मला देतोस.

 

८४.

ताटातुटीचं दु:ख जगभर फैलावतं,

अनंत आकाशात अगणित आकार जन्मतात.

 

रात्रीच्या प्रहरी ताटातुटीच्या या दु:खानं

आवाज न करता तारका एकमेकींकडे पाहतात

आणि जुलैच्या पावसाच्या रात्री

अंधारात त्यांचीच गीते होतात.

 

सर्वत्र पसरत जाणारं हे दु:ख प्रेमात,

आनंदात,वासनांत आणि

माणसांच्या घराघरात झिरपत राहतं.

माझ्यासारख्या कवींच्या ऱ्हदयातून, गीतांच्या रूपानं सतत झरत राहतं.

 

८५.

आपल्या धन्याच्या प्रसादातून पहिल्यांदाच

योद्धे बाहेर पडले तेव्हा त्यांनी

आपले सामर्थ्य कुठे लपवलं होतं?

त्यांची शस्त्रं चिलखतं कुठं होती?

 

आपल्या धन्याच्या महालातून ज्या दिवशी

ते बाहेर पडले तेव्हा त्यांच्यावर बाणांचा वर्षाव झाला, तेव्हा ते किती दीनवाणे,

असहाय्य दिसत होते.

 

आपल्या धन्याच्या महालाकडं ते माघारी परतले

तेव्हा त्यांनी आपलं सामर्थ्य कुठं लपवलं होतं?

 

तलवार,बाण, धनुष्य त्यांनी फेकलं होतं.

त्यांच्या चेहऱ्यावर शांतता होती.

आपल्या आयुष्याचं साफल्य त्यांनी

धन्याच्या महाली जाताना मागेच ठेवली होती.

 

८६.

मृत्यू, तुझा हा चाकर,

माझ्या दाराशी आला आहे.

अनोळखी समुद्र ओलांडून आणि

तुझा सांगावा घेऊन तो आला आहे.

 

रात्र अंधारी आहे. मनात माझ्या भीती आहे.

तरी मी दिवा घेईन. माझा दरवाजा उघडेल,

नम्रपणे वाकून त्यांचं स्वागत करेन.

तुझा दूत माझ्या दाराशी आला आहे.

 

हात जोडून व साश्रू नयनांनी मी त्याला वंदन करेन. माझ्या ऱ्हदय गाभाऱ्यातील संपत्ती त्याच्या चरणांवर वाहून त्याची पूजा करेन.

 

आपलं काम पूर्ण करून एक काळी सावली

माझ्या प्रभात समयावर ठेवून तो परत जाईल.

माझ्या निर्जन घरात माझं निष्प्राण अस्तित्व

तुझ्या पूजेसाठी राहील.

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #177 ☆ व्यंग्य – पाँव छुआने वाले सर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक व्यंग्य पाँव छुआने वाले सर । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 177 ☆

☆ व्यंग्य ☆ पाँव छुआने वाले सर

सक्सेना सर शहर के नामी स्कूल से रिटायर हुए। उनके स्कूल का प्रताप ऐसा कि शहर के अलावा आसपास के कस्बों के लड़के प्रवेश के लिए पहले वहीं लाइन लगाते रहे। इसीलिए सक्सेना सर के चेलों की संख्या हज़ारों में है। हर दफ्तर में उनके दो चार चेले मिल जाते हैं। सक्सेना सर कभी बाज़ार जाते हैं तो न जाने कहाँ से प्रकट होकर दस बीस सिर उनके चरणों में झुक जाते हैं। कभी रेलवे स्टेशन जाते हैं तो वहाँ भी भीड़ से टूटकर पाँच दस सिर उनके चरणों को टटोलने लगते हैं। उनके नाती-पोते कहते हैं, ‘दादा जी, आपको तो चुनाव में खड़े होना चाहिए। आपको बिना माँगे हज़ारों वोट मिल जाएँगे।’ सुनकर सक्सेना सर का चेहरा गर्व से दीप्त हो जाता है।

उनकी कॉलोनी में भी उनका बड़ा मान- सम्मान है। कॉलोनी के युवक-युवतियाँ उनके सामने आते हैं तो आँखें झुका लेते हैं। किसी नेता को कॉलोनी में आमंत्रित किया जाता है तो सक्सेना सर को उनके बगल में बैठाया जाता है। अक्सर नेताजी भी सक्सेना सर के शिष्य निकलते हैं।
सक्सेना सर की लोकप्रियता देखते हुए कॉलोनी वासियों ने उन्हें कॉलोनी की कल्याण- समिति का अध्यक्ष बना दिया है। काम-धाम तो दूसरे करते हैं, उन्हें इसलिए चुना गया है ताकि कॉलोनी अधिकारियों के अनावश्यक हस्तक्षेप और खींचतान से बची रहे। कॉलोनी वासियों के लिए वे तुरुप का पत्ता हैं जो उस वक्त काम आता है जब दूसरे उपाय फेल हो जाते हैं।

कॉलोनी वालों के कुछ ज़रूरी काम नगर-विकास के दफ्तर में अटके हैं। कॉलोनी के सभी प्लॉट लीज़ पर हैं। उन्हें फ्रीहोल्ड कराने की मंज़ूरी ऊपर से आ चुकी है। अब दफ्तरी कार्यवाही बाकी है, जिसके लिए कॉलोनी वासी दफ्तर के चक्कर लगा रहे हैं। किसी न किसी बहाने मामला टाला जा रहा है और कॉलोनी वासी परेशान हैं।

लाचार कॉलोनी वालों ने सक्सेना सर का दामन थामा। उन से निवेदन किया गया कि संबंधित दफ्तर चलकर प्रमुख अधिकारी को दर्शन दें और कॉलोनी वालों की समस्या उनके सामने रखें। सक्सेना सर मान गये और एक दिन सक्सेना सर को दूल्हे की तरह आगे करके दस बारह लोगों की बरात दफ्तर पहुँच गयी।

सक्सेना सर दफ्तर के बरामदे में पहुँचे तो वहाँ उन्हें देखकर लोगों के कदम ठमकने लगे। गर्दनें उनकी तरफ मुड़ने लगीं। थोड़ी ही देर में उनके भूतपूर्व शिष्य अपने-अपने कमरों से निकलकर आने लगे। थोड़ी देर में उनके चरन, स्पर्श के लिए झुके हुए नरमुंडों में छिप गये। सक्सेना सर गर्व से अपने साथ आये लोगों की तरफ देखते रहे।

दफ्तर के प्रमुख अधिकारी भी दौड़ते हुए आ गये। बोले, ‘कैसे पधारे सर? फोन कर दिया होता। आपको कष्ट करने की क्या ज़रूरत थी?’

सक्सेना सर ससम्मान चेंबर में ले जाए गये, जहाँ पूरी मंडली के सामने चाय पेश की गयी। मंडली सक्सेना सर को मिल रहे सम्मान से गद्गद थी।

लोगों ने अपनी समस्या प्रमुख अधिकारी जी के सामने रखी। अधिकारी ने संबंधित लिपिक झुन्नी बाबू को बुलाकर कैफियत ली, फिर सर से बोले, ‘मैं दो-तीन दिन में फोन से खबर दूँगा। आप चिन्ता न करें। हमारे रहते आपको चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है।’

सर खुश खुश लौट आये। उनकी मंडली के पाँव ज़मीन पर नहीं थे। सक्सेना सर का जलवा ही अलग है! काम हुआ ही समझो।

दो-तीन दिन की जगह हफ्ते से ऊपर हो गया, लेकिन दफ्तर से कोई फोन नहीं आया। लोग बेचैन होने लगे। एक बार फिर सक्सेना सर से अनुरोध किया गया। एक बार फिर सक्सेना सर बरात लेकर दफ्तर पहुँचे। एक बार फिर दफ्तर के शिष्य उनके चरणों में झुके, लेकिन इस बार प्रमुख अधिकारी जी बाहर नहीं निकले।

सक्सेना सर उनके चेंबर में घुसे तो वे रूमाल से मुँह पोंछने लगे। झुन्नी बाबू को तलब किया गया। वे आये और मिनमिनाते हुए साहब को कोई दिक्कत बताते रहे, जो मंडली की समझ में नहीं आयी। साहब सक्सेना सर से मुखातिब हुए,बोले, ‘आप फिकर न करें। मैं दो-तीन दिन में पक्का देख लूँगा। अभी कुछ बिज़ी हो गया था। मैं फोन करूँगा। आप निश्चिंत रहें।’

बरात फिर लौट आयी। फिर आठ दस दिन गुज़र गये, लेकिन उस तरफ सन्नाटा ही रहा। कोई फोन नहीं आया। कॉलोनी वाले फिर छटपटाने लगे। एक दो लोग कहीं से झुन्नी बाबू का फोन नंबर ले आये। डरते डरते फोन लगाया। झिझकते हुए पूछा, ‘झुन्नी बाबू, हम लोग सक्सेना सर के साथ आये थे। हमारे लीज़ वाले मामले का क्या हुआ?’

उस तरफ से थोड़ी देर सन्नाटा रहा। फिर झुन्नी बाबू बोले, ‘भैया, काम कराना हो तो सही रास्ते से चलो। सक्सेना सर के साथ आओगे तो उनके सामने मन की बात कैसे होगी? सब लोग पाँव ही छूते रहेंगे, आगे कुछ नहीं होगा। इसलिए जिसका काम है वह आकर बात करे। काम कराना हो तो अब सक्सेना सर को लेकर मत आना।’

तब से कॉलोनी के लोग सक्सेना सर से कन्नी काटते फिर रहे हैं। वे सामने आते दिखते हैं तो लोग दाहिने बायें से निकल जाते हैं। वे तीसरी बार भी उस दफ्तर में जाने को तैयार हैं, लेकिन उन्हें ले जाने वाले ग़ायब हैं। सुना है कि लोग मन की बात करने के लिए अलग-अलग झुन्नी बाबू के पास पहुँचने लगे हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 125 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 125 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 125) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 125 ?

☆☆☆☆☆

तुम कभी मेरे साथ

आसमान तक चलो,

मुझे इस चाँद का

गुरूर तोड़ना है…!

☆☆

Sometime you must come

to the sky with me

I’ve to break the inflated ego

of the arrogant moon…!

☆☆☆☆☆

 ☆☆ ~ Precious as Time… ~ ☆☆ 

हम भी वक्त जैसे ही

 कीमती  हैं,  जनाब…

कदर ना करने वालों को

 दोबारा  नहीं  मिलते..!

☆☆ 

I am also as priceless

 as time, Sire…

Those who don’t value,

 don’t get me again..!

☆☆☆☆☆

इश्क़ में कहाँ कोई

उसूल होता है, जनाब

यार चाहे जैसा भी हो

हमेशा कुबूल होता है…!

☆☆

When has ever been there

any principle in love, Sire

Whatever sweetheart may be,

he is always accepted…!

☆☆☆☆☆

पतंग तो उसी की थी

जिसने चुकाई कीमत,

कटी  तो हक़दार सारा

शहर ही हो गया…!

☆☆

The kite was his only who

paid the price, but when cut,

then the whole city started

claiming its possession…!

 ☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 173 ☆ शेष.. विशेष…अशेष! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 माँ सरस्वती साधना संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी से हम आपको शीघ्र ही अवगत कराएँगे। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 173 शेष.. विशेष…अशेष! ?

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,

तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

संत कबीर का यह दोहा अपने अर्थ में सरल और भावार्थ में असीम विस्तार लिए हुए है। जैसे वृक्ष से झड़ा पत्ता दोबारा डाल पर नहीं लगता, वैसे ही मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती। मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती अर्थात दुर्लभ है। जिसे पाना कठिन हो, स्वाभाविक है कि उसका जतन किया जाए। देह नश्वर है, अत: जतन का तात्पर्य सदुपयोग से है।

ऐसा भी नहीं कि मनुष्य इस सच को जानता नहीं पर जानते-बूझते भी अधिकांश का जीवन पल-पल रीत रहा है, निरर्थक-सा क्षण-क्षण  बीत रहा है।

कोई हमारे निर्रथक समय का बोध करा दे या आत्मबोध उत्पन्न हो जाए तो प्राय: हम अतीत का पश्चाताप करने लगते हैं। जीवन में जो समय व्यतीत हो चुका, उसके लिए दुख मनाने लगते हैं। पत्थर की लकीर तो यह है कि जब हम अतीत का पश्चाताप कर रहे होते हैं, उसी समय   तात्कालिक वर्तमान अतीत हो रहा होता है।

अतीतजीवी भूतकाल से बाहर नहीं आ पाता, वर्तमान तक आ नहीं पाता, भविष्य में पहुँचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अपनी एक कविता स्मरण हो आ रही है,

हमेशा वर्तमान में जिया,

इसलिए अतीत से लड़ पाया,

तुम जीते रहे अतीत में,

खोया वर्तमान,

हारा अतीत

और भविष्य तो

तुमसे नितांत अपरिचित है,

क्योंकि भविष्य के खाते में

केवल वर्तमान तक पहुँचे

लोगों की नाम दर्ज़ होते हैं..!

अपने आप से दुखी एक अतीतजीवी के मन में बार-बार आत्महत्या का विचार आने लगा था। अपनी समस्या लेकर वह महर्षि रमण के पास पहुँचा। आश्रम में आनेवाले अतिथियों के लिए पत्तल बनाने में महर्षि और उनके शिष्य व्यस्त थे। पत्तल बनाते-बनाते  महर्षि रमण ने उस व्यक्ति की समस्या सुनी और चुपचाप पत्तल बनाते रहे। उत्तर की प्रतीक्षा करते-करते व्यक्ति खीझ गया। मनुष्य की विशेषता है  जिन प्रश्नों का उत्तर स्वयं वर्षों नहीं खोज पाता, किसी अन्य से उनका उत्तर क्षण भर में पाने की अपेक्षा करता है।

वह  चिढ़कर महर्षि से बोला, ‘आप पत्तल बनाने में मग्न हैं।  एक बार इन पर भोजन परोस दिया गया, उसके बाद तो इन्हें फेंक ही दिया जाएगा न। फिर क्यों इन्हें इतनी बारीकी से बना रहे हैं, क्यों इसके लिए इतना समय दे रहे हैं?’

महर्षि मुस्कराकर शांत भाव से बोले, ‘यह सत्य है कि पत्तल उपयोग के बाद नष्ट हो जाएगी। मर्त्यलोक में नश्वरता अवश्यंभावी है तथापि मृत्यु से पहले जन्म का सदुपयोग करना ही जीवात्मा का लक्ष्य होना चाहिए। सदुपयोग क्षण-क्षण का। अतीत बीत चुका, भविष्य आया नहीं। वर्तमान को जीने से ही जीवन को जिया जा सकता है, जन्म को सार्थक किया जा सकता है, दुर्लभ मनुज जन्म को भवसागर पार करने का माध्यम बनाया जा सकता है। इसका एक ही तरीका है, हर पल जियो, हर पल वर्तमान जियो।’

स्मरण रहे, व्यतीत हो गया, सो अतीत हो गया। अब जो शेष है, वही विशेष है। विशेष पर ध्यान दिया जाए, जीवन को सार्थक जिया जाए तो देह के जाने के बाद भी मनुष्य रहता अशेष है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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