हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 125☆ गीत – कर भलाई जिंदगी में ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 125 ☆

☆ गीत – कर भलाई जिंदगी में ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

कर भलाई जिंदगी में

क्या पता दिन-रात का है।।

 

जो समय के साथ चलते

लक्ष्य तो मिलता सदा है

भाग्य का पुरुषार्थ से ही

कर्मफल करना अदा है

 

ध्वंस से खुद दूर रहना

खेल अब शह – मात का है।।

 

झुक रही है डाल फल से

नम्रता यह पेड़ की है

सृष्टि भी उपकार करती

दृष्टि सीधी भेड़ की है

 

है वही संबंध अपना

पेड़ से जो पात का है।।

 

तुम सरल इतने न बनना

शत्रु यदि देता चुनौती

हर तरह प्रतिरोध करना

किंतु मत करना मनौती

 

भेद मत कर आदमी से

प्रश्न इस हालात का है।।

 

तुम परखकर पाँव रखना

मुश्किलों से डर न जाना

धैर्य का आकाश बनकर

मुस्कराना पार पाना

 

पक्ष रख विश्वास बनकर

साथ अब बरसात का है।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #124 – अष्टविनायक…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 124 – अष्टविनायक…! ☆

🕉️

मोरगावी मोरेश्वर

होई यात्रेस आरंभ

अष्ट विनायक यात्रा

कृपा प्रसाद प्रारंभ….!

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गजमुख सिद्धटेक

सोंड उजवी शोभते

हिरे जडीत स्वयंभू

मूर्ती अंतरी ठसते….!

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बल्लाळेश्वराची मूर्ती

पाली गावचे भूषण

हिरे जडीत नेत्रांनी

करी भक्तांचे रक्षण….!

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महाडचा विनायक

आहे दैवत कडक

सोंड उजवी तयाची

पाहू यात एकटक….!

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थेऊरचा चिंतामणी

लाभे सौख्य समाधान

जणू चिरेबंदी वाडा

देई आशीर्वादी वाण…!

🕉️

लेण्याद्रीचा गणपती

जणू निसर्ग कोंदण

रुप विलोभनीय ते

भक्ती भावाचे गोंदण….!

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ओझरचा विघ्नेश्वर

नदिकाठी देवालय

नवसाला पावणारा

देई भक्तांना अभय….!

🕉️

महागणपती ख्याती

त्याचा अपार लौकिक

रांजणगावात वसे

मुर्ती तेज अलौकिक….!

🕉️

अष्टविनायक असे

करी संकटांना दूर

अंतरात निनादतो

मोरयाचा एक सूर….!

🕉️

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ चित्रातून कशीबशी बाहेर आली मोनालिसा?  ☆ सुश्री निलिमा ताटके ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? चित्रातून कशीबशी बाहेर आली मोनालिसा? ? ☆ सुश्री निलिमा ताटके ☆ 

चित्रातून कशीबशी बाहेर आली मोनालिसा.

लपून, हळूच घेते आजूबाजूचा कानोसा.

फार कंटाळली होती, एके ठिकाणी बसून.

जाम वैतागली होती खोटं खोटं हसून.

कडक चहा हवा बुआ ! हा आळस घालवायला.

चहाबरोबर चालेल मला काही तोंडांत टाकायला.

करा तयारी चहा-नाश्त्याची, मी पटकन् अंघोळ करुन येते.

फ्रेश फ्रेश होते, नि पुन्हा प्रसन्नशी हसते.

माझे हसू, लोकं होतील परत फिदा.

जगा वेड लावीन मी नव्याने पुन्हा.

छायाचित्र  – सुश्री निलिमा ताटके.

© निलिमा ताटके

23.8.2022.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#148 ☆ नवगीत – लगा चोंच में खून… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय नवगीत “लगा चोंच में खून…”)

☆  तन्मय साहित्य # 148 ☆

☆ नवगीत – लगा चोंच में खून… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

वृक्षों की फुनगी पर बैठे झूम रहे हैं

वे कलियों को निर्ममता से चूम रहे हैं।

 

लगा चोंच में खून

इसे अब कैसे पोंछें

सौ-सौ बल माथे पर

मिले न हल जो सोचें,

रक्त सने जो दाग

बता कुंकूम रहे हैं

वे कलियों को …..

 

बाहर से गंभीर

सशंकित हैं भीतर में

जाल बिछा दे कब कोई

है इसके डर में,

बदल बदल कर

डाल-डाल अब घूम रहे हैं

वे कलियों को …..

 

झुरमुट के उस पार

उपजते प्रश्न रोज हैं

मची जंग अर्थों पर

सँग में महाभोज है,

बौने शब्द नपुंसक हल

बस गूँज रहे हैं

वे कलियों को …..

 

बहे हवा की धाराएँ

भी अजब गजब है

है अनंत विस्तार

अलक्षित सा जो नभ है,

अर्थशास्त्र में अपने

कल को ढूँढ रहे हैं

वे कलियों को निर्ममता

से चूम रहे हैं।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 36 ☆ कविता – बहना की पाती… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता  “बहना की पाती… ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 36 ✒️

? कविता – बहना की पाती… — डॉ. सलमा जमाल ?

सावन बरसा है आंगन में,

आंसू लहराए नैनन में,

सोच रही हूं मैं मन में,

कौन प्रतिबिंबित उर दर्पण में।

यह कैसा परिवर्तन है,

चारों ओर शांति अकंपन है,

मैंने यह नेह पत्र भेजा है,

मन के भावों को सहेजा है।।

 

भाई का दीप्त तो हो यश मयंक,

जग में चमके बन शत् मयंक,

जीवन तेरा बीते निशंक,

मैं चाहे पाऊं कलंक।

यौवन में छलके पौरुष बल,

होगा मेरे जीवन का संबल,

मेरे भाग्य नहीं लिखा सुखभोग,

जीवन मेरा है त्याग योग।।

 

बहना ना मांगती ऐश्वर्य धन,

मुझे ना चाहिए राजभवन,

धन और सेवा में नहीं मेल,

यह सब है भाग्य का खेल।

ससुराल मेरे लिए है जेल,

मेरा जीवन कोल्हू का बैल,

यह दहेज पीड़ित की गाथा है,

जीवन में दुख और निराशा है।।

 

सब अपने में रहते हैं खोए,

पति के पाप कौन धोए,

व्देष – दम्भ – छल – घात लिए,

मद – मोह – लोभ – स्वार्थ लिए।

भोगवादी ना कहलाते महान,

लेने को बैठे हैं मेरे प्राण,

विवाह नारी का दृढ़ बंधन है,

पति धूल माथ का चंदन है।।

 

राखी के पैसे नहीं पास,

केवल है दुखी जीवन निराश,

यह कैसी कठिन परीक्षा है,

यह आंसू बहन की दीक्षा है।

गर पाती सुखों की सेज यहां,

कर देती तुम्हें भेंट जहां,

साड़ी का टुकड़ा साक्षी है,

तेरी बहना की यह राखी है।।

 

करती पाती बंद इसी क्षण।

आ रहे हैं शायद पति परमेश्वर।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 46 – मनमौजी लाल की कहानी – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक मज़ेदार कथा श्रंखला  “मनमौजी लाल की कहानी…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 46 – मनमौजी लाल की कहानी – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

(प्रशिक्षण की श्रंखला बंद नहीं हुई है पर आज से ये नई श्रंखला प्रस्तुत है,आशा है स्वागत करेंगे.पात्र मनमौजी लाल की कहानी “आत्मलोचन” से अलग है और ज्यादा लंबी भी नहीं है.)

मनमौजी लाल बड़े प्रतिभावान छात्र थे, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे. कुछ तो सच है और कुछ उनकी जन्मकुंडली भी कहती है. लगता है कि विद्या के कुंडली वाले घर में सरस्वती खुद विराजमान हो गई हैं. स्कूल में खेल का पीरियड उन्हें बिल्कुल भी अपनी ओर याने क्लास के बाहर नहीं खींच पाता था. आगे चलकर भी उन्हें वही खेल भाया जिसे शतरंज कहते हैं. कुर्सी पर बैठे बैठे, टेबल पर रखे चेस़ बोर्ड में शतरंजी चालों की बाजी का युद्ध. उनका बचपन वैसे तो “आत्मलोचन” जी के समान ही गरीबी की बाउंड्री लाईन पार नहीं कर पाया पर उनमें आत्म लोचन जी के समान,टीएमटी सरिया जैसे मजबूत इरादों की कमी थी. मन की मौज़ के अनुसार ही आचरण किया करते थे और फिलहाल उनका मन पढ़ाई में ही लगता था. मनमौजी का घर, गरीबी का शोरूम ही था. चंद लकड़ी की कुर्सियां, एक टेबल सामने के कमरे में, बीच के कमरे में दिन में खड़ी और रात को सोने के हिसाब से बिछी दो खाट. अंतिम कमरे में रसोई जहाँ बनाने और भूतल पर बैठकर भोजन करने की व्यवस्था. घर के पीछे आंगन, जिसमें बीच में तुलसी का पोधा जिसे मिट्टी के तंदूर आकार के स्टेंड के ऊपर रखा गया ताकि सुबह पूजा के वक्त जल चढ़ाया जा सके और शाम को तुलसी के नीचे तेल का दीपक रखा जा सके. इस घर में धर्म, ईश्वर पर विश्वास, हर पर्व को अपने सीमित साधनों से किफायती रूप से मनाने की रीति, मन जी की माताजी का स्वभाव था.  घर में सुंदर कांड का पाठ शनिवार और मंगलवार को होता था, गायत्री मंत्र रोज पूजा के समय पढ़ा जाता था, आरती सुबह और शाम दोनों समय की होती जिसमें शाम को “मन” भी रहते. दही हांडी, गनपति उत्सव और नवरात्रि सामाजिक पर्व थे जिनको मनाने की लागत बहुत कम थी पर आनंदित होने का प्रभाव बहुत ज्यादा. तो स्वाभाविक रूप से मां,पिताजी और इकलौते पुत्र मन, नियमित रूप से हिस्सा लेते.

अब बात चंद लकड़ी की कुर्सियों की तो कभी वो काम आतीं आगंतुकों की मेहमाननवाजी के लिये तो कभी मन जी के पढ़ने के लिये. ये दोनों सुविधाएं आपस में कभी कभी एक दूसरे की सीमा रेखा को क्रास कर जातीं जब पढ़ने के समय मिलने वाले आ जाते. यह स्थिति मन को अपनी स्टडी करने के लिए, न केवल सोने के लिये उपयोग में आने वाले कमरे की ओर जाना पड़ता बल्कि पढ़ाई में व्यवधान भी उत्पन्न होता।आने वालों के लिये जल और कम दूध की चाय अवश्य पेश की जाती और उनके जाने के बाद फिर से मनमौजी कुर्सी टेबल पर अधिकार प्राप्त करते. एकाग्रता तो भंग होती ही थी पर निदान नहीं था या था भी तो जगह और पैसे दोनों की डिमांड करता था. पर मनमौजी की असुविधा, उनके पिताजी बहुत शिद्दत से महसूस करते थे तो उन्होंने उस हिसाब अपनी कमाई की छोटी चादर में भी बचत की शुरुआत कर दी. चूंकि बचत का उद्देश्य बहुत नेक था और संकल्प भी मज़बूत तो, मनोकामना पूर्ण हुई और पहली बार घर में पुत्र जन्म के बाद दूसरी खुशी के रूप में आया लकड़ी का टू सीटर सोफासेट।उस कमरे में इतनी जगह तो थी कि घर के इकलौते चिराग और आगंतुकों का ख्याल कर सके तो उस कमरे में दोनों ही समा गये. वर्तमान शब्दावली इसे ड्राईंग कम स्टडी रूम के रूप में परिभाषित कर सकती है. आज तो लॉन, कैज़ुअल सिटिंग, ड्राइंगरूम, लिविंग रूम, स्टडी, किचन, स्टोर, डाइनिंग रूम, और दो, तीन, चार बेडरूम विथ अटैच WC की हाउसिंग लोन से खरीदी संपन्नता है पर कभी ऐसा समय भी था जब अभाव पर संतुष्टि प्रभावी थी. तब गरीबी हटाओ, शाइनिंग इंडिया,अच्छे दिन, सबका विकास जैसे सपने बेचे नहीं जाते थे और नागरिक भी अपने अभावों के लिये अपने भाग्य को जिम्मेदार मानकर चुपचाप वोट देकर अपने काम में लग जाते थे. एक तो उनमें अपनी असुविधाओं को, दूसरे की लक्जरी से तौलने की आदत नहीं थी, दूसरा ऐसे लोग अपने जैसों के बीच में ही रहते हैं तो सामाजिकता, वक्त पर एक दूसरे की सहायता करना, उमर के हिसाब से सम्मान या स्नेह और अपनापन देना जैसी कमजोरियों के कारण ईर्ष्यालु होना, आइसोलेशन में रहना, सोशल स्टेटस और झूठी शान को मेनटेन करने जैसे गुणों से संपन्न नहीं हो पाते.

 क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनीक्रमांक २६- भाग ३ – पूर्व पश्चिमेचा सेतू – इस्तंबूल ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २६ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ पूर्व पश्चिमेचा सेतू– इस्तंबूल ✈️

हैदरपाशा इथून रात्रीच्या रेल्वेने आम्ही सकाळी डेन्झीले स्टेशनवर उतरलो. इथून पामुक्कले इथे जायचे होते. फॉल सीझन सुरू झाला होता. रस्त्याकडेची झाडं सूर्यप्रकाशात सोनेरी किरमिजी रंगात झळाळून उठली होती तर काही झाडं चांदीच्या छोट्या, नाजूक घंटांचे घोस अंगभर लेवून उभी होती. दसऱ्याचं सीमोल्लंघन काल युरोप खंडातून आशिया खंडात झालं होतं. आज हे चांदी सोनं डोळ्यांनी लुटत चाललो होतो.

तुर्की  भाषेमध्ये पामुक्कले म्हणजे कापसाचा किल्ला! हजारो वर्षांपूर्वी झालेल्या ज्वालामुखीच्या उद्रेकामुळे तिथल्या डोंगरातून अजूनही गरम पाण्याचे झरे वाहतात. त्यातील कॅल्शियमचे थरांवर थर साठले. त्यामुळे हे डोंगर छोट्या- छोट्या अर्धगोल उतरत्या घड्यांचे, पांढरे शुभ्र कापसाच्या ढिगासारखे वाटतात. तिथल्या गरम पाण्याच्या झऱ्यात पाय बुडवून बसायला मजा वाटली.

जवळच एरोपोलीस नावाचे रोमन लोकांनी वसविलेले शहर आहे. भूकंपामुळे उध्वस्त झालेल्या या शहरातील डोंगरउतारावरचे, दगडी, भक्कम पायऱ्यांचे, एका वेळी बारा हजार माणसं बसू शकतील असे अर्धगोलाकार ॲंफी थिएटर मात्र सुस्थितीत आहे.

इफेसुस या भूमध्य समुद्राकाठच्या प्राचीन शहरात,  संगमरवरी फरशांच्या राजरस्त्याच्या कडेला जुनी घरे, चर्च, कारंजी, पुतळे आहेत. निकी  देवीचा सुरेख पुतळा सुस्थितीत आहे.  दुमजली लायब्ररीच्या प्रवेशद्वाराचे संगमरवरी खांब भक्कम आहेत. खांबांमध्ये संगमरवरी पुतळे कोरले आहेत. त्याकाळी १२००० पुस्तके असलेल्या त्या भव्य लायब्ररीची आणि त्या काळच्या प्रगत, सुसंस्कृत समाजाची आपण कल्पना करू शकतो.

कॅपॅडोकिया इथे जाताना वाटेत कोन्या इथे थांबलो. कोन्या ही सूफी संतांची भूमी! ‘रूमी’ या कलंदर कवीच्या कवितांचा, गूढ तत्त्वज्ञानाचा फार मोठा प्रभाव फारसी, उर्दू व तुर्की साहित्यावर झाला आहे. या रुमी कवीचा मृत्यू साधारण साडेसातशे वर्षांपूर्वी कोन्या इथे झाला. त्याची कबर व म्युझियम  पाहिले.या मेवलवी परंपरेचे वैशिष्ट्य म्हणजे त्याचे उपासक घोळदार पांढराशुभ्र वेश करून स्वतःभोवती गिरक्या घेत, नृत्य करीत सूफी संतांच्या कवनांचे गायन करतात. रात्री हा व्हर्लिंग दरवेशचा नृत्य प्रकार पाहिला. शब्द कळत नव्हते तरी त्या गायन वादनातील लय व आर्तता कळत होती.

आज बलून राईडसाठी जायचे होते.एजिअस आणि हसन या दोन मोठ्या डोंगरांमध्ये पसरलेल्या खडकाळ पठाराला ‘गोरेमी व्हॅली’ असे म्हणतात. तिथल्या मोकळ्या जागेत जमिनीवर आडव्या लोळा- गोळा होऊन पडलेल्या बलूनमध्ये जनरेटर्सच्या सहाय्याने पंखे लावून हवा भरण्याचं काम चाललं होतं. हळूहळू बलूनमध्ये जीव आला. ते पूर्ण फुलल्यावर गॅसच्या गरम ज्वालांनी त्यातली हवा हलकी करण्यात आली. त्याला जोडलेली वेताची लांबट चौकोनी, मजबूत टोपली चार फूट उंचीची होती. कसरत करून चढत आम्ही वीस प्रवासी त्या टोपलीत जाऊन उभे राहीलो. टोपलीच्या मधल्या छोट्या चौकोनात गॅसचे चार सिलेंडर ठेवले होते. त्यामध्ये उभे राहून एक ऑपरेटर त्या गॅसच्या ज्वाला बलूनमध्ये सोडत होता. वॉकीटॉकीवरून त्याचा नियंत्रण केंद्राशी संपर्क चालू होता. बलूनमधली हवा हलकी झाली आणि आमच्यासकट त्या वेताच्या टोपलीने जमीन सोडली. अधून मधून गॅसच्या ज्वाला सोडून ऑपरेटर बलूनमधली हवा गरम व हलकी ठेवत होता. वाऱ्याच्या सहाय्याने बलून आकाशात तरंगत फिरू लागलं. आमच्या आजूबाजूला अशीच दहा-बारा बलून्स तरंगत होती. सूर्य नुकताच वर आला होता. खाली पाहिलं तर  पांढरे- गोरे डोंगर वेगवेगळे आकार धारण करून उभे होते. हजारो वर्षांपूर्वी ज्वालामुखीतून बाहेर पडलेल्या राखेच्या थरांच्या या डोंगरांनी वर्षानुवर्ष ऊन पाऊस सहन केले. ते डोंगर वरून बघताना शुभ्र लाटांचे थबकलेले थर असावे असं विलोभनीय दृश्य दिसत होतं.  काही ठिकाणी डोंगरांच्या सपाटीवर फळझाडांची शेती दिसत होती. बगळ्यांची रांग, डोंगरात घरटी करून राहणाऱ्या कबुतरांचे भिरभिरणारे थवे  खाली वाकून पहावे लागत होते. बलून जवळ-जवळ५०० फूट उंचीवर तरंगत होते. हवेतला थंडावा वाढत होता. मध्येच बलून खाली येई तेंव्हा खालचं दृश्य जवळून बघायला मिळंत होतं. अगदी तासभर हा सदेह तरंगण्याचा अनुभव घेतला.  आता वाऱ्याची दिशा बघून आमचं आकाशयान उतरवलं जात होतं. जवळ एक ओपन कॅरिअर असलेली मोटार गाडी येऊन थांबली. तिथल्या मदतनीसांच्या सहाय्याने ती लांबट चौकोनी टोपली गाडीच्या मोकळ्या कॅरिअरवर टेकविण्यात आली. हवा काढलेले बलून लोळा गोळा झाल्यावर कडेला आडवे पाडण्यात आले. पुन्हा कसरत करून उतरण्याचा कार्यक्रम झाला आणि सर्वांनी धाव घेतली ती भोवतालच्या द्राक्षांच्या झुडूपांकडे! काळीभोर रसाळ थंडं द्राक्षं स्वतःच्या हातांनी तोडून अगदी ‘आपला हात जगन्नाथ’ पद्धतीने खाण्यातली मजा औरच होती. काही द्राक्षांच्या उन्हाने सुकून चविष्ट मनुका तयार झाल्या होत्या. त्या तर अप्रतिम होत्या.

इस्तंबूल भाग ३ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 48 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है   “मनोज के दोहे…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 48 – मनोज के दोहे …. 

कण-पराग के चुन रहे,भ्रमर कर रहे गान।

कली झूमतीं दिख रही, प्रकृति करे अभिमान।।

 

नयनों में काजल लगा, देख रही सुकुमार।

चितवन गोरा रंग ले, लगे मोहनी नार।।

 

खोली प्रेम किताब की, सभी हो गए धन्य।

नेह सरोवर डूब कर, फिर बरसें पर्जन्य।।

 

तन पर पड़ी फुहार जब, वर्षा का संकेत।

सावन की बरसात में, कजरी का समवेत।।

 

गौरैया दिखती नहीं, राह गईं हैं भूल।

घर-आँगन सूने पड़े, हर मन चुभते शूल।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 119 – श्रीमदभगवदगीता – हिन्दी पद्यानुवाद – पद्य अनुवादक – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध “☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध “ जी के काव्य-संग्रह श्रीमदभगवदगीता – हिन्दी पद्यानुवादकी समीक्षा।

कृति –  श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद

पद्य अनुवादक – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध “

मूल्य – ४५० रु, पृष्ठ – २५४

पुस्तक प्राप्ति हेतु पता – ए २३३, ओल्ड मीनाल, भोपाल, ४६२०२३

☆ श्रीमदभगवदगीता – हिन्दी पद्यानुवाद– पद्य अनुवादक – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

दुख के महासागर मे जो मन डूब गया हो

अवसाद की लहरो मे उलझ ऊब गया हो

तब भूल भुलैया मे सही राह दिखाने

कर्तव्य के सत्कर्म से सुख शांति दिलाने

पावन पवित्र भावो का संधान है गीता

है धर्म का क्या मर्म, कब क्या करना  सही है

जीवन मे व्यक्ति क्या करे गीता मे यही है

पर जग के वे व्यवहार जो जाते न सहे है

हर काल हर मनुष्य को बस छलते रहे है

आध्यात्मिक उत्थान का विज्ञान है गीता

करती हर एक भक्त का कल्याण है गीता

श्रीमदभगवदगीता एक सार्वकालिक  वैश्विक ग्रंथ है. इसमें जीवन के मैनेजमेंट की गूढ़ शिक्षा है. धीरे धीरे संस्कृत जानने समझने वाले कम होते जा रहे हैं. किन्तु गीता में सबकी रुचि सदैव बनी रहेगी, अतः संस्कृत न समझने वाले हिन्दी पाठको को गीता का वही ज्ञान और काव्यगत आनन्द यथावत मिल सके इस उद्देश्य से संस्कृत मर्मज्ञ, शिक्षाविद, आध्यात्मिक तथा राष्ट्रीय भावधारा के कवि प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव  “विदग्ध” ने मूल संस्कृत श्लोक, फिर उनके द्वारा किये गये काव्य अनुवाद तथा शलोकशः भावार्थ को बढ़िया कागज व अच्छी प्रिंटिंग के साथ यह बहुमूल्य कृति प्रस्तुत की है. अनेक शालेय व विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमो में गीता के अध्ययन को शामिल किया गया है, उन छात्रो के लिये यह कृति बहुउपयोगी बन पड़ी है. स्वयं हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी ने अनेक राष्ट्राध्यक्षो को भेंट में भगवत गीता की प्रतियां भेंट में दी हैं. भगवत गीता की विशद टीकायें, अनेकानेक भाषाओ में अनुवाद के साथ ही कई रचनाकारों ने हिन्दी में भी इसके अनुवाद किये हैं. गीता के अध्येता भविष्य में भी ऐसा करते रहेंगे, क्योंकि गीता का मनोयोग से अध्ययन हृदय को स्पंदित करता है. प्रेरणा देता है. राह दिखाता है. 

भगवान कृष्ण ने द्वापर युग के समापन तथा कलियुग आगमन के पूर्व (आज से पांच हजार वर्ष पूर्व) कुरूक्षेत्र के रणांगण मे दिग्भ्रमित अर्जुन को, जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के समस्त संकेत योद्धाओ को मिल चुके थे, गीता के माध्यम से ये अमर संदेश दिये थे. गीता के इन सूत्र श्लोकों के जरिये जीवन के मर्म की व्याख्या की गई है . श्रीमदभगवदगीता का भाष्य वास्तव मे ‘‘महाभारत‘‘ है। गीता को स्पष्टतः समझने के लिये गीता के साथ ही महाभारत को पढना और हृदयंगम करना भी आवश्यक है। महाभारत तो भारतवर्ष का क्या ? मानव  इतिहास है। ऐतिहासिक एवं तत्कालीन घटित घटनाओं के संदर्भ मे झांककर ही श्रीमदभगवदगीता के विविध दार्शनिक-आध्यात्मिक व धार्मिक पक्षो को व्यवस्थित ढ़ंग से समझा जा सकता है।

जहॉ भीषण युद्ध, मारकाट, रक्तपात और चीत्कार का भयानक वातावरण उपस्थित हो वहॉ गीत-संगीत-कला-भाव-अपना-पराया सब कुछ विस्मृत हो जाता है फिर ऐसी विषम परिस्थिति मे ज्ञान चर्चा की कल्पना बडी विसंगति जान पडती है। क्या रूदन में संगीत संभव है?  किंतु यह संभव हुआ है- तभी तो गीता के माहात्म्य में कहा गया है ‘‘गीता सुगीता कर्तव्य‘‘  । अतः संस्कृत मे लिखे गये गीता के श्लोको का पठन-पाठन भारत मे जन्मे प्रत्येक भारतीय के लिये अनिवार्य है। संस्कृत भाषा का जिन्हें ज्ञान नहीं है- उन्हे भी कम से कम गीता और महाभारत ग्रंथ क्या है ? कैसे है ? इनके पढने से जीवन मे क्या लाभ है ? यही जानने और समझने के लिये भावुक हृदय प्रो चित्र भूषण जी ने साहित्यिक श्रम कर कठिन किंतु जीवनोपयोगी संस्कृत भाषा के इन सूत्रो  का पद्यानुवाद किया है, और युगानुकूल सरल करने का प्रयास किया है।

साहित्य मनीषी कविश्रेष्ठ प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव जी, जो न केवल भारतीय साहित्य-शास्त्रो धर्मग्रंथो के अध्येता हैं बल्कि एक कुशल प्रवक्ता भी हैं, वे स्वभाव से कोमल भावो के भावुक कवि भी है। निरंतर साहित्य अनुशीलन की प्रवृत्ति के कारण विभिन्न संस्कृत कवियो की साहित्य रचनाओ पर हिंदी पद्यानुवाद भी आपने प्रस्तुत किया है. महाकवि कालिदास कृत ‘‘मेघदूतम्‘‘ व रघुवंशम् काव्य का आपका पद्यानुवाद दृष्टव्य, पठनीय व मनन योग्य है।गीता के विभिन्न पक्षों जिन्हे योग कहा गया है जैसे विषाद योग जब विषाद स्वगत होता है तो यह जीव के संताप में वृद्धि ही करता है और उसके हृदय मे अशांति की सृष्टि का निर्माण करता है जिससे जीवन मे आकुलता, व्याकुलता और भयाकुलता उत्पन्न होती हैं परंतु जब जीव अपने विषाद को परमात्मा के समक्ष प्रकट कर विषाद को ईश्वर से जोडता है तो वह विषाद योग बनकर योग की सृष्टि श्रृखंला का निर्माण करता है. और इस प्रकार ध्यान योग, ज्ञान योग, कर्म योग, भक्तियोग, उपासना योग, ज्ञानयोग,  कर्मयोग,   विभूति योग, विश्वरूप दर्शन विराट योग, सन्यास योग, विज्ञान योग, शरणागत योग, आदि मार्गो से होता हुआ मोक्ष योग प्रशस्त होता है. प्रकारातंर से  विषाद योग से प्रसाद योग तक यात्रा संपन्न होती है।

इसी दृष्टि से गीता का स्वाध्याय हम सबके लिये चरित्र निर्माण, किंकर्तव्यविमूढ़ पलों में जीवन की राह ढूंढने में उपयोगी हैं. अनुवाद में प्रायः दोहे को छंद के रूप में प्रयोग किया गया है. कुछ अनूदित अंश इस तरह हैं..

पहला ही श्लोक है

धर्म क्षेत्रे कुरूक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय

शब्दशः अनुवाद किया गया है

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध हेतु तैयार

मेरों का पाण्डवों से संजय क्या व्यवहार

पहले ही अध्याय के २० वें श्लोक में आत्मा की अमरता इस तरह प्रतिपादित की गई है. . .

आत्मा शाश्वत अज अमर, इसका नहीं अवसान

मरता मात्र शरीर है, हो इतना अवधान

भावार्थ भी नीचे दिया गया है…

आत्मा न तो किसी काल में जन्म लेती है, और न ही मरती है. आत्मा अजन्मी नित्य, सनातन, और पुरातन है. शरीर के मारे जाने पर यह नहीं मरती.

एक चर्चित श्लोक है…

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहृणाति नरोपराणी

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्ययानि संयाति नवानि देहि

पदयानुवाद किया गया है…

जीर्ण वसन ज्यों त्याग नर, करता नये स्वीकार

त्यों ही आत्मा त्याग तन, नव गहती हर बार

अध्याय ५ कर्म सन्यास योग है जिसके ८वें और ९वें श्लोक का भावानुवाद है…

स्वयं इंद्रियां कर्मरत, करता यह अनुमान

चलते, सुनते, देखते ऐसा करता भान।।8।।

सोते, हँसते, बोलते, करते कुछ भी काम

भिन्न मानता इंद्रियाँ भिन्न आत्मा राम।।9।।

इसी अध्याय का २९वां श्लोक है

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥

 

हितकारी संसार का, तप यज्ञों का प्राण

जो मुझको भजते सदा, सच उनका कल्याण।।29।।

अध्याय ९ से..

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।

मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥

मै ही कृति हूँ यज्ञ हूँ, स्वधा, मंत्र, घृत अग्नि

औषध भी मैं, हवन मैं, प्रबल जैसे जमदाग्नि।।16।।

इस तरह प्रो श्रीवास्तव ने श्रीमदभगवदगीता के श्लोको का पद्यानुवाद कर हिंदी भाषा के प्रति अपना अनुराग तो व्यक्त किया ही है किंतु इससे भी अधिक सर्व साधारण के लिये गीता के दुरूह श्लोको को सरल कर बोधगम्य बना दिया है. गीता के प्रति गीता प्रेमियों की अभिरूचि का विशेष ध्यान रखा है । गीता के सिद्धांतो को समझने में साधको को इससे बडी सहायता मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। अनुवाद बहुत सुदंर है। शब्द या भावगत कोई विसंगति नहीं है।  गीता के अन्य अनुवाद या व्याख्यायें भी अनेक विद्वानो ने की हैं पर इनमें लेखक स्वयं अपनी संमति समाहित करते मिलते हैं जबकि इस अनुवाद की विशेषता यह है कि प्रो श्रीवास्तव द्वारा ग्रंथ के मूल भावो की पूर्ण रक्षा की गई है।

आखिरी अठारहवें अध्याय के अंतिम श्लोक का अनुवाद है…

जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं तथा धनुर्धर पार्थ

विजय सुनिश्चित वहाँ ही, मेरी मति निस्वार्थ

अंत में यही कहूंगा कि

श्री कृष्ण का संसार को वरदान है गीता

निष्काम कर्म का बडा गुणगान है गीता

तो घर पर गीता को केवल पूजा के स्थान पर अगरबत्ती लगाने के लिये न रखें. उसे पढ़ने की टेबल पर रखें, और ऐसा माहौल बनायें कि बच्चे इसे पढ़ें समझें. आवश्यक हो तो बच्चो के लिये हिन्दी या अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध करवायें.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 136 – लघुकथा ☆ श्री गणेश उन्नयन… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी  बाल मनोविज्ञान और जिज्ञासा पर आधारित लघुकथा “श्री गणेश उन्नयन…”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 136 ☆

☆ लघुकथा  🌿 श्री गणेश उन्नयन… 🙏

नदी किनारे रबर की ट्यूब लिए बैठी माधवी अपने 4 साल के बेटे को समझा रही थी… बेटा अभी जितने भी गणपति आएंगे उन सभी को विसर्जित करना है। तुम यहीं तट पर बैठना कुछ प्रसाद और रुपये मिल जायेगा।

बेटा शिबू मन ही मन सोच रहा था क्या इनमें से एक गणपति को हम अपने घर नहीं ले जा सकते क्या?  

झोपड़ी में रहने वाले क्या गणेश जी नहीं बिठा सकते? आखिर ये विसर्जन के लिए ही तो आए हैं, क्या हमारे यहां बप्पा बाकी दिनों में नहीं रह सकते?

मन में उठे सवालों को लेकर दौड़ कर अपने आई (माँ)  के पास गया और बहुत ही भोलेपन से कहा… “आई, इसमें से जो सबसे सुंदर गणपति बप्पा होंगे उसे आप नदी में नहीं भेजना। हम अपने साथ घर ले जाएंगे और पूजा करेंगे। जैसे बप्पा सब को बहुत सारा पैसा देते हैं, हमें कुछ दिनों बाद देंगे परंतु, तुम मुझे एक बप्पा इनमें से लेने देना।“

अचानक तेज बारिश होने लगी गणपति विसर्जन के लिए जितने भी भक्त आए थे। सब किनारे में रखकर घर भागने लगे। किसी ने कहा… “ए बाई! यह पैसे रखो और गहरे में जाकर विसर्जित कर देना।“

हाँ साहब हम ट्यूब में बिठा कर ले जाएंगी और आपके बप्पा को नदी में विसर्जित कर देंगे। उसके मन में उठे सवाल और बेटे की बात! क्या गणपति को हम नहीं ले सकते?

भीड़ कम होने पर रखे गणपति मूर्तियों को देख मां ने कहा… “बेटा, तुम्हें जो गणपति बप्पा चाहिए बताओ।”

बेटे की खुशी का ठिकाना ना रहा बारिश बंद होने पर आगे-आगे शिबू फूटे पीपे को जोर – जोर से बजाते हुए चिल्लाते जा रहा था… “गणपति बप्पा मोरिया, गणपति बप्पा मोरिया”

और माधवी सर पर गणपति जी को उठाए अपने घर की ओर सरपट चल रही थीं। वह नहीं जानती थी कि यह  सही है या नहीं किन्तु, शायद बप्पा को भी उनके साथ जाना अच्छा लग रहा था।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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